रचनाकार के अन्दर धधकती संवेदना को पाठक के पास और पाठक की अनुभूति की गरमी को रचनाकार के पास पहुँचाना आँच का उद्धेश्य है। आँच के इस अंक में लघुकथा विधा पर विचार किया गया है। आँच के इस अंक के लिए लिया गया है- मनोज कुमार की लघुकथा ‘ब्लेसिंग’।
लघुकथा कथा-साहित्य की अर्वाचीनतम विधा है। लघुकथा का साहित्यशास्त्रीय विवेचन कम ही देखने को मिलता है। कहानी विधा के अंगों की तरह इसके भी अंग समान है, यथा कथावस्तु, पात्र, संवाद, संदेश आदि। इसकी कथावस्तु की भी चार अवस्थाएँ होती हैं- प्रारम्भ, विकास, चरमोत्कर्ष और अन्त। सीमित पात्रों की उपस्थिति, उनके चरित्र का मूल्यांकन या चरित्र-चित्रण कहानी की भाँति ही है। संवाद का पैनापन और संदेश की मुखरता आदि बिल्कुल कहानी-साहित्य की तरह ही हैं। तो अब विचारणीय प्रश्न यह है कि कहानी से लघुकथा को अलग कैसे किया जाय अथवा आधुनिकता के नाम का टीका लगाकर इति श्री कर दी जाय।
जहाँ तक साहित्यविदों से बातचीत हुई है और मैंने समझा है, उसके अनुसार कहानी और लघुकथा में केवल अन्तर काल का है, अर्थात् जो अन्तर कहानी और उपन्यास में है, वही अन्तर लघुकथा और कहानी में है। कहानी की अपेक्षा उपन्यास में घटनाओं की बहुलता होती है, और यह मुख्य पात्र के जीवन के आदि से अन्त तक की प्रमुख घटनाओं के तान-बाने से बना होता है। जब कि कहानी में जीवन की एक घटना और उससे जुड़े तारों को उपन्यास की अपेक्षाकृत कम पात्रों के माध्यम से अभीप्सित संदेश दिया जाता है। वैसे ही, लघुकथा में एक क्षणिक घटना के द्वारा कहानी की अपेक्षा काफी कम समय की घटना को पैने और पात्रानुकूल संवाद द्वारा सीमित और उचित पात्रों के माध्यम से संदेश सम्प्रेषित करना होता है।
आँच के इस भाग में इस ब्लाग पर प्रकाशित ‘ब्लेसिंग’ नामक लघुकथा पर समीक्षात्मक चर्चा की गयी है। यदि उपर्युक्त दूसरे अनुच्छेद में वर्णित को लघुकथा के लिए यार्ड स्टिक मान लें तो ‘ब्लेसिंग’ एक आदर्श लघुकथा है। जो कार्यालय में अधिकारी और उसी कार्यालय के मातहत कर्मचारी के बीच 15 मिनट से आधे घंटे के बीच हुई बातचीत के दौरान समाप्त हो जाती है।
‘ब्लेसिंग’ की भाषा बड़ी ही स्वाभाविक और पात्रों के अनुकूल है। हिन्दी और मिश्रित भाषा के संवाद है जैसे कि आजकल कार्यालयों में सुनने को मिलते हैं।
लघुकथा के लिया चुना गया परिवेश कोई बहुत खास नहीं है, बहुत सामान्य है। अधिकारी अपने कार्यलय में बैठे हुए फाइलों को निपटा रहा है। इसी बीच उसका एक अधीनस्थ कर्मचारी उसके कार्यलय में प्रवेश करता है, जिसे देखते ही अधिकारी बोल पड़ता है- ‘क्या बात है? आपके ट्रांसफर के बारे में मुझे कुछ नहीं सुनना है।’ यहीं से कथानक का प्रारंभ होता है। इतना सुनते ही कर्मचारी बताता है कि वह ट्रांसफर के बारे मे बात करने नहीं, बल्कि उनकी कार (खटारा) बीस हजार रूपये में खरीद कर, उसमें अपने पिता को कोलकाता शहर घुमाने के लिए उनकी ब्लेसिंग लेने आया है। यहीं से कथानक विकास की ओर अग्रसर होता है। थोड़ी बातचीत गाड़ी की कंडीशन के बारे में होती है और अन्त में बात पट जाती है। अधिकारी भी समझता है कि कबाड़ी के यहाँ किलो के भाव बिकने वाली केवल शो पीस बनी खटारा गाड़ी के बीस हजार रूपये मिल रहे हैं, बहुत हैं। कर्मचारी वस्तुपरक है। पांच हजार की भी न बिकने वाली गाड़ी की कीमत बीस हजार उसने यों ही नही लगाई है। अन्ततः वह अपने मन्तव्य में सफल होता है, वांछित ब्लेसिंग पाकर। बॉस खुश होकर उससे कहता है कि जाते समय ट्रांसफर वाली फाइल भिजवा दे। यहीं कथानक चरमोत्कर्ष पर भी पहुँचता है और पाठक को चमकृत करता हुआ यहीं अन्त भी हो जाता है।
इसे पढ़कर लगा है कि किसी बड़े ही मजे हुए लघुकथाकार के द्वारा लिखी गयी लघुकथा है। खटारा गाड़ी खरीदकर ट्रांसफर की ब्लेसिंग लेना और गाड़ी बेचकर ट्रांसफर की ब्लेसिंग देना व्यंजित करती ब्लेसिंग्स लघुकथा शब्द-संयम, समय-संयम, घटना-संयम, संवाद-संयम और पात्र-संयम समेटे पाठक को चमत्कृत करने का शॉक देकर आनन्दित करती है। ब्लेसिंग वास्तव में पाठक के लिए भी ब्लेसिंग है।
इस लघुकथा में कथानक का उत्कर्ष और अन्त अंतिम एक वाक्य में होने से एक प्रेरणा मिली, लघुकथा को पुनः परिभाषित करने की और कहानी से अलग करने की कि कथानक के उत्कर्ष और अन्त का एक बिन्दु होना लघुकथा के आवश्यक अंग के रूप में लिया जाय।
- परशुराम राय
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लघुकथा: ब्लेसिंग | मनोज कुमार
“में आई कम-इन सर?”
“यस कम इन।”
“गुड मार्निंग सर।”
“मार्निंग”
“कैन आई सिट सर?”
“ओह यस-यस प्लीज ।..................अरे तुम ? अगर तुम अपने ट्रांसफर की बात करने आए हो, तो सॉरी, तुम जा सकते हो।”
“नहीं सर मैं तो...आपके...........।”
“देखो तुम जब से इस नौकरी में हो, यहीं, इसी मुख्यालय में ही काम करते रहे हो। तुम्हारे कैरियर के भले के लिए तुम्हें अन्य कार्यालय में भी काम करना चाहिए। और गोविन्दपुर में जो हमारा नया ऑफिस खुला है , उसके लिए हमें एक अनुभवी स्टाफ की आवश्यकता थी। हमें तुमसे बेहतर कोई नहीं लगा।”
“सर मैं तो इस विषय पर बात ही नहीं करने आया। मैं तो उसी दिन समझ गया था जिस दिन ट्रांसफर ऑर्डर निकला था – कि आपने जो भी किया है मेरी भलाई के लिए ही किया है। मैं तो कुछ और ही बात करने आया हूँ।”
“ओ.के. देन ... बोलो...............।”
“सर वो,.............थोड़ा लाल बत्ती जला देते । कोई बीच में न आ जाए। ”
“देखो तुम घूम-फिर कर कहीं ट्रांसफर वाली बात तो नहीं करोगे। ”
“नहीं सर। बिल्कुल नहीं। कुछ पर्सनल है सर।”
“क्या?”
“सर मेरे पिता जी काफी बूढ़े हो गए हैं। उनकी इच्छा थी कि मैं एक गाड़ी खरीदूँ और उन्हें उस गाड़ी में इस पूरे महानगर में घुमाऊँ।”
“तो इसमें मैं तुम्हारी क्या मदद कर सकता हूँ ?”
“सर ! बस आपकी ब्लेसिंग चाहिए। आप तो इसी महीने के अन्त में सेवानिवृत होकर चले जाएंगे। सुना है आपके पास एक गाड़ी है।”
“हां है तो। वो 80 मॉडल गाड़ी हमेशा गराज में पड़ी रहती है।”
“सर उसे .....आप ............।”
“अरे बेवकूफ वो तुम्हारे किस काम आएगी। पिछले चार सालों में उसकी झाड़-पोछ भी नहीं की गई है। उसे तो कोई पांच हजार में भी नहीं खरीदेगा। उससे ज़्यादा तो उसे मुझे अपने होमटाउन ले जाने का भाड़ा लग जाएगा। मैं तो उसे यहीं छोड़................।”
“सर मैं खरीदूंगा सर। आप बीस हजार में उसे मुझे बेच दीजिए।”
“पर...................लेकिन .......गराज..........नहीं ...नहीं।”
“सर। प्जीज सर। नई गाड़ी तो मेरी औकात के बाहर है। कम से कम इससे मैं अपने माता-पिता का सपना उनके प्राण-पेखरू उड़ने के पहले पूरा तो कर लूंगा।”
“यू आर टू सेंटिमेंटल टूवार्डस योर पैरेंट्स। आई शुड रिस्पेक्ट इट। ओ.के. ... डन। आज से, नहीं-नहीं अभी से गाड़ी तुम्हारी।”
“थैंक्यू सर।... पर एक प्रॉब्लम है सर।”
“क्या?”
“आपकों तो मालूम है कि मैं गाड़ी चलाना ठीक से नहीं जानता। नया-नया सीखा हूं। अब मेरे घर, माधोपुर से तो इस ऑफिस तक का रास्ता बड़ा ठीक-ठाक है, भीड़-भाड़ भी नहीं रहती, किसी तरह आ जाऊंगा। पर सर आप तो जानते ही हैं कि गोविन्दपुर का रास्ता....................... वहां तो शायद मैं इस कार को नहीं ले जा पाऊँगा।”
“दैट्स ट्रू। ब्लडी दैट एरिया इज भेरी बैड। पूरा रास्ता टूटा-फूटा है। उस पर से भीड़ भाड़, .... यू हैव ए प्वाईंट।...............मिस जुली.......जरा इस्टेब्लिशमेंट के बड़ा बाबू को ट्रांसफर ऑर्डर वाली फाईल के साथ बुलाइए।”
“थैंक्यू सर। गुड डे सर।”
Source:
http://manojiofs.blogspot.com/2010/02/blog-post_11.html
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