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गुरुवार, 19 मई 2022

संवेदना जागृत करती लघुकथाओं का संग्रह ‘छूटा हुआ सामान’: लेखिका डॉ.शील कौशिक | समीक्षक: कल्पना भट्ट



 पुस्तक का नाम: छूटा हुआ सामान (लघुकथा संग्रह) 

लेखिका: डॉ.शील कौशिक 

प्रकाशक: देवशीला पब्लिकेशन, पटियाला, पंजाब-१४७००१

प्रथम संस्करण: २०२१

मूल्य: २५० रुपये 




संवेदना जागृत करती लघुकथाओं का संग्रह ‘छूटा हुआ सामान’: लेखिका डॉ.शील कौशिक 

हिन्दी-लघुकथा के क्षेत्र में डॉ.शील कौशिक को किसी परिचय की आवश्यकता नहीं है | हिन्दी-साहित्य जगत् में आपकी कुल ३२ पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं जिसमें से २२ मौलिक, ६ सम्पादित, ३ अनुदित एवं आप पर एक पुस्तक प्रकाशित हुई हैं| ‘छूटा हुआ सामान’ आपका चौथा लघुकथा-संग्रह है जिसमें कुल ७४ लघुकथाएँ संगृहीत हुई हैं| 

प्रस्तुत संग्रह में अधिकाँश लघुकथाएँ संवेदना जागृत करती हुई हैं| इस संग्रह में आपने विभिन्न विषयों पर कलम चलाई है जिसमें से सेवानिवृति, किन्नर, पारिवारिक पृष्ठभूमि पर आधारित लघुकथाओं के साथ-साथ मालिक एवं नौकर, पडोसी प्रेम पर आधारित, दोस्ती पर आधारित, बाल-मन पर केन्द्रित लघुकथाएँ, संवेदना जागृत करती हुई लघुकथाएँ, इत्यादि विषय शामिल हैं| 

सर्वप्रथम संवेदना जागृत करती हुई लघुकथाओं की चर्चा करें तो इस शीर्षक के अंतर्गत, ‘जाति के पार’,’माँ का मरना’,’छूटा हुआ सामान’, ‘बोल न मुन्ना’ इत्यादि लघुकथाएँ हैं जिसमें से ‘छूटा हुआ सामान’ इस संग्रह की सर्वश्रेष्ठ लघुकथा है जिसका विषय लिक से हटकर है| इस लघुकथा में एक बेटी तनुजा विवाह के उपरान्त पहली बार मायके आती है और वह हर उस जगह जाती है जहाँ-जहाँ विवाह के पहले जाया करती थी और बाज़ार से वो सामान खरीदती है जिसको वह खरीदा करती थी| तनुजा की माँ उसको अपना सामान समेट ने को कहती है परन्तु तनुजा बार-बार घर के बाहर चली जाती है जिसपर उसकी माँ उसको डाँट कर कहती है, “तेरे पाँव में टिकाव न है, यहाँ-वहाँ उड़ती फिर रही है छोरी|” 

फिर उसके मासूम से चेहरे को देखकर माँ की आँखे नम हो जाती हैं व् भर्राए स्वर में कहती हैं, “कितनी बार कहा है तुझे, अपना सामान समेट ले बेटा|”

इसपर तनुजा यह कहते हुए, “माँ सुबह से छूटा हुआ सामान ही तो बटोर रही हूँ|” फफक-फफककर रो पड़ती है और माँ के गले में झूल जाती है| यह लघुकथा पाठकों के हृदयतल को स्पर्श करेगी ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास है| यह लघुकथा प्रस्तुत संग्रह की प्रतिनिधि रचना भी है जिसको लेखिका ने बहुत ही मनोभाव से प्रस्तुत किया है दूसरे शब्दों में यह कहना कि इस सम्पूर्ण संग्रह की आत्मा इस एक लघुकथा में बस गयी है तो अतोशयोक्ति न होगी| जाति-वाद की बात करें तो वर्तमान समय में भी ऐसे संकीर्ण सोच वाले लोग समाज में प्रत्यक्ष हो जाते हैं जो जाति-पाती को मानकर अपने को सर्वश्रेष्ठ समझते हैं और दलित वर्ग को निम्न समझकर उनका तिरस्कार करते हैं| इसी विषय पर आधारित ‘जाति के पार’ अपने उद्देश्य को संप्रेषित करती है| ‘माँ का मरना’ एक मार्मिक लघुकथा है जिसके संवाद ह्रदय को स्पर्श कर जाते हैं| ‘बोल न मुन्ना’ का कथानक सुन्दर है जो एक वयोवृद्ध की मनोदशा को चित्रांकित करता है जो अपने बेटे से उपेक्षित होता आ रहा है| ‘बेटी का हिस्सा’ बेटी और बेटों में फर्क करने वालो हेतु सन्देश प्रेषित करता है कि बेटों के मुकाबले बेटियाँ अपने घर और परिवार के प्रति ज्यादा सजग एवं ममत्व रखती है | और बेटी के हिस्से में घर के संस्कार और भावनात्मक बंधन आता है जिसको वह ह्रदय से निभाती है | इसी से मिलती-झूलती एक और लघुकथा को देखा-परखा जा सकता है जो ‘एक ही बेटा’ शीर्षक से प्रेषित हुई है| इस लघुकथा में एक पिता के दो पुत्र होने के बावजूद सिर्फ छोटा बेटा उनके पद-चिह्नों पर चलता है परन्तु पिता के मरणोपरांत किसी मंच के द्वारा सम्मान मिलना होता है परन्तु यहाँ बड़ा बेटा जाने की इच्छा जताता है और चला भी जाता है | परन्तु लोग उसको पहचान नहीं पाते और कहते हैं, “अरे! हमने तो सोचा उनका एक ही बेटा है|” इस अन्तिम वाक्य ने हजारों ऐसे गालों पर चांटे रसीद दिए से प्रतीत होता है जो नाम कमाने के खातीर अपने पूर्वजों को सीढी बनाकर चलने में भी शर्मिंदगी का एहसास नहीं कर पाता | यह लघुकथा अपने अन्तिम वाक्य के कारण सुन्दर बन पड़ी है|  

‘सच तो यही है’ पुरुष-प्रधान सोच को उजागर करती एक बेहतरीन लघुकथा है जिसमें पति के सामने जब पत्नी महिलाओं की उपलब्धियों को गिनवाती है और उनकी सफलता का गुणगान कर समाज में स्त्री-पुरुष समानता को लेकर अपना पक्ष रखने का प्रयास करती है, परन्तु पति का पुरुष मन उसकी बातों से आहत् होता है और उसके अहम् को ठेस लगती है और वह अपनी पत्नी को बाहुपाश में लेकर कहता है, “हाँ यार! कह तो तुम ठीक रही हो|” और उसको बेडरूम में ले जाता है और अपनी विकृत सोच को प्रदर्शित कर अपनी पत्नी के साथ जबरदस्ती कर अपने मन-मष्तिष्क में अटका गुबार दाग देता है और कुटिल मुस्कान फैंकते हुए कहता है, “हाँ, तो क्या कह रही थी तुम! महिलाओं का बराबरी का बखान...वो तो बहुत दूर की कौड़ी है, पहले तुम ‘योअर बॉडी इज़ योअर ओन’ का तो एहसास कर लो|” यह इस लघुकथा का चरम संवाद है जिसने इस लघुकथा को उत्कृष्टता की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया है और इस लघुकथा का अन्तिम वाक्य जो इस लघुकथा के उद्देश्य को सिद्ध करता है को भी अवलोकित किया जा सकता है, ‘समानता का काँटा मुँह चिढाने लगा, तिलमिला उठी सुनंदा|’ इसका नकारत्मक अंत पढ़कर पाठक के मन में वर्तमान समाज में स्त्री को समान अधिकारों के दंभ भरने वालों पर कई सवाल खड़े करती है|

वर्तमान समय में संवेदनाएँ समाज से विलुप्त-सी हो गयी हैं | स्वार्थ ने हर घर-परिवार ने डेरा-सा डाल दिया है| अगर घर में कोई सेवानिवृत हो गया है तो उसकी दुर्दशा और उसको हीन समझकर उसको तिर्रस्कृत कर उनके साथ बदसलूकी करना अथवा अपने घर के छोटे-मोटे काम करवाना यह आम बात हो गयी है| इसी मुद्दे को लेकर लेखिका चिंतित दिखाई पड़ती है और अपने लेखकीय धर्म का पालन करते हुए सेवानिवृत विषय को आधार बनाकर आपने इस संग्रह में कुछ बहुत ही सुन्दर लघुकथाएँ प्रेषित की है जिसमें ‘सेवानिवृत्ति’, ‘बोझिल कंधे’, ‘तब और अब’ जैसी अच्छी और सार्थक लघुकथाएँ प्रेषित हुई हैं| 

लघुकथा ‘पर्त-दर-पर्त’ प्रस्तुत संग्रह की एक और उत्कृष्ट लघुकथा है जिसमें सोने के पिंजरे में क़ैद मंजू की मनोदशा बहुत ही करीने से चित्रांकन किया गया है| एक ऐसा घर जिसमें आधुनिक यंत्र मौजूद हैं जिसका उपयोग वह घर में काम करने वालों पर निगरानी करने के लिए एवं अपनी सहेली के सामने दिखावा करने के लिए इस्तमाल करती है | 

सोने के पिंजरे में बंद कथानायिका की मनोदशा इस संवाद से समझी जा सकती है, “भगवान् ने मुझे सब सुख दिए हैं मधु! रुपया-पैसा नौकर-चाकर, बस एक सेहत नहीं दी| मेरा ब्लड प्रेशर काबू में नहीं रहता, जब मर्जी शूट हो जाता है, ऊपर से शुगर की बिमारी...कभी-कभी तो डिप्रेशन में चली जाती हूँ| 

यहाँ कथानायिका के दर्द का एहसास होता है कि भौतिक सुख होते हुए भी वह अपने-आप में स्वस्थ नहीं है का एहसास करवाती है | यह इस लघुकथा संग्रह की एक उत्कृष्ट रचनाओं में से एक है| 

‘आश्वस्ति’ एक मनोवैज्ञानिक लघुकथा है जिसमें पति-पत्नी के प्रगाढ़ प्रेम को न सिर्फ उजागर करता है अपितु उन माता-पिता के दर्द का भी एहसास करवाने में सफल होती है जिनके बच्चे अन्य प्रदेशों में खा-कमा रहे हैं और बुढ़ापे में उनको अकेला कर देती है | इस लघुकथा में यह दर्शाया गया है कि घर में सन्नाटे को तोड़ने हेतु कुछ न कुछ बोलना कितना आवश्यक होता है| यही इस लघुकथा का उद्देश्य है | 

‘आत्मसम्मान’ लघुकथा में यह दर्शाया गया है  कि काम करने वाली बाइयों में भी अपने आत्मसम्मान होता है जिसका हनन होता देख वह अपनी मालकीन के आगे आक्रोश से विद्रोह दर्ज करवाती हुई नज़र आती है| यह एक अच्छी लघुकथा है | जो यह सन्देश संप्रेषित करती है कि आत्मसम्मान के लिए लड़ना प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार होता है फिर भले ही वह एक ऐसी स्त्री हो जो घरों में काम करने वाली बाई ही क्यों न हो| 

‘गाली’ लघुकथा में किन्नर समाज द्वारा नारी के सम्मान के लिए आवाज़ उठाई गयी है और घर में बेटी के जन्म पर उदासीन होने वालों को इस बात का एहसास करवाती हुई प्रतीत होती है कि बेटा और बेटी समान होते हैं| यह किन्नर समाज के उदार ह्रदय की सोच को उजागर करती एक अच्छी लघुकथा है| 

इस संग्रह में कुछ ऐसी लघुकथाएँ भी हैं जिसमें लेखिका ने समाज को किस तरह से होना चाहिए यानी की आदर्श समाज को चित्रांकित करने का प्रयास किया है | ऐसी लघुकथाएँ उत्तम कहलाती है जब लेखक अपने लघुकथाओं के माध्यम से पाठकों के ह्रदय में आदर्श स्थापित करवाने में मददगार होती हैं| डॉ.शील कौशिक ने इस तरह की लघुकथाओं को लिखकर न सिर्फ अपना लेखकीय कौशल को दर्शाया है अपितु आपने एक लेखक होने का धर्म भी निभाया है| ‘ज़िद अच्छी है’ लघुकथा इसमें से एक है जिसमें श्राद्ध पक्ष में नए भवन की शुरुआत करने की घटना को दर्शाया गया है | इस लघुकथा के माध्यम से लेखिका ने यह दर्शाने का प्रयत्न किया है कि श्राद्ध पक्ष में बीती-पीढ़ी को गौरव देने व पुनः स्मरण करने के दिन होते हैं तो ये अशुभ कैसे हो सकते है? और बड़े हमारा अहित कैसे होने दे सकते हैं? वे तो आशीर्वाद ही देंगे, हमारी ख़ुशी में खुश होंगे...|” और इस हेतु कथानायक जिद करता है और ठेकेदार से कहता है, “सोच लो भाई! तुम्हारी मर्जी है! अगर तुम काम शुरू करना नहीं चाहते, तो मैं किसी और से बात करूँ...|”  इस ज़िद के आगे ठेकेदार झूक जाता है और कहता है, “यह ज़िद अच्छी है बाबूजी! काश ऐसी ज़िद...”

‘श्राध्दो में अपने साथ-साथ कई मजदूरों की रोज़ी-रोटी सुनिश्चित देख ठेकेदार विनम्रता से हाथ जोड़ देता है|’ इस अन्तिम वाक्य में लघुकथा का मर्म छिपा है जिस कारण यह लघुकथा अच्छी बन पड़ी है| 

‘कमजोर कलाई’, ‘बहन की शादी’ जैसी लघुकथाओं को लिखकर लेखिका ने यह साबित कर दिया है कि वह ऐसी युवा पीढ़ी के लिए भी चिंतित हैं जो ड्रग्स लेते हैं और इसके चलते वह गुमराह हो जाते हैं परन्तु उनको राह पर लाने हेतु परिवार का साथ होना अति आवश्यक होता है और अगर उनको सच्चे हृदय से उनकी जिम्मेदारियों का एहसास करवाया जाए तो वह सही राह पर आ सकते हैं| ऐसी सम्भावना को जगाना भी लेखिका के समाज के प्रति अपनी चिंता जताने का एक सफल प्रयास है जो न सिर्फ इस तरह की गंभीर समस्या को उजागर करती हैं अपितु इस समस्या से निकलने हेतु मार्ग भी दिखा रही हैं| 

प्रस्तुत संग्रह में लेखिका ने हर उम्र के लोगों पर कलम चलाई है जिसमें बच्चे भी शामिल हैं| बाल-मन पर आधारित लघुकथाओ में ‘खोते जा रहे पल’ जैसी सुन्दर और बाल मनोविज्ञान पर आधारित के बेहतरीन प्रस्तुति है जिसमें एक नौ वर्षीय बच्ची स्वरा के जन्मदिन के लिए वह स्वयं ही पड़ोस की सहेलियों के साथ तैयारियों में जुट जाती है और अपने कमरे को सुन्दर ढंग से सजा लेती है| उसकी मम्मी ने खूब सारा खाने का सामान जैसे पिज़्ज़ा, चाउमिन, चॉकलेट, तरह-तरह के चिप्स के पैकेट्स और जूस आदि बाज़ार से मँगवा देती हैं | वह अपनी बेटी की पसंद-नापसंद को नज़रंदाज़ कर मोबाइल में व्यस्त हो जाती हैं और उसको यह बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा था कि स्वरा उसको बार-बार सबके बीच लेकर आ रही थी| 

शाम होते-होते स्वरा उपहारों को खोलकर बैठ जाती है और देखती है कि उसकी मम्मी मोबाइल में फेसबुक पर जन्मदिन की चुन-चुनकर फ़ोटोज़ पोस्ट करने में व्यस्त हैं और जब वह पापा को अपने उपहार दिखाने का प्रयास करती है तब वह यह कहकर टाल देते हैं, “बेटा! मुझे सुबह ऑफिस के काम से जल्दी चंडीगढ़ जाना है|” 

स्वरा उदास हो जाती है और कुछ देर बाद उपहारों के बीच बैठे-बैठे ही सो जाती है| 

अपने ही मम्मी-पापा से उपेक्षित हो एक बच्चे की क्या मनोदशा हो जाती है का बहुत ही सुन्दर चित्रांकन इस लघुकथा के माध्यम से किया गया है| 

प्रस्तुत लघुकथा-संग्रह में लेखिका ने विभिन्न विषयों पर कलम चलाई है| एक से बढ़कर एक लघुकथाएँ प्रस्तुत की गयी हैं जो ज़मीन से जुडी हुई प्रत्यक्ष होती हैं| पात्रों का चयन, भाषा-शैली भी कथानक के अनुरूप है| कुल मिलाकार इस लघुकथा संग्रह को पढने के उपरान्त मैं इस निष्कर्ष पर पहुँची हूँ कि यह संग्रह पाठकों के ह्रदय में अपना स्थान बनाने में सफल होगा | मैं लेखिका को इस बेहतरीन लघुकथा संग्रह हेतु बधाई प्रेषित करती हूँ और भविष्य में भी आपकी लेखनी को पाठकों के मध्य पहुँचाने हेतु शुभकामनाएँ प्रेषित करती हूँ|

- कल्पना भट्ट


रविवार, 3 मई 2020

समीक्षाः गुलाबी फूलों वाले कप (लघुकथा संग्रह ) | लघुकथाकार : डॉ.श्याम सुंदर दीप्ति | समीक्षाकारः डॉ.शील कौशिक


समीक्ष्य कृति:गुलाबी फूलों वाले कप (लघुकथा-संग्रह) 
लघुकथाकार : डॉ.श्याम सुंदर दीप्ति 
प्रकाशक: राही प्रकाशन, दिल्ली 

मूल्य: ₹395 पृष्ठ संख्या: 148
समीक्षाकारः डॉ.शील कौशिक

परिवेश व अनुभव की सान पर रचित श्रेष्ठ लघुकथाएं

डॉ. श्यामसुंदर दीप्ति पंजाबी व हिंदी लघुकथा के प्रमुख आधार स्तंभ रहे हैं। सन 1986 से अपना लघुकथा का सफर शुरू करने वाले डॉक्टर श्यामसुंदर दीप्ति स्वयं मानते हैं कि शुरुआत के तीन-चार दशकों के बाद लघुकथा में कई पड़ाव आए और उन्होंने खुद अपने लेखन में एक विकास होते महसूस किया। वर्तमान में विषय की नवीनता व प्रस्तुतीकरण में प्रयोग जहां एक ओर लघुकथा के विकास व समृद्धि के द्योतक हैं वहीं दूसरी ओर बड़ी संख्या में रातों-रात लघुकथा के नाम पर कुछ भी लिखकर लघुकथाकार बनने का लोभ संवरण नहीं करने वाले लघुकथा विधा के साथ खिलवाड़ करते नजर आते हैं। फिर भी वर्तमान समय को लघुकथा का स्वर्णिम युग कहा जा सकता है क्योंकि विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर लघुकथाओं का प्रकाशन एवं सोशल साइट्स पर रचनाकारों की सक्रियता देखकर लघुकथा की लोकप्रियता का अहसास होता है। उपन्यास और कहानियां नेपथ्य में जा रही हैं और लघुकथा प्रबलता और प्रभावशीलता के साथ सम्मुख आ रही है। लघुकथा में तीव्र गति से समाज में आए बदलाव को रेखांकित और प्रतिबिंबित करने की अद्भुत क्षमता है।
डॉ. श्याम सुंदर दीप्ति

डॉ श्याम सुंदर दीप्ति का सद्य:प्रकाशित लघुकथा संग्रह 'गुलाबी फूलों वाले कप' उनकी तीसरी लघुकथा की एकल कृति है। इससे पूर्व 'गैर हाजिर रिश्ता' उनकी चर्चित एवं प्रशंसित लघुकथा की पुस्तक है जिसे मैंने भी पढ़ा और सराहा है। मेडिकल प्रोफेशन व मनोविज्ञान की मास्टर डिग्री होने के कारण डॉ. साहब ने अनेक ज्ञान की पुस्तकें भी लिखी हैं। जहां तक लघुकथा का संबंध है डॉ दीप्ति देशभर में अग्रणीय व समर्पित हस्ताक्षर हैं। उन्होंने पंजाबी में लघुकथा को 'मिनी कहानी' के रूप में स्थापित कर 'मिन्नी त्रैमासिक' लघुकथा पत्रिका व 'जुगनूआं दे अंग-संग' के माध्यम से इसके विकास और संवर्द्धन में निरंतर अपना महती योगदान दिया है। उन्होंने रचनात्मक अवदान के साथ- साथ संपादन भी किया व अनेक कार्यशालाओं का आयोजन करके लघुकथा को समृद्ध किया है।
भूमंडलीकरण, आर्थिक भागदौड़ में मनुष्य अपनी आत्मा की आवाज सुनना भूल गया है। जीवन के शाश्वत मूल्यों को विस्मृत कर अर्थ उपार्जन में कौशल बढ़ाने में लगा है। वर्तमान परिवेश को डॉ. दीप्ति ने अपनी विभिन्न लघुकथाओं में व्यक्त किया है।

वृद्धावस्था में अकेलेपन से जूझते व उनकी लाचारी को 'दीवारें'और 'अधर में लटके' लघुकथाओं में देखा जा सकता है। संग्रह की प्रथम लघुकथा 'अधर में लटके' एक वृद्ध की कथा है जो परिस्थितियों के आगे समर्पण करने में ही अपनी भलाई समझता है। वह बेटे की स्थिति के साथ-साथ स्वयं की युवावस्था को व अपने त्याग का भी स्मरण करता है, जब उसने आगे पढ़ने की अपनी इच्छा को मार कर पिता के कहे अनुसार क्लर्क की नौकरी ज्वाइन कर ली थी। वह कहता है, " अपनी दो सांसों के बारे में क्या फिक्र करना । ठीक ही तो है मेरे बारे में सोचेंगे तो आप अधर में लटक जाएंगे।"
इन बुजुर्गों की आदत है बोलते रहने की, ऐसे रहने की, ऐसे करने की, जैसे वाक्य प्रत्येक घर में सुनने को मिल जाते हैं। जस्सी बेटे के दोस्त कश्मीरा को बुजुर्ग इस वाक्यांश से अपनी स्थिति स्पष्ट कर देता है लघुकथा 'दीवारें' में।
"हां बेटा! घर में पंखे-पुंखे सब हैं। पर कुदरत का कोई मुकाबला नहीं। एक बात और बेटा, आता- जाता व्यक्ति रुक जाता है। दो बातें सुन जाता है, दो सुना जाता है। अंदर तो बेटा दीवारों को ही झांकते रहते हैं।"
वंचित वर्ग चाहे वह किसान हो, मजदूर हो या फिर निम्न जाति का, डॉक्टर दीप्ति जी के लघुकथाओं के सदैव सरोकार रहे हैं। आज भी ग्रामीण परिवेश में जात-पात का भेदभाव देखा जा सकता है । लघुकथा 'हिम्मत' में बीरे को अपने सहपाठियों से मजबी जात का होने के कारण क्या कुछ नहीं सुनना पड़ता। ऐसे में हतोत्साहित बीरे को शिंदे कहता है कि मेरा बापू बस एक ही बात बोलता है- देख इसीलिए तो पढ़ाई करनी है कि जलालत के माहौल से बाहर निकल सकें। यही एक रास्ता है।" वास्तव में शिक्षा ही किसी भी क्रांति का मूल मंत्र है।
डॉ.शील कौशिक

यह विडंबना ही कहीं जाएगी कि कन्या जन्म को लेकर पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही स्त्रियों की सोच आज भी हटने का नाम ही नहीं ले रही है। 'उदासी का सफर' लघुकथा में राघवी के दूसरी संतान बेटी होने पर उसकी सास की मुस्कुराहट गायब हो जाती है। वह उसे सहर्ष ही रागिनी की बहन रिंपी जो कि नि:संतान है को देने के लिए तैयार हो जाती है। उधर राघवी नवजात कन्या को जब दादी की गोद में डालती है तो वह गुस्से में बोली, " अगर बच्चा गोद ही लेना था तो लड़की ही क्यों ?"
'कविता का चेहरा' व 'कहानी नहीं बनी' लघुकथाओं में डॉ दीप्ति द्वारा नया प्रयोग देखने को मिलता है। इस तरह के प्रयोग लघुकथा के विकास में संजीवनी का कार्य करते हैं। वर्षा ऋतु के मौसम का घूंट-घूंट रसपान करते हुए कवि के मन में कविता लिखने का वातावरण बनने, कविता के रूपवान होने, कविता पर निखार आने लगता है कि तभी सीवर के गंदे पानी के भभके के साथ-साथ प्रेमा की प्रताड़ना का अमानवीय दृश्य देखकर कविता रूठ कर वापस लौट जाती है। लघुकथा एक गहरा संदेश पीछे छोड़ जाती है कि मानवीय सरोकारों के बिना कुछ भी लिखना व्यर्थ है। लघुकथा में दृश्यात्मकता इस लघुकथा को ऊंचाई प्रदान करती है।
किसी को रोजी-रोटी कमाने के योग्य बनाना सबसे बड़ा पुण्य है। फटे पुराने कपड़ों व बेकार की कतरनों से बच्चों द्वारा वाल हैंगिंग, पायदान, कुशन आदि बनवा कर उनका भविष्य संवारने वाले रामकुमार के प्रति अनुभवी बच्चा आत्मविश्वास के साथ अपनी कृतज्ञता निरीक्षण करने वाले सीनियर सिटीजन के समक्ष इस प्रकार प्रकट करता है, " हम कतरनें ही तो थे, इन सर ने हमें सलीके से सिर ऊंचा करके चलना सिखाया और अपने पर गर्व करने योग्य बनाया है।"
वर्तमान समय की त्रासदी ही कही जाएगी की सभ्य कहे जाने वाले लोग एकाकीपन से इस कदर त्रस्त हैं कि रॉन्ग नंबर लग जाने पर दोनों तरफ से सुकून की अनुभूति होती है लघुकथा 'करवट' में । प्रत्युत्तर में वरिष्ठ नागरिक कहता है, 'चलो! चाहे रॉन्ग नंबर था... हां, अगर मन उदास हो तो किसी हमदर्द का समझ कर मिला सकते हो।" लघुकथा में लेखक की दूरदृष्टि व सजगता परिलक्षित होती है।
एक नितांत अछूते विषय पर लघुकथा है 'खोखा'। सभ्याचार और दिखावे की दुनिया से दूर खोखे पर मनोहर को जो आत्मीयता मिलती है, वह अपने बेटे के घर से भी न मिली। अंत में वह निर्णय कर संतुष्टि से सोया - 'जैसे उसे बाकी जिंदगी की खुशी के पल गुजारने का ठिकाना मिल गया हो।'
बाल मनोविज्ञान पर आधारित डॉ श्याम सुंदर दीप्ति का एक पूरा लघुकथा-संग्रह 'बालमन की लघुकथाएं' आ चुका है। प्रस्तुत संग्रह की 'बैड गर्ल' व' 'गुब्बारा' इनकी बाल मनोविज्ञान पर बहुत अच्छी लघुकथाएं हैं। बालमन कितना सरल और सहज होता है। 'गुब्बारा' में बेटी द्वारा रोज-रोज गुब्बारा मांगने पर पिता समझाते हैं कि गुब्बारा अच्छा नहीं होता, एक मिनट में ही फट जाता है। परंतु जैसे ही उसने गुब्बारे वाले की आवाज सुनी तो स्वयं के कदमों पर ब्रेक लगा कर पिता को देख कर बोली, "गुब्बारा अच्छा नहीं होता ना। भाई रोज ही आ जाता है। मैं उसे कह आऊं कि वह चला जाए।" परंतु मम्मी के पास रसोई में जाकर कहने लगी, " मम्मी जी, मुझे गुब्बारा ले दो ना।"
पुस्तक शीर्ष लघुकथा 'गुलाबी फूलों वाले कप' विवेचन योग्य एक प्यारी सी प्रौढ़ वय की यथार्थ के धरातल पर बुनी प्रेम कथा है। बढ़ती उम्र के साथ प्रेम और भी गहरा और प्रोढ़ हो जाता है। इसी तरह की एक और लघुकथा है 'दिनचर्या'। इसमें पति-पत्नी परस्पर छोटी से छोटी बात को बिना कहे समझ कर, छोटी-छोटी तकलीफों को छिटक कर, हंसकर जीवन बिताने में प्रयासरत हैं। संदेशपरक व वापस दिनचर्या में लौटने की सहज बिंबधर्मी लघुकथा है यह। लघुकथा में अनुभूति की तीव्रता देखते ही बनती है।
परिपक्व सोच दर्शाती एक बेहतरीन लघुकथा है 'नाइटी'। लघुकथा में मां प्रभा के मन की बात जानकर बेटी संकोच में पड़ी अपनी मां को अपनी पसंद को अपनाने का ग्रीन सिगनल नाइटी गिफ्ट करके देती है और अपनी मां को द्वंद से बाहर निकाल देती है। हमें पुरातन लीक से हटकर समय की चाल को समझ कर प्रगतिशील व आधुनिक विचारों को मानने से गुरेज नहीं करना चाहिए।
आर्थिक भागदौड़ में लगे अभिभावकों को सचेत करती लघुकथा है 'मिलन', जिसमें एकाकीपन और उपेक्षा के चलते बेटा नशे की गिरफ्त में आ जाता है। सामाजिक सरोकार की यह लघुकथा समाज को चिंतन बीज थमाती है।
'रिश्ता' डॉ. श्यामसुंदर दीप्ति की एक और बेहतरीन लघुकथा है, जिसमें निहाल सिंह ड्राइवर को अपने गांव के पास बस रोक देने के लिए जात का सहारा लेता है, फिर वीर बनके रोकने के लिए कहता है और अंत में जब वह कहता है कि आदमी ही आदमी के काम आता है, तब ड्राइवर बस रोक देता है। कंडक्टर के चिल्लाने पर ड्राइवर कहता है, " कोई नहीं, कोई नहीं, एक नया रिश्ता निकल आया था।" वास्तव में इंसानियत का रिश्ता ही सबसे अहम रिश्ता होता है।
'सफेद कमीज' लघुकथा में लघुकथाकार ने यह कहकर कि दाग रहित सफेद कमीज अफसर व नेता की पहचान होती है, सहज ही व्यंग्य का तीर चला दिया है।
डॉ श्याम सुंदर दीप्ति ने यथार्थ को गहरे में अनुभूत कर इस प्रकार लगभग सभी प्रचलित व विस्मृत विषयों पर अपनी कलम चलाई है। 'ताजा हवा' (किन्नरों पर), 'सहेली'( प्रकृति) वृद्धावस्था पर ' दीवारें' व 'अधर में लटके' आदि। सभी लघुकथाएं संवेदना की कसौटी पर खरी उतरती व मन को झिंझोड़ कर विचलन पैदा करने वाली हैं।
उन्होंने अपनी लघुकथाओं में संवादात्मक शैली के अतिरिक्त अन्य शैलियों का भी प्रयोग किया है जैसे आत्मकथात्मक शैली में 'प्रशंसा' डायरी शैली में 'खुशगवार मौसम'। कुछ लघुकथाओं में कथानक में समूचे परिवेश को लाने की जद में अनावश्यक विस्तार भी मालूम देता है जैसे 'धन्यवाद' लघुकथा में।
निष्कर्षत: डॉ. श्याम सुंदर दीप्ति की लघुकथाओं में एक भिन्न शिल्प विन्यास देखने को मिलता है। इनकी लघुकथाएं वर्तमान समय का प्रतिनिधित्व करती हैं। ये वैश्वीकरण युग की बदली हुई मानसिकता को यथार्थ के साथ अवगत करा कर सामाजिक ,आर्थिक व राजनीतिक विसंगतियों पर चोट करती हैं। अधिकतर लघुकथाओं में परिवेश व पंजाबी भाषा का समुचित प्रभाव है जो स्वाभाविकता का आग्रह है। डॉ श्याम सुंदर दीप्ति लघुकथा के रचना विधान व बारीकियों से न केवल भली-भांति परिचित हैं बल्कि नवागतों के लिए नई पगडंडी बनाते मालूम पड़ते हैं। अधिकतर लघुकथाओं के शीर्षक लघुकथा का ही हिस्सा मालूम पड़ते हैं और लघुकथा की अर्थवत्ता को बढ़ाते हैं। अंत में मैं उन्हें विविधता भरे 'गुलाबी फूलों वाले कप' लघुकथा-संग्रह के अस्तित्व में आने पर साधुवाद कहती हूं । मेरा ध्रुव विश्वास है यह संग्रह लघुकथा जगत में अवश्य चर्चित होगा।
शुभाकांक्षी
डॉ.शील कौशिक