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रविवार, 14 दिसंबर 2025

पुस्तक समीक्षा । पावन तट पर: आस्था और विसंगति का द्वंद्व । देवेन्द्रराज सुथार

सुरेश सौरभ द्वारा संपादित 'पावन तट पर' साझा लघुकथा संग्रह आस्था और अंधविश्वास के मध्य विद्यमान सूक्ष्म विभाजक रेखा का अन्वेषण करता है। महाकुंभ 2025 को केंद्रबिंदु बनाकर देशभर के 41 लघुकथाकारों की रचनाएँ इस संकलन में समाहित हैं, जो धार्मिक आयोजनों की विसंगतियों और विद्रूपताओं को बेबाक शिल्प में प्रस्तुत करती हैं।

    संपादक का दृष्टिकोण निर्भीक और निष्पक्ष है। वे मानवीय मूल्यों को धार्मिक आडंबर से सर्वोपरि स्थान देते हैं। रश्मि 'लहर' की 'सेवा' में सास द्वारा भगदड़ में बहू के जीवन-रक्षण का प्रयास, प्रो. रणजोध सिंह की 'लिविंग गॉड' में माता-पिता की सेवा-शुश्रूषा को प्रकृति प्रदत्त तीर्थ मानना, और सुरेश सौरभ की लघुकथा 'साये में पुण्य' आदि लघुकथाओं में गंगा-जमुनी तहज़ीब की सुगंध परिलक्षित होती हैं। संग्रह समस्त रचनाएँ मानवता को परम धर्म के रूप में प्रतिष्ठापित करती हैं।

    संग्रह की सर्वाधिक उल्लेखनीय विशेषता इसकी साहसिकता और सामाजिक यथार्थ के प्रति प्रतिबद्धता है। डॉ. रशीद गौरी की 'निपटारा' में बहू द्वारा वृद्ध ससुर को कुंभ में परित्यक्त करने की कुत्सित योजना, चित्रगुप्त की 'बंद दरवाजे की चीख' में वृद्ध माता को कक्ष में बंद कर कुंभ-गमन का निर्मम निर्णय, और अरविंद असर की 'मुफ्त का पुण्य' में सरकारी आँकड़ों पर तीक्ष्ण व्यंग्य-यह सब रचनाएँ समकालीन समाज के कटु और वीभत्स सत्य को निर्ममता से उद्घाटित करती हैं।

      अनेक कथाएँ भगदड़ की त्रासदी और उसकी मार्मिक परिणतियों को केंद्र में स्थापित करती हैं। गुलज़ार हुसैन की 'भगदड़ में माँ', मार्टिन जॉन की 'पापमुक्ति' और चित्तरंजन गोप की दोनों लघुकथाएँ कुंभ की भयावहता तथा अराजकता का मर्मस्पर्शी चित्रण प्रस्तुत करती हैं। राजेंद्र वर्मा की 'पुण्य' में पति द्वारा रुग्ण पत्नी को परित्यक्त न करने का निर्णय वास्तविक धर्म-पालन का श्रेष्ठ उदाहरण है।

     कतिपय रचनाएँ आधुनिक तकनीकों के दुरुपयोग पर भी कठोर प्रहार करती हैं। चित्रगुप्त की 'पावन तट पर' में स्नानरत महिलाओं के अश्लील वीडियो निर्माण की घृणित घटना समकालीन युग की नैतिक विकृति और पतन को रेखांकित करती है।

       संपादन अत्यंत कुशल और संतुलित है। प्रत्येक रचना स्वतंत्र इकाई के रूप में पूर्ण और प्रभावोत्पादक है। भाषा सहज, प्रवाहमय और संप्रेषणीय है, जो पाठक को सतत आबद्ध रखती है। विविध भौगोलिक क्षेत्रों से आगत रचनाकारों की उपस्थिति संग्रह को राष्ट्रीय व्यापकता और बहुआयामी दृष्टि प्रदान करती है।

      सूर्यदीप कुशवाहा की 'पुण्य फल' और 'सच्चा पुण्य' दोनों कथाएँ मानवीय करुणा को धार्मिक कर्मकांड से श्रेष्ठ सिद्ध करती हैं। डॉ. पूरन सिंह की 'ये माँ ही हो सकती हैं' में मातृत्व की महत्ता, और सेवा सदन प्रसाद की 'अनुतप्त' में पश्चाताप का भाव-ये रचनाएँ गहन मनोवैज्ञानिक अंतर्दृष्टि प्रदर्शित करती हैं।

      डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी की 'कुंभी पाप' में गरिमा-भंग की घटना, और नीना मंदिलवार की 'विलुप्त' में भगदड़ के पश्चात् आस्था का विलोपन - ये रचनाएँ धार्मिक आयोजनों की कुरूपता को उजागर करती हैं। हरीश कुमार 'अमित' की दोनों लघुकथाएँ सच्चे पुण्य की पुनर्व्याख्या प्रस्तुत करती हैं।

       'पावन तट पर' केवल धार्मिक पाखंड और कर्मकांडों पर प्रहार नहीं करता, अपितु मानवीय संवेदनाओं को जागृत करने का सार्थक प्रयास है। यह संग्रह उन समस्त पाठकों और चिंतकों के लिए अनिवार्य है जो अंधविश्वास और आस्था, धर्म और धार्मिकता के मध्य विद्यमान सूक्ष्म भेद को समझना चाहते हैं।

     संग्रह की सर्वाधिक सशक्त पक्ष यह है कि यह धर्म का विरोध नहीं करता, वरन् धर्म के नाम पर होने वाले शोषण, आडंबर और अमानवीयता का तीव्र प्रतिरोध करता है। सुरेश सौरभ ने संपादक के रूप में विलक्षण सूझबूझ और साहित्यिक विवेक का परिचय दिया है।

        यह एक प्रगतिशील, विचारोत्तेजक और सामाजिक चेतना से ओतप्रोत संकलन है जो समकालीन हिंदी लघुकथा साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान के रूप में स्थापित होने की पूर्ण क्षमता रखता है। इस संग्रह का प्रत्येक पृष्ठ मानवीय मूल्यों की पुनर्स्थापना का आह्वान करता है।


पुस्तक- पावन तट पर ( कुंभ स्नान पर केंद्रित लघुकथाएं) 

संपादक- सुरेश सौरभ

मूल्य-250

प्रकाशन वर्ष-2025

प्रकाशन- समृद्धि पब्लिकेशन नई दिल्ली

 

 समीक्षक-देवेन्द्रराज सुथार

स्थानीय पता-गांधी चौक, आतमणावास, बागरा, जिला-जालोर, राजस्थान। 343025

मोबाइल नंबर-8107177196


संपादक परिचय:

नाम : सुरेश सौरभ

मूल नाम : सुरेश कुमार

माता : स्व. कमला देवी 

पिता : स्व. केवल राम

शिक्षा : बीए (संस्कृत)  बी. कॉम., एम. ए. (हिन्दी) यूजीसी-नेट (हिन्दी)

जन्म तिथि : 03 जून, 1979

प्रकाशन : 

दैनिक जागरण, राजस्थान पत्रिका, हरिभूमि, अमर उजाला, हिन्दुस्तान, प्रभात ख़बर, सोच विचार, विभोम स्वर, कथाबिंब, पाखी, पंजाब केसरी, ट्रिब्यून सहित देश की तमाम पत्र-पत्रिकाओं एवं वेब पत्रिकाओं में सैकड़ों लघुकथाएँ, बाल कथाएँ, व्यंग्य-लेख, कविताएँ तथा समीक्षाएँ आदि प्रकाशित।

प्रकाशित पुस्तकें : 

एक कवयित्री की प्रेमकथा (उपन्यास), नोटबंदी, तीस-पैंतीस, वर्चुअल रैली, बेरंग (लघुकथा-संग्रह), अमिताभ हमारे बाप (हास्य-व्यंग्य), नंदू सुधर गया, पक्की दोस्ती (बाल कहानी संग्रह), भीगते सावन (कहानी संग्रह) 

संपादन : 

100 कवि, 51 कवि, काव्य मंजरी, खीरी जनपद के कवि, तालाबंदी, इस दुनिया में तीसरी दुनिया, गुलाबी गलियां, पावन तट पर आदि

विशेष :

भारतीय साहित्य विश्वकोश में इकतालीस  लघुकथाएँ शामिल। यूट्यूब चैनलों और सोशल मीडिया में लघुकथाओं एवं हास्य-व्यंग्य लेखों की व्यापक चर्चा।

कुछ लघुकथाओं पर लघु फिल्मों का निर्माण। चौदह साल की उम्र से लेखन में सक्रिय। मंचों से रचनापाठ एवं आकाशवाणी लखनऊ से रचनापाठ।

कुछ लघुकथाओं का उड़िया, अंग्रेज़ी तथा पंजाबी आदि भाषाओं में अनुवाद।

सम्मान : 

अन्तरराष्ट्रीय संस्था भाखा, भाऊराव देवरस सेवा न्यास द्वारा अखिल भारतीय स्तर पर प्रताप नारायण मिश्र युवा सम्मान, हिन्दी साहित्य परिषद, सीतापुर द्वारा लक्ष्य लेखिनी सम्मान, लखीमपुर की सौजन्या, महादलित परिसंघ, कथादेश लघुकथा प्रतियोगिता में दो बार सम्मानित, परिवर्तन फाउंडेशन सहित कई प्रसिद्ध संस्थाओं द्वारा सम्मानित।

सम्प्रति : 

प्राइवेट महाविद्यालय में अध्यापन एवं स्वतंत्र लेखन।

सम्पर्क :

निर्मल नगर, लखीमपुर-खीरी (उत्तर प्रदेश)

पिन कोड- 262701

मोबाइल- 7860600355

ईमेल- sureshsaurabhlmp@gmail.com


शुक्रवार, 13 सितंबर 2024

पुस्तक समीक्षा । घरों को ढोते लोग । समीक्षक- देवेन्द्रराज सुथार

श्रमजीवी वर्ग की व्यथा-कथा लेकर आये सौरभ   (पुस्तक समीक्षा) 


 साहित्य समाज का आईना होता है और कई बार यह आईना हमें वह चेहरे दिखाता है, जिन्हें हम अक्सर नज़रअंदाज़ कर देते हैं या जो हमारी  चेतना में नहीं होते। सुरेश सौरभ द्वारा संपादित लघुकथा संग्रह 'घरों को ढोते लोग' समाज के उन तबकों पर केंद्रित है, जो हमारे दैनिक जीवन को सुचारू रूप से चलाते हैं, लेकिन जिन्हें हम अक्सर नज़रअंदाज़ कर देते हैं। यह संग्रह 65 लघुकथाकारों द्वारा लिखी गई 71 लघुकथाओं का बेहतरीन गुलदस्ता है, जिसमें प्रत्येक लघुकथाकार ने अपने अनूठे नज़रिए से मज़दूरों, किसानों, मेहनतकशों व  कामवाली बाइयों के जीवन के विभिन्न पहलुओं को मार्मिक ढंग से उजागर किया है। इन लघुकथाओं में रोज़मर्रा के संघर्षों, आर्थिक चुनौतियों, सामाजिक असमानता और मानवीय संवेदनाओं को बहुत ही बारीकी से दर्शाया गया है।

रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' की लघुकथा 'जहर' एक रिक्शाचालक के जीवन की विडम्बनाओं को दर्शाती है कि कैसे समाज का ढाँचा, किस प्रकार किसी व्यक्ति को कभी-कभी अपराध की ओर धकेल देता है। मुख्य पात्र 'सईद' अपने बीमार बच्चे के लिए दवा खरीदने की मजबूरी में अपने मालिक से भिड़ जाता है, जो उसकी मजबूरी का फायदा उठाना चाहता है। मार्टिन जॉन की लघुकथा 'घरों को ढोते लोग' (जिसे पुस्तक का शीर्षक बनाया गया है) एक छोटी बच्ची के मार्फ़त मजदूरों के जीवन की कठोर वास्तविकता को, सच्चाई को प्रस्तुत करती है। पुस्तक में शामिल लघुकथाएँ भारतीय समाज में व्याप्त आर्थिक असमानता और सामाजिक भेदभाव को स्पष्ट रूप से उजागर करने में सफल रही हैं। 

डॉ. प्रदीप उपाध्याय की लघुकथा 'बस इतनी गारंटी' खेतिहर मजदूरों की समस्याओं को प्रकट करती है। शराफत अली खान की लघुकथा 'कमाई' समाज में व्याप्त असमानता और विडम्बनाओं को दर्शाती है तथा समाज में व्याप्त नैतिक मूल्यों के क्षरण की ओर भी इशारा करती है। नीरू मित्तल 'नीर' की लघुकथा 'एक माँ की मजबूरी' गरीब वर्ग की महिलाओं की स्थिति को उजागर करती है। यह लघुकथा बताती है कि गरीबी और अशिक्षा किस तरह युवा लड़कियों के भविष्य को प्रभावित कर सकती है। यह न केवल बाल विवाह जैसी सामाजिक बुराइयों की ओर इशारा करती है, बल्कि यह भी दिखाती है कि कैसे गरीबी महिलाओं को अपने बच्चों के भविष्य के बारे में कठोर निर्णय लेने के लिए मजबूर कर देती है।

पुस्तक में केवल निराशा और दुख की ही रचनाएं नहीं है, कई लघुकथाओं में गहरी मानवीय संवेदना और आशावाद की झलक भी दिखाई देती है। डॉ. अलका अग्रवाल की लघुकथा 'चरैवेति, चरैवेति' एक रिक्शाचालक की जीवंतता और जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण को दर्शाती है। संतोष सुपेकर की लघुकथा 'मजबूर और मजबूत' श्रमिक वर्ग की अदम्य इच्छाशक्ति को दर्शाती है। सेवा सदन प्रसाद की लघुकथा 'भूख', कोरोना महामारी के दौरान मजदूरों की दुर्दशा को चित्रित करती है। कैसे भूख और बेरोजगारी लोगों को जोखिम भरे निर्णय लेने पर मजबूर कर सकती है। आपदा के समय में समाज के सबसे कमजोर वर्ग को सबसे अधिक कष्ट झेलना पड़ता है, भूख लघुकथा से पता चलता है। 

 सुकेश साहनी, योगराज प्रभाकर, मनोरमा पंत, अविनाश अग्निहोत्री, बलराम अग्रवाल, डॉ.चंद्रेश कुमार छतलानी, नीना मंदिलवार, आलोक चोपड़ा, प्रो. रणजोध सिंह, डॉ.मिथिलेश दीक्षित, कल्पना भट्ट, अरविंद सोनकर, रश्मि लहर, गुलज़ार हुसैन, सुरेश सौरभ , रशीद गौरी, आदि लघुकथाकारों ने अपनी बेहतरीन लघुकथाओं से संग्रह को पठनीय और संग्रहणीय बनाया है। वरिष्ठ कथाकार सुधा जुगरान ने संग्रह में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका जोड़ कर संग्रह को साहित्यिक हलकों में विमर्श का हिस्सा बना दिया है। 

संग्रह की भाषा सरल और प्रभावशाली है, जो इसे व्यापक पाठक वर्ग के लिए सुलभ बनाती है। लेखक जटिल सामाजिक-आर्थिक मुद्दों को सरल कथाओं के माध्यम से प्रस्तुत करने में सफल रहें हैं। लघुकथाएँ संग्रह के विषय से अनुकूल और सार्थक हैं। 'घरों को ढोते लोग' एक ऐसा लघुकथा संग्रह है, जो न केवल पठनीय है, बल्कि समाज के प्रति हमारी समझ को, संवेदना को गहरा और विस्तृत करने में भी सहायक सिद्ध होगा। संपादक ने इन लघुकथाओं को एक साथ संकलित करके महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। उन्होंने समाज के एक ऐसे वर्ग की आवाज़ को मुखर किया है, जो अक्सर साहित्य में उपेक्षित रह जाती है। यह संग्रह केवल एक पुस्तक नहीं है; यह एक वह आईना है, जो हमें हमारे समाज का एक ऐसा चेहरा दिखाता है जिसे हम अक्सर देखने से कतराते हैं। सच्चा विकास तब तक नहीं हो सकता, जब तक समाज का हर वर्ग सम्मान और समानता के साथ न जिये। लिहाजा यह एक ऐसी कृति है जो न केवल पढ़ी जानी चाहिए, बल्कि जिस पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। मंथन किया जाना चाहिए।

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पुस्तक-घरों को ढोते लोग (साझा लघुकथा संग्रह) 

संपादक: सुरेश सौरभ (मो-7860600355) 

मूल्य: ₹245 (पेपरबैक)

प्रकाशन: समृद्ध पब्लिकेशन शाहदरा, दिल्ली

प्रकाशन वर्ष-2024

समीक्षक-

देवेन्द्रराज सुथार

 पता - गांधी चौक, आतमणावास, बागरा, जिला-जालोर, राजस्थान। 343025

मोबाइल नंबर- 8107177196