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रविवार, 19 जनवरी 2020

लेख | लघुकथा : रचना और शिल्प | मधुदीप



लघुकथा कथा परिवार का ही महत्वपूर्ण हिस्सा है जैसे कि उपन्यास, कहानी या नाटक । परिवार में जिस तरह हर व्यक्ति के गुण धर्म अलग-अलग होते हैं उसी तरह लघुकथा के भी गुण धर्म अन्य विधाओं से अलग हैं । लघु में विराट को प्रस्तुत करना ही लघुकथाकार का कौशल है । हमारे समक्ष पूरी सृष्टि है, इस सृष्टि में पृथ्वी है, पृथ्वी पर मनुष्य, मनुष्य का पूरा जीवन और उस जीवन का एक पल । यह विस्तृत से अणु की ओर यात्रा है और उस अणु का सही, सटीक वर्णण करना ही लघुकथा का अभीष्ट है । वही लघुकथाकार सफल माना जाता है जो उस पल को सही तरीके से पकड़कर उसकी पूरी संवेदना के साथ उसे पाठक तक प्रेषित कर सके । सृष्टि का अपना विशद महत्त्व है लेकिन हम अणु के महत्त्व को भी कम करके नहीं आँक सकते । मानव के पूरे जीवन में कितने ही महत्वपूर्ण पल होते हैं जो कि उपन्यास या कहानी लिखते समय लेखक की दृष्टि से ओझल रह जाते हैं क्योंकि उस समय लेखक की दृष्टि समग्र जीवन पर होती है मगर एक लघुकथाकार की दृष्टि में वे ही पल महत्वपूर्ण होते हैं जो एक कहानीकार या उपन्यासकार से उपेक्षित रह जाते हैं । उन पलों की कथा ही लघुकथा होती है और यही गुण-धर्म इस विधा को विशिष्ट भी बनाता है और अन्य विधाओं से अलग भी करता है । 
मैं आपके सामने एक बहुत पुरानी बात दोहरा रहा हूँ । लघुकथा एक शब्द है, इसे एकसाथ लिखना ही चाहिए मगर इसके दो भाग हैं, लघु तथा कथा और लघुकथा लिखते समय हमें इन दोनों बातों को ध्यान में रखना चाहिए । शुरू में तथा कुछ आग्रही अभी भी इसके पहले भाग लघु को लेकर बहुत आग्रही हैं । वे भूल जाते हैं कि इसमें कथा भी जुड़ा हुआ है और यदि लघुकथा में कथा नहीं होगी तो इसके लघु का क्या अर्थ रह जाएगा ! साहित्य में कथारस की अनिवार्यता से हम कतई इनकार नहीं कर सकते । इसलिए मेरा अनुरोध है कि आप विधा को बहुत अधिक लघु की सीमा में न बाँधें । उसे कथ्य की अनिवार्यता के अनुसार थोडा फैलाव लेने की आजादी अवश्य दें । कुछ आग्रही 250 शब्दों की सीमा पार करते ही उसे लघुकथा से बाहर कर देते हैं लेकिन मेरा मानना है कि यदि विषय और कथ्य की मांग है तो शब्द सीमा को 500-600 शब्दों तक यानी डेढ़-पौने दो पृष्ठ तक जाने दें लेकिन साथ ही मेरा कहना है कि लघुकथाकार अतिरिक्त विस्तार के मोह से बचें । भाई सतीशराज पुष्करणा और अन्य वरिष्ठों की बहुत-सी ऐसी श्रेष्ठ लघुकथाएँ हैं जो मेरी इस शब्द सीमा को छूती हैं । हाँ, कहानी के सार-संक्षेप को लघुकथा कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता ।
लघुकथा का मूल स्वर---- अब मैं आपके समक्ष इस विषय में अपने विचार रखना चाहता हूँ । मेरे विचार से पूरा साहित्य तीन बिन्दुओं पर टिका हुआ है । यथार्थ, संवेदना और विडम्बना यानी विसंगति । जीवन के यथार्थ का कलात्मक चित्रण ही साहित्य है । यथार्थ के कलात्मक चित्रण का मूल आधार है संवेदना और विडम्बना । संवेदना लघुकथा के साथ ही पूरे साहित्य का मूल आधार है लेकिन विडम्बना लघुकथा का मूल स्वर है । हालाँकि व्यंग्य पर भी विडम्बना या विसंगति का प्रभाव देखने को मिलता है लेकिन उसमें अतिश्योक्ति का भी प्रभाव होता है जिससे कि लघुकथा में बचना होता है । विडम्बना लघुकथा की तीव्रता को बहुत तीखा बना देती है । कहानी या उपन्यास में विडम्बना उतनी तीव्रता या तीखेपन से नहीं आ पाती क्योंकि उनके विवरण उसमें बाधक बन जाते हैं और विडम्बना का तीखापन खो जाता है । लघुकथा का फोर्मेट यानी आकार लघु होता है इसलिए इसमें जीवन की किसी भी विडम्बना को पूरी शिद्दत और तीखेपन के साथ प्रस्तुत किया जा सकता है । इसलिए यह लघुकथा की मूल प्रवृत्ति के के रूप में सामने आता है । इसका यह अर्थ कदापि न लगाया जाए कि संवेदना का लघुकथा में महत्वपूर्ण स्थान नहीं है । मैं पहले ही साफ़ कर चुका हूँ कि संवेदना पूर्ण साहित्य का मूल आधार है । हाँ, जीवन के यथार्थ पलों का विडम्बनात्मक चित्रण प्रस्तुत करके मानव सम्वेदना को अधिक गहराई से प्रस्तुत किया जा सकता है । यही साहित्य का प्राप्य है और लघुकथा का मूल स्वर भी ।
मेरे कुछ लघुकथाकार साथी लघुकथा में कालदोष को लेकर बहुत चिन्तित रहते हैं । ऊपर मैंने भी कहा है कि लघुकथा पल का कलात्मक चित्रण होती है मगर वह पल कितना बड़ा हो सकता है इसमें आकर हम उलझ जाते हैं । बात कुछ पलों, घंटों की ही होती है मगर उसे सही तरीके से प्रस्तुत करने के लिए हमें कई बार फ्लैश बेक में उस घटना को भी प्रस्तुत करना होता है जिससे ये पल सम्बन्धित होते हैं । कई बार कोई बड़ी बात कहने के लिए हमें घटना का फलक कुछ बड़ा लेना होता है और उसे देखकर हम भ्रमित हो जाते हैं कि यह लघुकथा कालदोष का शिकार हो गई । मेरी अपनी एक लघुकथा ‘समय का पहिया घूम रहा है’, अशोक भाटिया की लघुकथा ‘नमस्ते की वापिसी’ तथा भाई श्याम सुन्दर अग्रवाल की लघुकथा ‘सन्तू’ को लेकर काफी पाठक और नवोदित लघुकथाकार भ्रमित हो चुके हैं लेकिन ये सभी बेहतरीन लघुकथाएँ हैं, सब इस बात को स्वीकार करते हैं । यदि हमें लघुकथा के माध्यम से किसी बड़े फलक की कोई महत्वपूर्ण बात कहनी है तो हमें इस विषय में थोडा लचीला रुख अपनाना होगा । फ्लैश बेक या अन्य तरीकों से और लघुकथाकार अपने कौशल से इसे बाखूबी साध सकता है । इसके कुछ उदाहरण हमें वरिष्ठों की बहुत-सी श्रेष्ठ लघुकथाओं में देखने को मिल सकता है । इस विषय में जितनी शंकाएँ हैं, उन्हें कुछ समय के लिए अलग रखकर हम लघुकथा में कुछ बड़ी बात कहें और अपने कौशल से उस रचना में कालदोष का निवारण करें । कहीं हमारी लघुकथा घर-परिवार के विषयों में ही उलझकर या सिमटकर न रह जाए । हमें आज के समय को पकड़ना है, आज की बड़ी-बड़ी समस्याओं को पूरी शिद्दत से लघुकथा में प्रस्तुत करना है तभी लघुकथा इस सदी की विधा बन सकेगी । कोई भी विधा तभी जीवित रहती है जब वह अतीत को याद करते हुए आज की मूलभूत समस्याओं से जुड़े । सिर्फ घर-परिवार, सास-बहु, बाप-बेटे के अच्छे-बुरे व्यवहार या दो विपरीत पक्षों का चित्रण करके लघुकथा बहुत आगे तक नहीं जा सकेगी । आज जीवन में बहुत तरह के उलझाव हैं और लघुकथा को उन्हें स्वर देना है ताकि वह आमजन के दिल में प्रवेश कर सके । हमें विधा को विस्तार देने के लिए आज के समय को अपनी लघुकथाओं का विषय बनाना ही होगा । कहानी यदि साहित्य की मूल धारा में रही है तो उसका यही कारण है कि उसने अपने समय की बहुत बारीकी से पहचान की है और उसे व्यक्त किया है । इस सदी की मूल विधा बनने के लिए लघुकथा को भी यही करना होगा ।
मेरी बात कुछ अधिक लम्बी होती जा रही है, इसलिए कुछ मुद्दों को मैं बहुत संक्षेप में आपके सामने रखूँगा । लघुकथा की भाषा जनभाषा के नजदीक होनी चाहिए अर्थात लघुकथा में जयशंकर प्रसाद की बजाय मुंशी प्रेमचन्द की भाषा अधिक स्वीकार्य होगी क्योंकि उसे हमारा आज का पाठक बेहतर तरीके से समझ सकता है । यह तो सर्वमान्य है कि हम जिसके लिए लिख रहे हैं उसे वह समझ तो आनी ही चाहिए । आज का समय विश्वविद्यालयों के शोध छात्रों या प्रोफेसरों के लिए लिखने का नहीं है ।
घटना और रचना के अन्तर को आप सब समझते हैं । मुझे यह कहने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए कि घटना रचना नहीं होती । घटना का विवरण प्रस्तुत करना पत्रकारिता होती है, साहित्य लेखन नहीं होता । इस बारे में कहने को बहुत समय चाहिए, इसलिए संकेत को समझें और नवोदित लघुकथाकार इस पर विशेष ध्यान दें ।
लघुकथा में पंच लाइन के बारे में बहुत संक्षेप में । सिर्फ पंच लाइन को ही लघुकथा का मूल समझने के भ्रम में न उलझें और न ही उसे समीक्षा का मूल आधार बनाएँ । लघुकथा को उसकी सम्पूर्णता में देखें, उसके लेखन में क्रमिक विकास का ध्यान रखें और कभी एक झटके से लघुकथा का अन्त न करें । यदि स्वाभाविक रूप से लघुकथा के अन्त में किसी विडम्बना के कारण कोई पंच आता है तो ही ठीक होगा अन्यथा वह लघुकथा में थोपा हुआ लगेगा । यह बात मैं जोर देकर इसलिए कह रहा हूँ कि मेरे बहुत से नवोदित साथी इस पंच लाइन शब्द की अवधारणा से भ्रमित हो रहे है जबकि 2012 से पहले ऐसा बिलकुल नहीं था ।
एक बात और, आजकल फेस बुक पर जो लघुकथाएँ आ रही हैं उनमें कथ्य तो पुराने हैं ही, उनके प्रस्तुतिकरण में भी कोई नवीनता नहीं है । हमें नए विषय तो तलाशने ही होंगे, साथ ही लघुकथा लिखते समय शिल्प, शैली और भाषा की तरफ भी धयान देना होगा । लघुकथा के शिल्प और शैली में नए प्रयोग विधा को आगे ले जाने में सहायक होंगे । हमारे वरिष्ठ साथियों को तो लघुकथा में बेहिचक कुछ नए प्रयोग करने ही चाहियें ताकि विधा में ठहराव के खतरे से बचा जा सके । नए लेखकों में भी नई ऊर्जा है, वे भी मेरी इस बात पर गौर करें । लघुकथा में बिम्बों का बहुत महत्वपूर्ण स्थान होता है, इसकी तरफ विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए ।
अन्त में एक आग्रह, लघुकथा को बहुत अधिक बन्धनों में न जकड़ें और कुछ समय तक इसका स्वाभाविक विकास होने दें । समय और स्वतन्त्र समीक्षक ही इसके सही स्वरूप की पहचान पहचान निर्धारित करेंगे ।
मेरा लघुकथाकारों से इतना ही आग्रह है --- लघुकथा में पल विशेष को मजबूती से पकड़िये, उसे आज से जोड़कर रखिये । लघुकथा साहित्य की मुख्य विधा के रूप में पाठक के सामने आ रही है, इसमें कतई कोई सन्देह नहीं होना चाहिए ।**

सम्पर्क : 138/16 त्रिनगर, दिल्ली-110 035 
मोबाइल : 93124 00709

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (21-01-2020) को   "आहत है परिवेश"   (चर्चा अंक - 3587)   पर भी होगी। 
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 

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    1. बहुत-बहुत आभार आदरणीय डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' जी सर।

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