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बुधवार, 2 दिसंबर 2020

लघुकथा आयोजन 2021

 सभी विज्ञजनों को सप्रेम नमस्कार!

आप सबके स्नेह और सहयोग से #लघुकथा_आयोजन_2020 की सफलता के उपरांत हम #लघुकथा_आयोजन_2021 के साथ आप सबके समक्ष पुनः उपस्थित हो रहे हैं।
साहित्य की अपेक्षाकृत नवीन विधा लघुकथा शीघ्रता से अपने पंख फैलाते हुये व्योम की ऊँचाई को छूने का प्रयास कर रही है। इसमें #लघुकथा के तमाम पुरोधाओं के साथ-साथ सभी समूहों का, सभी लघुकथाप्रेमियों का योगदान है और सभी अपने अपने स्तर से यथासम्भव लघुकथा के उन्नयन हेतु प्रतिबद्ध हैं।
हम(दिव्या राकेश शर्मा, चित्रा राणा राघव, कुमार गौरव, वीरेंद्र वीर मेहता और मैं अर्थात मृणाल आशुतोष) समस्त लघुकथा परिवार की ओर से एक बार पुनः वृहद आयोजन लेकर आप सबके समक्ष प्रस्तुत हैं जिसमें लघुकथा के सभी समूहों की सामुहिक भागीदारी सुनिश्चित हो। इस आयोजन को हमने
#लघुकथा_आयोजन_2021 की संज्ञा दी है।
विदित हो कि आयोजन का लक्ष्य अधिकाधिक लघुकथाप्रेमियों तक पहुँचने का प्रयास है और आयोजन में आयी श्रेष्ठ लघुकथाओं का चयन करना है।
वरिष्ठजनों से निवेदन है कि इस आयोजन का हिस्सा बनें। इससे आयोजन की गरिमा में श्रीवृद्धि होगी।
श्रेष्ठ रचनाओ के चयन हेतु कुछ नियम निर्धारित किये गए हैं जिनका अनुपालन अनिवार्य है।
1.रचना मौलिक, स्वरचित, अप्रकाशित और अप्रसारित होनी चाहिए। सोशल साइट्स, वेबसाइट आदि पर प्रकाशित रचनाएं भी कतई मान्य नहीं होंगी। रचना पूर्व में कहीं भेजी भी नहीं गयी होनी चाहिए। आयोजन में पोस्ट की हुई रचना परिणाम आने तक आयोजन के इतर कहीं न तो पोस्ट की जा सकती है और न ही कहीं पत्र-पत्रिका/वेबसाइट में भेजी जा सकती है। अन्यथा वह रचना आयोजन से बाहर मानी जायेगी और पुरस्कार से वंचित हो जायेगी। रचनाकार परिणाम के पश्चात रचना का उपयोग करने को स्वतंत्र हैं। किन्तु पुरस्कृत रचना पर प्रकाशन का प्रथम अधिकार आयोजन की पुस्तक का होगा। अतः पुरस्कृत रचना प्रकाशन हेतु कहीं भी अन्यत्र न भेजें।
2.आयोजन का #समय भारतीय समयानुसार 15 जनवरी 2021 प्रातः 8 बजे से 31जनवरी 2021 सायं 10 बजे तक रहेगा।
3. एक रचनाकार दो और अधिकतम दो रचना आयोजन में भेज सकते हैं। वे किसी भी समूह में पोस्ट कर सकते हैं। एक समूह में केवल एक ही रचना पोस्ट करने का विकल्प है। दूसरी रचना वह किसी अन्य समूह मे पोस्ट कर सकते हैं। अन्यथा रचनाकार आयोजन से पृथक माने
जाएंगे।
4. रचना के शीर्ष में #लघुकथा_आयोजन_2021,
नाम, शहर का नाम एवम मौलिक, स्वरचित, अप्रकाशित और अप्रसारित अंकित करना नितांत अनिवार्य है। रचना के अंत मे रचनाकाल भी अवश्य लिखें। तिथि याद न हो तो महीने और वर्ष का जिक्र अनिवार्य रूप से हो।
5.रचना पटल पर डालने के पश्चात न तो संपादित(एडिट) और न ही डिलीट की जा सकती है ऐसा करने पर रचनाकार आयोजन से बाहर माने जाएंगे एवम यदि उसकी जगह दूसरी रचना प्रेषित करने का प्रयास किया गया तो आयोजन समिति को रचना स्वीकृत(अप्रूव) न करने एवम डिलिट करने का सम्पूर्ण अधिकार होगा।
6. 1 फरवरी से 10 फरवरी 2021 तक प्रत्येक समूह की एडमिन समिति अपने समूह से श्रेष्ठ रचनाओं(संख्या आने वाली रचनाओं पर निर्भर करती है। तथापि हम 10 में से 1 श्रेष्ठ के चयन के पक्ष में हैं) का चयन कर हमें अर्थात आयोजन मंडल को देगी। समूह से एक लेखक की एक और केवल एक ही रचना का चयन किया जा सकता है। यहाँ समूह के एडमिन की लघुकथा के प्रति प्रतिबद्धता सामने आयेगी।
7. एडमिन अपने समूह में रचना भेजने से वंचित रहेंगे। वह दूसरे समूह में अपनी रचना भेज सकते हैं।
8.जो लेखक किसी भी समूह में सक्रिय नहीं है किंतु इस आयोजन में भाग लेना चाहते हैं तो वह अपने वॉल पर आयोजन के अन्य सभी नियमो का पालन करते हुये आयोजन का हिस्सा बन सकते हैं। इस आयोजन हेतु पोस्ट की गई रचना पर इस आयोजन मंडल के दो सदस्यों को मेंशन जरूर करें।
9. चूँकि सम्पादित करने का विकल्प नहीं है अतः रचनाकारों से सविनय निवेदन है कि रचना पोस्ट करने से पहले नियमावली को ध्यानपूर्वक पढ़े। तदुपरांत ही रचना पोस्ट करें।
10. सभी समूहों से रचनाएं प्राप्त होने के पश्चात रचनाओं को लघुकथा के दो मर्मज्ञों के पास निर्णय हेतु भेजा जायेगा।
11.विनम्र निवेदन है कि नियमावली को गौर से पढ़ें और अंततः नियम का पालन सुनिश्चित करें। पुरस्कृत रचनाओं में नियम का कड़ाई से पालन किया जाएगा।
12. #प्रथम_पुरस्कार-3100 ₹ और मधुदीप निर्देशित #पड़ाव_और_पड़ताल के पांच खण्ड
#द्वितीय_पुरस्कार- 2100₹ और पड़ाव और पड़ताल के चार खण्ड
#तृतीय_पुरस्कार -1100₹ और पड़ाव और पड़ताल के तीन खण्ड
इसके अतिरिक्त सात प्रोत्साहन पुरस्कार होंगे जिसमें पड़ाव और पड़ताल के दो-दो खण्ड
दिए जाएंगे।
पुरस्कार की राशि और संख्या में बढोत्तरी संभव है।
13. सभी समूह के एडमिन्स से विनम्र निवेदन है कि इस आयोजन में सहभागी बनें और अपने आपको इस पोस्ट में टैग समझें। इस पोस्ट को अपने समूह में पोस्ट करें और इसे पिन कर लें। तथा आयोजन के अंतराल में रचनाकारों को रचना पोस्ट करने में मार्गदर्शन करें।
14. सभी साहित्यिक संस्थाओं से आग्रह है कि इस आयोजन में अपनी सहभागिता निश्चित कर लघुकथा के उन्नयन में अपना।योगदान दें।
15. इन नियमों के विरुद्ध जाने पर उत्पन्न वाद-विवाद पर आयोजन मंडल का निर्णय ही अंतिम और सर्वमान्य होगा। इसे किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकेगी।
16.आवश्यकता पड़ने पर नियमावली में परिवर्तन सम्भव है और वह तत्काल प्रभाव से मान्य होंगे।
सभी मित्रों से निवेदन है कि इस पोस्ट को कॉपी पेस्ट कर अपनी वॉल और सभी फेसबुक व व्हाट्सएप समूह पर स्थान दें ताकि अधिकाधिक लघुकथाकार इस आयोजन का हिस्सा बन सकें।
मुख्य पोस्ट का लिंक कम्नेट्स बॉक्स में दे दें।
कोई भी लघुकथाप्रेमी इससे छूटें नहीं, ऐसा प्रयास सुनिश्चित हो।
कोई भी संस्था या व्यक्ति इस आयोजन में सहयोग करना चाहते हैं तो आयोजन मंडल से 91-8010814932(मृणाल आशुतोष) और 7488631138(कुमार गौरव)
सम्पर्क कर सकते हैं। उनका सहर्ष स्वागत है। सहयोगदाताओं का जिक्र आयोजन की आने वाली पुस्तक में किया जाएगा।
◆लघुकथा के परिंदे
◆साहित्य संवेद
◆नया लेखन और नया दस्तखत
◆साहित्य प्रहरी
◆लघुकथा:गागर में सागर
◆सार्थक साहित्य मंच
◆शब्दशः
◆"ज़िन्दगीनामा: लघुकथाओं का सफ़र
◆अनुपम हिन्दी साहित्य
◆चिकीर्षा- ग़ज़ल एवम् लघुकथा को समर्पित एक प्रयास
◆क्षितिज
◆फलक (फेसबुक लघु कथाएं)
◆आधुनिक लघुकथाएँ
◆लघुकथा सृजन - संगम संवेदनाओं का
◆ literature life
◆अंतरा शब्द शक्ति
उपर्युक्त समूहों की स्वीकृति प्राप्त हो चुकी है।
इनमे रचनाकार अपनी रचना पोस्ट कर सकते हैं।
नियमावली को एक बार ध्यान से पढ़ लीजिए।
जैसे जैसे अन्य समूहों की स्वीकृति आती जाएगी, साझा की जाएगी ।
■■(साथियो, आयोजन की सफलता के पश्चात लघुकथा आयोजन 2020 की भाँति ही इसे एक पुस्तक का रूप दिया जाएगा। विजेताओं को पुरस्कार एक समारोह में देने का भी विचार है।)
■■■सभी लघुकथा अनुरागी इस पोस्ट पर अपने को टैग समझें।
(शुभंकर रजनीश दीक्षित Rajnish RamUrmila Dixit जी ने बनाई है और टैगलाइन चित्रा राणा राघव की है।)
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सधन्यवाद,
लघुकथा आयोजन समिति
वीरेंदर वीर मेहता
कुमार गौरव
दिव्या राकेश शर्मा
चित्रा राणा राघव
मृणाल आशुतोष


शनिवार, 24 अक्तूबर 2020

ई-बुक | 50 अंतरराष्ट्रीय लघुकथाएं

आप सभी को सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि स्टोरीमिरर एवं लघुकथा दुनिया के संयुक्त तत्वावधान में एक अंतरराष्ट्रीय लघुकथा प्रतियोगिता का आयोजन किया गया था. इस प्रतियोगिता में उल्लेखनीय स्थान प्राप्त करने वाली 50 लघुकथाओं की ई-बुक बनाई गई है. फिलहाल यह पुस्तक निशुल्क है तथा इसे आप निम्न लिंक पर जाकर आर्डर कर सकते हैं:

50 अंतरराष्ट्रीय लघुकथाएं 



बुधवार, 12 अगस्त 2020

विश्व हिंदी सम्मलेन, मॉरीशस की पुस्तक विश्व हिंदी पत्रिका में लघुकथाओं के शीर्षक पर मेरा एक शोध पत्र

विश्व हिंदी सम्मलेन, मॉरीशस की पुस्तक विश्व हिंदी पत्रिका में लघुकथाओं के शीर्षक पर मेरा एक शोध पत्र।  इसकी जानकारी पूर्व में ही आ गई थी। अब यह विश्व हिंदी सम्मलेन के वेबसाइट http://www.vishwahindi.com/hi/default.aspx पर उपलब्ध है।


मंगलवार, 23 जून 2020

नया पकवान | चंद्रेश कुमार छतलानी


एक महान राजा के राज्य में एक भिखारीनुमा आदमी सड़क पर मरा पाया गया। बात राजा तक पहुंची तो उसने इस घटना को बहुत गम्भीर मानते हुए पूरी जांच कराए जाने का हुक्म दिया।

सबसे बड़े मंत्री की अध्यक्षता में एक समिति बनाई गई जिसने गहन जांच कर अपनी रिपोर्ट पेश की। राजा ने उस लंबी-चौड़ी रिपोर्ट को देखा और आंखें छोटी कर संजीदा स्वर में कहा, "एक लाइन में बताओ कि वह क्यों मरा?"

सबसे बड़े मंत्री ने अत्यंत विनम्र शब्दों में उत्तर दिया, "हुज़ूर, क्योंकि वह भूखा था।"

सुनते ही राजा की आंखें चौड़ी हो गईं और उसने आंखे तरेर कर मंत्री को देखते हुए कहा, "मतलब... मेरे... राज्य में... कोई... भू...खाथा।" यह कहते समय राजा हर शब्द के बाद एक क्षण रुक कर फिर दूसरा शब्द कह रहा था।

मंत्री तुरंत समझ गया और बिना समय गंवाए उसने उत्तर दिया, "जी हुज़ूर। वह 'भू... खाता'। इसलिए मर गया। यही सच है कि उसने भू ज़्यादा खा लिया था।"

रिपोर्ट में उस अनुसार बदलाव कर दिया गया और उस राज्य में 'भू' नामक एक नए पकवान का अविष्कार हो गया, जो काजू-बादाम और शुद्ध घी से बनाया जाता था।
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सोमवार, 11 मई 2020

लघुकथा वीडियो: भेद-अभाव | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी



लघुकथा: भेद-अभाव 

 मोमबत्ती फड़फड़ाती हुई बुझ गयी।

 अँधेरे हॉल में निस्तब्धता फ़ैल गयी थी, फिर एक स्त्री स्वर गूंजा, "जानते हो मैं कौन हूँ?"

 वहां बीस-पच्चीस लोग थे, सभी एक-दूसरे को जानते या पहचानते थे। एक ने हँसते हुए कहा, "तुम हमारी मित्र हो - रोशनी। तुमने ही तो हम सभी को अपने जन्मदिन की दावत में बुलाया है और हमें ताली बजाने को मना कर अभी-अभी मोमबत्ती को फूंक मार कर बुझाया।"

 स्त्री स्वर फिर गूंजा, "विलियम, क्या तुम देख सकते हो कि  तुम गोरे हो और बाकी सब तुम्हारी तुलना में काले?"

 विलियम वहीँ था उसने कहा, "नहीं।"

 वही स्त्री स्वर फिर गूंजा, "शुक्ला, क्या तुम बता सकते हो कि यहाँ कितने शूद्र हैं?"

 वहीँ खड़े शुक्ला ने उत्तर दिया, "पहले देखा तो था लेकिन बिना प्रकाश के कैसे गिन पाऊंगा?"

 फिर उसी स्त्री ने कहा, "अहमद, तुम्हारे लिए माँसाहार रखा है, खा लो।"

 अहमद ने कहा, "अभी नहीं, अँधेरे में कहीं हमारे वाले की जगह दूसरा वाला मांस आ गया तो...?"

 अब स्वर फिर गूंजा, "एक खेल खेलते हैं। अँधेरे में दूसरे को सिर्फ छूकर यह बताना है कि तुम उससे बेहतर हो और क्यों?"

 उनमें से किसी ने कहा, "यह कैसे संभव है?"

 उसी समय हॉल का दरवाज़ा खुला। बाहर से आ रहे प्रकाश में अंदर खड़े व्यक्तियों ने देखा कि उनकी मित्र रोशनी, जिसका जन्मदिन था, वह आ रही है। सभी हक्के-बक्के रह गए। रोशनी ने अंदर आते हुए कहा, "सभी से माफ़ी चाहती हूँ, तैयारी में कुछ समय लग गया।"

 और बुझी हुई मोमबत्ती खुद-ब-खुद जलने लगी,  लेकिन वहां कोई खड़ा नहीं था। सिर्फ एक कागज़ मेज पर रखा हुआ था। एक व्यक्ति ने उस कागज़ को उठा कर पढ़ा, उसमें लिखा था, "मैनें तुम्हें प्रकाश में नहीं बनाया... जानते हो तुम कौन हो?"

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चित्रः साभार गूगल

शनिवार, 9 मई 2020

लघुकथा वीडियो: वैध बूचड़खाना | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी



लघुकथा: वैध बूचड़खाना 

 सड़क पर एक लड़के को रोटी हाथ में लेकर आते देख अलग-अलग तरफ खड़ीं वे दोनों उसकी तरफ भागीं। दोनों ही समझ रही थीं कि भोजन उनके लिए आया है। कम उम्र का वह लड़का उन्हें भागते हुए आते देख घबरा गया और रोटी उन दोनों में से गाय की तरफ फैंक कर लौट गया। दूसरी तरफ से भागती आ रही भैंस तीव्र स्वर में रंभाई, “अकेले मत खाना इसमें मेरा भी हिस्सा है।”

गाय ने उत्तर दिया, “यह तेरे लिए नहीं है... सवेरे की पहली रोटी मुझे ही मिलती है।”

“लेकिन क्यूँ?” भैंस ने उसके पास पहुँच कर प्रश्न दागा।

“क्योंकि यह बात धर्म कहता है... मुझे ये लोग माँ की तरह मानते हैं।” गाय जुगाली करते हुए रंभाई।

“अच्छा! लेकिन माँ की तरह दूध तो मेरा भी पीते हैं, फिर तुम्हें अकेले ही को...” भैंस आश्चर्यचकित थी।

गाय ने बात काटते हुए दार्शनिक स्वर में प्रत्युत्तर दिया, “मेरा दूध न केवल बेहतर है, बल्कि और भी कई कारण हैं। यह बातें पुराने ग्रन्थों में लिखी हैं।”

“चलो छोडो इस प्रवचन को, कहीं और चलते हैं मुझे भूख लगी है...” भूख के कारण भैंस को गाय की बातें उसके सामने बजती हुई बीन के अलावा कुछ और प्रतीत नहीं हो रहीं थीं।

“हाँ! भूखे भजन न होय गोपाला। पेट तो मेरा भी नहीं भरा। ये लोग भी सड़कों पर घूमती कितनी गायों को भरपेट खिलाएंगे?” गाय ने भी सहमती भरी।

और वे दोनों वहां से साथ-साथ चलती हुईं गली के बाहर रखे कचरे के एक बड़े से डिब्बे के पास पहुंची, सफाई के अभाव में कुछ कचरा उस डिब्बे से बाहर भी गिरा हुआ था|

दोनों एक-दूसरे से कुछ कहे बिना वहां गिरी हुईं प्लास्टिक की थैलियों में मुंह मारने लगीं।

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चित्रः साभार गूगल



शुक्रवार, 8 मई 2020

लघुकथा वीडियो: धर्म–निरपेक्ष । लेखक: रामेश्वर काम्बोज हिंमाशु । स्वर: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी




लघुकथा: धर्म–निरपेक्ष / रामेश्वर काम्बोज हिंमाशु

शहर में दंगा हो गया था। घर जलाए जा रहे थे। छोटे बच्चों को भाले की नोकों पर उछाला जा रहा था। वे दोनों चौराहे पर निकल आए। आज से पहले उन्होंने एक–दूसरे को देखा न था। उनकी आँखों में खून उतर आया। उनके धर्म अलग–अलग थे।

पहले ने दूसरे को माँ की गाली दी, दूसरे ने पहले को बहिन की गाली देकर धमकाया। दोनों ने अपने–अपने छुरे निकाल लिये। हड्डी को चिचोड़ता पास में खड़ा हुआ कुत्ता गुर्रा उठा। वे दोनों एक–दूसरे को जान से मारने की धमकी दे रहे थे। हड्डी छोड़कर कुत्ता उनकी ओर देखने लगा।

उन्होंने हाथ तौलकर एक–दूसरे पर छुरे का वार किया। दोनों छटपटाकर चौराहे के बीच में गिर पड़े। ज़मीन खून से भीग गई।

कुत्ते ने पास आकर दोनों को सूँघा। कान फड़फड़ाए। बारी–बारी से दोनों के ऊपर पेशाब किया और सूखी हड्डी चबाने में लग गया।

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गुरुवार, 7 मई 2020

लघुकथा वीडियो: मुर्दों के सम्प्रदाय । लेखन व वाचन: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी




लघुकथा: मुर्दों के सम्प्रदाय


"पापा, हम इस दुकान से ही मटन क्यों लेते हैं? हमारे घर के पास वाली दुकान से क्यों नहीं?" बेटे ने कसाई की दुकान से बाहर निकलते ही अपने पिता से सवाल किया।


पिता ने बड़ी संजीदगी से उत्तर दिया, "क्योंकि हम हिन्दू हैं, हम झटके का माँस खाते हैं और घर के पास वाली दुकान हलाल की है, वहां का माँस मुसलमान खाते हैं।"


"लेकिन पापा, दोनों दुकानों में क्या अंतर है?" अब बेटे के स्वर में और भी अधिक जिज्ञासा थी।


"बकरे को काटने के तरीके का अंतर है..." पिता ने ऐसे बताया जैसे वह आगे कुछ बताना ही नहीं चाह रहा हो, परन्तु बेटा कुछ समझ गया, और उसने कहा,

"अच्छा! जैसे मरने के बाद हिन्दू को जलाते हैं और मुसलमान को जमीन में दफनाते हैं, वैसे ही ना!"


बेटे ने समझदारी वाली बात कही तो पिता ने मुस्कुरा कर उत्तर दिया, "हाँ बेटे, बिलकुल वैसे ही।"


"तो पापा, यह कैसे पता चलता है कि बकरा हिन्दू है या मुसलमान?"


यह प्रश्न सुन पिता चौंक गया, जगह-जगह पर दी जाने वाली अलगाव की शिक्षा को याद कर उसके चेहरे पर गंभीरता सी आ गयी और उसने कहा,

"बकरा गंवार सा जानवर होता है, इसलिए उसे हिन्दू कसाई अपने तरीके से काटता है और मुसलमान कसाई अपने तरीके से। सच तो यह है कि कटने के बाद जब बकरा मरता है उसके बाद ही हिन्दू या मुसलमान बनता है... जीते-जी नहीं।"

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मंगलवार, 5 मई 2020

लघुकथा वीडियो: बच्चा नहीं | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी




लघुकथा: बच्चा नहीं | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

 "बधाई हो, बच्चा हुआ है।"

हर बार की तरह जनाना हस्पताल की उस उपचारिका ने प्रसव के बाद इन्हीं शब्दों से बधाई दी।

 वार्ड के बाहर खड़ी वृद्ध महिला को बच्चे के जन्म की बधाई देकर वह फिर से अंदर जाने लगी ही थी कि, उस वृद्ध महिला ने कौतुहलवश पूछा, “लेकिन सिस्टर, लड़का है या लड़की?”

 “उससे क्या फर्क पड़ता है? जानवर तो नहीं हुआ। जच्चा ठीक है और आंगन में एक स्वस्थ बच्चे की किलकारी गूँजने वाली है, उसकी ख़ुशी तो है ना!“ और वह उस वृद्ध महिला का चेहरा देखे बिना ही दूसरी महिला का प्रसव करवाने चली गयी।

 दूसरी महिला ने भी एक शिशु को जन्म दिया, उपचारिका ने बच्चे का लिंग देखा और बाहर जाकर उस महिला के पति से कहा,

"जच्चा ठीक है, डिलीवरी भी नॉर्मल हो गयी, और.... उसके बच्च... किन्नर हुआ है।"

उसके स्वर की लड़खड़ाहट आसानी से पहचानी जा सकती थी।

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सोमवार, 4 मई 2020

लघुकथा वीडियो: भेद-अभाव | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी




लघुकथा: भेद-अभाव  

मोमबत्ती फड़फड़ाती हुई बुझ गयी।

अँधेरे हॉल में निस्तब्धता फ़ैल गयी थी, फिर एक स्त्री स्वर गूंजा, "जानते हो मैं कौन हूँ?"

वहां बीस-पच्चीस लोग थे, सभी एक-दूसरे को जानते या पहचानते थे। एक ने हँसते हुए कहा, "तुम हमारी मित्र हो - रोशनी। तुमने ही तो हम सभी को अपने जन्मदिन की दावत में बुलाया है और हमें ताली बजाने को मना कर अभी-अभी मोमबत्ती को फूंक मार कर बुझाया।"

स्त्री स्वर फिर गूंजा, "विलियम, क्या तुम देख सकते हो कि  तुम गोरे हो और बाकी सब तुम्हारी तुलना में काले?"

विलियम वहीँ था उसने कहा, "नहीं।"

वही स्त्री स्वर फिर गूंजा, "शुक्ला, क्या तुम बता सकते हो कि यहाँ कितने शूद्र हैं?"

वहीँ खड़े शुक्ला ने उत्तर दिया, "पहले देखा तो था लेकिन बिना प्रकाश के कैसे गिन पाऊंगा?"

फिर उसी स्त्री ने कहा, "अहमद, तुम्हारे लिए माँसाहार रखा है, खा लो।"

अहमद ने कहा, "अभी नहीं, अँधेरे में कहीं हमारे वाले की जगह दूसरा वाला मांस आ गया तो...?"

अब स्वर फिर गूंजा, "एक खेल खेलते हैं। अँधेरे में दूसरे को सिर्फ छूकर यह बताना है कि तुम उससे बेहतर हो और क्यों?"

उनमें से किसी ने कहा, "यह कैसे संभव है?"

उसी समय हॉल का दरवाज़ा खुला। बाहर से आ रहे प्रकाश में अंदर खड़े व्यक्तियों ने देखा कि उनकी मित्र रोशनी, जिसका जन्मदिन था, वह आ रही है। सभी हक्के-बक्के रह गए। रोशनी ने अंदर आते हुए कहा, "सभी से माफ़ी चाहती हूँ, तैयारी में कुछ समय लग गया।"

और बुझी हुई मोमबत्ती खुद-ब-खुद जलने लगी,  लेकिन वहां कोई खड़ा नहीं था। सिर्फ एक कागज़ मेज पर रखा हुआ था। एक व्यक्ति ने उस कागज़ को उठा कर पढ़ा, उसमें लिखा था, "मैनें तुम्हें प्रकाश में नहीं बनाया... जानते हो तुम कौन हो?"
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चित्रः साभार गूगल

रविवार, 3 मई 2020

समीक्षाः गुलाबी फूलों वाले कप (लघुकथा संग्रह ) | लघुकथाकार : डॉ.श्याम सुंदर दीप्ति | समीक्षाकारः डॉ.शील कौशिक


समीक्ष्य कृति:गुलाबी फूलों वाले कप (लघुकथा-संग्रह) 
लघुकथाकार : डॉ.श्याम सुंदर दीप्ति 
प्रकाशक: राही प्रकाशन, दिल्ली 

मूल्य: ₹395 पृष्ठ संख्या: 148
समीक्षाकारः डॉ.शील कौशिक

परिवेश व अनुभव की सान पर रचित श्रेष्ठ लघुकथाएं

डॉ. श्यामसुंदर दीप्ति पंजाबी व हिंदी लघुकथा के प्रमुख आधार स्तंभ रहे हैं। सन 1986 से अपना लघुकथा का सफर शुरू करने वाले डॉक्टर श्यामसुंदर दीप्ति स्वयं मानते हैं कि शुरुआत के तीन-चार दशकों के बाद लघुकथा में कई पड़ाव आए और उन्होंने खुद अपने लेखन में एक विकास होते महसूस किया। वर्तमान में विषय की नवीनता व प्रस्तुतीकरण में प्रयोग जहां एक ओर लघुकथा के विकास व समृद्धि के द्योतक हैं वहीं दूसरी ओर बड़ी संख्या में रातों-रात लघुकथा के नाम पर कुछ भी लिखकर लघुकथाकार बनने का लोभ संवरण नहीं करने वाले लघुकथा विधा के साथ खिलवाड़ करते नजर आते हैं। फिर भी वर्तमान समय को लघुकथा का स्वर्णिम युग कहा जा सकता है क्योंकि विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर लघुकथाओं का प्रकाशन एवं सोशल साइट्स पर रचनाकारों की सक्रियता देखकर लघुकथा की लोकप्रियता का अहसास होता है। उपन्यास और कहानियां नेपथ्य में जा रही हैं और लघुकथा प्रबलता और प्रभावशीलता के साथ सम्मुख आ रही है। लघुकथा में तीव्र गति से समाज में आए बदलाव को रेखांकित और प्रतिबिंबित करने की अद्भुत क्षमता है।
डॉ. श्याम सुंदर दीप्ति

डॉ श्याम सुंदर दीप्ति का सद्य:प्रकाशित लघुकथा संग्रह 'गुलाबी फूलों वाले कप' उनकी तीसरी लघुकथा की एकल कृति है। इससे पूर्व 'गैर हाजिर रिश्ता' उनकी चर्चित एवं प्रशंसित लघुकथा की पुस्तक है जिसे मैंने भी पढ़ा और सराहा है। मेडिकल प्रोफेशन व मनोविज्ञान की मास्टर डिग्री होने के कारण डॉ. साहब ने अनेक ज्ञान की पुस्तकें भी लिखी हैं। जहां तक लघुकथा का संबंध है डॉ दीप्ति देशभर में अग्रणीय व समर्पित हस्ताक्षर हैं। उन्होंने पंजाबी में लघुकथा को 'मिनी कहानी' के रूप में स्थापित कर 'मिन्नी त्रैमासिक' लघुकथा पत्रिका व 'जुगनूआं दे अंग-संग' के माध्यम से इसके विकास और संवर्द्धन में निरंतर अपना महती योगदान दिया है। उन्होंने रचनात्मक अवदान के साथ- साथ संपादन भी किया व अनेक कार्यशालाओं का आयोजन करके लघुकथा को समृद्ध किया है।
भूमंडलीकरण, आर्थिक भागदौड़ में मनुष्य अपनी आत्मा की आवाज सुनना भूल गया है। जीवन के शाश्वत मूल्यों को विस्मृत कर अर्थ उपार्जन में कौशल बढ़ाने में लगा है। वर्तमान परिवेश को डॉ. दीप्ति ने अपनी विभिन्न लघुकथाओं में व्यक्त किया है।

वृद्धावस्था में अकेलेपन से जूझते व उनकी लाचारी को 'दीवारें'और 'अधर में लटके' लघुकथाओं में देखा जा सकता है। संग्रह की प्रथम लघुकथा 'अधर में लटके' एक वृद्ध की कथा है जो परिस्थितियों के आगे समर्पण करने में ही अपनी भलाई समझता है। वह बेटे की स्थिति के साथ-साथ स्वयं की युवावस्था को व अपने त्याग का भी स्मरण करता है, जब उसने आगे पढ़ने की अपनी इच्छा को मार कर पिता के कहे अनुसार क्लर्क की नौकरी ज्वाइन कर ली थी। वह कहता है, " अपनी दो सांसों के बारे में क्या फिक्र करना । ठीक ही तो है मेरे बारे में सोचेंगे तो आप अधर में लटक जाएंगे।"
इन बुजुर्गों की आदत है बोलते रहने की, ऐसे रहने की, ऐसे करने की, जैसे वाक्य प्रत्येक घर में सुनने को मिल जाते हैं। जस्सी बेटे के दोस्त कश्मीरा को बुजुर्ग इस वाक्यांश से अपनी स्थिति स्पष्ट कर देता है लघुकथा 'दीवारें' में।
"हां बेटा! घर में पंखे-पुंखे सब हैं। पर कुदरत का कोई मुकाबला नहीं। एक बात और बेटा, आता- जाता व्यक्ति रुक जाता है। दो बातें सुन जाता है, दो सुना जाता है। अंदर तो बेटा दीवारों को ही झांकते रहते हैं।"
वंचित वर्ग चाहे वह किसान हो, मजदूर हो या फिर निम्न जाति का, डॉक्टर दीप्ति जी के लघुकथाओं के सदैव सरोकार रहे हैं। आज भी ग्रामीण परिवेश में जात-पात का भेदभाव देखा जा सकता है । लघुकथा 'हिम्मत' में बीरे को अपने सहपाठियों से मजबी जात का होने के कारण क्या कुछ नहीं सुनना पड़ता। ऐसे में हतोत्साहित बीरे को शिंदे कहता है कि मेरा बापू बस एक ही बात बोलता है- देख इसीलिए तो पढ़ाई करनी है कि जलालत के माहौल से बाहर निकल सकें। यही एक रास्ता है।" वास्तव में शिक्षा ही किसी भी क्रांति का मूल मंत्र है।
डॉ.शील कौशिक

यह विडंबना ही कहीं जाएगी कि कन्या जन्म को लेकर पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही स्त्रियों की सोच आज भी हटने का नाम ही नहीं ले रही है। 'उदासी का सफर' लघुकथा में राघवी के दूसरी संतान बेटी होने पर उसकी सास की मुस्कुराहट गायब हो जाती है। वह उसे सहर्ष ही रागिनी की बहन रिंपी जो कि नि:संतान है को देने के लिए तैयार हो जाती है। उधर राघवी नवजात कन्या को जब दादी की गोद में डालती है तो वह गुस्से में बोली, " अगर बच्चा गोद ही लेना था तो लड़की ही क्यों ?"
'कविता का चेहरा' व 'कहानी नहीं बनी' लघुकथाओं में डॉ दीप्ति द्वारा नया प्रयोग देखने को मिलता है। इस तरह के प्रयोग लघुकथा के विकास में संजीवनी का कार्य करते हैं। वर्षा ऋतु के मौसम का घूंट-घूंट रसपान करते हुए कवि के मन में कविता लिखने का वातावरण बनने, कविता के रूपवान होने, कविता पर निखार आने लगता है कि तभी सीवर के गंदे पानी के भभके के साथ-साथ प्रेमा की प्रताड़ना का अमानवीय दृश्य देखकर कविता रूठ कर वापस लौट जाती है। लघुकथा एक गहरा संदेश पीछे छोड़ जाती है कि मानवीय सरोकारों के बिना कुछ भी लिखना व्यर्थ है। लघुकथा में दृश्यात्मकता इस लघुकथा को ऊंचाई प्रदान करती है।
किसी को रोजी-रोटी कमाने के योग्य बनाना सबसे बड़ा पुण्य है। फटे पुराने कपड़ों व बेकार की कतरनों से बच्चों द्वारा वाल हैंगिंग, पायदान, कुशन आदि बनवा कर उनका भविष्य संवारने वाले रामकुमार के प्रति अनुभवी बच्चा आत्मविश्वास के साथ अपनी कृतज्ञता निरीक्षण करने वाले सीनियर सिटीजन के समक्ष इस प्रकार प्रकट करता है, " हम कतरनें ही तो थे, इन सर ने हमें सलीके से सिर ऊंचा करके चलना सिखाया और अपने पर गर्व करने योग्य बनाया है।"
वर्तमान समय की त्रासदी ही कही जाएगी की सभ्य कहे जाने वाले लोग एकाकीपन से इस कदर त्रस्त हैं कि रॉन्ग नंबर लग जाने पर दोनों तरफ से सुकून की अनुभूति होती है लघुकथा 'करवट' में । प्रत्युत्तर में वरिष्ठ नागरिक कहता है, 'चलो! चाहे रॉन्ग नंबर था... हां, अगर मन उदास हो तो किसी हमदर्द का समझ कर मिला सकते हो।" लघुकथा में लेखक की दूरदृष्टि व सजगता परिलक्षित होती है।
एक नितांत अछूते विषय पर लघुकथा है 'खोखा'। सभ्याचार और दिखावे की दुनिया से दूर खोखे पर मनोहर को जो आत्मीयता मिलती है, वह अपने बेटे के घर से भी न मिली। अंत में वह निर्णय कर संतुष्टि से सोया - 'जैसे उसे बाकी जिंदगी की खुशी के पल गुजारने का ठिकाना मिल गया हो।'
बाल मनोविज्ञान पर आधारित डॉ श्याम सुंदर दीप्ति का एक पूरा लघुकथा-संग्रह 'बालमन की लघुकथाएं' आ चुका है। प्रस्तुत संग्रह की 'बैड गर्ल' व' 'गुब्बारा' इनकी बाल मनोविज्ञान पर बहुत अच्छी लघुकथाएं हैं। बालमन कितना सरल और सहज होता है। 'गुब्बारा' में बेटी द्वारा रोज-रोज गुब्बारा मांगने पर पिता समझाते हैं कि गुब्बारा अच्छा नहीं होता, एक मिनट में ही फट जाता है। परंतु जैसे ही उसने गुब्बारे वाले की आवाज सुनी तो स्वयं के कदमों पर ब्रेक लगा कर पिता को देख कर बोली, "गुब्बारा अच्छा नहीं होता ना। भाई रोज ही आ जाता है। मैं उसे कह आऊं कि वह चला जाए।" परंतु मम्मी के पास रसोई में जाकर कहने लगी, " मम्मी जी, मुझे गुब्बारा ले दो ना।"
पुस्तक शीर्ष लघुकथा 'गुलाबी फूलों वाले कप' विवेचन योग्य एक प्यारी सी प्रौढ़ वय की यथार्थ के धरातल पर बुनी प्रेम कथा है। बढ़ती उम्र के साथ प्रेम और भी गहरा और प्रोढ़ हो जाता है। इसी तरह की एक और लघुकथा है 'दिनचर्या'। इसमें पति-पत्नी परस्पर छोटी से छोटी बात को बिना कहे समझ कर, छोटी-छोटी तकलीफों को छिटक कर, हंसकर जीवन बिताने में प्रयासरत हैं। संदेशपरक व वापस दिनचर्या में लौटने की सहज बिंबधर्मी लघुकथा है यह। लघुकथा में अनुभूति की तीव्रता देखते ही बनती है।
परिपक्व सोच दर्शाती एक बेहतरीन लघुकथा है 'नाइटी'। लघुकथा में मां प्रभा के मन की बात जानकर बेटी संकोच में पड़ी अपनी मां को अपनी पसंद को अपनाने का ग्रीन सिगनल नाइटी गिफ्ट करके देती है और अपनी मां को द्वंद से बाहर निकाल देती है। हमें पुरातन लीक से हटकर समय की चाल को समझ कर प्रगतिशील व आधुनिक विचारों को मानने से गुरेज नहीं करना चाहिए।
आर्थिक भागदौड़ में लगे अभिभावकों को सचेत करती लघुकथा है 'मिलन', जिसमें एकाकीपन और उपेक्षा के चलते बेटा नशे की गिरफ्त में आ जाता है। सामाजिक सरोकार की यह लघुकथा समाज को चिंतन बीज थमाती है।
'रिश्ता' डॉ. श्यामसुंदर दीप्ति की एक और बेहतरीन लघुकथा है, जिसमें निहाल सिंह ड्राइवर को अपने गांव के पास बस रोक देने के लिए जात का सहारा लेता है, फिर वीर बनके रोकने के लिए कहता है और अंत में जब वह कहता है कि आदमी ही आदमी के काम आता है, तब ड्राइवर बस रोक देता है। कंडक्टर के चिल्लाने पर ड्राइवर कहता है, " कोई नहीं, कोई नहीं, एक नया रिश्ता निकल आया था।" वास्तव में इंसानियत का रिश्ता ही सबसे अहम रिश्ता होता है।
'सफेद कमीज' लघुकथा में लघुकथाकार ने यह कहकर कि दाग रहित सफेद कमीज अफसर व नेता की पहचान होती है, सहज ही व्यंग्य का तीर चला दिया है।
डॉ श्याम सुंदर दीप्ति ने यथार्थ को गहरे में अनुभूत कर इस प्रकार लगभग सभी प्रचलित व विस्मृत विषयों पर अपनी कलम चलाई है। 'ताजा हवा' (किन्नरों पर), 'सहेली'( प्रकृति) वृद्धावस्था पर ' दीवारें' व 'अधर में लटके' आदि। सभी लघुकथाएं संवेदना की कसौटी पर खरी उतरती व मन को झिंझोड़ कर विचलन पैदा करने वाली हैं।
उन्होंने अपनी लघुकथाओं में संवादात्मक शैली के अतिरिक्त अन्य शैलियों का भी प्रयोग किया है जैसे आत्मकथात्मक शैली में 'प्रशंसा' डायरी शैली में 'खुशगवार मौसम'। कुछ लघुकथाओं में कथानक में समूचे परिवेश को लाने की जद में अनावश्यक विस्तार भी मालूम देता है जैसे 'धन्यवाद' लघुकथा में।
निष्कर्षत: डॉ. श्याम सुंदर दीप्ति की लघुकथाओं में एक भिन्न शिल्प विन्यास देखने को मिलता है। इनकी लघुकथाएं वर्तमान समय का प्रतिनिधित्व करती हैं। ये वैश्वीकरण युग की बदली हुई मानसिकता को यथार्थ के साथ अवगत करा कर सामाजिक ,आर्थिक व राजनीतिक विसंगतियों पर चोट करती हैं। अधिकतर लघुकथाओं में परिवेश व पंजाबी भाषा का समुचित प्रभाव है जो स्वाभाविकता का आग्रह है। डॉ श्याम सुंदर दीप्ति लघुकथा के रचना विधान व बारीकियों से न केवल भली-भांति परिचित हैं बल्कि नवागतों के लिए नई पगडंडी बनाते मालूम पड़ते हैं। अधिकतर लघुकथाओं के शीर्षक लघुकथा का ही हिस्सा मालूम पड़ते हैं और लघुकथा की अर्थवत्ता को बढ़ाते हैं। अंत में मैं उन्हें विविधता भरे 'गुलाबी फूलों वाले कप' लघुकथा-संग्रह के अस्तित्व में आने पर साधुवाद कहती हूं । मेरा ध्रुव विश्वास है यह संग्रह लघुकथा जगत में अवश्य चर्चित होगा।
शुभाकांक्षी
डॉ.शील कौशिक

लघुकथा वीडियो: अपरिपक्व | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी




लघुकथा: अपरिपक्व 


जिस छड़ी के सहारे चलकर वह चश्मा ढूँढने अपने बेटे के कमरे में आये थे, उसे पकड़ने तक की शक्ति उनमें नहीं बची थी। पलंग पर तकिये के नीचे रखी ज़हर की डिबिया को देखते ही वह अशक्त हो गये। कुछ क्षण उस डिबिया को हाथ में लिये यूं ही खड़े रहने के बाद उन्होंने अपनी सारी शक्ति एकत्रित की और चिल्लाकर अपने बेटे को आवाज़ दी,

"प्रबल...! यह क्या है..?"

बेटा लगभग दौड़ता हुआ अंदर पहुंचा, और अपने पिता के हाथ में उस डिबिया को देखकर किंकर्तव्यविमूढ होकर खड़ा हो गया। उन्होंने अपना प्रश्न दोहराया, "यह क्या है..?"

 "जी... यह... रौनक के लिये..." बेटे ने आँखें झुकाकर लड़खड़ाते स्वर में कहा।

 सुनते ही वह आश्चर्यचकित रह गये, लेकिन दृढ होकर पूछा, "क्या! मेरे पोते के लिये तूने यह सोच भी कैसे लिया?"

"पापा, पन्द्रह साल का होने वाला है वह, और मानसिक स्तर पांच साल का ही... कोई इलाज नहीं... उसे अर्थहीन जीवन से मुक्ति मिल जायेगी..." बेटे के स्वर में दर्द छलक रहा था।

उनकी आँखें लाल होने लगी, जैसे-तैसे उन्होंने अपने आँसू रोके, और कहा, "बूढ़े आदमी का मानसिक स्तर भी बच्चों जैसा हो जाता है, तो फिर इसमें से थोड़ा सा मैं भी...."

उन्होंने हाथ में पकड़ी ज़हर की डिबिया खोली ही थी कि उनके बेटे ने हल्का सा चीखते हुए कहा, "पापा...! बस।", और डिबिया छीन कर फैंक दी। वो लगभग गिरते हुए पलंग पर बैठ गये।

उन्होंने देखा कि ज़मीन पर बिखरा हुआ ज़हर बिलकुल पन्द्रह साल पहले की उस नीम-हकीम की दवाई की तरह था, जिससे केवल बेटे ही पैदा होते थे।

और उन्हें उस ज़हर में डूबता हुआ उनकी पुत्रवधु का शव और अपनी गोद में खेलता पोते का अर्धविकसित मस्तिष्क भी दिखाई देने लगा।

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चित्रः साभार गूगल

शनिवार, 2 मई 2020

लघुकथा वीडियो: खलील जिब्रान की तीन लघुकथाएं | वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी




6 जनवरी, 1883 को जन्मे खलील जिब्रान अंग्रेजी और अरबी के लेबनानी-अमेरिकी कलाकार, कवि तथा न्यूयॉर्क पेन लीग के लेखक थे। उन्हें अपने चिंतन के कारण समकालीन पादरियों और अधिकारी वर्ग का कोपभाजन होना पड़ा और जाति से बहिष्कृत करके देश निकाला तक दे दिया गया था।

satyagargah.scroll.in के एक वेबपेज उनके बारे में कुछ यों लिखा है कि:

खलील जिब्रान को पढ़ना कुछ ऐसा है जैसे अपनी ही आत्मा से दो चार होना. आप अपनी हर उलझन का हल उनकी सूक्तियों में ढूंढ़ सकते हैं. इस लिहाज से खलील जिब्रान को पढ़ना किसी अच्छे डॉक्टर से मिलने जैसा भी है. खलील का लेखन जीवन को समझने की एक मुकम्मल कुंजी है. उसे पढ़ पाने की एक ज्ञात लिपि.

 खलील इसीलिए हर देश और हर भाषा के इतने अपने हुए. हर इंसान को उनकी बात अपनी बात लगी. चाहे वह उनकी लघुकथाएं हों या सूक्तियां, प्रेम और दोस्ती सहित जिंदगी के तमाम अनुभवों की वे कम से कम शब्दों में कुछ इस तरह व्याख्या करते हैं कि वह बहुत सहजता से सबके दिलों में उतर जाए. प्रेम और दोस्ती पर तो उन्होंने इतना कुछ और कुछ इस तरह लिखा कि उसे जितना भी पढो वह कम ही जान पड़ता है. यह लिखना हर बार एक नई व्याख्या, सन्दर्भ और दर्शन के साथ हुआ. ‘प्यार के बिना जीवन उस वृक्ष की तरह है, जिस पर फल नहीं लगते’ या फिर ‘आपका दोस्त आपकी जरूरतों का जवाब है.’ जैसी उनकी न जाने कितनी पंक्तियां हैं जो कई पीढ़ियों के लिए बोध वाक्य बन गईं.

 10 जनवरी, 1931 को जिब्रान इस दुनिया से विदा हुए, वे इस दुनिया को अपनी लेखनी से इतना कुछ दे गये कि आनी वाली सह्स्त्राब्दियां भी याद रखेंगी।

 जिब्रान की तीन लघुकथाएं:

1)
मेजबान

'कभी हमारे घर को भी पवित्र करो।'
करूणा से भीगे स्वर में भेड़िये ने भोली-भाली भेड़ से कहा

 'मैं जरूर आती बशर्ते तुम्हारे घर का मतलब तुम्हारा पेट न होता।'
भेड़ ने नम्रतापूर्वक जवाब दिया।
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2)
वेश

 एक दिन समुद्र के किनारे सौन्दर्य की देवी की भेंट कुरूपता की देवी से हुई। एक ने दूसरी से कहा, ‘‘आओ, समुद्र में स्नान करें।’’

फिर उन्होंने अपने-अपने वस्त्र उतार लिए और समुद्र में तैरने लगीं।

कुछ समय बाद कुरूपता की देवी समुद्र से बाहर निकली, तो वह चुपके-से सौन्दर्य की देवी के वस्त्र पहनकर खिसक गई।

और जब सौन्दर्य की देवी समुद्र से बाहर निकली, तो उसने देखा कि उसके वस्त्र वहां न थे। नग्न रहना उसे पसन्द न था। अब उसके लिए कुरूपता की देवी के वस्त्र पहनने के सिवा और कोई चारा न था। लाचार हो उसने वही वस्त्र पहन लिये और अपना रास्ता लिया।

आज तक सभी स्त्री-पुरुष उन्हें पहचानने में धोखा खा जाते हैं।

किन्तु कुछ व्यक्ति ऐसे अवश्य हैं, जिन्होंने सौन्दर्य की देवी को देखा हुआ है और उसके वस्त्र बदले होने पर भी उसे पहचान लेते हैं। और यह भी विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि कुछ व्यक्ति ऐसे भी जरूर होंगे जिन्होंने कुरूपता की देवी को भी देखा होगा और उसके वस्त्र उसे उनकी दृष्टियों से छिपा न सकते होंगे।

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 3)
धोखा

 पहाड़ की चोटी पर अच्छाई और बुराई की भेंट हुई। अच्छाई ने कहा, ‘‘आज का दिन तुम्हारे लिए शुभ हो।’’

बुराई ने कोई उत्तर नहीं दिया।

अच्छाई ने फिर कहा, ‘‘क्या बात है, बहुत उखड़ी–उखड़ी लगती हो!’’

बुराई बोली, ‘‘ठीक समझा तुमने, पिछले कई दिनों से लोग मुझे तुम पर भूलते हैं, तुम्हारे नाम से पुकारते हैं और इस तरह का व्यवहार करते हैं जैसे मैं ‘मैं’नहीं ‘तुम’ हूँ। मुझे बुरा लगता है।’’

अच्छाई ने कहा, ‘‘मुझमें भी लोगों को तुम्हारा धोखा हुआ है। वे मुझे तुम्हारे नाम से पुकारने लगते हैं।’’

यह सुनकर बुराई लोगों की मूर्खता को कोसती हुई वहाँ से चली गई।

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 चित्रः साभार गूगल



शुक्रवार, 1 मई 2020

लघुकथा वीडियो: मुआवज़ा | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी





लघुकथा: मुआवज़ा 

शाम ढले वह दलित महिला अपने पांच साल के बेटे को लेकर गाँव के ठाकुर के घर के दरवाज़े के बाहर खड़ी थी। चेहरे ही से लग रहा था कि वह बहुत क्षुब्ध है। नौकर के बुलाने पर ठाकुर बाहर आया और उसे घूर कर देखा।

 उस महिला ने तीक्ष्ण स्वर में कहा, "साब, मेरे इत्ते से बेटे को चोर कह कर माँ-बाप की गाली क्यों दी?"

 "तो चोर को चोर नहीं कहूं, यह कुत्ते का पि... मेरे बाग़ के अमरुद चोरी कर रहा था... " ठाकुर की आवाज़ से साफ़ प्रतीत हो रहा था कि वह नशे में था।

 "इत्ता सा बच्चा कुछ समझता है क्या?" महिला भी चुप रहने के मानस में नहीं थी।

 "तुम जैसे छोटी जात के लोग हमारे घर की दहलीज़ के अंदर भी नहीं आ सकते हैं, और इसकी यह मजाल कि हमारे बाग़ में घुस गया..." ठाकुर की आँखें तमतमा उठी।

 महिला ने भी ठाकुर को तीक्ष्ण नज़रों से देखा, और शब्द चबाते हुए, स्वयं की तरफ इशारा करते हुए कहा,

"जब जबरदस्ती इसकी इज्जत की दहलीज लांघी थी...तब?"

 ठाकुर चौंका, लेकिन उसने संयत होकर कहा, "उस बात का हमने तुझे मुआवज़ा अदा कर दिया है।"

 "यह भी तो उसी मुआवजे में ही मिला है..." महिला ने बच्चे की तरफ इशारा करते हुए भर्राये स्वर में कहा।

और ठाकुर की नज़रें उस बच्चे को ऊपर से नीचे तक तौलने लगीं।

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चित्रः साभार गूगल

बुधवार, 29 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: खरीदी हुई तलाश | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


लघुकथा: खरीदी हुई तलाश | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

उस रेड लाइट एरिया में रात का अंधेरा गहराने के साथ ही चहल-पहल बढती जा रही थी। जिन्हें अपने शौक पूरे करने के लिये रौशनी से बेहतर अंधेरे लगते हैं, वे सभी निर्भय होकर वहां आ रहे थे।

वहीँ एक मकान के बाहर एक अधेड़ उम्र की महिला पान चबाती हुई खोजी निगाहों से इधर-उधर देख रही थी कि सामने से आ रहे एक आदमी को देखकर वह चौंकी और उसके पास जाकर पूछा,

"क्या हुआ साब, आज यहाँ का रास्ता कैसे भूल गए? तीन दिन पहले ही तो तुम्हारा हक़ पहुंचा दिया था।"

सादे कपड़ों में घूम रहे उस पुलिस हवलदार को वह महिला अच्छी तरह पहचानती थी।

“कुछ काम है तुमसे।” पुलिसकर्मी ने थकी आवाज़ में कहा।

“परेशान दिखाई दे रहे हो साब, लेकिन तुम्हें देखकर हमारे ग्राहक भी परेशान हो जायेंगे, कहीं अलग चलकर बात करते है।”

वह उसे अपने मकान के पास ले गयी और दरवाज़ा आधा बंद कर इस तरह खड़ी हो गयी कि पुलिसकर्मी का चेहरा बंद दरवाजे की तरफ रहे।

पुलिसकर्मी ने फुसफुसाते हुए पूछा,
"आज-कल में कोई नयी लड़की... लाई गयी है क्या?"

"क्यों साब? कोई अपनी है या फिर..." उस महिला ने आँख मारते हुए कहा।

"चुप... तमीज़ से बात कर... मेरी बीवी की बहन है, दो दिनों से लापता है।" पुलिसकर्मी का लहजा थोड़ा सख्त था।

उस महिला ने अपनी काजल लगीं आँखें तरेर कर पुलिसकर्मी की तरफ देखा और व्यंग्य से मुस्कुराते हुए कहा,

"तुम्हारे जैसों के लालच की वजह से कितने ही भाई यहाँ आकर खाली हाथ लौट गए, उनकी बहनें किसी की बीवी नहीं बन पायीं और तुम यहीं आकर अपनी बीवी की बहन को खोज रहे हो!"

और वह सड़क पर पान की पीक थूक कर अपने मकान के अंदर चली गयी।

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चित्रः साभार गूगल

मंगलवार, 28 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: धर्म-प्रदूषण | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी



लघुकथा: धर्म-प्रदूषण |  लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

उस विशेष विद्यालय के आखिरी घंटे में शिक्षक ने अपनी सफेद दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए, गिने-चुने विद्यार्थियों से कहा, "काफिरों को खत्म करना ही हमारा मक़सद है, इसके लिये अपनी ज़िन्दगी तक कुर्बान कर देनी पड़े तो पड़े, और कोई भी आदमी या औरत, चाहे वह हमारी ही कौम के ही क्यों न हों, अगर काफिरों का साथ दे रहे हैं तो उन्हें भी खत्म कर देना। ज़्यादा सोचना मत, वरना जन्नत के दरवाज़े तुम्हारे लिये बंद हो सकते हैं, यही हमारे मज़हब की किताबों में लिखा है।"

"लेकिन हमारी किताबों में तो क़ुरबानी पर ज़ोर दिया है, दूसरों का खून बहाने के लिये कहाँ लिखा है?" एक विद्यार्थी ने उत्सुक होकर पूछा।

"लिखा है... बहुत जगहों पर, सात सौ से ज़्यादा बार हर किताब पढ़ चुका हूँ, हर एक हर्फ़ को देख पाता हूँ।"

"लेकिन यह सब तो काफिरों की किताबों में भी है, खून बहाने का काम वक्त आने पर अपने खानदान और कौम की सलामती के लिए करना चाहिए। चाहे हमारी हो या उनकी, सब किताबें एक ही बात तो कहती हैं..."

"यह सब तूने कहाँ पढ़ लिया?"

वह विद्यार्थी सिर झुकाये चुपचाप खड़ा रहा, उसके चेहरे पर असंतुष्टि के भाव स्पष्ट थे।

"चल छोड़ सब बातें..." अब उस शिक्षक की आवाज़ में नरमी आ गयी, "तू एक काम कर, अपनी कौम को आगे बढ़ा, घर बसा और सुन, शादीयां काफिरों की बेटियों से ही करना..."

"लेकिन वो तो काफिर हैं, उनकी बेटियों से हम पाक लोग शादी कैसे कर सकते हैं?"

शिक्षक उसके इस सवाल पर चुप रहा, उसके दिमाग़ में यह विचार आ रहा था कि “है तो नहीं लेकिन फिर भी कल मज़हबी किताबों में यह लिखा हुआ बताना है कि, ‘उनके लिखे पर सवाल उठाने वाला नामर्द करार दे दिया जायेगा’।”

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चित्रः साभार गूगल

सोमवार, 27 अप्रैल 2020

लघुकथा समाचार: क्षितिज की ऑनलाइन सार्थक लघुकथा ऑडियो गोष्ठी

लॉकडाऊन में रचनाधर्मिता को नवीन आयामलघुकथा प्रवासी और टेक दुनिया के अंतरंग का हिस्सा- श्री बीएल आच्छा

तकनीक के इस युग में कुछ भी असम्भव नहीं है। कोरोना वायरस के कारण लाकडाउन के मध्य  क्षितिज साहित्य मंच, इंदौर द्वारा शनिवार 25 अप्रैल 2020 सांय 4:00 बजे एक ऑनलाइन ऑडियो सार्थक लघुकथा गोष्ठी का आयोजन किया गया । क्षितिज साहित्य मंच द्वारा आयोजित ऑनलाइन सार्थक लघुकथा ऑडियो गोष्ठी सचमुच प्रशंसनीय थी। बलराम अग्रवाल अध्यक्ष और विशेष अतिथि बी.एल.आच्छा थे। संचालन किया वरिष्ठ लघुकथाकार अंतरा करवड़े और वसुधा गाडगिल ने। 

कोरोना वायरस के कारण किए गए लॉकडाऊन को देखते हुए क्षितिज साहित्य मंच, इंदौर द्वारा दिनांक 25 अप्रैल 2020 शनिवार शाम 4:00 बजे एक ऑनलाइन ऑडियो सार्थक लघुकथा गोष्ठी का क्षितिज साहित्य मंच के पटल पर आयोजन किया गया। इस गोष्ठी की अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार, लघुकथाकार, कथाकार, आलोचक श्री बलराम अग्रवाल (दिल्ली) ने की और इस समारोह के प्रमुख अतिथि थे मूर्धन्य साहित्यकार, समीक्षक, आलोचक श्री बी. एल. आच्छा (चैन्नई)। गोष्ठी के आरम्भ में क्षितिज संस्था के अध्यक्ष वरिष्ठ साहित्यकार, लघुकथाकार, समीक्षक श्री सतीश राठी द्वारा स्वागत भाषण दिया गया और अतिथियों का स्वागत करते हुए श्री राठी ने कहा कि आज हमारे लिए बड़ी ख़ुशी कि बात है कि इस ऑनलाइन कार्यक्रम में आदरणीय श्री बलराम अग्रवाल (दिल्ली) और श्री बी. एल. आच्छा (चैन्नई) के साथ देश के वरिष्ठ साहित्यकार और लघुकथाकार आदरणीय सर्वश्री अशोक भाटिया (चंडीगढ़), सुभाष नीरव (दिल्ली), भागीरथ (रावतभाटा), माधव नागदा (नाथद्वारा), रामकुमार घोटड़ (चूरू, राजस्थान), अशोक जैन, मुकेश शर्मा, (गुरुग्राम), ओम मिश्रा (बीकानेर), योगराज प्रभाकर, जगदीश कुलारिया (पंजाब), हीरालाल मिश्रा (कोलकाता) लता चौहान चौहान (बेंगलुरु) पवन शर्मा (छत्तीसगढ़), पवन जैन (जबलपुर), संध्या तिवारी (पीलीभीत), अरूण धूत, संतोष श्रीवास्तव, अशोक गुजराती (भोपाल), मनीष वैद्य (देवास), राजेंद्र काटदारे (मुम्बई), अंजना अनिल (अलवर), देवेन्द्र सोनी (इटारसी), पवित्रा अग्रवाल (हैदराबाद), गोविन्द गुंजन (खंडवा), कुलदीप दासोत (जयपुर), धर्मपाल महेंद्र जैन (टोरंटो), सत्यनारायण व्यास सूत्रधार, व्यंग्यकार कांतिलाल ठाकरे, राकेश शर्मा संपादक वीणा, अश्विनी कुमार दुबे, पुरुषोत्तम दुबे, ब्रजेश कानूनगो, चंद्रा सायता, वन्दना पुणताम्बेकर, पदमा राजेंद्र, संगीता भारूका, रजनी रमण शर्मा, जगदीश जोशी, सुषमा व्यास, राजनारायण बोहरे, अर्जुन गौड़, नंदकिशोर बर्वे, सुभाष शर्मा, उमेश नीमा, ललित समतानी, सीमा व्यास, चेतना भाटी, मंजुला भूतड़ा, निधि जैन, राममूरत राही, (इंदौर), नई दुनिया के हमारे साथी श्री अनिल त्रिवेदी, दैनिक भास्कर के हमारे साथी श्री रविंद्र व्यास, पत्रिका से रूख़साना जी, बैंक के साथी गोपाल शास्त्री, गोपाल कृष्ण निगम (उज्जैन) भी उपस्थित हैं, मैं इन सभी का स्वागत करता हूँ और ह्रदय से अभिनन्दन करता हूँ।

इसके पश्चात लघुकथा विधा को लेकर वर्ष 1983 से क्षितिज संस्था द्वारा किए गए कार्यों की जानकारी एवं क्षितिज के विभिन्न प्रकाशनों की जानकारी श्री सतीश राठी द्वारा दी गई। इस गोष्ठी में हमारे इंदौर शहर से बाहर के क्षितिज के सदस्य लघुकथाकारों सर्वश्री संतोष सुपेकर, दिलीप जैन, कोमल वाधवानी, आशा गंगा शिरढोनकर (उज्जैन), सीमा जैन (ग्वालियर), कांता राय (भोपाल ), अनघा जोगलेकर, विभा रश्मि (गुरुग्राम), अंजू निगम, सावित्री कुमार( देहरादून), कनक हरलालका (धुबरी, आसाम), हनुमान प्रसाद मिश्रा (अयोध्या) ने लघुकथाओं का पाठ किया गया, स्व पारस दासोत की लघुकथा का पाठ उनकी बहू द्वारा किया गया। इन रचनाओं पर श्री बलराम अग्रवाल ने अपने उद्बोधन में कहा दिलीप जैन की लघुकथा 'गिनती की रोटी' में पात्र का चरित्र उसके दादाजी से प्राप्त संस्कार के रूप में आकार ग्रहण करता है और एक विशेष प्रकार का मनोविकार बन जाता है। कुल मिलाकर यह लघुकथा पद प्रतिष्ठा और स्थिति के अनुरूप भारतीय स्त्री भारतीय स्त्री के संस्कार पूर्ण मनोविज्ञान को सफलतापूर्वक हमारे सामने प्रस्तुत करती है। अंजू निगम की लघुकथा 'मां' के केंद्र में सौतेली मां की प्रचलित छवि को बदलने का प्रयास नजर आता है। विषय नया न होकर भी अच्छा है, लेकिन इस लघुकथा का शिल्प अभी कमजोर है। इस सदी में लघुकथा लेखन में कुछ सधी हुई कलम भी आई हैं। उनमें सीमा जैन ऐसा नाम है जिनका जो व्यक्ति जीवन के संवेदनशील क्ष‌‌णों को पकड़ने और प्रस्तुत करने के प्रति बहुत सचेत रहती हैं। उनकी प्रस्तुति जाने पहचाने विषय को भी नयापन दे देती है। उनकी लघुकथा 'उड़ान' सकारात्मक सरोकारों से लबालब है।

कांता राय की लघुकथा 'मां की नजर'! इस पूरी लघुकथा में पात्रों के चरित्र के साथ न्याय होता मुझे नजर नहीं आता है! कोमल वाधवानी लघुकथा 'गुहार'! यह संस्मरणात्मक शैली में लिखी कथा है। कथा का अंत इस अर्थ में अति नाटकीय हो गया है कि दीवारें अपने गिरने का पूर्वाभास नहीं देती हैं। वे गिर ही जाती हैं, बूढ़ी काकी की तरह किसी को बचा लेने का अवसर भी वे नहीं देतीं। सावित्री कुमार की लघुकथा 'भ्रम का संबल' कथ्य की दृष्टि से एक सुंदर लघुकथा है। इसका आधार एक मनोवैज्ञानिक सत्य है। इस लघुकथा में, मुझे लगता है कि अनु का डॉक्टर के पास हर बार पहले जाना जरूरी नहीं है। आशा गंगा प्रमोद शिरढोणकर की लघुकथा 'उसके बाद'। बढी उम्र में जीवनसाथी से बिछोह के बाद त्रस्त जीवन की भावपूर्ण झांकी इस लघुकथा में बड़ी सहजता से सफलतापूर्वक प्रस्तुत की गई है। अनघा जोगलेकर की लघुकथा 'जुगनू'। उन्होंने किसान के जीवन में आशा की एक किरण को 'जुगनू' की संज्ञा दी है! लघुकथा के इस कथानक में कई बातें अस्पष्ट सी छूट गई हैं। 'वेरी गुड' संतोष सुपेकर की लघुकथा है। मेरा विश्वास है कि बालमन को समझना और बालक का मान रखना हंसी खेल नहीं है। विपरीत परिस्थिति में भी इस लघुकथा का मुख्य पात्र जिस तरह अपने बेटे का मान रखता है वह हमें दूर तक फैले खुशियों के उपवन में ले जाता है। विभा रश्मि की एंटीवायरस स्त्री मनोविज्ञान की बेहतरीन लघुकथा है! हनुमान प्रसाद मिश्र अपेक्षाकृत कम लिखने वाले वरिष्ठ लेखक हैं। क्षितिज के इस ऑनलाइन लघुकथा गोष्ठी कार्यक्रम में उनकी उपस्थिति उत्साह बढ़ाने वाली है। दृष्टांत शैली की यह रचना प्रभावित करती है। कनक हरलालका की 'इनसोर' लघु कथा में एक मजदूर की पीड़ा को उभारने की भरपूर कोशिश है। शिल्प की दृष्टि से इसे अभी और कसा जा सकता था फिर भी इस भाव संप्रेषण के कारण कि मजदूर की पहली जरूरत उसके आज की पूर्ति होना है, यह एक प्रभावशाली लघुकथा कही जा सकती है।

कुल मिलाकर देखा जाए तो वर्तमान लघु कथा लेखन नवीन विषयों को लेकर तो कुछ नवीन प्रस्तुतियों को लेकर साहित्य मार्ग पर अग्रसर है और उसकी यह अग्रसारिता संतुष्ट करती है।

श्री बी. एल. आच्छा ने ऑनलाइन सार्थक लघुकथा ऑडियो गोष्ठी पर अपनी प्रतिक्रया देते हुए कहा “हिंदी लघुकथा नई विधा है, पर अल्पकाल में इस विधा ने जितने संघर्षों को समेटा है, विमर्शों को अंतरंग बनाया है, मानव मन के अंतर्जाल को उकेरा है, उससे लगता है कि अन्य विधाओं की लंबी काल यात्रा लघुकथा में उतर आई है। यही नहीं लघुकथा ने आज की टेक दुनिया के साथ प्रवासी दुनिया तक विस्तार किया है। बड़ी बात यह इसका एक सिरा चूल्हे- चौके या मजदूर किसान जीवन से सिरजा है, उतना ही बुर्जुआ और बोल्ड संस्कृति से भी। प्रयोग के लिए न केवल अनेक नई पुरानी शैलियों को आजमाया है, बल्कि अन्य विधाओं से इसे संवादी नाट्यपरक और विजुअल बनाया है। आज की लघुकथा यद्यपि मोटे तौर पर मध्यमवर्गीय जीवन के घेरे में ज्यादा है, पर प्रवासी और टेक दुनिया भी उसका अंतरंग हिस्सा बनी है। आज की संगोष्ठी में इसकी झलक देखी जा सकती है।

अनघा जोगलेकर की लघुकथा किसानी व्यथाओं में पत्नी के जीवट में जुगनू की चमक दिखाती है, तो विभा रश्मि की 'एंटीवायरस 'आँखों के स्क्रीन में एंटीवायरस प्रोग्राम से हमउम्र के मनोविकारों को धोकर रख देती है। दिलीप जैन की लघुकथा 'गिनती की रोटी 'में पीढ़ियों की समझ का फेर भले ही हो पर ह्रदय कल्मश नहीं है। सावित्री कुमार की लघुकथा 'भ्रम का संबल' में नारी की उदात्त पारिवारिक भूमिका मन को छू लेती है। कोमल वाधवानी की 'गुहार' और आशा गंगा शिरढोणकर की 'उसके बाद 'लघुकथा में पारिवारिक रिश्तो में वृद्धावस्था की बेचैनियों के नुकीले सिरे चुभनदार बन जाते हैं ।अंजू निगम की 'मां' लघुकथा अपने उद्देश्य में बिखरती हुई भी समझ को विकसित करती है। सीमा जैन की 'उड़ान 'में जेंडर असमानता के बीच लड़की की उड़ान नारी चेतना के पंखों में गति ला देती है। संतोष सुपेकर दो मनोभूमियों के कंट्रास्ट को 'व्हेरी गुड 'में बखूबी मुखर कर देते हैं। हनुमानप्रसाद मिश्र दायित्व बोध लघुकथा में मानवेतर के माध्यम से सांस्कारिकता का संदेश देते हैं। कनक हरलालका की लघुकथा 'इनसोर 'में कारपोरेट बचत की बाजारवादी सोच में भूख की पीड़ा असरदार है। कांता राय की 'माँ की नजर में' लघुकथा पतित्व की स्वामी- सत्ता का घुलता हुआ अंदाज है। स्व.पारस दासोत की लघुकथा 'भारत 'में तमाम फटेहाली के बावजूद गरीब की जीत का जज्बा है। पठित रचनाओं में कथाभूमियाँ विविधता के क्षेत्रफल में बुनी हुई है। वे सामाजिक -पारिवारिक सरोकारों को जितनी वास्तविकताओं के साथ बुनती हैं,उतना ही बदलती दुनिया से भी।नरेटिव से संवादी बनती हैं और अंतर्वृत्तियों को सामने लाती हैं।

इस गोष्ठी की एक प्रमुख विशेषता रही है कि 1 घंटे के इस कार्यक्रम में देश के वरिष्ठ साहित्यकार और लघुकथाकार श्रोताओं के रूप में उपस्थित रहकर प्रथम ऑनलाइन लघुकथा संगोष्ठी के सहभागी और साक्षी बने। क्षितिज ऑनलाईन सार्थक लघुकथा ऑडियो गोष्ठी जो कि क्षितिज संस्था का एक महत्वपूर्ण आयोजन था, ऐतिहासिक रूप से सफल रही। क्षितिज संस्था ने इस अनूठे साहित्यिक समारोह द्वारा लघुकथा विधा में नये आयाम स्थापित किए। इस गोष्ठी का संचालन जानी मानी मंच संचालक अंतरा करवड़े और डॉ. वसुधा गाडगिल ने किया। कार्यक्रम के अंतिम चरण में ऑनलाइन उपस्थित सहभागियों ने अपनी-अपनी प्रतिक्रियाएं पोस्ट की और क्षितिज संस्था के सचिव श्री दीपक गिरकर द्वारा आभार व्यक्त किया गया।

नई दुनिया में इसका समाचारः




लघुकथा वीडियो: इंसान जिन्दा है | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


लघुकथा: इंसान जिन्दा है |  लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

वह अपनी आत्मा के साथ बाहर निकला था, आत्मा को इंसानों की दुनिया देखनी थी।

वे दोनों एक मंदिर में गये, वहां पुजारी ने पूछा, "तुम हिन्दू हो ना!" आत्मा हाथ जोड़ कर चल दी।

और एक मस्जिद में गये, वहां मौलवी ने पूछा, "तुम मुसलमान हो ना!" आत्मा ने मना कर दिया।

फिर एक गुरूद्वारे में गये, वहां पाठी ने पूछा, "तुम सिख तो नहीं लगते" आत्मा वहां से चल दी।

और एक चर्च में गये, वहां पादरी ने पूछा, "तुम इसाई हो क्या?" आत्मा चुपचाप रही।

 वे दोनों फिर घर की तरफ लौट गये। रास्ते में उसकी आत्मा ने कहा, "इंसान मर गया, सम्प्रदाय ज़िन्दा है।"

 उसने कहा, "नहीं! "इंसान जिंदा है। सभी जगह सम्प्रदाय नहीं होते।"

अपनी बात को साबित करने के लिए वह अपनी आत्मा को पहले एक हस्पताल में लेकर गया, जहाँ बहुत सारे 'रोगी' ठीक होने आये थे।

और फिर एक जेल में लेकर गया, जहाँ बहुत सारे 'कैदी' थे।

और मदिरालय लेकर गया, जहाँ सब के सब 'शराबी' थे।

और एक विद्यालय लेकर गया, जहाँ 'विद्यार्थी' पढने आये थे।

अब आत्मा ने कहा, "इंसान ज़िन्दा तो है, लेकिन कुछ और बनने के बाद।"

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चित्रः साभार गूगल

रविवार, 26 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: जानवरीयत | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


लघुकथा: जानवरीयत |  लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

वृद्धाश्रम के दरवाज़े से बाहर निकलते ही उसे किसी कमी का अहसास हुआ, उसने दोनों हाथों से अपने चेहरे को टटोला और फिर पीछे पलट कर खोजी आँखों से वृद्धाश्रम के अंदर पड़ताल करने लगा। उसकी यह दशा देख उसकी पत्नी ने माथे पर लकीरें डालते हुए पूछा, "क्या हुआ?"

उसने बुदबुदाते हुए उत्तर दिया, "अंदर कुछ भूल गया..."

 पत्नी ने उसे समझाते हुए कहा, "अब उन्हें भूल ही जाओ, उनकी देखभाल भी यहीं बेहतर होगी। हमने फीस देकर अपना फ़र्ज़ तो अदा कर ही दिया है, चलो..." कहते हुए उसकी पत्नी ने उसका हाथ पकड़ कर उसे कार की तरफ खींचा।

 उसने जबरन हाथ छुड़ाया और ठन्डे लेकिन द्रुत स्वर में बोला, "अरे! मोबाइल फोन अंदर भूल गया हूँ।"

 "ओह!" पत्नी के चेहरे के भाव बदल गए और उसने चिंतातुर होते हुए कहा, "जल्दी से लेकर आ जाओ, कहीं इधर-उधर हो गया तो? मैं घंटी करती हूँ, उससे जल्दी मिल जायेगा।"

वह दौड़ता हुआ अंदर चला गया। अंदर जाते ही वह चौंका, उसके पिता, जिन्हें आज ही वृद्धाश्रम में दाखिल करवाया था, बाहर बगीचे में उनके ही घर के पालतू कुत्ते के साथ खेल रहे थे। पिता ने उसे पल भर देखा और फिर कुत्ते की गर्दन को अपने हाथों से सहलाते हुए बोले, "बहुत प्यार करता है मुझे, कार के पीछे भागता हुआ आ गया... जानवर है ना!"

 डबडबाई आँखों से अपने पिता को भरपूर देखने का प्रयास करते हुए उसने थरथराते हुए स्वर में उत्तर दिया, “जी पापा, जिसे जिनसे प्यार होता है... वे उनके पास भागते हुए पहुँच ही जाते हैं...”

 और उसी समय उसकी पत्नी द्वारा की हुई घंटी के स्वर से मोबाइल फोन बज उठा। वो बात और थी कि आवाज़ उसकी पेंट की जेब से ही आ रही थी।

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चित्रः साभार गूगल

शनिवार, 25 अप्रैल 2020

सतीश राठी की लघुकथा राशन पर बनी शॉर्ट फिल्म


लघुकथा वीडियो: इतिहास गवाह है | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी



लघुकथा: इतिहास गवाह है |  लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

“योर ऑनर, सच्चाई यह है कि महाराणा ने युद्ध जीता था... इसलिए युद्धभूमि का नाम अब महाराणा के नाम पर ही होना चाहिए”, न्यायालय के एक खचाखच भरे कक्ष में पहले वकील ने पुरजोर शब्दों में दलील दी।

“माफ़ी चाहता हूँ योर ऑनर, लेकिन मेरे विद्वान मित्र सच नहीं कह रहे। युद्ध शहंशाह ने जीता था, इतिहास गवाह है...” दूसरे वकील ने अंतिम तीन शब्दों पर ज़ोर देते हुए कहा।

पहले वकील ने मुस्कुराते हुए प्रत्युत्तर दिया, “अगर मेरे दोस्त का कहना सच है कि इतिहास गवाह है... तो योर ऑनर उन्हें यह आदेश फरमाएं, कि बुला लें इतिहास को गवाही के लिए...”

सुनते ही कोर्ट रूम में बैठे ज़्यादातर लोग हँसने लगे, यहाँ तक कि जज भी मुस्कुराने से बच नहीं सके।

पीछे बैठा एक व्यक्ति शरारत से चिल्लाया, “इतिहास हाज़िर होsss”

लेकिन जब तक कोई चिल्लाने वाले व्यक्ति की शक्ल भी देख पाता, कटघरे के नीचे से धुएँ का एक गुबार उठा और कटघरा धुएँ से भर गया।

वहीँ से एक गंभीर स्वर गूंजा, “मैं वर्तमान और भविष्य की कसम खा कर कहता हूँ कि मैं कभी झूठ नहीं बोलता, मेरे नाम से लोग झूठ बोलते हैं।”

कोर्ट रूम में बैठे सभी व्यक्ति हतप्रभ रह गए, कटघरे में धुंए के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। जज हडबडाये स्वर में बोला, “कौन है वहां?”

स्वर गूंजा, “इतिहास...”

दोनों वकीलों के हलक सूख गए। पहले वकील ने किसी तरह खुदको सम्भाल कर अपनी आँखे धुएँ में गाड़ने का असफल प्रयास करते हुए पूछा, “युद्ध... महाराणा... ने ही...” बाकी शब्द उसके कंठ में ही अटक गए।

स्वर गूंजा, “नहीं...”

यह सुनकर दूसरे वकील की जान में जैसे प्राण आ गये, वह बोला, “मतलब… शहंशाह ने जीता...”

स्वर फिर गूंजा, “नहीं...”

“तो फिर?” जज ने पूछा, हालाँकि उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह प्रश्न कर किससे रहा है।

“युद्ध जीता था - नफरत ने।” स्वर तीक्ष्ण था।

जज ने अब उत्सुकतापूर्ण स्वर में अगला प्रश्न पूछा, “लेकिन हम कैसे मान लें कि तुम इतिहास हो?”

और अगले ही क्षण धुएँ का गुबार छंट गया। कटघरा खाली था...

कहीं से वही स्वर आया, “मुझे पहचान नहीं सकते तो कटघरे में खड़ा कैसे कर सकते हो?”

कोर्ट रूम में फिर खामोशी छा गयी।

ख़ामोशी उसी स्वर ने तोड़ी,

“उस ज़मीन का नाम मोहब्बत रख देना – आपको आपके भविष्य की कसम...”

और इस बार स्वर भर्राया हुआ था।

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चित्र: साभार गूगल


शुक्रवार, 24 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: मेरा घर छिद्रों में समा गया । लेखन व वाचन: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी



माँ भारती ने बड़ी मुश्किल से अंग्रेज किरायेदारों से अपना एक कमरे का मकान खाली करवाया था। अंग्रेजों ने घर के सारे माल-असबाब तोड़ डाले थे, गुंडागर्दी मचा कर खुद तो घर के सारे सामानों का उपभोग करते, लेकिन माँ भारती के बच्चों को सोने के लिए धरती पर चटाई भी नसीब नहीं होती। खैर, अब ऐसा प्रतीत हो रहा था कि सब ठीक हो जायेगा।

लेकिन…
पहले ही दिन उनका बड़ा बेटा भगवा वस्त्र पहन कर आया साथ में गीता, रामायण, वेद-पुराण शीर्षक की पुस्तकें तथा भगवान राम-कृष्ण की तस्वीरें लाया।

उसी दिन दूसरा बेटा पजामा-कुरता और टोपी पहन कर आया और पुस्तक कुरान, 786 का प्रतीक, मक्का-मदीना की तस्वीरें लाया।

तीसरा बेटा भी कुछ ही समय में पगड़ी बाँध कर आया और पुस्तकें गुरु ग्रन्थ साहिब, सुखमणि साहिब के साथ गुरु नानक, गुरु गोविन्द की तस्वीरें लाया।

और चौथा बेटा भी वक्त गंवाएं बिना लम्बे चोगे में आया साथ में पुस्तक बाइबल और प्रभु ईसा मसीह की तस्वीरें लाया।

चारों केवल खुदकी किताबों और तस्वीरों को घर के सबसे अच्छे स्थान पर रख कर अपने-अपने अनुसार घर बनाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने आपस में लड़ना भी शुरू कर दिया।
यह देख माँ भारती ने ममता के वशीभूत हो उस एक कमरे के मकान की चारों दीवारों में कुछ ऊंचाई पर एक-एक छेद करवा दिया। जहाँ उसके बेटों ने एक-दूसरे से पीठ कर अपने-अपने प्रार्थना स्थल टाँगे और उनमें अपने द्वारा लाई हुई तस्वीरें और किताबें रख दीं।


वो बात और है कि अब वे छेद काफी मोटे हो चुके हैं और उस घर में बदलते मौसम के अनुसार बाहर से कभी ठण्ड, कभी धूल-धुआं, कभी बारिश तो कभी गर्म हवा आनी शुरू हो चुकी है… और माँ भारती?... अब वह दरवाज़े पर टंगी नेमप्लेट में रहती है।
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चित्र: साभार गूगल

गुरुवार, 23 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: गरीब सोच | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी






अपेक्षानुसार परदादा की अलमारी से भी कुछ नहीं मिला तो अलादीन ने निराश होकर जोर से उसका दरवाज़ा बंद किया, अंदर से मिट्टी सना एक चिराग बाहर गिरा। चिराग बेच कर कुछ रुपयों की उम्मीद से वह उस पर लगी मिट्टी साफ़ करने लगा ही था कि उसमें से धुँआ निकला और देखते-ही-देखते धुँआ एक जिन्न में बदल गया। जिन्न ने मुस्कुराते हुए कहा, "मैं इस चिराग का जिन्न हूँ, मेरे आका, जो चाहे मांग लो।" अलादीन ने पूछा, "क्या तुम मेरी गरीबी हटा सकते हो?" “क्यों नहीं!” जिन्न के कहते ही अगले ही क्षण रूपये-हीरे-जवाहरात आ गए, अलादीन ने ख़ुशी से पूछा, “यह लाते कहाँ से हो?” “ये सब देश के एक बड़े उद्योगपति के हैं।” “क्या..? टैक्स चोरी, एक रूपये की चीज़ सौ रूपये में बेच कर कमाए हुए रूपये मैं नहीं लूँगा” अलादीन ने इनकार कर दिया। जिन्न उन्हें गायब कर रुपयों का एक बक्सा ले आया। अलादीन को पहले ही संदेह हो चुका था, उसने पूछा, “यह कहाँ से आया?” “एक नेता ने घर में छिपा रखा था।” “नहीं, यह काली कमाई भी मैं नहीं लूँगा।” जिन्न उसे हटा कर, एक संदूक भर रुपया ले आया, और बताया, “यह अनाज, सब्जी और फल बेचकर कमाया गया है, जो इसके मालिक ने किसानों से खरीदा था।” “और किसान भूखे मर रहे हैं..., यह मैं हरगिज़ नहीं लूँगा।” अब जिन्न बहुत सारे रूपये लाया और बताया, “ये रूपये एक साधू के हैं, जो हस्पताल और समाजसेवी संस्थायें चलाते हैं” “ये तो सबसे बड़े चोर हैं, समाजसेवा की आड़ में नकली दवाएं और गलत धंधे चलाते हैं, ये मैं नहीं ले सकता, मुझे केवल शराफत से कमाए रूपये चाहिए” जिन्न सोचते हुए कुछ क्षण खड़ा रहा, और अलादीन को एक पर्ची थमा कर गायब हो गया। अलादीन ने पर्ची खोली, उसमें लिखा था, “रूपये पेड़ों पर नहीं उगते हैं।” -0- चित्रः साभार गूगल

बुधवार, 22 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: तीन संकल्प । लेखन व वाचन: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी




वह दौड़ते हुए पहुँचता उससे पहले ही उसके परिवार के एक सदस्य के सामने उसकी वह ही तलवार आ गयी, जिसे हाथ में लेते ही उसने पहला संकल्प तोड़ा था कि 'वह कभी किसी की भी बुराई नहीं सुनेगा'। वह पीछे से चिल्लाया, "रुक जाओ तुम्हें तो दूसरे धर्मों के लोगों को मारना है।" लेकिन तलवार के कान कहाँ होते हैं, उसने उसके परिवार के उस सदस्य की गर्दन काट दी।

वह फिर दूसरी तरफ दौड़ा, वहाँ भी उससे पहले उसी की एक बन्दूक पहुँच गयी थी, जिसे हाथ में लेकर उसने दूसरा संकल्प तोड़ा था कि 'वह कभी भी बुराई की तरफ नहीं देखेगा'। बन्दूक के सामने आकर उसने कहा, "मेरी बात मानो, देखो मैं तुम्हारा मालिक हूँ..." लेकिन बन्दूक को कुछ कहाँ दिखाई देता है, और उसने उसके परिवार के दूसरे सदस्य के ऊपर गोलियां दाग दीं।

वह फिर तीसरी दिशा में दौड़ा, लेकिन उसी का आग उगलने वाला वही हथियार पहले से पहुँच चुका था, जिसके आने पर उसने अपना तीसरा संकल्प तोड़ा था कि 'वह कभी किसी को बुरा नहीं कहेगा'। वह कुछ कहता उससे पहले ही हथियार चला और उसने उसके परिवार के तीसरे सदस्य को जला दिया।

और वह स्वयं चौथी दिशा में गिर पड़ा। उसने गिरे हुए ही देखा कि एक बूढ़ा आदमी दूर से धीरे-धीरे लाठी के सहारे चलता हुआ आ रहा था, गोल चश्मा पहने, बिना बालों का वह कृशकाय बूढ़ा उसका वही गुरु था जिसने उसे मुक्ति दिला कर ये तीनों संकल्प दिलाये थे।

उस गुरु के साथ तीन वानर थे, जिन्हें देखते ही सारे हथियार लुप्त हो गये।

और उसने देखा कि उसके गुरु उसे आशा भरी नज़रों से देख रहे हैं और उनकी लाठी में उसी का चेहरा झाँक रहा है, उसके मुंह से बरबस निकल गया 'हे राम!'।

कहते ही वह नींद से जाग गया।
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चित्र: साभार गूगल

मंगलवार, 21 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: अपवित्र कर्म | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी



पौ फटने में एक घंटा बचा हुआ था। उसने फांसी के तख्ते पर खड़े अंग्रेजों के मुजरिम के मुंह को काले कनटोप से ढक दिया, और कहा, "मुझे माफ कर दिया जाए। हिंदू भाईयों को राम-राम, मुसलमान भाईयों को सलाम, हम क्या कर सकते है हम तो हुकुम के गुलाम हैं।"

कनटोप के अंदर से लगभग चीखती सी आवाज़ आई, "हुकुम के गुलाम, मैं न तो हिन्दू हूँ न मुसलमान! देश की मिट्टी का एक भक्त अपनी माँ के लिये जान दे रहा है, उसे 'भारत माता की जय' बोल कर विदा कर..."

उसने जेल अधीक्षक की तरफ देखा, अधीक्षक ने ना की मुद्रा में गर्दन हिला दी । वह चुपचाप अपने स्थान पर गया और अधीक्षक की तरफ देखने लगा, अधीक्षक ने एक हाथ में बंधी घड़ी देखते हुए दूसरे हाथ से रुमाल हिला इशारा किया, तुरंत ही उसने लीवर खींच लिया। अंग्रेजों के मुजरिम के पैरों के नीचे से तख्ता हट गया, कुछ मिनट शरीर तड़पा और फिर शांत पड़ गया। वह देखता रहा, चिकित्सक द्वारा मृत शरीर की जाँच की गयी और फिर  सब कक्ष से बाहर निकलने लगे।

वह भी थके क़दमों से नीचे उतरा, लेकिन अधिक चल नहीं पाया। तख्ते के सामने रखी कुर्सी और मेज का सहारा लेकर खड़ा हो गया।

कुछ क्षणों बाद उसने आँखें घुमा कर कमरे के चारों तरफ देखना शुरू किया, कमरा भी फांसी के फंदे की तरह खाली हो चुका था। उसने फंदे की तरफ देखा और फफकते हुए अपने पेट पर हाथ मारकर चिल्लाया,

"भारत माता की जय... माता की जय... मर जा तू जल्लाद!"

लेकिन उस की आवाज़ फंदे तक पहुँच कर दम तोड़ रही थी।
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सोमवार, 20 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: मेरी याद । लेखन व वाचन: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी



रोज़ की तरह ही वह बूढा व्यक्ति किताबों की दुकान पर आया, आज के सारे समाचार पत्र खरीदे और वहीँ बाहर बैठ कर उन्हें एक-एक कर पढने लगा, हर समाचार पत्र को पांच-छः मिनट देखता फिर निराशा से रख देता।

आज दुकानदार के बेटे से रहा नहीं गया, उसने जिज्ञासावश उनसे पूछ लिया, "आप ये रोज़ क्या देखते हैं?"

"दो साल हो गए... अख़बार में मेरी फोटो ढूंढ रहा हूँ...." बूढ़े व्यक्ति ने निराशा भरे स्वर में उत्तर दिया।

यह सुनकर दुकानदार के बेटे को हंसी आ गयी, उसने किसी तरह अपनी हंसी को रोका और व्यंग्यात्मक स्वर में पूछा, "आपकी फोटो अख़बार में कहाँ छपेगी?"

"गुमशुदा की तलाश में..." कहते हुए उस बूढ़े ने अगला समाचार-पत्र उठा लिया। 
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चित्र: साभार गूगल

रविवार, 19 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: असगर वजाहत की लघुकथाएं | वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी



असग़र वजाहत जी का जन्म 5 जुलाई 1946 को फतेहपुर, उत्तर प्रदेश में हुआ था। उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम॰ए॰ की और फिर वहीं से पी-एच॰डी॰ की उपाधि भी अर्जित की। पोस्ट डॉक्टोरल रिसर्च JNU, दिल्ली से किया।

असग़र वजाहत साहब हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कहानीकार एवं सिद्धहस्त नाटककार के रूप में मान्य हैं। आपने कहानी, लघुकथा, नाटक, उपन्यास, यात्रा-वृत्तांत, फिल्म तथा चित्रकला आदि विभिन्न क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण रचनात्मक योगदान किया है। असग़र साहब दिल्ली स्थित जामिया मिलिया इस्लामिया में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके हैं।

खाल बदलने पर असग़र वजाहत की दो लघुकथाएं।

1)

बंदर / असग़र वजाहत


एक दिन एक बंदर ने एक आदमी से कहा– “भाई, करोड़ों साल पहले तुम भी बंदर थे। क्यों न आज एक दिन के लिए तुम फिर बंदर बनकर देखो।”

यह सुनकर पहले तो आदमी चकराया, फिर बोला– “चलो ठीक है। एक दिन के लिए मैं बंदर बन जाता हूँ।”

बंदर बोला– “तो तुम अपनी खाल मुझे दे दो। मैं एक दिन के लिए आदमी बन जाता हूँ।” इस पर आदमी तैयार हो गया।

आदमी पेड़ पर चढ़ गया और बंदर ऑफिस चला गया। शाम को बंदर आया और बोला– “भाई, मेरी खाल मुझे लौटा दो। मैं भर पाया।”

आदमी ने कहा– “हज़ारों-लाखों साल मैं आदमी रहा। कुछ सौ साल तो तुम भी रहकर देखो।”

बंदर रोने लगा– “भाई, इतना अत्याचार न करो।” पर आदमी तैयार नहीं हुआ। वह पेड़ की एक डाल से दूसरी, फिर दूसरी से तीसरी, फिर चौथी पर जा पहुँचा और नज़रों से ओझल हो गया। विवश होकर बंदर लौट आया।

और तब से हक़ीक़त में आदमी बंदर है और बंदर आदमी।
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2)

राजा / असग़र वजाहत

उन दिनों शेर और लोमड़ी दोनों का धंधा मंदा पड़ गया था। लोमड़ी किसी से चिकनी-चुपड़ी बातें करती तो लोग समझ जाते कि दाल में कुछ काला है। शेर दहाड़कर किसी जानवर को बुलाता तो वह जल्दी से अपने घर में घुस जाता। ऐसे हालात से तंग आकर एक दिन लोमड़ी और शेर ने सोचा कि आपस में खालें बदल लें। शेर ने लोमड़ी की खाल पहन ली और लोमड़ी ने शेर की खाल।

अब शेर को लोग लोमड़ी समझते और लोमड़ी को शेर। शेर के पास छोटे-मोटे जानवर अपने आप चले आते और शेर उन्हें गड़प जाता।

लोमड़ी को देखकर लोग भागते तो वह चिल्लाती ‘अरे सुनो भाई. . .अरे इधर आना लालाजी. . .बात तो सुनो पंडितजी!’ शेर का यह रंग-ढंग देखकर लोग समझे कि शेर ने कंठी ले ली है। वे शेर, यानी लोमड़ी के पास आ जाते। शेर उनसे मीठी-मीठी बातें करता और बड़े प्यार से गुड़ और घी मांगता। लोग दे देते। खुश होते कि चलो सस्ते छूटे।

एक दिन शेर लोमड़ी के पास आया और बोला, ‘मुझे अपना दरबार करना है। तुम मेरी खाल मुझे वापस कर दो। मैं लोमड़ी की खाल में दरबार कैसे कर सकता हूं?’ लोमड़ी ने उससे कहा, ‘ठीक है, तुम परसों आना।’ शेर चला गया।

लोमड़ी बड़ी चालाक थी। वह अगले ही दिन दरबार में चली गई। सिंहासन पर बैठ गई। राजा बन गई।

दोस्तो, यह कहानी बहुत पुरानी है। आज जो जंगल के राजा हैं वे दरअसल उसी लोमड़ी की संतानें हैं, जो शेर की खाल पहनकर राजा बन गई थी।
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चित्रः साभार गूगल