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बुधवार, 13 नवंबर 2024

वैश्विक सरोकार की लघुकथाएं । भाग 11 । संतोष सुपेकर की लघुकथाओं के बहाने वैश्विक मुद्दों पर सृजन चर्चा

आदरणीय स्वजन,

हमारी दुनिया वैश्विक चुनौतियों से लगातार प्रभावित रही है। चाहे जलवायु परिवर्तन हो, सामाजिक न्याय, आर्थिक असमानता हो स्वास्थ्य सम्बन्धी मुद्दे हों, कितनी ही बातें विश्व में फैली हुई हैं, जिन्हें संबोधित करने का प्रयास चल रहा है। ऐसी स्थिति में साहित्य का दायित्व हो जाता है कि उन मुद्दों पर रचनाकर्म को स्थान दे और समाज के हित पर विचार-विमर्श करने को उचित मंच भी प्रदान करे। इस आलेख में श्री संतोष सुपेकर की रचनाओं के माध्यम से वैश्विक लघुकथाओं पर चर्चा की गई है।

कहना न होगा, लघुकथाएँ, विशेष रूप से, वैश्विक मुद्दों पर चर्चा हेतु शक्तिशाली साधन हो सकती हैं, जो पाठकों को जटिल चुनौतियों पर एक संक्षिप्त किन्तु प्रभावशाली दृष्टिकोण प्रदान करती हैं। लघुकथाओं में वैश्विक मुद्दों पर लिखना न केवल जागरूकता लाता है बल्कि पाठकों को चिंतन और उनके प्रति कार्य करने के लिए भी प्रोत्साहित किया जा सकता है। अपरिचित दृष्टिकोणों को उजागर कर जागरूकता उत्पन्न करने, अपने पात्रों की आँखों से किसी वैश्विक मुद्दे के परिणामों का अनुभव कर सत्य से गहरे स्तर पर जुड़ने, जटिल मुद्दों को शक्तिशाली तरीके से संबोधित करने, बदलाव के बीज बोने के लिए लघुकथा उत्तम माध्यम है।

वैश्विक मुद्दों पर सृजन

वैश्विक मुद्दों पर सृजन हेतु सबसे पहले किसी ऐसे मुद्दे पर अध्ययन कर सकते हैं जो हमें व्यक्तिगत रूप से प्रभावित करता हो, चाहे वह जलवायु परिवर्तन हो, गरीबी हो, मानसिक स्वास्थ्य हो, नस्ल भेद हो या लैंगिक समानता हो। जिस विषय की आप परवाह करते हैं, उस पर लेखन आपकी रचना में प्रामाणिकता भर देगा। रचनाओं में ऐसे पात्र बनाएं, जो आपके मुद्दे का प्रतिनिधित्व कर सकें। उचित पात्र पाठक और वैश्विक समस्या के बीच की खाई को पाटते हैं। 

मेरे अनुसार पाठकों को लघुकथाएँ अक्सर तब सबसे अच्छी लगती हैं जब वे सूक्ष्मतम को उजागर करें। प्रतीकों/रूपकों का उपयोग कर जटिल मुद्दों को आसानी से प्रस्तुत किया जा सकता है। प्रभावी लघुकथा में व्याख्यान/उपदेश देने के बजाय अपनी बात को किसी विशेष और प्रभावी तरीके से दिखाया जाए तो बेहतर। पाठक स्वयं उनके निष्कर्ष निकालें। स्पष्ट कथनों के बजाय घटनाओं, संवाद और पात्रों के माध्यम से वैश्विक मुद्दे को प्रस्तुत करें।

वैश्विक मुद्दे स्वाभाविक रूप से भावनात्मक रूप से समुदायों से जुड़े होते हैं, और अपनी रचनाओं में भावनाओं को शामिल करना - जैसे कि डर, आशा, निराशा आदि से पात्रों, संवादों व नरेशन द्वारा पाठकों को जोड़ा जा सकता है। कोशिश करें कि छोटी लेकिन विशिष्ट घटनाओं द्वारा वैश्विक मुद्दों के बारे में कहा जाए। ये पल एक ऐसा स्नैपशॉट पेश करते हैं जो अक्सर व्यापक चित्रण से ज़्यादा मार्मिक होता है। समुदायों को प्रभावित करने वाले वैश्विक मुद्दों के बारे में लिखते समय, विषय को सम्मानपूर्वक और जिज्ञासा के साथ समझना ज़रूरी है। रूढ़िवादिता या ग़लतफ़हमी से बचने के लिए मुद्दे पर गहन शोध भी करें। प्रामाणिकता और सम्मान एक ऐसी कुंजी है जो ना केवल यथार्थ को उजागर करती है बल्कि पाठकों को प्रभावित भी करती है।

लघुकथाएं पाठकों को ऐसे व्यक्तियों और घटनाओं से जोड़ सकती हैं, जिनका सामना उन्होंने अपने दैनिक जीवन में कभी नहीं किया होगा। लेखकों के रूप में, ऐसा सृजन एक अवसर है जो समाज को शिक्षित और प्रेरित कर सकता है। लेकिन, यह भी सच है कि, इसका प्रभाव तभी स्थायी रह सकता है - जब रचनाकर्म का उद्देश्य, सत्य की गहराई और ईमानदारी से भरा हो।

संतोष सुपेकर जी की वैश्विक मुद्दों पर लघुकथाएं 

वरिष्ठ लघुकथाकार एवं कवि संतोष सुपेकर जी लघुकथा के अतिरिक्त पत्रकारिता एवं जनसंचार क्षेत्र में सुपरिचित नाम हैं। लघुकथा में उनके विशिष्ट कार्यों में भारत सरकार को लगातार पत्र भेजकर लघुकथा को शैक्षणिक पाठ्यक्रम में लागू करने के लिए निवेदन करना सम्मिलित हैं। ‘साथ चलते हुए’, ‘हाशिए का आदमी’, ‘बंद आँखों का समाज’, 'सातवे पन्ने की खबर' ‘हँसी की चीखें’, 'Selected Laghukathas of Santosh Supekar', 'अपकेन्द्रीय बल' आदि उनके प्रमुख लघुकथा संग्रह हैं। लघुकथा विधा पर विभिन्न विद्वानों से चर्चा और समीक्षा कार्य भी उन्होंने कई बार किया है। हाल ही में आई उनकी पुस्तक 'अन्वीक्षण' उनके द्वारा किये गए समीक्षा कार्यों, आलेखों व पत्रों का संग्रह है, जो कि शोध कार्य हेतु अति उपयुक्त है। उनके लघुकथा संग्रह 'सातवे पन्ने की खबर' को साहित्य अकादमी भोपाल के द्वारा प्रादेशिक 'जैनेन्द्र कुमार जैन लघुकथा' पुरस्कार (2020) प्राप्त हुआ है। सरल काव्यांजलि संस्था के माध्यम से भी वे लघुकथा विधा के उत्थान हेतु प्रयासरत हैं। उज्जैन के लोकप्रिय हिन्दी दैनिक 'जन टाइम्स' में बतौर साहित्य सम्पादक, समकालीन लघुकथाकारों की लघुकथाएं प्रकाशित कर रहे हैं। उनकी पुस्तक 'उत्कंठा के चलते' लघुकथा विषयक साक्षात्कारों का संकलन है। उनके लघुकथा संग्रह 'अपकेन्द्रीय बल' के लिए आदरणीय योगराज जी लिखते हैं कि,"इस संग्रह से गुजरते हुए मैंने पाया कि संतोष सुपेकर की लघुकथाएँ हमारे जीवन की विसंगतियों का बहुत ही बारीकी से अन्वेषण करती हैं। यथार्थ से सजी इन लघुकथाओं में जीवन की श्वेत श्याम फोटोग्राफी है।"

उनकी कुछ ऐसी रचनाओं पर चर्चा करते हैं, जो कि वैश्विक मुद्दों को उजागर करती हैं।

श्री सुपेकर की रचना ‘ग्लोबल फिनॉमिना’ में श्री सुपेकर ने क्षेत्रवाद पर पडौस से लेकर पूरी दुनिया के व्यवहार को बताया है। रूस और क्रीमिया के मिलने से अमेरिका की और एक बड़ा प्लॉट खरीदने पर पडौस की महिला का बदला रूप ग्लोबल फिनॉमिना है। सूक्ष्मतम को उजागर करती यह रचना लघुकथा एक वैश्विक मुद्दे को इस तरह बता रही है जिससे हर तरह के पाठक जुड़ सकते हैं।

उनकी ही एक अन्य लघुकथा 'भयावह चिंता' में टेलीविज़न पर दृश्य के माध्यम से एक बच्चे को बचाने के लिए पिता सरहद की टूटी हुई बाड़ में से अपने बच्चे को दूसरे देश की सरहद में रख रहा था। लेखक द्वारा बिना कुछ कहे यह समझ में आ रहा है कि जिस देश में रह रहे हैं, वहां मार-काट होने के कारण इन लोगों को जान का खतरा है और बच्चा परेशानियां देखेगा तो सही, लेकिन कम से कम जान तो बची रहेगी, यह विचार पिता के दिमाग में है। केवल यही बात ही शान्ति का महत्व दर्शा रही है। कही भी कृत्रिमता का अनुभव हुए बिना भावनाओं को स्वाभाविक रूप से उजागर कर यह रचना श्री सुपेकर की काव्य प्रतिभा को भी गद्य से जोड़कर एक प्रयोग भी दर्शा रही है। बहुत व्यापक तौर की बजाय यह संक्षिप्त चित्रण अपेक्षाकृत अधिक मार्मिक प्रतीत होता है। यह भी प्रतीत होता है कि जैसे यह लेखक की स्वयं की पीड़ा हो। यह सत्य है कि दूसरो के दर्द को आत्मपीडा बना पाना ही सभी का हित सोच पाने वाले लेखक की संवेदनशीलता होती है।

'सभ्यताओं, सुनो' शीर्षक की लघुकथा में दो मित्रों की बातचीत में हथियार से बचाव के लिए हथियार के अपने पास होने की मानसिकता का सटीक वर्णन किया गया है। इस लघुकथा के लिए लेखक ने काफी रिसर्च की है और यह रिसर्च किसी भी लघुकथा के लिए करनी आवश्यक है भी। बुलेटप्रूफ जेकेट हमारी पूरी तरह सुरक्षा नहीं कर सकता है, यह बात भी बताती है कि हमारा समझदार मस्तिष्क वैश्विक स्तर पर किस दिशा में विचार रखता है। यदि हम बचाव का सोचते तो किसी न किसी ऐसी वास्तु का आविष्कार हो चुका होता, जो हमारे पूरे शरीर को सुरक्षा दे सकता। पात्र जब यह कहते हैं कि हम में से अधिकतर के अन्दर हत्यारा छिपा है तो एक सिहरन सी उठ जाती है। अंत में लेखक जोन्स मेकेस की रचना द्वारा यह समझाते हैं कि क्यों ना साहित्यकारों की बातें सुनी व समझी जाए!

इसी क्रम में उनकी एक रचना खामोश पढ़िए, 

खामोश !

"बेटा, तुम वैज्ञानिक तो बनना चाहते हो।" पीटीएम (शिक्षक-पालक बैठक) में उस नए शिक्षक ने एक साधारण से लड़के से कुछ व्यंग्य से पूछा, "पर ये तो सोचा होगा कि बनाओगे क्या, अविष्कार किस चीज़ का करोगे?"

"मैं, मैं.. वह इंस्ट्रूमेंट बनाना चाहता हूँ अपनी माता की ओर देखते, गोलीबारी में मारे गए व्यक्ति के दस वर्षीय पुत्र का जवाब था, "कि... कि "खामोश' कहते ही,  दुनिया 

 भर की  बन्दूकें, तोपें, रिवॉल्वर सब, सहम कर हो जाएँ, खामोश!"

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इस रचना में भी जब एक बच्चा यह कहता है कि दुनिया भर के हथियार खामोश हो जाएं, तो यह बात एक सकारात्मकता पैदा करती है। भविष्य की पीढ़ी जब ऐसी रचनाएं पढ़ेगी तो निःसंदेह ही भविष्य हमारी सोच से अधिक उज्जवल हो सकेगा। 

शांति जीवन है और कलह अजीवन। इसे मौत नहीं कह सकते, लेकिन जिस तरह प्रकृति अपने शांत रूप में ही सुंदर दिखाई देती है और बिगड़ने पर विध्वंसक, वैसे ही इंसानी स्वभाव भी है। अतः इसे मैंने 'अजीवन' कहा, जैसे प्रकृति की मृत्यु विध्वंस से नहीं होती, कलह से मानव की मृत्यु नहीं होती, लेकिन मानवीयता की तो होती ही है।

एक अन्य रचना भी पढ़िए,

भयतंत्र में एक शाम 

‘अरे!’ पैंतालीस वर्षीय सागर ने पत्नी को आते  हुए देखा तो पूछ बैठा, ‘अकेली  ही आ गई! मुझे फोन कर दिया होता, लेने आ जाता, सुनसान रास्ता था…’

‘लगाया था आपका फोन, पर लगा ही नहीं। फिर सोचा निकल ही चलूँ, और आ गई, बस्स!’

‘अरे पर…  रास्ता कितना सुनसान है और रात भी होने वाली है। तुम्हें डर नहीं लगा?’

‘डर? हां, डर तो था, बल्कि बहुत से डर ‘थे’। सुनसान रास्ते पर लुटेरों का डर,  छेड़छाड़ का डर, इज्जत का डर, आवारा कुत्तों का डर, विक्षिप्तों का डर, व्हीकल से कुचले जाने का डर, चैन स्नेचर्स का डर, मोबाइल छिन जाने का डर…’ जैसे-जैसे वह बोलती गई उसकी मुस्कान तीखी होती गई और अपने अंदर एक सिहरन-सी  महसूस करता गया सागर, ‘अकेली कहां थी मैं? इतने सारे डर जो थे मेरे साथ!

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यह रचना भी उन भयों को उजागर करती है, जो कामोबेश सभी देशों में व्याप्त हैं। यह रचना मानवीय समाज और जानवरों के बीच यह अंतर भी बिना कहे बताती है कि, जानवर रात को आराम से घूम सकते हैं लेकिन इंसान नहीं और विशेष तौर पर तो महिला तो बिलकुल नहीं। यह (अपराध) एक ऐसा वैश्विक मुद्दा है जिस पर ध्यान देना बहुत आवश्यक है।

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जिन अन्य रचनाओं पर चर्चा की है, वे प्रस्तुत हैं:






कुल मिलाकर, यह कहने में कतई अतिशयोक्ति नहीं है कि, संतोष सुपेकर जी और उनकी तरह ही लिखने वालों ने विषय को समझने में जो अध्ययन किया है और जिस कलात्मकता और भावात्मकता का अपनी रचनाओं में परिचय दिया है, वह निःसंदेह सराहनीय है, पठनीय है और हमारी धरती और उस पर बसे हम सभी के लिए उपयुक्त एवं उपयोगी भी।
- चंद्रेश कुमार छतलानी

बुधवार, 14 दिसंबर 2022

पुस्तक समीक्षा | अपकेन्द्रीय बल | लेखक: संतोष सुपेकर | समीक्षक: दिव्या राकेश शर्मा

संवेदना को हौले-हौले से जगाती कथाएँ


"सुपेकर उन लघुकथाकारों में से हैं जो लघुकथा-सृजन का रास्ता अपनी वैचारिक शक्ति के बूते एक अन्वेषी के रूप में खुद खोजते हैं।किसी का अनुगामी होकर चलना उनके रचानात्मक स्वभाव में नहीं हैं।"

आदरणीय संतोष सुपेकर जी के लिए यह उदगार आदरणीय डॉ. पुरुषोत्तम दूबे सर के हैं। उनकी इस बात से मैं भी पूरी तरह सहमत हूँ। हम सुपेकर सर की रचनाओं को विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में अक्सर पढ़ते रहते हैं। उनकी रचनाशीलता व लघुकथा के प्रति समर्पण भी उनकी साहित्यिक कर्मठता को दिखाता है।वैचारिक शक्ति का एक उदाहरण सुपेकर जी के नये लघुकथा संग्रह 'अपकेन्द्रीय बल' में आपको मिलेगा।यह उनका छठा लघुकथा संग्रह है जो एचआई पब्लिकेशन से प्रकाशित हुआ है।

'अपकेन्द्रीय बल' में संकलित कथाओं के बारें में आदरणीय योगराज सर लिखते हैं कि,

"इस संग्रह से गुजरते हुए मैंने पाया कि संतोष सुपेकर की लघुकथाएँ हमारे जीवन की विसंगतियों का बहुत ही बारीकी से अन्वेषण करती हैं।यथार्थ से सजी इन लघुकथाओं में जीवन की श्वेत श्याम फोटोग्राफी है।"

कथाओं में निहित मूल भाव और उद्देश्य का सार योगराज सर ने अपने इस वक्तव्य में दिया है। जो भी पाठक संतोष सुपेकर जी की लघुकथाओं से परिचित है वह इस बात से सहमत होगा कि संतोष सुपेकर जी की लघुकथाएँ यथार्थ का आईना हैं।

इन कथाओं में कोई कृत्रिमता नहीं है बल्कि स्वभाविक भाव लिए उन बिन्दुओं पर चोट है जिन बिन्दुओं की डार्क स्याही से हम बचकर निकल जाने की कोशिश करते हैं। कथाओं के पात्र हमारे इर्दगिर्द ही हैं जिन्हें आप रोज देखते हो और आगे बढ़ जाते हो।

सबसे पहले मैं इस संग्रह की लघुकथा विवश प्रस्ताव का जिक्र करूंगी। यह कथा भले ही लेखक के दिमाग की कल्पना हो, लेकिन पात्र सच्चे हैं और मैं व्यक्तिगत ऐसे पात्रों को देख चुकी हूं जिन्होंने लेखन को अपनी आत्मा बना लिया है। एक बेबस वरिष्ठ लेखक जिसने जीवन में लेखन से सम्मान तो पाया किन्तु धन नहीं कमा सके। धन तो जीवन में सम्मान से बढ़कर होता है! इसलिए लेखक के घरवालों को अब लेखक का लिखना पसंद नहीं। लेखन को बचाने के लिए वरिष्ठ लेखक अपनी जमापूंजी को ऐसे व्यक्ति के हाथों सौंप देता है जो संस्था द्वारा लेखकों को सम्मान देने का.काम करता है।

"इसमें से तीन हजार आपकी संस्था के सहायतार्थ रख लीजिए और…दो हजार मेरा सम्मान कार्यक्रम कर मुझे दे देना ताकि मेरे घरवाले मुझे लेखन करने दें।"

इस संवाद को पढ़कर इस कथा के मूल से आप परिचित हो गए होंगे।

लेखक ने लेखन में समाज की उस विसंगति को जो कि लेखको की आत्मपीड़ा बनकर आर्तनाद कर रही है। इस कथा के माध्यम से बड़ी मार्मिकता से उभारा है। डिसेंडिंग ऑर्डर शीर्षक से क्रमशः एक और दो कथाएँ हैं, दोनों ही उम्दा हैं। मुहर,अपार्टमेंट, संकुचन,स्थाई कसक,जुड़ाव, फायर,जैसी कथाएँ मनोवैज्ञानिक अवलोकन पर आधारित हैं।

सुपेकर जी ने सरकारी कार्यालयों और सरकारी कर्मचारियों को लेकर अनेक कथाएँ लिखी हैं।इन कथाओं में व्यवस्था और उसमें शामिल भ्रष्टाचार अपने नग्न रुप में सामने आ रहा है।

संग्रह की कथाओं में प्रवाह है और ठहराव भी।भाषा सहज सुगम है और पात्रानुकूल है।

इन कथाओं के पात्र कभी अपने रोग से लड़ते हुए विजेता होने का सपना देखते हैं तो कभी सच रिश्तों की चुगली कर बतियाते हैं।

हताशा का लावा अच्छा शीर्षक है कथा भी जानदार। कथाओं की डोर सख्त कील से बंधी लेकिन अपने ऊपर ढेरों आशाएं टाँगे यह डोर संवेदना को हौले-हौले से झिंझोड़ कर जगा रही है।

सात रहती दूरियाँ ऐसे ही आपको खंरोच कर निकल जाती है, तो रास्ते का पत्थर टक से आपके दिल पर जाकर लगता है। इस कथा को पढ़कर एक बार अपने मन को ज़रूर टटोलना होगा कि कहीं कभी हमने भी ऐसा तो न कहा या किया था!

सुपेकर जी रचनाधर्मिता के साथ एक और धर्म बहुत स्पष्टता से निभा रहे हैं और वह है साहित्यकारों के हृदय की पीड़ा उनके जीवन में आने वाली दिक्कतों को संजीदगी के साथ समाज और व्यवस्था के सामने रखना। उन्होंने अनेक कथाओं में लेखन जगत की विसंगतियों को उभारा है जैसा कि मैं पहले लिख ही चुकी हूँ।

चाल ,साजिशें और गिरगिट की तरह रंग बदलते पात्रों में एक पात्र लखन दादा भी है, जो राकेश की बारात का स्वागत इसलिए करता है क्योंकि अब उसे पार्षद के इलेक्शन के लिए गरीब राकेश की बस्ती के वोट चाहिएं।

उस रक्त स्नान के खिलाफ इंसानियत के बचने की कथा है।

'अपकेन्द्रीय बल' संग्रह की शीर्षक कथा समाजिक असमानता के तानेबाने और सोच व ज़रूरत पर लिखी गई कथा है। सेठ छगनलाल और सेवक मंगल की आवश्कताओं का अपकेन्द्रीय बल जो कि बेहतरीन कथा बन पड़ी है।

जाति धर्म एक ऐसा विषय जो बेहद संवेदनशील विषय है और अक्सर झगड़े की वजह भी बनता है। संग्रह की प्रथम लघुकथा 'इस बार' में चार दोस्तों के बीच अपने धर्म और जाति के विवाद के बीच उपजी बहस में अचानक सभी सच को देख खामोश हो जाते हैं और अपने ऊपर शर्मिंदा होने लगते हैं।

लघुकथाओं को समझने के लिए पाठकों को उपन्यास को समझने से ज्यादा धैर्य व श्रम की आवश्यकता होती है।अमूमन यह धारणा है कि लघुकथाएं उपन्यास के सामने महत्व नहीं रखती जबकि ऐसा नहीं है क्योंकि एक लघुकथा जो चंद वाक्यों में लिखी जाती है वह हज़ारों शब्दों में लिखे गए उपन्यास से ज्यादा लम्बी कहानी को समेटे होती है, जिसका उद्देश्य समाज की चेतना को जाग्रत करना होता है।

इस संग्रह में भी आपको ऐसी ही कथाएं पढ़ने को मिलेंगी।

संग्रह के लिए आदरणीय सुपेकर सर को बधाई व शुभकामनाएं।

- दिव्या शर्मा