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बुधवार, 26 जून 2019

अखिल भारतीय 'शकुन्तला कपूर स्मृति' लघुकथा प्रतियोगिता में पुरस्कृत मेरी लघुकथा : अस्वीकृत मृत्यु


अस्वीकृत मृत्यु

अंतिम दर्शन हेतु उसके चेहरे पर रखा कपड़ा हटाते ही वहाँ खड़े लोग चौंक उठे। शव को पसीना आ रहा था और होंठ बुदबुदा रहे थे। यह देखकर अधिकतर लोग भयभीत हो भाग निकले, लेकिन परिवारजनों के साथ कुछ बहादुर लोग वहीँ रुके रहे। हालाँकि उनमें से भी किसी की हिम्मत नहीं हो रही थी कि शव के पास जा सकें। वहाँ दो वर्दीधारी पुलिस वाले भी खड़े थे, उनमें से एक बोला, "डॉक्टर ने चेक तो ठीक किया था? फांसी के इतने वक्त के बाद भी ज़िन्दा है क्या?"

दूसरा धीमे कदमों से शव के पास गया, उसकी नाक पर अंगुली रखी और हैरत भरे स्वर में बोला, "इसकी साँसें चल रही हैं!" यह सुनते ही परिजनों की छलकती आँखें ख़ुशी से चमक उठीं।

अब शव के पूरे शरीर में सुगबुगाहट होने लगी और वह उठ कर बैठ गया। परिजनों में से एक पुलिस वालों से बोला, "इन्हें आप लोग नहीं ले जायेंगे। यह तो नया जन्म हुआ है!"

और वह स्थिर आँखों से देखते हुए अपनी पूरी शक्ति लगाकर खड़ा हुआ, अपने ऊपर रखी चादर को ओढा और घर के अंदर चला गया। परिजन भी उसके पीछे-पीछे चल पड़े।

अंदर जाकर वह एक कुर्सी पर बैठ गया और अपने परिजनों को देख कर मुस्कुराने का असफल प्रयास करते हुए बहुत धीमे स्वर में बोला, "ईश्वर ने... फिर भेज दिया... तुम सबके पास.."। परिजन उसकी बात सुन तो नहीं पाये पर समझकर नतमस्तक हो ईश्वर का शुक्र मनाया।

लेकिन उसी वक्त उसके मस्तिष्क में वे शब्द गूंजने लगे, जब उसे नर्क ले जाया गया था और वहाँ दरवाज़े से ही धकेल कर फैंक दिया गया, इस चिंघाड़ के साथ कि, "पापी! तूने एक मासूम के साथ बलात्कार किया है... तेरे लिए तो नर्क में भी जगह नहीं है... फैंक दो इस गंदगी को...."

और उसने देखा कि ज़मीन पर छोटे-छोटे कीड़े उससे दूर भाग रहे हैं।