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शुक्रवार, 28 जनवरी 2022

कीर्तिशेष मधुदीप जी पर आधारित कुछ चुनिन्दा पोस्ट्स (लघुकथा दुनिया ब्लॉग में)



लघुकथाकार परिचय: श्री मधुदीप गुप्ता और उनकी एक रचना पर मेरी प्रतिक्रिया | डॉ. चंद्रेश कुमार छ्तलानी

https://laghukathaduniya.blogspot.com/2019/06/blog-post_19.html


मधुदीप गुप्ता दादा को श्रद्धा सुमन | कल्पना भट्ट

https://laghukathaduniya.blogspot.com/2022/01/blog-post.html


लघुकथा: पत्नी मुस्करा रही है । लेखन: श्री मधुदीप गुप्ता | वाचन - रजनीश दीक्षित

https://laghukathaduniya.blogspot.com/2021/08/blog-post_16.html


अविरामवाणी । 'समकालीन लघुकथा स्वर्ण जयंती पुस्तक चर्चा' । मधुदीप जी के लघुकथा संग्रह 'मेरी चुनिंदा लघुकथाएँ' पर डॉ. उमेश महादोषी द्वारा चर्चा

https://laghukathaduniya.blogspot.com/2021/11/blog-post_81.html


लेख | लघुकथा : रचना और शिल्प | मधुदीप

https://laghukathaduniya.blogspot.com/2020/01/blog-post_19.html


पूर्ण ईबुक | 'मेरी चुनिंदा लघुकथाएं' | लेखक: मधुदीप

https://laghukathaduniya.blogspot.com/2019/12/blog-post_13.html


'मेरी चुनिंदा लघुकथाएं' का ब्रजभाषा में अनुवाद | लेखक: मधुदीप गुप्ता | अनुवादक: रजनीश दीक्षित

https://laghukathaduniya.blogspot.com/2019/12/blog-post_76.html


बुधवार, 26 जनवरी 2022

मधुदीप गुप्ता दादा को श्रद्धा सुमन | कल्पना भट्ट

बहुत दुःख का विषय है कि कुछ दिनों पूर्व लघुकथा के एक महत्वपूर्ण स्तम्भ श्री मधुदीप अपनी जीवन यात्रा समाप्त कर अनंत की ओर प्रस्थान कर गए। ईश्वर से प्रार्थना है कि उन्हें अपने श्री चरणों में स्थान दें। लघुकथाकारा कल्पना भट्ट जी ने उन्हें श्रद्धांजलिस्वरुप उनकी रचना को अपने शब्दों में व्यक्त किया है, रचना और यह अभिव्यक्ति आप सभी के समक्ष प्रस्तुत है



उजबक की कदमताल | मधुदीप

समय के चक्र को उल्टा नहीं घुमाया जा सकता। हाँ, बनवारीलाल आज पूरी शिद्दत के साथ यही महसूस कर रहा था। समय चालीस साल आगे बढ़ गया है मगर वह अभी भी वहीं खड़ा कदमताल कर रहा है। उसने भी कई बार समय के साथ आगे बढ़ने की बात सोची मगर परम्पराओं और दायित्वों में जकड़े पाँवों ने हमेशा ही मना कर दिया तो वह बेबस होकर रह गया। जब सब-कुछ बदल गया है तो उसके पाँव कदमताल छोड़कर आगे क्यों नहीं बढ़ जाते ? तीनों छोटे भाई अपनी-अपनी सुविधाओं के तहत शहरों में जा बसे हैं। उनके बच्चे अब सरकारी नौकरियों में अधिकारी हैं, कुछ तो विदेश तक पहुँच गए हैं मगर वह और उसका एकमात्र पुत्र आज तक गाँव के इस कच्चे घर की देहरी को नहीं लाँघ पाए। पिता का साया बचपन में ही चारों भाइयों के सिर से उठ गया तो वह उन तीनों के लिए पिता बन गया। जमीन तो थोड़ी ही थी, यह तो माँ की कर्मठता और उसकी जीतोड़ मेहनत थी कि वह सभी छोटों को हिल्ले से लगा सका। चार बेटों की कर्मठ माँ की इहलीला कल रात समाप्त हो गई थी और आज दोपहर वह अपने सपूतों के काँधों पर सवार होकर अपनी अन्तिम यात्रा पर जा चुकी थी। उतरती रात के पहले प्रहर में चारों भाइयों का भरा-पूरा परिवार अपने कच्चे घर की बैठक में जुड़ा हुआ था। “बड़े भाई, अब गाँव की जमीन-घर का बँटवारा हो जाये तो अच्छा है।” छोटे ने कहा तो बनवारीलाल उजबक की तरह उसकी तरफ देखने लगा। “हाँ, अब गाँव में हमारा आना कहाँ हो पायेगा ! माँ थी तो...” मँझले ने जानबूझकर अपनी बात अधूरी छोड़ दी तो उजबक की गर्दन उधर घूम गई। सन्नाटे में तीनों की झकझक तेज होती जा रही है। बनवारीलाल को लग रहा है कि समय का चक्र बहुत तेजी से घूम रहा है और वह वहीं खड़ा कदमताल कर रहा है। मगर यह क्या ! उसके पाँवों के तले जमीन तो है ही नहीं। ** -0-

इस रचना पर कल्पना भट्ट जी की अभिव्यक्ति

कथा साहित्य में यूँ तो परिवार पर आधारित अनेकों रचनाएँ पढने को मिल जाती हैं वह फिर चाहे उपन्यास हो, कहानी हो या लघुकथा ही क्यों न हो। पिता पात्र पर आधारित लघुकथाओं में से मधुदीप की लघुकथा , ‘उजबक की कदमताल’ ने इसके शीर्षक से ही मुझे अपनी तरफ खींचा। जब इस लघुकथा को पढ़ना शुरू किया तो एक परिवार का चित्र आँखों के सामने उभर कर आ रहा था, एक ऐसा परिवार जो किसी गाँव में रहता है। इस परिवार का मुखिया, ‘बनवारीलाल’ है, जो अपने को अपने ही स्थान पर पिछले चालीस वर्षों से कदमताल करता हुआ देख रहा है। इस लघुकथा की यह पंक्ति देखें:- ‘ समय चालीस साल आगे बढ़ गया है मगर वह अभी भी वहीँ खड़ा कदमताल कर रहा है।’ बनवारीलाल पात्र गाँव का सीधा-सादा सामान्यज्ञान वाला एक ऐसा व्यक्ति है जिसके लिए उसका परिवार सर्वोपरि है, वह अपनी जिम्मेदारियों के आगे खुदको झोंक देता हुआ प्रतीत होत है, ऐसा नहीं कि वह आगे नहीं बढ़ना चाहता या उसने कभी प्रयास नहीं किया हो, इस बात को सिद्ध करती हुई इन पंक्तियों को देखी जा सकती है, ‘ उसने भी कई बार समय के साथ आगे बढ़ने की बात सोची मगर परम्पराओं और दायित्वों में जकड़े पाँवों ने हमेशा ही मना कर दिया, तो वह बेबस होकर रह गया।’ समय बलवान होता है यह बात सच भी है और यथार्थ भी, समय के साथ चलना ही अकलमंदी होती है, और जो समयानुसार न चल सके उसको पिछड़ा हुआ ही माना जाता है, वह अपने को इस स्थिति से उबारना चाहे तो उबार सकता है क्योंकि समय हर इंसान को उठने के लिए मौक़ा देता है परन्तु जो व्यक्ति इस मौके का फायदा न उठा सके तो वह सच में ‘उजबक’ ही सिद्ध होता है। ‘उजबक’ का साहित्यिक अर्थ ‘अनाडी’ या ‘मुर्ख’ है। ‘बनवारीलाल’ यूँ तो चार भाइयों के परिवार में सबसे बड़ा है, परन्तु बचपन में ही पिता का साया उठ जाने के उपरान्त वह अपने तीन भाइयों के लिए पिता बन जाता है, लघुकथा की इन पंक्तियों को देखा जा सकता है,’ पिता का साया बचपन में ही चारों भाइयों के सिर से उठ गया तो वह उन तीनों के लिए पिता बन गया।’ पिता की मृत्यु के उपरान्त उनकी कर्मठ माँ की छत्रछाया में और उनके दिशानिर्देश के अनुसार बनवारीलाल खुद को ढाल लेता है। इस लघुकथा में माँ को एक कर्मठ महिला के रूप में चित्रांकित किया गया है, जो जीवन में संघर्ष को ही जीवन मान लेती है और अपने संग-संग अपने बड़े बेटे को भी उसी राह पर मोड़ देती है, बनवारीलाल अपनी माँ से अधिक प्रेम करता है, अधिक इसलिए की वह उनका आज्ञाकारी बेटा बनकर ही रह जाता है और अपने तीनों भाइयों का पिता, परन्तु वह इन दायित्वों को निभाने में इतना खो जाता है कि वह भूल जाता है कि उसका अपना भी एक इकलौता पुत्र है जिसका वह पिता है, अपने माता-पिता की संतानों की जिम्मेदारियों में वह अपने ही बेटे का पिता होने का फ़र्ज़ निभाने में चुक जाता है। यहाँ ये अतिशयोक्ति प्रतीत होती है, यहाँ बनवारीलाल का अपना परिवार भी है, जैसा की वर्णित है, ‘ मगर वह और उसका एकमात्र पुत्र आज तक गाँव के इस कच्चे घर की देहरी को नहीं लाँघ पाए’ यहाँ देहरी क्यों नहीं लाँघ पाए इस बात को स्पष्ट नहीं किया गया है, एक सामान्य व्यक्ति जब खुद कोई गलती करता है तो वह यह कभी नहीं चाहेगा कि इस गलती को उसका पुत्र या अगली पीढ़ी दोहराए, वह प्रयासरत्त रहता है कि ऐसी गलतियों को न दोहराया जाए, अगर इस बात को मान भी लिया जाए कि वह एक आज्ञाकारी बेटा था, उसकी माँ ने जैसा कहा वह वैसे ही करता चला गया, इसका अर्थ यहाँ उसने अपनी पत्नी और इकलौते बेटे को भी उसी जिम्मेदारियों की भट्टी में झोंक दिया और वह भी बिना अपनी पत्नी के विरोध के...इस बात से बनवारीलाल को मुर्ख कहा जा सकता है परन्तु क्या उसकी पत्नी(जो इस लघुकथा का एक अदृश्य पात्र है) उसके लिए... भी यही बात हो... यहाँ माँ के अनुसार घर चल रहा है, इसका अर्थ है नारी-प्रधान परिवार है.... फिर बनवारी लाल की पत्नी...? यहाँ बनवारीलाल पिता किस आधार पर बन गया यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा है।

चालीस वर्षो के बाद जब वह पीछे मुड़कर देखता है तो देखता है कि : ‘जब सब-कुछ बदल गया है तो उसके पाँव कदमताल छोड़कर आगे क्यों नहीं बढ़ जाते हैं। तीनों छोटे भाई अपनी-अपनी सुविधाओं के तहत शहरों में जा बसे हैं। उनके बच्चे अब सरकारी नौकरियों में अधिकारी हैं, कुछ तो विदेश तक पहुँच गए हैं मगर...” इन पंक्तियों से प्रतीत होता है की तीनों भाई स्वार्थी निकले, और उन्होंने अपने बच्चों को भी उन्हींकी तरह बनाया। यहाँ ऐसा प्रतीत होता है कि ये लोग पलट कर अपने गाँव वाले घर में कभी नहीं आये, और न ही बच्चे ही आये... इतने लम्बे अंतराल तक एक दूसरे से न मिलें न ही संपर्क हो यह संभव तो हो सकता है, परन्तु क्या माँ और भाई भी कभी शहर नहीं आये? क्या कोई संपर्क इतने वर्षों में रहा ही नहीं? और अगर रहा तो क्या तीनों भाइयों के परिवार से भी किसीने अपनी चुप्पी नहीं तोड़ी और न ही किसी बच्चे ने अपनी दादी और पिताजी के बड़े भाई के परिवार वालों की सुध ही ली... ऐसे अनेकों सवाल इस लघुकथा से उठते हैं... ‘चार बेटों की कर्मठ माँ की इहलीला कल रात समाप्त हो गयी थी और आज दोपहर वह अपने सपूतों के कंधों पर सवार होकर अपनी अन्तिम यात्रा पर जा चुकी थी। उतरती रात के पहले पहर में चारों भाइयों का भरा-पूरा परिवार अपने कच्चे घर की बैठक में जुड़ा हुआ था।’ यहाँ फिर एक सम्भावना जताई जा रही है कि बनवारीलाल के बाकि के तीनों भाइयों का परिवार गाँव से उतनी ही दूरी पर थी कि वह सभी उतरती रात के पहले पहर में ही वहाँ आ गए थे। या तो बनवारीलाल ने पहले ही उन सब को बुलवा लिया था... तीनो भाई स्वार्थी के साथ-साथ लालची भी प्रतीत होते हैं’ ‘बड़े भाई, अब गाँव की जमीन-घर का बँटवारा हो जाए तो अच्छा है” अब इस पंक्ति को भी देखें: ‘ जमीन तो थोड़ी ही थी, यह तो माँ की कर्मठता और उसकी जीतोड़ मेहनत थी कि वह सभी छोटों को हिल्ले से लगा सका।’यहाँ इससे यह प्रतीत होता है कि ‘ज़मीन छोटी तो थी परन्तु पर्याप्त थी’ तभी तो मेहनत करने पर इतने लोगों की परवरिश और गुज़ारा हो पाया। यहाँ यह भी प्रतीत होता है कि माँ के साथ बनवारीलाल ने भी उतनी ही निष्ठां से मेहनत की कि उन दोनों के प्रयासों के चलते उसके तीनों भाइयों के परिवार भी बन गए और उनकी नौकरियां भी लग गयी। आगे देखिये: “हाँ, अब गाँव में हमारा आना कहाँ हो पायेगा। माँ थी तो....” मँझले ने जानबूझकर अपनी बात अधूरी छोड़ दी तो उजबक की गर्दन उधर घूम गई।इसका अर्थ यह होता है कि यह लोग माँ से मिलने यहाँ आते थे... फिर भी माँ और बनवारीलाल की स्थिति जस-की-तस रही! जब तीनों भाई आगे बढ़ रहे थे, बनवारीलाल उनको आगे बढ़ते हुए देखते हुए भी अपने और अपने परिवार के लिए कुछ न सोच पाया और न ही आगे बढ़ पाया, ऐसा कार्य तो सिर्फ और सिर्फ एक उजबक ही कर सकता है, यह किसी जिम्मेदार या समझदार इंसान तो कदापि नहीं करेगा। पिता की मृत्यु के बाद बड़े होने के नाते माँ की हाजरी में खुद को पिता समझ बैठना यह बनवारीलाल की प्रथम गलती थी, जिम्मेदारियों को वह बड़े भाई के नाते भी निभा सकता था। जो व्यक्ति एक बार गलती करने के बाद अपनी गलती को सुधार ले तो वह तो सामान्य है परन्तु जो गलतियों को दोहराता रहे और बार-बार नज़र अंदाज़ करके खुदका ही घर जला ले ये काम तो सिर्फ एक मुर्ख व्यक्ति ही करेगा और ऐसे व्यक्ति का अंत बिलकुल वैसा ही होता है जैसा कि इस लघुकथा के नायक’ ‘बनवारीलाल’ का हुआ, जब माँ का दाह दाह संस्कार करने के बाद जब : सन्नाटे में तीनों की झकझक तेज होती जा रही है। बनवारीलाल को लग रहा है कि समय का चक्र बहुत तेजी से घूम रहा है और वह वहीँ खड़ा कदमताल कर रहा है। मगर यह क्या! उसकें पांवों के तले जमीन तो है ही नहीं। इस अंत से ये सिद्ध होता है कि बनवारीलाल जिस तरह से शुरू से ही मूकदर्शक बना रहा आखिर तक उसने अपने आपको कहीं भी कभी भी बदलने का प्रयास नहीं किया। उसने अपने को उजबक ही सिद्ध किया है। इस लघुकथा के माध्यम से मधुदीप ने परिवार के बदलते परिवेश का चित्रण करने का सद्प्रयास किया है, हिन्दू परिवारों में जब परिवार को ही सर्वोपरि माना जाता रहा है, वहीँ समय के पहिये की तरह लोगों की सोच भी बदल गयी है, जहाँ पहले परिवार में त्याग और समर्पण की भावनाएं होती थीं आज के भौतिक युग में स्वार्थ और लालच ने हर परिवार में डेरा जमा लिया है, ऐसे में अगर समय रहते कोई न चेते और समय को न पहचान पाए और खुद को समयानुसार न बदल पाए तो दुनिया उसको बेवकूफ जान उसका गलत फायदा ही उठाएगी जैसा कि बनवारीलाल के तीनों भाइयो ने उसके साथ किया, और खुद बनवारीलाल ने भी खुद को बदलने का प्रयास नहीं किया और दुनियावालों का साथ दिया और उनके साथ-साथ स्वयं को ही उज्बग सिद्ध कर दिया। वह दूसरों को ख़ुश रखना चाहता था, पर कहते हैं न सब को ख़ुश कर पाना कभी भी संभव नहीं होता। इस लघुकथा के माध्यम से जहाँ ‘बनवारीलाल’ को एक आदर्श स्थापित करते हुए दर्शाया गया है, वहीँ इस पात्र का दूसरा पहलू यह भी है कि सब आदर्श धरे रह जाते हैं जब समय रहते न चेत सके कोई। ‘जो चमकता दिखाई देता है वह हर बार सोना नहीं होता’, इस कहावत को सिद्ध करती हुई ‘उजबक की कदमताल’ एक बेहतरीन लघुकथा है, यहाँ बनवारीलाल के पात्र के माध्यम से मधुदीप जैसे एक कुशल लघुकथाकार ने अपने कौशल का परिचय देते हुए स्वार्थी लोगों से सावधान, और समय को पहचान खुद के व्यव्हार को तय करने की हिदायत भी दी है। और साथ में यह भी सिद्ध करने का सद्प्रयास किया है कि पिता बन जाना एक बार आसान हो सकता है परन्तु पिता बनकर उनके दायित्वों को निभा पाना उतना ही मुश्किल है जितना बिना माली के किसी भी बाग़ को उर्वरित और देख-रेख रख पाना।

- कल्पना भट्ट



बुधवार, 12 फ़रवरी 2020

लघुकथा समाचार: सुक्ष्म, तीक्ष्ण व संवेदनशील विधा है लघुकथा : अवधेश प्रीत

दर्पण समाचार 


मधुदीप द्वारा संपादित ” विश्व हिंदी लघुकथाकार निर्देशिका ” का हुआ लोकार्पण

 लघुकथा पाठ से गुंजायमान हुआ मंगल तालाब पन्नालाल मुक्ताकाश मंच


सुप्रसिद्ध कथाका अवधेश प्रीत ने कहा है कि लघु कथा एक ऐसी सुक्ष्म, तीक्ष्ण, मारक और संवेदनशील विधा है जिसका प्रभाव श्रोताओं के दिल दिमाग को वर्षों उद्वेलित करता है बशर्ते लघुकथाकार ने उसे संवेदना और अनुभव के बेहतर तालमेल के साथ लिखा हो।
वे रविवार को पटना सिटी मंगल तालाब स्थित पन्नालाल मुक्ताकाश प्रेक्षागृह में ”  विश्व हिंदी लघुकथाकार निर्देशिका ”  के लोकार्पण के अवसर पर आयोजित कार्यक्रम को संबोधित कर रहे थे।
अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच और स्वरांजलि के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए लघुकथा मंच के महासचिव  डॉ ध्रुव कुमार ने कहा कि विश्व हिंदी लघुकथाकार निर्देशिका के प्रकाशन से देशभर के लघुकथाकारों से संपर्क करना अब बहुत आसान हो गया है। उन्होंने इस सराहनीय कार्य के लिए इसके संपादक मधुदीप को बधाई दी।

 इस अवसर पर प्रसिद्ध कथाकार- उपन्यासकार डॉ संतोष दीक्षित ने कहा कि वस्तुतः साहित्य समाज का सापेक्ष है और लघुकथाएं प्रभावगामी होती हैं। ” सिकुड़े तो आशिक – फैले तो जमाना ”  लघुकथा पर बहुत ही सटीक है।
इस मौके पर डेढ़ दर्जन लघुकथाकारों ने अपनी – अपनी लघुकथाओं का पाठ किया।
इन लघुकथाओं की समीक्षा करते हुए जयप्रकाश विश्वविद्यालय, छपरा की प्रोफेसर  समोलचक डॉ अनीता राकेश ने कहा कि सभी रचनाएं समाज की विसंगतियों से हर रोज जूझते लोगों की मनोदशा व उनके मानसिक संघर्ष और द्वंद्ध को दर्शाती हैं। उन्होंने विशेष तौर पर प्रभात धवन, आलोक चोपड़ा, पंकज प्रियम, दयाशंकर प्रसाद,  शंकर शरण आर्य, संजू शरण, रिचा वर्मा, डॉ  मीना कुमारी परिहार, सूरज देव सिंह और गौरीशंकर राजहंस की लघु कथाओं का उल्लेख किया।
वरिष्ठ लेखक डॉ राधाकृष्ण सिंह ने लघुकथा मंच के इस प्रयास की सराहना करते हुए कहा कि लघुकथा का रूप भले छोटा हो लेकिन उसकी पहुंच बहुत दूर तक है। लघुकथा के बारे में ” देखन में छोटन लगे – घाव करे गंभीर”  पूर्णता सत्य है।
कार्यक्रम का संचालन स्वरांजलि के संयोजक अनिल रश्मि ने किया जबकि धन्यवाद ज्ञापन ए आर हाशमी ने किया।
जिन लघुकथाकारों ने अपनी रचनाएं पढ़ी , उनमें प्रभात कुमार धवन, संजू शरण,  आलोक चोपड़ा, ए आर हाशमी, पंकज प्रियम, गौरीशंकर राजहंस, सूरज देव सिंह, शंकर शरण आर्य, दया शंकर प्रसाद, प्रो अनीता राकेश, अनिल रश्मि, डा ध्रुव कुमार, रिचा वर्मा और डॉ मीना कुमारी परिहार शामिल थीं।

Source:
http://www.darpansamachar.com/?p=23513&fbclid=IwAR0QJI-ICY0AdrhW9AnYpmFbj7BV5TCMFsjPs-KampmczAZeUbzVnZtVw5o


रविवार, 19 जनवरी 2020

लेख | लघुकथा : रचना और शिल्प | मधुदीप



लघुकथा कथा परिवार का ही महत्वपूर्ण हिस्सा है जैसे कि उपन्यास, कहानी या नाटक । परिवार में जिस तरह हर व्यक्ति के गुण धर्म अलग-अलग होते हैं उसी तरह लघुकथा के भी गुण धर्म अन्य विधाओं से अलग हैं । लघु में विराट को प्रस्तुत करना ही लघुकथाकार का कौशल है । हमारे समक्ष पूरी सृष्टि है, इस सृष्टि में पृथ्वी है, पृथ्वी पर मनुष्य, मनुष्य का पूरा जीवन और उस जीवन का एक पल । यह विस्तृत से अणु की ओर यात्रा है और उस अणु का सही, सटीक वर्णण करना ही लघुकथा का अभीष्ट है । वही लघुकथाकार सफल माना जाता है जो उस पल को सही तरीके से पकड़कर उसकी पूरी संवेदना के साथ उसे पाठक तक प्रेषित कर सके । सृष्टि का अपना विशद महत्त्व है लेकिन हम अणु के महत्त्व को भी कम करके नहीं आँक सकते । मानव के पूरे जीवन में कितने ही महत्वपूर्ण पल होते हैं जो कि उपन्यास या कहानी लिखते समय लेखक की दृष्टि से ओझल रह जाते हैं क्योंकि उस समय लेखक की दृष्टि समग्र जीवन पर होती है मगर एक लघुकथाकार की दृष्टि में वे ही पल महत्वपूर्ण होते हैं जो एक कहानीकार या उपन्यासकार से उपेक्षित रह जाते हैं । उन पलों की कथा ही लघुकथा होती है और यही गुण-धर्म इस विधा को विशिष्ट भी बनाता है और अन्य विधाओं से अलग भी करता है । 
मैं आपके सामने एक बहुत पुरानी बात दोहरा रहा हूँ । लघुकथा एक शब्द है, इसे एकसाथ लिखना ही चाहिए मगर इसके दो भाग हैं, लघु तथा कथा और लघुकथा लिखते समय हमें इन दोनों बातों को ध्यान में रखना चाहिए । शुरू में तथा कुछ आग्रही अभी भी इसके पहले भाग लघु को लेकर बहुत आग्रही हैं । वे भूल जाते हैं कि इसमें कथा भी जुड़ा हुआ है और यदि लघुकथा में कथा नहीं होगी तो इसके लघु का क्या अर्थ रह जाएगा ! साहित्य में कथारस की अनिवार्यता से हम कतई इनकार नहीं कर सकते । इसलिए मेरा अनुरोध है कि आप विधा को बहुत अधिक लघु की सीमा में न बाँधें । उसे कथ्य की अनिवार्यता के अनुसार थोडा फैलाव लेने की आजादी अवश्य दें । कुछ आग्रही 250 शब्दों की सीमा पार करते ही उसे लघुकथा से बाहर कर देते हैं लेकिन मेरा मानना है कि यदि विषय और कथ्य की मांग है तो शब्द सीमा को 500-600 शब्दों तक यानी डेढ़-पौने दो पृष्ठ तक जाने दें लेकिन साथ ही मेरा कहना है कि लघुकथाकार अतिरिक्त विस्तार के मोह से बचें । भाई सतीशराज पुष्करणा और अन्य वरिष्ठों की बहुत-सी ऐसी श्रेष्ठ लघुकथाएँ हैं जो मेरी इस शब्द सीमा को छूती हैं । हाँ, कहानी के सार-संक्षेप को लघुकथा कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता ।
लघुकथा का मूल स्वर---- अब मैं आपके समक्ष इस विषय में अपने विचार रखना चाहता हूँ । मेरे विचार से पूरा साहित्य तीन बिन्दुओं पर टिका हुआ है । यथार्थ, संवेदना और विडम्बना यानी विसंगति । जीवन के यथार्थ का कलात्मक चित्रण ही साहित्य है । यथार्थ के कलात्मक चित्रण का मूल आधार है संवेदना और विडम्बना । संवेदना लघुकथा के साथ ही पूरे साहित्य का मूल आधार है लेकिन विडम्बना लघुकथा का मूल स्वर है । हालाँकि व्यंग्य पर भी विडम्बना या विसंगति का प्रभाव देखने को मिलता है लेकिन उसमें अतिश्योक्ति का भी प्रभाव होता है जिससे कि लघुकथा में बचना होता है । विडम्बना लघुकथा की तीव्रता को बहुत तीखा बना देती है । कहानी या उपन्यास में विडम्बना उतनी तीव्रता या तीखेपन से नहीं आ पाती क्योंकि उनके विवरण उसमें बाधक बन जाते हैं और विडम्बना का तीखापन खो जाता है । लघुकथा का फोर्मेट यानी आकार लघु होता है इसलिए इसमें जीवन की किसी भी विडम्बना को पूरी शिद्दत और तीखेपन के साथ प्रस्तुत किया जा सकता है । इसलिए यह लघुकथा की मूल प्रवृत्ति के के रूप में सामने आता है । इसका यह अर्थ कदापि न लगाया जाए कि संवेदना का लघुकथा में महत्वपूर्ण स्थान नहीं है । मैं पहले ही साफ़ कर चुका हूँ कि संवेदना पूर्ण साहित्य का मूल आधार है । हाँ, जीवन के यथार्थ पलों का विडम्बनात्मक चित्रण प्रस्तुत करके मानव सम्वेदना को अधिक गहराई से प्रस्तुत किया जा सकता है । यही साहित्य का प्राप्य है और लघुकथा का मूल स्वर भी ।
मेरे कुछ लघुकथाकार साथी लघुकथा में कालदोष को लेकर बहुत चिन्तित रहते हैं । ऊपर मैंने भी कहा है कि लघुकथा पल का कलात्मक चित्रण होती है मगर वह पल कितना बड़ा हो सकता है इसमें आकर हम उलझ जाते हैं । बात कुछ पलों, घंटों की ही होती है मगर उसे सही तरीके से प्रस्तुत करने के लिए हमें कई बार फ्लैश बेक में उस घटना को भी प्रस्तुत करना होता है जिससे ये पल सम्बन्धित होते हैं । कई बार कोई बड़ी बात कहने के लिए हमें घटना का फलक कुछ बड़ा लेना होता है और उसे देखकर हम भ्रमित हो जाते हैं कि यह लघुकथा कालदोष का शिकार हो गई । मेरी अपनी एक लघुकथा ‘समय का पहिया घूम रहा है’, अशोक भाटिया की लघुकथा ‘नमस्ते की वापिसी’ तथा भाई श्याम सुन्दर अग्रवाल की लघुकथा ‘सन्तू’ को लेकर काफी पाठक और नवोदित लघुकथाकार भ्रमित हो चुके हैं लेकिन ये सभी बेहतरीन लघुकथाएँ हैं, सब इस बात को स्वीकार करते हैं । यदि हमें लघुकथा के माध्यम से किसी बड़े फलक की कोई महत्वपूर्ण बात कहनी है तो हमें इस विषय में थोडा लचीला रुख अपनाना होगा । फ्लैश बेक या अन्य तरीकों से और लघुकथाकार अपने कौशल से इसे बाखूबी साध सकता है । इसके कुछ उदाहरण हमें वरिष्ठों की बहुत-सी श्रेष्ठ लघुकथाओं में देखने को मिल सकता है । इस विषय में जितनी शंकाएँ हैं, उन्हें कुछ समय के लिए अलग रखकर हम लघुकथा में कुछ बड़ी बात कहें और अपने कौशल से उस रचना में कालदोष का निवारण करें । कहीं हमारी लघुकथा घर-परिवार के विषयों में ही उलझकर या सिमटकर न रह जाए । हमें आज के समय को पकड़ना है, आज की बड़ी-बड़ी समस्याओं को पूरी शिद्दत से लघुकथा में प्रस्तुत करना है तभी लघुकथा इस सदी की विधा बन सकेगी । कोई भी विधा तभी जीवित रहती है जब वह अतीत को याद करते हुए आज की मूलभूत समस्याओं से जुड़े । सिर्फ घर-परिवार, सास-बहु, बाप-बेटे के अच्छे-बुरे व्यवहार या दो विपरीत पक्षों का चित्रण करके लघुकथा बहुत आगे तक नहीं जा सकेगी । आज जीवन में बहुत तरह के उलझाव हैं और लघुकथा को उन्हें स्वर देना है ताकि वह आमजन के दिल में प्रवेश कर सके । हमें विधा को विस्तार देने के लिए आज के समय को अपनी लघुकथाओं का विषय बनाना ही होगा । कहानी यदि साहित्य की मूल धारा में रही है तो उसका यही कारण है कि उसने अपने समय की बहुत बारीकी से पहचान की है और उसे व्यक्त किया है । इस सदी की मूल विधा बनने के लिए लघुकथा को भी यही करना होगा ।
मेरी बात कुछ अधिक लम्बी होती जा रही है, इसलिए कुछ मुद्दों को मैं बहुत संक्षेप में आपके सामने रखूँगा । लघुकथा की भाषा जनभाषा के नजदीक होनी चाहिए अर्थात लघुकथा में जयशंकर प्रसाद की बजाय मुंशी प्रेमचन्द की भाषा अधिक स्वीकार्य होगी क्योंकि उसे हमारा आज का पाठक बेहतर तरीके से समझ सकता है । यह तो सर्वमान्य है कि हम जिसके लिए लिख रहे हैं उसे वह समझ तो आनी ही चाहिए । आज का समय विश्वविद्यालयों के शोध छात्रों या प्रोफेसरों के लिए लिखने का नहीं है ।
घटना और रचना के अन्तर को आप सब समझते हैं । मुझे यह कहने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए कि घटना रचना नहीं होती । घटना का विवरण प्रस्तुत करना पत्रकारिता होती है, साहित्य लेखन नहीं होता । इस बारे में कहने को बहुत समय चाहिए, इसलिए संकेत को समझें और नवोदित लघुकथाकार इस पर विशेष ध्यान दें ।
लघुकथा में पंच लाइन के बारे में बहुत संक्षेप में । सिर्फ पंच लाइन को ही लघुकथा का मूल समझने के भ्रम में न उलझें और न ही उसे समीक्षा का मूल आधार बनाएँ । लघुकथा को उसकी सम्पूर्णता में देखें, उसके लेखन में क्रमिक विकास का ध्यान रखें और कभी एक झटके से लघुकथा का अन्त न करें । यदि स्वाभाविक रूप से लघुकथा के अन्त में किसी विडम्बना के कारण कोई पंच आता है तो ही ठीक होगा अन्यथा वह लघुकथा में थोपा हुआ लगेगा । यह बात मैं जोर देकर इसलिए कह रहा हूँ कि मेरे बहुत से नवोदित साथी इस पंच लाइन शब्द की अवधारणा से भ्रमित हो रहे है जबकि 2012 से पहले ऐसा बिलकुल नहीं था ।
एक बात और, आजकल फेस बुक पर जो लघुकथाएँ आ रही हैं उनमें कथ्य तो पुराने हैं ही, उनके प्रस्तुतिकरण में भी कोई नवीनता नहीं है । हमें नए विषय तो तलाशने ही होंगे, साथ ही लघुकथा लिखते समय शिल्प, शैली और भाषा की तरफ भी धयान देना होगा । लघुकथा के शिल्प और शैली में नए प्रयोग विधा को आगे ले जाने में सहायक होंगे । हमारे वरिष्ठ साथियों को तो लघुकथा में बेहिचक कुछ नए प्रयोग करने ही चाहियें ताकि विधा में ठहराव के खतरे से बचा जा सके । नए लेखकों में भी नई ऊर्जा है, वे भी मेरी इस बात पर गौर करें । लघुकथा में बिम्बों का बहुत महत्वपूर्ण स्थान होता है, इसकी तरफ विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए ।
अन्त में एक आग्रह, लघुकथा को बहुत अधिक बन्धनों में न जकड़ें और कुछ समय तक इसका स्वाभाविक विकास होने दें । समय और स्वतन्त्र समीक्षक ही इसके सही स्वरूप की पहचान पहचान निर्धारित करेंगे ।
मेरा लघुकथाकारों से इतना ही आग्रह है --- लघुकथा में पल विशेष को मजबूती से पकड़िये, उसे आज से जोड़कर रखिये । लघुकथा साहित्य की मुख्य विधा के रूप में पाठक के सामने आ रही है, इसमें कतई कोई सन्देह नहीं होना चाहिए ।**

सम्पर्क : 138/16 त्रिनगर, दिल्ली-110 035 
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शुक्रवार, 13 दिसंबर 2019

पूर्ण ईबुक | 'मेरी चुनिंदा लघुकथाएं' | लेखक: मधुदीप


वरिष्ठ लघुकथाकार श्री मधुदीप गुप्ता  ने अपने लघुकथा संग्रह 'मेरी चुनिंदा लघुकथाएं' को सहर्ष ही 'लघुकथा दुनिया' को प्रदान करते हुए इसे प्रकाशित करने की अनुमति दी है। यह महत्वपूर्ण संग्रह न केवल नवोदितों के लिए लाभदायक और अवश्य पढ़ने योग्य है बल्कि वरिष्ठ लघुकथाकारों द्वारा सराही गयी लघुकथाएं इसमें निहित है। आइये पढ़ते हैं इस संग्रह की लघुकथाएं :



इस संग्रह की लघुकथाएं कई भाषाओं में अनुवाद भी हो रही हैं। ब्रजभाषा में इसका अनुवाद श्री रजनीश दीक्षित ने किया है। यह अनुवाद भी 'लघुकथा दुनिया' पर निम्न लिंक पर  उपलब्ध है:

'मेरी चुनिंदा लघुकथाएं' का ब्रजभाषा में अनुवाद | लेखक: मधुदीप गुप्ता | अनुवादक: रजनीश दीक्षित


बुधवार, 11 दिसंबर 2019

'मेरी चुनिंदा लघुकथाएं' का ब्रजभाषा में अनुवाद | लेखक: मधुदीप गुप्ता | अनुवादक: रजनीश दीक्षित

वरिष्ठ लघुकथाकार श्री मधुदीप गुप्ता  के लघुकथा संग्रह मेरी चुनिंदा लघुकथाएं का श्री रजनीश दीक्षित द्वारा ब्रजभाषा में अनुवाद किया गया है। इस महत्वपूर्ण कार्य का दस्तावेज निम्न है :

Hello

गुरुवार, 7 नवंबर 2019

डॉ. सतीशराज पुष्करणा की लघुकथा 'दिखावा' 17 भाषाओँ में | कल्पना भट्ट


आदरणीया कल्पना भट्ट जी (Kalpana Bhatt) की फेसबुक पोस्ट से 

दिशा प्रकाशन से प्रकाशित आदरणीय मधुदीप गुप्ता जी के संपादन में 
पड़ाव और पड़ताल खण्ड 22 "डॉ सतीशराज पुष्करणा की 66 लघुकथाएँ और उनकी पड़ताल" से

मूल लघुकथा



दिखावा
एक कॉफ़ी हाउस के बाहर बरामदे में लगी मेज-कुर्सियों पर बैठे कुछ युवक कॉफ़ी पीने के साथ-साथ कुछ ऊँचे स्वर में किसी विषय पर बहस भी कर रहे थे| बाहर मेन रोड पर एक भिखारी हाथ में कटोरा लिए भीख के उद्देश्य से खड़ा था| उन युवकों में से एक युवक, जो कुर्ता-पैजामा पहने था,एक सफारी सूट पहने युवक से कहने लगा, “तुम पूंजीपति लोग गरीबों को देखना पसंद नहीं करते हो|” जबकि इन्हीं गरीबों की वजह से तुम लोग इस ठाठ-बाट से रहते हो| वरना...|”

“देखो! तुम गलत समझ रहे हो| बात ऐसी नहीं है|”

“तो फिर”
“यदि वाकई ऐसी बात है, तो सामने भीख माँग रहे भिखारी को जाकर गले लगाकर दिखाओ|”
“उसे मैं भीख तो दे सकता हूँ, किन्तु इस गंदे भिखारी को अपने गले किसी कीमत पर नहीं लगा सकता| तुम चाहो तो जाकर उससे गले मिलो| या...”
इतना सुनते ही वह कुर्ताधारी युवक लपककर उस भिखारी कि ओर बढ़ गया और जाते ही उसे अपनी बाँहों में भरकर गले से लगा लिया|
इस प्रकार युवक को अपने गले लगते देख पहले तो भिखारी कुछ घबराया, किन्तु फिर कुछ सँभलते हुए बोला, “ बाबु! पेट गले लगाने से नहीं रोटी से भरता है... और रोटी के लिए पैसा चाहिए|”
डॉ. सतीशराज पुष्करणा

2) 

सादर धन्यवाद आदरणीय योगराज प्रभाकर सर! आपने इस लघुकथा का पंजाबी और उर्दू में भावानुवाद कर के भेजा | नमन आपको | दिनांक 4 नवम्बर, 2019 

(ਪੰਜਾਬੀ ਅਨੁਵਾਦ)
ਮਿੰਨੀ ਕਹਾਣੀ: ਦਿਖਾਵਾ
(ਡਾ. ਸਤੀਸ਼ਰਾਜ ਪੁਸ਼ਕਰਣਾ)

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ਇੱਕ ਕਾਫ਼ੀ ਹਾਊਸ ਦੇ ਬਾਹਰ ਵਰਾਂਡੇ ਵਿਚ ਪਏ ਕੁਰਸੀ-ਮੇਜ਼ਾਂ ਤੇ ਬੈਠੇ ਕੁਝ ਨੌਜਵਾਨ ਕਾਫੀ ਪੀਂਦਿਆਂ ਹੋਇਆਂ ਕਿਸੇ ਮੁੱਦੇ ਤੇ ਉੱਚੀ-ਉੱਚੀ ਬਹਿਸ ਵੀ ਕਰ ਰਹੇ ਸਨ. ਬਾਹਰ ਸੜਕ 'ਤੇ ਇੱਕ ਮੰਗਤਾ ਹੱਥ 'ਚ ਕੌਲਾ ਫੜੀ ਭੀਖ ਮੰਗਣ ਲਈ ਖਲੋਤਾ ਸੀ. ਉਨ੍ਹਾਂ 'ਚੋਂ ਇੱਕ ਨੌਜਵਾਨ ਜਿਸਨੇ ਕੁਰਤਾ-ਪਜਾਮਾ ਪਾਇਆ ਹੋਇਆ ਸੀ, ਇੱਕ ਸਫ਼ਾਰੀ ਸੂਟ ਵਾਲੇ ਨੌਜਵਾਨ ਨੂੰ ਕਹਿਣ ਲੱਗਾ,
"ਤੁਸੀਂ ਸਰਮਾਏਦਾਰ ਲੋਕ ਗਰੀਬਾਂ ਨੂੰ ਦੇਖਣਾ ਵੀ ਪਸੰਦ ਨਹੀਂ ਕਰਦੇ। ਹਾਲਾਂਕਿ ਇਨ੍ਹਾਂ ਗਰੀਬਾਂ ਦੀ ਵਜ੍ਹਾ ਤੋਂ ਹੀ ਤੁਸੀਂ ਐਨੇ ਠਾਠ-ਬਾਠ ਨਾਲ ਰਹਿੰਦੇ ਹੋ."
"ਦੇਖ, ਤੂੰ ਗ਼ਲਤ ਸਮਝ ਰਿਹੈਂ। ਅਜਿਹੀ ਕੋਈ ਗੱਲ ਨਹੀਂ ਹੈਂ.."
"ਤੇ ਫੇਰ...? ਜੇਕਰ ਅਜਿਹੀ ਕੋਈ ਗੱਲ ਨਹੀਂ ਤਾਂ ਭੀਖ ਮੰਗ ਰਹੇ ਮੰਗਤੇ ਨੂੰ ਗਲ ਲਾ ਕੇ ਵਿਖਾ।"
"ਮੈਂ ਉਸਨੂੰ ਭੀਖ ਤਾਂ ਦੇ ਸਕਦਾਂ, ਪਰ ਇਸ ਗੰਦੇ ਮੰਗਤੇ ਨੂੰ ਕਿਸੀ ਕੀਮਤ ਤੇ ਗੱਲ ਨਹੀਂ ਲਾ ਸਕਦਾ। ਤੂੰ ਚਾਹੇਂ ਤਾਂ ਉਸਨੂੰ ਗਲ ਲਾ ਸਕਦੈਂ .. ਜਾਂ..."
ਇਹ ਸੁਣਦਿਆਂ ਹੀ ਕੁਰਤੇ ਵਾਲਾ ਨੌਜਵਾਨ ਮੰਗਤੇ ਵੱਲ ਵਧਿਆ ਅਤੇ ਉਸਨੂੰ ਗਲਵੱਕੜੀ ਪਾ ਲਈ. 
ਨੌਜਵਾਨ ਨੂੰ ਇੰਝ ਗਲਵੱਕੜੀ ਪਾਉਂਦਿਆਂ ਵੇਖ ਪਹਿਲਾਂ ਤਾਂ ਮੰਗਤਾ ਕੁਝ ਘਾਬਰ ਜਿਹਾ ਗਿਆ, ਫੇਰ ਕੁਝ ਸੰਭਲਦਿਆਂ ਹੋਇਆਂ ਬੋਲਿਆ, 
"ਬਾਊ ਜੀ, ਢਿੱਡ ਗਲਵੱਕੜੀ ਨਾਲ ਨੀ, ਰੋਟੀ ਨਾਲ ਭਰਦਾ ਹੈ... 'ਤੇ ਰੋਟੀ ਲਈ ਪੈਸੇ ਚਾਹੀਦੇ ਹੁੰਦੇ ਨੇ."
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(اردو ترجمہ)
3)
افسانچہ :دکھاوا
(ڈاکٹرستیش راج پشکرنا)
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ایک کوفی
ہاؤس کے باہر پڑے کرسی-میزوں پر بیٹھے چند نوجوان کافی پیتے ہوئے کسی موجو پر اونچی آواز میں بحس بھی کر رہے تھے . باہر سڈک پر ایک فقیر ہاتھ میں کاسہ پکڑے خیرات مانگنے کی غرض سے کھڈا تھا. انمیں سے ایک نوجوان جو کرتے-پیجاے میں ملبوص تھا، ایک سفارے سوٹ والے نوجوان سے بولا،
"تم سرمایادار لوگ مفلسوں کو دیکھنا بھی پسند نہیں کرتے ہو. تاہم ان مفلسوں کی وجہ سے ہی تم لوگ اتنے ٹھاٹھ-باٹ کی زندگی بسر کر رہے ہو."
" دیکھو،تم غلت سمجھ رہے ہو. ایسی کوئی بات نہیں ہے."
"تو پھر..؟ اگر ایسی کوئی بات نہیں ہے تو اس فقیر کو گلے سے لگاکر دکھاؤ ."
"میں اسکو خیرات تو دے سکتا ہوں، پر اس غلیز فقیر کو گلے نہیں لگا سکتا. تم چاہو تو اسے گلے لگا سکتے ہو...یا..."
یہ سنتے ہی کرتے والا نوجوان فقیر کی جانب بڑھا اور اسکو گلے لگا لیا. نوجوان کو یوں گلے سے لگاتے دیکھ فقیر پہلے تو کچھ گھبرایا، پھر خود کو سمھلتے ہوئے بولا،
بابو! پیٹ گلے لگانے سے نہیں روٹی سے بھرتا ہے، اور روٹی کے لئے پیسہ درکار ہوتا ہے."
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4) 
Pretense (Laghuktha) English 3rd nov, 2019 

Outside a Coffee-House, some of the youth were seated on the chairs and tables thus so arranged in the lobby. Along with having some coffee, they were arguing on some topic in a loud voice. A beggar with an intention to get some Alms, was standing outside on the main road, carrying a bowl in his hand. A young men in kurta-pajama angrily said to another young men who was in Safari suit, “ You Aristocrats! You don’t even like to look at the poor, although it is because of them only that you are able to have a luxurious life.”
“Noway ! This is not true. You are taking it wrongly.”
“Oh yeah! Really!”
“ If you really say so , then why don’t you go to that beggar and embrace him.”
“I will surely offer him Alms, but no any circumstances can embrace him. Instead if you so feel, you are free to do so. Else…”
As soon as he had finished saying this, the young men in kurta-pajama moved forward towards the beggar and immediately took him into his arms.
Astonished with such a sudden act of the youth, the beggar at first felt a bit hesitant, but then he gathered some confidence and said, “ Sir, One cannot fill his stomach by embracing anyone, rather only food can satisfy his hunger, and for this Money is must,”

Originally written by Dr. Satish Raj Pushkarna

Translated by Kalpana Bhatt
Dated: 3rd Nov, 2019

5) 
નાટક (લઘુકથા) ગુજરાતી

એક કોફી હોઉસે ની બહાર ની પોર્ચ માં સજાવેલ, કુર્સી અને ટેબલો ઉપર અમુક નવ-યુવક બેસેલ હતા તેઓ કોફી પીતાં-પીતાં કોઈ મુદ્દા પર જોર-જોર થી ચર્ચા કરી રહ્યા હતા,.બહાર મેન રોડ પર ભીખ મેળવાના ઉદ્દેશ્ય થી એક ભિખારી પોતાના હાથ માં એક વાટકો લઇને ઉભો હતો. તેમાં થી એક નવ-યુવક જેણે કુર્તા-પજામા પેહરેલ હતાં એ સફારી પેહરેલ એક બીજા નવ-યુવક ને કહ્યું," તમે પૂંજીપતિ લોકો! તમને તો ગરીબો તરફ જોવુંએ ન ગમે, જયારે આ ગરીબો ની મારફતજ તમે આવી જાહો-જલાલી માં રહી શકો છો. અન્યથા તો.."
"જો ભાઈ! આવું કયીંજ નથી, આ ધારણા તારી તદ્દન ખોટી છે."
"અચ્છા!"
"જો તું તારી વાત પર કાયમ છો તો સામે ઉભેલ ભિખારી ને આલિંગન કરીને દેખાડ ."
"એને હૂં નાણા આપી શકું, પરંતુ આવા ગંદા ભિખારી ને કોઈ પણ પરિસ્થિતિ માં આલિંગન તો ન જ કરી શકું. તારી ઈચ્છા હોય તો તું કરી આવ. અથવા તો..."
આ સાંભળતાંજ કુર્તા પેહરેલ નવ-યુવક લપકી ને એ ભિખારી પાસે ગયો અને એને પોતાના હૃદય થી લગાડી લીધું.
આવા પ્રકારતી આલિંગન થયેલ ભિખારી પેહલા તો થોડો ઘભ્રાયો, પણ થોડાજ ક્ષણોમાં એણે સ્વયમ ને સાંભળી લીધું અને એને કહ્યું, " સાહેબ , આલિંગન કરીને કોઈ દિવસ પેટ ભરાતું નથી, એની માટે રોટલો જોઈએ, અને રોટલા માટે નાણા જોઈએ."

મૂળ લઘુકથાકાર : દર. સતીશ રાજ પુષ્કરણા
અનુવાદ : કલ્પના ભટ્ટ
ભોપાલ

6) 
दिखावा (बृज भाषा)

एक कॉफी हॉउस के बाहर के बरामदा में कछु छोराएं वहाँ बिछी कुर्सी-टेबल पर बैठे हते। कॉफी पीते भये अमुक मुद्दा पे उनकी जोर-जोर सूं बहस भी चल रही हतीँ। बाहर मुख्य सड़क पे, भीख माँगवे काजे एक भिखमंगो हाथ में कटोरा लिये खड़ो हतो। कुर्ता-पजामा पहने भए एक छोरा ने सूट-बूट पहने भए छोरा सु कहन लग्यो," तुम्हारे जैसे पैसा वाले लोग, तुमलोग गरीबन कु देखनो भी पसन्द नही करो हो, जबकी इन्हींकी वजह सूं तुम सबरे इत्ते ठाठ-बाट सूं रह सकत हो। अन्यथा तो.."
"देखो! जे बात तो तुम्हारी बिलकुल जूठी है, ऐसो कछु नहीं है।"
"अच्छो! तो फिर।"
"जो तू साँची कह रह्यो है तो जा वा भिखमंगे कू गले लगाय आ। नहीं तो..."
"मैं वाकु पैसा भीख में दे सकूँ, पर वाकु गले तो कभी भी नहीं लगा सकूँगो। तेरी इच्छा होय तो तू ही लगा ले वाकू अपने गले।"
ये सुनते ही वो कृता वालो छोरा उठ्यो और लपकके वा भिखारी कू गले लगा लियो।
या प्रकार सूं गले लगावतो देख पहले तो वो भिखारी तनिक डर गयो पर कछु देर बाद वाने खुद कु संभलयों और वा कुर्ता वाले छोरा सूं कह्यी," बाबू! ऐसे गले लगावे सूं पेट कोइको पेट नहीँ भरे, वाके लिये रोटी चहिये, और रोटी के लानी पैसा चहिये।"
अनुवाद : कल्पना भट्ट

7 ) 
दिखावा (लघुकथा) (ढोंग)---दिनांक : ५ नोव्हेंबर २०१९ 

कॉफी-हाऊसच्या बाहेर लागलेल्या टेबल आणि खुर्च्यांवर काही तरुण कॉफी घेत मोठ्याने कुठल्या तरी विषयांवर वादविवाद करत होते. बाहेरच एक भिकारी हातात वाडगा धरुन भीक मागत उभा होता. त्या तरुणां मधे एक तरुण ज्याने साधारण कुर्ता पायजामा घातला होता, एक कोट-पेंट घातलेल्या दुस-या तरुणाला म्हणाला " तुम्ही भांडवलदार ह्या गरीब लोकांकडे पहाणे देखिल पसंत करत नाही." खरं तर तुम्ही ह्या लोकां मुळेच थाटात राहाता.
" हे बघ! ही तुझी चुकीची समजूत आहे."
"तर मग"
"जर तू खरा आहेस तर एक काम कर, त्या समोरच्या भिका-याला एक घट्ट मिठी मारुन दाखव."
"नाही! मी त्याला भीक घालिन पण कोणत्या ही परिस्थितीत मिठी ..अशक्य आहे हे. अरे! असे कर तूच घे ना त्याला मिठीत.."
हे ऐकता क्षणी कुर्ता-पायजामामधील तरुण धावत त्या भिकारी कडे गेला आणी आपले बाहू पसरून त्याला मिठीत घेतले.
एक क्षण तर तो भिकारी घाबरलाच, पण लगेच स्वत:ला सावरत म्हणाला.." बाबू! पोट मिठीत घेतल्याने नाही तर भाकरी च्या तुकड्याने भरत.. त्या करिता पैसा लागतो.
मूळ रचनाकार: डॉ सतीश राज पुष्करणा
अनुवाद: नयना(आरती)कानिटकर

8)

दिखावा(लघुकथा) दिनांक ५ नवम्बर २०१९
मगही अनुवाद- अभिलाषा सिंह (पटना)
एगो कॉफी हाउस के बाहर ओसारा में लगल मेज कुर्सियन पर बइठल कुछ युवक सब कॉफी पिये के साथे -साथे तनी जोर -जोर अवाज में कौनों विषय पर बहसो कर राहलखिन हल। बाहर में रोडबा पर एगो भिखारी हाथ में कटोरा ले के भीख ला खड़ा हलय। ऊ युवकवन में से एगो जे कुरता पैजामा पहिनले हलय ,ऊ सफारी-सूट पहनले युवकबा से कहे लगलै "तोहनी पूंजीपति लोग सब गरीबन के देखेला न चाहहु, जबकी इहे गरीबन के चलते तोहनी ई ठाट -बाट से रह हो,नैय त.…....
"देख अ!तू गलत समझ रहल ह ,बात अइसन नय है"
"त फेर?"अगर सच में अइसन बात नैय है त सामने भीख माँग रहल भिखारी के जाके गला से लगाके देखाब त।"
"ओकरा हम भीख तो दे सकलिओ ह,लेकिन ई घिनाएल
भिखरिया के अप्पन गला से कौनो कीमत पर नैय लगा सकलिओ ह।तू चाह ह त जाके ओकरा से गला मिल ल।"
एतना सुनते ही ऊ कुरता वाला युवक लपकके ऊ भिखारी दने बढ़ गेलै ।जैते ही ओकरा अप्पन
बाजू में भरके गले से लगा लेलकै।
ऊ युवकवा के ऐसे अप्पन गला से लगते देख के पहिले तो भिखरिया तनी घबरा गेलै,बाकी फेर तनी सँभलते कहलकै-"बाबू,पेटबा तो गला लगाबे से नैय, रोटी से भरतय ......आ रोटी लागी त पैसा चाही न।

9) 

मैथली भाषा

पड़ाव आ पड़ताल खण्ड 22
डॉ सतीशराज पुष्करणाक 66 लघुकथा आ हुनक पड़ताल सँ
लघुकथा क्रमांक -2 पेज 48
अभ्यासक्रम -०१ डॉ. सतीशराज पुष्करणा जीक लघुकथा सभ पर
दिखावा (लघुकथा)

एकटा कॉफ़ी हाउसक बाहर बरंडा मे लागल मेज-कुर्सी पर बैसल किछ युवक कॉफ़ी पीलाक संग-संग किछ ऊँच स्वर मे कोनो विषय पर बहस सेहो क' रहल छलाह। बाहर मेन रोड पर एकटा भिखमंगा हाथ मे कटोरा लेने भीखक उद्देश्य सँ ठाड़ छल| ओहि युवक सभ मे सँ एकटा युवक, जे कुर्ता-पैजामा पहिरने छला,एक सफारी सूट पहिरने युवक सँ कह' लागल, “तु पूंजीपति सभ गरीब-गुरबा केँ' देखनाय पसंद नहि करैत छ'|” जखन कि यैह गरीबक कारणेँ तु सभ एहि ठाठ-बाट सँ रहै छैं| नहि त'...|”
“देख! तु गलत बुझि रहल छैं | बात ऐहन नहि छैक|”
“तखन फेर”
“जौं सही मे एहन बात अछि, त' सोझा मे भीख माँगि रहल भिखमंगा केँ जा क' गरदनि सँ लगा क' देखा”
“ओकरा हम भीख त' द' सकैत छी, मुदा एहि मैल भिखारी केँ अपन गरदनि सँ कोनो कीमत पर नहि लगा सकै छी| तु चाहै छैं त' जा केँ ओकरा गरदनि सँ लगा| या...”
एतेक सुनिते कुर्ताधारी युवक लपकि क' ओहि भिखमंगा दिस बढि गेल आ जाइते ओकरा अपन बाँहि मे भरि गरदनि सँ लगा लेलक|
एहि तरहें युवक केँ अपन गरदनि लागैत देख पहिने त' भिखारी किछ डरा गेल, मुदा फेर किछ सम्हरैत बाजल, “ बाबु! पेट गरदनि लगेला सँ नहि रोटी सँ भरैत अछि... आ रोटी कलेल पाय चाही|”

डॉ. सतीशराज पुष्करणा
Originally written by Dr. Satish Raj Pushkarna
Translated by Shri Shivam Jha in Maithali

१०) 

भारत की एक और बोली है कच्छी जिसकी लिपि गुजराती ही होती है, इस भाषा में भी यह मेरा प्रथम प्रयास है

દેખાવો (લઘુકથા)
હકડે કોફી હોઉસ જી બાર જી લોબી મેં કુર્સી-ટેબલ સરખા ગોઠવાયેલા વા, હેન મત્થે અમુક યુવાન કોફી પીંધે-પીંધે અમુક વિષય તે વદડે અવાઝ
માં ચર્ચા કર્ધા વા. બાર મેન રોડ તે હકડો ભિખારી પોતેજે હથ મેં હકડો વાટકો પકડી ને ભીક મન્ગેલાય ઉભો વો. હેન મળે યુવાનો મેં હકડો સાધારણ જબ્ભે-પય્જામે વો ,હેનજી સામે હકડો પૈસા વાળો યુવાન સફારી મેં વો, પેલ્લો ગુસ્સે થી બોલ્યો,' આયીં મળે પૈસા વાળા ગરીબ સામે નેરેલાય કડે પણ તૈયાર નાથા થિયો, આયીં મળે ભૂલી વનોતા કે ગરીબ જેજ લીધે આયી મળે ઠાઠ થી રયી શકો તા.હી ન હોત તો...'
'ના, હેડો નાય, તું જે વિચારેતો ઈ તદ્દન ખોટો આય.'
'સચ્ચે! તો પછી કેડો આય?'
'જો તું સચ્ચો અયીયે તો હુડા વનીને ઉ ભિખારી કે બચ્ચી ભરીને અચ.'
'નેર , આઉ હેનકે ભીખ ડયી સકા, પણ હેટલે ગંદે ભિખારી કે બચ્ચી ન ભરી શકા.તું છુટ્ટો અયીએ, તોકે કરનું હોય તો કરી અચ, મૂંજી છૂટ આય, નયીતો..'
હેટલો સુણી ને જબ્ભો વાળો યુવાન ઉઠ્યો અને હેન ભિખારી પાસે વનીને બચ્ચી ભરયી.
એકદમ ઓચિંતો હેડો નેરીને ઉ ભિખારી પેલા તો થોડો ધારજી વ્યો પણ પછી પોતે કે સંભાળી ગણયી, અને બોલ્યો,' ભા, બચ્ચી ભરીને પેટ ના ભરાય, હેન લાય ખાધે જો ખપ્પે, રોટલા ખપ્પન, અને ખાદેલાય, પૈહ્યા ખપ્પન.'

મૂળ લેખક : ડોક્ટર. સતીશ રાજ પુષ્કરના
અનુવાદ; કલ્પના ભટ્ટ

11) 
दिनांक 5 नवम्बर 2019
* मूल लेखक डा.सतीश राज पुष्करणा
भोजपुरी अनुवाद नीतू सुदीप्ति 'नित्या'

'देखावा'

एगो कॉफी हॉउस के बहरी बरमदा में लागल टेबुल -कुरसी प बइठल कुछ नौजवान युवक कॉफी पीये के जवरे कुछु तेज आवाज में कवनो विषय प बहस करत रहन जा ।
बहरी सड़क प एगो भिखारी हाथ में कटोरा लेले भीख मांगे खातिर खाड़ रहे ।
ओह युवक में से एगो युवक जवन कुरता - पैजामा पहिनले रहे एगो सफारी सूट पहिनले युवक से कहल, "तू पूंजीपति लोग गरीबन के देखल तनिको ना पसन करेल जा । जबकि इहे गरीब लोग के चलते तू लोग एतना ठाठ - बाट से रहेल । ना त ...।"
"देख s, तू गलत समुझत बाड़ s । बात अइसन नइखे ।"
" त फिरू ।"
" जदी सच में अइसन बात बा, त सोझा भीख मांगत ऊ भिखारी के जाके गला लगा के देखाव s।"
"हम ओकरा के भीख दे सकत बानी, बाकिर एह गंदा भिखारी के अपना गला कवनो कीमत प नइखी लगा सकत । तू चाहत बाड़ s त जाके ओकरा गला मिल ल s । भा ...।
एतना सुनते ऊ कुरता पहिनल युवक लपक के ओह भिखारी के ओर बढ़ल आ जाते ही ओकरा के आपन बाँहि में भरि के गला से लगा लेलस ।
एह तरह युवक के अपना गला लगते देख पहिले त भिखारी कुछु घबराइल, बाकिर फेनु कुछु समहरते बोलल, "बाबू, पेट गला लागे से ना रोटी से भरेला ...। आ रोटी खातिर पइसा चाहीं ।"

12. 
in malyalam dated 5th nov 2019
കാണിക്കുക
ഒരു കോഫി ഹൗസിന് പുറത്ത്, വരാന്തയിലെ മേശക്കസേരയിൽ ഇരിക്കുന്ന ചില യുവാക്കൾ കാപ്പി കുടിക്കുന്നതിനൊപ്പം ചില വിഷയങ്ങളിൽ ഉച്ചത്തിലുള്ള ശബ്ദത്തിൽ തർക്കിച്ചുകൊണ്ടിരുന്നു. മെയിൻ റോഡിന് പുറത്ത്, ഭിക്ഷാടനത്തിനായി ഒരു ഭിക്ഷക്കാരൻ കയ്യിൽ ഒരു പാത്രവുമായി നിന്നു. കുർത്ത-പൈജാമ ധരിച്ച ഒരു യുവാവ് സഫാരി സ്യൂട്ട് ധരിച്ച യുവാവിനോട് പറഞ്ഞു, "മുതലാളിത്ത ജനങ്ങളേ നിങ്ങൾ ദരിദ്രരെ കാണാൻ ഇഷ്ടപ്പെടുന്നില്ല." ആകുക അല്ലെങ്കിൽ… ”
"നോക്കൂ! നിങ്ങൾ അത് തെറ്റായി മനസ്സിലാക്കുന്നു. ഇത് അങ്ങനെയല്ല. "
"പിന്നെ"
"ശരിക്കും അങ്ങനെയാണെങ്കിൽ, പോയി ഭിക്ഷക്കാരൻ നിങ്ങളുടെ മുൻപിൽ യാചിക്കുന്നത് കാണിക്കുക."
"എനിക്ക് അദ്ദേഹത്തിന് ദാനം നൽകാം, പക്ഷേ ഈ വൃത്തികെട്ട ഭിക്ഷക്കാരനെ എനിക്ക് എന്ത് വിലകൊടുത്തും സ്വീകരിക്കാൻ കഴിയില്ല. നിങ്ങൾക്ക് വേണമെങ്കിൽ പോയി അവനെ കെട്ടിപ്പിടിക്കുക. അല്ലെങ്കിൽ… ”
ഇതുകേട്ട കുർത്തയുമായി യുവാവ് ഭിക്ഷക്കാരന്റെ അടുത്തേക്ക് ഓടിക്കയറി കൈകളിൽ നിറച്ച് പോകുമ്പോൾ കെട്ടിപ്പിടിച്ചു.
അങ്ങനെ, യുവാവ് അവനെ കെട്ടിപ്പിടിക്കുന്നത് ആദ്യം കണ്ടപ്പോൾ യാചകന് അല്പം പരിഭ്രാന്തി വന്നു, പക്ഷേ അയാൾ "ബാബു! ആലിംഗനം അല്ല, ആമാശയം അപ്പം നിറയ്ക്കുന്നു ... ബ്രെഡിന് പണം ആവശ്യമാണ്.

13)
in Kannada dated 5th Nov 2019

ಪ್ರದರ್ಶಿಸಿ
ಕಾಫಿ ಮನೆಯ ಹೊರಗೆ, ವರಾಂಡಾದಲ್ಲಿ ಟೇಬಲ್-ಚೇರ್ಗಳ ಮೇಲೆ ಕುಳಿತಿದ್ದ ಕೆಲವು ಯುವಕರು ಕಾಫಿ ಕುಡಿಯುವುದರ ಜೊತೆಗೆ ಕೆಲವು ವಿಷಯದ ಬಗ್ಗೆ ದೊಡ್ಡ ಧ್ವನಿಯಲ್ಲಿ ವಾದಿಸುತ್ತಿದ್ದರು. ಮುಖ್ಯ ರಸ್ತೆಯ ಹೊರಗೆ, ಭಿಕ್ಷುಕನ ಉದ್ದೇಶಕ್ಕಾಗಿ ಭಿಕ್ಷುಕನು ಕೈಯಲ್ಲಿ ಬಟ್ಟಲಿನೊಂದಿಗೆ ನಿಂತನು. ಕುರ್ತಾ-ಪೈಜಾಮ ಧರಿಸಿದ ಯುವಕರೊಬ್ಬರು, ಸಫಾರಿ ಸೂಟ್ ಧರಿಸಿದ ಯುವಕನಿಗೆ, "ನೀವು ಬೂರ್ಜ್ವಾಸಿ ಬಡವರನ್ನು ನೋಡಲು ಇಷ್ಟಪಡುವುದಿಲ್ಲ" ಎಂದು ಹೇಳಿದರು. ಆದರೆ ಈ ಬಡ ಜನರ ಕಾರಣದಿಂದಾಗಿ ನೀವು ಈ ಚಿಕ್ ರೀತಿಯಲ್ಲಿ ವಾಸಿಸುತ್ತಿದ್ದೀರಿ ಬಿ ಇಲ್ಲದಿದ್ದರೆ… ”
"ನೋಡಿ! ನೀವು ಅದನ್ನು ತಪ್ಪಾಗಿ ಪಡೆಯುತ್ತಿದ್ದೀರಿ. ಈ ರೀತಿಯಾಗಿಲ್ಲ. "
"ನಂತರ"
"ಅದು ನಿಜವಾಗಿದ್ದರೆ, ಹೋಗಿ ಭಿಕ್ಷುಕ ಭಿಕ್ಷಾಟನೆಯನ್ನು ನಿಮ್ಮ ಮುಂದೆ ತೋರಿಸಿ."
"ನಾನು ಅವನಿಗೆ ಭಿಕ್ಷೆ ನೀಡಬಲ್ಲೆ, ಆದರೆ ಈ ಕೊಳಕು ಭಿಕ್ಷುಕನನ್ನು ನಾನು ಯಾವುದೇ ವೆಚ್ಚದಲ್ಲಿ ಸ್ವೀಕರಿಸಲು ಸಾಧ್ಯವಿಲ್ಲ. ನಿಮಗೆ ಬೇಕಾದರೆ, ಹೋಗಿ ಅವನನ್ನು ತಬ್ಬಿಕೊಳ್ಳಿ. ಅಥವಾ… ”
ಇದನ್ನು ಕೇಳಿದ ಕುರ್ತಾ ಹೊಂದಿದ್ದ ಯುವಕ ಭಿಕ್ಷುಕನ ಕಡೆಗೆ ಧಾವಿಸಿ ಅದನ್ನು ತನ್ನ ತೋಳುಗಳಲ್ಲಿ ತುಂಬಿಸಿ ಅವನು ಹೋಗುತ್ತಿದ್ದಂತೆ ತಬ್ಬಿಕೊಂಡನು.
ಹೀಗೆ, ಮೊದಲು ಯುವಕನು ಅವನನ್ನು ತಬ್ಬಿಕೊಳ್ಳುವುದನ್ನು ನೋಡಿದ ಭಿಕ್ಷುಕನಿಗೆ ಸ್ವಲ್ಪ ಬೇಸರವಾಯಿತು, ಆದರೆ ನಂತರ ಅವನು "ಬಾಬು! ಹೊಟ್ಟೆಯು ಬ್ರೆಡ್ನಿಂದ ತುಂಬುತ್ತದೆ, ತಬ್ಬಿಕೊಳ್ಳುವುದರಿಂದ ಅಲ್ಲ ... ಮತ್ತು ಬ್ರೆಡ್ಗೆ ಹಣದ ಅಗತ್ಯವಿದೆ. "

14 
in Tamil

காட்டு
ஒரு காபி ஹவுஸுக்கு வெளியே, வராண்டாவில் மேஜை நாற்காலிகளில் அமர்ந்திருந்த சில இளைஞர்கள் காபி குடித்துக்கொண்டிருந்தார்கள், அதே போல் ஏதோ ஒரு தலைப்பில் உரத்த குரலில் வாதிட்டனர். பிரதான சாலையில் வெளியே, ஒரு பிச்சைக்காரன் பிச்சை எடுக்கும் நோக்கத்திற்காக கையில் ஒரு கிண்ணத்துடன் நின்றான். குர்தா-பைஜாமா அணிந்திருந்த இளைஞர்களில் ஒருவர், சஃபாரி சூட் அணிந்த இளைஞரிடம், "நீங்கள் முதலாளித்துவ மக்கள் ஏழைகளைப் பார்க்க விரும்பவில்லை" என்று கூறினார். உள்ளன | இல்லையென்றால்… ”
"பாருங்கள்! நீங்கள் அதை தவறாகப் பெறுகிறீர்கள். இது அப்படி இல்லை. "
"பின்னர்"
"உண்மையில் அப்படி இருந்தால், போய் பிச்சைக்காரன் உங்கள் முன் பிச்சை எடுப்பதைக் காட்டு."
"நான் அவருக்கு பிச்சை கொடுக்க முடியும், ஆனால் இந்த அழுக்கு பிச்சைக்காரனை எந்த விலையிலும் என்னால் தழுவ முடியாது. நீங்கள் விரும்பினால், சென்று அவரை அணைத்துக்கொள்ளுங்கள். அல்லது… ”
இதைக் கேட்டதும், குர்தாவுடன் வந்த இளைஞன் பிச்சைக்காரனை நோக்கி விரைந்து வந்து அதை தன் கைகளில் நிரப்பி அவன் போகும்போது கட்டிப்பிடித்தான்.
இவ்வாறு, முதலில் அந்த இளைஞன் அவரைக் கட்டிப்பிடிப்பதைப் பார்த்ததும், பிச்சைக்காரன் கொஞ்சம் பதற்றமடைந்தான், ஆனால் பின்னர் அவன், “பாபு! கட்டிப்பிடிப்பதன் மூலம் அல்ல, வயிற்றை ரொட்டியால் நிரப்புகிறது ... மேலும் ரொட்டிக்கு பணம் தேவைப்படுகிறது

15)
In Telugu

చూపించు

ఒక కాఫీ హౌస్ వెలుపల, వరండాలోని టేబుల్-కుర్చీలపై కూర్చున్న కొంతమంది యువకులు కాఫీ తాగుతూ, కొన్ని అంశాలపై పెద్ద గొంతులో వాదిస్తున్నారు. ప్రధాన రహదారి వెలుపల, యాచించే ఉద్దేశ్యంతో ఒక బిచ్చగాడు చేతిలో ఒక గిన్నెతో నిలబడ్డాడు. కుర్తా-పైజామా ధరించిన యువకులలో ఒకరు సఫారీ సూట్ ధరించిన యువకుడితో, "మీరు బూర్జువా పేదలను చూడటం ఇష్టం లేదు" అని అన్నారు. అయితే ఈ పేద ప్రజల కారణంగా మీరు ఈ చిక్ పద్ధతిలో నివసించారు ఉన్నాయి | లేకపోతే… ”
"చూడండి! మీరు తప్పు చేస్తున్నారు. ఇది అలా కాదు. "
"అప్పుడు"
"అది నిజంగా అలా అయితే, వెళ్లి మీ ముందు బిచ్చగాడు యాచించడాన్ని చూపించు."
"నేను అతనికి భిక్ష ఇవ్వగలను, కాని నేను ఈ మురికి బిచ్చగాడిని ఏ ధరనైనా స్వీకరించలేను. మీకు కావాలంటే, వెళ్లి అతన్ని కౌగిలించుకోండి. లేదా… ”
ఇది విన్న కుర్తాతో ఉన్న యువకుడు బిచ్చగాడి వైపు పరుగెత్తుకుంటూ చేతుల్లో నింపి వెళ్ళేటప్పుడు కౌగిలించుకున్నాడు.
ఆ విధంగా, మొదట ఆ యువకుడు తనను కౌగిలించుకోవడం చూసి, బిచ్చగాడు కొంచెం భయపడ్డాడు, కాని అప్పుడు అతను "బాబు! కడుపు రొట్టెతో నింపుతుంది, కౌగిలించుకోవడం ద్వారా కాదు ... రొట్టెకి డబ్బు అవసరం. "

16) 
दिखावा लघुकथा (हरियाणवी) 


एक बै दो छोरे एक ढ़ाबे पै चाय पीण लाग रे थे अर जोर जोर त बहस कर रे थे। अर ढ़ाबे के साम्ही ही एक भीख मांगल आळा खड़ा था। बिचारा भीख की आस में था। 
उन दोनों छोरां ने उस भिखारी को देख्या अर आपस में कहण लागे... 
एक छोरा जो सादा-भोला दिख्ये था अपणे कपड़े लत्ते ते वो बोल्या दूसरे छोरे ते जो अपटूडेट बण रह्या था सूट-बूट पहण के - के भाई तम बड़े लोग(यानी पींस्यां आळे लोग) ते इन गरीब आदमियां ने देख के कति राज्जी कोन्या जबकि ये ही गरीब लोग थारे कारखाने में काम करके तमने बड़े साहब बणावं हैं। 
उसकी बात सुणके वो सूट-बूट आळा छोरा बोल्या - दखे भाई इसी बात ना से। 
त फैर किसी बात सै भाई - कुड़ता पजामे आळा छोरा बोल्या .. जै इसी बात ना सै त उस भिखारी कै जा के गले मिल के दिखा। 
सूट-बूट आळा बोल्या- भाई देख, मैं उसने भीख दे सकूं हूं पर इन गंदे कपड़्यां में अपने गले ना ला सकता। तनै गले मिलना से तो जा कै मिल ले भाई। 
इतणी सुणते ही कुड़ते-पजामे आळा छोरा भाजकै उस भिखारी कै गले लाग्या। भिखारी पहलां तै थोड़ा डरग्या फैर बोल्या - ओ बाबू जी.. गले मिलकै म्हारा पेट कोन्या भरैगा, पेट भरण तईं पईसा चाहिए सै। 

डॉ़ सतीशराज पुष्करणा जी ( लिखने वाले) 
हरियाणवी में रूपांतरित करण आळी प्रवीन मलिक बेबे

17)

बंगला अनुवाद
দেখানো

একটি কাফী হাউসের বারান্দার আগে রাখা কুর্সি আর টেবিলে বোসে অনেক যুবক জোর জোর করে কিছু টপিক উওপর চর্চা করছিলেন।
হঠাৎ বাইরে মেন রোড উপরের একটি ভিখারী হাথে বাটি নিয়ে ভিক্ষার উদেশায় দাড়িয়ে ছিলো।
সেই যুবককে মধায় এক যুবক কুর্তা পায়জামা পড়ে ছিলো, এক সাফারী সুট পড়া যুবক কে বলে,", তোর মতন ক্যাপিটালিস্ট লোগ গরীব জন কে দেখতে চাও না "।
তোমরা এই গরীব লোকের জন্য হী খুব আরাম করে থাকো বর্না,,,, ।
অন্ন বন্দু বলেন "দেখো! তুমি আমাকে ভুল বুঝছো। ইমানী কিছু ব্যাপার নয়"।
"তো"
"যদি কোনো কোথায় নেই, তো সামনে দাঁড়িয়ে ভিখারী কে হাক করতে পারেন।
না আমি কোনও কোস্ট গলা লাগতে পারবো কিন্তু যদি তুমি চাও তুম ওকে হাক কর যা,,,"
হঠাৎ উর কথা সুনে কুর্তা পায়জামা পড়ে জে যুবক টি ছিলো সে ঊঠ জয়ে আর ভিখারীর কাছে যায় আর ওকে ধরে নিয়ে নিজের আলিঙ্গন পাশে বন্ধে রাখে । কুর্তা পড়ে যুবক কে আলিঙ্গন করতে দেখে ভিখারী ভয় পেয়ে গেল আর মুখ সমলিয় বলে,",

বাবু! আমার পেট গলা জড়িয়ে লাগলে ভরবে না,,, আমকে রুটি জন্য পৌয়েশা চাই।"

संजू शरण (पटना)

शुक्रवार, 27 सितंबर 2019

विश्व हिन्दी लघुकथाकार निर्देशिका में शामिल लघुकथाकार

श्री मधुदीप गुप्ता की फेसबुक पोस्ट से 

अंकिता कुलश्रेष्ठ, अंजना अनिल, अंजली सिफर, अंजु दुआ जैमिनी, अंजु निगम, अंजुल कंसल ‘कनुप्रिया’, अखिलेन्द्र पाल सिंह, अखिलेश पालरिया, अनघा जोगलेकर, अनन्त श्रीमाली, अनीता रश्मि, अनिता ललित, अनिल रश्मि, अनिल शूर ‘आजाद’, अनीता मिश्रा सिद्धि, अनीता राकेश, अनुराग, अनुराग शर्मा, अनूप हरबोला, अन्तरा करवड़े, अपराजिता अनामिका श्रीवास्तव, अमरीक सिंह दीप, अमृतलाल मदान, अमृत राज, अमृता सिन्हा, अरविन्द सिंह नैकित सिंह, अरुण कुमार, अरुण कुमार गुप्ता, अर्चना तिवारी, अर्चना त्रिपाठी, अर्चना राय, अर्विना गहलोत, अलका अग्रवाल, अलका धनपत, अलका प्रमोद, अल्पना हर्ष, अविनाश अग्निहोत्री, अशोक ओझा, अशोक गुजराती, अशोक चतुर्वेदी, अशोक जैन, अशोक दर्द, अशोक भाटिया, अशोक मिश्र, अशोक यादव, अशोक लव, अशोक वर्मा, अशोक शर्मा भारती, अहमद रज़ा हाशमी, आद्या शुक्ला तिवारी, आनन्द किशोर शास्त्री, आभा चन्द्रा, आभा सक्सेना, आभा सिंह, आरती बंसल, आरती शर्मा, आरती स्मित, अशोक चोपड़ा, आशा पुष्प, आशा लता खत्री, आशागंगा प्रमोद शिरढोणकर, आशा शर्मा, आशा शैली, आशीष दलाल, इन्दिरा खुराना, इन्दु गुप्ता, इन्दु भारद्वाज, इन्दु वर्मा, इंद्रा बंसल, इन्द्रा ‘स्वप्न’, ई गणेश जी बागी, ईशानी सरकार, ईश्वर चन्द्र, उदय श्री श्री ताम्हने, उपमा शर्मा, उपेन्द्र प्रसाद राय, उमा शंकर सिंह, उमेश महादोषी, उर्मि कृष्ण, उषा अग्रवाल पारस, उषा वर्मा, उषा भदौरिया, एकता कुमारी, एन एच देवा, एल आर राघव ‘तरुण’, ओमप्रकाश काद्यान, ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश, कंचन अपराजिता, कनक हरलालका, कपिल शास्त्री, कमल कपूर, कमल चोपड़ा, कमला अग्रवाल, कमलेश चौरसिया, कमलेश भारतीय, कल्पना भट्ट, कल्पना मिश्र, कल्याणी कुसुम सिंह, कविता मालवीय, कविता वर्मा, कान्ता रॉय, कालीचरण प्रेमी, क़ासिम खुर्शीद , किशनलाल शर्मा, किशोर श्रीवास्तव, कुंकुम गुप्ता, कुँवर प्रेमिल, कुणाल शर्मा, कुमार गौरव, कुमार नरेन्द्र, कुमारसम्भव जोशी, कुमारी ज्योत्सना, कुलदीप जैन, कुसुम जोशी, कुसुम पारीक, कृष्ण कमलेश, कृष्ण चन्द्र महादेविया, कृष्ण मनु, कृष्णलता यादव, कृष्णानन्द कृष्ण, कोमल वाढवानी ‘प्रेरणा’, क्षमा सिसोदिया, ख़ुदेजा ख़ान, खेमकरण 'सोमन', गीता कैथल, गुरनाम सिंह, गुलशन मदान, गोविन्द भारद्वाज, गोविन्द शर्मा, ज्ञानदेव मुकेश, घनश्याम अग्रवाल, घनश्याम मैथिल 'अमृत', घमण्डीलाल अग्रवाल, चन्द्रभूषण सिंह चन्द्र, चन्द्रा सायता, चन्द्रेश कुमार छतलानी, चाँद मुंगेरीं, चाँदनी सेठी कोचर, चित्त रंजन गोप, चित्रा मुद्गल, चित्रा राणा राघव, चेतना भाटी, चैतन्य त्रिवेदी, जगदीश पन्त ‘कुमुद’, जगदीश राय कुलरियाँ, जनकजा कान्त शरण, जमाल अहमद ‘बस्तवी’, जयति जैन ‘नूतन’, जयेन्द्र कुमार वर्मा, जवाहर चौधरी, जसबीर चावला, जानकी बिष्ट वाही, जितेन्द्र ‘जीतू’, जितेन्द्र सूद, ज्योति जैन, ज्योति स्पर्श , ज्योत्सना कपिल, ज्योत्सना शर्मा, डिम्पल गौड़, तनु श्रीवास्तव, तिन्नी श्रीवास्तव, तेज नारायण सिंह ‘तपन’, तेजवीर सिंह तेज, त्रिलोक सिंह ठकुरेला, दामोदर खड़से, दिनेश नन्दन तिवारी, दिलीप भाटिया, दिव्या राकेश शर्मा, दीपक गिरकर, दीपक मशाल, देवराज डडवाल ‘संजु’, देवेन्द्र गो होल्कर, ध्रुव कुमार, नज़्म सुभाष, नन्दकिशोर बर्वे, नंदल हितैषी, नन्दलाल भारती, नयना (आरती) कानिटकर, नरेन्द्रकुमार गौड़, नरेन्द्र प्रसाद नवीन, नरेन्द्र श्रीवास्तव, नवल सिंह, निशान्तर, निशि शर्मा ‘जिज्ञाशु, नीता सैनी, नीता श्रीवास्तव, नीना छिब्बर, नीरज जैन ‘सरस’, नीरज सुधांशु, नीलिमा शर्मा निविया, नेहा अग्रवाल नेह, नेहा नाहटा, पंकज जोशी, पंकज भारद्वाज, पंकज शर्मा, पदम गोधा, पम्मी सिंह ‘तृप्ति’, पवन जैन, पवन शर्मा, पवित्रा अग्रवाल, पारस कुंज, पारस दासोत, प्रियंका श्रीवास्तव ‘शुभ्र’, पुरुषोत्तम दुबे, पुष्पलता कश्यप, पुष्पा जमुआर, पूजा अग्निहोत्री, पूनम आनन्द, पूनम झा, पूनम डोगरा, पूरन सिंह, पूर्णिमा शर्मा, पृथ्वीराज अरोड़ा, प्रगीत कुँवर, प्रतापसिंह सोढ़ी, प्रतिभा पाण्डे, प्रतिभा मिश्रा, प्रतिभा सिन्हा, प्रत्युष गुलेरी, प्रदीपकुमार शर्मा, प्रदीप शर्मा स्नेही, प्रद्युमन भल्ला, प्रबोधकुमार गोविल, प्रभा रानी, प्रभात कुमार धवन, प्रभात दुबे, प्रमिला वर्मा, प्रवीण कुमार, प्रेम विज, प्रेमलता सिंह, प्रेरणा गुप्ता, बद्रीप्रसाद पुरोहित, बलराम, बलराम अग्रवाल, बालकृष्ण गुप्ता ‘गुरु’, बिंदेश्वर प्रसाद गुप्ता, बीजेन्द्र जैमिनी, बीना राघव, बी एल आच्छा, भगवती प्रसाद द्विवेदी, भगवान देव चैतन्य, भगवान प्रियभाषी, भगवान वैद्य ‘प्रखर’, भगीरथ, भरत कुमार शर्म्मा, भरतचन्द्र शर्मा, भारती वर्मा बौड़ाई, भावना सक्सेना, मंगला रामचन्द्रन, मंजु गुप्ता, मंजुला भूतड़ा, मंजु शर्मा, मधु जैन, मधुकान्त, मधुदीप, मधुरेश नारायण, मनोज कर्ण, मनोज सेवलकर, महावीर उत्तरांचली, महाबीर रंवाल्टा, महिमा भटनागर, महिमाश्री, महिमा श्रीवास्तव वर्मा, महेन्द्र नेह, महेन्द्र सिंह महलान, महेश दर्पण, महेश शर्मा, माणक तुलसीराम गौड़, माधव नागदा, मार्टिन जॉन, मालती बसन्त, माला वर्मा, मिथिलेश अवस्थी, मिथिलेश कुमारी मिश्र, मिथिलेश दीक्षित, मिनाक्षी सिंह, मिन्नी मिश्रा, मीना पाण्डेय, मीरा जैन, मीरा प्रकाश, मुकेश शर्मा, मुक्ता, मुखर कविता, मुनटुन राज, मुन्नू लाल, मुरलीधर वैष्णव, मुहम्मद तारिक असलम (तस्नीम), मृणाल आशुतोष, मेहता नागेन्द्र सिंह, मोहन राजेश, मो0 नसीम अख्तर, योगराज प्रभाकर, योगेन्द्रनाथ शुक्ल, रंजना फतेपुरकर, रंजना सिंह, रक्षा शर्मा 'कमल', रघुविन्द्र यादव, रचना अग्रवाल गुप्ता, रजनीश दीक्षित, रणजीत सिंह टाडा, रत्नकुमार सांभरिया, रमेश कटारिया 'पारस', रमेश कपूर, रमेश चन्द्र, रमेश मनोहरा, रवि प्रभाकर, रविभूषण श्रीवास्तव, राकेश भारती, राज हीरामन, राजकुमार गौतम, राजकुमार निजात, रायतन यादव, राहिला आसिफ़, राजेन्द्र कुमार गौड़, राजेन्द्र नागर 'निरन्तर', राजेन्द्र मोहन त्रिवेदी 'बन्धु', राजेन्द्र राकेश, राजेन्द्र वामन काटदरे, राजेश उत्साही, राजेश शॉ, राज्यवर्धन सिंह 'सोच', राधेलाल 'नवचक्र', राधेश्याम भारतीय, रानी कुमारी, रामकुमार आत्रेय, रामकुमार घोटड़, रामदेव धुरंधर, रामनिवास बाँयला, रामनिवास मानव, राममूरत राही, रामेशवर काम्बोज 'हिमांशु', रावेन्द्रकुमार रवि, राहुल कुमार, रिद्मा निशादिनी लंसकार, रीता गुप्ता, रीनू पुरोहित, रुखसाना सिद्दीक़ी, रूपल उपाध्याय, रूप देवगुण, रूपसिंह चन्देल, रूपेन्द्र राज, ऋचा वर्मा, ऋता शेखर 'मधु' (रीता प्रसाद), रेखा मोहन, रेणु चन्द्रा माथुर, रेणु झा, रेणुका बड्थ्वाल, रोहित यादव, रोहित शर्मा, लकी राजीव, लक्ष्मण शिवहरे, लज्जाराम राघव 'तरुण', लता अग्रवाल, लवलेश दत्त, लाजपतराय गर्ग, लाडो कटारिया, लीला (मोरे) धुलधोये), वन्दना गुप्ता, वन्दना सहाय, वशिष्ठकुमार झमन, वसन्त निगुणे, वाणी दवे, विकेश निझावन, विक्रम सोनी, विजय अग्रवाल, विनय कुमार चंचरिक, विजय जोशी शीतांशु, विजयानन्द विजय, विजेता रानी, विद्यालाल, विनय गुदारी, विनीता राहुरीकर, विनोद खनगवाल, विभा रश्मि, विभारानी श्रीवास्तव, विमल भारतीय शुक्ल, विरेन्द्र 'वीर' मेहता, विवेक रंजन श्रीवास्तव, विष्णु कुमार, विष्णु सक्सेना, वीरेन्द्रकुमार भारद्वाज, शंकर प्रसाद, शकुंतला किरण, शक्तिराज कौशिक, शमीम शर्मा, शराफ़त अली ख़ान, शशी बंसल, शारदा गुप्ता, शालिनी खरे, शिखर चन्द जैन, शिखा कौशिक 'नूतन', शिखा तिवारी, शिव नारायण, शील कौशिक, शेख़ शहज़ाद उस्मानी, शैलेश दत्त मिश्र, शोभना श्याम, शोभा रस्तोगी, श्यामबिहारी श्यामल, श्याम शखा श्याम, श्याम सुन्दर अग्रवाल, श्याम सुन्दर दीप्ति, श्वेता सिंह, श्रीराम साहू 'अकेला', श्रुत कीर्ति अग्रवाल, संगीता कुमारी, संगीता गोविल, संजय कुमार 'संज', संजय कु0 सिंह, संजीव आहूजा, संजु शरण, संयोगिता शर्मा, सच्चिदानन्द सिंह 'साथी', सतविन्द्रकुमार राणा, सतीश दुबे, सतीश राठी, सतीशराज पुष्करणा, सत्यप्रकाश भारद्वाज, सत्यवीर मानव, सत्या शर्मा 'कीर्ति', सनतकुमार जैन, सन्तोष सुपेकर, सन्तोष श्रीवास्तव, संदीप आनन्द, संदीप तोमर, संध्या तिवारी, सम्राट समीर, सरिता रानी, सरोज गुप्ता, सविता इन्द्र गुप्ता, सविता मिश्रा 'अक्षजा', सविता सिंह नेपाली, सारिका भूषण, सिद्धेश्वर, सिमर सदोष, सीमा जैन, सीमा भाटिया, सीमा रानी, सीमा सिंह, सुकेश साहनी, सुखचैन सिंह भण्डारी, सुदर्शन रत्नाकर, सुदर्शन वशिष्ठ, सुधांशु कुमार, सुधा भार्गव, सुधाकर शर्मा (आशावादी), सुधीर कुमार, सुधीर द्विवेदी, सुनीता त्यागी, सुनीता पाटिल, सुनील गज्जाणी, सुनील वर्मा, सुबोध कुमार सिन्हा, सुभाष नीरव, सुभाष रस्तोगी, सुमन, सुरिंदर कौर 'नीलम', सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा, सुरेन्द्र गुप्त, सुरेन्द्र गोयल, सुरेन्द्र वर्मा, सुरेश कुशवाहा तन्मय, सुरेश बाबू मिश्रा, सुरेश शर्मा, सुरेश सौरभ (सुरेश कुमार), सुषमा सिन्हा, सूर्यकान्त नागर, सेवासदन प्रसाद, सैली बलजीत, स्नेह गोस्वामी, स्वाति तिवारी, हरदान हर्ष, हरनाम शर्मा, हरभगवान चावला, हरिनारायणसिंह 'हरि', हीरालाल नागर, हेमंत यादव 'शशि', हेमा चंदानी (अंजुली), हरीश कुमार 'अमित', हरीश सेठी 'झिलमिल', हर्ष राज, हारुन रशीद 'अश्क', हूंदराज बलवाणी.

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