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गुरुवार, 24 नवंबर 2022

लघुकथा में विक्रम-बैताल शैली | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

बैताल पच्चीसी (वेतालपञ्चविंशतिः) की छोटी-कथाओं की तरह ही लघुकथा में भी इस शैली का प्रयोग किया जा सकता है. बैताल पच्चीसी के शिल्प की बातों के अतिरिक्त इस शैली में मेरे अनुसार निम्न बातों पर ध्यान दिया जा सकता है:

  • मूल बैताल पच्चीसी में बैताल द्वारा कहीं छोटी कहानी तो कहीं लघुकथा भी कही गई है, लेकिन इसमें बैताल द्वारा कही गई लघुकथा ही हो (एकांगी स्वरुप हो.) हालांकि इस बात का एक पक्ष यह भी है कि चूँकि बैताल कह रहा है अतः यह अपने आप में एकांगी है और तब उसकी कथा में छूट ली जा सकती है, ठीक उसी प्रकार जैसे फ्लैशबैक तकनीक, डायरी शैली आदि में रचनाकर्म किया जाता है. आगे जो पहली रचना है उसे कुछ ऐसा ही रखा गया है.
  • बैताल द्वारा सुनाई जा रही कथा स्पष्ट हो.
  • बैताल द्वारा सुनाई जा रही कथा को बैताल द्वारा ही अंतिम स्वरुप न देकर उसे इस तरह से आगे बढाना है कि अंत तक आते-आते वह रचना एक प्रश्न का सर्जन कर ले.
  • उपरोक्त बिंदु में कहा गया प्रश्न ही बैताल विक्रम से पूछे और विक्रम उसका उत्तर दे. इस भाग (उत्तर) में जो विशेष बात मुझे समझ में आती है कि लघुकथा का एलिमेंट ऑफ़ सरप्राइज़ या वास्तविक विषय विक्रम के उत्तर में उजागर हो सकता है.
  • बाकी रचना के प्रारम्भ में विक्रम द्वारा बैताल को पेड़ से उतार कर कंधे पर लादना, बैताल द्वारा मौन रहने की शर्त और अंत में फिर उड़ जाना, वो तो हो ही सकता है.

किसी भी शैली में सुधार सतत प्रक्रिया है. लेखक/लेखिकाएं केवल उपरोक्त बिन्दुओं पर ही निर्भर न रहें, स्वयं भी सोचें व प्रयोग करें. निवेदन है. उपरोक्त बिन्दुओं में कमियाँ भी हो सकती हैं. आप सभी की सलाहों का स्वागत है.

यहाँ पहले विक्रम-बेताल शैली की लघुकथा व शैली का थोड़ा सा प्रयोग कर एक अन्य लघुकथा का प्रयास किया है, यह दोनों रचनाएं निम्न हैं:

बातों के पीछे / चंद्रेश कुमार छतलानी

(प्रथम ड्राफ्ट)

बैताल को पकड़ने विक्रम फिर श्मशान में पेड़ पर लटके बैताल के पास गया। उसे उतारकर अपने कंधे पर लादा और ले चला। बैताल ने हँसते हुए एक कथा फिर, विक्रम के मौन रहने की शर्त के साथ, कहनी शुरू की। कथा इस तरह से थी,

एक राजा ने उसके राज्य में सोने के सिक्कों का चलन बंद कर ताम्बे के सिक्के शुरू कर दिए। दोनों धातुओं की मुद्राओं का मूल्य और वज़न बराबर था। राजा और उसके मंत्रियों ने जनता से कहा कि एक तो सोने के सिक्के महंगे पड़ते हैं और इसका संग्रह कर लोग इस चमकती धातु से काला धन इकठ्ठा कर रहे हैं। अतः यह बदल दी गई है। सभी को आदेश दिया जाता है कि दस दिनों के अंदर-अंदर सभी पुरानी मुद्रा को नई से बदलवा लें, उसके बाद जिस किसी के पास भी पुरानी मुद्रा पाई गई उसे दण्ड मिलेगा।

राजा के कुछ विरोधी बहुत धनवान थे और उनके पास बहुत सारे सोने की मुद्राएं जमा की हुईं थी, उन्हें चिंता हो गई क्योंकि अब उनका धन जब बदलवाया जाएगा तो सभी को पता चल जाएगा कि उनके पास बहुत ज़्यादा धन है। राजा के एक मंत्री ने क्या किया कि, किसी को कानोंकान खबर हुए बिना उन विरोधियों से पुराने सिक्के लेकर नए सिक्के दे दिए।

लेकिन यह बात किसी तरह राज्य दरबार में पता चल गई। राजा ने पूरी बात सुनकर मंत्री की तरफ देखा, मंत्री मुस्कुराया, उसे मुस्कुराते देख राजा भी मुस्कुरा दिया और राजा ने मंत्री को सम्मान के साथ इस दोष से मुक्त कर दिया।

यह कथा सुनाकर बैताल ने विक्रम से पूछा कि, "बता विक्रम! मंत्री ने उसके विरोधियों का पूरे का पूरा धन नए में बदल दिया, फिर भी राजा ने उसे क्यों छोड़ा? अगर जानते हुए भी उत्तर नहीं देगा तो तेरे सिर के सौ टुकड़े हो जाएंगे।"

विक्रम ने उत्तर दिया कि "बैताल! वह मंत्री ताम्बे के सिक्कों के बदले में बराबर भार के सोने के सिक्के लाया। अगर राजा के विरोधी उस सोने को गला कर ताम्बे के सिक्के खरीदते तो बहुत ज्यादा मूल्य के होते और वे पहले से अधिक धनवान हो जाते। मंत्री की बुद्धिमानी राजा और राज्य के खजाने के लिए लाभदायक सिद्ध हुई।"

बैताल हँसते हुए बोला, "सच कहा विक्रम! काले धन की बात केवल डर के लिए फैलाई गई थी लेकिन असली मकसद विरोधियों का स्वर्ण निकालना था जो पूरा हुआ। राजनीति में कहा कुछ और जाता है और उसके पीछे मंतव्य कुछ और होता है। तूने कहा तो बिल्कुल सही, लेकिन तू बोल गया इसलिए मुझे जाना होगा।"

और अगले ही क्षण वह विक्रम के कंधे से उड़ कर श्मशान की तरफ चला गया।

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उपरोक्त रचना पर एक टिप्पणी

उपरोक्त रचना में बेताल जब कथा सुनाता है तो, राजा के दरबार में मंत्री को बंदी बना कर लाया गया, यहाँ से भी प्रारम्भ कर सकते हैं और तब कोई अन्य दरबारी उस पूरी घटना का उल्लेख करे, जो  फिलहाल  दरबार  में लाये जाने के पूर्व में कहा गया है. 

यह तब किया जा सकता है, जब बेताल द्वारा कही जा रही कथा को भीआधुनिक लघुकथा की तरह ही न्यूनतम विवरण के साथ रखा जाना हो.  हालांकि इससे कथा में तो कुछ फर्क नहीं पडेगा, लेकिन लेखन का तरीका कुछ बदल जाएगा. 

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एक अन्य लघुकथा जिसमें इस शैली में ही थोड़ा परिवर्तन (बेताल का प्रश्न पूछना हटा कर कथ्य में थोड़ा बदलाव) किया गया है. रचना इस प्रकार है:

गुलाम अधिनायक / चंद्रेश कुमार छतलानी

उसके हाथ में एक किताब थी, जिसका शीर्षक ‘संविधान’ था और उसके पहले पन्ने पर लिखा था कि वह इस राज्य का राजा है। यह पढने के बावजूद भी वह सालों से चुपचाप चल रहा था। उस पूरे राज्य में बहुत सारे स्वयं को राजा मानने वाले व्यक्ति भी चुपचाप चल रहे थे। किसी पुराने वीर राजा की तरह उन सभी की पीठ पर एक-एक बेताल लदा हुआ था। उस बेताल को उस राज्य के सिंहासन पर बैठने वाले सेवकों ने लादा था। ‘आश्वासन’ नाम के उस बेताल के कारण ही वे सभी चुप रहते। 

वह बेताल वक्त-बेवक्त सभी से कहता था कि, “तुम लोगों को किसी बात की कमी नहीं ‘होगी’, तुम धनवान ‘बनोगे’। तुम्हें जिसने आज़ाद करवाया है वह कहता था – कभी बुरा मत कहो। इसी बात को याद रखो। यदि तुम कुछ बुरा कहोगे तो मैं, तुम्हारा स्वर्णिम भविष्य, उड़ कर चला जाऊँगा।”

बेतालों के इस शोर के बीच जिज्ञासावश उसने पहली बार हाथ में पकड़ी किताब का दूसरा पन्ना पढ़ा। उसमें लिखा था – ‘तुम्हें कहने का अधिकार है’। यह पढ़ते ही उसने आँखें तरेर कर पीछे लटके बेताल को देखा। उसकी आँखों को देखते ही आश्वासन का वह बेताल उड़ गया। उसी समय पता नहीं कहाँ से एक खाकी वर्दीधारी बाज आया और चोंच चबाते हुए उससे बोला, “साधारण व्यक्ति, तुम क्या समझते हो कि इस युग में कोई बेताल तुम्हारे बोलने का इंतज़ार करेगा?”

और बाज उसके मुंह में घुस कर उसके कंठ को काट कर खा गया। फिर एक डकार ले राष्ट्रसेवकों के राजसिंहासन की तरफ उड़ गया।

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आप सभी की राय अपेक्षित है. सादर, 

 - चंद्रेश कुमार छतलानी

मंगलवार, 22 नवंबर 2022

लघुकथा के शिल्प पर एक प्रयोग

कुछ माह पहले लघुकथा के शिल्प पर एक प्रयोग यह भी किया था. सफल-असफल तो पता नहीं, केवल छोटा-मोटा प्रयोग है. आप सभी की सलाहों का स्वागत है.

इस रचना में काफी कालखंडों को भी समेटने की कोशिश की है. अतः थोड़ी मेहनत तो करनी पड़ी और असफल होने की गुंजाइश भी पूरी है. उसका डर नहीं है. यह तो केवल एक प्रयोग सा है. मेरे अनुसार भी इस लघुकथा पर बहुत सारा काम बाकी है.

(‘गणितीय टेबल शिल्प में बढ़ती लघुकथा’ के प्रयोग का दूसरा ड्राफ्ट)

टेबल के बाद... / चंद्रेश कुमार छतलानी

टू वन जा टू : दो साल की हो गई गुड़िया आज, चलना सीख रही है, माता-पिता बहुत खुश हैं.
टू टू जा फोर : आज चार साल की होकर माता-पिता को रिझा रही है. पढ़ना सीख रही है.
टू थ्री जा सिक्स : छः साल की हुई और स्कूल में फर्स्ट आई है. माता-पिता घमंड से खड़े हैं.
टू फोर जा एट : आठ साल की घर पर उसके दोस्त ही दोस्त हैं. माता-पिता उसके साथ एन्जॉय कर रहे हैं.
टू फाइव जा टेन : दस साल की हो गई, इस बार दोस्तों के साथ बाहर है. माता-पिता घर में अकेले हैं.
टू सिक्स जा ट्वेल्व : माँ की दोस्त बारह साल की हो गई, आज दिन भर फोन पर व्यस्त रही. माता-पिता से बात भी नहीं कर पाई.
टू सेवन जा फोर्टीन : स्कूल के एक दोस्त के साथ आज जन्मदिन मना रही है. रात देर से आई. माता-पिता इंतज़ार करते रहे.
टू एट जा सिक्सटीन : आज कह दिया कि अब उसकी ज़िन्दगी वह उसके हिसाब से ही जियेगी. माता-पिता कुछ दखल नहीं देंगे.
टू नाइन जा एटीन : व्यस्क होकर अपने किसी दोस्त के साथ लिव-इन में चली गई. माता-पिता देखते रह गए.
टू टेन जा ट्वेंटी : जिसके साथ रह रही थी, वह किसी और लड़की के साथ चला गया, माता-पिता की आँखें पत्थर जैसी हो गई हैं, और गुडिया...
वह अब आगे गिनने के लिए नहीं है.
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(इसमें हालांकि //टू वन जा टू// वाली पंक्तियों में 'जा' सही न होते हुए भी अब बोलचाल में आ गया है, इसलिए उपयोग में लिया.)

- चंद्रेश कुमार छतलानी

शनिवार, 19 नवंबर 2022

लघुकथा में साक्षात्कार शैली का एक प्रयोग | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

एक मिश्रित शैली की लघुकथा को साक्षात्कार शैली में भी ढाला जा सकता है. एक उदाहरण का प्रयास किया है. यह एक साक्षात्कार और विवरण शैली की मिश्रित लघुकथा है, जो लघुकथा कलश के अंक 10 में प्रकाशित हुई थी:


प्रश्नशून्य काल/चंद्रेश कुमार छतलानी


"जब आप मुख्यमंत्री थे, तब तो आपने राज्य के विकास के लिए कुछ नहीं किया और अब विकास के यही सवाल आप वर्तमान सरकार से क्यों पूछ रहे हैं?" एक टीवी चैनल पर इंटरव्यू में सवाल दागा गया।
पूर्व मुख्यमंत्री मुस्कुराने लगे।
यह देख प्रश्नकर्ता का हौसला और बढ़ गया और तेज़ आवाज़ में उसने फिर पूछा, "चुप क्यों हैं सर? बताइए कि आपकी सरकार ने क्या किया था?"
पूर्व मुख्यमंत्री के चेहरे की मुस्कुराहट और गहरी हो गई।
अब तो प्रश्नकर्ता चीख ही उठा, "मेरे सवाल का जवाब नहीं है ना आपके पास, कि आपने राज्य के विकास के लिए कुछ क्यों नहीं किया?"
"क्योंकि जब मैं मुख्यमंत्री था, तब किसी भी मीडिया ने मुझसे प्रश्न नहीं किए।"
उत्तर देते हुए पूर्व मुख्यमंत्री का चेहरा गंभीर हो गया। एक क्षण की खामोशी के बाद वे फिर बोले,
"काश! आप सरकारों से भी प्रश्न पूछते।"
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इस लघुकथा को हम साक्षात्कार शैली में कुछ इस प्रकार से ढाल सकते हैं:


प्रश्नशून्य काल/चंद्रेश कुमार छतलानी

प्रश्नकर्ता: "जब आप मुख्यमंत्री थे, तब तो आपने राज्य के विकास के लिए कुछ नहीं किया और अब विकास के यही सवाल आप वर्तमान सरकार से क्यों पूछ रहे हैं?"

पूर्व मुख्यमंत्री: ...(खामोश) मुस्कराहट।

प्रश्नकर्ता तेज़ आवाज़ में: "चुप क्यों हैं सर? बताइए कि आपकी सरकार ने क्या किया था?"

पूर्व मुख्यमंत्री: ...(खामोश) गहरी मुस्कराहट।

प्रश्नकर्ता चीखते हुए: "मेरे सवाल का जवाब नहीं है ना आपके पास, कि आपने राज्य के विकास के लिए कुछ क्यों नहीं किया?"

पूर्व मुख्यमंत्री: "क्योंकि जब मैं मुख्यमंत्री था, तब किसी भी मीडिया ने मुझसे प्रश्न नहीं किए।"

एक क्षण की खामोशी।

पूर्व मुख्यमंत्री: "काश! आप सरकारों से भी प्रश्न पूछते।"

खामोशी।
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(इसमें कोई सुधार लगे तो कृपया चर्चा ज़रूर करें,)
सादर,

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

बुधवार, 16 नवंबर 2022

लघुकथा विधा में समाचार शैली का नवीन प्रयोग | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

इन दिनों योगराज प्रभाकर जी सर ने लघुकथा कलश के आगामी (11 वें) अंक हेतु रचनाएं मांगी हैं. यह एक विशिष्ट अंक होने वाला है, क्योंकि इसमें उन्होंने नए और अनछुए (कम-छुए) शिल्पों में ढली रचनाएं मांगी हैं. 

मेरे अनुसार यह हम सभी के लिए प्रयोग करने का अवसर होने के साथ-साथ एक चुनौतीपूर्ण कार्य भी है. कई मित्रों के दिमाग में आ सकता है कि चुनौती कैसी? यह तो बहुत आसान कार्य है. जी हाँ! आसान हो भी सकता है लेकिन मैं अपनी बात कहूं तो, लघुकथा कलश के पिछले अंक में मैंने 'समाचार शिल्प' की एक रचना कही थी. मुझे काफी समय लगा तो मेरे जैसे कुछ अन्य लेखक/लेखिकाएं भी होंगे ही. इसी कारण इस लेख का विचार भी आया. 

यहाँ मैं अपनी 'समाचार शिल्प' की एक लघुकथा के सर्जन के बारे में कुछ कहना चाहूंगा. इसके सर्जन के समय सबसे पहले दिमाग में यह आया था कि वह लघुकथा उत्तम नहीं कही जाती जो किसी समाचार सरीखी हो, मतलब उसका कथानक समाचार जैसा हो. लेकिन शिल्प के लिए तो किसी ने मना नहीं किया. यह विचार आते ही इस पर काम शुरू किया. समाचार पत्रों में समाचार बनाना मैंने थोड़ा-बहुत सीखा हुआ था, अतः शिल्प की जानकारी थी ही. फिर आगे बढ़ा तो समस्या आई - कथानक की

आदरणीय सुधीजनों, हम सभी जानते हैं कि, हर कथानक हर विधा के लिए उपयुक्त हो यह संभव नहीं. इसके एक कदम अंदर की तरफ,  मेरे अनुसार, हर कथानक हर शिल्प के लिए उपयुक्त हो, यह भी संभव नहीं. और, यही समस्या मेरे समक्ष थी. जो कथानक दिमाग में आते, उन्हें समाचार शिल्प में ढालने की कोशिश करता तो असफल हो जाता. एक तरीका था मेरे पास कि समाचार पत्र पढ़-पढ़ कर उनमें कोई कथानक ढूंढूं. वह कार्य भी किया, लेकिन जो कथानक मिले, उनमें नवीनता नहीं मिल पाई या फिर यूं भी कह सकते हैं कि मुझे ठीक नहीं लगे.

कई बार किसी काम के लिए महीने बीतते वक्त नहीं लगता है. सो इस बारे में कभी सोचते तो कभी न भी सोचते कुछ महीनों बाद एक कथानक का विचार आया, जो कि 'समाचार शिल्प' में ढाला जा सकता था. (यह लघुकथा अंत में दी गई है.) 

कुछ सोच कर उस पर काम शुरू किया और फिर धीरे-धीरे वह रचना बनती गई. ईश्वर कृपा से योगराज जी सर को ठीक भी लगी और लघुकथा कलश के 10वें अंक में प्रकाशित भी हो गई.

यह लेख का एक भाग था, आगे के भाग में मैं, समाचार शिल्प के बारे में ही कुछ बात रखना चाहूँगा, कि इस तरह के शिल्प में क्या-क्या हो सकता है. यह केवल प्राथमिक जानकारी हेतु ही है, अधिक के लिए आप अधिक अध्ययन कर ही सकते हैं.

समाचार

अपने आसपास से लेकर सूदूर अंतरिक्ष की घटनाओं की जानकारी प्राप्त होने को समाचार कहा जा सकता है. जानकारी प्राप्त करने का सबसे पुराना माध्यम समाचार ही है. लेकिन अनौपचारिक चर्चा या कुशलक्षेम पूछने में समाचार शब्द आए तो भी वह समाचार की श्रेणी में नहीं आता.

समाचार के गुण 

1. नवीनता: जो समाचार एक बार कहीं से प्राप्त हो जाए, वह अन्य किसी बड़े माध्यम से प्राप्त हो तो भी वह पुराना हो जाता है.

2. विशेषता: समाचार नया होने के साथ विशेष भी होना चाहिए. जैसे, मंत्री जी ने चप्पल पहना. यह बात नवीन हो सकती है, लेकिन इसमें क्या विशिष्टता है? यह हम सभी अच्छी तरह समझते ही हैं. हाँ! मंत्री जी बिना चप्पल पहन कर उबड़-खाबड़ रास्तों पर चले. यह बात ज़रूर विशिष्ट हो सकती है.

3. व्यापकता: समाचार के अंग्रेज़ी नाम NEWS के अनुसार ही समाचार का क्षेत्र हमारे आसपास से लेकर सूदूर अंतरिक्ष तक हो सकता है, जैसे पहले यहाँ लिखा भी है.

4. प्रामाणिकता: सत्य और तथ्यों पर आधारित ही कोई घटना समाचार बन सकती है. कोई भी अफवाह या प्रतीकों का इसमें स्थान नहीं होता. यह बात अपने लेखन से पूर्व ज़रूर ध्यान रखें.

5. रूचिपूर्णता: समाचार लेखन इस तरह का होना चाहिए, जो पढने में रुचिकर हो.

6. प्रभावशीलता: जो समाचार जितनी दक्षता से प्रभावशाली होता है, वही बेहतर कहलाता है.

7. स्पष्टता: यह समाचार का विशेष गुण है, लेखन-शैली अलंकारिक/क्लिष्ट आदि न होकर किसी भी प्रबुद्ध पाठक से लेकर कम पढ़े लिखे व्यक्ति तक की समझ में आ जाए, ऐसी हो. भाषा ऐसी हो जिसमें अनावश्यक विशेषण, अप्रचलित शब्दावली आदि का प्रयोग न हो. किसी के नाम से पूर्व श्री, श्रीमान आदि भी नहीं लगते हैं. 

समाचार कैसे लिखे जाएं?

छह ककारों (क्या, कौन, कहाँ, कब, क्यों और कैसे) का ध्यान रखते हुए, अधिकतर समाचार उल्टी पिरामिड शैली में लिखे जाते हैं. यह इस प्रकार है:

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\  क्लाइमेक्स (इंट्रोडक्शन)  /

  \         बॉडी                /

    \       समापन          /

       \                        /

क्लाइमेक्स (इंट्रोडक्शन) : समाचार का शीर्षक भी कहा जा सकता है. अधिकतर बार इसमें क्या, कौन, कहाँ और कब इन चार ककारों के बारे में 10-20 शब्दों में कहा जाता है. शीर्षक एक से अधिक भी हो सकते हैं. निम्न उदाहरण से समझते हैं, यह एक ही समाचार के मुख्य व उप शीर्षक हैं:

मंत्री जी बिना चप्पल पहले जैसलमेर की तपती रेत पर चले

देश-बचाओ यात्रा का तीसरा दिन गर्म रहा

बॉडी: समाचार की बॉडी में इंट्रोडक्शन की व्याख्या और विश्लेषण किया जाता है.  इसके प्रारम्भ में इंट्रोडक्शन को विस्तृत करते हुए 30-50 शब्द और बाद में महत्व के अनुसार घटते क्रम में सूचनाएं और ब्योरा होता है. यह 'क्यों और कैसे' दो ककारों के आधार पर लिखा जाता है. साथ ही अन्य चार ककारों का भी उचित प्रयोग (खास तौर पर प्रारम्भ में) किया जाता है. बॉडी में समाचार के किसी भाग को हाईलाइट करने के लिए उप-शीर्षक भी दिए जा सकते हैं.

समापन: जो बातें समाचार के इंट्रोडक्शन व बॉडी में छूट गई हैं. उन्हें समापन में स्थान दिया जा सकता है. इसके जरिए पाठक किसी निर्णय या निष्कर्ष तक पहुँच सकें. यह समाचार को पूर्ण करता हुआ, पठनीय व प्रभावशाली होना चाहिए.

'समाचार शिल्प' के साथ मेरी एक लघुकथा निम्न है: चूंकि शोध सम्बन्धी रचना है, अतः इसके प्रभावी होने के बजाय इसके प्रयोग पर ही मेहनत की थी। 

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हाँ! मैं हारूंगा / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

खड़े होने की हिम्मत न होने के बावजूद जीत की हासिल

भीड़ हारने वाले के पीछे पड़ी

विशेष संवाददाता, नया खेल: शहर की दैनिक रेसलिंग प्रतियोगिता में आज एक रेसलर हार कर भी जीत गया। अखाड़े के मैनेजर ने नया खेल के विशेष संवाददाता को बताया कि आज रिंग में बिगहैण्ड नाम से मशहूर पहलवान से लड़ने के लिए चुनौती की घोषणा के बाद पहले तो कोई भी उससे लड़ने के लिए तैयार नहीं हुआ, क्योंकि वह कभी नहीं हारा था। यह देख बिगहैण्ड रिंग में फुर्ती से टहलते हुए मखमली कपड़े की विजय पताका लहराने लगा। उसी वक्त एक दूसरा रेसलर बिगब्रेन चिल्लाता हुआ आया और उसकी चुनौती कबूल ली। रिंग के बाहर बिगब्रेन पर दांव लगने शुरू हुए। एक के दो होने पर भी कुछ ही दर्शकों ने उस पर दांव लगाया। लेकिन कुश्ती प्रारम्भ होते ही बिगब्रेन बिगहैण्ड पर भारी पड़ गया और उसके दांव का दाम बढ़ गया। अगले राउंड में तो बिगब्रेन ने बिगहैण्ड को ऐसा पटका कि वह खड़े होने में भी लड़खड़ाने लगा। अब बिगब्रेन पर एक के चार लगने शुरू हुए और बहुत सारे दर्शकों ने उस पर रुपये लगा दिए। लेकिन तीसरे राउंड के शुरू होते ही बिगहैण्ड ने बिगब्रेन के मुंह पर एक घूँसा मारा और उसी एक घूंसे में बिगब्रेन चित्त हो गया, वह खड़ा तक नहीं हो पाया और हर बार की तरह बिगहैण्ड विजेता घोषित कर दिया गया।

संवाददाता के बात करने के लिए बुलाने के बावजूद बिगहैण्ड अपनी मुट्ठियाँ ताने हाथों को उठाए हुए रिंग से बाहर निकलने को तैयार नहीं था। उधर अखाड़े से बाहर बिगब्रेन ने हार का कारण पूछने पर यही बताया कि वह चित्त हो गया था। संवाददाता कुछ और पूछे इसके पहले ही वह दौड़ कर भाग गया, उसकी जेब से कुछ नोट भी गिर गए, जिन्हें गिरते देख वह उठाने के लिए भी नहीं लौटा। काफी दर्शकों की भीड़ बिगब्रेन को देखती हुई भागती आ रही थी। 

भीड़ में कुछ लोग ऐसे भी थे जो गिरे हुए नोट को देख कर चिल्ला रहे थे – मेरा नोट-मेरा नोट।

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- चंद्रेश कुमार छतलानी

बुधवार, 12 अगस्त 2020

विश्व हिंदी सम्मलेन, मॉरीशस की पुस्तक विश्व हिंदी पत्रिका में लघुकथाओं के शीर्षक पर मेरा एक शोध पत्र

विश्व हिंदी सम्मलेन, मॉरीशस की पुस्तक विश्व हिंदी पत्रिका में लघुकथाओं के शीर्षक पर मेरा एक शोध पत्र।  इसकी जानकारी पूर्व में ही आ गई थी। अब यह विश्व हिंदी सम्मलेन के वेबसाइट http://www.vishwahindi.com/hi/default.aspx पर उपलब्ध है।


रविवार, 16 फ़रवरी 2020

शोधकार्य: मेरी कमज़ोर लघुकथा


लघुकथा दुनिया
iBlogger द्वारा Best Indian Hindi Blog से सम्मानित
ब्लॉगर ऑफ द ईयर 2019 का सम्मान प्राप्त
Email: laghukathaduniya@gmail.com, URL: http://laghukathaduniya.blogspot.com
Cell-Phone: 9928544749





सम्माननीय साहित्यकार,
सादर नमस्कार।

आप सभी के महती सहयोग से लघुकथा दुनिया द्वारा लघुकथा पर दो शोधकार्य सम्पन्न किये गये हैं। पहला कार्य लघुकथा के शीर्षक पर लघुकथा लेखकों के दृष्टिकोण, जिसके आधार पर एक शोध पत्र लिखा गया है और प्रकाशन के लिये भेज दिया गया है। दूसरा 'लघुकथा 2020: नए लेखकों की नज़र में', जिसका संकलन कार्य समाप्त हो चुका है और योगराज प्रभाकर जी सर के पास विश्लेषण हेतु भेजा गया है। इनमें सहयोग हेतु आप सभी का हृदय से आभारी हूँ। इसी क्रम को आगे बढाते हुए एक और शोध योजना प्रस्तावित है। आप सभी से निवेदन है कि इसे भी सफल बनावें। यह योजना कुछ इस प्रकार हैः

1. 'मेरी कमज़ोर लघुकथा' नामक यह योजना वरिष्ठ तथा नवोदित दोनों के लिए ही है।

2. इस कार्य में लघुकथा लेखकों से उनकी स्वयं की एक ऐसी रचना देने का निवेदन है जो उनके अनुसार लघुकथा के किसी न किसी (एक अथवा अधिक) पक्ष/पक्षों में कमज़ोर है और जिसे उसी (उन्हीं) कमज़ोरी (कमज़ोरियों) की वजह से प्रकाशित होने नहीं भेजा। उस रचना विशेष को किस वर्ष में लिखने का प्रयास किया गया, यह भी साथ में देवें।

3. रचना के साथ लेखक से एक वक्तव्य भी लिख कर देने का निवेदन है, जिसमें वे अपनी उस लघुकथा की कमज़ोरी/कमजोरियों को इंगित करें। इस हेतु शब्द सीमा आदि लेखक स्वयं ही निर्धारित करें।

4. वरिष्ठ लेखकों से इसमें जुड़ने का विशेष आग्रह है क्योंकि मेरे संज्ञान में अब तक इस विषय पर कार्य नहीं हुआ है, अतः वरिष्ठ लेखकों के अनुभव का लाभ प्राप्त हो तो अति उत्तम।

कार्य का आधार: 

इस प्रस्ताव का आधार यह है कि (कुछ अपवादों को छोड़कर) लगभग हर लेखक/लेखिका ने अपनी कोई न कोई रचना खुद ही रिजेक्ट की है। वे रचनाएं कैसी हैं और लेखक/लेखिका द्वारा उन्हें रिजेक्ट क्यों किया गया है, यह जानने की जिज्ञासा ही इस शोध का आधार बनी है।

कार्य का उद्देश्यः
उपरोक्त विवरण पढ़ने के बाद आप समझ ही गए होंगे कि इस कार्य का मुख्य उद्देश्य यह ज्ञात करना है कि लघुकथा लेखन के समय किस तरह की ऐसी कमियां हैं, जो रह जाएं तो रचना को प्रकाशन हेतु नहीं भेजना चाहिये। यदि यह शोध सफल होता है तो लेखकों के नए व्यवहार को भी देखा जा सकता है। यह व्यवहार अपेक्षित है कि लेखक/लेखिका अपनी कमजोर लघुकथाओं को इन लघुकथाओं और वक्तव्य के साथ तुलना कर उन्हें प्रकाशन/प्रसारण को न भेजें।

समय सीमा:
आपकी रचनाएं और वक्तव्य आपके संक्षिप्त परिचय (साहित्यिक परिचय, संपर्क विवरण (डाक का पता, चलभाष (मोबाइल) नंबर, ईमेल आईडी) व चित्र) के साथ 15 मार्च 2020 तक laghukathaduniya@gmail.com पर ईमेल करने का कष्ट करें। ईमेल में विषय "मेरी कमज़ोर लघुकथा" ही रखें। ईमेल निम्न प्रारूप में भेजिए:

नाम (हिंदी और अंग्रेजी में):
संक्षिप्त साहित्यिक परिचय:

संपर्क विवरण
डाक का पता:
चलभाष (मोबाइल) नंबर:
ईमेल आईडी:

रचना का वर्ष: 
रचना (शीर्षक सहित):
वक्तव्य (रचना की कमज़ोरियाँ):

कार्य का आउटपुट:
फिलवक्त एक ई-बुक बनाने का विचार है, जिसके ISBN हेतु अप्लाई कर दिया है।  

टैग लाइन 
इस शोधकार्य में वे सभी लेखक व लेखिकाएं सम्मिलित हैं जो अपने लेखन से समाज की कमज़ोरी इंगित करने के साथ-साथ लेखकीय समुदाय के हित में अपने लेखन की कमज़ोरी को इंगित करने का भी साहस रखते हैं।


इस योजना के अपडेट पाने एवं लघुकथा सम्बन्धी सामग्री पढ़ने हेतु लघुकथा-दुनिया ब्लॉग को फॉलो एवं सब्सक्राइब ज़रूर करें।

साभार,    

For लघुकथा दुनिया 


डॉ0 चन्द्रेश कुमार छतलानी
लघुकथा दुनिया
iBlogger द्वारा Best Indian Hindi Blog से सम्मानित
ब्लॉगर ऑफ द ईयर 2019 का सम्मान प्राप्त
URL: http://laghukathaduniya.blogspot.com   

शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2020

शोध पत्र: प्रेम सिंह बरनालवी की लघुकथाओ में व्यक्त लोकजीवन एवं साम्प्रदायिकता | डॉ हेमलता राणा

दृष्टिकोण Vol 11 No 4 (2019): Vol-11-Issue-4-July-August-2019




Abstract

प्रेम सिंह बरनालवी जी का  जन्म  29 अक्टूबर 1945 को हरियाणा प्रांत के अंबाला जिल के बरनाला नामक गांव के एक गरीब परिवार में हुआ। वह बचपन से ही अपने पारिवारिक रिश्तो से बहुत जुड़े हुए थे। साहित्य में अपने आगमन को लेकर बरनालवी  लिखते हैं कि "जब सेना में रहते हुए वे हाई लॉन्ग पोस्ट पर गए तो काफी समय होने के कारण समीप के पुस्तकालय की तमाम पुस्तक उन्होंने पढ़  डाली।" वहां के प्राकृतिक सौंदर्य तथा एकांत वातावरण ने बरनालवी जी को काव्य सृजन के लिए प्रेरित किया।  देवताओं का निवास कहे जाने वाली उस धरती पर पता नहीं कब क्यों और कैसे बरनालवी जी के भीतर से काव्य स्त्रोत फूट पड़ा।  वहीं पर उन्होंने अपनी पहली रचना 'मेरा मंदिर´ लिखी जो कि उनकी सबसे बेहतर काव्य रचना थी परंतु 30 पदों की लंबी रचना होने के कारण यह अभी तक अप्रकाशित है। इसके बाद बरनालवी जी हर समय प्रकृति का मानवीकरण कर कुछ ना कुछ लिखते ही रहे और धीरे धीरे एक प्रतिभाशाली और अनुभवी लेखक के रूप में उभर कर सामने आए।  उन्होंने मानव मन की गहराइयों में उतर कर समस्याओं के मूल शुरू की खोज की। उनके पूर्वजों ने उन्हें जो संस्कार दिए समाज ने जो अनुभव दिया और ईश्वर ने जो कौशल दिए,  वह इन सभी विशेषताओं का खुलकर इस्तेमाल कर रहे थे।  उनकी रचनाओं में विषय की मौलिकता व भावुकता स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। उनका साहित्य सृजन उनकी लोक कथाओ के माध्यम से ज्यादा उभर कर सामने आया जिसमे लोक कथा के माध्यम से  सूक्ष्म मनः स्थितियों को प्रभावी रूप से उकेरा गया है । लघुकथा के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुए डॉ. सतीश राज पुष्करणा के कहा कि "लघुकथा मानव मन की अभिव्यक्ति को कुछ शब्दो में प्रभावशाली ढंग से कहा देने की विधा है।" बरनालवी जी की लघु कथा के साथ साथ लोक चेतना प्रमुख रूप से उभर कर सामने आई है।  लोक चेतना से अभिप्राय उनकी संसार को देखने की दृष्टि है जो कि  उनके अंतर्मन में पूरी तरह छाई हुई है। बरनालवी जी ने समाज की यथास्थिति और उस पर कुरीतियों के बढ़ते प्रभाव को भलीभांति स्पष्ट किया।  .... 

Source:

https://hindijournals.org/index.php/drishtikon/article/view/1611



गुरुवार, 19 दिसंबर 2019

रामकुमार आत्रेय : काँटों में से राह बनाने वाले साहित्यकार | राधेश्याम भारतीय

रामकुमार आत्रेय जी का राधेश्याम भारतीय जी द्वारा लिया गया साक्षात्कार | लघुकथा डॉट कॉम पर 
(हरियाणा सरकार द्वारा रामकुमार आत्रेय जी को बाल मुकुन्द गुप्त पुरस्कार  दिए जाने के अवसर पर राधे श्याम भारतीय द्वारा उनसे लिया गया साक्षात्कार)



रामकुमार आत्रेय 
हिन्दी साहित्य के वरिष्ठ कवि एवं कथाकार रामकुमार आत्रेय को हरियाणा साहित्य अकादमी की ओर से बालमुकुन्द गुप्त पुरस्कार मिलने पर मैं उन्हें बधाई देने उनके घर पहुँचा। रामकुमार कुमार आत्रेय का व्यक्तित्व जितना अनुकरणीय है, उतना ही उनका साहित्य। वे केवल साहित्य में ही आदर्शवाद की बातें नहीं करते बल्कि वे स्वयं उनका पालन करने वाले भी हैं। आज साहित्य क्षेत्र में जिस तरह गुटबाजी कायम है, वे उससे कोसों दूर रहे हैं। आज देश की ऐसी कोई पत्रिका नहीं है ,जिनमें इनकी रचनाएँ  ससम्मान प्रकाशित न होती हों। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय कुरुक्षेत्र के बी.ए.प्रथम वर्ष के पाठ्यक्रम में इनकी कविताएँ  (हरियाणी बोली) में  पढ़ाई जा रही हैं। प्रधानाचार्य के पद से सेवानिवृत्त होने पर भी खुद को साक्षर मानते हैं। पिछले कई वर्षों से इनकी नेत्रदृष्टि बिल्कुल साथ छोड़ गई है। इसके बावजूद ये साहित्यिक -साधना में रत हैं और उसी साधना के बल पर इन्होंने  हिन्दी एवं हरियाणवी भाषा में 15 पुस्तकें पाठकों को देकर एक अनुपम कार्य किया है। अनुपम इसलिए क्योंकि जिन विकट परिस्थितियों में आम आदमी हार मान बैठता है, ऐसे में आत्रेय जी लड़ते रहे और अपनी लेखनी से अपने मन के भावों एवं आम आदमी की पीड़ा को शब्दों में पिरोकर समाज को एक नई राह दिखाने को प्रयासरत हैं। आत्रेय जी मूलतः स्वयं को कवि मानते हैं। मैं समझता हूँ कि इनके मन में काव्य के उपजने के पीछे कहीं न कहीं वेदना का प्रभाव रहा है, क्योंकि 6 वर्ष की आयु में जिनके सिर सेे पिता का साया उठ गया हो । घर में एकमात्र पुत्र होने के कारण परिवार का सारा बोझ जिनके कंधों पर आ पड़ा हो और आगे चलकर 30 वर्ष की अवधि में जिनकी धर्मपत्नी छोटे- छोटे बच्चों को छोड़कर इस लौकिक संसार से विदा हो गई हो तो ऐसे में मन दुखों से भर ही जाता है। संसार मिथ्या नजर आता है, और फिर पीड़ित मन संसार के यथार्थ की खोज में भटकने लगता। वहीं से कल्पना लोक में विचरते मन से उपजने लगती है कविता। सुमित्रानंदन पंत की वे काव्य पंक्तियाँ  –

वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान।
उमड़कर आँखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान।।

आत्रेय जी पर सटीक बैठती प्रतीत होती हैं; आइए , आत्रेय जी के व्यक्तित्व एवं कृत्तित्व से रू-ब-रू होते हैं-

राधेश्याम भारतीय


राधेश्याम भारतीय: आत्रेयजी, आपने साहित्य की अनेक विधाओं में लिखा है। लिखा ही नहीं बल्कि उस साहित्य ने हिंदी साहित्य में अपनी एक अलग पहचान भी बनाई है। आप स्वयं को मूलतः कवि मानते हैं । आपके कवि बनने के पीछे क्या कारण रहे हैं ?

रामकुमार आत्रेय: मेरे कवि बनने में मेरी माँ की भूमिका विशेष रही है। साहित्यिक जीवन की शुरूआती दिनों में जब मैं जे.बी.टी का कोर्स कर रहा था, तो पुण्डरी कैथल में फौजी की एक दुकान थी। जिस पर 25 पैसे में नॉवल किराए पर मिलते थे । मैंने नॉवल किराये पर लेने शुरू कर दिए। विष्णु प्रभाकर और रामधारी सिंह दिनकर का साहित्य पढ़ डाला। मुझे विष्णु प्रभाकर के नाटकों में और रामधारी सिंह दिनकर की कविताएँ  में बड़ा आनन्द आता था और दिनकर की कविताओं से प्रेरित हो मेरे मन में काव्य के अंकुर फूटने लगे। वैसे ये अंकुर बचपन में ही फूटने लगे थे । जब मेरी माँ और दादी सोते वक्त मुझे कहानियाँ सुनाया करती थी। उनमें से अधिकतर पौराणिक संदर्भो पर आधारित होती थीं। कुछ कहानियाँ बिल्कुल कपोल -कल्पित होती थीं। जिनमें परियाँ और राक्षसों के आश्चर्यजनक कारनामों का वर्णन होता था। परन्तु उन सब में नैतिक मूल्यों को प्राथमिकता अवश्य दी जाती थी। बस, वहीं से मैं अपना दुख- दर्द भूलकर दूसरों के दुख-दर्द को समझने, जूझने, थकने तथा टूटने लगा और अन्तःकरण से फूटने लगी कविता।

राधेश्याम भारतीय: क्या आप कवि ही बनना चाहते थे ,या साहित्य की अन्य विधाओं में भी रूचि थी?

रामकुमार आत्रेय: भारतीय जी, मैं एक कवि एवं कथाकार तो बन गया पर, एक नाटककार न बन सका यह टीस मेरे मन में रही। मुझे धर्मवीर भारती के नाटक ‘अन्धायुग’ ने इतना अधिक प्रभावित किया कि उनकी प्रशंसा के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। बाद में निराला जी से प्रभावित हुआ और उनकी शैली का अनुसरण करते हुए मैं मुक्त छंद में कविता करने लगा। बस, अब तो मैं स्वयं को कवि कहलवाना अधिक प्रसन्द करता हूँ।

राधेश्याम भारतीय:आप साहित्य से जुड़ाव के शुरूआती दिनों के बारे कुछ बताइए ?

रामकुमार आत्रेय: मुझे रचना लिखने की सीख 1980 में आई। पर, मैं गाँव में रहने वाला व्यक्ति किसी वरिष्ठ साहित्यकार के सम्पर्क में नहीं आया इसलिए परिस्थितियों से अकेला ही जूझता रहा । मैं अपनी रचनाएँ  धर्मवीर भारती की पत्रिका ‘धर्मयुग’ में भेजता रहा । रचनाएँ  न छपी । इंतजार करता रहा। एक दिन एक पत्रिका पढ़ी । उसमें लिखा था कि यदि किसी साहित्यकार को अपनी रद्द हुई रचनाओं बारे पता करना हो तो जवाबी लिफाफा साथ में भेजें । मैंने भी ऐसा ही किया।

एक दिन धर्मवीर भारती का पत्र आया कि आपकी रचना हमें मिल चुकी हैं, हम रचना के बारे सूचित नहीं करते और उसके बावजूद रचनाएँ  भेजता रहा फिर रचनाएँ  छपने लगी। मैं तो इतना ही भेजें कि हमने साहित्य में अपना स्थान यूं ही नहीं बनाया बल्कि साहित्य की उबड़ -खाबड़ राहों से गुजरे हैं…हरियाणवी में कहूँ तो ‘‘हाम् तो वो राही सै जिनहै डल्यां म्ह तै राह बणाई सै।’’ उसके बाद कविताएँ  ‘पंजाब केसरी और ‘वीर प्रताप’में छपने लगीं।

राधेश्याम भारतीय:- 1987 में आपका प्रथम काव्य संग्रह ‘बुझी मशालों का जुलूस ’ प्रकाशित हुआ । उसके बाद‘ बूढ़ी होती बच्ची’, ‘आंधियों के खिलाफ’, ‘रास्ता बदलता ईश्वर’ और सद्यः प्रकाशित काव्य संग्रह ‘ नींद में एक घरेलू स्त्री’ आदि काव्य संग्रह। आप अपनी कविताओं के बारे कुछ बताएँ ?

रामकुमार आत्रेय-इन संग्रहों में संकलित कविताएँ  मेरी अपनी अनुभूतियॉँ हैं और अनुभूतियाँ कभी असत्य नहीं होती । बचपन से ही इतनी विपदाएँ , विषमताएँ  एवं कटुताएँ  झेली कि मैं यथार्थ का पुजारी होते हुए भी अपने आपको भावुकता में डूबने से बचा नहीं पाया। एक बात स्पष्ट करना चाहूँगा कि भावुकता के आवेश में चाहे मेरा मन आकाश में उड़ता रहा हो लेकिन अपने पाँवों को मैंने कभी धरातल से ऊपर नहीं उठने दिया। इसलिए इस धरती का दर्द, धरती पर ‘धरती’बनकर जीने वाले लोगों का दुखदर्द भी मेरा अपना ही दुख दर्द रहा है । इसी दुख दर्द को मैंने अपनी वाणी देने का प्रयत्न किया है । मैं नहीं जानता कि मैं कहाँ तक सफल हुआ हूँ । संभवतः एक यही कारण है कि मेरी ये कविताएँ  बिना किसी आडम्बर के सीधी-सरल भाषा में लिखी गई हैं । हो सकता हो इसीलिए इन पर सपाट-बयानी का आरोप लगाया जाए। मात्र कला के नाम पर लिखी गई कविताओं में भाषा की जटिलता और सर्वथा अप्रचलित बिम्बों की बोझिलता एक गुण हो सकती है, लेकिन दुख-दर्द की भाषा किसी आडम्बर की मुहताज नहीं होती। फिर मैं तो उस कविता को कविता नहीं मानता जो पाठक को दण्ड पेलने पर भी उसकी समझ में न आए।

राधेश्याम भारतीय:- आप लघुकथा लेखक के रूप में भी अपनी एक विशेष पहचान रखते हैं? अभी तक आपके चार लघुकथा संग्रह- ‘इक्कीस जूते’ (1993), ‘आँखों वाले अंधे’(1999) ‘छोटी-सी बात’ (2006) और (2011) में बिन शीशों का चश्मा’ प्रकाशित हो चुके हैं। मैं समझता हूँ कि इस विधा पर इतना कार्य हरियाणा में शायद ही किसी ने किया हो। आप लघुकथा बारे बताइए ?

रामकुमार आत्रेय– प्रथम लघुकथा संग्रह ‘इक्कीस जूते ’ हरियाणा साहित्य अकादमी के अनुदान से प्रकाशित हुआ है। लघुकथा का स्तरीय रूप टेढ़ा काम है। जितना इसमें लाघव है उतना ही टेढ़ापन ; जिसे साधना कठिन है। कम से कम शब्दों में ज्यादा से ज्यादा सार्थक बात कहना ही लघुकथा की विशेषता है। लेकिन जब रचनाकार शब्दों से खेलने लगता है और सिर्फ कहन मानकर ही रचना का रूप दे देता है। इससे उसकी गम्भीरता एवं सार्थकता पर आघात पहुँचता है।

इसके बावजूद हिन्दी लघुकथा पर बहुत अधिक कार्य हो रहा है। इसके पीछे पाठकों द्वारा लघुकथा को महत्व दिया जाना है क्योंकि आज पाठक के पास लम्बे-चौड़े उपन्यास या लम्बी कहानियाँ पढ़ने का समय नहीं है। इसलिए वे लघुकथा में ही उपन्यास और कहानी का आस्वादन लेते हैं। आज लघुकथा के क्षेत्र में नए-नए प्रयोग हो रहे हैं, जो उत्साहवर्धक तो हैं ही, भविष्य के प्रति आश्वस्त भी करते हैं। लघुकथा एक अचूक शस्त्र बनकर वर्तमान में व्याप्त बुराइयों पर बड़ी सार्थकता के साथ आक्रमण कर रही है। इस प्रकार लघुकथा का भविष्य उज्ज्वल है। भविष्य में निश्चित ही एक प्रतिष्ठित विधा के रुप में इसका अध्ययन एवं अध्यापन होगा।

राधेश्याम भारतीय:- किसी रचना का आधार क्या होना चाहिए?

रामकुमार आत्रेय– किसी रचना का आधार यथार्थ होना चाहिए । पर, उसमें कल्पना से परहेज नहीं करना चाहिए। यथार्थ-बोध का मतलब यह नहीं है कि कैमरा उठाया और फोटो खींच लिया। यथार्थ यथार्थ लगे इसके लिए सूत्रों के योजक से कल्पना का सहारा लिया जा सकता है। और वह कल्पना से रचना को नीरस होने से बचाया जा सकता है।

राधेश्याम भारतीय:- लघुकथा की शब्द संख्या बारे विद्वानों के विभिन्न मत रहे हैं , आप इस बारे में क्या सोचते हैं?

रामकुमार आत्रेय– कोई रचना शब्दों में नहीं बांधी जा सकती है क्योंकि रचना कोई गणित नहीं होती । गणित की अपनी एक सीमा होती है । रचना संवेदना होती है; भावना होती है और भावना, संवेदना को शब्द सीमा में बांधना उसकी आत्मा को मार देना है। लघुकथा में लघु विशेषण जुड़ा है इसलिए इसमें शब्द सीमा संख्या कम से कम हो। और कम से कम की भी कोई सीमा नहीं हो सकती।

राधेश्याम भारतीय– अच्छा यह बताइए ,आपकी पहली कहानी कब और किस पत्रिका में छपी?

रामकुमार आत्रेय:-वैसे तो मैं कहानियाँ आठवें दशक के मध्य में ही लिखने लगा था। लेकिन वे सभी कहानियाँ  सर्वथा काल्पनिक और भावुकता की चाश्नी में लिपटी होती थीं। आठवें दशक के उत्तरार्ध में एक कहानी ‘टपकती जहरीली लारें’ चंडीगढ़ से प्रकाशित होने वाली जागृति नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। इस कहानी के प्रकाशन से मुझे 50 रूपये पारिश्रमिक के रूप में प्राप्त हुए थे। परन्तु इस कहानी को मैंने बाद में नष्ट कर दिया था क्योंकि यह भी सर्वथा काल्पनिक और भावुकता की चाशनी में लिपटी थी।

राधेश्याम भारतीयः– आप कहानियाँ क्यों लिखते हैं?

रामकुमार आत्रेय:-मेरी अपनी जिंदगी आपदाओं और असफलताओं से घिरी रही है। दुर्भाग्य मुझे हमेशा ठुकराता रहा है इसलिए व्यक्ति के जीवन के अभाव ,उसकी असफलताएँ , उसका दर्द और संघर्ष मुझे आकर्षित करते रहे हैं। किसी भी दुखी व्यक्ति का दर्द अपना बनाकर मैं कहानी के माध्यम से पाठकों तक पहुंचाता रहा हूं। ऐसा करने से मुझे लगता है कि मैंने किसी के दुख दर्द को बंटाकर उसे किसी हद तक कम करने में सहायता की है।

राधेश्याम भारतीय:- अब तक छपी कहानियों में कौनसी कहानी आपको अधिक प्रिय है। क्यों?

रामकुमार आत्रेय:-इस प्रश्न का उत्तर देना बहुत ही कठिन है। मेरी हर कहानी अनुभव की गहन आंच के बीच से निकली है। कहानी लिखने के उपरांत एक लम्बे समय तक मैं उस आंच में तपता रहा हूं। फिर भी प्रश्न का उत्तर यदि देना ही है तो मैं कहूंगा कि ‘आग, फूल और पानी’ कहानी सर्वप्रथम हंस पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। राजेन्द्र जी ने इसे लघुकथा कहकर प्रकाशित किया था। इसी नाम से मेरा एक कथा-संग्रह ‘बोधि प्रकाशन’ जयपुर से प्रकाशित हुआ है। वैसे‘पिलूरे’ कहानी को दैनिक भास्कर की रचना पर्व प्रतियोगिता में तीसरा स्थान प्राप्त हुआ था। और अब तक का सबसे ज्यादा पारिश्रमिक दिलाने वाली यही कहानी है।

राधेश्याम भारतीय-क्या लेखन के कारण आपको व्यक्तिगत जीवन में कभी संघर्ष का सामना करना पड़ा? कोई अविस्मरणीय घटना?

रामकुमार आत्रेय- लेखन की वजह से जीवन में कोई संघर्ष तो नहीं करना पड़ा। परन्तु कहानी लिखते समय मैं पात्रों के साथ इतना अधिक जुड़ जाता हूं कि मैं टेंस हो उठता हूं। कई बार कहानी में सुधार करने के लिए उसे बार-बार लिखना पड़ता है। ऐसे में दुखी होकर उन पात्रों से पीछा छुड़ाने के लिए कहानी को अलविदा कहना पड़ता है। यही कारण है कि वर्ष भर में 2-3 कहानियाँ  ही लिख पाता हूँ।

राधेश्याम भारतीयः- नए कहानीकारों की कुछ उल्लेखनीय कहानियों के साथ कथाकारों के नाम भी बताइए अपनी दृष्टि से?

रामकुमार आत्रेय- मैं हर वर्ष नई से नई पत्रिकाएँ  पढ़ता और देखता रहता था। परन्तु 2008 में आंखों में फंगल इंफैक्शन हो जाने पर मेरी बाईं आँख को हटकार उसकी जगह नई आँख लगाई गई। लेकिन मेरी देह ने इसे स्वीकार नहीं किया। और फलतः 6’6 देखने वाली आँख एकदम अंधेरे में बदल गई। चिकित्सकों के अनुसार फंगल इंफैक्शन को तो निकाल दिया पर वे दृष्टि को नहीं बचा सके। दाईं आँख में लैंस डालकर उसे धूंप-छांव देखने के लायक बनाया गया। परिणाम यह हुआ कि मेरा पढ़ना पूरी तरह से बंद हो गया। अब मैं दूसरों की दया पर आश्रित हूँ। थोड़ा-थोड़ा लिखने का प्रयास अवश्य करता हूं।जो कि काफी कठिनाई भरा एवं मंहगा पड़ता है। अतः नए कहानीकारों की कहानी सिर्फ एक आध ही सुन पाता हूं। वैसे संजीव, उदय प्रकाश, स्वदेश दीपक, राकेश वत्स और बहुत से रचनाकार है जिनकी कहानियाँ  मुझे यदा-कदा कचोटती रहती हैं।

राधेश्याम भारतीयः– कहानियों में कथ्य और कलात्मक संतुलन की कोई सीमा तय होनी चाहिए या कहानी कथ्य प्रधान होनी चाहिए?

रामकुमार आत्रेय:-कहानी बिना कथ्य के तो लिखी ही नहीं जा सकती। कथ्य होगा तो कहानी होगी। लेखक कथ्य में जितना अधिक डूबकर लिखेगा, उतना ही कथारस उस रचना में उत्पन्न होगा। कथारस की उत्पत्ति के साथ-साथ कलात्मकता अपने आप उसी में गुंथकर प्रकट होती रहती है। सच कहूं तो मैं कलात्मकता के विषय में ज्यादा कुछ जानता नहीं हूं। सिर्फ कहानी कहने की कोशिश करता हूं। जिसे कभी-कभी पाठक पसंद भी कर लेते हैं। यहाँ मैं आठवें दशक में दैनिक पंजाब केसरी में प्रकाशित मेरी एक कहानी का जिक्र करना चाहूंगा। दुर्भाग्यवश उस कहानी का नाम मैं स्मरण नहीं कर पा रहा हूं। लेकिन मेरी अपनी जिंदगी में पहली बार उस कहानी पर पचास प्रशंसा पत्र प्राप्त हुए थे। एक पत्र उस समय लुधियाना शहर की महिला नगर पार्षद का भी था। पत्र लिखते समय वह इतना रोई थी कि आंसू की बूंदें पत्र के अक्षरों को फैला गई थी। उसका नाम तो मैं नहीं लूंगा लेकिन उसने कहा था कि यह कहानी मैंने उसकी असली जिंदगी से चुराई है। बाद में मैंने इस कहानी को भी नष्ट कर दिया क्योंकि वह भी भावुकता के आवेश में लिखी गई थी। कहानी की लोकप्रियता मेरे लिए कलात्मक संतुलन है। लेकिन कहानी सामाजिक सरोकारों से जुड़ी होनी चाहिए।

राधेश्याम भारतीय:- आत्रेय जी, आपने हरियाणवीं बोली में साहित्य रचा है उसके बारे बताएँ  ?

रामकुमार आत्रेय: हरियाणवी भाषा में एक दोहा संग्रह ‘ सच्चाई कड़वी घणी’ प्रकाशित हो चुका है। दैनिक ट्रिब्यून में खरी खोटी के नाम एक स्तम्भ रविवार को प्रकाशित होता था जिसमें उस स्तम्भ की समाप्ति पर स्तभ से मिलता-जुलता हरियाणवी भाषा में एक चुटकला दिया जाता था। अपनी बोली में बात कहने का आनंद ही कुछ और है। 

राधेश्याम भारतीय – आत्रेय जी अन्य राज्यों में उनकी क्षेत्रीय भाषा में साहित्य प्रचुर मात्रा में है परन्तु हरियाणा में इसकी कमी दिखाई पड़ती है क्यों?

रामकुमार आत्रेय: इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि किसी भी सरकार ने हरियाणवीं को महत्व नहीं दिया। स्वाभाविक बात है कि साहित्यकार भी उसी भाषा की ओर आकर्षित होते हैं जिससे सरकार महत्व देती हो। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि उसी भाषा में पुस्तक लिखने, छपवाने का लाभ होता है जिसे सरकारी आश्रय मिला हो। जब तक हरियाणा पंजाब संयुक्त थे तब तक किसी भी मुख्यमंत्री ने इस ओर ध्यान देना उचित न समझा। हरियाणा बनने के बाद अखबारों तथा सरकारी पत्रिकाओं ने हरियाणवीं रचनाओं को सिर्फ दिखावे के लिए मामूली-सा स्थान देना शुरू किया, इसलिए हरियाणवीं भाषा में काफी मात्रा में साहित्य नहीं रचा गया। दूसरे राज्य की बोलियाँ  जिन्हें भाषा के रूप में 8वीं अनुसूची में स्थान प्राप्त है वहीं उन भाषाओं में साहित्य लिखा जा रहा है। अपनी हरियाणवीं को भी 8वीं अनुसूची में लाने के प्रयास हो रहे है उसका असर अवश्य दिखाई पड़ेगा।

राधेश्याम भारतीय:-आत्रेय जी, आपने बच्चों के लिए ‘ भारतीय संस्कृति की प्रेरक कहानियाँ ‘ ‘समय का मोल’ और ‘परियाँ  झूठ नहीं बोलती’ और ‘ठोला गुरू’ आदि पुस्तकें अपने बाल पाठकों को दी है। बाल साहित्य की रचना करते समय हमें किन बातों का ध्यान रखना चाहिए ?

रामकुमार आत्रेयः– बाल साहित्य में रचना करते समय भाषा की सरलता, सबसे महत्वपूर्ण बात है। मतलब बच्चे के मानसिक विकास के अनुसार भाषा का उपयोग होना चाहिए। रचनाएँ  रोचक हो और इसके साथ-साथ ज्ञानवर्धक भी होनी चाहिए। रचनाकार के द्वारा सीधे उपदेश झाड़ने की आदत से बचना चाहिए। आज कम्प्यूटर का युग है तो लेखकों को नई-नई जानकारी के साथ बाल साहित्य की रचना में आना चाहिए।

राधेश्याम भारतीय:- साहित्यकारों द्वारा आत्मकथा लिखी जाती रही है आप भी अपनी आत्मकथा लिखिए न?’’

रामकुमार आत्रेय: अरे भाई! हम इतने बडे़ साहित्यकार नहीं हैं। अभी तो बहुत कुछ करना बाकी हैं। आत्मकथा तो महान साहित्यकार लिखते हैं ।

राधेश्याम भारतीय:- आत्रेय जी, आप एक प्राथमिक शिक्षक से लेकर प्रधानाचार्य के पद पर रहकर बड़ी ही कर्तव्यनिष्ठा से अघ्यापन कार्य किया है और आपके पढ़ाएँ  विद्यार्थी जो ज्यादातर उन्हीं के गॉव (करोड़ा, जिला कैथल ) के हैं, जो उच्चपदो पर विराजमान हैं। इसके बावजूद आप खुद को साक्षर मात्र मानते हैं। क्यों ?

रामकुमार आत्रेय: राधेश्याम जी, इंसान सारी उम्र सीखता है। मैं भी सीख रहा हूँ। और अन्त तक सीखता रहूँगा। अब भला सिखने वाला खुद को शिक्षित कैसे मान सकता है। और बात पढ़ाएँ  छात्रों का उच्च पदों पर सेवा करना तो, मैंने कर्म को पूजा समझकर किया है। मैंने कभी नहीं चाहा कि दुनिया मेरे काम की तारीफ करें। मैं निस्वार्थ भाव से अपने काम में लगा रहा। मैं समझता हूँ अब मेरे कर्म का फल मुझे मिल रहा है क्योंकि जब मेरा पढ़ाया कोई विद्यार्थी मेरे पास आकर कहता है कि गु रुजी मैं इस पद पर कार्य कर रहा हूँ तो आत्मिक सुख का अनुभव होता है। मैं तो इतना ही कहूँगा कि हर शिक्षक को मन लगाकर पढ़ाना चाहिए ,क्योंकि उनके पढ़ाएँ  विद्यार्थी ही देश के सच्चे नागरिक बनेंगे, वे राष्ट्र का नाम रोशन करेंगे और उनका भीे। एक शिक्षक के लिए यही सबसें बड़ा पुरस्कार होगा।

राधेश्याम भारतीयः– आप साहित्य से जुड़े रहे हैं ,कोई ऐसी साहित्यिक घटना जो आपकों बार-बार याद आती हो ?

रामकुमार आत्रेयः-‘‘ नहीं, ऐसी तो कोई खास नहीं पर, एक बार अपनी नासमझी कहँू या अप्रत्याशित होने के कारण यादगार बनी। मेरी एक कविता ‘मुफ्त में ठगी’ ‘अक्षरपर्व’ पत्रिका में प्रकाशित हुई । वह कविता केरल में पढ़ी गई । उस कविता में क्या ताकत थी कि एस.सी. ई. आर.टी की तत्कालीन निर्देशिका ने उस कविता को पढ़ा, समझा और दसवीं कक्षा के पाठ्यक्रम में प्रकाशित करने की अनुमति चाही। लेखक तो चाहता यही है कि उसकी रचना का आस्वाद अधिक से अधिक पाठक ले और मैंने अनुमति प्रदान कर दी। महीने भर में ही उनका फोन आया कि आप फाइव थाउजैंड़ की पावती रसीद भेजे। मैने कहा, मैडम मैं पॉच सौ रूपये की रसीद भेज देता हूँ। उन्होंने पुनः कहा, पाँच सौ की नहीं; फाइव थाउजैंड यानी पॉच हजार की। यह सुनकर एक बार तो मुझे विश्वास ही नहीं हुआ कि मेरी एक रचना के पॉच हजार मिल रहे हैं पर विश्वास करना पड़ा। यह घटना मुझे अक्सर याद आ जाती है……..’’

राधेश्याम भारतीय: आपकी नेत्रदृष्टि आपका साथ छोड़ गई हैं ऐसे में आपका लेखन कार्य कैसे चलता है ?

रामकुमार आत्रेय: नेत्रदृष्टि जाने के बाद लेखन कार्य में बड़ी बाधा आती है। जब मेरे मन काव्य संबंधी विचार उमड़ते हैं तो मैं कागज पर टेढे़-मेढे़ रूप में लिख लेता हूँ और बाद में अपने पोते विकास से उन्हें लेखनीबद्ध करा लेता हूँ।

राधेश्याम भारतीय:- नव लेखकों के लिए कोई संदेश ?

रामकुमार आत्रेय- वे अधिक से अधिक पढ़े और निरन्तर लिखते जाए। साहित्यकार बनने का कोई शॉर्टकट नहीं है। साहित्य साधना की मांग करता है। और जो साधना करते हैं वे जीवन में अवश्य सफल होते हैं।

सोमवार, 16 दिसंबर 2019

साक्षात्कार : संदीप तोमर | द्वारा : डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


एक आदर्श अध्यापक और एक धर्म परायण माता के पुत्र पेशे से अध्यापक होने के साथ-साथ स्तरीय लेखक, समीक्षक, आलोचक और समालोचक श्री सन्दीप तोमर का जन्म 7 जून 1975 को उत्तर प्रदेश के जिला मुज़फ्फरनगर के गंगधाड़ी नामक गाँव में हुआ था। 

चार भाई बहनों में सबसे छोटे सन्दीप तोमर विज्ञान विषय में स्नातक कर दिल्ली विश्वविद्यालय पढ़ने आ गए। बी.एड, एम.एड के बाद एम.एस सी. (गणित), एम.ए. (समाजशास्त्र व भूगोल) एम.फिल. (शिक्षा-शास्त्र) की शिक्षा ग्रहण की। यूं तो सातवीं कक्षा से ही सन्दीप जी का झुकाव लेखन के प्रति था, दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्ययन करते-करते यह रूचि विस्तृत हो गयी। आपने कविता, कहानी, लघुकथा, आलोचना, नज़्म, ग़ज़ल के साथ साथ उपन्यास विधा में लेखन कर्म किया है। सन्दीप तोमर का पहला कविता संग्रह 'सच के आस पास' 2003 में प्रकाशित हुआ।उसके बाद एक कहानी सँग्रह 'टुकड़ा टुकड़ा परछाई' 2005 में आया, शिक्षा और समाज (लेखों का संकलन शोध-प्रबंध) का प्रकाशन वर्ष 2010 में हुआ। इसी बीच लघुकथा सँग्रह 'कामरेड संजय' 2011 में प्रकाशित हुआ। आपने 'महक अभी बाकी है' नाम से कविता संकलन का संपादन भी किया। 2017 में प्रकाशित 'थ्री गर्ल्सफ्रेंड्स' उपन्यास ने सन्दीप तोमर को चर्चित उपन्यासकार के रूप में स्थापित कर दिया। 2018 में आपकी आत्मकथा 'एक अपाहिज की डायरी' का विमोचन नेपाल की धरती पर हुआ। आप प्रारंभ, मुक्ति, प्रिय मित्र, अनवरत अविराम इत्यादि साझा संकलनों में बतौर कवि सम्मलित हो चुके हैं। सृजन व नई जंग त्रैमासिक पत्रिकाओं में बतौर सह-संपादक सहयोग करते रहे। फिलवक्त श्री तोमर की कई पुस्तकें प्रकाशन हेतु कतार में हैं, जिनमे 'समय पर दस्तक' और 'लिव इन रिलेशन' लघुकथा संग्रह, 'ये कैसा प्रायश्चित' तथा 'दीपशिखा' उपन्यास के साथ 'यंगर्स लव' कहानी संग्रह और 'परम ज्योति' कविता संग्रह प्रमुख हैं। 

हिन्दी अकादमी दिल्ली द्वारा निबन्ध व कविता लेखन के लिए 'सच के आस पास' काव्य कृति के लिये 'तुलसी स्मृति सम्मान' काव्य लेखन के लिए 'युवा राष्ट्रीय प्रतिभा' सम्मान, साहित्यिक सांस्कृतिक कला संगम अकादमी द्वारा 'साहित्य श्री' सम्मान, अजय प्रकाशन रामनगर वर्धा (महा.) द्वारा 'साहित्य सृजन' सम्मान, मानव मैत्री मंच द्वारा काव्य लेखन के लिए सम्मान सहित कई बड़ी संस्थाओं द्वारा समय- समय पर आपको सम्मानित किया गया है। आप 2011-12 में स्कूल स्तर पर तत्कालीन विधायक के हाथों बेस्ट टीचर अवार्ड तथा 2012 में प्राइवेट और सरकारी अध्यापक संघ के तत्वाधान में तत्कालीन संसदीय मन्त्री हरीश रावत के कर कमलों से दिल्ली के बेस्ट टीचर के रूप में भी सम्मानित हो चुके हैं। आपको 'औरत की आज़ादी: कितनी हुई पूरी, कितनी रही अधूरी?' विषय पर अगस्त 2016 में आयोजित परिचर्चा संगोष्ठी में विशेष रूप से सम्मानित किया गया। भारतीय समता समाज की ओर से आपको समता अवार्ड 2017 से सम्मानित किया गया। साहित्य-संस्कृति मंच अटेली, महेंद्र गढ़ (हरियाणा) द्वारा साहित्य-गौरव सम्मान (2018), छठवा सोशल मिडिया मैत्री सम्मलेन में नेपाल की भूमि पर वरिष्ठ प्रतिभा के अंतर्गत साहित्य के क्षेत्र में सतत वा सराहनीय योगदान के लिए 'साहित्य सृजन' (2018), इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र एवम्‌ हिन्दुस्तानी भाषा अकादमी द्वारा शिक्षक प्रकोष्ठ में सहभागिता प्रमाण पत्र दिया गया। पाथेय साहित्य कला अकादमी, जबलपुर/दिल्ली द्वारा सितम्बर 2018 में कथा गौरव सम्मान से नवाज़ा गया। साथ ही दिसंबर 2018 में ही नव सृजन साहित्य एवं संस्कृति न्यास, दिल्ली नामक संस्था द्वारा हिन्दी रत्न सम्मान दिया गया।सितम्बर 2019 में पत्रकार देवेन्द्र यादव मेमोरियल ट्रस्ट, दौसा एवम अभिनव सेवा संस्थान, दौसा द्वारा साहित्य में विशिष्ट योगदान के लिए सम्मानित किया गया। नवम्बर 2019 में अभिमंच द्वारा उपन्यास लेखन पर प्रेमचंद सम्मान-2019 से विभूषित किया गया है।

श्री तोमर ने इस साक्षात्कार में भी बेबाकी से ईमानदार उत्तर दिए हैं। आपके उत्तरों में लघुकथा विधा की उन्नति की कामनाएं सहज ही परिलक्षित हो रही हैं। इस प्रश्नोत्तरी में वरिष्ठ लघुकथाकारों को उद्धृत करने के साथ-साथ मध्यम स्थापित और नवोदित रचनाकारों यथा सुश्री शोभना श्याम, सुश्री सीमा सिंह, सुश्री मेघा राठी,श्री दिलीप कुमार, सुश्री पूजा अग्निहोत्री, सुश्री दिव्या शर्मा, श्री कुमार गौरव, श्री मृणाल आशुतोष, श्री हेमंत राणा, सुश्री अंतरा करवड़े, सुश्री अनघा जोगलेकर, सुश्री उपमा शर्मा आदि की प्रशंसा भी खुले मन से की है, जो कि उनके विस्तृत अध्ययन का परिचायक है। आइए पढ़ते हैं:


लघुकथा लेखक को प्रयोगधर्मी भी होना होगा और समाज को कुछ सन्देशप्रद लेखन देकर अपनी भूमिका का उचित निर्वाह भी करना होगा।

रुरी है कि नयी पीढ़ी खेमेबाजी से किनारा करे, और किसी एक वरिष्ठ पुरुष की बात को पकडकर न बैठे, साहित्य में कोई राम बाण या लक्ष्मण रेखा नहीं होती, अपनी राह खुद तलाशनी होती है...
(इसी साक्षात्कार से) - सन्दीप तोमर



चंद्रेश छतलानी :  सन्दीप जी,अपनी लघुकथा सृजन यात्रा के बारे में कुछ खुलकर बताइये।

सन्दीप तोमर: 1986 में सातवीं कक्षा का विद्यार्थी था, तब ‘पेड़-पौधो’ और ‘भूत-प्रेतों’ को माध्यम बनाकर कहानीनुमा कुछ छोटी रचनाएँ लिखी थी जो अमर उजाला में प्रकाशित जरुर हुई थी लेकिन उन पर किसी सहपाठी का नाम प्रकाशित होता था, हालाकि उनमें लघुता थी और कथा भी अवश्य थी फिर भी मैं उन रचनाओं को लघुकथा नहीं कह सकता, अब वो सब विस्मृति का हिस्सा हैं, जिसे लेखन माना जाए उस फ्रेम में 2001 में लिखना शुरू हुआ, इस मायने में पहली प्रकाशित रचना “समझदार थी, जिसमें एक विद्यालय निरीक्षक और अध्यापक का संवाद है, इसे “कथा संसार” पत्रिका के 2003 के स्कूल विशेषांक अंक में स्थान मिला, उससे बाद तो लगातार देश के अधिकांश पत्र-पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशन होता रहा। 'कामरेड संजय' लघुकथा संग्रह भी आया था लेकिन प्रकाशक की कारगुजारियों के चलते उनकी कोई प्रति मेरे पास नहीं है।  वर्ष 2020 के आरम्भ में दो संग्रह क्रमशः 'समय पर दस्तक' और 'लिव इन रिलेशन' पाठकों के बीच होंगे।


चंद्रेश छतलानी:  क्या लघुकथा की कोई ऐसी विशेष शैली है, जो आपको बहुत प्रभावित करती हो?

सन्दीप तोमर: अधिकांश लोग विवरणात्मक शैली और आत्मकथायात्मक शैली को अधिक अपनाये हुए हैं, जिसे मैं लघुकथा के विस्तार में कुछ हद तक बाधक मानता हूँ, लघुकथा लेखक को अन्य शैलियों को भी अपनाना चाहिए। साहित्य की शैलियों में एक उपशैली है- ‘कामेडी’, जिसमें बहुत कम लघुकथाएं लिखी गयी हैं। लघुकथाओं में ‘डायरी शैली’ में भी लघुकथा लिखने का चलन अभी नहीं आया है। मुझे ये दोनों ही शैलियाँ अधिक प्रभावित और आकर्षित करती हैं।

लघुकथा में आत्मकथ्यात्मक शैली में रचनाकार कई बार कथा-सर्जन करता है, यह एक बहुत ही मुश्किल शैली है जिसमें रचनाकार जानकारी के अभाव में स्वयं को नायक के तौर पर प्रदर्शित करता है जबकि इस शैली में ऐसा नहीं करना होता, अधिकांश लेखक यहाँ चूक कर जाने के  कारण आत्म-विवेचना का शिकार हो जाते हैं। मोनोलॉग शैली (स्वयं से बात) में भी लघुकथा लिखते हुए रचनाकार वही गलती दोहरा देता है। कहा जा सकता है कि इसमें अक्सर लेखक पक्षपाती हो जाता है। यहीं से लेखन में लेखकीय प्रवेश होता है, लेखक को इससे बचना होगा,  कुछ रचनाकार तो इन दोनों में अंतर को भी नहीं समझते। आत्मकथ्यात्मक शैली या मोनोलोग को लेखक को बहुत अधिक आवश्यक होने पर ही अपनाया जाना चाहिए। लेखकीय प्रवेश न हो इसका भी प्रयास किया जाना चाहिए।


चंद्रेश छतलानी: क्या लघुकथा में नए मुहावरे गढ़े जा सकते हैं? किसी उदाहरण से समझाइये।

सन्दीप तोमर: चंद्रेश छतलानी जी, साहित्य नया कुछ गढ़ते रहने से ही समृद्ध होगा, यहाँ दो बातें हैं एक नया दूसरा मुहावरा, मेरी समझ से लघुकथा लेखन में दोनों की ही भरपूर सम्भावना है। अजय अमिताभ सुमन की एक लघुकथा है ”फटा हुआ ईमान” यह शीर्षक अपने आप में एक नया मुहावरा है, जिसे बहुत अधिक चिन्तन मनन के उत्पन्न किया गया हो ऐसा भी मुझे नहीं लगता, इसका जन्म रचना-प्रक्रिया के साथ ही हुआ लगता है।


चंद्रेश छतलानी: आजकल कई रचनाओं को इसलिए भी खारिज कर दिया जाता है क्योंकि वे तीन-चार (कम) पंक्तियों की होती हैं और उनसे कुछ अधिक पंक्तियों की रचनाओं की तरह स्पष्ट कथ्य का सम्प्रेषण नहीं कर पातीं। मेरा प्रश्न यह है कि रचना यदि कथ्य का संकेत तो दे रही है, लेकिन कथ्य स्पष्ट नहीं कहा गया, तब क्या उसे बदलना या खारिज कर देना चाहिए?


सन्दीप तोमर:चंद्रेश छतलानी जी पहली बात ये ही सही नहीं कि रचनाओं को इसलिए खारिज कर दिया जाएँ क्योंकि वे तीन-चार (कम) पंक्तियों की हैं, सवाल ये है कि ख़ारिज करने के मापदण्ड किसने बनाये? अभी कुछ समय पहले डॉ अशोक भाटिया जी का एक लेख काफी सुर्ख़ियों में रहा, मुद्दा था लघुकथा की शब्द सीमा को लेकर, उक्त के प्रतिउत्तर में अनिल शूर का ‘लघुवादी लघुकथा’ पर लेख आया और इस तरह पूरा लघुकथा जगत दो खेमो में बंट गया, एक खेमे में डॉ अशोक भाटिया के समर्थन में लोग थे तो दूसरे अनिल शूर के पक्षधर बने, हाँ कुछ मेरे और सुभाष नीरव जैसे लोग भी थे जिनका मानना था कि रचना अपनी शब्दसीमा खुद तय करती है, लघुकथा में शब्दों की कोई सीमा निर्धारित करना इसके साथ अत्यचार ही है। हमें ‘मंटो’ और ‘खलील जिब्रान’ की लघुकथाओ को नहीं भूलना चाहिए जो आकार में छोटी होकर भी मुकम्मल लघुकथाएं हैं। मैंने भी अतिलघु आकार की लघुकथाएं लिखी हैं। अब आते हैं आपके मूल प्रश्न पर- कथ्य का सम्प्रेषण पंक्तियों की संख्या पर नहीं रचना की बुनावट पर निर्भर करता है, आज कितनी ही लम्बे आकार की, यूँ कहो अधिक पंक्तियों की रचनाएँ भी कथ्य को उभार नहीं पाती कारण(?), इनकी बुनावट में कसावट नहीं होती, अत्यधिक शब्द खर्च करके भी वहाँ रचनाकार का हित सिद्ध नहीं होता। फिर किसी भी रचना में सुधार की गुन्जायिश हमेशा बनी रहती है, यदि कथ्य का संकेत मिल रहा है लेकिन कथ्य उभरकर नहीं आया तो रचनाकार उस पर पुनः काम करे, ख़ारिज करने का अधिकार भी अंततः रचनकार का ही है, आलोचक रचना पर अपनी राय प्रकट कर सकता है, आलोचक भी रचना के विश्लेषण का अंतिम अधिकारी नहीं, पाठक की राय सर्वोपरी है। फिर रचनाकार लिख किसके लिए रहा है ये भी महत्वपूर्ण है।


चंद्रेश छतलानी:  समकालीन लघुकथा में व्यंग्य किस हद तक ढाला जा सकता है?


सन्दीप तोमर: जब ये कहा जाता है कि लघुकथा का जन्म विसंगति से होता है तो यह भी महत्वपूर्ण है कि व्यंग्य का जन्म तो होता ही विसंगति से है। लघुकथा में शिल्प का महत्व अन्य विधाओ से कहीं अधिक है। समय-दर-समय शिल्पगत कसाव और विधागत संप्रेषणीयता से लघुकथा का महत्व उभरकर सामने आया है। संभवतः यही कारण था कि अपने-अपने समय के प्रबुद्ध रचनाकारों ने लघुकथा पर कलम चलाई और उन्होंने ‘व्यंग्य’ को शैली की तरह इस्तेमाल किया है, जिसे ‘व्यंग्यात्मक शैली’ कहा जाता है, मेरी समझ से लघुकथा में सीधे-सीधे व्यंग्य का प्रयोग विधागत न होकर इसे शैली के रूप में ही अपनाया जाए। अशोक भटिया, अशोक विश्नोई, भगवत दुबे, आभा पूर्वें, कमल चोपड़ा, कमलकांत सक्सेना, कालीचरण प्रेमी, किशोर श्रीवास्तव, चंद्रशेखर दुबे, जगदीशचन्द्र ठाकुर, हरनाम शर्मा. अनिल शूर जैसे कितने ही नाम हैं जिन्होंने व्यंग्यात्मक शैली को अपनाकर लघुकथाएं लिखी हैं। मैंने भी इस शैली को कई दफा अपनाया है। इन व्यंग्य लघुकथा लेखकों ने समाज में परिलक्षित विषमताओं, विद्रूपताओं तथा राजनीतिक व सामाजिक आडंबरों को निशाना बनाया है।

अशोक भाटिया की एक लघुकथा कम शब्दों यानि दो-तीन पंक्ति की लघुकथा है, 

अपनों की गुलामी-

सड़क के दोनों ओर खड़े गरीब लोगों के ठेले लाठियाँ मार-मारकर हटाए जा रहे थे। किसी को बंद किया जा रहा था। कारण ज्ञात हुआ, बात बस इतनी सी थी कि अगले दिन 15 अगस्त है—अर्थात् स्वतन्त्रता दिवस।

यह लघुकथा अपने आपमें एक स्वतंत्र व्यंग्य भी है और इसमें शिल्पगत अनुप्रयोग भी आप देख सकते हैं। यह विधा के मानको पर भी खरी उतरती है।

चंद्रेश छतलानी:  इन दिनों आप किस तरह की ऐसी लघुकथाएं पढ़/देख पा रहे हैं, जिन पर अंकुश लगना चाहिए?


सन्दीप तोमर: इस सवाल के जवाब से पहले मैं अधिकांश महिला रचनाकारो की मन:स्थिति पर आपका ध्यान ले जाना चाहूँगा, जब महिला साथियों ने लिखना शुरू किया या करती हैं उस समय उनके सामने नारी की सामाजिक स्थिति का फलक होता हैं जाहिर हैं कथानक भी उसी पृष्ठभूमि से आते हैं, शुरुआती लेखन तक ये सब ठीक है लेकिन कुछ अपवाद छोड़ दूँ तो अधिकांश उस पृष्ठभूमि से इतर अपनी दृष्टि को ले जाने में जाने कौन सा जोखिम  मानती हैं। शोभना श्याम, सीमा सिंह, मेघा राठी जैसी रचनाकार इस मिथ को तोडती हैं तो लघुकथा विधा की समृद्धि में उनका योगदान दर्ज होता है, जो व्यापक दृष्टि के साथ सृजन करेगा वो आगे तक जायेगा।


एक बात और है, लघुकथा विधा में जो मुझे इसके विकास में बाधक लगती है वह है विषय या चित्र देकर लिखवाना। रचना सार्थकता तभी पा सकती है जब वह अनुभव और अवलोकन का हिस्सा बने, इस तरह का लेखन तो सरासर कृत्रिमता है, जब तक लेखक स्वयं रचना से नहीं जुड़ेगा, उसका सामान्यीकरण नहीं करेगा तो पाठक रचना से अपना जुडाव कैसे महसूस करेगा, इसका तात्पर्य ये नहीं कि अपवाद से रचना का जन्म नहीं हो सकता, अपवाद से भी मुकम्मल रचनाओ का जन्म हुआ है / होता भी है लेकिन प्रतिशतता कम है। मेरे विचार से ये कृत्रिम लेखन बंद होना चाहिए। 


चंद्रेश छतलानी: समकालीन लघुकथाओं में जिस तरह के विषय उठाये जा रहे हैं, क्या उससे आप संतुष्ट हैं?


सन्दीप तोमर: दो टूक शब्दों में कहूँ तो एकदम संतुष्ट नहीं हूँ, विषयों में मुझे विविधता दिखाई नहीं देती और अलग विषय कुछ अलग होते भी हैं तो या तो रचनाकार का ट्रीटमेंट लचर होता है या अत्यधिक लिखने की चाह में दोहराव का शिकार हो जाते हैं। अभी कुछ लोगो ने पौराणिक पात्रों पर भी कुछ लघुकथाएं लिखी हैं लेकिन वहाँ भी पूर्ववर्ती लेखको को ही कॉपी किया गया है। बस थोड़ी अलग रचना दिखाने की चाह में फेरबदल अवश्य किया जाता है। जबकि होना ये चाहिए था कि नए पात्रों की रचना की जाती, या इतिहास के कुछ अनछुए पहलुओं को केंद्र में रखकर नया काम किया जाता। असल में लघुकथा लेखक शिल्पगत प्रयोग तो कर रहा है लेकिन ऐतिहासिक पात्रों की रचना करने या नूतन पौराणिक पात्रों की रचना करने में खुद को असमर्थ पाता है।


मेरी दृष्टि में अंचल विशेष यानि ‘आंचलिक पात्रों’ को आधार बनाकर भी बहुत कम लघुकथाओं की रचना हुई है, और ‘दिव्यांग व्यक्तियों’ की समस्याओं पर भी बहुत कम लिखा गया है। मुझे लगता है इन विषयों पर अधिक लिखे जाने की जरुरत है। ‘थर्ड जेंडर’ पर कुछ काम हुआ तो मन को अच्छा लगा, ऐसी ही और भी समस्याएँ हैं जिन पर लिखा जाना चहिये।


चंद्रेश छतलानी जी मुझे एक बात और महसूस होती हैं, अधिकांश रचनाकार पारिवारिक रिश्तो, परवरिश, ओल्ड ऐज होम की जरुरत इत्यादि समस्याओं पर भी लिख रहे हैं लेकिन इन विषयों पर बहुत नकारात्मक लिखा जा रहा है, आप लेखक से बात करें तो जवाब मिलता है कि यही यथार्थ है, मैं ऐसे लेखकों से पूछना चाहता हूँ क्या समस्याओं का रहस्योद्घाटन करना ही रचनाकार का एक मात्र उद्देश्य है? फिर रचनाकार उसमें कहाँ हैं, उसके दायित्व क्या हैं? होना ये चाहिये कि रचनाकार इन विषयों पर अपनी कलम से समाधान भी सुझाये या फिर ऐसा कुछ रचे जो नयी पीढ़ी के लिए प्रेरणास्पद हो। हाल ही में परिवार में बच्चो के दुर्व्यवहार के कारण माता-पिता को ओल्ड ऐज होम चले जाने या कमरा किराये पर लेने जैसी नसीहत की रचनाएँ पढ़कर मन खिन्न हुआ, मैंने सुभाष नीरव जी से वायदा किया कि इसके उलट लिखकर कोई संदेशपरक रचना दूँगा, तब “संस्कार” लघुकथा लिखी जिसे सतीश राठी जी ने ‘क्षितिज’ पत्रिका में स्थान दिया, तो लघुकथा लेखक को प्रयोगधर्मी भी होना होगा और समाज को कुछ सन्देशप्रद लेखन देकर अपनी भूमिका का उचित निर्वाह भी करना होगा।  




चंद्रेश छतलानी: आपके अनुसार लघुकथाओं का अपने पाठकों तक सम्प्रेषण हेतु निम्न तीनों में से बेहतरीन माध्यम क्या और क्यों है? प्रिंट, डिजिटल टेक्स्ट (सोशल मीडिया, ब्लॉग, वेबसाइट आदि पर) अथवा ऑडियो-वीडियो।


सन्दीप तोमर: साहित्य की चाहे कोई भी विधा हो, रचना अगर दमदार है तो वह अपना पाठक वर्ग खुद तलाश कर लेती है। निसंदेह प्रिंट मिडिया एक एतिहासिक दस्तावेज होता है, उसका अपना एक विस्तृत पाठक वर्ग है, अगर ऐसा नहीं होता तो लघुपत्रिकाओ की इतनी बाढ़ न आती। वर्तमान में डिजिटल टेक्स्ट ने भी अपना एक व्यापक पाठक वर्ग तैयार किया है लेकिन सोशल मिडिया की एक समस्या है - अधिकांश पाठक वही है जो या तो लेखक हैं या फिर लेखक बनने की होड़ में शामिल हैं। अगर इन दोनों माध्यमो की तुलना करूँ तो मैं प्रिंट मिडिया को अधिक महत्व दूँगा उसका कारण है इसका सर्वकालिक होना, जो एक बार प्रकाशित हुआ वह सर्वकालिक हुआ, जबकि डिजिटल के साथ समस्या है, इसकी अवधि बहुत लम्बी नहीं है, एक दिन या तो लेखक ही उससे उकता जाता है या फिर पाठक किनारा कर सकता है। इन दोनों से इतर जो तीसरे माध्यम की बात आपने की है, ऑडियो- वीडियों इसका प्रभाव छोटे फॉर्मेट की विधा में ज्यादा कारगर है। लघुकथा को यूट्यूब पर लाने में ‘ललित मिश्र’ ने शुरुआती काम किया, तदुपरांत मैंने “अफसाने साहित्य के” चैनल शुरू किया, उसके बाद सुना है रवि यादव ने भी इस क्षेत्र में कुछ काम किया है, अन्य चैनल भी होंगे लेकिन ये बाद के प्रयास हैं।

अगर दोटूक शब्दों में कहूँ तो तीनो का महत्व समय के हिसाब से हैं। अभी तो सही हो या गलत डिजिटल सबके सिर चढ़कर बोल रहा है।


चंद्रेश छतलानी : आपके अनुसार यदि पूर्व पीढ़ी से तुलना करें तो समकालीन लघुकथा के लिए लेखकों, समीक्षकों, प्रकाशकों और पाठकों की कौनसी प्रवृत्ति हितकारी है और कौनसी अहितकारी?


संदीप तोमर: चंद्रेश छतलानी जी मैं हमेशा से दो बातों का विरोध करता रहा हूँ , एक- खेमेबाजी, दूसरा सहयोग राशि से छपने वाले संकलन, ये दोनों ही लघुकथा जैसी सशक्त और आधुनिक विधा के विकास में बाधक होती हैं। इनसे गुणात्मकता में तो बेतहासा वृद्धि हुई है लेकिन इससे गुणात्मकता अधिक प्रभावित है, हमें गुणात्मकता पर अधिक ध्यान देना चाहिए। अच्छा ये है कि इसी भीड़ से कुछ क्रीम भी निकल कर आ रही है, दिलीप कुमार, पूजा अग्निहोत्री, दिव्या शर्मा, कुमार गौरव, मृणाल आशुतोष, हेमंत राणा, अंतरा करवड़े, अनघा जोगलेकर, उपमा शर्मा, इसी भीड़ से निकलकर आये हैं, और समुचित योगदान दे रहे हैं। बस अपनी लय को बनाये रखने की जरुरत है।


चंद्रेश छतलानी:  उचित अध्ययन तो हर लघुकथाकार को करना ही चाहिए, अच्छी पुस्तकें भी पढ़नी चाहिए। इस बात के अतिरिक्त नए लघुकथाकारों के लिए कोई सन्देश देना चाहेंगे?


सन्दीप तोमर: देखिये, एक समय तक पढना विधा के अंगोपांग को समझने के लिए जरुरी है, उसके बाद पढना भी बहुत मायने रखता हो ऐसा मुझे नहीं लगता, हाँ, अगर आप एक अच्छे पाठक हैं तो ये अच्छी बात है, कई बार देखने में आता है कि अधिक पढने से खुद का लेखन भी प्रभावित होने लगता है, कुछ नवरचनाकार किसी लेखक से इतने प्रभावित होते हैं कि उनकी शैली को ही अपनाने लगते हैं।


जरुरी है कि नयी पीढ़ी खेमेबाजी से किनारा करे, और किसी एक वरिष्ठ पुरुष की बात को पकडकर न बैठे, साहित्य में कोई राम बाण या लक्ष्मण रेखा नहीं होती, अपनी राह खुद तलाशनी होती है, अपनी बात कुछ यूँ कहकर समाप्त करूँगा –

हे अहिल्या-
खुद की राह बना
यहाँ उद्धार करने
राम न आएंगे।