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रविवार, 26 मई 2019

पुस्तक: 101 लघुकथाएँ | विजय अग्रवाल

पुस्तक के कुछ अंश


प्रतिष्ठित लेखक डॉ. विजय अग्रवाल की ये लघुकथाएँ स्वयं पर लगाए जानेवाले इस आरोप को झुठलाती हैं कि लघुकथाएँ लघु तो होती हैं, लेकिन उनमें कथा नहीं होती। इस संग्रह की लघुकथाओं में कथा तो है ही, साथ ही उन्हें कहने के ढंग में भी ‘कहन’ की शैली है। इसलिए ये छोटी-छोटी रचनाएँ पाठक के अंतर्मन में घुसकर वहाँ बैठ जाने का सामर्थ्य रखती हैं।

ये लघुकथाएं मानव के मन और मस्तिष्क के द्वंद्वों तथा उनके विरोधाभासों को जिंदगी की रोजमर्रा की घटनाओं और व्यवहारों के माध्यम से हमारे सामने लाती हैं। इनमें जहाँ भावुक मन की तिलमिलाती हुई तरंगें मिलेंगी, वहीं कहीं-कहीं तल में मौजूद विचारों के मोती भी। पाठक इसमें मन और विचारों के एक ऐसे मेले की सैर कर सकता है, जहाँ बहुत सी चीजें हैं—और तरीके एवं सलीके से भी हैं।
इस संग्रह की विशेषता है—सपाटबयानी की बजाय किस्सागोई। निश्चय ही ये लघुकथाएँ सुधी पाठकों को कुरेदेंगी और सोचने पर विवश करेंगी।
दिल्ली की गलियों-सड़कों और मुल्लों-बाजारों को, जिन्होंने मुझसे ये लिखवाईं।

क्यों और कैसे

लगता है कि सूखी घास-फूस की कई अलग-अलग ढेरियाँ दिलो-दिमाग पर धरी रहती हैं कि अचानक जिंदगी का कोई छोटा-बड़ा वाकया आग की एक फुनगी की तरह आकर उन कई ढेरियों में से किसी एक पर गिरता है और देखते-ही-देखते वह ढेरी लपलपा उठती है। ऐसा हुआ नहीं कि लघुकथा बनी नहीं।

कभी-कभी ऐसा भी होता है कि ऐसा होने पर वह ढेरी लपलपाने की बजाय सुलगने लगती है। वह सुलगती जाती है और कुछ समय बाद सुलगते-सुलगते सुस्त एवं पस्त पड़कर अंततः सुलगना ही बंद कर देती है। यह लपलपा नहीं पाती। नतीजन यह लघुकथा नहीं बन पाती। मैंने पाया कि इसमें दोष आग की फुनगी का तनिक भी नहीं रहता। दोष रहता है कि दिलो-दिमाग में मौजूद घास-फूस की उन ढेरियों का कि वे इतनी सूखी नहीं थीं कि फुनगी के उस आँच को लपककर लपटों में तब्दील कर सकें।

इसलिए कम-से-कम मेरे मामले में अब तक ऐसा ही हुआ है कि जितनी लघुकथाएँ रची गई हैं, उनसे कई गुना अधिक अनरची रह गयी हैं। घटनाएँ कौंधती हैं, प्रभावित भी करती हैं। वे सभी संभावनाओं से सराबोर भी रहती हैं। उनमें इतनी ताकत भी होती है कि वे मुझे बेचैन करके टेबुल-कुरसी तक खींच लाती हैं। लेकिन मैं उनके मन-मुताबिक उन्हें शक्ल नहीं दे पाता। उनका शिल्प सध न पाने के कारण ये लघुकथाएँ नहीं बन पातीं। इसे मैं अपनी कमजोरी मानता हूँ।

इसलिए कभी-कभी मुझे यह मानने को मजबूर होना पड़ता है कि लघुकथाएँ शायद सायास नहीं होतीं। ये आयास होती हैं। ये लिखी नहीं जातीं बल्कि लिख जाती हैं। इसलिए यदि संवेदनात्मक अनुभूति के क्षण ही उसे अंजाम देने से चूक गए तो फिर आप उसे चूका ही समझो, क्योंकि अपनी सीमा में लघु होने के कारण इसकी विषय वस्तु में जो एक जबरदस्त अंतर्द्वन्द्व और परस्पर खिंचाव होना चाहिए, पर यह अनुभूतियों के कुछ ऐसे ही गहरे एवं सघन क्षणों में संभव हो पाता है। यही उसकी शैली को ताप प्रदान करता है। यही उसे मात्र वर्ण, ठंडा वक्तव्य या चुटकुलेनुमा स्वरूप से बचाता है।
ये सब महज मेरी अपनी बातें हैं। मुझे नहीं मालूम कि मैं अपनी इन सैद्धांतिक बातों को अपनी रचनात्मकता में कितना ढाल सकता हूँ। हाँ, यह जरूर है कि मेरी कोशिश सोलहों आने रही है और यही वह था, जो मैं कर सकता था—और मैंने किया।

अब एक कोशिश मेरे प्रिय पाठक के रूप में आपको अपनी करनी है। मेरी रचनात्मक सफलता एकमात्र इसी बात में है कि मैं इन्हें कितना आपका बना सका हूँ।
अभी तो बस इतना ही। बाकी कभी कहीं मुलाकात होने पर।

-विजय अग्रवाल

अनंत खोज


‘‘यह तुमने कैसा वेश बना रखा है ?’’
‘‘तुम भी तो वैसी ही दिख रही हो !’’
‘‘हाँ मैंने अब अपने आपको समाज को सौंप दिया है। उन्हीं के लिए रात-दिन सोचता-करता रहता हूँ।’’
‘‘कुछ ऐसी ही स्थित मेरी भी है। एम.डी. करने के बाद अब मैं आदिवासी इलाकों में मुफ्त इलाज करती हूँ। बदले में वे ही लोग मेरी देखभाल करते हैं। खैर, लेकिन तुम तो आई.ए.एस. बनने की बात करते थे ?’’
‘‘हाँ, करता था। बन भी जाता शायद, बशर्ते कि तुम्हें पाने की आशा रही होती। जब तुम नहीं मिलीं तो आई.ए.एस. का विचार भी छोड़ दिया !’’

‘‘अच्छा !’’ उसके चेहरे पर अनायास ही दुःख की हलकी लकीरें उभर आईं। उसने धीमी आवाज में कहा, ‘‘कहाँ तो आई.ए.एस. के ठाट-बाट और कहाँ गली-गली की खाक छानने वाला ये धंधा ! इनमें तो कोई तालमेल दिखाई नहीं देता।’’
‘‘क्या करता ? यदि तुमने एक बार अपने मन की बात बता दी होती तो आज जिंदगी ही कुछ और होती।’’
‘‘लेकिन तुमने भी तो अपने मन की बात नहीं कही।’’
थोड़ी देर के लिए वातावरण में घुप्प चुप्पी छा गई। दोनों की आँखें एक साथ उठीं, मिलीं और फिर दोनों एक साथ बोल उठे, ‘‘इसके बाद से शायद हम दोनों ही एक-दूसरे को औरों में खोजने में लगे हुए हैं। शायद इसीलिए किसी ने भी अपने मन की बात नहीं कही।’’

मिलन


‘‘उस दिन तुम आए नहीं। मैं प्रतीक्षा करती रही तुम्हारी।’’ प्रेमिका ने उलाहने के अंदाज में कहा।
‘‘मैं आया तो था, लेकिन तुम्हारा दरवाजा बंद था, इसलिए वापस चला गया।’’ प्रेमी ने सफाई दी।
‘‘अरे, भला यह भी कोई बात हुई !’’ प्रेमिका बोली।
‘‘क्यों, क्या तुम्हें अपना दरवाजा खुला नहीं रखना चाहिए था ?’’ प्रेमी थोड़े गुस्से में बोला।
‘‘यदि दरवाजा बंद ही था तो तुम दस्तक तो दे सकते थे। मैं तुम्हारी दस्तक सुनने के लिए दरवाजे से कान लगाए हुए थी।’’ प्रेमिका ने रूठते हुए कहा।

‘‘क्यों, क्या मेरे आगमन की सूचना के लिए मेरे कदमों की आहट पर्याप्त नहीं थी ?’’ प्रेमी थोड़ी ऊँची आवाज में बोला।
इसके बाद वे कभी मिल नहीं सके, क्योंकि न तो प्रेमिका ने अपना दरवाजा खुला रखा और न ही प्रेमी ने उस बंद दरवाजे पर दस्तक दी।


सच्चा प्रेम



‘‘मैं तुमसे बहुत प्रेम करती हूँ।’’
‘‘लेकिन मैं तो तुमसे नहीं करता।’’
‘‘इससे क्या, लेकिन मैं तो तुमसे करती हूँ।’’
‘‘तुम नहीं जानती मुझे। सच तो यह है कि मैं तुमसे घृणा करता हूँ।’’
‘‘शायद इसीलिए मैं तुमसे प्रेम करती हूँ, क्योंकि बाकी सभी मुझसे प्रेम करते हैं। एक तुम ही अलग हो, जो मुझसे घृणा करते हो।’’
कहते हैं कि दोनों ने अपने इस रिश्ते को ताउम्र निभाया।