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गुरुवार, 20 जून 2019

लघुकथा: अदृश्य जीत | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


जंगल के अंदर उस खुले स्थान पर जानवरों की भारी भीड़ जमा थी। जंगल के राजा शेर ने कई वर्षों बाद आज फिर खरगोश और कछुए की दौड़ का आयोजन किया था।

पिछली बार से कुछ अलग यह दौड़, जानवरों के झुण्ड के बीच में सौ मीटर की पगडंडी में ही संपन्न होनी थी। दोनों प्रतिभागी पगडंडी के एक सिरे पर खड़े हुए थे। दौड़ प्रारंभ होने से पहले कछुए ने खरगोश की तरफ देखा, खरगोश उसे देख कर ऐसे मुस्कुरा दिया, मानों कह रहा हो, "सौ मीटर की दौड़ में मैं सो जाऊँगा क्या?"

और कुछ ही क्षणों में दौड़ प्रारंभ हो गयी।

खरगोश एक ही फर्लांग में बहुत आगे निकल गया और कछुआ अपनी धीमी चाल के कारण उससे बहुत पीछे रह गया।

लगभग पचास मीटर दौड़ने के बाद खरगोश रुक गया, और चुपचाप खड़ा हो गया।

कछुआ धीरे-धीरे चलता हुआ, खरगोश तक पहुंचा। खरगोश ने कोई हरकत नहीं की। कछुआ उससे आगे निकल कर सौ मीटर की पगडंडी को भी पार कर गया, लेकिन खरगोश वहीँ खड़ा रहा।

कछुए के जीतते ही चारों तरफ शोर मच गया, जंगल के जानवरों ने यह तो नहीं सोचा कि खरगोश क्यों खड़ा रह गया और वे सभी चिल्ला-चिल्ला कर कछुए को बधाई देने लगे।

कछुए ने पीछे मुड़ कर खरगोश की तरफ देखा, जो अभी भी पगडंडी के मध्य में ही खड़ा हुआ था। उसे देख खरगोश फिर मुस्कुरा दिया, वह सोच रहा था,
"यह कोई जीवन की दौड़ नहीं है, जिसमें जीतना ज़रूरी हो। खरगोश की वास्तविक गति कछुए के सामने बताई नहीं जाती।"

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
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दैनिक भास्कर  मधुरिमा अंक
पत्रिका समाचार पत्र
उपरोक्त लघुकथा दैनिक भास्कर  के मधुरिमा अंक, पत्रिका समाचार पत्र तथा और भी कई स्थानों पर प्रकाशित हो चुकी है।