पुस्तक का नाम: छूटा हुआ सामान (लघुकथा संग्रह)
लेखिका: डॉ.शील कौशिक
प्रकाशक: देवशीला पब्लिकेशन, पटियाला, पंजाब-१४७००१
प्रथम संस्करण: २०२१
मूल्य: २५० रुपये
संवेदना जागृत करती लघुकथाओं का संग्रह ‘छूटा हुआ सामान’: लेखिका डॉ.शील कौशिक
हिन्दी-लघुकथा के क्षेत्र में डॉ.शील कौशिक को किसी परिचय की आवश्यकता नहीं है | हिन्दी-साहित्य जगत् में आपकी कुल ३२ पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं जिसमें से २२ मौलिक, ६ सम्पादित, ३ अनुदित एवं आप पर एक पुस्तक प्रकाशित हुई हैं| ‘छूटा हुआ सामान’ आपका चौथा लघुकथा-संग्रह है जिसमें कुल ७४ लघुकथाएँ संगृहीत हुई हैं|
प्रस्तुत संग्रह में अधिकाँश लघुकथाएँ संवेदना जागृत करती हुई हैं| इस संग्रह में आपने विभिन्न विषयों पर कलम चलाई है जिसमें से सेवानिवृति, किन्नर, पारिवारिक पृष्ठभूमि पर आधारित लघुकथाओं के साथ-साथ मालिक एवं नौकर, पडोसी प्रेम पर आधारित, दोस्ती पर आधारित, बाल-मन पर केन्द्रित लघुकथाएँ, संवेदना जागृत करती हुई लघुकथाएँ, इत्यादि विषय शामिल हैं|
सर्वप्रथम संवेदना जागृत करती हुई लघुकथाओं की चर्चा करें तो इस शीर्षक के अंतर्गत, ‘जाति के पार’,’माँ का मरना’,’छूटा हुआ सामान’, ‘बोल न मुन्ना’ इत्यादि लघुकथाएँ हैं जिसमें से ‘छूटा हुआ सामान’ इस संग्रह की सर्वश्रेष्ठ लघुकथा है जिसका विषय लिक से हटकर है| इस लघुकथा में एक बेटी तनुजा विवाह के उपरान्त पहली बार मायके आती है और वह हर उस जगह जाती है जहाँ-जहाँ विवाह के पहले जाया करती थी और बाज़ार से वो सामान खरीदती है जिसको वह खरीदा करती थी| तनुजा की माँ उसको अपना सामान समेट ने को कहती है परन्तु तनुजा बार-बार घर के बाहर चली जाती है जिसपर उसकी माँ उसको डाँट कर कहती है, “तेरे पाँव में टिकाव न है, यहाँ-वहाँ उड़ती फिर रही है छोरी|”
फिर उसके मासूम से चेहरे को देखकर माँ की आँखे नम हो जाती हैं व् भर्राए स्वर में कहती हैं, “कितनी बार कहा है तुझे, अपना सामान समेट ले बेटा|”
इसपर तनुजा यह कहते हुए, “माँ सुबह से छूटा हुआ सामान ही तो बटोर रही हूँ|” फफक-फफककर रो पड़ती है और माँ के गले में झूल जाती है| यह लघुकथा पाठकों के हृदयतल को स्पर्श करेगी ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास है| यह लघुकथा प्रस्तुत संग्रह की प्रतिनिधि रचना भी है जिसको लेखिका ने बहुत ही मनोभाव से प्रस्तुत किया है दूसरे शब्दों में यह कहना कि इस सम्पूर्ण संग्रह की आत्मा इस एक लघुकथा में बस गयी है तो अतोशयोक्ति न होगी| जाति-वाद की बात करें तो वर्तमान समय में भी ऐसे संकीर्ण सोच वाले लोग समाज में प्रत्यक्ष हो जाते हैं जो जाति-पाती को मानकर अपने को सर्वश्रेष्ठ समझते हैं और दलित वर्ग को निम्न समझकर उनका तिरस्कार करते हैं| इसी विषय पर आधारित ‘जाति के पार’ अपने उद्देश्य को संप्रेषित करती है| ‘माँ का मरना’ एक मार्मिक लघुकथा है जिसके संवाद ह्रदय को स्पर्श कर जाते हैं| ‘बोल न मुन्ना’ का कथानक सुन्दर है जो एक वयोवृद्ध की मनोदशा को चित्रांकित करता है जो अपने बेटे से उपेक्षित होता आ रहा है| ‘बेटी का हिस्सा’ बेटी और बेटों में फर्क करने वालो हेतु सन्देश प्रेषित करता है कि बेटों के मुकाबले बेटियाँ अपने घर और परिवार के प्रति ज्यादा सजग एवं ममत्व रखती है | और बेटी के हिस्से में घर के संस्कार और भावनात्मक बंधन आता है जिसको वह ह्रदय से निभाती है | इसी से मिलती-झूलती एक और लघुकथा को देखा-परखा जा सकता है जो ‘एक ही बेटा’ शीर्षक से प्रेषित हुई है| इस लघुकथा में एक पिता के दो पुत्र होने के बावजूद सिर्फ छोटा बेटा उनके पद-चिह्नों पर चलता है परन्तु पिता के मरणोपरांत किसी मंच के द्वारा सम्मान मिलना होता है परन्तु यहाँ बड़ा बेटा जाने की इच्छा जताता है और चला भी जाता है | परन्तु लोग उसको पहचान नहीं पाते और कहते हैं, “अरे! हमने तो सोचा उनका एक ही बेटा है|” इस अन्तिम वाक्य ने हजारों ऐसे गालों पर चांटे रसीद दिए से प्रतीत होता है जो नाम कमाने के खातीर अपने पूर्वजों को सीढी बनाकर चलने में भी शर्मिंदगी का एहसास नहीं कर पाता | यह लघुकथा अपने अन्तिम वाक्य के कारण सुन्दर बन पड़ी है|
‘सच तो यही है’ पुरुष-प्रधान सोच को उजागर करती एक बेहतरीन लघुकथा है जिसमें पति के सामने जब पत्नी महिलाओं की उपलब्धियों को गिनवाती है और उनकी सफलता का गुणगान कर समाज में स्त्री-पुरुष समानता को लेकर अपना पक्ष रखने का प्रयास करती है, परन्तु पति का पुरुष मन उसकी बातों से आहत् होता है और उसके अहम् को ठेस लगती है और वह अपनी पत्नी को बाहुपाश में लेकर कहता है, “हाँ यार! कह तो तुम ठीक रही हो|” और उसको बेडरूम में ले जाता है और अपनी विकृत सोच को प्रदर्शित कर अपनी पत्नी के साथ जबरदस्ती कर अपने मन-मष्तिष्क में अटका गुबार दाग देता है और कुटिल मुस्कान फैंकते हुए कहता है, “हाँ, तो क्या कह रही थी तुम! महिलाओं का बराबरी का बखान...वो तो बहुत दूर की कौड़ी है, पहले तुम ‘योअर बॉडी इज़ योअर ओन’ का तो एहसास कर लो|” यह इस लघुकथा का चरम संवाद है जिसने इस लघुकथा को उत्कृष्टता की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया है और इस लघुकथा का अन्तिम वाक्य जो इस लघुकथा के उद्देश्य को सिद्ध करता है को भी अवलोकित किया जा सकता है, ‘समानता का काँटा मुँह चिढाने लगा, तिलमिला उठी सुनंदा|’ इसका नकारत्मक अंत पढ़कर पाठक के मन में वर्तमान समाज में स्त्री को समान अधिकारों के दंभ भरने वालों पर कई सवाल खड़े करती है|
वर्तमान समय में संवेदनाएँ समाज से विलुप्त-सी हो गयी हैं | स्वार्थ ने हर घर-परिवार ने डेरा-सा डाल दिया है| अगर घर में कोई सेवानिवृत हो गया है तो उसकी दुर्दशा और उसको हीन समझकर उसको तिर्रस्कृत कर उनके साथ बदसलूकी करना अथवा अपने घर के छोटे-मोटे काम करवाना यह आम बात हो गयी है| इसी मुद्दे को लेकर लेखिका चिंतित दिखाई पड़ती है और अपने लेखकीय धर्म का पालन करते हुए सेवानिवृत विषय को आधार बनाकर आपने इस संग्रह में कुछ बहुत ही सुन्दर लघुकथाएँ प्रेषित की है जिसमें ‘सेवानिवृत्ति’, ‘बोझिल कंधे’, ‘तब और अब’ जैसी अच्छी और सार्थक लघुकथाएँ प्रेषित हुई हैं|
लघुकथा ‘पर्त-दर-पर्त’ प्रस्तुत संग्रह की एक और उत्कृष्ट लघुकथा है जिसमें सोने के पिंजरे में क़ैद मंजू की मनोदशा बहुत ही करीने से चित्रांकन किया गया है| एक ऐसा घर जिसमें आधुनिक यंत्र मौजूद हैं जिसका उपयोग वह घर में काम करने वालों पर निगरानी करने के लिए एवं अपनी सहेली के सामने दिखावा करने के लिए इस्तमाल करती है |
सोने के पिंजरे में बंद कथानायिका की मनोदशा इस संवाद से समझी जा सकती है, “भगवान् ने मुझे सब सुख दिए हैं मधु! रुपया-पैसा नौकर-चाकर, बस एक सेहत नहीं दी| मेरा ब्लड प्रेशर काबू में नहीं रहता, जब मर्जी शूट हो जाता है, ऊपर से शुगर की बिमारी...कभी-कभी तो डिप्रेशन में चली जाती हूँ|
यहाँ कथानायिका के दर्द का एहसास होता है कि भौतिक सुख होते हुए भी वह अपने-आप में स्वस्थ नहीं है का एहसास करवाती है | यह इस लघुकथा संग्रह की एक उत्कृष्ट रचनाओं में से एक है|
‘आश्वस्ति’ एक मनोवैज्ञानिक लघुकथा है जिसमें पति-पत्नी के प्रगाढ़ प्रेम को न सिर्फ उजागर करता है अपितु उन माता-पिता के दर्द का भी एहसास करवाने में सफल होती है जिनके बच्चे अन्य प्रदेशों में खा-कमा रहे हैं और बुढ़ापे में उनको अकेला कर देती है | इस लघुकथा में यह दर्शाया गया है कि घर में सन्नाटे को तोड़ने हेतु कुछ न कुछ बोलना कितना आवश्यक होता है| यही इस लघुकथा का उद्देश्य है |
‘आत्मसम्मान’ लघुकथा में यह दर्शाया गया है कि काम करने वाली बाइयों में भी अपने आत्मसम्मान होता है जिसका हनन होता देख वह अपनी मालकीन के आगे आक्रोश से विद्रोह दर्ज करवाती हुई नज़र आती है| यह एक अच्छी लघुकथा है | जो यह सन्देश संप्रेषित करती है कि आत्मसम्मान के लिए लड़ना प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार होता है फिर भले ही वह एक ऐसी स्त्री हो जो घरों में काम करने वाली बाई ही क्यों न हो|
‘गाली’ लघुकथा में किन्नर समाज द्वारा नारी के सम्मान के लिए आवाज़ उठाई गयी है और घर में बेटी के जन्म पर उदासीन होने वालों को इस बात का एहसास करवाती हुई प्रतीत होती है कि बेटा और बेटी समान होते हैं| यह किन्नर समाज के उदार ह्रदय की सोच को उजागर करती एक अच्छी लघुकथा है|
इस संग्रह में कुछ ऐसी लघुकथाएँ भी हैं जिसमें लेखिका ने समाज को किस तरह से होना चाहिए यानी की आदर्श समाज को चित्रांकित करने का प्रयास किया है | ऐसी लघुकथाएँ उत्तम कहलाती है जब लेखक अपने लघुकथाओं के माध्यम से पाठकों के ह्रदय में आदर्श स्थापित करवाने में मददगार होती हैं| डॉ.शील कौशिक ने इस तरह की लघुकथाओं को लिखकर न सिर्फ अपना लेखकीय कौशल को दर्शाया है अपितु आपने एक लेखक होने का धर्म भी निभाया है| ‘ज़िद अच्छी है’ लघुकथा इसमें से एक है जिसमें श्राद्ध पक्ष में नए भवन की शुरुआत करने की घटना को दर्शाया गया है | इस लघुकथा के माध्यम से लेखिका ने यह दर्शाने का प्रयत्न किया है कि श्राद्ध पक्ष में बीती-पीढ़ी को गौरव देने व पुनः स्मरण करने के दिन होते हैं तो ये अशुभ कैसे हो सकते है? और बड़े हमारा अहित कैसे होने दे सकते हैं? वे तो आशीर्वाद ही देंगे, हमारी ख़ुशी में खुश होंगे...|” और इस हेतु कथानायक जिद करता है और ठेकेदार से कहता है, “सोच लो भाई! तुम्हारी मर्जी है! अगर तुम काम शुरू करना नहीं चाहते, तो मैं किसी और से बात करूँ...|” इस ज़िद के आगे ठेकेदार झूक जाता है और कहता है, “यह ज़िद अच्छी है बाबूजी! काश ऐसी ज़िद...”
‘श्राध्दो में अपने साथ-साथ कई मजदूरों की रोज़ी-रोटी सुनिश्चित देख ठेकेदार विनम्रता से हाथ जोड़ देता है|’ इस अन्तिम वाक्य में लघुकथा का मर्म छिपा है जिस कारण यह लघुकथा अच्छी बन पड़ी है|
‘कमजोर कलाई’, ‘बहन की शादी’ जैसी लघुकथाओं को लिखकर लेखिका ने यह साबित कर दिया है कि वह ऐसी युवा पीढ़ी के लिए भी चिंतित हैं जो ड्रग्स लेते हैं और इसके चलते वह गुमराह हो जाते हैं परन्तु उनको राह पर लाने हेतु परिवार का साथ होना अति आवश्यक होता है और अगर उनको सच्चे हृदय से उनकी जिम्मेदारियों का एहसास करवाया जाए तो वह सही राह पर आ सकते हैं| ऐसी सम्भावना को जगाना भी लेखिका के समाज के प्रति अपनी चिंता जताने का एक सफल प्रयास है जो न सिर्फ इस तरह की गंभीर समस्या को उजागर करती हैं अपितु इस समस्या से निकलने हेतु मार्ग भी दिखा रही हैं|
प्रस्तुत संग्रह में लेखिका ने हर उम्र के लोगों पर कलम चलाई है जिसमें बच्चे भी शामिल हैं| बाल-मन पर आधारित लघुकथाओ में ‘खोते जा रहे पल’ जैसी सुन्दर और बाल मनोविज्ञान पर आधारित के बेहतरीन प्रस्तुति है जिसमें एक नौ वर्षीय बच्ची स्वरा के जन्मदिन के लिए वह स्वयं ही पड़ोस की सहेलियों के साथ तैयारियों में जुट जाती है और अपने कमरे को सुन्दर ढंग से सजा लेती है| उसकी मम्मी ने खूब सारा खाने का सामान जैसे पिज़्ज़ा, चाउमिन, चॉकलेट, तरह-तरह के चिप्स के पैकेट्स और जूस आदि बाज़ार से मँगवा देती हैं | वह अपनी बेटी की पसंद-नापसंद को नज़रंदाज़ कर मोबाइल में व्यस्त हो जाती हैं और उसको यह बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा था कि स्वरा उसको बार-बार सबके बीच लेकर आ रही थी|
शाम होते-होते स्वरा उपहारों को खोलकर बैठ जाती है और देखती है कि उसकी मम्मी मोबाइल में फेसबुक पर जन्मदिन की चुन-चुनकर फ़ोटोज़ पोस्ट करने में व्यस्त हैं और जब वह पापा को अपने उपहार दिखाने का प्रयास करती है तब वह यह कहकर टाल देते हैं, “बेटा! मुझे सुबह ऑफिस के काम से जल्दी चंडीगढ़ जाना है|”
स्वरा उदास हो जाती है और कुछ देर बाद उपहारों के बीच बैठे-बैठे ही सो जाती है|
अपने ही मम्मी-पापा से उपेक्षित हो एक बच्चे की क्या मनोदशा हो जाती है का बहुत ही सुन्दर चित्रांकन इस लघुकथा के माध्यम से किया गया है|
प्रस्तुत लघुकथा-संग्रह में लेखिका ने विभिन्न विषयों पर कलम चलाई है| एक से बढ़कर एक लघुकथाएँ प्रस्तुत की गयी हैं जो ज़मीन से जुडी हुई प्रत्यक्ष होती हैं| पात्रों का चयन, भाषा-शैली भी कथानक के अनुरूप है| कुल मिलाकार इस लघुकथा संग्रह को पढने के उपरान्त मैं इस निष्कर्ष पर पहुँची हूँ कि यह संग्रह पाठकों के ह्रदय में अपना स्थान बनाने में सफल होगा | मैं लेखिका को इस बेहतरीन लघुकथा संग्रह हेतु बधाई प्रेषित करती हूँ और भविष्य में भी आपकी लेखनी को पाठकों के मध्य पहुँचाने हेतु शुभकामनाएँ प्रेषित करती हूँ|
- कल्पना भट्ट