लघुकथा: इंसान जिन्दा है | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
वह अपनी आत्मा के साथ बाहर निकला था, आत्मा को इंसानों की दुनिया देखनी थी।
वे दोनों एक मंदिर में गये, वहां पुजारी ने पूछा, "तुम हिन्दू हो ना!" आत्मा हाथ जोड़ कर चल दी।
और एक मस्जिद में गये, वहां मौलवी ने पूछा, "तुम मुसलमान हो ना!" आत्मा ने मना कर दिया।
फिर एक गुरूद्वारे में गये, वहां पाठी ने पूछा, "तुम सिख तो नहीं लगते" आत्मा वहां से चल दी।
और एक चर्च में गये, वहां पादरी ने पूछा, "तुम इसाई हो क्या?" आत्मा चुपचाप रही।
वे दोनों फिर घर की तरफ लौट गये। रास्ते में उसकी आत्मा ने कहा, "इंसान मर गया, सम्प्रदाय ज़िन्दा है।"
उसने कहा, "नहीं! "इंसान जिंदा है। सभी जगह सम्प्रदाय नहीं होते।"
अपनी बात को साबित करने के लिए वह अपनी आत्मा को पहले एक हस्पताल में लेकर गया, जहाँ बहुत सारे 'रोगी' ठीक होने आये थे।
और फिर एक जेल में लेकर गया, जहाँ बहुत सारे 'कैदी' थे।
और मदिरालय लेकर गया, जहाँ सब के सब 'शराबी' थे।
और एक विद्यालय लेकर गया, जहाँ 'विद्यार्थी' पढने आये थे।
अब आत्मा ने कहा, "इंसान ज़िन्दा तो है, लेकिन कुछ और बनने के बाद।"
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चित्रः साभार गूगल
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