लघुकथा: जीने का तरीका
आज सुबह उठते ही अपने बैडरूम के दरवाजे पर पिंक फूलों का बुके और चाकलेट ट्री करीने से रखा हुआ देखकर कुछ पल के लिये तो स्टेच्यू सी बन गई थी मैं .अगले पल ही बखूबी समझ गई कि यह हो ना हो नई बहू का ही प्लान होगा.तभी देखा बेटा महेश और बहू श्रुति किचन की ओर से बेड टी की ट्रे लेकर चले आ रहे हैं.
सुखद आश्चर्य से मैं इतना ही कह पाई - "अरे!इतनी सुबह सुबह उठ गए तुम दोनों..थैंक्यू .. थैंक्यू. चलो अब जाकर सो जाओ। मुझे तो आदत है सुबह ठीक साढ़े छ: बजे निकलकर ही पहुंच पाती हूं स्कूल. फरीदाबाद जाने में पूरे फोर्टी मिनिट्स तो लगते ही हैं बेटा"
पतिदेव से मुखातिब होकर मैं बोली - "चलो जी!आप तो बोरिंग हो. शादी की पच्चीसवीं सालगिरह पर भी मुझसे ही डिनर बनवाया था.आपसे गिफ्ट मिलना तो सपना ही होता है.आज शाम को मधुबन चलेंगे.बच्चों को लेकर जरूर..सुना"
कहते हुए मैं आश्वस्त होना चाहती थी.
"देखेंगे..अब तुम जाने की तैयारी करो नहीं तो लग जाएगा रजिस्टर में तुम्हारा ग्रीन मार्क.."
समीर का वही घिसा पिटा जवाब सुनकर मुस्कुराते हुए मैं अपने काम में लग गई .
स्कूल में तो सारा दिन व्यस्तता में ही बीत गया था. बेहद थकावट महसूस कर रही थी. कितनी विशेज मिलीं आज. श्रुति के आने से घर में बेटी की कमी पूरी हो गई थी. जहां पहले दरवाजे पर लटका ताला मुंह चिढ़ाता था वहीं अब द्वार पर पानी का गिलास लेकर बिटिया (बहू) रोज स्वागत करती है.चलो आज दो बंडल चैक करने हैं बारहवीं प्री बोर्ड के..रोटी तो बनानी नहीं आज..सोचते हुए कार में बैठकर मुझे नींद सी आ गई .घर के गेट पर पहुंचकर जैसे ही कार से उतरी सारे बंगले पर फूलों और बैलून्स की सजावट देखकर असमंजस में पड़ गई थी मैं. कुछ समझ नहीं पा रही थी. सोचा नीचे किराएदार की छोटी बच्ची का बर्थ डे वगैरा कोई फंक्शन होगा. तभी बालकनी से झांकते हुए बेटा बहू मेरे सिर पर गुलाबों और मोंगरों की पंखुड़ियों की बरसात करते हुए चिल्लाए - "हैप्पी हैप्पी हैप्पी एनीवर्सरी. मम्मा! वैलकम. वैलकम."
चित्ताकर्षक रंगोली पर कदम रखवाते हुए श्रुति ने मेरा हाथ पकड़कर मुझे कमरे में प्रविष्ट कराया जहां मह मह महकता हुआ हमारा कमरा किसी फिल्मी कक्ष सा प्यारा सा लग रहा था। कमरे में बिखरे हुए बेतरतीब सामान अब करीने से सजा दिये गए थे.हम दोनों की शादी की एकमात्र ब्लैक एंड व्हाइट फोटो रंगीन विशालकाय फ्रेम में जड़ी हुई सामने की दीवार पर मनमोहक लग रही थी.
"अरे बच्चों!ऑफिस से लौटकर पापा गुस्सा करेंगे ..कितना खर्चा कर दिया ?क्यों परेशान हुए ?"
"डरो मत मम्मा! कुछ नहीं कहेंगे पापा" श्रुति मुझे बांहों में भरकर बोली.
मुझे लगा जैसे सारी कायनात बहू के स्नेहालिंगन का रूप लेकर मेरे जीवन को धन्य कर गई है.
"अच्छा मैं जरा सबको फोन तो कर लूं ? बड़े सारे मैसेज आए हुए हैं मेरे फोन पर. स्कूल में तो एलाउड ही नहीं होता फोन करना."
फोन मेरे हाथ से झटककर श्रुति शरारत से बोली- "नो मम्मा! नो. फोन कहीं नहीं करना. अभी सब आ रहे हैं आपसे मिलने."
"क्या? सच!" मैं खुशी से फूली नहीं समा रही थी.
रात होते होते परिवार के सभी नियर्स और डियर्स घर पर जमा हो गए थे. धूमधाम से विवाह की तीसवीं वर्षगांठ मनाकर बच्चों ने हमारे ह्रदय में एक स्नेहपथ तो बना ही लिया था. परिवार में सभी खुलकर वाह वाही कर रहे थे बच्चों की. जीवन की बिजी दिनचर्या और आपाधापी में हम हमेशा वक्त की कमी का रोना रोते रहते थे या फिर कंजूसी ही समझिये.
सबको विदा करके मैं लेटकर सोच रही थी- "स्नेह की डोर बांधकर बेटी सी बहू ने हमें जीने का तरीका सिखा दिया है."
पड़ोसी के रेडियो पर छाया गीत के मीठे मद्धिम स्वर कानों को सुरीले लग रहे थे-
"यही है वो सांझ और सवेरा.
जिसके लिये तड़पे हम सारा जीवन भर."
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लघुकथा: नजर
आज फिर बड़ी बहू की याद बरबस ही आने लगी थी मुझे .जब भी जरा सज धजकर कहीं निकल जाती और सजीली लाल,काली ड्रेस पहन लेती थी बस मरी नजर उसके पीछे ही पड़ जाती.
मैं भाग-भागकर कान के पीछे डिठोना लगाती तो कभी मुट्ठी में नमक भींचकर सात बार फेरती और कभी सरसों के तेल से भरी रूई की बाती जलाकर टप-टप ढेर टोपे(बूंदें) टपकाकर शीनू (शान्वी) की नजर उतारती.
साक्षात् लक्ष्मी के कदम पड़े थे मेरे आंगन में.
दुनिया भर से कैसे बचाती भला उसे. अब तो परदेसी होकर नजर भी आती है,तो स्काइप पर.झलक ही मिलती है समझो बस.सातवें साल में जाकर बाबा बजरंगबली की मन्नतों के बाद सुपौत्र अभि (अभिनंदन) जन्मा. उसकी शरारतों से अनभिज्ञ सी मैं, ये और छोटा बेटा, बहू साल में कुछेक रोज के लिये उनके पास जाकर अपना लाड़-दुलार और स्नेह लुढ़काकर कर्म की इतिश्री मान लेते हैं,पर नजर का क्या?
परदेसी परिवेश में तो उसे हल्की फुल्की बीमारी मानकर जतन से सुनियोजित व्यापारिक बर्ताव किया जाता है. नजर चढ़ने और उतरने को महज अंधविश्वास का पर्याय मानकर ठुकरा देते हैं.
बात-बात पर मम्मा से नजर उतरवाने वाली शीनू अब सयानी चिकित्सक बन गई थी.
स्वप्न से बाहर उनींदी आंखों को मसला तो महसूस हुआ कि अभी दिन नहीं निकला है. गहरा गई रात में अचानक छोटे बेटे के उठने और रसोई में कुछ खटर-पटर करने पर मेरी नींद खुल गई थी. वैसे भी रात के एक बजे तो घर ही पहुंचे थे. परी से कम नहीं लग रही थी पार्टी में मेरी छुटकी लाड़ली बहू पायल आज. उनकी शादी की पहली वर्षगांठ जो थी आज.
ऊंघते हुए पूछ ही लिया - "बेटा! क्या हुआ?"
- "बस यूं ही ..काॅटन कहां है माॅम?" बेटा महीन स्वर में बोला.
- "भगवान जी के मंदिर में."
- फिर नींद खुली तो देखा-सोती हुई पायल पर तेल डूबी बाती घुमाती हुई एक परछाई हौले-हौले बढ़ते कदमों से रसोई की ओर मुड़ी.
- जलती बाती से चट-चट की तेज आती आवाजें छुटकी बहू को काली नजर लगने का भान करा रही थीं.
मैं भी आश्वस्त होकर अपने बैडरूम में वापस लौटआई थी.यही सोचकर कि चलो, बालक चाहे कहीं भी रहें कम से कम बुरी नजर के शिकार होने से तो बचे रहेंगे.
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डा. अंजु लता सिंह
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