यह ब्लॉग खोजें

सुरेश सौरभ लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
सुरेश सौरभ लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

रविवार, 8 दिसंबर 2024

पुस्तक समीक्षा | घरों को ढोते लोग | समीक्षक: नृपेन्द्र अभिषेक नृप

वंचित वर्गों का दर्द बयां करता "घरों को ढोते लोग"


साहित्य में लघुकथाओं का महत्व इस बात में है कि वे कम शब्दों में गहरी संवेदनाओं और विचारों को व्यक्त करने में सक्षम होती हैं। लघुकथा का यह गुण सुरेश सौरभ द्वारा संपादित संग्रह “घरों को ढोते लोग” में बखूबी देखने को मिलता है। यह संग्रह समाज के उन हाशिए पर खड़े लोगों की कहानियों को सामने लाता है, जिनकी उपस्थिति हमारे जीवन में तो निरंतर होती है, लेकिन जिनके संघर्ष और जीवन की कठिनाइयों पर हम अक्सर ध्यान नहीं देते। यह संग्रह 65 लघुकथाकारों की 71 लघुकथाओं का संकलन है, जो मजदूरों, किसानों, कामकाजी महिलाओं, और समाज के मेहनतकश तबकों की जिन्दगी को मार्मिकता से उकेरता है।

संग्रह का केंद्रीय विषय समाज के मेहनतकश वर्ग का जीवन और संघर्ष है। इन लघुकथाओं में दैनिक जीवन की कठिनाइयों, आर्थिक संकट, सामाजिक असमानता, और मेहनत के बावजूद मिलने वाली तिरस्कारपूर्ण दृष्टि को प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत किया गया है। ये कहानियां उन लोगों की हैं, जो हमारे घरों, फैक्ट्रियों, खेतों और सड़कों पर काम करके समाज को सुचारू रूप से चलाते हैं, लेकिन जिनके खुद के जीवन में शांति और सम्मान की कमी होती है।

इन लघुकथाओं में ऐसी कहानियों को पेश किया गया है, जो हमें सोचने पर मजबूर करती हैं कि समाज में किस तरह से असमानता व्याप्त है। उदाहरणस्वरूप, एक कहानी में एक घरेलू कामगार की रोजमर्रा की जिंदगी को दिखाया गया है, जिसमें उसकी कड़ी मेहनत के बावजूद उसे उचित सम्मान और वेतन नहीं मिलता। वहीं, दूसरी कहानी में एक किसान के संघर्ष को दिखाया गया है, जो अपने परिवार का पेट पालने के लिए दिन-रात मेहनत करता है, लेकिन बाजार की बेरहम व्यवस्था उसकी मेहनत को नकार देती है।

“घरों को ढोते लोग” भावनात्मक रूप से अत्यधिक संवेदनशील और उद्वेलित करने वाला संग्रह है। प्रत्येक लघुकथा समाज की उस सच्चाई को उजागर करती है, जिसे हम नजरअंदाज करते हैं। यह संग्रह हमारे समाज की उन कमजोरियों और विसंगतियों को भी दिखाता है, जो हमें आत्ममंथन करने पर विवश करती हैं। हर कहानी में एक ऐसी पीड़ा और संघर्ष छिपा है, जो पाठक को उन लोगों के जीवन के साथ एक गहरे स्तर पर जुड़ने का अवसर प्रदान करती है।

इस संग्रह की एक और महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसमें मेहनतकश वर्ग की इच्छाओं, सपनों और मानवीय संवेदनाओं को भी प्रमुखता दी गई है। ये कहानियां केवल कठिनाइयों और दुखों का चित्रण नहीं करतीं, बल्कि यह भी दिखाती हैं कि किस प्रकार ये लोग अपने सपनों को जीने के लिए लगातार संघर्ष करते रहते हैं।

संग्रह की भाषा सरल और सहज है, जो हर पाठक के लिए सुलभ है।  लघुकथाकारों ने जटिल सामाजिक और आर्थिक मुद्दों को आसान और मार्मिक भाषा में प्रस्तुत किया है। उनकी भाषा में सादगी के साथ-साथ एक गहरा प्रभाव भी है, जो पाठक को कथाओं से जोड़ता है। सरल शब्दों के माध्यम से गहरी भावनाओं और विचारों को व्यक्त करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य होता है, और इस संग्रह में यह बखूबी किया गया है।

लघुकथाओं का उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं है, बल्कि यह हमारे समाज में व्याप्त असमानता और अन्याय की ओर ध्यान आकर्षित करना है। भाषा की सहजता और कथाओं की गहराई इसे एक ऐसा संग्रह बनाती है, जिसे पढ़ने के बाद पाठक सोचने पर मजबूर हो जाता है।

सुरेश सौरभ ने इस संग्रह को संपादित करके साहित्य की दुनिया में एक महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उन्होंने न केवल एक विविधतापूर्ण लघुकथा संग्रह प्रस्तुत किया है, बल्कि उन आवाजों को मंच प्रदान किया है, जो अक्सर साहित्य में उपेक्षित रहती हैं। यह संग्रह एक प्रयास है उन मेहनतकश लोगों की जिंदगी को सम्मान और पहचान दिलाने का, जो समाज की रीढ़ होते हुए भी अक्सर अनदेखे रह जाते हैं।

संपादक की दृष्टि और उनकी साहित्यिक समझ के कारण यह संग्रह एक बेहतरीन दस्तावेज बन पाया है। उन्होंने समाज के उस वर्ग की आवाज को साहित्य में स्थान दिलाया है, जिसे अक्सर अनसुना कर दिया जाता है। यह न केवल एक साहित्यिक कृति है, बल्कि एक सामाजिक दस्तावेज भी है, जो हमारे समाज की वास्तविकताओं को प्रतिबिंबित करता है।

इस संग्रह की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि यह समाज में संवेदनशीलता और जागरूकता को बढ़ावा देता है। यह उन कहानियों को प्रस्तुत करता है, जिन्हें सुनने और समझने की आवश्यकता है। संग्रह की लघुकथाएं हमें यह सोचने पर मजबूर करती हैं कि हम अपने समाज के कमजोर तबकों के प्रति कितने उदासीन हो गए हैं। यह संग्रह हमारे समाज के उस वर्ग के लिए एक आवाज बनकर उभरता है, जो बिना किसी शिकायत के अपने जीवन की कठिनाइयों को झेलता रहता है।

पाठक को यह संग्रह केवल मनोरंजन के लिए नहीं पढ़ना चाहिए, बल्कि इसे एक आईने के रूप में देखना चाहिए, जो हमारे समाज की सच्चाई को उजागर करता है। यह संग्रह हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि अगर हम एक समानता और सम्मान से भरा समाज चाहते हैं, तो हमें इन मेहनतकश लोगों के संघर्षों और उनकी जरूरतों को समझने और उन्हें सम्मान देने की आवश्यकता है।

“घरों को ढोते लोग” एक ऐसा संग्रह है, जो न केवल साहित्यिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि समाजिक दृष्टि से भी अत्यंत मूल्यवान है। यह हमें हमारे चारों ओर की दुनिया को समझने और उसे बेहतर बनाने के लिए प्रेरित करता है। इस संग्रह की लघुकथाएं न केवल मेहनतकश वर्ग के संघर्षों को उजागर करती हैं, बल्कि यह भी दिखाती हैं कि उनके जीवन में कितना साहस, धैर्य और मानवीयता है।

सुरेश सौरभ ने इस संग्रह के माध्यम से एक ऐसा साहित्यिक योगदान दिया है, जो लंबे समय तक पाठकों के दिलों में बसेगा। यह संग्रह न केवल एक किताब है, बल्कि यह समाज के प्रति हमारी जिम्मेदारियों और हमारी उदासीनता का आईना है। “घरों को ढोते लोग” एक ऐसा साहित्यिक प्रयास है, जिसे न केवल पढ़ा जाना चाहिए, बल्कि इस पर गहन चिंतन भी किया जाना चाहिए।

समीक्षक: नृपेन्द्र अभिषेक नृप
पुस्तक: घरों को ढोते लोग
संपादक: सुरेश सौरभ
प्रकाशन: समृद्ध प्रकाशन, दिल्ली
मूल्य: 245 रुपये
वर्ष-2024

शुक्रवार, 13 सितंबर 2024

पुस्तक समीक्षा । घरों को ढोते लोग । समीक्षक- देवेन्द्रराज सुथार

श्रमजीवी वर्ग की व्यथा-कथा लेकर आये सौरभ   (पुस्तक समीक्षा) 


 साहित्य समाज का आईना होता है और कई बार यह आईना हमें वह चेहरे दिखाता है, जिन्हें हम अक्सर नज़रअंदाज़ कर देते हैं या जो हमारी  चेतना में नहीं होते। सुरेश सौरभ द्वारा संपादित लघुकथा संग्रह 'घरों को ढोते लोग' समाज के उन तबकों पर केंद्रित है, जो हमारे दैनिक जीवन को सुचारू रूप से चलाते हैं, लेकिन जिन्हें हम अक्सर नज़रअंदाज़ कर देते हैं। यह संग्रह 65 लघुकथाकारों द्वारा लिखी गई 71 लघुकथाओं का बेहतरीन गुलदस्ता है, जिसमें प्रत्येक लघुकथाकार ने अपने अनूठे नज़रिए से मज़दूरों, किसानों, मेहनतकशों व  कामवाली बाइयों के जीवन के विभिन्न पहलुओं को मार्मिक ढंग से उजागर किया है। इन लघुकथाओं में रोज़मर्रा के संघर्षों, आर्थिक चुनौतियों, सामाजिक असमानता और मानवीय संवेदनाओं को बहुत ही बारीकी से दर्शाया गया है।

रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' की लघुकथा 'जहर' एक रिक्शाचालक के जीवन की विडम्बनाओं को दर्शाती है कि कैसे समाज का ढाँचा, किस प्रकार किसी व्यक्ति को कभी-कभी अपराध की ओर धकेल देता है। मुख्य पात्र 'सईद' अपने बीमार बच्चे के लिए दवा खरीदने की मजबूरी में अपने मालिक से भिड़ जाता है, जो उसकी मजबूरी का फायदा उठाना चाहता है। मार्टिन जॉन की लघुकथा 'घरों को ढोते लोग' (जिसे पुस्तक का शीर्षक बनाया गया है) एक छोटी बच्ची के मार्फ़त मजदूरों के जीवन की कठोर वास्तविकता को, सच्चाई को प्रस्तुत करती है। पुस्तक में शामिल लघुकथाएँ भारतीय समाज में व्याप्त आर्थिक असमानता और सामाजिक भेदभाव को स्पष्ट रूप से उजागर करने में सफल रही हैं। 

डॉ. प्रदीप उपाध्याय की लघुकथा 'बस इतनी गारंटी' खेतिहर मजदूरों की समस्याओं को प्रकट करती है। शराफत अली खान की लघुकथा 'कमाई' समाज में व्याप्त असमानता और विडम्बनाओं को दर्शाती है तथा समाज में व्याप्त नैतिक मूल्यों के क्षरण की ओर भी इशारा करती है। नीरू मित्तल 'नीर' की लघुकथा 'एक माँ की मजबूरी' गरीब वर्ग की महिलाओं की स्थिति को उजागर करती है। यह लघुकथा बताती है कि गरीबी और अशिक्षा किस तरह युवा लड़कियों के भविष्य को प्रभावित कर सकती है। यह न केवल बाल विवाह जैसी सामाजिक बुराइयों की ओर इशारा करती है, बल्कि यह भी दिखाती है कि कैसे गरीबी महिलाओं को अपने बच्चों के भविष्य के बारे में कठोर निर्णय लेने के लिए मजबूर कर देती है।

पुस्तक में केवल निराशा और दुख की ही रचनाएं नहीं है, कई लघुकथाओं में गहरी मानवीय संवेदना और आशावाद की झलक भी दिखाई देती है। डॉ. अलका अग्रवाल की लघुकथा 'चरैवेति, चरैवेति' एक रिक्शाचालक की जीवंतता और जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण को दर्शाती है। संतोष सुपेकर की लघुकथा 'मजबूर और मजबूत' श्रमिक वर्ग की अदम्य इच्छाशक्ति को दर्शाती है। सेवा सदन प्रसाद की लघुकथा 'भूख', कोरोना महामारी के दौरान मजदूरों की दुर्दशा को चित्रित करती है। कैसे भूख और बेरोजगारी लोगों को जोखिम भरे निर्णय लेने पर मजबूर कर सकती है। आपदा के समय में समाज के सबसे कमजोर वर्ग को सबसे अधिक कष्ट झेलना पड़ता है, भूख लघुकथा से पता चलता है। 

 सुकेश साहनी, योगराज प्रभाकर, मनोरमा पंत, अविनाश अग्निहोत्री, बलराम अग्रवाल, डॉ.चंद्रेश कुमार छतलानी, नीना मंदिलवार, आलोक चोपड़ा, प्रो. रणजोध सिंह, डॉ.मिथिलेश दीक्षित, कल्पना भट्ट, अरविंद सोनकर, रश्मि लहर, गुलज़ार हुसैन, सुरेश सौरभ , रशीद गौरी, आदि लघुकथाकारों ने अपनी बेहतरीन लघुकथाओं से संग्रह को पठनीय और संग्रहणीय बनाया है। वरिष्ठ कथाकार सुधा जुगरान ने संग्रह में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका जोड़ कर संग्रह को साहित्यिक हलकों में विमर्श का हिस्सा बना दिया है। 

संग्रह की भाषा सरल और प्रभावशाली है, जो इसे व्यापक पाठक वर्ग के लिए सुलभ बनाती है। लेखक जटिल सामाजिक-आर्थिक मुद्दों को सरल कथाओं के माध्यम से प्रस्तुत करने में सफल रहें हैं। लघुकथाएँ संग्रह के विषय से अनुकूल और सार्थक हैं। 'घरों को ढोते लोग' एक ऐसा लघुकथा संग्रह है, जो न केवल पठनीय है, बल्कि समाज के प्रति हमारी समझ को, संवेदना को गहरा और विस्तृत करने में भी सहायक सिद्ध होगा। संपादक ने इन लघुकथाओं को एक साथ संकलित करके महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। उन्होंने समाज के एक ऐसे वर्ग की आवाज़ को मुखर किया है, जो अक्सर साहित्य में उपेक्षित रह जाती है। यह संग्रह केवल एक पुस्तक नहीं है; यह एक वह आईना है, जो हमें हमारे समाज का एक ऐसा चेहरा दिखाता है जिसे हम अक्सर देखने से कतराते हैं। सच्चा विकास तब तक नहीं हो सकता, जब तक समाज का हर वर्ग सम्मान और समानता के साथ न जिये। लिहाजा यह एक ऐसी कृति है जो न केवल पढ़ी जानी चाहिए, बल्कि जिस पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। मंथन किया जाना चाहिए।

-0-


पुस्तक-घरों को ढोते लोग (साझा लघुकथा संग्रह) 

संपादक: सुरेश सौरभ (मो-7860600355) 

मूल्य: ₹245 (पेपरबैक)

प्रकाशन: समृद्ध पब्लिकेशन शाहदरा, दिल्ली

प्रकाशन वर्ष-2024

समीक्षक-

देवेन्द्रराज सुथार

 पता - गांधी चौक, आतमणावास, बागरा, जिला-जालोर, राजस्थान। 343025

मोबाइल नंबर- 8107177196

रविवार, 28 जुलाई 2024

पुस्तक समीक्षा । बिखरती सद्भावनाओं को समेटती लघुकथाएं । शिव सिंह 'सागर'

लघुकथा की दुनिया में सुरेश सौरभ पुराना और प्रतिष्ठित नाम है। मुझे इन दिनों उनके संपादन में संपादित लघुकथा का साझा संग्रह 'मन का फेर'‌ पढ़ने का सुअवसर मिला। यकीन मानिए ये किताब अपने अनोखे अंदाज के लिए किताबों की दुनिया में एक अलग पहचान बनाएगी, ऐसा मुझे पूरा विश्वास है। लघुकथा एक ऐसी विधा है, जो अपनी लघुता और अपने अनूठे शिल्प के लिए निरंतर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रही है, चर्चित हो रही है। यूँ तो लघुकथा लिखने और संपादित करने के लिए  सामाजिक विसंगतियों के अनेक विषय हो सकते हैं, पर अंधविश्वासों, रूढ़ियों एवं कुरीतियों पर केंद्रित लघुकथाएं प्रकाशित करना वाकई साहस और जोखिम भरा का काम है, संपादक सौरभ जी इसके लिए बधाई के पात्र हैं। 

संग्रह में  योगराज प्रभाकर की पहली लघुकथा 'कन्या पक्ष' मन द्रवित कर देती है और हमारे सामाज के दोहरे और दोगले चरित्र को उघाड़ कर रख देती है। लघुकथा की यही खूबसूरती है कि वह कम समय में ही मन पर, हृदय पर  गहरा असर करे। साधारण से साधारण इंसान को भी वह बहुत कुछ सोचने-विचारने के लिए मजबूर कर दे।  डॉ. मिथिलेश दीक्षित की लघुकथा 'डुबकी ' बेटी और बहू में अंतर को दर्शाती है। जहाँ बेटी खुद अपनी माँ को सही राह दिखाने का प्रयास करती है। डॉ. मिथिलेश की लघुकथा बेहद प्रेरणादायी है। मनोरमा पंत की लघुकथा 'नाक' समाज के झूठे व दिखावटी चरित्र को दर्शाती है। चित्रगुप्त की लघुकथा 'ईनो', ढोंगी पंडित के चरित्र को प्रस्तुत करती है। इसी क्रम में विजयानंद 'विजय' की लघुकथा 'चंदा' हो, या रश्मि लहर की लघुकथा 'मुहूर्त ' हो, चाहे सतीश खनगवाल की 'कंधे पर चांद', डॉ.पूरन सिंह की 'भूत', नीना मंदिलवार की 'हीरो', कल्पना भट्ट की 'डर के आगे' भगवती प्रसाद द्विवेदी की 'आरोप' 'अंतर' 'पुण्य' अछूतोद्धार, मधु जैन की 'दहशत', डॉ. राजेन्द्र साहिल की लघुकथा 'औपचारिक अधयात्म', सुकेश साहनी की 'दादा जी'  डॉ. अंजू दुआ जैमिनी की 'आश्रम' या बलराम अग्रवाल, डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी, अखिलेश कुमार 'अरुण' विनोद शर्मा 'सागर', रमाकांत चौधरी, चित्त रंजन गोप,नेतराम भारती, सुनीता मिश्रा, प्रेम विज, मनोज चौहान, हर भगवान चावला अरविंद सोनकर, राजेन्द्र वर्मा, अखिलेश श्रीवास्तव 'चमन', सुरेश सौरभ, बजरंगी भारत, अभय कुमार, भारती, गुलज़ार हुसैन,राम मूरत 'राही', सवित्री शर्मा 'सवि', आदि सभी साठ लघुकथाकारों की लघुकथाएं विचारणीय एवं संग्रहणीय हैं, जो सामाजिक कुरीतियों, रूढ़ियों और अंधविश्वासों पर एक व्यापक विमर्श साहित्य जगत में प्रस्तुत करती हैं, व्यापक दृष्टि से पूरा का पूरा संग्रह ही आज के भौतिकवादी इंसान की आंखों से पट्टी खोल फेंकने के लिए पर्याप्त कहा जा सकता है। 


 इस संग्रह में वरिष्ठ पत्रकार अजय बोकिल की संपादकीय टिप्पणी लाजवाब है। आपका विश्लेषण किताब की सफलता में चार चाँद लगाता है। संपादक सौरभ जी ने लोकतांत्रिक मूल्यों पर अपनी सशक्त एवं विचारणीय संपादकीय प्रस्तुत की है। मेरे विचार में लघुकथाओं का सबसे सशक्त पक्ष है, उनका समाज को शिक्षित और जागरूक करने की क्षमता का होना, जो इस संग्रह में विद्यमान है‌। लघुकथा के इस संकलन का उद्देश्य समाज को शिक्षित करना है। जागरूक करना है, सदियों से व्याप्त अंधविश्वासों से उसे बाहर लाना है। इस लिहाज से यह संग्रह पढ़़ना नितांत आवश्यक हो जाता है। 

पुस्तक - मन का फेर (साझा लघुकथा संग्रह) 
संपादक - सुरेश सौरभ
प्रकाशक - श्वेतवर्णा प्रकाशन नोएडा 
पृष्ठ संख्या-144
मूल्य - 260 (पेपर बैक) 

---------

समीक्षक -

शिव सिंह सागर

बंदीपुर हथगाम फतेहपुर (उ. प्र.)

मो- 97211 41392

मंगलवार, 23 जुलाई 2024

पुस्तक समीक्षा | हिंदी लघुकथा स्वरूप और सार्थकता | सुरेश सौरभ

डॉ. मिथिलेश दीक्षित साहित्य जगत में एक बड़ा नाम है। शिक्षा के क्षेत्र में ही नहीं बल्कि साहित्य और समाज सेवा में भी आपका उल्लेखनीय योगदान है। हिंदी की तमाम विधाओं में आपका रचना कर्म है। विभिन्न विधाओं में आप की लगभग अस्सी पुस्तकें प्रकाशित हो चुकीं हैं। हाल ही में इनकी किताब हिंदी लघुकथा स्वरूप और सार्थकता के शीर्षक से सुभदा बुक्स साहिबाबाद से प्रकाशित हुई है, जो हिंदी लघुकथा के पाठकों, लेखकों और शोधार्थियों- विद्याथिर्यों  के लिए पठनीय और वंदनीय है। संपादकीय में डॉ.मिथिलेश दीक्षित लिखती हैं- हिंदी साहित्य की गद्यात्मक विधाओं में लघुकथा सबसे चर्चित विधा है। आज के विधागत परिपेक्ष्य में लघुकथा के स्वरूप को देखते हैं, तो लगता है इसके स्वरूप में पर्याप्त परिवर्तन हुआ है, इसका मूल प्रयोजन भी बदल गया है। अब उपदेशात्मक या कोरी काल्पनिक लघुकथाओं में विशेष पत्रों के स्थान पर सामान्य जन का प्रतिनिधित्व करने वाले सामान्य पात्रों का समयगत परिस्थितियों में चित्रण होता है.....और वे आगे लिखतीं हैं..संक्षिप्तता गहन संवेदन, प्रभाव सृष्टि और संप्रेषण क्षमता लघुकथा की विशिष्ट गुण है। "लघुकथाकार का गहन संवेदन जब लघुकथा में समाहित हो जाता है, तब शिल्प में सघनता आ जाती है, भाषा में सहजता और पात्रों में जीवन्तता आ जाती है‌।"

      डॉ.ध्रुव कुमार, अंजू श्रीवास्तव निगम, इंदिरा किसलय, डॉ.कमल चोपड़ा, कल्पना भट्ट, कनक हरलालका, डॉ.गिरीश पंकज, निहाल चंद्र शिवहरे, बी. एल. अच्छा, डॉ,भागीरथ परिहार, मुकेश तिवारी, मीनू खरे, रजनीश दीक्षित, शील कौशिक, डॉ. शैलेश गुप्ता 'वीर' ,डॉ.शोभा जैन, सत्या  सिंह, डॉ.स्मिता मिश्रा, डॉ. सुरंगमा यादव, डॉ.सुषमा सिंह, संतोष श्रीवास्तव के बहुत ही शोधपरक लेखों  को इस पुस्तक में सम्मिलित किया गया हैं।  लेखों में लघुकथा के शिल्प, संवेदना, और लघुकथा के  वर्तमान, अतीत और भविष्य पर बड़ी सहजता, सूक्ष्मता और गंभीरता से विमर्श किया गया है। पुस्तक में हिंदी लघुकथा के बारे में डॉक्टर मिथिलेश दीक्षित से डॉ.लता अग्रवाल की बातचीत भी कई महत्वपूर्ण बिंदुओं पर की गई है, जिसमें लघुकथा की प्रासंगिकता, उसकी उपयोगिता, उसका आकार-प्रकार व मर्म, उसमें व्यंग्य तथा शिल्पगत विविधता आदि।
         प्रसिद्ध साहित्यकार  गिरीश पंकज पुस्तक में अपने आलेख में लिखते हैं-" कुछ लेखक लघुकथा को लघु कहानी समझ लेते हैं जिसे अंग्रेजी में 'शॉर्ट स्टोरी' कहते हैं, जबकि वह लघु नहीं पूर्ण विस्तार वाली सुदीर्घ कहानी ही होती है। लघुकथा के नाम पर 500 या 1000 शब्दों वाली भी लघुकथाएं मैंने देखी हैं और चकित हुआ हूं ।ये किसी भी कोण  से लघुकथा के मानक में फिट नहीं हो सकती। मेरा अपना मानना है कि लघुकथा 300 शब्दों तक ही सिमट जाएं तो बेहतर है। तभी सही मायने में उसे हम संप्रेषणीय में लघुकथा कहेंगे। अगर वह 500 या उससे अधिक शब्दों तक फैल जाती है तो उसे लघु कहानी के श्रेणी में रखना उचित  होगा।"
         मिथिलेश जी ने बहुत श्रमसाध्य कार्य किया है,  लघुकथा पर कालजयी विमर्श की पहल की है उन्हें हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं।

पुस्तक- हिंदी लघुकथा स्वरूप और सार्थकता
संपादक- डॉ. मिथिलेश दीक्षित
प्रकाशक-शुभदा बुक्स साहिबाबाद उ.प्र.
मूल्य-300/
पृष्ठ-112 (पेपर बैक)

समीक्षक-सुरेश सौरभ

निर्मल नगर लखीमपुर खीरी उत्तर प्रदेश-262701
मो-7860600355

मंगलवार, 28 मई 2024

आस्था और अंधविश्वास के बीच की लकीरों की पड़ताल | समीक्षा | लघुकथा संग्रह | समीक्षक : डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी




पुस्तक - मन का फेर (साझा लघुकथा संग्रह)
संपादक - सुरेश सौरभ
प्रकाशक - श्वेतवर्णा प्रकाशन नोएडा
ISBN - 978-81-968883-9-8
पृष्ठ संख्या-144
मूल्य - 260 (पेपर बैक)







माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।

कबीर दास जी इस दोहे में कहते है कि, बहुत लंबे समय तक माला घुमा लें,  लेकिन यदि मन का भाव नहीं बदल पाया तो बेहतर कि हाथ की माला को फेरना छोड़ मन के मोतियों को फेरा जाए अथवा बदला जाए। इसी भावना के साथ, लघुकथाकार सुरेश सौरभ के संपादन में संपादित लघुकथा साझा संग्रह 'मन का फेर'‌ एक विशिष्ट संकलन है जो अंधविश्वास और उन पुरातन रीति-रिवाजों की जटिल परतों को गहराई से उजागर करता है, जिनकी आज के समय में आवश्यकता समाप्त होती जा रही है। रूढ़ियों एवं कुरीतियों की संज्ञा एक ऐसी संज्ञा है जो पुरानी प्रथाओं को नवीन समय देता है। आज की रूढ़ी किसी समय की सर्वमान्य प्रथा हो ही सकती है।
जिन घटनाओं का कोई कारण ज्ञात नहीं हो सका, उसे ईश्वरीय कारण कहा गया और जब कारण ज्ञात हुआ तो, वह ज्ञात कारणों के मध्य स्थान पा गया। आज भी हो सकता है कि, कोई डॉक्टर किसी की मृत्यु का कारण कोई बीमारी बता पाएं, लेकिन उस बीमारी का कारण अज्ञात रहे, तब कोई कह ही सकता है कि, ईश्वर की मर्ज़ी थी। कुल मिलाकर अंधविश्वास का कारण, कारण का अज्ञान है और यह अज्ञान सदैव और सर्वस्थानों पर किसी ना किसी घटना के लिए रहेगा ही तथा समय के साथ वह कारण ज्ञात भी होगा।
यह संग्रह विभिन्न प्रतिभाशाली लेखकों के दृष्टिकोणों की एक पच्चीकारी प्रस्तुत करता है। लघुकथाओं के माध्यम से, यह संग्रह, मानव के उस विश्वास को उजागर करता है, जिनके कारण या तो अब ज्ञात हो चुके हैं या फिर जिनके कारण समाज में अनावश्यक भय व्याप्त है। यह संग्रह उन परंपराओं पर भी प्रकाश डालता है जो अपनी प्रासंगिकता अब खो चुके हैं।
'समाज को शिक्षित करती लघुकथाएं' शीर्षक से वरिष्ठ पत्रकार अजय बोकिल की अद्भुत भूमिका और सुरेश सौरभ के विचारोत्तेजक सम्पादकीय लिखा है। इस संकलन की विशेषताओं में से एक लघुकथाओं की शैलियों में विविधता है। प्रत्येक लेखक पाठकों के लिए अपने अनुसार रोचक कथ्यों की समृद्धता प्रदान कर रहा है। योगराज प्रभाकर, संतोष सूपेकर ,मधु जैन, डॉ. मिथिलेश दीक्षित, मनोरमा पंत, विजयानंद 'विजय', सुकेश साहनी, हर भगवान चावला, सुरेश सौरभ, बजरंगी भारत, राम मूरत 'राही' सहित 60 उत्तम चयनित लघुकथाओं के लेखक समसामयिक मुद्दों पर रंग बिखेर रहे हैं। समय के साथ पुरानी पड़ती परंपरा एक बोझ के समान है, उस बोझ से जूझ रहे व्यक्तियों से लेकर अंधविश्वास में डूबे समुदायों के भयावह वृत्तांत तक, यह पुस्तक भीतर हमें विचार करने को प्रेरित करता है।
जो बात इस संकलन को अलग करती है, वह पूर्वकल्पित धारणाओं को चुनौती देने और आत्मनिरीक्षण को प्रेरित करने की क्षमता है। कल्पना के लेंस के माध्यम से, लेखक कुशलतापूर्वक प्रथाओं की जटिलताओं और विश्वसनीयता का विश्लेषण करते हैं, जिससे पाठक सवाल उठाने और अन्वेषण की एक विचारोत्तेजक यात्रा हेतु मानसिकता विकसित कर सकते हैं।
इसके अलावा, 'मन का फेर' माहौल और मनोदशा की भावना पैदा करने की क्षमता में उत्कृष्ट है। लगभग प्रत्येक लघुकथा एक विशिष्ट वातावरण को उजागर करती  है जो संग्रह के अंतिम पृष्ठ को पलट चुकने के बाद भी लंबे समय तक दिमाग में बनी रहती है। अधिकतर रचनाओं का गद्य विचारोत्तेजक और गूढ़ है, जो पाठकों को समान निपुणता के साथ यथार्थ और काल्पनिक दोनों दुनियाओं में खींच लेता है। किसी भी आस्था का वैज्ञानिक विश्लेषण सत्य और असत्य की खोज करता है। कई बार हम अंधविश्वास करते हैं और कई बार अंध-अविश्वास, जबकि दोनों ही गलत हैं।
यद्यपि संपूर्ण संकलन योगदान देने वाले लेखकों की प्रतिभा का प्रमाण है, तथापि कुछ रचनाएं ऐसी भी हैं जो विशेष रूप से यादगार बनी हैं और पाठकों के मानस पर एक अमिट छाप छोड़ जाती है।
निष्कर्षतः, 'मन का फेर' एक उत्कृष्ट रूप से तैयार किया गया संकलन है जो अंधविश्वास और पुरानी प्रथाओं की जटिलताओं और विश्ववसनीयता की गहराइयों को बारीकियों के साथ उजागर करता है। यह पाठकों को मानवीय स्थिति और विश्वास पर विचारोत्तेजक अन्वेषण प्रदान करता है। यह मानसिकता केवल धार्मिक आस्था तक ही सीमित नहीं है, बल्कि विज्ञान का नाम लेकर अंधविश्वास पैदा करने वाले पाखंडियों की भी कोई कमी नहीं। कुल मिलाकर जिस बात को हम जानकर सही या गलत कहते हैं, वही सत्य की राह है और जिसे मानकर सही या गलत कहते हैं, वह असत्य की राह हो सकती है।

-
डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
3 प 46, प्रभात नगर
सेक्टर-5, हिरण मगरी
उदयपुर - 313002
9928544749
writerchandresh@gmail.com




शुक्रवार, 19 जनवरी 2024

लघुकथा : हवा | सुरेश सौरभ

     दरवाजा खुला। 

    "इतनी रात कहां कर दी।" अब्बू गुस्से से आगबबूला थे। 

      "कार्यक्रम ही लंबा खिंचा। क्या करती ?"

      "क्या था कार्यक्रम? "

      "राम भजन संध्या।" तसल्ली से बैठते हुए बेटी बोली। 

      "अरे! तुमने गया राम भजन? 

      "हां हां...फिर पर्स से नोट निकालते हुए वह गिनने लगी, एक दो तीन.....नोटों की चमक से,अब्बू की आंखें चुधिंया गईं, "तू तो नात-ए-पाक कव्वाली गाती थी, फिर राम भजन....?" 

       वह नोट गिरने में तन्मय थी।

       "वाह! पूरे सोलह हजार, इनाम मिलाकर। इतने कम समय में इतने कभी न मिले। हां अब्बू अब बताओ क्या कह रहे थे आप ?"

      "यही कि तू तो कुछ और ही गाती थी। फिर अचानक राम भजन.."

       "हवा का रुख देखकर पंछी भी परवाज भरते हैं, फिर मैं तो इंसान हूं...हा हा हा....हंसते हुए आंखें नचाकर, "अब्बू आप भी कुछ समझा करो।"

        अब अब्बू भी मुस्करा कर प्यार से बोले-"सलमा बेटी अगली भजन संध्या कब है।"

        "परसो।"


    -सुरेश सौरभ

      स्वरचित मौलिक अप्रकाशित

       निर्मल नगर लखीमपुर खीरी उत्तर प्रदेश

        मो-7860600355


सोमवार, 8 जनवरी 2024

नैतिक मूल्यहीनता पर वैश्विक विमर्श की ओर उन्मुख लघुकथाएँ - सुरेश सौरभ

आज हर क्षेत्र में हम बढ़ रहे हैं, किन्तु चरित्र के मामले गिरते जा रहे हैं। आज पढ़े-लिखे ही नित रोज भ्रष्टाचार में संलिप्त दिखाई देते हैं, जो एक रुपया ऊपर से चलता है, नीचे तक आते-आते वह 15 पैसे ही रह जाता है, पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी कभी ऐसा कहते थे। हर क्षेत्र में नैतिक मूल्यों की गिरावट आयी है, फिर चाहे वह शिक्षा का क्षेत्र हो या राजनीति का। शिक्षालयों  में जहाँ देश के भविष्य का निर्माण होता है, वहाँ आज नैतिक मूल्यों में गिरावटें दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं, जो विद्यार्थी जिस विषय में टॉप करता है, वहीं पत्रकारों के सवाल के जवाब में अपना सही विषय नहीं बता पाता है। अनामिका शुक्ला जैसी शिक्षक-शिक्षिकाएँ फर्जी तरीके से करोड़ों का कैसेे गबन कर रहे हैं, यह प्रतिदिन अखबारों में खुलासे हो रहे हैं। ऐसे में भ्रष्ट चरित्रहीन शिक्षक-शिक्षिकाएँ क्या बच्चों को शिक्षा देंगे? यह सवालिया विषय है। आज दशा ये है, जिसे नकल रोकने की जिम्मेदारी दी गई है, वही नकल कराने की तरतीब बताता है, जिसे बिजली चोरी रोकने की जिम्मेदारी दी गई, वही बिजली चोरी के नये तरीके बता रहा है। जिसे  अपराध रोकने की जिम्मेदारी दी गई, वही अपराधियों को बचाने का ठेका लिए बैठा है। माँ-बाप के पास बच्चों के लिए समय नहीं, बच्चे मोबाइल देख-देख कर जवान हो रहे हैं। व्यवसायिकता की आँधी में संयुक्त परिवार टूट रहे हैं। परिवार जैसी संस्था का, संस्कारों का, रोज जनाजा निकल रहा है। नैतिक मूल्यों पर चर्चा कहीं नहीं होती, चर्चा सिर्फ माँ-बाप अपने बच्चों से यही करते है कि कैसे अधिक से अधिक पैसे कमाए जाए, कैसे अमीर बन कर शोहरत हासिल की जाए। युवा लेखक नृपेन्द्र अभिषेक ‘नृप’ की  पुस्तक ’ऊर्जस्वी’ अभी जल्दी ही आयी है, जिसमें वह लिखते हैं-पृथ्वी का सबसे बुद्धिमान प्राणी इंसान होता है। लेकिन इंसान की फितरत होती है कि वह कभी संतुष्ट नहीं होता। उसे जितना प्राप्त हुआ, उससे ज्यादा पाने की चाह में निराश होते रहता है।’’ 

गिरते नैतिक मूल्यों पर वरिष्ठ साहित्यकार गिरीश पंकज जी कहते हैं-
होठों पर मुस्कान सजा कर आए हैं/चंद लुटेरे वेश बना कर आए हैं 

वहीं खीरी के वरिष्ठ कवि नंदी लाल जी कहते हैं।
सभ्यता पर नग्नता के जो कलैंडर टँग गए/प्यार के किस्से सभी  अखबार वाले पूछते,

संजीव जायसवाल ‘संजय’ का बाल कहानी संग्रह ‘सोशल मीडिया का राजकुमार’ तथा राजेन्द्र वर्मा का लघुकथा संग्रह ‘विकल्प’ अभी जल्द ही प्रकाशित हुए हैं, जिनकी लघुकथाओं में गिरते नैतिक-शैक्षिक मूल्यों पर दोनों लेखकों का विशद चिंतन-मनन पाठकों के मन की ग्रंथियों को पर्त दर पर्त खोलने, बहुत कुछ विचार करने को विवश करता है। मेरी पसंद में जो मैंने लघुकथाएँ योगराज प्रभाकर और चित्तरंजन गोप की ली हैं, वह कुछ ऐसी ही चिंतन और चेतना को झंकृत करती हैं। मानवीय संवेदनाओं को संजोती हैं, गिरते सामाजिक मूल्य, चारित्रिक मूल्य पर एक वैश्विक विमर्श पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करतीं हैं। 

आज हम अपने बच्चों को शिक्षित करने और पैसा कमाने के लिए मोटीवेशन की क्लास खूब करा रहे हैं, पर चरित्र की गिरावट और इससे हो रहे प्रतिदिन अपराधों को कैसे रोकें, उनमें संस्कारों का बीजारोपण कैसे करें, यह दीक्षा हम नहीं दे पा रहें हैं। स्त्रियों और पुरूषों को अंधविश्वासों, रूढ़ियों, लिंग भेद और साम्प्रदायिकता से आजादी चाहिए, न कि उन्हें अशिष्ट यौनाचार की। अगर उन्हें प्रगतिशीलता के नाम से यौनाचार की पूरी आजादी दे जायेगी, तो हममें और पशुओं में कोई फर्क नहीं रहेगा और यह आजादी कभी भी व्यसायिक रूप ले सकती है, आपराधिक रूप ले सकती है, यानि काफी हद तक ले भी चुकी है। ऐसा ही विमर्श को, योगराज जी की लघुकथा 'आँच' प्रस्तुत करती है। शिक्षा के मंदिरों में गिरते नैतिक मूल्यों पर डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी की लघुकथाएँ ‘डर के दायरे’ 'मैं टीचर नहीं' आदि भी सार्थक संदेश देती हैं। वहीं अपनी लघुकथाओं को जन-मन की शिराओं तक पहुँचने वाले लघुकथा के कुशल कलाकार सुकेश साहनी की 'नपुसंक' जैसी कई लघुकथाएँ, शिक्षा के मंदिरों में गिरते नैतिक मूल्यों पर गहन  चिन्तन और चेतना को जन-जन तक पहुँचाने में सफल रही हैं। लघुकथा कलश के माध्यम से योगराज प्रभाकर जी, लघुकथाओं को वैश्विक पहचान दिलाने में महती योगदान दे रहे हैं। उनकी अनेक लघुकथाएँ समाज को वह आईना दिखती हैं, जिसे देखने से दिम्भ्रमित समाज को सही रास्ता ही नहीं, सही मंजिल भी मिल सकती है। योगराज जी के बारे में डॉ.  पुरूषोत्तम दूबे लिखते हैं। "पंजाब प्रांत में बहने वाली पाँच नदियों का पवित्र आचमन शिरोधार्य कर पंजाब प्रांत के शहर पटियाला का ‘पंजाबी पुत्तर‘ लघुकथाकार योगराज प्रभाकर हिंदी लघुकथा के क्षेत्र में पंजाब में प्रवाहमान पाँच नदियों का आब अंजुरी में भरकर हिंदी लघुकथा के मस्तक को अभिषिक्त करने आया है। यह एक हिंदीतर प्रांत से, हिंदी लेखन के क्षेत्र में हिंदी की सेवा का भाव लेकर उतरे, इस रचनाकार का भाषागत सौहार्द का मणि-काँचन संयोग जैसा है।’’
योगराज जी की लघुकथा ‘आँच’ आधुनिक शिक्षा के क्षेत्र में आ रही गिरावट को न सिर्फ रेखांकित करती है, बल्कि सुसुप्त हो रही हमारी प्रज्ञा को, मेधा को, चेतना को जाग्रत करने  का सद्कार्य करती है।
चित्तरंजन गोप आज लघुकथा के क्षेत्र मे काफी शोहरत हासिल कर चुके है। अभी तक उनका कोई एकल लघुकथा संग्रह प्रकाशित नहीं हुआ है। अपनी अनोखे कहन, अद्भुत शिल्प और दमदार कथ्य के द्वारा पाठको में देर तक और दूर तक अपनी पहचान बना चुके हैं। आज आदिवादी विमर्श बहुत तेजी से हिन्दी साहित्य में विमर्श का महत्वपूर्ण हिस्सा बनता जा रहा है।मीरा जैन, पूरन सिंह, मार्टिन जॉन, जैसे अनेक लघुकथाकार आदिवासी विमर्श को निरंतर अपनी लघुकथाओं से आगे बढ़ा रहे हैं। आदिवासियों की दुश्वारियों पर, समस्याओ पर तो चर्चा विमर्श बहुत होते रहते हैं, फिर भी उन्हें  सदियों से वह हक-हुकूक नहीं मिल पाये, जिसकी उन्हें आज भी दरकार है। गोप जी आदिवासी क्षेत्र में रहते हैं, जो देखते हैं वह लिखते हैं। यह होना भी चाहिए। लघुकथा ‘एक ठेला स्वप्न’ में अदिवासी विमर्श को उन्होंने नई धार दी है। प्रेमचंद ने एक जगह लिखा है कि जो आप लिखना चाहते हैं, जब तक उसे देखेंगे नहीं महसूस नहीं करेंगे, तब तक आप बेहतरीन नहीं लिख सकते।'
प्रसिद्ध पत्रकार अजय बोकिल लिखते हैं, ‘‘लघुकथा अपने आप में बहुत मारक और पिन पॉइंटेड होती है। वर्णनात्मकता की बजाए संक्षिप्तता, सूक्ष्मता और सांकेतिकता लघुकथा के प्रभावी औजार हैं। अगर इसमें सोद्देश्यता भी जुड़ जाए तो सोने पे सुहागा होता है।’’
निश्चित रूप से आज लघुकथा अपनी इसी गति-मति से, अपने इसी उद्देश्यपूर्ण ढंग से, अपनी मंजिल की ओर सदानीरा गंगा की तरह प्रवाहमान  है। 
बकौल गोप साहित्य का उद्देश्य अन्त्योदय होना चाहिए। हर उस अंतिम व्यक्ति की समस्या तक पहुँचे, जिसकी बात सत्ता, सियासत और उसके पहरूए न सुन रहे हो, न कह रहे हो।
सदियाँ बीत गयीं, आज भी करोड़ों आदिवासी मूलभूत, अधिकारों, सुविधाओं से वंचित हैं। उन्हें उनकी दशा में छोड़ने वाले कहते हैं कि वह अपनी संस्कृति अपनी कला को संजो रहे हैं, इसलिए वह जंगल नहीं छोड़ रहे हैं, अपनी मूल प्रवृत्ति नहीं छोड़ रहे हैं, जबकि सच्चाई यह है कि तमाम समान्तवादी और वर्णवादी व्यवस्थाएँ, ऐसी साजिशें बदस्तूर जारी रखें हैं, जिससे, वह जहाँ हैं वहीं रहें। संविधान ने सबको काम का, शिक्षा का, समानता का अधिकार दिया है। आंबेडकर जी के संविधान से बहुत कुछ बदल रहा है, असमानता की दीवारें धराशायी हो रहीं हैं, पर आज भी करोड़ों आदिवासी घुमन्नू जातियों के आपत्तिजनक,भदेस वीडियो बना कर लोग शोसल मीडिया पर अपलोड कर रहे हैं, जिस कारण अदिवासी समाज कौतूहल और मनोरंजन का विषय बना हुआ है। प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति के लिए यह घोर चिंता और विमर्श का विषय है। दोनों लघुकथाएँ उपर्युक्त, विचारों को भावों को प्रस्तुत कर रहीं हैं। लघुकथा मेरी प्रिय विधा है। अनेक लघुकथाकार बेहतरीन लिख रहे हैं। फिलहाल अपनी पसंद की दो लघुकथाएं प्रस्तुत कर रहा हूँ। 
  
योगराज प्रभाकर

आँच

सस्ते-से होटल का एक छोटा-सा कमरा।
बंद बत्ती जली।
कमरे में एक अधेड़ मर्द, उम्र पचास के आसपास।
एक जवान लड़की, उम्र बीस से अधिक नहीं।
मर्द के ऊपरी भाग पर कोई कपड़ा नहीं और लड़की का निचला भाग वस्त्रहीन।
मर्द के निर्लज्ज चेहरे पर पाशविक संतुष्टि के भाव और लड़की के चेहरे पर निर्लिप्तता और निश्चिंतता की गहरी पर्त।
लड़की को खींचकर अपनी गोद में बिठाते हुए मर्द ने कुछ नोट उसके टॉप में खोंस दिए।
“थैंक्यू!” कहते हुए वह उठी और फर्श पर पड़ी जीन्स उठाकर उसमें धँसने लगी।
मर्द ने इत्मीनान से सिगरेट सुलगाई, और कहा,
“एक बात पूछूँ स्वीटी?”
“बोलो जानू!”
“आज तुम इतना लेट हो गई हो, घर जाकर क्या कहोगी?”
जीन्स का जिपर चढ़ाते हुए लड़की ने बहुत ही बेपरवाही से उत्तर दिया।
“कहना क्या है यार, कह दूँगी कि ट्यूशन से लेट हो गई।”
मर्द के चेहरे पर एक कमीनी-सी मुस्कान फैल गई।
पर अगले ही क्षण ट्यूशन शब्द उसके मस्तिष्क पर हथौड़ा-सा बनकर बरसा। उसकी मुस्कराहट काफूर हो गई. माथे पर पसीने की बूँदें चमकने लगीं। वह तेजी से कमरे के बाहर आया, जलती हुई सिगरेट फर्श पर फेंककर उसे जूते से मसला। बहुत ही बेचैनी से अपनी घड़ी की ओर देखते हुए पत्नी को फोन लगाया और चिंतित-से स्वर में बोला,
“गुड्डी ट्यूशन से लौट आई क्या?”


चित्तरंजन गोप ‘लुकाठी‘

एक ठेला स्वप्न

आज खूब ठूंस-ठूंसकर खाना खा लिया था। पेट भारी हो गया था। इसलिए पलंग पर लेट गया। लेटे-लेटे खिड़की से बाहर का नजारा देखने लगा।
एक फेरीवाला आया था। वह एक बड़े ठेले पर एक ठेला स्वप्न लाया था। उसका साथी माइक पर घोषणा कर रहा था-- ले लो, ले लो ! अच्छे-अच्छे स्वप्न ले लो। चौबीस घंटे पानी-बिजली का स्वप्न। हर घर में ए.सी. का स्वप्न। घर-घर मोटर कार का स्वप्न। ...ले लो भाई, ले लो !
देखते-देखते कॉलोनी वालों की भीड़ लग गई। औरत-मर्द, जवान-बूढ़े सब ठेले के चारों तरफ जमा हो गए। माइक पर घोषणा जारी थी-- ले लो भाइयों, ले लो ! बेटे-बेटियों को अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाने का स्वप्न। उन्हें डॉक्टर-इंजीनियर बनाने का स्वप्न। आई.ए.एस.-आई.पी.एस. बनाने का स्वप्न। हजारों तरह के स्वप्न हैं। अच्छे-अच्छे स्वप्न हैं। ले लो भाइयों, ले लो !
माइक की आवाज बगल के आदिवासी गांव चोड़ईनाला तक पहुंच रही थी। आदिवासी महिला-पुरुषों का एक झुंड दौड़ा-दौड़ा आया। वे ठेले से कुछ दूरी पर खड़े हो गए। एक बूढ़ा जो लाठी के सहारे चल रहा था, सामने आया। उसने फेरीवाले से पूछा, ‘‘ भूखल लोकेकेर खातिर किछु स्वप्न होय कि बाबू? (भूखे लोगों के लिए कोई स्वप्न है?)‘‘
‘नहीं।‘‘ फेरीवाले ने कहा, ‘‘भूखे लोगों के लिए भोजन के दो-चार स्वप्न हैं जो काफी नीचे दबे पड़े हैं। अगली बार जब आऊंगा, ऊपर करके लाऊंगा। तब तक इंतजार कीजिए।‘‘
‘‘इंतजार करैत-करैत त आज उनसत्तइर बछर  (69 वर्ष) उमर भैय गेले। आर कते...?‘‘ कहते-कहते बूढ़े को खांसी आ गई और खांसते-खांसते वह अपने झुंड के पास चला गया। कॉलोनी वाले अपनी-अपनी पसंद के स्वप्न खरीद रहे थे। हो-हुल्लड़, हंसी-ठहाका भी चल रहा था। आदिवासियों ने कुछ देर तक इस नजारे को खड़े-खड़े देखा और अपने गांव की ओर चल दिए। इसी बीच मेरी नींद टूट गई।

-सुरेश  सौरभ
निर्मल नगर लखीमपुर खीरी उत्तर प्रदेश पिन-262701
स्वरचित मौलिक अप्रकाशित। 
मो-7860600355

शनिवार, 23 सितंबर 2023

पुस्तक समीक्षा | गुलाबी गलियाँ (साझा लघुकथा संग्रह) | समीक्षक-मनोरमा पंत

 सबसे उपेक्षित वर्ग की गुलाबी गलियाँ / मनोरमा पंत


पुस्तक-गुलाबी गलियाँ (साझा लघुकथा संग्रह)

संपादक-सुरेश सौरभ

मूल्य-रु 249/-

प्रकाशन-श्वेतवर्णा प्रकाशन नई दिल्ली

वर्ष-2023 





सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुरेश सौरभ द्वारा संपादित लघुकथा संग्रह “गुलाबी गलियाँ" समाज के सबसे उपेक्षित, तिरस्कृत तथा निन्दनीय वर्ग वेश्याओं के अंतहीन दर्द और वेदनाओं का जीता जागता एक दस्तावेज है। दुःख के महासागर को समेटे हुए इस संग्रह की लघुकथाओं में समाज के दोहरे चरित्र को उजागर करने का ईमानदारी से प्रयास किया गया है। जहां एक ओर दिन के उजाले में उन्हें चरित्रहीन तथा समाज का गंदा धब्बा तवायफ, कुलटा जैसे जुमलों से नवाज़ा जाता है, वहीं दूसरी ओर रात के अंधेरे में वे ही घृणित नारियां रम्या बन जाती हैं। 

पौराणिक काल से ही “मनुष्य“ शब्द का प्रयोग केवल पुरुष के लिये ही तय किया जा चुका है। औरत को मनुष्य शब्द से निकाल कर अलग ही चौखट में जड़ दिया गया। उसके मन की इच्छओं, भावों, और संवेदना को पुरातन काल से ही पुरुष द्वारा नकार दिया गया। इन्द्र द्वारा अहिल्या हरण, भीष्म द्वारा अम्बा अम्बालिका का हरण चंद उदाहरण हैं। “गुलाबी गलियाँ“ की प्रत्येक लघुकथा में वेश्याओं की यही अर्न्तवेदना स्पष्ट रूप से मुखरित होती दीख पड़ती है। 

प्रारम्भ करें संग्रह की प्रथम लघुकथा “मरुस्थल“ से। सुकेश साहनी की यह एक ऐसी औरत की करुण दास्तान है जिसके लिये पति ही उसके अस्तित्व का प्रमाण था। उसकी मृत्यु के पश्चात वह आर्थिक मोर्चे पर हारकर चकलाघर पहुंच जाती है। पति के हमशक्ल ग्राहक में अपने पति को खोजने के निरर्थक प्रयास में अन्त में मर्मान्तक दुःख ही उसके हाथ लगता है।          

सुप्रसिद्ध साहित्यकार राजेन्द्र  अवस्थी ने अपनी  एक रचना में लिखा है-“औरत के पैरों तले पक्की जमीन होती ही नहीं। उसके सिर पर हमेशा बोझ होता है, आर्थिक गुलामी का। “पति की मौत होने पर, बीमारी में परिवार  का पेट भरने के लिए मजबूर होकर ऐसी औरतें वेश्या बन जाती हैं। इस मजबूरी की तड़प देखने को मिलती है-’पूनम (कतरियार) की ’खुखरी’, सत्या शर्मा की “पीर जिया की“,सीमा रानी की “ईमानदारी“,महावीर रावांल्टा की लघुकथा “मदद के हाथ “जैसी लघुकथाओं में। 

प्राचीन कल से ही यह देखा गया है कि पुरुष द्वारा निर्मित परिवेश में जो स्त्री स्वयं को नहीं ढाल पाती ,अपना अस्तित्व सिद्ध करने की कोशिश करती हैं, परन्तु आर्थिक रुप से सक्षम  नहीं हैं, तो अपने पति, प्रेमी, रिश्तेदार यहां तक कि पिता, भाई के द्वारा भी चकलाघर पहुंचा दी जाती हैं। रेखा शाह की लघुकथा “इस देश न आना लाडो“ में प्रेमी द्वारा, ऋचा शर्मा की“ निष्कासन“ और मनोरमा पंत की “पेशा “में पति द्वारा, सुधा भार्गव  की “वह एक रात  में“ पिता के कारण और डॉ. अशोक गुजराती की’ बेटी तू बची रह“ में दलाल द्वारा लड़कियों को वेश्यावृति में धकेल दिया जाता है।

वेश्या का काम है तन से पुरुष को खुश करना। लेखन से उसका क्या वास्ता ? मीरा जैन की लघुकथा ‘कालम खुशी का’ में नगरवधू जैसे ही आत्मकथा के रूप में एक किताब लिखने की घोषणा करती है तो अगले दिन ही वह लापता हो जाती है। क्यों ? पाठक इसे भली-भांति जानते हैं। यह लघुकथा सभ्य समाज पर एक तमाचा है।

चकलाघर में पहुंच जाने पर भी कुछ वेश्याएं अपने स्त्रीयोंचित अस्तित्व को बचाए रहती हैं। अनिल पतंग की ‘मजहब’ लघुकथा में सलमा वेश्या समाज के तथाकथित सफेदपोश संभ्रात जनों को कटाक्ष सहित आइना दिखाती है। वह निडरता से कहती है “मैं तो सिर्फ शरीर बेचती हूँ हुजूर ! पर आप लोग ईमान के साथ पूरा देश बेचते हैं। आपका और मेरा एक ही मजहब है केवल पैसा ,पैसा,पैसा। 

भगवान  वैद्य  की लघुकथा “असली चेहरा “में वेश्या सुंदरी तल्खी के साथ कहती है -“इस शहर के एक और तथाकथित प्रतिष्ठित व्यक्ति का असली चेहरा लेकर जा रही हूं। रुपम झा की लघुकथा “गंगाजल “में वेश्या कहती है “हम तो दुनिया को बता के अपनी अदाएं बेचतीं हैं लेकिन आप जैसे लोग तो.. अपनी आत्मा और ईमान बेच लेते हैं साहेब।“

रघुविंद्र यादव के “चरित्र हनन“ में चंपा बाई चिढ़ कर बोलती  है-‘‘आज के नेताओं के पास चरित्र है ही कहां? जिसका कोई हनन कर सके।’’

नीरू मित्तल की एक शानदार लघुकथा है जिसमें ग्राहक वेश्या से कहता है-“पति और बच्चे के होते हुए तुम्हें यह सब करने की क्या जरूरत है?’’

‘‘जरूरत होती है साब.....घर की बहुत सी जरूरत हैं, कुछ इच्छाएं भी होती हैं। पति के आगे हाथ फैलाना और मन मसोस कर रह जाना बहुत मुश्किल होता है।’’ यह लघुकथा उन लोगों की आँखे खोलने के लिए पर्याप्त है, जो वेश्याओं के ऊपर अपना पैसा लुटा देते हैं और पत्नी की छोटी-छोटी ज़रूरतें पूरी करने के लिए भी उसे पैसा नहीं देते।

“दिनेश कुमार थर्रा उठा यह सोचकर कि पहले पत्नी लड़ती थी पर अब बहुत समय से खामोश रहती है, कहीं उसकी पत्नी भी तो...?,आगे आप समझ ही गये होंगे ।

मर्द अपने पुत्र में अपनी परछाई को देखता है। अतः उत्तराधिकारी को जन्म देने के लिये उसे पत्नी की आवश्यकता पड़ी। मर्द का हमेशा से यही दृष्टिकोण रहा कि उसकी पत्नी, कभी भी किसी गैर मर्द का संग न करे और पवित्र बनी रही, जबकि स्वयं के लिए उसका अपना दृष्टिकोण है कि पत्नी उत्तराधिकारी को जन्म देने के लिये, और वेश्या खुशी देने के लिये होती है। पुरुष की इसी दोहरी मानसिकता को इस संग्रह की लघुकथाओं में बखूबी चित्रित किया गया है। शुचि भवि की लघुकथा ‘रजिस्टर्ड तवायफ’ में जीनत तवायफ ग्राहक प्रफुल्ल के बटुए से गिरी उसकी पत्नी की फोटो देखकर कहती है ‘‘साहब किसी और के बटुए में भी यही तस्वीर देखी है।“ तो प्रफुल्ल पागल सा हो जाता है। क्योंकि उसकी पत्नी मर्द के पहले से बने-बनाए चौखट में फिट नहीं हो रही थी, ऐसा उसे लगता है जबकि सच्चाई बड़ी पकीजा थी।

रमेश प्रसून की लघुकथा ‘आधुनिक रंडिया’ लघुकथा में एक अनुभवी वेश्या व्यंग्यपूर्वक कहती है “सुनो कास्टिग काउच, लिव इन रिलेशन, पत्नियां की अदला-बदली क्या वेश्यावृत्ति नहीं?

‘वेश्याओं  का जन्म जिन्दगी के अंधियारों में होता है ,और उसी  अंधेरे में खामोशी से अंत भी हो जाता है। पूरी जिन्दगी उनका इस्तेमाल  ’एक वस्तु' की तरह होता है। अदित कंसल की लघुकथा “चरित्रहीन “में सोनी कहती है-‘‘इस शहर में ऐसा कोई नहीं जो हमारे जज्बात समझे। सब जिस्म के भूखे भेड़िए हैं।’’

इसी तरह के दर्द और वेदना के संवाद सुधा भार्गव की लघुकथा “वह एक रात में“ देखने को मिलते हैं। कई लघुकथाओं में वेश्यालय में जन्मे ऐसे बच्चों का जिक्र किया गया है जो जलालत की जिंदगी से बाहर निकल पाए और एक हसीन मुकाम पर पहुंच गए। “बजरंगी लाल की“ वापसी कल्पना भट्ट की “बार गर्ल “विभा रानी श्रीवास्तव की “अंधेरे घर का उजाला “अलका वर्मा की “मैं ऋणी हूं “मंजरी तिवारी की “एक देवी “जिज्ञासा सिंह की “आहट “राजेंद्र पुरोहित की “रंग बदलती तस्वीर में“ ऐसे ही बच्चों की तस्वीरें उकेरी गईं हैं।                                 

वेश्या से विवाह करके उसे सामान्य जिंदगी देने वाली आदर्श लघुकथाएं भी इस संग्रह की शोभा बढ़ाती है। सुधा भार्गव की “वह एक रात“ अभय कुमार भारती की “कोठे वाली“ राजकुमार  घोटड;  की “कोठे के फूल  में“ ग्राहक  वेश्याओं  से विवाह  करके उन्हें सम्मानजनक जिन्दगी प्रदान करते हैं।

सत्या शर्मा की लघुकथा “पीर जिया की “में लिखा हुआ है कि उस हाड़-मांस के शरीर के अंदर एक कोमल हृदय भी था,जो न जाने कब से किसी के लिए तड़पने को बेचैन था“ पर वेश्याओं के लिए तो यह सोचा जाता है कि उनका कोई मन ही नहीं होता है।’

पढ़िये कुछ चुभते हुए  वाक्यांश  जो वेश्याओं के लिए  कहे जाते हैं :

-वह एक कलंक है और नए कलंक को जन्म देने जा रही है  (ज्ञानदेव मुकेश  की “शूल तुम्हारा फूल हमारा“)

 -“तुम्हारा क्या धर्म और क्या जात (“गुलजार  हुसैन की “दंगे की एक रात“)

-“हर रोज नये नये मर्द फाँसती है यह“(कांता राय की “रंडी“ लघुकथा)

-भगवान  के मंदिर को भी नहीं छोड़ा इन लोगों ने। छिः कैसे लोग हैं ,यहां भी गंदगी फैलाने आ गए (“डॉ.रंजना जायसवाल की “कैसे कैसे लोग“)

-साली को कहीं जगह नहीं मिलती तो यहां चली आती है। (सिद्धेश्वर  की “आदमीयत“)

-इन लोगों की क्या औकात  है मेरे सामने (रुपम झा की “गंगाजल“)

-“चुप रह रंडी। हमसे बराबरी करती है “(मुकेश कुमार ‘मृदुल’ की “चोट“।) 

-रास्ते की औरत और गली का कुत्ता कभी इज्जत नहीं पाते (रमेशचन्द्र शर्मा की लघुकथा “कैरेक्टर लेस")

इस संग्रह  में अपमानित  करने वाले इन जुमलों को नकारती हुई ऐसे भी अनेक लघुकथाएं हैं, जो वेश्याओं के उजले पक्ष को समाज के सामने रखती हैं। ये लघुकथाएं बतलाती हैं कि जो वेश्याएं इस गंदगी फँसी हुईं हैं, वे नहीं चाहती कि और भी लड़कियां उसमें  धकेली जाएं या उनके कारण किसी ग्राहक का घर बर्बाद हो।

इससे संबंधित कमलेश भारतीय की एक खूबसूरत लघुकथा है “प्यार नहीं करती“ जिसमें वह अपने ग्राहक का घर उजाड़ नहीं चाहती है। इसलिए वह कहती है-जब मैं एक औरत द्वारा अपना पति छीन लिए जाने का दुख भोग रही हूं। तब तुम मुझसे यह उम्मीद कैसे करते हो कि मैं अपना घर बसाने के लिए किसी का बसा बसाया घर उजाड़ दूंगी?’’

इसी तरह की और भी लघुकथाएं हैं जैसे मिन्नी मिश्रा की “दलदल“ पूनम आनंद की लघुकथा “तवायफ,“ रमाकांत चौधरी की बेहतरीन लघुकथा “गुलबिया“  चित्रगुप्त की “सीख“ ऋचा शर्मा की “मां सी ,“नीना मंदिलवार  की “नवजीवन “ ,राजकुमार घोटड; की “कोठे के फूल “,राजेंद्र पुरोहित की “रंग बदलती तस्वीर“ अरविंद असर की “उसूल“ विजयानन्द विजय की “धुंधलका छंटता  हुआ“ अशोक गुजराती की “बेटी तू बची रह“ ज्योति मानव की “एक गुण“ आती हैं । 

तन और मन के गहरे भेद को समझाते-बुझाते हुए सुरेश सौरभ की लघुकथा “गंगा मैली नहीं“ में कहा गया है “गंगा मैली नहीं होती कभी नहीं होती।... किसी वेश्या के लिए सौरभ जी के भाव पावन व पुनीत हैं।

लेखक गुलजार  हुसैन “दंगे की रात में“ वेश्या को कह जाते हैं-सबसे खूबसूरत औरत..  और वह यही नहीं रुकते वेश्या को गुलाब की सुंगध तक कह डालते हैं। ओमप्रकाश क्षत्रिय की लघुकथा“ “सफाई“मे  वेश्या का पावन चरित्र दृष्टिगोचर होता है। डॉ.चन्द्रेश कुमार छतलानी की लघुकथा “देवी“ भी वेश्या का पवित्र रुप दर्शाती है।

इन लघुकथाओं में कुछ लघुकथाएं ऐसे भी हैं जिसमें यह दिखाया गया है कि कुछ  लेखक /पत्रकार  वेश्याओं  की जीवनी जानने के लिए कोठे पर पहुंचते हैं पर उनके जख्मों को कुरेदने के कारण  उन्हें,  अपमानित ही होना पड़ता है। इन लघुकथाओं में भगवती प्रसाद द्विवेदी की “गर्व “लघुकथा है जिसमें वेश्या कहती है-हमें बकवास पसंद नहीं फटाफट अपना काम निपटाओ और फूटो।’’

डॉ. सुषमा सेंगर की लघुकथा “झूठ के व्यापार “में एक बड़े कहानीकार को कहा जाता है-जिसे देखो वही मुंह उठाए चला आता है जख्म कुरेदने।

नज़्म सुभाष  की लघुकथा “ग्राहक“ में हृदयहीन ग्राहक वेश्या की खराब तबियत  की परवाह ही नहीं करता है।.... एक कठोर यथार्थ नज्म़ ने प्रस्तुत किया है।

इस संग्रह की और भी प्रेरणात्मक लघुकथाएं हैं जिनमें ,“देवेन्द्र राज सुथार की “बदचलन  “,डा.प्रदीप उपाध्याय  की “वादा“ ,डा .शैलेश गुप्त  ‘वीर’ की “गुडबाय“ सुषमा सिन्हा की “पापी कौन“,अनिता रश्मि की ‘असर’ अविनाश अग्निहोत्री की “नातेदार“,कल्पना भट्ट  की “बार गर्ल्स  डॉ. पूनम आंनद  की “तवायफ “,राजेन्द्र वर्मा की “बहू “,विभा रानी श्रीवास्तव  की “अंधेरे घर का उजियारा “ ,बजरंगी लाल यादव  की “सजना है मुझे “तथा जिज्ञासा सिंह की “आहट “राजेन्द्र  उपाध्याय  की “दृष्टि “ पुष्प  कुमार  राय  की “बार गर्ल्स“  नीना सिन्हा की “निषिद्धौ पाली रज“ डा .सत्यवीर जी की “सीढियाँ उतरते हुए, विजयानंद विजय की धुंधलका छंटता हुआ’ सहित सभी लघुकथाएं श्लाघनीय हैं।

सबसे सुखद यह है कि इस संग्रह की भूमिका प्रसिद्ध साहित्यकार संजीव जायसवाल ‘संजय’ ने लिखी है। दो उदीयमान साहित्यकार देवेन्द्र कश्यप ‘निडर’ व नृपेन्द्र अभिषेक नृप ने भी इस दस्तावेजी संग्रह में अपनी छोटी-छोटी विचारोत्तेजक टिप्पणियां जोड़ कर, संग्रह को और भी महत्वपूर्ण बना दिया है।

अंत में मैं सुरेश सौरभ जी के संपादकीय शब्द दोहराना चाहती हूं-

इस साझा संकलन को पढ़ते-पढ़ते वेश्याओं के जीवन, उनके संघर्ष उनके सुख-दुख पर अगर एक व्यक्ति की भी संवेदना जाग्रत होती है तो मैं समझता हूँ कि इस संग्रह का उद्देश्य पूर्ण हुआ। मेरा श्रम सार्थक हुआ।’’ 

मैं सौरभ जी को इस सुंदर लघुकथा संकलन के संपादन हेतु बधाई प्रेषित करती हूं। सुंदर आवरण बनाने, किताब को हार्ड बाउंड मजबूत बाइंडिंग में प्रकाशित करने के लिए भी मैं श्वेतवर्णा प्रकाशन की मुक्त कंठ से प्रशंसा करती हूं।


मनोरमा पंत 

पता-85 इस्टेट बैक कॉलोनी  

ई-7अरेरा कालोनी ,भोपाल 

,साई बोर्ड  के पास, 11 बस स्टाप 

पिन-462016 

manoramapant33437@gmail.com

मो-9229113195


मंगलवार, 11 अक्टूबर 2022

लघुकथा अनुवाद | हिंदी से अंग्रेज़ी

Bone of Ravana | Author: Suresh Saurabh | Translator: Aryan Chaudhary


"Uff... oh mother..." As soon as the doctor lifted his leg, he groaned loudly. "Well, how did this happen?" the doctor asked.

"Ravana was falling down. Along with many other people, I also ran to get his bones. Somewhere there was an open drain of the municipality. In that hustle and bustle of the crowd, my foot went into the drain."

The doctor, looking at him with burning eyes, said, "There has been a fracture. Don't go again to pick up Ravana's bones; otherwise your family members will come to collect your bones. Raise your feet now. I want to inject. Then the first raw plaster will be installed, and after three days, the solid one. "

He raised his leg and the doctor injected, which he could not bear and started screaming again, "Uff... oh mother..."

"No, no oh mother... yell out, Oh Ravana, ho Ravana. "The bones of Ravana will do good. "

Now he closed his eyes in great pain. With closed eyes, he could now see the terrible Ravana of wood, which was marching cruelly towards him. Slowly, Ravana was getting into it. He was breaking his knuckles. The pain was increasing...

His doctor was installing raw plaster.

-०-

Translated by - Aryan Chaudhary

Vill.Jhaupur post Londonpur Gola Lakhimpur kheri 

Uttar Pradesh (262802)

Email - aryan612006@gmail.com

मूल हिंदी में यह लघुकथा


-0-


रविवार, 2 जून 2019

लघुकथा वीडियो: "जेवर" | लेखक- सुरेश सौरभ | स्वर: शिव सिंह सागर | समीक्षा: डॉ० चंद्रेश कुमार छतलानी

सुरेश सौरभ जी द्वारा लिखी गयी और शिव सिंह सागर  जी द्वारा दिये गए स्वर में यह लघुकथा "जेवर" एक ऐसी मानसिकता को इंगित करती है जो महिलाओं ही नहीं बल्कि पुरुषों में भी अक्सर पाई जाती है। यह मानसिकता है - स्वयं को श्रेष्ठ साबित करनी की।

यह रचना एक विशेष शैली में कही गयी है, जब कभी भी समाज के विभिन्न वर्गों के विचार बताने होते हैं तो लघुकथा में वर्गों को संख्याओं में कहकर भी दर्शाया जा सकता है। इस रचना में भी वर्गों को जेवरों की संख्या के अनुसार विभक्त किया गया है। पहली महिला एक झुमके की, दूसरी झुमके से बड़े एक हार की, तीसरी अपने मंगलसूत्र की, चौथी पायल सहित तीन-चार जेवरों की बात करती है और उनके जेवरों की कीमत पहली महिला से प्रारम्भ होकर चौथी तक बढ़ती ही जाती है। पाँचवी स्वयं असली जेवर पहन कर नहीं आई थी लेकिन उसने भी अपने जेवरों की कीमत सबसे अधिक बताई और साथ में समझदारी की एक बात भी की कि वह उन्हें हर जगह नहीं पहनती है। एक झुमके से लेकर कई जेवरों से लदा होना महिलाओं के परिवार की आर्थिक दशा बता रहा है, जिससे वर्गों का सहज ही अनुमान हो जाता है। इसके अतिरिक्त यह लघुखा एक बात और बताने में सक्षम है कि यदि जेवर खरीदे हैं तो कब पहना जाये और कब नहीं इसका भी ज्ञान होना चाहिए। हालांकि पांचवी महिला के अनुसार केवल घर में ही नहीं बल्कि मेरा विचार है कि विशेष आयोजनों में भी जेवर पहने जा सकते हैं।  आखिर जेवर हैं तो पहनने के लिए ही। लेखक जो संदेश देना चाहते हैं वह भी स्पष्ट है कि जेवरों की सुरक्षा भी ज़रूरी है। कई महिलाएं ट्रेन आदि में भी असली जेवर पहन लेती हैं जो कि सुरक्षा की दृष्टि से उचित नहीं है।

आइये सुनते हैं सुरेश सौरभ जी की लघुकथा "जेवर", शिव सिंह सागर जी के स्वर में।

-  डॉ० चंद्रेश कुमार छतलानी