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बुधवार, 16 फ़रवरी 2022

लघुकथा : खामोशी | कुमुद शर्मा "काशवी"

"अरे मालती यूँ रोने से का होगा...जाने वाला तो चला गया,चार चार बच्चे है तेरे पीछे...बिटिया ने भी इंटर कर लिया ब्याहने लायक तो हो ही गई है,परिवार के साथ हो ले सहारा होगा"

"अरे भाई दिनकर अब इनके परिवार को तुम्हें ही सँभालना होगा चाचा हो इनके"

         "आप क्या बोल रहे हो जी हमारा परिवार भी ढंग से ना पलता हम कैसे... कोशिश करेंगे क्यूँ भाभी अपने जेवर वगैरह तो रखे रखी हो ना"

"भाई रामलाल तुम्हीं देखो अब तुम परिवार के बड़े हो"

       "हाँ मैं भी तो तब कुछ करूँ ना जब ये लोग ये घर बेच के गाँव चलने को राजी हो"

"अरे कोई चाय लाएगा....खाने में क्या क्या बन रहा है"

पूरे घर में पसरी खामोशी में रिया के कानों में बस यही बातें गूँज रही थी..."आज सब अपना मतलब साधने आए है पूरे साल भर से बीमार बाबा का किसी ने एक दिन हाल न पूछा "बूत बनी बैठी रिया बुदबुदाई

    मोबाइल की घंटी बजी .... "आप चाहे तो कल से नौकरी ज्वाइन कर सकती है वरना कैंडिडेट और भी बहुत है....आकर पेपर वर्क कन्फर्म कर ले"

     "माँ मैं आती हूँ.......मुझे नौकरी मिल गई है" अपनी खामोशी तोड़ रिया ने मालती जी से कहा...मालती जी की खामोशी ने भी रिया को सहमति दे दी थी।

        "इसे देखो पिता की मौत पे दो आँसू ना निकले...चिता की आग भी ठण्डी ना हुई और इन्हें  बाहर जाना है"

      जिन रास्तों से कल पिता की अर्थी निकली थी....आज उसी घर से बेटी को कर्तव्य पथ पर निकलते देख सबकी जुबान पर खामोशी भरा सन्नाटा था !

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- कुमुद शर्मा "काशवी"
गुवाहाटी, असम
संपर्क सूत्र-
मोबाइल न.8471892167
इमेल- Kumud976@gmail.com