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सोमवार, 28 फ़रवरी 2022

मेरी एक लघुकथा राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर | मानव-मूल्य

 

मानव-मूल्य / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

वह चित्रकार अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति को निहार रहा था। चित्र में गांधीजी के तीनों बंदरों  को विकासवाद के सिद्दांत के अनुसार बढ़ते क्रम में मानव बनाकर दिखाया गया था।
उसके एक मित्र ने कक्ष में प्रवेश किया और चित्रकार को उस चित्र को निहारते देख उत्सुकता से पूछा, “यह क्या बनाया है?”
चित्रकार ने मित्र का मुस्कुरा कर स्वागत किया फिर ठंडे, गर्वमिश्रित और दार्शनिक स्वर में उत्तर दिया, “इस तस्वीर में ये तीनों प्रकृति के साथ विकास करते हुए बंदर से इंसान बन गये हैं, अब इनमें इंसानों जैसी बुद्धि आ गयी है। ‘कहाँ’ चुप रहना है, ‘क्या’ नहीं सुनना है और ‘क्या’ नहीं देखना है, यह समझ आ गयी है। अच्छाई और बुराई की परख – पूर्वज बंदरों को ‘इस अदरक’ का स्वाद कहाँ मालूम था?”
आँखें बंद कर कहते हुए चित्रकार की आवाज़ में बात के अंत तक दार्शनिकता और बढ़ गयी थी।
“ओह! लेकिन तस्वीर में इन इंसानों की जेब कहाँ है?” मित्र की आवाज़ में आत्मविश्वास था।
चित्रकार हौले से चौंका, थोड़ी सी गर्दन घुमा कर अपने मित्र की तरफ देखा और पूछा, “क्यों…? जेब किसलिए?”
मित्र ने उत्तर दिया,
“ये केवल तभी बुरा नहीं देखेंगे, बुरा नहीं कहेंगे और बुरा नहीं सुनेगे जब इनकी जेबें भरी रहेंगी। इंसान हैं बंदर नहीं…”
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- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
उदयपुर (राजस्थान)
9928544749
chandresh.chhatlani@gmail.com




शनिवार, 26 फ़रवरी 2022

जनलोक इंडिया टाइम्स में मेरी एक लघुकथा | सब्ज़ी मेकर

 

at janlokindiatimes.com (URL पर जाने हेतु क्लिक/टैप करें)

इस दीपावली वह पहली बार अकेली खाना बना रही थी। सब्ज़ी बिगड़ जाने के डर से मध्यम आंच पर कड़ाही में रखे तेल की गर्माहट के साथ उसके हृदय की गति भी बढ रही थी। उसी समय मिक्सर-ग्राइंडर जैसी आवाज़ निकालते हुए मिनी स्कूटर पर सवार उसके छोटे भाई ने रसोई में आकर उसकी तंद्रा भंग की। वह उसे देखकर नाक-मुंह सिकोड़कर चिल्लाया, "ममा... दीदी बना रही है... मैं नहीं खाऊंगा आज खाना!"

सुनते ही वह खीज गयी और तीखे स्वर में बोली, "चुप कर पोल्यूशन मेकर, शाम को पूरे घर में पटाखों का धुँआ करेगा..."

उसकी बात पूरी सुनने से पहले ही भाई स्कूटर दौड़ाता रसोई से बाहर चला गया और बाहर बैठी माँ का स्वर अंदर आया, "दीदी को परेशान मत कर, पापा आने वाले हैं, आते ही उन्हें खाना खिलाना है।"

लेकिन तब तक वही हो गया था जिसका उसे डर था, ध्यान बंटने से सब्ज़ी थोड़ी जल गयी थी। घबराहट के मारे उसके हाथ में पकड़ा हुई मिर्ची का डिब्बा भी सब्ज़ी में गिर गया। वह और घबरा गयी, उसकी आँखों से आँसूं बहते हुए एक के ऊपर एक अतिक्रमण करने लगे और वह सिर पर हाथ रखकर बैठ गयी। 

उसी मुद्रा में कुछ देर बैठे रहने के बाद उसने देखा कि  खिड़की के बाहर खड़ा उसका भाई उसे देखकर मुंह बना रहा था। वह उठी और खिड़की बंद करने लगी, लेकिन उसके भाई ने एक पैकेट उसके सामने कर दिया। उसने चौंक कर पूछा, "क्या है?"

भाई धीरे से बोला, "पनीर की सब्ज़ी है, सामने के होटल से लाया हूँ।"

उसने हैरानी से पूछा, "क्यूँ लाया? रूपये कहाँ से आये?"

भाई ने उत्तर दिया, "क्रैकर्स के रुपयों से... थोड़ा पोल्यूशन कम करूंगा... और क्यूँ लाया!"
अंतिम तीन शब्दों पर जोर देते हुए वह हँसने लगा।
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- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

बुधवार, 23 फ़रवरी 2022

लघुकथा संग्रह समीक्षा | कितना-कुछ अनकहा | समीक्षक: अनिल मकारिया | लेखिका: कनक हरलालका

विचारक बन पाना आसान बात नहीं है और वो भी साहित्य में, जहां आपके समक्ष कई महारथी सितारे सदृश चमक रहे हों। ऐसे में अपने विचारों में ताज़गी और नयापन ही आपकी कलम को प्रकाशित कर सकते हैं। अनिल मकारिया से मेरी पहचान यों तो एक अच्छे लघुकथाकार के रूप में हुई थी लेकिन कुछ ही समय में उनकी समीक्षा करने की शैली में एक ऐसी ताज़गी का अनुभव हुआ जिससे मैं प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाया। कनक हरलालका के लघुकथा संग्रह 'कितना-कुछ अनकहा' की समीक्षा आपने चार भागों में की है और लगभग सभी रचनाओं पर अपनी बात रखी है। इस तरह की समीक्षा, मैं मानता हूँ कि, सभी के समक्ष आनी चाहिए। समीक्षा के चारों भाग यहाँ भी प्रस्तुत हैं:

लघुकथा संग्रह: कितना-कुछ अनकहा

समीक्षक: अनिल मकारिया

लेखिका: कनक हरलालका

प्रकाशन : दिशा प्रकाशन, दिल्ली

मूल्य : ₹३००

पृष्ठ : १२०


भाग-1

एक 65 साला इंसानी जुर्रत है जो अपनी रचनाओं के बाबत लिखती हैं, "लघुकथारूपी रस्सियों से आसमान को बांधकर ज़मीन पर लाने का यह मेरा एक प्रयास मात्र है।"

मुझे आश्चर्य है की जब इनकी हमजातें सास-बहू के विवाद और अमलतास-हरसिंगार की प्रेम कहानियां लिख रही होंगी तब यह जुर्रत 'गांधी को किसने मारा?' 'मिट्टी' और 'इनसोर' रच रही थी।

शालीन और मौन जुर्रत की अगर कोई इंसानी पहचान होती तो शायद वह कनक हरलालका के नाम से जानी जाती।

इस पुस्तक का लेखकीय व्यक्तव्य पढ़ने से पहले भी मुझे जर्रा भर शुबहा नही था कि कनक जी की कलम पर पवन जैन सर के अदब की रहबरी है।

किसी भी लेखक/लेखिका की जनप्रियता इस बात पर भी निर्भर करती है कि वह खुद को किस तरह से प्रस्तुत करता है?

आजकल खुद को प्रस्तुत करने के मायने fb वॉल या इंस्टा की तस्वीरें हैं लेकिन यहां पर मेरा सवाल लेखन द्वारा प्रस्तुत करने से संबंधित है।

आप जब किताबों में जादू और तिलस्म पढ़ने की ख्वाहिश रखते हैं तो अनायास ही जे.के रोलिंग का नाम जादुई झाड़ू पर सवार आपके दिमाग के इर्द-गिर्द घूमने लगता है। उसी प्रकार चेतन भगत युवा वर्ग और नए दौर के लेखन का परिचायक बन चुके हैं क्योंकि इन्होंने इस तरह के ही लेखन द्वारा खुद को प्रस्तुत किया है।

अनकहा केवल कनक जी के लघुकथा लेखन का ही परिचायक नही है बल्कि उनके द्वारा सोशल साइट्स की हर बहस-मुबाहिसा में भी स्वंय को अनकहा ही रखना खुद के शालीन प्रस्तुतिकरण का स्थापन है।

इस लघुकथा संग्रह के बारे में मधुदीप सर की लिखी इन पंक्तियां से भी मैं इतेफाक रखता हूँ,

'इन लघुकथाओं को पढ़कर हम विधा(लघुकथा विधा) की ताकत को सहज ही समझ सकते हैं।'

'कितना-कुछ अनकहा' शीर्षक लेखिका की लघुकथाओं का ही नही वरन् लेखिका के व्यक्तित्व का भी प्रतिनिधित्व कर रहा है और शीर्षक के ऐन नीचे बना चित्र भी खुद का अनकहा ही व्यक्त कर रहा है।

 चित्र में पति-पत्नी-बच्चे के सामाजिक त्रिकोण के बीच में फंसी लाल बिंदी के बहते आंसू एवं गुबार उस त्रिकोण की सीमा रेखा को लांघते साफ दिख रहे हैं।

 पढ़ते-पढ़ते

दो दुश्मन देशों के राष्ट्राध्यक्ष शतरंज खेल रहे हैं (अनकहा) लेकिन लघुकथा में यह कहीं नही लिखा गया कि वे दोनों राष्ट्राध्यक्ष हैं या फिर दुश्मन देशों के हैं। यह काबिले रश्क अंदाजे बयाँ हैं कनक जी का।

इस लघुकथा के दो सबसे छोटे संवाद जब आप पढ़ते हो।

"हाँ, तो तुम क्या लोगे?"

"जो तुम ले रहे हो।"

लगता है कि बात तो हो रही है शराब की लेकिन मन में कहीं बजता है मानों दो देशों के बीच किसी विवादास्पद क्षेत्र या प्रदेश को हड़पने, कब्जा कर बैठने का तंज मारा जा रहा है। (अनकहा)

इन दोनों संवादों से पहले वाले संवाद भी अपरोक्ष रूप से हमेशा चलने वाली सैनिक झड़पों का ही इशारा दे रहे हैं।

एक बढ़िया कथ्य //बाजी फिर उलझ गई।//  पर लघुकथा खत्म करके लेखिका प्रस्तुत कर सकती थी लेकिन पता नही किस प्रभाव से अंत में जबरन अस्वाभाविकता जोड़ दी गई है।

//पर तभी अचानक... खड़े-खड़े देखते रह गए// इन पंक्तियों से लघुकथा में अप्रभावी कथ्य एवं अस्वाभाविकता का जन्म हो रहा है।

यह पंक्तियां पढ़कर मुझे लगा जैसे एक बेहतरीन शिल्प और कथ्य को बलपूर्वक खत्म कर दिया गया।

मुझे इस संग्रह की समीक्षा से अलग सिर्फ इस लघुकथा की समीक्षा करने के लिए इन्हीं बेज़ा अंतिम पंक्तियों ने मजबूर किया है।

इस लघुकथा का कथानक एवं शीर्षक चयन इतना मौजूं है कि आप इसे कनक जी के इस संग्रह की (कितना-कुछ अनकहा) प्रतिनिधि लघुकथा कह सकते हैं ।

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भाग-2

120 पन्नों के संग्रह में कुल 87 लघुकथाएं हैं अब मैं अगर संग्रह 29 लघुकथाओं को भागों में विभक्त करके पहले भाग की 29 लघुकथाओं में से चुनिंदा बेहतरीन एवं कमजोर लघुकथाओं की बात रखूंगा और मैं कोशिश करूँगा की मेरा यह प्रयास पाठकों के लिए नीरस साबित न हो। अगर आपने कनक जी को पहले पढ़ा है तो जानते होंगे की इन के लघुकथा रूपी कमरे में से एन वही वस्तु गायब कर दी जाती है जिसकी तलाश में पाठक उस कमरे में मौजूद होता है और उसी चीज को ढूंढने के लिए पाठक पुनः पुनः उस लघुकथा रूपी कमरे में अपनी हाजिरी दर्ज करवाता रहता है।

लेखिका के इसी हस्ताक्षर लेखन की बानगी है संग्रह की प्रथम लघुकथा 'प्यास'। मुझे यकीन है की पाठक इस बेहतरीन शिल्प से कसी लघुकथा पर नायिका की प्यास समझने के लिए कई बार दस्तक देंगे।

'घुटन' शीर्षक वाली लघुकथा के किरदार ऑटोरिक्शा चालक को मैं आज की आपाधापी से भरी स्वार्थी जिंदगी का अविष्कार मानता हूं। आज किसीके पास खुद के परिवार के लिए वक्त नही है और ऐसे दौर में एक ऑटो रिक्शा चालक यह उम्मीद रखता है कि कोई जिंदा इंसान उसके बेटे की मौत के बाबत उससे पूछे या उसका दर्द सुनें... मैं यकीन दिलाता हूं कि आप इस लघुकथा का अंत पढ़ते हुए खुद को कहीं न कहीं जरूर जोड़ लोगे, याद आने लगेगा कि कब आपने आईने, दीवार, पेड़ या किसी जानवर के सामने अपना ग़ुबार बाहर निकाला था ताकि अंदर की घुटन से मुक्ति मिल सके।

'भीड़' 'जंगली' और 'बंद ताले' लघुकथाएं अच्छी बन पड़ी हैं। बालमन केंद्रित लघुकथायें 'भूख' और 'सुख' ने मुझे विशेष आकर्षित किया है अगर आप संवेदनशील हैं तो इन दो लघुकथाओं को पढने से पहले अपने भीतर निर्दयता का मुलम्मा जरूर चढ़ाइए।

'राह' 'रंगीन मौसम' 'प्रतिदान' अपेक्षाकृत कमजोर लघुकथाएं हैं। 'राह' के कथानक एवं कथ्य की मांग भावनात्मक प्रस्तुतिकरण की थी जबकि यह लघुकथा किसी 'बालकथा' की मानिंद प्रस्तुत कर दी गई है। 'रंगीन मौसम' हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे के पुराने कथ्य पर लॉक डाउन वाले कथानक का तड़का लगाने का प्रयास है लेकिन प्रस्तुतिकरण प्रभावहीन है या फिर लेखन वह अहसास नही पैदा कर पाया जिसकी दरकार थी।

'प्रतिदान' रावण महिमामंडन एवं यशोधरा त्याग वाले सामाजिक बहस-मुबाहिसे के ट्रेंड वाले दौर की कृति है जिसे आप हिस्टोरिकल फिक्शन के तौर पर पढ़ सकते हैं लेकिन अब यशोधरा-बुद्ध वैचारिक अलगाव वाला कथ्य ऊब और खीज का ही निर्माण करता है।

'अनकही' सरल-सहज कथानक वाली संजीदा लघुकथा है लेकिन इसमें जिस तरह कथ्य को प्रस्तुत किया गया है वह काबिले-तारीफ है।

'कीचड़' कथा है इस दौर में भी भीतर तक पेवस्त असमानता एवं भेदभाव के कीचड़ की, संदेश एवं प्रस्तुतिकरण मुखर होने के बावजूद मुझे यह लघुकथा मंजिल तक पंहुचने से कुछ पहले ही दम तोड़ती महसूस हुई क्योंकि इसमें स्त्री विद्रोह वाले स्वर को हीन रखा गया है और मुखिया के किरदार को अधिक प्रबलता से प्रस्तुत किया गया है।

'कठपुतलियां' लघुकथा की विस्तृत समीक्षा मैं पिछली पोस्ट में कर चुका हूं।

'वापसी' लघुकथा में शहर का प्रतिनिधित्व करती सड़क और गांव को दर्शाती पगडंडी का वार्तालाप उतना ही दिलचस्प है जितना किसी महिला के लिए सास-बहू का विवाद। इस लघुकथा का शिल्प और शीर्षक रचनाकार के लेखन/साहित्य स्तर का अलिखित प्रमाणपत्र है।

'गरीब' लघुकथा के उम्दा अंदाजे-बयाँ एवं बढ़िया कथानक चयन के मुकाबले चौंक अथवा पंचलाइन प्रभावहीन महसूस हुई ।

'दरकन' लघुकथा घरेलू महिला की दरक रही हसरतों का रोजनामचा है। एक बेजोड़ रचनाकर्म जिसे नवोदित लघुकथाकारों को सिलेबस की तरह पढना चाहिए ।

'कामचोर' इस लघुकथा की गैरजरूरी अंतिम पंक्ति //कामचोर का काम...हो चुका था// हटा दी जानी चाहिए। यह लघुकथा आज के दौर में भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी कि भूख।

मैं 'बोन्साई' लघुकथा का विस्तृत विवेचन करना चाहूंगा। (नीचे दिए चित्र में लघुकथा पढ़ सकते हैं।)

लघुकथा में मुख्य किरदार के पति की तेरहवीं है और उसका 63 साल का गुज़श्ता दांपत्य जीवन उसकी आंखों के आगे कुछ इस तरह नमूदार है मानों किसी वृक्ष के विकास को शैशवकाल से ही उसकी जड़ों को बांधकर एवं शीर्ष पर दबाव डालकर अवरुद्ध कर दिया गया हो।

जिसे अपनी शाखाएं फैलाने की उतनी ही आजादी है जितनी वृक्ष को 'बोन्साई' बनाने वाला देना चाहता है।

इस लघुकथा का शीर्षक इसके कथ्य का मिनिएचर है।

इस लघुकथा में एक भी शब्द कम करने की गुंजाइश नही है जो भी विन्यास रचा गया है बेहद जरूरी है।

इस लघुकथा की पंचलाइन //बेटा, आप लोग जैसा...कैसे करना चाहते...!// बीते 63 साल का निचोड़ कहने में सक्षम है।

यह कनक जी की लिखी बेहतरीन रचनाओं में अपने उम्दा शिल्प के कारण ली जा सकती है। 

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भाग-3

कुछ लघुकथाएं होती है जिनकी विवेचना आप तत्काल करके फ़ारिग नही हो सकते क्योंकि ऐसी लघुकथाएं आपको विमर्श की राह पर बनाये रखती हैं और बार-बार पढ़ने के लिए उद्वेलित करती हैं। इस संग्रह की चुनींदा लघुकथाएं इसीप्रकार की विशेषता रखती हैं।

जैसे. कठपुतलियां, बोन्साई, असूर्यम्पश्या, प्राण-प्रतिष्ठा, समय सीमा, खबर, मिट्टी, कैरियर, गूंज और भेड़िया आया।

यदि आप इस संग्रह की शुरुआती तीस लघुकथाएं पढ़ने के बाद यह कहते हुए किताब रख देंगे कि 'भाई! हर संग्रह की शुरुआती चंद रचनाएँ ही बेहतर होती हैं।' तो यक़ीन मानिए आप लघुकथा विधा की खूबसूरती का बयान करती हुई कई शानदार लघुकथाओं को पढ़ने से वंचित रह जाओगे।

'बोन्साई' लघुकथा की मैं मुकम्मल समीक्षा पिछले भाग में कर ही चुका हूं।

कठोर कांक्रीट से बने शहर के फ्लैट में अपने गांव के घर-खेत की मिट्टी तलाशते बुजुर्ग और उनके पोते की व्यथाकथा है 'बालकनी'।

समझौतों की मौली बांधती हुई उम्दा संवादात्मक लघुकथा है 'सगाई की अंगूठी'।

'चलो पार्टी करें' 'चौकीदार' 'ख्वाहिशें' अगर लेखिका के लेखन स्तर के मुकाबले कमजोर लघुकथाएं है तो 'मौसम' और 'अलग-अलग जाड़ा' अपने प्रस्तुतिकरण की वजह से औसत लघुकथाएं मालूम पड़ती हैं।

उम्रभर घर-संसार में बंधी गृहणी को अपने जीवन के सांयकाल में विदेश जाने का निमंत्रण पत्र मिलता है, उसकी इसी दुविधा को दर्शाती हुई लघुकथा 'खुला आकाश' का कथ्य मुझे 'बोन्साई' का कैरिकेचर प्रतीत हुआ।

बढ़िया शीर्षक और संदेश वाली लघुकथा है 'ऑक्सीजन' । शिक्षा से बदलाव की हवा पैदा करती हुई नई पीढ़ी अब अपने अनपढ़ मां-बाप को भी साफ हवा और साफ खाने का महत्व समझाने लगी है।

'जरूरी सामान' लघुकथा बुजुर्गों की मसरूफियत की कथा है इसका प्रस्तुतिकरण एवं कथ्य तो बढ़िया है ही साथ ही शीर्षक चयन भी बेमिसाल है। 

'बदलते सुर' बेटे द्वारा अपनी जिंदगी के संतुलन को ठीक करने के लिए माँ पर आजमाई हुई एक तरकीब की कथा है, निःसंदेह! आम पाठक को यह लघुकथा जरूर पसंद आएगी। 

'असूर्यम्पश्या' में अगर प्रतीकात्मकता द्वारा लेखिका ने सफलतापूर्वक बंदिनी/महिला का दर्द प्रस्तुत किया है तो 'रफ कॉपी' के जरिये से महिला की शादीशुदा जिंदगी का विश्लेषण भी उसी निर्ममता से किया है।

'प्राण-प्रतिष्ठा' 'निशानदेही' और 'रोशनी' मुझे कमजोर लघुकथाएं लगी जिन्हें कसा जाना चाहिए अथवा उनके अंत पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए।

'शहादत' अगर एक बच्चे की युद्ध विभीषिका पर प्रकट जिज्ञासा का मौन जवाब है तो 'सड़क और पुल' चुनावी नारों का कानफाड़ू शोर । 'अनुदान' साहब के घरेलू नौकरों और बाहर के गरीबों का फर्क समझाती हुई शानदार लघुकथा है।

"तो अम्मा, युद्ध के कारण छह-सात दिनों से हमें खाना नहीं मिल रहा है, अगर हम भी भूख और प्यास से मर जाएंगे तो क्या हम भी शहीद ही कहलाएंगे?"

'शहादत' लघुकथा में बच्चे के मुंह से निकला हुआ यह प्रश्न अगर युद्ध से नफ़रत करने पर मजबूर न कर दे तो यकीनन अब हम इंसानों को शहादत के मायने बदलने पड़ेंगे।

'रोशनी' घिसे-पीटे कथ्य एवं कथानक वाली लघुकथा है जिसके प्रस्तुतिकरण में भी कोई नयापन नही है।

 इस भाग में मैं मुकम्मल विवेचना हेतु, कनक जी की वैचारिक रूप से कमजोर लघुकथा 'प्रतिफलन' लेने की जुर्रत करूँगा। (सलंग्न चित्र में यह लघुकथा पढ़ी जा सकती है)

हमारे देश में कई विचारों के साथ एक विचार यह भी प्रसिद्ध है कि कॉन्वेंट स्कूल धीरे-धीरे बच्चों को पश्चिमी सभ्यता एवं ईसाइयत की ओर अग्रसर करते हैं और इसी विचार को समर्थित करती लघुकथा है 'प्रतिफलन'।

इसतरह के किसी भी अतार्किक विचार का समर्थन करती रचना अपने आप में ही एक कमजोर रचना होकर रह जाती है बिल्कुल वैसे ही जैसे आप सैटेलाइट और रॉकेट के इस दौर में भी पृथ्वी के चपटी होने के विचार का समर्थन करती कोई रचना लिख दो।

आज भारत के करोड़ों बच्चे कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ते हैं, उसमें से कितने प्रतिशत ईसाई बन जाते हैं या चर्च में जाने लगते हैं और मारिया से शादी कर लेते हैं ?

अगर इतिहास और फैक्ट्स की बात की जाए तो भारत के अशिक्षा उन्मूलन कार्य में सबसे बड़ा योगदान इन्हीं कान्वेंट स्कूलों का रहा है बाकी बात रही बच्चों के पश्चिमी सभ्यता उन्मुख होने की तो सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले या फिर झोपड़पट्टी में रहने वाले अशिक्षित किशोर तक पश्चिमी सभ्यता की नकल करने लगे हैं तो इसे इस तरह तो कतई नही ले सकते कि कान्वेंट की वजह से पश्चिमी सभ्यता का प्रचार प्रसार हो रहा है।

भारत में कई युवा हैं जो चर्च, दरगाह, गुरुद्वारा और मंदिर जाना पसंद करते है और हर प्रकार के धार्मिक स्थल का इतिहास जानना चाहते हैं । विविधता में एकता विचार वाले इस देश में इस तरह के एकतरफा एवं एकधर्मी विचार पर लघुकथा लिखना कतई सराहनीय नही हो सकता।

अब क्योंकि मूल विचार ही कमजोर है तो मैं शीर्षक, शिल्प, कथ्य इत्यादि लघुकथा के बाकी अंगों के बारे में नही लिखूंगा।

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भाग-4 (अंतिम)

जिन पाठकों ने इस पुस्तक समीक्षा के पिछले तीनों भाग पढ़े हैं, वे इतना तो समझ ही चुके होंगे कि यह पुस्तक अपनी छपी कीमत के मुकाबले पाठक को बेहतर साहित्य मुहैया करवा रही है।

जनसेवा से शुरू हुई आजाद भारत की राजनीति आज निजी स्वार्थ को पूरा करने के लिए किन कुटिलताओं से गुजरती है! यह समझाती हुई लघुकथा 'गहरे पानी पैठ' अपने व्यंग्यात्मक संवादों की वजह से दिलचस्प तो है ही लेकिन उतनी ही प्रखर भी है और यह साबित करती है इस लघुकथा की समापन पंक्ति 'मंत्री जी के ख्याल गहरे पानी के स्वीमिंगपूल में तैर रहे थे।'

कुछ रचनाएँ समझाई नहीं जा सकती बल्कि वह मासूम प्रेम की तरह सिर्फ महसूस की जा सकती हैं और 'गीतांजलि' लघुकथा ऐसी ही रचनाओं में शामिल है। यह लघुकथा रवींद्रनाथ टैगौर को आदरांजलि देती प्रतीत होती है।

मैंने 'प्रतिफलन' लघुकथा की जिस मुखरता से आलोचना की थी आज उसी मुखरता से 'नक्शे कदम' लघुकथा की तारीफ करना चाहूंगा। एक मशहूर खेल को कथानक में लेकर जिस तरह भारत के अनेकता में एकता वाले विचार को कथ्य में निरूपित किया है उसके लिए लेखिका को मेरी ओर से एक सलाम!

'खो गई छाँव' मेरे जैसे प्रकृति प्रेमी के लिए एक डरावनी लघुकथा है लेकिन प्रकृति का विनाश रोकने के लिए साहित्य द्वारा यह डर प्रस्तुत करते रहना भी उतना ही जरूरी भी है।

 'क्लासिक' एक कमजोर संदेश देती हुई अलग-सी लघुकथा है। प्रस्तुतिकरण की शैली इसे अपनी तरह की दूसरी लघुकथाओं से अलग कर रही है।

 'गुणवत्ता' लघुकथा में 'नक्शे कदम' की भांति एक मशहूर खेल को कथानक में लेकर राजनीति की सत्तालोलुपता का कथ्य तरीके एवं सलीके से प्रस्तुत किया गया है।

'अंदर...बाहर...' लघुकथा बनावटी जिंदगी एवं दिखावटी प्रेम का दस्तावेज है जिसके अंत में प्रस्तुत निजता भी एक स्वार्थ अथवा छलावा है।

'दोषी कौन' और 'बरसती आंखे' मुझे सन्देशहीनता की वजह से विशेष प्रभावित नहीं कर पाई।

 'मिट्टी' आज के संवेदनहीन समाज का ब्लड टेस्ट करती एक मार्मिक लघुकथा है। साधारण कथ्य की अलहदा प्रस्तुति है लघुकथा 'कैरियर' ।

'कैक्टस के फूल' आधुनिक समस्याओं का भावनात्मक निवारण प्रस्तुत करती शानदार लघुकथा है।

'नया इंकलाब' लघुकथा का निर्वहन ठीक से नहीं हुआ है। / / उस शाम गड़रियों ने भेड़ों के माँस की शानदार दावत की। / / यह पंक्ति कुछ अजीब-सी लगी। मानवेत्तर अथवा प्रतीकात्मक लघुकथाओं की भी अपनी कुछ स्वभाविकताएँ एवं अस्वभाविकताएँ होती है।

'दुर्गा अष्टमी' और 'जीवन स्त्रोत' के कथ्य, कथानक पुराने होने के बावजूद लघुकथाओं की बुनावट अच्छी है।

मेरे नजरिये से 'बड़ा कौन' एक औसत लघुकथा है क्योंकि इसका कथ्य कहता है कि रचयिता ही अपनी रचना के साथ अन्यायपूर्ण रवैया अपनाता है। वह क्षमाशील नहीं है और वह निर्दोष, मासूमों या अहंकारियों में कोई फर्क न करते हुए दावानल की भांति अंधा न्याय करता है।

स्त्री व्यथा की बानगी 'चुटकीभर सिंदूर' अगर औसत लघुकथा है तो 'खबर' उतनी ही सशक्त एवं मार्मिक प्रस्तुति है।

 'आवरण' लघुकथा बरबस ही वरिष्ठ साहित्यकार कीर्तिशेष मधुदीप गुप्ता सर की याद दिला देती है।

'अधूरा सच' का निर्वहन एकतरफा है। हर आंदोलन के दो पहलू होते हैं अगर यह ध्यान में रखकर लिखा जाता तो लघुकथा बेहतरीन में शुमार होती।

'जनानी जात' लघुकथा पढ़कर मुझे गर्व की अनुभूति होती है कि मुझे कनक जी जैसी सशक्त लेखनी का सान्निध्य प्राप्त है। आप यह लघुकथा पढ़कर समझ सकते हो कि घिसे-पिटे कथ्य के प्रस्तुतिकरण में नवीनता क्या कमाल कर जाती है!

 'गूंज' लघुकथा वाकई अपने अंदर आदिवासी लड़की के थप्पड़ की गूंज लिए हुए है। 'परिवर्तन' लघुकथा में खरगोश की पीठ पर चढ़ा कछुआ सशक्त संदेश दे रहा है। 'उड़ान' लघुकथा आपको खुले आकाश और बाबू की हवेली की छत वाली आजादी का अंतर समझा देगी।

 'आँचल' लघुकथा आधुनिक जीवन शैली एवं नए प्रचलनों पर यक्षप्रश्न खड़ा करने में सक्षम साबित हुई है। यकीन मानिए 'ठंडी हवा का झोंका' आपके मन को भिगो देगा।

 'इनसोर' लघुकथा, व्यवस्था, समाज और उनके द्वारा बनाये इन्शुरन्स तक गरीब की पहुँच का असल चिट्ठा खोलती है। मैं अगर इस लघुकथा का किरदार 'मैनेजर साहब' होता तो एकबारगी कह उठता "स्साला! यह मजदूर सवाल बहुत पूछता है!" लेकिन सच यह है कि इस लघुकथा ने इन्शुरन्स क्लेम में गरीब की भागीदारी पर सवाल तो खड़ा कर ही दिया है।

अब अगर मुझसे पूछा जाए कि इस लघुकथा संग्रह के परिप्रेक्ष्य में आप लेखिका को किस नजरिये से देखते हो? ...तो मेरा जवाब बेहद साफ और स्पष्ट होगा कि आप यदि नवीन विषयों पर पढ़ना पसंद करते हो और आप को आधुनिक युग के जमीन से जुड़े हुए किरदार पढ़ने है तो जरूर 'कनक हरलालका जी' को पढ़िए।

मैं विस्तार में जाने से बच रहा हूँ फिर भी मुझे 'इनसोर' का सवाल पूछता हुआ मजदूर और 'घुटन' का फफक-फफककर रोता हुआ ऑटोरिक्शा ड्राइवर कहीं मेरे आसपास के ही किरदार लगते हैं।

एक अच्छी पुस्तक और उसके रचनाकार का जरूर सम्मान होना चाहिए और 'कितना-कुछ अनकहा' लघुकथा संग्रह एवं इसकी लेखिका 'कनक हरलालका जी' इस सम्मान की पूरी तरह हकदार हैं।

धन्यवाद,

- अनिल मकारिया

शनिवार, 19 फ़रवरी 2022

दि ग्राम टुडे के वृद्धजनों को समर्पित अंक में मेरी व श्री कृष्ण मनु जी की लघुकथा

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युवा प्रवर्तक में मेरी एक लघुकथा | अंतिम श्रृंगार | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


यूआरएल: https://yuvapravartak.com/?p=60590 

अंतिम श्रृंगार

उसकी दाढ़ी बनाई गयी, नहलाया गया और नये कपडे पहना कर बेड़ियों में जकड़ लिया गया। जेलर उसके पास आया और पूछा, "तुम्हारी फांसी का वक्त हो गया है, कोई आखिरी इच्छा हो तो बताओ।"
उसका चेहरा तमतमा उठा और वो बोला, "इच्छा तो एक ही है-आज़ादी। शर्म आती है तुम जैसे हिन्दुस्तानियों पर, जिनके दिलों में यह इच्छा नहीं जागी।"
वो क्षण भर को रुका फिर कहा, “मेरी यह इच्छा पूरी कर दे, मैं इशारा करूँ, तभी मुझे फाँसी देना और मरने के ठीक बाद मुझे इस मिट्टी में फैंक देना फिर फंदा खोलना।"
जेलर इस अजीब सी इच्छा को सुनकर बोला, "तू इशारा ही नहीं करेगा तो?"
वो हँसते हुए बोला, " आज़ादी के मतवाले की जुबान है, अंग्रेज की नहीं...."
जेलर ने कुछ सोचकर हाँ में सिर हिला दिया और उसे ले जाया गया।
उसके चेहरे पर काला कपड़ा बाँधा गया, उसने जोर से साँस अंदर तक भरी, फेंफड़े हवा से भर गए, कपड़े में छिपा उसका मुंह भी फूल गया। फिर उसने गर्दन हिला कर इशारा किया, और जेलर ने जल्लाद को इशारा किया, जल्लाद ने नीचे से तख्ता हटा दिया और वो तड़पने लगा।
वहां हवा तेज़ चलने लगी, प्रकृति भी व्याकुल हो उठी। मिट्टी उड़ने लगी, जैसे उसका सिर चूमना चाह रही हो, लेकिन काले कपड़े से ढके उसके चेहरे तक पहुँच न सकी।
उसकी साँसों की गति हवा की गति के साथ मंद होती गयी, और कुछ ही क्षणों में उसका शरीर शांत हो गया।
उसे उतार कर धरती पर फैंक दिया गया, वो जैसे करवट लेकर सो रहा था। फिर उसके फंदे को खोला गया, फंदा खोलते ही उसके फेंफडों में भरी हवा तेज़ी से मुंह से निकली और धरती से टकराई, मिट्टी उड़कर उसके चेहरे पर फ़ैल गयी।
आखिर देश की मिट्टी ने उसका श्रृंगार कर ही दिया।
-0-
- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
यूआरएल: https://yuvapravartak.com/?p=60590 

शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2022

लघुकथा: सीता सी वामा | लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला

19-11-1945 को जयपुर में जन्मे लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला ने एम् कॉम, DCWA, कंपनी सचिव (inter) तक शिक्षा प्राप्त की है. वेअग्रगामी (मासिक) के सह-सम्पादक (1975 से 1978) व 1978 से 1990 तक निराला समाज (त्रैमासिक) में भी कार्य किया है. बाबूजी का भारत मित्र, नव्या, अखंड भारत(त्रैमासिक), साहित्य रागिनी, राजस्थान पत्रिका (दैनिक) आदि पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित हुई हैं. वे ओपन बुक्स ऑन लाइन, कविता लोक, आदि वेब मंचों द्वारा सम्मानित हुए हैं. साहित्य में वे दोहे, कुण्डलिया छंद, गीत, कविताएं, कहानियाँ और लघुकथाओं का लेखन करते हैं. आइए आज पढ़ते हैं उनकी एक लघुकथा
  

सीता सी वामा

"सैकड़ों लड़कियाँ देख चुके पर तुझे कोई लड़की पसन्द ही नहीं आती। लड़की देखकर जवाब नहीं देता और दो दिन बाद मना कर देता है। आखिर तुम्हारी पसन्द है क्या?" माँ ने पुत्र से पूछा।
  "लड़की देखने के बाद छानबीन करने पर लड़की में वह समर्पित भावना नजर नहीं आती, जो मैं चाहता हूँ माँ।"
  अब माँ ने आश्चर्यचकित हो पूछा "समर्पित भावना से तुम्हारा क्या आशय है?"
  "जैसे प्रभु राम के साथ माँ सीता सारे सुख त्यागकर वनवास गई थी, ऐसी समर्पित भावना।"
  माँ यह सुनकर मुस्कुरा दी और बोली, "वो तो ठीक है लेकिन क्या तुम्हारा खुदका आचरण भी श्रीराम जैसा मर्यादित है?"
  और यह सुनकर वह विचारों में खो गया।
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- लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला
कृष्णा साकेत, 165, गंगौत्री नगर, गोपालपुरा, टोंक रोड, जयपुर (राज.) - 302018
Mo. 9314249608
Email- lpladiwala@gmail.com 

बुधवार, 16 फ़रवरी 2022

लघुकथा : खामोशी | कुमुद शर्मा "काशवी"

"अरे मालती यूँ रोने से का होगा...जाने वाला तो चला गया,चार चार बच्चे है तेरे पीछे...बिटिया ने भी इंटर कर लिया ब्याहने लायक तो हो ही गई है,परिवार के साथ हो ले सहारा होगा"

"अरे भाई दिनकर अब इनके परिवार को तुम्हें ही सँभालना होगा चाचा हो इनके"

         "आप क्या बोल रहे हो जी हमारा परिवार भी ढंग से ना पलता हम कैसे... कोशिश करेंगे क्यूँ भाभी अपने जेवर वगैरह तो रखे रखी हो ना"

"भाई रामलाल तुम्हीं देखो अब तुम परिवार के बड़े हो"

       "हाँ मैं भी तो तब कुछ करूँ ना जब ये लोग ये घर बेच के गाँव चलने को राजी हो"

"अरे कोई चाय लाएगा....खाने में क्या क्या बन रहा है"

पूरे घर में पसरी खामोशी में रिया के कानों में बस यही बातें गूँज रही थी..."आज सब अपना मतलब साधने आए है पूरे साल भर से बीमार बाबा का किसी ने एक दिन हाल न पूछा "बूत बनी बैठी रिया बुदबुदाई

    मोबाइल की घंटी बजी .... "आप चाहे तो कल से नौकरी ज्वाइन कर सकती है वरना कैंडिडेट और भी बहुत है....आकर पेपर वर्क कन्फर्म कर ले"

     "माँ मैं आती हूँ.......मुझे नौकरी मिल गई है" अपनी खामोशी तोड़ रिया ने मालती जी से कहा...मालती जी की खामोशी ने भी रिया को सहमति दे दी थी।

        "इसे देखो पिता की मौत पे दो आँसू ना निकले...चिता की आग भी ठण्डी ना हुई और इन्हें  बाहर जाना है"

      जिन रास्तों से कल पिता की अर्थी निकली थी....आज उसी घर से बेटी को कर्तव्य पथ पर निकलते देख सबकी जुबान पर खामोशी भरा सन्नाटा था !

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- कुमुद शर्मा "काशवी"
गुवाहाटी, असम
संपर्क सूत्र-
मोबाइल न.8471892167
इमेल- Kumud976@gmail.com

मंगलवार, 15 फ़रवरी 2022

मेरी एक लघुकथा साहित्यप्रीत वेब मैगज़ीन में | शून्य घंटा शून्य मिनट

URL: https://sahityaprit.com/zero-hour-zero-minute/

 

शून्य घंटा शून्य मिनट | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी 

विद्यालय के एक कक्ष में विद्यार्थी परीक्षा देने बैठे थे। कक्ष-निरीक्षक ने सभी को प्रश्नपत्र और उत्तरपुस्तिका बाँट दी थी। पहली घंटी बजी, जिसके बजते ही वह कक्ष-निरीक्षक हर परीक्षा की तरह मशीनी अंदाज़ में तेज़ स्वर में बोला, “दो घंटे का पेपर है। अभी आपके व्यतीत हुए हैं - शून्य घंटा शून्य मिनट।“
यह कहकर वह कमरे में चक्कर लगाने लग गया। कुछ समय बाद एक परीक्षार्थी ने पूछा, “सर टाइम कितना हो गया?”
उसने उत्तर दिया, “अभी आपके व्यतीत हुए हैं - चालीस मिनट। बचे हैं एक घंटा और बीस मिनट।“
और इसी प्रकार समयचक्र कक्ष-निरीक्षक के साथ ही चक्कर लगाता रहा। जितना व्यतीत होता उतना ही कक्ष-निरीक्षक थोड़ी-थोड़ी देर में परीक्षार्थियों को बताता रहता।
आख़िरी पंद्रह मिनट में कक्ष-निरीक्षक ने पुनः सभी परीक्षार्थियों को आगाह किया, “समय व्यतीत हो गया एक घंटा पैंतालिस मिनट। बचे है सिर्फ पंद्रह मिनट।“
उसी समय सबसे पीछे बैठे एक परीक्षार्थी ने पूछा, “सर, कितना समय व्यतीत हो गया?”
कक्ष-निरीक्षक का ध्यान कुछ कागजों को जमाने में था सो वह झल्लाया और “सुनाई नहीं देता” कहकर मुड़ा। लेकिन परीक्षार्थी को देखते ही उसकी मुद्रा बदल गई, चेहरे पर वात्सल्य के भाव आ गए।
वह उस परीक्षार्थी के पास गया और उसके कान में फुसफुसाया, “बेटा, तुम्हारे व्यतीत हुए - शून्य घन्टे शून्य मिनट... बहुत समय बचा है... अंदर जाकर और लिख लेना...“
वह परीक्षार्थी उस विद्यालय के ट्रस्ट के प्रबंध निदेशक का बेटा था।
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डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी 




सोमवार, 14 फ़रवरी 2022

लीला तिवानी जी के ई-लघुकथा संग्रह

साहित्य की दुनिया में जाना-पहचाना नाम लीला तिवानी जी का है. हिंदी में एम.ए., एम.एड. कर वे कई वर्षों तक हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड हुई हैं। उनके दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत हुए हैं। वे हिंदी-सिंधी भाषा में विभिन्न विधाओं में लेखन करती हैं तथा अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी जी लघुकथाएं भी लिखती हैं और उन्होंने लगभग 900 लघुकथाएं लिखी हैं. उनके 16 लघुकथा संग्रहों में से कुछ की ई-पुस्तकें भी बनी हुई हैं. ये पुस्तकें उन्होंने लघुकथा दुनिया के पाठकों के लिए उपलब्ध करवाने की सहज ही स्वीकृति प्रदान की है. 

लीला तिवानी जी के लघुकथा संग्रहों की ये ई-पुस्तकें निम्नानुसार हैं:


मैं सृष्टि हूं

https://issuu.com/shiprajan/docs/_e0_a4_b2_e0_a4_98_e0_a5_81_e0_a4_9


रश्मियों का राग दरबारी

https://issuu.com/shiprajan/docs/_e0_a4_b2_e0_a4_98_e0_a5_81_e0_a4_9_d121c67e0a26b9


रिश्तों की सहेज

https://issuu.com/shiprajan/docs/rishton_ki_sahej


उत्सव

https://issuu.com/shiprajan/docs/utsav


इतिहास का दोहरान

https://issuu.com/shiprajan/docs/itihas_ka_dohran


शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2022

हिंदी वर्तनी की सामान्य अशुद्धियां | लीला तिवानी

लघुकथा सहित साहित्य की सभी विधाओं में भाषा का ज्ञान होना अति आवश्यक है अन्यथा कई बार अर्थ का अनर्थ हो जाता है. आज इसी विषय पर लीला तिवानी जी के एक लेख का सार रूप प्रस्तुत है, जो हम सभी के लिए बहुत लाभदायक सिद्ध होगा. ज्ञातव्य है कि इस आलेख पर लेखिका लीला तिवानी को १९९४-९५ में राज्य स्तर पर दिल्ली सरकार द्वारा "एस.सी.ई.आर.टी अवार्ड'' से सम्मानित किया गया था. यह दिल्ली सरकार का राज्य स्तर का पुरस्कार है. लीला तिवानी जी को हमारी ओर से शुभकामनाएं.

हिंदी वर्तनी की सामान्य अशुद्धियां | लीला तिवानी

घर से बाहर निकलते ही हमारे सामने से एक ऑटो गुज़रता है, जिस पर ”मां का आशीर्वाद” लिखा हुआ है. इसे पढ़कर हमें बहुत अच्छा लगता है, क्योंकि हमें अपनी माताजी के आशीर्वाद की याद आ जाती है, जिसके कारण हम सफलता के इस मुकाम पर पहुंच सके हैं. फिर अफसोस भी होता है, क्योंकि आशीर्वाद की वर्तनी अशुद्ध होती है. हम यहां किसी भी शब्द की अशुद्ध वर्तनी नहीं दे रहे हैं, क्योंकि अशुद्ध या नकारात्मक चीज़ों का प्रतिरूप हमारे मन पर शीघ्र ही अंकित हो जाता है. ऐसा नहीं है, कि पेंटर के अल्पशिक्षित होने के कारण यह अशुद्धि होती हो, सचेत न रहने के कारण बड़े-बड़े धुरंधरों से भी इस तरह की अनेक त्रुटियां हो जाती हैं.

बाज़ार में केमिस्ट की दुकान पर ”दवाइयां” शब्द अक्सर अशुद्ध लिखा होता है. 1982 में दिल्ली के संगम सिनेमा हॉल में फिल्म ”अतिथि” लगी थी. सुबह स्कूल जाते समय जब मैंने पोस्टर देखा, तो स्कूल में सभी कक्षाओं में उस दिन श्रुतलेख में अतिथि शब्द लिखवाया. लगभग सभी बच्चों ने वैसा ही लिखा, जैसा बड़े-से पोस्टर पर देखकर आए थे.

कभी-कभी किसी कक्षा में हमारे पास पहली बार आने वाले छात्रों के नाम गलत होते हैं. मेरी हमेशा से आदत रही है, कि पहली बार कोई भी कक्षा मिलने पर पहले ही दिन मैं सबके नाम की वर्तनी की जांच करती हूं. जिन छात्रों के नाम अशुद्ध होते हैं, उन छात्रों की पुस्तिका में सही नाम लिखकर घर से जांच करवाने को कहती हूं. अगर घरवाले भी उसको सही बताते हैं, तो एडमीशन पंजिका में छात्र का नाम देखकर ठीक करवाती हूं. अक्सर छात्राएं रुचि नाम को अशुद्ध लिखती हैं. वे या तो रु को रू कर देती हैं या फिर चि को ची कर देती हैं. हमारे पास ऐसे अनेक उदाहरण विद्यमान हैं.

आजकल हिंदी में प्रायः ‘ना’ शब्द का प्रचलन हो गया है, वैसे हिंदी की प्रवृत्ति न की है, लेकिन मैंने उसे न कह दिया से बेहतर लगता है, मैंने उसे ना कह दिया, यानी जहां सुनने में जो बेहतर लगे, वहां वही इस्तेमाल करना चाहिए.

पिछले ब्लॉग में आज के ब्लॉग के लिए बहुत-सी बातें उभरकर सामने आईं, उनमें सबसे प्रमुख इस प्रकार हैं-

1.हममें हिंदी भाषा की वर्तनी के शुद्ध स्वरूप जानने की ललक होनी चाहिए. हम पुस्तक या समाचार पत्र पढ़ते समय अगर शब्दों की शुद्ध वर्तनी पर ध्यान दें, तो शायद लिखने में भी अशुद्धियां नहीं होंगी.

2.सीखें सभी भाषाएं, पर अपनी हिंदी भाषा से प्यार, उसके प्रयोग के लिए समर्पण की भावना होनी चाहिए. जब तक प्यार और समर्पण की भावना नहीं होगी, हम भाषा के शुद्ध स्वरूप के प्रति सजग नहीं रह सकते. मैंने शौक के लिए उर्दू, पंजाबी, गुजराती, बंगाली भाषाएं सीखीं, उर्दू, पंजाबी, गुजराती से सिंधी-हिंदी में अनुवाद भी किए, लेकिन सारा काम हिंदी में ही करती हूं. 

3.ऐसा करने के लिए हमें ‘इतना तो चलता है’ वाली मानसिकता को छोड़ना होगा. अगर हम हिंदी भाषा के सही स्वरूप को जानते हैं, तो अपने या किसी और के लिखे हुए को एक बार ध्यान से देखने पर ही हमें अशुद्धि का पता लग जाता है.

4.हमारे लेखन पर स्थानीय और संगियों-साथियों की भाषा का बहुत प्रभाव पड़ता है. एक सखी के ब्लॉग में ‘मामूरियत’ शब्द हमें बहुत अच्छा और एकदम सटीक लगा था. हमें तो लगा था, कि हिंदी में इसके जोड़ का शब्द शायद ही कोई और हो. पढ़ाते समय मुझे स्थानीयता के कारण बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ता था. देश के कुछ हिस्सों के छात्रों को ‘देश’ शब्द का उच्चारण करवाना बहुत चुनौतीपूर्ण काम लगता था, क्योंकि उनकी स्थानीय भाषा की वर्णमाला में ‘श’ होता ही नहीं, इसलिए वे लिखते भी देस हैं और देश में श का सही उच्चारण करने में भी उनको परेशानी होती है.

अब हम आपको बता रहे हैं कुछ सामान्य शब्द, जो अक्सर अशुद्ध लिखे जाते हैं. हम उनके केवल शुद्ध रूप ही लिख रहे हैं. शायद आप इसका कारण जानना चाहेंगे. बेसिक ट्रेनिंग, बी.एड.ट्रेनिंग और एम.एड. ट्रेनिंग में हमें यही प्रशिक्षण दिया गया था, कि कोशिश करके अशुद्ध शब्द को सामने न आने दें, दिखाना भी पड़े तो तुरंत मिटा दें. यहां हम मिटा तो नहीं पाएंगे, इसलिए केवल शुद्ध शब्द लिख रहे हैं- 

दवाइयां
अतिथि
स्थिति
परिस्थिति
उपस्थिति
गड़बड़ 
कवयित्री
परीक्षा
तदुपरांत
निःश्वास
त्योहार
गुरु
निरीह
पारलौकिक
गृहिणी
अभीष्ट
पुरुष
उपलक्ष
वयस्क
सांसारिक
तात्कालिक
ब्राह्मण
हृदय
स्रोत
सौहार्द
चिह्न
उद्देश्य
श्रीमती
आशीर्वाद
मध्याह्न
साक्षात्कार
रोशनी
धुंआ
कृत्य
व्यावहारिक
आकांक्षी
दिमाग
मंत्रियों
विशेष

मात्राओं का सही ज्ञान नहीं होने के कारण अथवा टंकण या फॉन्ट की गड़बड़ी के कारण अंतर्जाल पर कई ब्लॉग्स (मेरे या आपके भी हो सकते हैं ), समाचारपत्रों, साहित्यिक पत्रिकाओं तक में ये अशुद्धियां प्रचुरता में रह जाती हैं, हमें कोशिश करके सावधानी बरतनी चाहिए.

- लीला तिवानी
   नई दिल्ली, सम्प्रति ऑस्ट्रेलिया

सोमवार, 7 फ़रवरी 2022

सकारात्मकता का सुदर्शी सन्देश देती लघुकथाएँ | कल्पना भट्ट

पड़ाव और पड़ताल खंड ३० | ६६ लघुकथाकारों की ६६ लघुकथाएँ और उनकी पड़ताल   

- कल्पना भट्ट



वर्तमान में लघुकथा ने जो हिन्दी-साहित्य-जगत् में जो स्थान पाया है, उसमें बहुतेरे लघुकथाकारों का योगदान रहा है, फिर वो चाहे वरिष्ठ हों या कनिष्ठ या फिर मेरे समकालीन ही क्यों न हों | अतीव हर्ष के साथ मैं यह कहना चाहती हूँ कि ‘पड़ाव और पड़ताल खण्ड ३०’ में ६६ लघुकथाकारों की ६६ लघुकथाएँ प्रकाशित हुई हैं| प्रस्तुत संकलन में जहाँ डॉ.सतीश दुबे डॉ.सतीशराज पुष्करणा, मधुदीप, डॉ.कमल चोपड़ा, मधुकान्त, बलराम अग्रवाल, सुभाष नीरव, माधव नागदा, कुमार नरेन्द्र, कृष्ण मनु, योगराज प्रभाकर, प्रो.बी.एल.आच्छा, डॉ.रामकुमार घोटड़, मुकेश शर्मा, विभा रश्मि, रामकुमार आत्रेय, हरनाम शर्मा, अशोक वर्मा, जैसे वरिष्ठ लघुकथाकारों की रचनाएँ प्रकाशित हैं जो इन्होने सन् २०११ के उपरांत लिखी हैं, और शेष सभी ४९ लघुकथाकार ऐसे हैं जिन्होंने सन् २०११ से इस विधा में पदार्पण किया है |


 इन ६६ लघुकथाओं के अध्ययनोप्रांत इनको चार भागों में विभक्त किया जा सकता है :

१.     पारिवारिक लघुकथाएँ

२.     सामाजिक लघुकथाएँ

३.     वैचारिक लघुकथाएँ

४.     अन्यान्य लघुकथाएँ

१.     पारिवारिक लघुकथाएँ : पारिवारिक लघुकथाओं से मेरा तात्पर्य यह है कि ऐसी लघुकथाएँ जिनके कथानक परिवार के इर्द-गिर्द घूम रहे हैं, उनको मैंने इस श्रेणी में रखा है | ऐसी लघुकथाओं में ‘दहशत’ ‘प्यार’, ‘अपनी-अपनी दुआ’, ‘प्रेम’, ‘झोंपड़ी का दरवाजा’, ‘खबर’, ‘आलू-टमाटर की सब्जी’ ‘सेहरा’, ‘पिछले पहर का दर्द’, ‘मुस्कुराहटवाली चादर’, ‘आ चल ना’, ‘लाइक एण्ड कमेन्ट्स’, ‘कुछ अनकहा’ , ‘डर’, ‘दो कोणोंवाला त्रिभुज’, ‘नई माँ’, ‘विछोह’, ‘रुक सत्तो’, ‘पापा’, ‘अधूरा-सा’, ‘खुलती गिरहें’, ‘दाद’ और ‘वह जो नहीं कहा’ का शुमार किया है | ‘अनिता ललित ’ की लघुकथा ‘दहशत’ वर्तमान शिक्षा-प्रणाली एवं परिणाम-उन्मुख की समस्या पर आधारित एक सुन्दर लघुकथा है| वर्तमान समय में हर माता-पिता अपने बच्चे से नब्बे प्रतिशत के ऊपर अंक लाने हेतु अपेक्षा करते हैं, और युवा विद्यार्थी भी बेहतर से बेहतर अंक लाने हेतु प्रयासरत्त रहते हैं, परन्तु वांछित परिणाम न मिल पाने के कारण  जहाँ अभिभावक अपने बच्चों को डाँट-फटकार देते हैं, वहीँ वर्तमान की संवेदनशील युवा-पीढ़ी आत्महत्या जैसे कुकृत्य कर अपनी इहलीला समाप्त कर लेती है | वहीँ अगर बच्चे समझदार हों, जैसे इस लघुकथा में कथा-नायक का बेटा रिंकू, तो यह पूरे परिवार के लिए एक सुखद अनुभूति होती है | ऐसा ही सकारात्मक अंत देकर इस लघुकथा के उद्देश्य को सार्थक करने का लेखक ने सद्प्रयास किया है | बच्चों के गलत कदम उठाने के डर से दहशत में आ-जाते माता-पिता को अगर उनके बच्चों से ऐसा संतोषजनक उत्तर मिल जाता है जैसा कि इस लघुकथा के कथा-नायक रवि के बेटे रिंकू ने दिया, “बुरा? किस बात का बुरा?” हैरानी से रिंकू ने पापा की तरफ देखते हुए पूछा जो नज़रें चुरा रहे थे| उसने उनकी डरी-सहमी आँखों में झाँका और आगे बढ़कर उनके गले लगकर बोला, “आय एम सॉरी पापा! आपका बेटा हूँ, कुछ गलत नहीं करूँगा| मुझ पर भरोसा कीजिये |” ऐसा संतोषजनक उत्तर मिलने पर प्रत्येक अभिभावक की यही प्रतिक्रिया होगी जैसा कि रवि की हुई, ‘अब रवि ने अपनी डबडबाई आँखों को रिंकू से छिपाने की कोशिश नहीं की और उसे अपनी बाँहों में कस लिया|’ यह एक सुन्दर मनोवैज्ञानिक लघुकथा सिद्ध होती है, जिसमें समस्या के साथ-साथ समाधान देने का दायित्व भी लेखक ने अपनाया है जो प्रशंसनीय है| इस लघुकथा का कथानक, भाषा-शैली एवं शीर्षक उत्कृष्ट हैं| ‘अनुराग शर्मा’ की लघुकथा ‘प्यार’ एक भावपूर्ण लघुकथा है जिसमें पत्नी के गैर-मर्दों के साथ हँस-हँस के बात करने वाली पत्नी और अपने ही पति,  यानी कि कथा-नायक हरिया की उपेक्षा करने वाली पत्नी से भी हरिया के निश्छल प्रेम को देखा जा सकता है| इस लघुकथा की भाषा-शैली स्वाभाविक है जिससे यह लघुकथा पाठक के ह्रदय को स्पर्श कर जाती है| ‘अरुणकुमार गुप्ता’ की लघुकथा पति-पत्नी के आपस में परस्पर प्रेम और समर्पण की भावनाओं को दर्शाती एक सुन्दर लघुकथा है| ‘अशोक यादव’ की लघुकथा ‘प्रेम’ एक ऐसे विदुर वृद्ध को केंद्र में रखकर लिखी गयी है, जो अपने बेटे-बहू के होते हुए भी खुद को अकेला महसूस करता  है | उसकी मन:स्थिति को उसकी बहू समझ जाती है और वह अपने स्वसुर से कहती है, “बाबूजी ! जो घटना था, वह घट गया| माँ वापिस नहीं आने वाली, अपना ख्याल रखो|” तो बाबूजी फूट-फूटकर रोने लगते हैं| “बेटा ! तुम्हारे लिए वह एक घटना थी, मगर मैंने तो अपना साथी खो दिया है| मुझे तो घर की साँकल,कमरे की इस खूँटी, मेरे कुर्ते के बटन और सभी चीजों में वह दिखाई देती है| मैंने अपना ख्याल रखा ही कब, मेरा ख्याल भी तो वह ही रखती थी |” यह संवाद हाल ही में दिवंगत हुई पत्नी के पति के भावनात्मक पहलु को उजागर तो करता है, परन्तु इस दु:खद स्थिति में कोई व्यक्ति इतना सहज होकर इतना कुछ एक साथ ही बोल जाए, अस्वाभाविक-सा प्रतीत होता है | परन्तु इसके भावनातमक अंत, ‘बाबूजी फिर अपनी कुर्सी झुलाने लगते हैं और शारदा(उनकी बहू) उस प्रेम को समझने में लग जाती है जो उसे विगत पच्चीस सालों में दिखाई ही नहीं दिया|’ यह समापन वाक्य लघुकथा को प्रभावशाली बना देता है| ‘आशा शर्मा’ की लघुकथा ‘झोंपड़ी का दरवाज़ा’, इस शीर्षक से ही लघुकथा के परिवेश का अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस लघुकथा का परिवेश झुग्गी-झोंपड़ी से होगा और है भी | झुग्गी-बस्ती में रहने वालों का सुन्दर चित्रण किया गया है, कि कैसे पत्नी अपने शराबी पति से परेशान तो होती है क्योंकि शराब के नशे में पति गाली-गलोज एवं मारपीट करता है, परन्तु पत्नी सब कुछ सहने को तैयार हो जाती है, पति को अगर कुछ हो जाए तो वह उसको बचाने का प्रयास करती है| इस लघुकथा में कथा-नायिका का पति भी इसी श्रेणी का है जो एक शराबी व्यक्ति है, और पत्नी को मारता-पीटता रहता है| कथा-नायिका उससे परेशान तो है, परन्तु वह उसे त्यागने की बजाय, यह सोचती है कि मेरा पति मेरी झोंपड़ी का दरवाज़ा है अन्यथा बिना दरवाज़े के कोई भी घर एक आम रास्ता बन जाता है|  झुग्गी-बस्ती में रहने वाली महिलाओं की पीड़ा और असुरक्षा की भावनाओं का बहुत ही सुन्दर चित्रण किया गया है| ‘कनक हरलालका’ की लघुकथा ‘खबर’, एक फौजी, जिसको  छुट्टियाँ नहीं मिल पातीं, उसके इंतज़ार में पत्नी की मानसिक पीड़ा को बहुत ही करीने से चित्रित किया गया है| यह एक मनोवैज्ञानिक लघुकथा है| इसके शीर्षक पर लेखिका को पुनः विचार करना चाहिए|

‘कल्पना मिश्र’ की लघुकथा ‘आलू-टमाटर की सब्जी’ बेटे-बहू से उपेक्षित एक पिता की दुर्दशा और उनकी विवशता को उजागर करती सुन्दर लघुकथा है| वह अपने ही घर में भूख से तड़पते हुए मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, उसके कुछ समय पहले ही वह अपनी बेटी से आलू-टमाटर की सब्जी खाने की इच्छा व्यक्त करता है पर उसको खाने से पूर्व ही उसकी मृत्यु हो जाती है| बाबूजी की तेरहवीं के दिन तरह-तरह के पकवान देखकर बेटी की आँखों से आँसू बह निकलते हैं | कानों में बाबूजी के आखिरी शब्द गूँज रहे थे...’आलू-टमाटर की सब्जी, रोटी...|’ इस हृदयस्पर्शी अंत ने इस लघुकथा को उत्कृष्ट बना दिया है| इसका शीर्षक कथानक के अनुरूप है |‘कृष्णचन्द्र महादेविया’ की लघुकथा ‘पिछले पहर का दर्द’ बुजुर्गों की पीड़ा को दर्शाती एक श्रेष्ठ लघुकथा है| इसमें माता-पिता एक-एक महीने की बारी में अपने तीन बेटों के बीच बाँट दिए गए हैं| ३० दिन तो उनको भोजन मिल जाता है परन्तु ३१ वें दिन उनको भूखा रहना पड़ता है| क्या यह विश्वसनीय है? किन्तु इसका भावनात्मक शीर्षक लघुकथा के अनुरूप है| ‘नीता सैनी’ की लघुकथा ‘मुस्कुराहटवाली चादर’ दो सहेलियों के मध्य का वार्त्तालाप है जिसमें कथा-नायिका रानो के पति की मृत्यु के पश्चात उसका पुनर्विवाह हो जाता है, उससे मिलने उसकी सहेली जब आती है तब वह उसकी कुशल-क्षेम जानने की इच्छा जताती है और रानो यह तो कहती है कि , उसका दूसरा पति उसको बहुत प्यार करता है अतः  उसके समक्ष उसको खुश होने का अभिनय करना पड़ता है, ताकि वो उदास न हो जाएँ|  रोते-रोते वह कहती है, “ वो(पूर्व पति) तो एक ही बार मरा लेकिन मैं तो रोज ही मरती हूँ| तिस पर कुछ लोग पीछे खुसर-फुसर करते हैं कि इसका क्या गया, इसको तो नया खसम मिल गया |” यह एक मर्मस्पर्शी लघुकथा है जिसमें समाज के संकीर्ण सोच को करीने से उकेरा गया है | इसका शीर्षक भी सटीक है जो लघुकथा को उत्कृष्टता प्रदान करता है | ‘नीलिमा शर्मा निविया’ की लघुकथा ‘आ चल ना’ में बढ़ती-उम्र के बावजूद पति-पत्नी के परस्पर प्रेम में कहीं कमी नहीं आती है | इस विषय को लेखिका ने बहुत सुन्दर ढंग से सुशिल्पित करते हुए उसे प्रत्येक दृष्टि से श्रेष्ठ बनाने हेतु सफल प्रयास किया है | ‘प्रदीपकुमार शर्मा’ की लघुकथा ‘लाइक एण्ड कमेण्ट्स’ में वर्तमान में बढ़ रही संवेदनहीनता का सुन्दर चित्रण किया गया है| मोबाइल संस्कृति ने अधिकांश परिवारों  में अपना जाल फैला रखा है एवं उन्हें अपना गुलाम बना रखा है| साथ ही सोशल साइट्स पर स्टेट्स अपडेट करना मानो फेशन- सा बन गया है| फिर चाहे अपने पिता की मौत ही क्यों न हो, और चिता ही क्यों न जल रही हो| इस बात की पुष्टि इन पंक्तियों से मिल जाती है, “उधर पिता की चिता जल रही थी, इधर शंकरलाल संतुष्ट हो गया था क्योंकि घंटेभर में ही नौ सौ लाइक्स और पाँच सौ कमेंट्स आ चुके थे|” विषय सुन्दर होने के बावजूद सटीक शिल्प न मिलने के कारण यह लघुकथा वांछित प्रभाव नहीं छोड़ पायी | ‘महिमा वर्मा’ की लघुकथा ‘कुछ अनकहा’ में उन पति-पत्नी के लिए सन्देश है जो तलाक तक पहुँच जाते हैं, जिसका मुख्य कारण एक-दूसरे की नापसंद को न जानना होता है| पति-पत्नी के बीच उत्पन्न होती तनावपूर्ण स्थितियों का समाधान प्रदान करती और अपने सटीक शिल्प के कारण यह एक बेहतरीन लघुकथा बन गयी है| ‘महेश शर्मा’ की लघुकथा ‘डर’ में बुज़ुर्ग दंपत्ति को अपने  भीतर बाल-बच्चों से अवहेलना का डर सताता है| इस अवहेलना से बचने हेतु बुज़ुर्ग महिला अपने पति को ही टोकती रहती है | घर के बुजुर्गों को अपने ही घर में मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना से गुज़रना पड़ रहा है| पाश्चात्य  संस्कृति का प्रभाव कहें या संयुक्त परिवारों का विलोप होना, इसका प्रमुख कारण है, और वर्तमान में आपाधापी की जीवन-शैली इसका एक अन्यन्य कारण है| जो भी हो... ऐसे में उनका इस प्रकार  का डर स्वाभाविक ही है अतः उससे बचने हेतु  इस लघुकथा की नायिका जिस प्रकार से अपने पति को बात-बात पर  टोकती है कि कहीं उनका बेटा-बहू उसके पति को न टोक दें जिसे वह सह न पाएगी | इस लघुकथा का उद्देश्य पाठक को विचार-विमर्श हेतु प्रेरित करता  है | ‘रामकुमार आत्रेय’ की लघुकथा ‘दो कोणोंवाला त्रिभुज’ पारिवारिक सास-बहू के मध्य कलह पर आधारित है जिसमें माँ का बेटा, और पत्नी का पति इन दोनों के मध्य सुलह करवाने की बजाय वहाँ से पलायन कर जाता है और त्रिभुज का तीसरा कोण शेष दो कोणों को जोड़कर रख पाने में असफल हो जाता है| इसका प्रतीकात्मक एवं कलात्मक शीर्षक प्रभावशाली एवं लघुकथा की भाषा-शैली स्वाभाविक है| ‘विभा रश्मि’ की लघुकथा ‘नई माँ’ सौतेली माँ की छवि को बदलने हेतु एक बेहतरीन प्रयास है, जिसमें सौतेली माँ का सकारात्मक चित्रण किया गया है, यह अलग बात है कि समाज में इसकी सम्भावना कितनी हो सकती है!  यह बताने का सद्प्रयास किया गया है कि माँ तो सिर्फ माँ होती है| इस लघुकथा पर अभी और कार्य वांछित था मुझे ऐसा लगता है | ‘शशि बंसल’ की लघुकथा ‘विछोह’ एक मनोवैज्ञानिक लघुकथा है जिसमें एक माँ अपने  बेटे के घर से बाहर जाने पर खीज जाती है, जो क्रोध नहीं अपितु अपने बच्चे से विछोह का दर्द खीज बनकर उत्पन्न होता है | न चाहते हुए भी वह चिढ़चिढ़ी हो जाती है जो उसके स्वाभाव में आ जाता है जिसका बड़े होने पर भी बेटे को तो कोई अन्तर नहीं पड़ता किन्तु हाल ही में आई हुई बहू उनके इस बर्ताव को समझ नहीं पाती | वह इसका कारण जानने हेतु अपने पति से पूछती है तो कथानायक बेटा शिव कहता है, “मतलब माँ बनोगी तब समझ जाओगी|” माँ के बहुत ही संवेदनशील और स्वाभाविक व्यवहार  का उत्कृष्ट और प्रभावशाली चित्रण इस लघुकथा के माध्यम से हुआ है जो प्रशंसनीय है |


‘शोभना श्याम’ की लघुकथा ‘रुक सत्तो!’ भी एक मनोवैज्ञानिक लघुकथा है | इस लघुकथा की कथा-नायिका अपनों से प्यार न मिल पाने के कारण अन्य  में अपनापन तलाशती है | कथा-नायिका के बच्चे छुट्टियों में उसके पास आने का वादा करते हैं परन्तु किसी कारणवश वे नहीं आ पाते | कथा-नायिका जो सामान उनके लिए लेकर आई थी, सब अपनी नौकरानी को दे देती है, और इस तरह वह अपनी नौकरानी में ही अपनेपन को तलाशती है | इस लघुकथा के संवाद, भाषा-शैली, कथानक एवं शीर्षक प्रभावशाली बन पड़े हैं जिससे यह लघुकथा उत्कृष्ट बन गयी है | ‘संजीव आहूजा’ की लघुकथा ‘पापा’...से अविश्वसनीय कथानक के कारण सहमती नहीं बन पा रही है| ‘सत्या शर्मा ‘कीर्ति’ की लघुकथा ‘अधूरा-सा’ भी एक मनोवैज्ञानिक लघुकथा है जिसमें कथानायिका अपने अकेलेपन से जूझ रही है| बच्चे विदेश जाकर बस गए हैं, और पति अक्सर टूर पर रहते हैं| जब बच्चे कहते थे उनके साथ चलने को तब कथानायिका को अपने ही घर में शांति से रहने की इच्छा होती थी, समय व्यतीत हो जाने के बाद जब वह घर पर बिलकुल अकेली  रहने हेतु पर विवश हो जाती है, तो उसको वही शांति अखरने लगती है| एक अकेली नारी के मनोभावों  का बेहतरीन विश्लेषण इस लघुकथा में दृष्टिगोचर हो रहा है | ‘सविता मिश्रा ‘अक्षजा’ की लघुकथा ‘खुलती गिरहें’ सास-बहू के मध्य की गिरहें खोलती हुई एक उत्कृष्ट लघुकथा है| इसके संवाद  स्वाभाविक और प्रभावशाली बन गए है, विषय पुराना होने के बावजूद इसका प्रस्तुतीकरण प्रभावशाली बन पड़ा है| इस सुशिल्पित लघुकथा शीर्षक भी कथानक के अनुरूप है | ‘सारिका भूषण’ की लघुकथा ‘दाद’ घर में सब कुछ होने के बावजूद अकेलेपन की जो पीड़ा है, अपनत्व के न होने की जो टीस है, इसी  पृष्ठभूमि पर लिखी गयी आत्मकथात्मक शैली में एक विवाहित बेटी ने अपनी माँ को पत्र में अपनी व्यथा को सटीक अभिव्यक्ति प्रदान की अपने सटीक शिल्प के कारण यह एक श्रेष्ठ लघुकथा बन गयी है | ‘स्नेह गोस्वामी’ की लघुकथा ‘वह जो नहीं कहा गया’ डायरी शिल्प में लिखी गयी एक सुन्दर लघुकथा है जिसमें कथानायिका का कोई नाम तो नहीं है, किन्तु एक पत्नी जो अपने पति से कुछ कह नहीं पाती वह अपने मन के उद्वेग को डायरी में लिखकर अभिव्यक्त कर रही है| इस लघुकथा में कालत्व दोष है | यह  वाक्य दृष्टव्य है : “तुमसे पूरी तरह न जुड़ पाने के बावजूद तुम्हारे बिना नींद नहीं आ रही है|” यह नायिका की प्रेमाभिव्यक्ति में विरोधाभास उत्पन्न कर रहा है , इस वाक्य को न भी लिखती तो कथानक में कोई अन्तर नहीं पड़ता, ऐसा मेरा मत है | परन्तु इसका विषयवस्तु और शिल्प सटीक हैं जो लघुकथा के मर्म तक पहुँचाने में पर्याप्त सहायक होते हैं |

२.     सामाजिक लघुकथाएँ : सामाजिक लघुकथाओं से मेरा तात्पर्य ऐसी लघुकथाओं से हैं जो सामाजिक सरोकार से सम्बंधित हैं , ऐसी लघुकथाओं को मैंने इस श्रेणी में रखा है जो इस प्रकार हैं :- ‘लकीरें’, ‘न्योछावर’, ‘मंडी में रामदीन’, ‘उसका ज़िक्र क्यों नहीं करते’, ‘सामना’, ‘नीरव प्रतिध्वनि’, ‘सिन्दूर का सामर्थ्य’, ‘जादू’, ‘सहमा हुआ सच’, ‘रेनकोट’, ‘आधे घन्टे की कीमत’, ‘संगमरमरी आतिथ्य’, ‘बड़े सपने’, ‘नमिता सिंह’, ‘कुणसी जात बताऊँ’, ‘बछडू’, ‘दोजख की आग’, ‘मर्दगाथा’, ‘ऑटोमैन के आँसू’, ‘देवदूत’, ‘माँ और बेटा’, ‘खेल’, ‘डंकवाली मधुमक्खी’, ‘सीढ़ियाँ’, ‘तृप्ति’, ‘मन का उजाला’, ‘बाँध’ और ‘दर्द’ ये लघुकथाएँ इस श्रेणी में रखी गयी हैं |  उषा अग्रवाल ‘पारस’ की लघुकथा ‘लकीरें’ से कथानक की अस्वाभाविकता के कारण सहमति नहीं बन पा रही है | कपिल शास्त्री की लघुकथा ‘न्योछावर’ से भी अस्वाभाविकता का शिकार होने के कारण सहमति नहीं बन पा रही है |  डॉ.कमल चोपड़ा की लघुकथा ‘मण्डी में रामदीन’ एक श्रेष्ठतम लघुकथा है, जिसमें व्यापारियों द्वारा किसानों के हो रहे शोषण का अत्यंत स्वाभाविक एवं सटीक चित्रांकन किया गया है| इस लघुकथा में नायक जब मण्ड़ी में अपना सामान बेचने जाता है, वहाँ उसे बहुत ही कम दाम पर सामान बेचने हेतु विवश कर दिया जाता है, अंततः वह स्वयं को लुटा हुआ महसूस करता  हैं| और इतना ही नहीं, उसपर अवांछित खर्च भी लाद दिया जाता है, और उसके खाली हाथ किसी तरह घर लौटने हेतु विवश कर दिया जाता है|  इस लघुकथा के संवाद सटीक एवं पात्रों के चरित्रानुकूल है, जिससे मण्डी का सजीव चित्रण उभर कर आया है| कुणाल शर्मा की लघुकथा ‘उसका जिक्र क्यों नहीं करते’ संवाद शिल्प में लिखी हुई एक अत्युत्तम लघुकथा है जिसका विषय उन नवयुवकों और नवयुवतिओं पर आधारित है जो घर से भाग जाते हैं और लोगों की चर्चा का विषय बन जाते हैं जैसा कि इस लघुकथा के चार लोगों के बीच वार्त्तालाप  के द्वारा चित्रित किया गया है| ऐसे में अधिकांश लोग लड़की को ही दोषी मानते हैं| इस लघुकथा के अंत में चौथा व्यक्ति कहता है, “तो भाई, लड़के के बारे में भी कुछ बोलो, उसका जिक्र क्यों नहीं करते...?” इसका शीर्षक अपेक्षाकृत बड़ा तो है पर सटीक है | कृष्ण मनु की लघुकथा ‘सामना’ नारीसशक्तीकरण को बल देती लघुकथा है| इस लघुकथा की  विषयवस्तु और भाषा-शैली सर्वथा लघुकथा के विषयानुकूल है | चंद्रेशकुमार छतलानी की लघुकथा ‘नीरव प्रतिध्वनि’ अपने प्रतीकात्मक शिल्प एवं सटीक भाषा-शैली के कारण उत्कृष्टता के शिखर पर पहुँच जाती है | इस लघुकथा का परिवेश सर्कस है जिसमें एक जोकर और एक निशानेबाज का खेल चल रहा है, और जोकर उस निशानेबाज से कहता है कि वह उससे भी बड़ा निशानेबाज है | निशानेबाज के पूछने पर जोकर अपनी कमीज के अन्दर हाथ डालकर एक छोटी थाली निकाल लेता है, इसपर निशानेबाज हँस देता है, लेकिन जोकर उस थाली को दर्शकों को दिखाकर कहता है, “मेरा निशाना देखना चाहते हो...देखो...” कहकर वह उस थाली को ऊपर हवा में उछाल देता है और बहुत फुर्ती से अपनी जेब से एक रिवॉल्वर निकालकर उड़ती थाली पर निशाना लगा देता है | यहाँ थाली उसके भूखे बच्चों के पेट का प्रतीक प्रतीत हो रही है | इस लघुकथा के प्रतीकात्मक शीर्षक ने  इस लघुकथा को अपेक्षाकृत और अधिक श्रेष्ठ बनाया है | चित्तरंजन गोप की लघुकथा  ‘सिन्दूर का सामर्थ्य’ लघुकथा के अविश्वसनीय कथानक के कारण से सहमति नहीं बन पा रही है | जयेन्द्र वर्मा की लघुकथा ‘जादू’ भी अविश्वसनीयता के कारण से सहमति नहीं हो पा रही है एवं संवादों की वजह से, एक बच्चे के मुख से बड़ी-बड़ी बातें कहलवाई गयी हैं जो पूर्णतः अस्वाभाविक है|  जानकी बिष्ट वाही की लघुकथा ‘सहमा हुआ सच’ अपने सटीक शिल्प के कारण श्रेष्ठता की शिखर पर पहुँची है| दीपक मशाल की लघुकथा ‘रेनकोट’ के माध्यम से जो सन्देश प्रेषित हुआ है कि समयानुसार व्यक्ति को स्वयं को बदलना चाहिए, तात्पर्य यह है, कि अपनी पसंद-नापसंद को स्वयं पर हावी नहीं होने देना चाहिए| इस लघुकथा का शिल्प, कथावस्तु, भाषा-शैली, बनावट एवं बुनावट एवं इसका शीर्षक सभी श्रेष्ठ हैं| बलराम अग्रवाल की लघुकथा ‘आधे घण्टे की कीमत’ एक मनोवैज्ञानिक लघुकथा है| इस लघुकथा का कथानायक इसलिए आत्महत्या कर लेता है कि उसकी बातों को कोई सुनने को तैयार नहीं होता| वह अपने  स्यूसायिड नोट में लिखता है, “सुनने की अपनों को भी फुर्सत नहीं | जीना बेकार है|” तात्पर्य यह है कि कुछ लोग अत्यंत भावुक एवं संवेदनशील होते हैं और  ऐसे लोग अपने दिल की बात अपनों से कहने हेतु लालायित होते हैं, ऐसे में यदि उनकी बातें न सुने तो वे आहत हो जाते हैं और आत्महत्या जैसा घृणित कु-कृत्य कर बैठते हैं| इस लघुकथा का शिल्प, कथावस्तु, शीर्षक, संवाद, भाषा-शैली एवं उद्देश्य सार्थक है और लेखक के प्रस्तुतीकरण में इनका लेखकीय-कौशल दृष्टिगोचर होता है| बी.एल.आच्छा की लघुकथा ‘संगमरमरी आतिथ्य’ दो मित्रों के मध्य का वार्त्तालाप है जिसमे एक मित्र अपने घर की और स्वयं की शेखी बखानता है परन्तु घर आने वाले मेहमान को चाय तक नहीं पिलाता है| बड़े घर को खरीदने से कोई बड़ा व्यक्ति नहीं बन जाता जब तक उसमें आतिथ्य-संस्कार न हों| अपने को शो-ऑफ करने से कुछ भी हासिल नहीं होता | इस लघुकथा का कथानक, शिल्प, भाषा-शैली, उद्देश्य एवं शीर्षक  सटीक हैं, अतः यह लघुकथा श्रेष्ठता के पायदान पर खरी उतर रही है| मधुकांत की लघुकथा ‘बड़े सपने’ में यह बताने का सफल प्रयास किया है कि दृढ़ संकल्प और परिश्रम से बड़े से बड़ा सपना भी साकार हो सकता है | इसी उद्देश्य को दर्शाती यह एक उत्कृष्ट  लघुकथा है |सटीक भाषा-शैली, पात्रों के चरित्रानुकूल कथोपकथन एवं शीर्षक इस लघुकथा के अनुरूप हैं | मधुदीप की लघुकथा ‘नमिता सिंह’ एक प्रयोगवादी लघुकथा है, जिसमें नारीसशक्तीकरण को बल दिया गया है| नमिता सिंह जो कि कथा-नायिका है, एक सशक्त नारी है, जो प्रत्येक संघर्ष में स्वयं को सिद्ध करती हुई आगे बढती है| एक सशक्त स्त्री का चित्रण इस लघुकथा में किया गया है| नमिता सिंह न सिर्फ बहादुर है, सजग है अपितु वह स्वाभिमानी और ज़िम्मेदार भी है| नमिता सिंह को देखने जब लड़के वाले आते हैं तब वह कहती है, “आप और मैं दोनों ही अपने माता-पिता के प्रति अपना दायित्व पूरा करेंगे | मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं है | हाँ, मैं इतना अवश्य चाहूँगी कि आप मुझे भी मेरे माता-पिता का दायित्व निर्वाह  करने की स्वीकृति देंगे|” नमिता सिंह के कहने के साथ ही अब वे निगाहें बाहर जाने के दरवाजे पर अटक गयी | इस तरह से प्रयोग करके मधुदीप ने अपने श्रेष्ठ लेखकीय-कौशल का परिचय दिया है, जो प्रत्येक दृष्टि से  प्रशंसनीय है | माधव नागदा की लघुकथा ‘कुणसी जात बताऊँ’ एक पुराने कथानक पर नया प्रस्तुतीकरण है, जो इस लघुकथा को प्रभावशाली बना देता है| जात-पात पर लिखी गयी इस लघुकथा के संवाद पात्रानुसार है, जो प्रभावशाली बन पड़े हैं| इस लघुकथा में कथा-नायिका एक पनहारिन है| इस लघुकथा के माध्यम से लेखक यह सन्देश देना चाहता है  कि समाज में जात-पात को दरनिकार कर देना चाहिए व स्त्री की भी कोई जात नहीं होती है, वह भी एक मनुष्य है और उसको भी वही सब कुछ मिलना चाहिए जो समाज पुरुषों को देता है | प्रतीकात्मक शैली में लिखी मृणाल आशुतोष की लघुकथा ‘बछड़ू’ पाठकों पर अपनी अमिट छाप छोड़ती है| दहेज़ से खरीदे गए दूल्हे की स्थिति खरीदे गए बछड़े जैसी ही होती है, विषय पुराना होने के बावजूद इस लघुकथा का प्रस्तुतीकरण प्रभावशाली है| भाषा-शैली, कथानक, शीर्षक सभी कथानुरूप और सटीक हैं| राजेन्द्रकुमार गौड़ की लघुकथा ‘दोजख की आग’ उन गुमराह लोगों पर आधारित लघुकथा है जिनको बरगलाकर आतंकवादी बना दिया जाता है| यह एक ऐसी समस्या और ऐसा कलंक है जिसकी वजह से जाने कितने घर बर्बाद होते हैं| इस लघुकथा में जहाँ समस्या का चित्रण किया गया है, वहीँ समस्या के समाधान हेतु संकेत भी प्रत्यक्ष है| इसका कथानक और भाषा-शैली सटीक है | रामकुमार घोटड़ की लघुकथा ‘मर्दगाथा’ संवाद-शैली में लिखी गयी है | इस लघुकथा में पुरुषप्रधान समाज के उस चित्र को उभारने का प्रयास किया गया है जहाँ विवाहोपरांत एक पुरुष तो किसी विवाहित स्त्री से रिश्ता जोड़ सकता है परन्तु अपनी स्त्री को किसी परपुरुष के साथ नही देख सकता | इस लघुकथा का विषय पुराना है और यह लघुकथा वांछित प्रभाव छोड़ने में असमर्थ रही है |  रोहित शर्मा की लघुकथा ‘ऑटोमैन के आँसू’ में लेखक ने फंतासी का सहारा लिया है और एक संवेदनशील कम्पूटरायिज्ड व्यक्ति का निर्माण कर यह संप्रेषित करने का प्रयास किया गया है कि वर्तमान में मानव संवेदनहीन बनता जा रहा है| इस लघुकथा का विषय नया न होने के बावजूद अपने श्रेष्ठ प्रस्तुतीकरण के कारण यह लघुकथा ध्यान आकर्षित करती है |  |

लकी राजीव की लघुकथा ‘देवदूत’ एक सकारत्मक सन्देश देती हुई लघुकथा है जो लोग निराशा के काले बादलों में घिरे रहते हैं और आत्महत्या जैसा कु-कृत्य करने हेतु  मन बना लेते हैं ऐसे में यदि कोई  उनको आशा की एक किरण दिखा दे  कि दुनिया में अकेले वही नहीं जो दु:खी हैं अपितु और लोग भी  दुःख के पहाड़ के नीचे दबे हुए हैं तब उनको एहसास होता है कि उन्हें अपने जीवन में संघर्ष करना होगा, और सटीक रास्ते तलाशने होंगे | इसी पृष्ठभूमि पर आधारित इस लघुकथा की कथानायिका जो आत्महत्या करने वाली होती है कि उसी समय एक सेल्स वुमन उसके घर आती है और बातों ही बातों में वह अपना दुखड़ा सुनाती है, जिससे कथानायिका को एहसास हो जाता है कि आत्महत्या करना किसी भी समस्या का हल नहीं है और तब वह जीवन के सकारात्मक पहलु को देखती है | इस लघुकथा के माध्यम से जो सन्देश संप्रेषित हो रहा है वो समाजोत्थानिक है जो इस लघुकथा को साहित्यिकता प्रदान करता है |  

शील कौशिक की लघुकथा ‘खेल’ अंधविश्वास और रुढ़िवाद को दर्शाती एक श्रेष्ठ लघुकथा है | जिसमें पंडितजी अपनी बेटी को देवी रूप बनाकर निःसंतान दंपत्ति को आशीर्वाद दिलवाने का कार्य करते हैं, और उसके कोमल मन को अपनी इच्छाओं की बलि चढ़ा देते हैं | इसका शीर्षक कथानुरूप है, और भाषा-शैली भी सटीक है | शोभा रस्तोगी की लघुकथा ‘डंकवाली मधुमक्खी’ प्रतीकात्मक लघुकथा है, जिसमें एक माँ की चिंता और परेशानी को डंकवाली मधुमक्खी का प्रतीक बनाया गया है| जब नायिका की युवा बेटी देर से घर पहुँचती है, परन्तु जब तक वह घर नहीं आ जाती तब तक माँ के अन्तः संघर्ष को बहुत ही करीने से चित्रित किया गया है| यही इस लघुकथा की बड़ी विशेषता है जो इस लघुकथा को श्रेष्ठता की श्रेणी में ला खड़ा करती है | सविता इन्द्र गुप्ता की लघुकथा ‘सीढ़ियाँ’ एक ऐसी अति-महत्त्वाकांक्षी महिला पर आधारिक लघुकथा है जो लोगों को सीढ़ी बनाकर आगे बढ़ती है और बढ़ती ही जाती है और बीमार हो जाती है| वह डॉक्टर से कहती है वह उसे हर हाल में बचा ले, उसके पास धन-दौलत की कोई कमी नहीं | परन्तु वह स्वयं को मृत्यु के निकट पाती है | अपने सटीक प्रतिपादन के कारण यह लघुकथा श्रेष्ठ बन गयी है | सीमा जैन की लघुकथा ‘तृप्ति’ में अमीर घर की एक महिला की छोटी मानसिकता को आधार बनाकर लिखी हुई एक उत्कृष्ट लघुकथा है,   जिसमें कथानायिका मेमसाहब की बेटी उसके घर काम करने वाली बाई की बेटी के लिए कपड़े निकालकर देती है, परन्तु कथानायिका उनको एक बार देखने के बहाने सब कपड़े वापिस लेकर रख लेती है | कामवाली की आशाओं पर पानी फिर जाता है और वह दु:खी हो जाती है| परन्तु मेमसाहब की बेटी उसके दुःख को भाँप लेती है और उसको अपने जीन्स-टॉप देने को तैयार हो जाती है| कंजूस मेमसाहब की उदार बेटी की उदारता देखकर नौकरानी का मन तृप्त हो जाता है|इस लघुकथा की भाषा-शैली एवं शीर्षक आदि लघुकथा के अनुरूप हैं | सीमा सिंह की लघुकथा ‘मन का उजाला’ में कथानायक के स्वपन में ‘भुखमरी’ एवं ‘गरीबी’ स्त्री रूप में दो बहने आती हैं, उनको पूछने पर वे  कहती हैं, “हमने इस घर में निराशा और कायरता को आते देखा था...तो चुपके से हम भी घुस आये|” कथानायक की पत्नी के देहांत और व्यावसायिक पार्टनर के हाथों धोखा खाने के बाद वह निराशा की स्थिति में पहुँच जाता है | दोनों बहनों द्वारा उसके बच्चों को अपने साथ ले जाते हुए वह देखता है तो घबरा जाता है और जब उठता है तो भोर का उजाला परदे से छनकर कमरे में आता देख वह अपनी जेब में रातभर से रखी ज़हर की पुड़िया सिंक में बहा देता है| इस लघुकथा का विषय, भाषा-शैली, संवादों का प्रवाह एवं शीर्षक सब ही अनुकूल हैं | सुधीर द्विवेदी की लघुकथा ‘बाँध’ में दो पीढ़ियों के बीच सोच के फर्क को अग्रज पीढ़ी को एक बाँध का सहारा लेना चाहिए ताकि सोच के मध्य की खाई को भरा जा सके| इसी उद्देश्य से लिखी हुई यह लघुकथा अपनी सार्थकता सिद्ध करती  है| इस श्रेणी की  अन्तिम लघुकथा सुभाष नीरव की ‘दर्द’ है| प्रत्येक व्यक्ति का दर्द उम्र के साथ बढ़ता जाता है| इसी को दर्शाने हेतु लिखी गयी इस लघुकथा में कथानायक स्वयं को आईने में देखता है और उसको आभास होता है कि वर्तमान में वह उसका मजाक उड़ा रहा है| यहाँ आईना अपरोक्ष रूप से दर्शाया गया है| यह एक उत्कृष्ट लघुकथा है जिसमें व्यक्ति के भीतर के द्वन्द को आईने को  माध्यम बनाकर एक पात्र के रूप में प्रस्तुत किया गया है| लघुकथा का प्रतिपादन प्रशंसनीय है और शीर्षक भी सटीक है | 

३.     वैचारिक लघुकथाएँ : ऐसी लघुकथाएँ जिनके कथानक कुछ सोचने हेतु  विवश कर दें , ऐसी लघुकथाओं को मैंने इस श्रेणी के शामिल किया है | इनमें  ‘उसकी पींग’, ‘सिक्सटी प्लस’, ‘कठपुतली’, ‘लिहाज’ ‘प्रतिशोध’, ‘संवेदना’, ‘आईनेवाला डिसूजा’, ‘पड़ाव’, ‘रिश्तों की भाषा’, ‘शहर की रफ़्तार’, ‘मोक्ष-श्लोक’, ‘चिड़िया उड़’ और ‘गाय-माँ’ का शुमार किया है |  

  अशोक वर्मा की लघुकथा ‘उसकी पींग’ लघुकथा में कथानायक एक पार्क में अपने पोते को झूला झुलाता है, वहीँ एक गरीब बच्चा भी आता है और उसको झूले को पींग डालने को कहता है| परन्तु कथानायक उसकी गरीबी को देखते हुए उसकी बातों को अनसुनी कर देता है | गरीब बच्चा पुनः प्रयास करके झूले पर चढ़ जाता है और हवा से बातें करते हुए आनंदित हो उठता है| वह झूले पर से गिर न जाए अब यह चिंता उसको सताती है परन्तु वह चलते झूले से कूद कर मिट्टी में गिर जाता है और हँसते हुए वहाँ से चला जाता है| कथानायक को लगता है जैसे वह गरीब बच्चा उसकी अमीरी का उपहास करके चला गया है | इस कथानक के द्वारा लेखक अमीर लोगों की गरीबों के प्रति हीनभावना  पर विचारनीय प्रश्न खड़ा कर रहा है | उषा भदौरिया की लघुकथा ‘सिक्सटी प्लस’ का कथानक उन बुजुर्गों के इर्द-गिर्द घूम रहा है जो अपने परिवारवालों से उपेक्षित हो जाते हैं, ऐसे में इस कथा के बुज़ुर्ग अपना एक व्हाट्सअप ग्रुप बना लेते हैं और एक दूसरे की कुशल-क्षेम लेते रहते हैं और अगर कोई ग्रुप में नहीं आ पाता तो उसकी खोज-खबर लेने उसके घर पहुँच जाते हैं, और जरूरत पड़ने पर उसको अस्पताल पहुँचा देते हैं | ऐसा ही कुछ इस लघुकथा की कथानायिका के साथ हुआ जो एक बुज़ुर्ग  महिला है जिसका बेटा उसको देखने अस्पताल आता है, क्योंकि माँ को माइनर स्ट्रोक आता है, पूछताछ करने के बाद इस सिक्सटी प्लस व्हाट्सअप ग्रुप का पता चलता है, बेटा माँ से आधे घंटे की दूरी पर रहता है परन्तु बेटा व्यस्तता का बहाना बनाता है, “ पर माँ ने उसे कभी नहीं बताया |” कथानायिका के साथी उसको उसकी लापरवाही का आईना दिखाकर उसको आशीर्वाद देकर चले जाते हैं| यह एक सुलझी हुई, समाज को  आईना दिखानेवाली  एक सुन्दर लघुकथा है| स्वाभाविक भाषा-शैली, प्रवाहमयी संवादों से यह लघुकथा उत्कृष्टता के पायदान पर खड़ी मिलती है |

बड़ी विनम्रता से कहना चाहती हूँ कि अगली लघुकथा ‘कठपुतली’ इन पंक्तियों की लेखिका की है |  इस लघुकथा के विषय में मैं क्या कहूँ ? इस लघुकथा पर डॉ.ध्रुव कुमार ने इसके शीर्षक को प्रतीकात्मक कहा है जो अपनी सार्थकता को गहराई तक जाकर सिद्ध करता है | वह कहते हैं, “ यह लघुकथा शनैः –शनैः घनी एवं सुष्ठु बुनावट के साथ क्रमशः विकास पाती है और क्षिप्रता के साथ अपने गंतव्य पर पहुँचकर पाठकों को संवेदना से भर देती है|” रूप देवगुण के अनुसार– “यह लघुकथा उद्देश्यपूर्ण, रोचक तथा सार्थक है |”

कुमार गौरव की लघुकथा ‘लिहाज’ उन भटके हुवे युवा वर्ग पर आधारित लघुकथा है जो सिगरेट फूँकने में नहीं झिझकते परन्तु अपने बड़ों की मर्यादा रखते हैं और उनसे अपनी आदात को छिपाने का प्रयास करते हैं| यह दो पीढ़ियों की आपस की समझ-बूझ पर आधारित एक श्रेष्ठ लघुकथा है | दिव्या राकेश शर्मा की लघुकथा ‘प्रतिशोध’ के माध्यम से लेखिका ने यह सन्देश देने का सद्प्रयास किया है कि ‘प्रतिशोध’ लेना किसी भी समस्या का समाधान नहीं है| महाभारत के पात्र अश्वत्थामा को प्रतीक बनाकर अत्मत्काथात्मक शैली में लिखी गयी  एक श्रेष्ठ लघुकथा है| इसकी भाषा-शैली कथ्य के अनुरूप है | नंदकिशोर बर्वे की लघुकथा ‘संवेदना’  पुराणों के पात्रों के माध्यम से वर्तमान के संवेदनहीन सरकारी यंत्र को चित्रित करती एक अच्छी लघुकथा है | मुकेश शर्मा की लघुकथा ‘आइनेवाला डिसूजा’ , में आईने को बिम्ब बनाकर लेखक ने इस सत्यता को चित्रित करने का सद्प्रयास किया है कि, ‘सुख के सब साथी, दुःख में न कोय’ | इसका प्रस्तुतीकरण प्रशंसनीय है , लेखक को इसके शीर्षक पर पुनः विचार करना चाहिए ऐसा मेरा मत है | योगराज प्रभाकर की लघुकथा ‘पड़ाव’ पति-पत्नी के बीच सच्चे प्रेम को दर्शाती एक संवेदनशील लघुकथा है | इस लघुकथा का शिल्प तथा संवाद की भाषा-शैली ने इस लघुकथा के कथ्य को उत्कृष्टता प्रदान की है | इसका शीर्षक भी कथा के अनुरूप है | विरेन्दर ‘वीर’ मेहता की लघुकथा ‘रिश्तों की भाषा’ संवाद-शैली में लिखी गयी एक उत्कृष्ट लघुकथा है जिसमें लेखक यह बताना चाह रहा है कि दैहिक प्रेम क्षणिक होता है परन्तु आत्मिक प्रेम सच्चा होता है और सफल भी | इसका शीर्षक भी कथ्य के अनुरूप है | सतीशराज पुष्करणा की लघुकथा ‘शहर की रफ़्तार’ में लेखक ने यह चित्रित करने का सद्प्रयास किया है कि गाँव से जब कोई व्यक्ति पहली बार किसी शहर आता है तो यहाँ के कोलाहल में वह यहाँ आने का कारण तक  भूल जाता है, और संवेदनहीन लोगों के मध्य आकर अपने गाँव के लोगों के निश्छल प्रेम को कहीं खो देता है और इसी शहरी जीवन में प्रताड़ित हो जाता है| इस लघुकथा का कथ्य, भाषा-शैली सभी उत्तम हैं और शीर्षक भी कथा के अनुरूप है | सतीश दुबे की लघुकथा ‘मोक्ष-श्लोक’ आध्यात्मिक विषय पर लिखी गयी एक दुरूह रचना है जिसमें पति-पत्नी के मध्य शरीर और आत्मा को लेकर वार्त्तालाप हो रहा है कि इन्सान की मृत्यु के पश्चात् उसकी आत्मा भी संग जायेगी अगर पति-पत्नी के बीच आध्यातिक प्रेम हो तब| यह एक मिथ्या बात है| इस लघुकथा के कथ्य से पूर्ण रूप-से मेरी सहमति नहीं बन पा रही है| संध्या तिवारी की लघुकथा ‘चिड़िया उड़’ में लेखिका ने माँ के वात्सल्य भाव को चित्रित करने का सुन्दर सद्प्रयास किया है कि माँ की आँखों में प्यार की जितनी गहराई होती है वह अन्य कहीं नहीं मिल सकती | ‘चिड़िया उड़’ बच्चों के एक खेल को प्रतीक बनाकर लेखिका ने माँ के प्यार को सर्वाधिक  उत्कृष्ट बतलाया है जो लेखिका के लेखन-कौशल को प्रदर्शित कर रहा है | हरनाम शर्मा की लघुकथा ‘गाय-माँ’ के माध्यम से लेखक ने समाज के उस वर्ग पर करारा प्रहार किया है जो गाय को माँ तो कहता है परन्तु वह सिर्फ इसलिए कि गाय एक उपयोगी प्राणी है, वरना उसकी देखभाल करने में वह कतराता है |  इसका कथानक, भाषा-शैली लघुकथा के अनुरूप हैं और इस कथा को उत्कृष्टता प्रदान करने में सहायक बने हैं | इसका शीर्षक भी सटीक है|


४.     अन्यान्य लघुकथाएँ : अध्य्यनोपरांत इस पुस्तक में सम्मिलित सभी लघुकथाओं में दो लघुकथाएँ ऐसी लगीं जो  व्यंग्यात्मक एवं मनोवैज्ञानिक हैं| ऐसी लघुकथाओं को मैंने इस श्रेणी में लिया है| ‘भीड़तन्त्र’ और ‘दोजख की आग’ |

तेजवीर सिंह ‘तेज’ की लघुकथा ‘भीड़तन्त्र’ व्यंग्यात्मक लघुकथा है जिसमें सरकार और पुलिसिया विभाग की कार्यप्रणाली और उनकी पदवी का दुरूपयोग करने  वालों  पर करारा व्यंग्य किया गया है | इसका विषय नया नहीं है,  परन्तु संवाद कथानुरूप हैं और शीर्षक भी | राजेन्द्रकुमार गौड़ की लघुकथा ‘दोजख की आग’ आतंकवाद को आधार बनाकर लिखी हुई है, जिसमें  लोगों को भरमाकर आतंकवादी बना दिया जाता है और गुमराह कर दिया जाता है| पर जब उनकी आँख खुलती है तब तक बहुत देर हो जाती है |

अब मैं पड़ाव और पड़ताल खण्ड ३० में धरोहर स्तम्भ के अंतर्गत मलयालम भाषी हिन्दी लघुकथाकार एन. उन्नी की उन ग्यारह लघुकथाओं पर संक्षेप में चर्चा करना चाहूँगी | वे लघुकथाएँ क्रमशः इस प्रकार हैं- ‘कबूतरों से भी खतरा है’, ‘सर्कस’, ‘दूध का रंग’, ‘मरीज’, ‘तलाश’, ‘तबाही’, ‘वाह री दाढ़’, ‘सपनों में रावण’, ‘राम-राज्य’ और ‘पागल’|

एन. उन्नी की सभी लघुकथाओं को गहराई से अध्ययन करने के पश्चात् जहाँ तक मैं समझ पायी हूँ, ये सभी लघुकथाएँ वैचारिक हैं  जो पठनोप्रांत चिंतन-मनन हेतु किसी भी संवेदनशील पाठक को विवश कर देती हैं|  इनकी पहली लघुकथा ‘कबूतरों से भी खतरा है’ में परतंत्रता से स्वतंत्रता की राह दिखाती लघुकथा कबूतरों को प्रतीक बनाकर लिखी गयी श्रेष्ठ रचना है| इसे लघुकथा माने या न माने यह विचार का विषय है |  कारण यह लघुकथा कालत्व दोष की शिकार है| दूसरी लघुकथा ‘सर्कस’ है जिसमें बन्धुवा मजदूरों को स्वतंत्रता की राह दिखाती तथा समुचित अधिकार के प्रति सतर्क करती है, निश्चित रूप से एक श्रेष्ठ लघुकथा है| ‘दूध का रंग’ लघुकथा में सरकारी विद्यालयों की पढ़ाई एवं छात्र-छात्राओं के स्तर को संप्रेषित करने का प्रशंसनीय प्रयास किया गया है, किन्तु यदि इसके आरंभिक भाग को क्षिप्र कर दिया जाए और कालत्व दोष से इसे मुक्त कर दिया जाए तो यह लघुकथा प्रशंसा की पात्र बन सकती है| इनकी चौथी लघुकथा दुरूह है किन्तु गहरे पानी पैठने पर बल देती इस लघुकथा में व्यावसायियों की स्वार्थपरकता पर गंभीरता से विचार किया गया है कि इस वर्ग को किसी के दुःख-दर्द से कोई सरोकार नहीं है उन्हें तो मात्र और मात्र अपने लाभ से मतलब है| पाँचवीं लघुकथा में यह सुन्दर विचार अभिव्यक्त किया गया है कि सच्चाई की राह पर चलने वाले कभी गद्दी की चिन्ता नहीं करते | वे जीवन-पर्यन्त इस हेतु संघर्ष करते ही रहते हैं| छठी लघुकथा में दवा के धंधे पर प्रहार किया गया है कि दवा में मिलावट के कारण नायक की पत्नी उसे संतान का मुँह दिखाये बिना इसी मिलावट के कारण दिवंगत हो जाती है| सातवीं लघुकथा ‘वाह री दाढ़’ में दाढ़ को प्रतीक बनाकर यह सन्देश संप्रेषित करने का प्रयास किया गया है कि व्यक्ति को मात्र सुनना ही नहीं, अपितु देश की समस्याओं पर पढ़ना एवं उस पर चिंतन-मनन भी करना चाहिए| यह भी एक दुरूह लघुकथा है  जो गंभीरता से कई बार पढ़ने एवं स्वयं पर विचार करने की माँग करती है| आठवीं लघुकथा व्यवसायियों के सोच को प्रत्यक्ष करती है कि यह वर्ग मात्र अपने स्वार्थ एवं अधिकाधिक धन कमाने में विश्वास करता है| उनके इस सोच से गरीबों पर क्या दुष्प्रभाव पड़ेगा इससे उन्हें कोई वास्ता नहीं है | इनकी नौवीं लघुकथा ‘सपनों में रावण’ है जिसमें रावण को प्रतीक बनाकर भ्रष्टाचारियों के सोच को उजागर किया गया है| तात्पर्य यह है कि  हमारे देश में वर्तमान नेताओं के चरित्र की पोल खोलते हुए यह स्पष्ट करने का सफल प्रयास किया गया है कि ये लोग जनता का हित करने की अपेक्षा उन्हें धोखा देते हैं, ठगते हैं और स्वयं राजसी आनंद उठाते हैं और जनता को ‘राम-राज्य’ के स्वप्न दिखाते हैं|

इनकी अन्तिम लघुकथा ‘पागल’ में दो बहनों में उत्पन्न ईर्ष्याभाव को प्रत्यक्ष करते हुए यह स्पष्ट करने का सद्प्रयास है कि जब कोई व्यक्ति किसी निकटतम व्यक्ति को प्रगति की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए देखता है, तो वह उससे ईर्ष्या करने लगता है|

कुल मिलाकर मैं उन्नी की लघुकथाओं के विषय में यह कहना चाहूँगी कि इनमें कथात्मक रचनाएँ श्रेष्ठ हैं, जिन्हें विचार करने की दृष्टि से पढ़ा जाना चाहिए, किन्तु यदि हम वर्तमान हिन्दी-लघुकथा की बात करें तो इनकी अधिकाँश लघुकथाएँ कालत्व दोष की शिकार हैं  जिनपर विद्वानों को गहराई तक जाकर विचार करना चाहिए |

अब यदि पड़ाव और पड़ताल के ३० वें खण्ड में प्रकाशित लघुकथाओं पर सामूहिक रूप-से निष्कर्ष निकालें तो कतिपय अपवादों को छोड़कर प्रायः सभी लघुकथाएँ उत्कृष्ट हैं जो आने वाली पीढ़ी को श्रेष्ठता के उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत की जा सकेंगी | अतः अपने अन्य खण्डों की भाँति ही यह तीसवाँ खण्ड भी न मात्र उपयोगी है, अपितु प्रत्येक लघुकथाकार के पास होने की आवश्यकता पर भी बल देता है|

- कल्पना भट्ट

श्री द्वारकाधीश मंदिर

चौक बाज़ार, भोपाल-४६२००१

मो:-9424473377

रविवार, 6 फ़रवरी 2022

काव्यांजलि में मेरी एक रचना | ममता



ममता डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

नये साल की वह पहली सुबह जैसे बर्फानी पानी में नहा कर आई थी। 10 बज चुके थे पर सूर्यदेव अब तक धुंध का धवल कंबल ओढ़े आराम फरमा रहे थे। अनु ने पूजा की थाली तैयार की और ननद के कमरे में झांक कर कहा, "नेहा! प्लीज नोनू सो रहा है, उसका ध्यान रखना। मैं मंदिर जा कर आती हूँ।"

शीत लहर के तमाचे खाते और ठिठुरते हुए उसने मंदिर वाले पथ पर पग धरे ही थे कि उसके पैरों को जैसे जकड़ लिया, एक बोतल, जिसमें से शराब रिस रही थी, उसके पैरों के नीचे आते-आते बची थी। 

“ये भिखारी, नये साल का स्वागत भी शराब से करते हैं..." सर्दी से कांप रहे होंठों से बुदबुदाते हुए उसने पास ही फुटपाथ पर बनी तम्बूनुमा झोंपड़ी की तरफ घृणा से देखा और शराब की बोतल से दूर हट गयी। 

वह फिर से मंदिर जाने के लिये बढ़ने ही वाली थी कि उस झोंपड़ी से कुम्हलाये हुए चेहरे वाली एक महिला बाहर आकर बैठ गयी। उसकी गोद में लगभग दो महीने का बच्चा था, जो चिल्ला-चिल्ला कर रो रहा था। उस महिला को देखकर अनु के चेहरे पर घृणा के भाव और भी अधिक उभर आये। वह क्रोध में कुछ कहने ही वाली थी कि, उस महिला ने अपना फटा हुआ आँचल हटाया और बच्चे को अपना दूध पिलाने लगी। वह बच्चा उसकी छाती से मुंह हटा रहा था, अनु समझ गयी उस महिला के दूध नहीं आ रहा है।

तभी हवा थोड़ी तेज़ हुई और झोंपड़ी की दिशा से बदबू का एक भभका आया, अनु उसे सहन नहीं कर पाई और नथूने बंद कर चल पड़ी। मंदिर से आती आरती की घंटियों की आवाज़ ने उसकी चाल को और भी तेज़ कर दिया।

अनु के कदम बढ रहे थे, लेकिन उसकी निगाहों से वह दृश्य नहीं हट रहा था। वह कुछ सोच कर मुड़ी, और महिला के पास जाकर, अपनी पूजा की थाली में रखा दूध का लोटा उसकी तरफ बढ़ा दिया। महिला ने कृतज्ञता भरी नजरों से अनु की तरफ देखा और लोटा अपने रोते हुए बच्चे के मुंह से लगाने लगी, लेकिन अनु ने उसका हाथ पकड़ कर उसे रोक दिया और कहा,
"यह दूध तुम्हारे लिए है।"

कहकर अनु ने उसके बच्चे को लिया और अपनी शाल में छिपा कर दूध से गीली हो रही छाती से लगा दिया।


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डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

शनिवार, 5 फ़रवरी 2022

दि ग्राम टुडे साप्ताहिक के लघुकथा-विशेषांक में मेरी एक रचना | खजाना


 


खजाना | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

पिता के अंतिम संस्कार के बाद शाम को दोनों बेटे घर के बाहर आंगन में अपने रिश्तेदारों और पड़ौसियों के साथ बैठे हुए थे। इतने में बड़े बेटे की पत्नी आई और उसने अपने पति के कान में कुछ कहा। बड़े बेटे ने अपने छोटे भाई की तरफ अर्थपूर्ण नजरों से देखकर अंदर आने का इशारा किया और खड़े होकर वहां बैठे लोगों से हाथ जोड़कर कहा, “अभी पांच मिनट में आते हैं”। 

फिर दोनों भाई अंदर चले गये। अंदर जाते ही बड़े भाई ने फुसफुसा कर छोटे से कहा, "बक्से में देख लेते हैं, नहीं तो कोई हक़ जताने आ जाएगा।" छोटे ने भी सहमती में गर्दन हिलाई । 

पिता के कमरे में जाकर बड़े भाई की पत्नी ने अपने पति से कहा, "बक्सा निकाल लीजिये, मैं दरवाज़ा बंद कर देती हूँ।" और वह दरवाज़े की तरफ बढ़ गयी।

दोनों भाई पलंग के नीचे झुके और वहां रखे हुए बक्से को खींच कर बाहर निकाला। बड़े भाई की पत्नी ने अपने पल्लू में खौंसी हुई चाबी निकाली और अपने पति को दी। 

बक्सा खुलते ही तीनों ने बड़ी उत्सुकता से बक्से में झाँका, अंदर चालीस-पचास किताबें रखी थीं। तीनों को सहसा विश्वास नहीं हुआ। बड़े भाई की पत्नी निराशा भरे स्वर में  बोली, "मुझे तो पूरा विश्वास था कि बाबूजी ने कभी अपनी दवाई तक के रुपये नहीं लिये, तो उनकी बचत के रुपये और गहने इसी बक्से में रखे होंगे, लेकिन इसमें तो....." 

इतने में छोटे भाई ने देखा कि बक्से के कोने में किताबों के पास में एक कपड़े की थैली रखी हुई है, उसने उस थैली को बाहर निकाला। उसमें कुछ रुपये थे और साथ में एक कागज़। रुपये देखते ही उन तीनों के चेहरे पर जिज्ञासा आ गयी। छोटे भाई ने रुपये गिने और उसके बाद कागज़ को पढ़ा, उसमें लिखा था, 
"मेरे अंतिम संस्कार का खर्च"
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डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी




गुरुवार, 3 फ़रवरी 2022

अनिल मकारिया जी द्वारा मेरी एक लघुकथा की समीक्षा



स्वप्न को समर्पित । डॉ.चंद्रेशकुमार छतलानी 

लेखक उसके हर रूप पर मोहित था, इसलिये प्रतिदिन उसका पीछा कर उस पर एक पुस्तक लिख रहा था। आज वह पुस्तक पूरी करने जा रहा था, उसने पहला पन्ना खोला, जिस पर लिखा था, "आज मैनें उसे कछुए के रूप में देखा, वह अपने खोल में घुस कर सो रहा था"

फिर उसने अगला पन्ना खोला, उस पर लिखा था, "आज वह सियार के रूप में था, एक के पीछे एक सभी आँखें बंद कर चिल्ला रहे थे"

और तीसरे पन्ने पर लिखा था, "आज वह ईश्वर था और उसे नींद में लग रहा था कि उसने किसी अवतार का सृजन कर दिया"

अगले पन्ने पर लिखा था, "आज वह एक भेड़ था, उसे रास्ते का ज्ञान नहीं था, उसने आँखें बंद कर रखीं थीं और उसे हांका जा रहा था"

उसके बाद के पन्ने पर लिखा था, "आज वह मीठे पेय की बोतल था, और उसके रक्त को पीने वाला वही था, जिसे वह स्वयं का सृजित अवतार समझता था, उसे भविष्य के स्वप्न में डुबो रखा था।

लेखक से आगे के पन्ने नहीं पढ़े गये, उसके प्रेम ने उसे और पन्ने पलटने से रोक लिया। उसने पहले पन्ने पर सबसे नीचे लिखा - 'अकर्मण्य', दूसरे पर लिखा - 'राजनीतिक नारेबाजी', तीसरे पर - 'चुनावी जीत', चौथे पर - 'शतरंज की मोहरें' और पांचवे पन्ने पर लिखा - 'महंगाई'।

फिर उसने किताब बंद की और उसका शीर्षक लिखा - 'मनुष्य'

-चंद्रेश कुमार छतलानी


इस लघुकथा पर समीक्षा । अनिल मकारिया

यह लघुकथा बेहद रोचक है । यूँ समझिये एक ग्रंथ को लघुकथा में समाहित कर दिया है ।

कुछ प्रतीकों को मैं खोल पाया कुछ को शायद किसी और तरीके से ज्ञानीजन खोल पाएं ।

इस लघुकथा का शीर्षक 'स्वप्न को समर्पित' इस लघुकथा की मूल संकल्पना है आप इस शीर्षक को इस लघुकथा की चाबी कह सकते हैं ।

विष्णु पुराण के मुताबिक यह दुनिया शेषनाग पर सो रहे विष्णु का स्वप्न मात्र है ।

जब विष्णु क्षीरसागर में तैरते हुए शेषनाग पर सो रहे होते हैं तब वे किसी अवत्तार रूप में मृत्युलोक (धरती) पर विचरण कर रहे होते हैं और जब धरती पर अवत्तार रूप में सो रहे होते है तब वह विष्णु रूप में जागृत अवस्था में कायनात का राजकाज देख रहे होते हैं ।

// "आज वह ईश्वर था और उसे नींद में लग रहा था कि उसने किसी अवतार का सृजन कर दिया"//

तीसरे पन्ने पर लेखक (ईश्वर) द्वारा सृजित यह पंक्तियां इस लघुकथा के शीर्षक की संकल्पना को बल देती है ।

इस लघुकथा में ईश्वर को लेखक की संज्ञा दी गई है जो अपनी ही रचना मनुष्य पर मोहित है (प्रतीक: रची गई किताब का शीर्षक 'मनुष्य')

वह अपने बनाये आज के मनुष्य की विवेचना कर रहा है ।

उसे अपना बनाया मनुष्य विभिन्न जानवरों की तरह आचरण करते तो दिख रहा है लेकिन मनुष्यत्व उसमें नदारद है।

शायद इसीलिए अपनी प्रिय रचना मनुष्य से हताश लेखक (ईश्वर) ने अपनी ही किताब के लिखे बाकी के पन्ने पलटने से खुद को रोक दिया ।

//उसने पहले पन्ने पर सबसे नीचे लिखा - 'अकर्मण्य', दूसरे पर लिखा - 'राजनीतिक  नारेबाजी', तीसरे पर - 'चुनावी जीत', चौथे पर - 'शतरंज की मोहरें' और पांचवे पन्ने पर लिखा - 'महंगाई'।//

हर पन्ने को दिए गए शीर्षक आज के मनुष्य की कहानी पन्ना-दर-पन्ना बयान करते हैं ।

'अकर्मण्यता' की वजह से 'नारेबाजी' पर ज्यादा जोर देना जिसके फलस्वरूप 'चुनावी जीत' हासिल करना और दुर्बल वर्ग अथवा सता को शतरंज के मोहरों की तरह इस्तेमाल करके 'महंगाई' का कारण बनाना ।

इस लघुकथा के प्रतीकों को मैंने अपने नजरिये से समझा है हो सकता है लेखक का नजरिया इस लघुकथा को लिखते समय अलग रहा हो ।

मुझे यह लघुकथा निजी तौर पर बेहद पसंद आई । यह लघुकथा पाठक के लिए एक 'कैलिडोस्कोप' है जिसमें कांच के टुकड़े हर बार नई आकृति गढ़ते रहते हैं ।

- अनिल मकारिया

#Anil_Makariya

Jalgaon (Maharashtra)