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रविवार, 8 दिसंबर 2024

पुस्तक समीक्षा | घरों को ढोते लोग | समीक्षक: नृपेन्द्र अभिषेक नृप

वंचित वर्गों का दर्द बयां करता "घरों को ढोते लोग"


साहित्य में लघुकथाओं का महत्व इस बात में है कि वे कम शब्दों में गहरी संवेदनाओं और विचारों को व्यक्त करने में सक्षम होती हैं। लघुकथा का यह गुण सुरेश सौरभ द्वारा संपादित संग्रह “घरों को ढोते लोग” में बखूबी देखने को मिलता है। यह संग्रह समाज के उन हाशिए पर खड़े लोगों की कहानियों को सामने लाता है, जिनकी उपस्थिति हमारे जीवन में तो निरंतर होती है, लेकिन जिनके संघर्ष और जीवन की कठिनाइयों पर हम अक्सर ध्यान नहीं देते। यह संग्रह 65 लघुकथाकारों की 71 लघुकथाओं का संकलन है, जो मजदूरों, किसानों, कामकाजी महिलाओं, और समाज के मेहनतकश तबकों की जिन्दगी को मार्मिकता से उकेरता है।

संग्रह का केंद्रीय विषय समाज के मेहनतकश वर्ग का जीवन और संघर्ष है। इन लघुकथाओं में दैनिक जीवन की कठिनाइयों, आर्थिक संकट, सामाजिक असमानता, और मेहनत के बावजूद मिलने वाली तिरस्कारपूर्ण दृष्टि को प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत किया गया है। ये कहानियां उन लोगों की हैं, जो हमारे घरों, फैक्ट्रियों, खेतों और सड़कों पर काम करके समाज को सुचारू रूप से चलाते हैं, लेकिन जिनके खुद के जीवन में शांति और सम्मान की कमी होती है।

इन लघुकथाओं में ऐसी कहानियों को पेश किया गया है, जो हमें सोचने पर मजबूर करती हैं कि समाज में किस तरह से असमानता व्याप्त है। उदाहरणस्वरूप, एक कहानी में एक घरेलू कामगार की रोजमर्रा की जिंदगी को दिखाया गया है, जिसमें उसकी कड़ी मेहनत के बावजूद उसे उचित सम्मान और वेतन नहीं मिलता। वहीं, दूसरी कहानी में एक किसान के संघर्ष को दिखाया गया है, जो अपने परिवार का पेट पालने के लिए दिन-रात मेहनत करता है, लेकिन बाजार की बेरहम व्यवस्था उसकी मेहनत को नकार देती है।

“घरों को ढोते लोग” भावनात्मक रूप से अत्यधिक संवेदनशील और उद्वेलित करने वाला संग्रह है। प्रत्येक लघुकथा समाज की उस सच्चाई को उजागर करती है, जिसे हम नजरअंदाज करते हैं। यह संग्रह हमारे समाज की उन कमजोरियों और विसंगतियों को भी दिखाता है, जो हमें आत्ममंथन करने पर विवश करती हैं। हर कहानी में एक ऐसी पीड़ा और संघर्ष छिपा है, जो पाठक को उन लोगों के जीवन के साथ एक गहरे स्तर पर जुड़ने का अवसर प्रदान करती है।

इस संग्रह की एक और महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसमें मेहनतकश वर्ग की इच्छाओं, सपनों और मानवीय संवेदनाओं को भी प्रमुखता दी गई है। ये कहानियां केवल कठिनाइयों और दुखों का चित्रण नहीं करतीं, बल्कि यह भी दिखाती हैं कि किस प्रकार ये लोग अपने सपनों को जीने के लिए लगातार संघर्ष करते रहते हैं।

संग्रह की भाषा सरल और सहज है, जो हर पाठक के लिए सुलभ है।  लघुकथाकारों ने जटिल सामाजिक और आर्थिक मुद्दों को आसान और मार्मिक भाषा में प्रस्तुत किया है। उनकी भाषा में सादगी के साथ-साथ एक गहरा प्रभाव भी है, जो पाठक को कथाओं से जोड़ता है। सरल शब्दों के माध्यम से गहरी भावनाओं और विचारों को व्यक्त करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य होता है, और इस संग्रह में यह बखूबी किया गया है।

लघुकथाओं का उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं है, बल्कि यह हमारे समाज में व्याप्त असमानता और अन्याय की ओर ध्यान आकर्षित करना है। भाषा की सहजता और कथाओं की गहराई इसे एक ऐसा संग्रह बनाती है, जिसे पढ़ने के बाद पाठक सोचने पर मजबूर हो जाता है।

सुरेश सौरभ ने इस संग्रह को संपादित करके साहित्य की दुनिया में एक महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उन्होंने न केवल एक विविधतापूर्ण लघुकथा संग्रह प्रस्तुत किया है, बल्कि उन आवाजों को मंच प्रदान किया है, जो अक्सर साहित्य में उपेक्षित रहती हैं। यह संग्रह एक प्रयास है उन मेहनतकश लोगों की जिंदगी को सम्मान और पहचान दिलाने का, जो समाज की रीढ़ होते हुए भी अक्सर अनदेखे रह जाते हैं।

संपादक की दृष्टि और उनकी साहित्यिक समझ के कारण यह संग्रह एक बेहतरीन दस्तावेज बन पाया है। उन्होंने समाज के उस वर्ग की आवाज को साहित्य में स्थान दिलाया है, जिसे अक्सर अनसुना कर दिया जाता है। यह न केवल एक साहित्यिक कृति है, बल्कि एक सामाजिक दस्तावेज भी है, जो हमारे समाज की वास्तविकताओं को प्रतिबिंबित करता है।

इस संग्रह की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि यह समाज में संवेदनशीलता और जागरूकता को बढ़ावा देता है। यह उन कहानियों को प्रस्तुत करता है, जिन्हें सुनने और समझने की आवश्यकता है। संग्रह की लघुकथाएं हमें यह सोचने पर मजबूर करती हैं कि हम अपने समाज के कमजोर तबकों के प्रति कितने उदासीन हो गए हैं। यह संग्रह हमारे समाज के उस वर्ग के लिए एक आवाज बनकर उभरता है, जो बिना किसी शिकायत के अपने जीवन की कठिनाइयों को झेलता रहता है।

पाठक को यह संग्रह केवल मनोरंजन के लिए नहीं पढ़ना चाहिए, बल्कि इसे एक आईने के रूप में देखना चाहिए, जो हमारे समाज की सच्चाई को उजागर करता है। यह संग्रह हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि अगर हम एक समानता और सम्मान से भरा समाज चाहते हैं, तो हमें इन मेहनतकश लोगों के संघर्षों और उनकी जरूरतों को समझने और उन्हें सम्मान देने की आवश्यकता है।

“घरों को ढोते लोग” एक ऐसा संग्रह है, जो न केवल साहित्यिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि समाजिक दृष्टि से भी अत्यंत मूल्यवान है। यह हमें हमारे चारों ओर की दुनिया को समझने और उसे बेहतर बनाने के लिए प्रेरित करता है। इस संग्रह की लघुकथाएं न केवल मेहनतकश वर्ग के संघर्षों को उजागर करती हैं, बल्कि यह भी दिखाती हैं कि उनके जीवन में कितना साहस, धैर्य और मानवीयता है।

सुरेश सौरभ ने इस संग्रह के माध्यम से एक ऐसा साहित्यिक योगदान दिया है, जो लंबे समय तक पाठकों के दिलों में बसेगा। यह संग्रह न केवल एक किताब है, बल्कि यह समाज के प्रति हमारी जिम्मेदारियों और हमारी उदासीनता का आईना है। “घरों को ढोते लोग” एक ऐसा साहित्यिक प्रयास है, जिसे न केवल पढ़ा जाना चाहिए, बल्कि इस पर गहन चिंतन भी किया जाना चाहिए।

समीक्षक: नृपेन्द्र अभिषेक नृप
पुस्तक: घरों को ढोते लोग
संपादक: सुरेश सौरभ
प्रकाशन: समृद्ध प्रकाशन, दिल्ली
मूल्य: 245 रुपये
वर्ष-2024

शनिवार, 26 अक्टूबर 2024

जिनकी लघुकथाएं दिल में उतरती हैं । योगेश योगी किसान (योगेश राजमणि लोधी) । पुस्तक समीक्षा


 


    सफर की दूरियों को कम करती इस बार हाथ लगी पुस्तक "घरों को ढोते लोग" जिसमें किसानों, मजदूरों, कामगारों, कामवाली बाई आदि पर केंद्रित 71 लघुकथाएं संग्रहित हैं।इन्हें पढ़ने के बाद ऐसा प्रतीत होता है मानो लेखकों ने बहुत नजदीक से इनकी समस्याओं को देखा हो।आजकल के इस दौर में भला इन पर कौन लिखना चाहता है। मैं इस लघुकथा संग्रह के सभी लेखकों को साधुवाद देता हूं, जिनकी लघुकथाएं दिल में उतरती हैं और एक चुभन छोड़ देती हैं।

     रामेश्वर कांबोज 'हिमांशु' की काकभगोड़ा जिसमें किसान अपनी फसलों को बचाने के लिए नेता जी का पुतला ले आता है। रतन चंद्र रत्नेश की "बराबरी" जिसमें एक किसान जो अक्सर उच्च अधिकारी की पत्नी को सब्जी बेचता है और जब उसका लड़का टॉप करता है तो वह किसान मिठाई का डिब्बा लेकर मैडम के पास जाता है और उनके पूछे जाने पर कि लड़के को क्या बनाओगे जब बड़ा होगा तो उसका जवाब यह कि आप लोगों जैसा बड़ा अधिकारी। किसान के जाने के बाद मैडम द्वारा मिठाई का डिब्बा कूड़ेदान में फेंकना कहीं न कहीं उस सामंती सोच को दर्शाता है जो सोचती है कि उसके आगे कोई बड़ा न बन जाए ताकि उसके बने ताने-बाने में सब उलझे रहें।

      राजेंद्र वर्मा की लघुकथा में 'मजबूरी का फैसला' जिसमें किसान सिंचाई के पानी में भ्रष्टाचार के कारण सोचता है कि इतनी कम जमीन से कुछ होता नहीं लागत ज्यादा लगती है, 20- 25 लाख मिल जाएंगे जिसके ब्याज से घर तो चलेगा और वह पांव की बेड़ी यानी जमीन बेचने पर मजबूर हो जाता है।

      डॉ. चंद्रेश कुमार छ्तलानी की देशबंदी जिसमें किसान तीन काले कानूनों से परेशान होकर खेतबंदी करता है लेकिन उसका कोई हल नहीं निकलता।

        सुकेश साहनी की लघुकथा 'धूप-छांव' जिसमें किसान के माथे पर लकीरें हैं कि पिछली बार की तरह सूखा पड़ जाएगा तो वह बर्बाद हो जाएगा। वहीं कृषि अधिकारी की पत्नी सोचती है की सूखा पड़े जिससे पति भ्रष्टाचार करके पैसे लाए और वह किचन का सामान खरीद सके।

प्रेरणा गुप्ता की 'यक्ष प्रश्न' जिसमें मजदूर का होनहार बेटा कहता है कि सब पढ़-लिख जायेंगे तो आप लोगों के मकान कौन बनाएगा।

      डॉक्टर लता अग्रवाल 'तुलजा' की 'धूल भरी पगडंडी' में गरीब मजदूर पन्नू का बेटा विदेश से यह सोचकर वापस आता है कि गांव से कोई पलायन न कर सके। सब लघुकथाएं बेहतरीन हैं

       एक अच्छी पुस्तक पढ़ने का सौभाग्य मिला। धन्यवाद लघुकथाकार संपादक महोदय सुरेश सौरभ जी। 

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पुस्तक-घरों को ढोते लोग (साझा लघुकथा संग्रह) 

संपादक- सुरेश सौरभ

प्रशाशन- समृद्धि पब्लिकेशन शाहदरा नई दिल्ली 

मूल्य-₹245 

वर्ष-2024

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समीक्षक-योगेश योगी किसान (योगेश राजमणि लोधी)

पता-342 ख पुरानी बस्ती ग्राम पोस्ट सेमरवारा तहसील नागौद जिला सतना मप्र 485446

फोन -9755454999

शुक्रवार, 13 सितंबर 2024

पुस्तक समीक्षा । घरों को ढोते लोग । समीक्षक- देवेन्द्रराज सुथार

श्रमजीवी वर्ग की व्यथा-कथा लेकर आये सौरभ   (पुस्तक समीक्षा) 


 साहित्य समाज का आईना होता है और कई बार यह आईना हमें वह चेहरे दिखाता है, जिन्हें हम अक्सर नज़रअंदाज़ कर देते हैं या जो हमारी  चेतना में नहीं होते। सुरेश सौरभ द्वारा संपादित लघुकथा संग्रह 'घरों को ढोते लोग' समाज के उन तबकों पर केंद्रित है, जो हमारे दैनिक जीवन को सुचारू रूप से चलाते हैं, लेकिन जिन्हें हम अक्सर नज़रअंदाज़ कर देते हैं। यह संग्रह 65 लघुकथाकारों द्वारा लिखी गई 71 लघुकथाओं का बेहतरीन गुलदस्ता है, जिसमें प्रत्येक लघुकथाकार ने अपने अनूठे नज़रिए से मज़दूरों, किसानों, मेहनतकशों व  कामवाली बाइयों के जीवन के विभिन्न पहलुओं को मार्मिक ढंग से उजागर किया है। इन लघुकथाओं में रोज़मर्रा के संघर्षों, आर्थिक चुनौतियों, सामाजिक असमानता और मानवीय संवेदनाओं को बहुत ही बारीकी से दर्शाया गया है।

रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' की लघुकथा 'जहर' एक रिक्शाचालक के जीवन की विडम्बनाओं को दर्शाती है कि कैसे समाज का ढाँचा, किस प्रकार किसी व्यक्ति को कभी-कभी अपराध की ओर धकेल देता है। मुख्य पात्र 'सईद' अपने बीमार बच्चे के लिए दवा खरीदने की मजबूरी में अपने मालिक से भिड़ जाता है, जो उसकी मजबूरी का फायदा उठाना चाहता है। मार्टिन जॉन की लघुकथा 'घरों को ढोते लोग' (जिसे पुस्तक का शीर्षक बनाया गया है) एक छोटी बच्ची के मार्फ़त मजदूरों के जीवन की कठोर वास्तविकता को, सच्चाई को प्रस्तुत करती है। पुस्तक में शामिल लघुकथाएँ भारतीय समाज में व्याप्त आर्थिक असमानता और सामाजिक भेदभाव को स्पष्ट रूप से उजागर करने में सफल रही हैं। 

डॉ. प्रदीप उपाध्याय की लघुकथा 'बस इतनी गारंटी' खेतिहर मजदूरों की समस्याओं को प्रकट करती है। शराफत अली खान की लघुकथा 'कमाई' समाज में व्याप्त असमानता और विडम्बनाओं को दर्शाती है तथा समाज में व्याप्त नैतिक मूल्यों के क्षरण की ओर भी इशारा करती है। नीरू मित्तल 'नीर' की लघुकथा 'एक माँ की मजबूरी' गरीब वर्ग की महिलाओं की स्थिति को उजागर करती है। यह लघुकथा बताती है कि गरीबी और अशिक्षा किस तरह युवा लड़कियों के भविष्य को प्रभावित कर सकती है। यह न केवल बाल विवाह जैसी सामाजिक बुराइयों की ओर इशारा करती है, बल्कि यह भी दिखाती है कि कैसे गरीबी महिलाओं को अपने बच्चों के भविष्य के बारे में कठोर निर्णय लेने के लिए मजबूर कर देती है।

पुस्तक में केवल निराशा और दुख की ही रचनाएं नहीं है, कई लघुकथाओं में गहरी मानवीय संवेदना और आशावाद की झलक भी दिखाई देती है। डॉ. अलका अग्रवाल की लघुकथा 'चरैवेति, चरैवेति' एक रिक्शाचालक की जीवंतता और जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण को दर्शाती है। संतोष सुपेकर की लघुकथा 'मजबूर और मजबूत' श्रमिक वर्ग की अदम्य इच्छाशक्ति को दर्शाती है। सेवा सदन प्रसाद की लघुकथा 'भूख', कोरोना महामारी के दौरान मजदूरों की दुर्दशा को चित्रित करती है। कैसे भूख और बेरोजगारी लोगों को जोखिम भरे निर्णय लेने पर मजबूर कर सकती है। आपदा के समय में समाज के सबसे कमजोर वर्ग को सबसे अधिक कष्ट झेलना पड़ता है, भूख लघुकथा से पता चलता है। 

 सुकेश साहनी, योगराज प्रभाकर, मनोरमा पंत, अविनाश अग्निहोत्री, बलराम अग्रवाल, डॉ.चंद्रेश कुमार छतलानी, नीना मंदिलवार, आलोक चोपड़ा, प्रो. रणजोध सिंह, डॉ.मिथिलेश दीक्षित, कल्पना भट्ट, अरविंद सोनकर, रश्मि लहर, गुलज़ार हुसैन, सुरेश सौरभ , रशीद गौरी, आदि लघुकथाकारों ने अपनी बेहतरीन लघुकथाओं से संग्रह को पठनीय और संग्रहणीय बनाया है। वरिष्ठ कथाकार सुधा जुगरान ने संग्रह में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका जोड़ कर संग्रह को साहित्यिक हलकों में विमर्श का हिस्सा बना दिया है। 

संग्रह की भाषा सरल और प्रभावशाली है, जो इसे व्यापक पाठक वर्ग के लिए सुलभ बनाती है। लेखक जटिल सामाजिक-आर्थिक मुद्दों को सरल कथाओं के माध्यम से प्रस्तुत करने में सफल रहें हैं। लघुकथाएँ संग्रह के विषय से अनुकूल और सार्थक हैं। 'घरों को ढोते लोग' एक ऐसा लघुकथा संग्रह है, जो न केवल पठनीय है, बल्कि समाज के प्रति हमारी समझ को, संवेदना को गहरा और विस्तृत करने में भी सहायक सिद्ध होगा। संपादक ने इन लघुकथाओं को एक साथ संकलित करके महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। उन्होंने समाज के एक ऐसे वर्ग की आवाज़ को मुखर किया है, जो अक्सर साहित्य में उपेक्षित रह जाती है। यह संग्रह केवल एक पुस्तक नहीं है; यह एक वह आईना है, जो हमें हमारे समाज का एक ऐसा चेहरा दिखाता है जिसे हम अक्सर देखने से कतराते हैं। सच्चा विकास तब तक नहीं हो सकता, जब तक समाज का हर वर्ग सम्मान और समानता के साथ न जिये। लिहाजा यह एक ऐसी कृति है जो न केवल पढ़ी जानी चाहिए, बल्कि जिस पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। मंथन किया जाना चाहिए।

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पुस्तक-घरों को ढोते लोग (साझा लघुकथा संग्रह) 

संपादक: सुरेश सौरभ (मो-7860600355) 

मूल्य: ₹245 (पेपरबैक)

प्रकाशन: समृद्ध पब्लिकेशन शाहदरा, दिल्ली

प्रकाशन वर्ष-2024

समीक्षक-

देवेन्द्रराज सुथार

 पता - गांधी चौक, आतमणावास, बागरा, जिला-जालोर, राजस्थान। 343025

मोबाइल नंबर- 8107177196

रविवार, 28 जुलाई 2024

पुस्तक समीक्षा । बिखरती सद्भावनाओं को समेटती लघुकथाएं । शिव सिंह 'सागर'

लघुकथा की दुनिया में सुरेश सौरभ पुराना और प्रतिष्ठित नाम है। मुझे इन दिनों उनके संपादन में संपादित लघुकथा का साझा संग्रह 'मन का फेर'‌ पढ़ने का सुअवसर मिला। यकीन मानिए ये किताब अपने अनोखे अंदाज के लिए किताबों की दुनिया में एक अलग पहचान बनाएगी, ऐसा मुझे पूरा विश्वास है। लघुकथा एक ऐसी विधा है, जो अपनी लघुता और अपने अनूठे शिल्प के लिए निरंतर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रही है, चर्चित हो रही है। यूँ तो लघुकथा लिखने और संपादित करने के लिए  सामाजिक विसंगतियों के अनेक विषय हो सकते हैं, पर अंधविश्वासों, रूढ़ियों एवं कुरीतियों पर केंद्रित लघुकथाएं प्रकाशित करना वाकई साहस और जोखिम भरा का काम है, संपादक सौरभ जी इसके लिए बधाई के पात्र हैं। 

संग्रह में  योगराज प्रभाकर की पहली लघुकथा 'कन्या पक्ष' मन द्रवित कर देती है और हमारे सामाज के दोहरे और दोगले चरित्र को उघाड़ कर रख देती है। लघुकथा की यही खूबसूरती है कि वह कम समय में ही मन पर, हृदय पर  गहरा असर करे। साधारण से साधारण इंसान को भी वह बहुत कुछ सोचने-विचारने के लिए मजबूर कर दे।  डॉ. मिथिलेश दीक्षित की लघुकथा 'डुबकी ' बेटी और बहू में अंतर को दर्शाती है। जहाँ बेटी खुद अपनी माँ को सही राह दिखाने का प्रयास करती है। डॉ. मिथिलेश की लघुकथा बेहद प्रेरणादायी है। मनोरमा पंत की लघुकथा 'नाक' समाज के झूठे व दिखावटी चरित्र को दर्शाती है। चित्रगुप्त की लघुकथा 'ईनो', ढोंगी पंडित के चरित्र को प्रस्तुत करती है। इसी क्रम में विजयानंद 'विजय' की लघुकथा 'चंदा' हो, या रश्मि लहर की लघुकथा 'मुहूर्त ' हो, चाहे सतीश खनगवाल की 'कंधे पर चांद', डॉ.पूरन सिंह की 'भूत', नीना मंदिलवार की 'हीरो', कल्पना भट्ट की 'डर के आगे' भगवती प्रसाद द्विवेदी की 'आरोप' 'अंतर' 'पुण्य' अछूतोद्धार, मधु जैन की 'दहशत', डॉ. राजेन्द्र साहिल की लघुकथा 'औपचारिक अधयात्म', सुकेश साहनी की 'दादा जी'  डॉ. अंजू दुआ जैमिनी की 'आश्रम' या बलराम अग्रवाल, डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी, अखिलेश कुमार 'अरुण' विनोद शर्मा 'सागर', रमाकांत चौधरी, चित्त रंजन गोप,नेतराम भारती, सुनीता मिश्रा, प्रेम विज, मनोज चौहान, हर भगवान चावला अरविंद सोनकर, राजेन्द्र वर्मा, अखिलेश श्रीवास्तव 'चमन', सुरेश सौरभ, बजरंगी भारत, अभय कुमार, भारती, गुलज़ार हुसैन,राम मूरत 'राही', सवित्री शर्मा 'सवि', आदि सभी साठ लघुकथाकारों की लघुकथाएं विचारणीय एवं संग्रहणीय हैं, जो सामाजिक कुरीतियों, रूढ़ियों और अंधविश्वासों पर एक व्यापक विमर्श साहित्य जगत में प्रस्तुत करती हैं, व्यापक दृष्टि से पूरा का पूरा संग्रह ही आज के भौतिकवादी इंसान की आंखों से पट्टी खोल फेंकने के लिए पर्याप्त कहा जा सकता है। 


 इस संग्रह में वरिष्ठ पत्रकार अजय बोकिल की संपादकीय टिप्पणी लाजवाब है। आपका विश्लेषण किताब की सफलता में चार चाँद लगाता है। संपादक सौरभ जी ने लोकतांत्रिक मूल्यों पर अपनी सशक्त एवं विचारणीय संपादकीय प्रस्तुत की है। मेरे विचार में लघुकथाओं का सबसे सशक्त पक्ष है, उनका समाज को शिक्षित और जागरूक करने की क्षमता का होना, जो इस संग्रह में विद्यमान है‌। लघुकथा के इस संकलन का उद्देश्य समाज को शिक्षित करना है। जागरूक करना है, सदियों से व्याप्त अंधविश्वासों से उसे बाहर लाना है। इस लिहाज से यह संग्रह पढ़़ना नितांत आवश्यक हो जाता है। 

पुस्तक - मन का फेर (साझा लघुकथा संग्रह) 
संपादक - सुरेश सौरभ
प्रकाशक - श्वेतवर्णा प्रकाशन नोएडा 
पृष्ठ संख्या-144
मूल्य - 260 (पेपर बैक) 

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समीक्षक -

शिव सिंह सागर

बंदीपुर हथगाम फतेहपुर (उ. प्र.)

मो- 97211 41392

मंगलवार, 23 जुलाई 2024

पुस्तक समीक्षा | हिंदी लघुकथा स्वरूप और सार्थकता | सुरेश सौरभ

डॉ. मिथिलेश दीक्षित साहित्य जगत में एक बड़ा नाम है। शिक्षा के क्षेत्र में ही नहीं बल्कि साहित्य और समाज सेवा में भी आपका उल्लेखनीय योगदान है। हिंदी की तमाम विधाओं में आपका रचना कर्म है। विभिन्न विधाओं में आप की लगभग अस्सी पुस्तकें प्रकाशित हो चुकीं हैं। हाल ही में इनकी किताब हिंदी लघुकथा स्वरूप और सार्थकता के शीर्षक से सुभदा बुक्स साहिबाबाद से प्रकाशित हुई है, जो हिंदी लघुकथा के पाठकों, लेखकों और शोधार्थियों- विद्याथिर्यों  के लिए पठनीय और वंदनीय है। संपादकीय में डॉ.मिथिलेश दीक्षित लिखती हैं- हिंदी साहित्य की गद्यात्मक विधाओं में लघुकथा सबसे चर्चित विधा है। आज के विधागत परिपेक्ष्य में लघुकथा के स्वरूप को देखते हैं, तो लगता है इसके स्वरूप में पर्याप्त परिवर्तन हुआ है, इसका मूल प्रयोजन भी बदल गया है। अब उपदेशात्मक या कोरी काल्पनिक लघुकथाओं में विशेष पत्रों के स्थान पर सामान्य जन का प्रतिनिधित्व करने वाले सामान्य पात्रों का समयगत परिस्थितियों में चित्रण होता है.....और वे आगे लिखतीं हैं..संक्षिप्तता गहन संवेदन, प्रभाव सृष्टि और संप्रेषण क्षमता लघुकथा की विशिष्ट गुण है। "लघुकथाकार का गहन संवेदन जब लघुकथा में समाहित हो जाता है, तब शिल्प में सघनता आ जाती है, भाषा में सहजता और पात्रों में जीवन्तता आ जाती है‌।"

      डॉ.ध्रुव कुमार, अंजू श्रीवास्तव निगम, इंदिरा किसलय, डॉ.कमल चोपड़ा, कल्पना भट्ट, कनक हरलालका, डॉ.गिरीश पंकज, निहाल चंद्र शिवहरे, बी. एल. अच्छा, डॉ,भागीरथ परिहार, मुकेश तिवारी, मीनू खरे, रजनीश दीक्षित, शील कौशिक, डॉ. शैलेश गुप्ता 'वीर' ,डॉ.शोभा जैन, सत्या  सिंह, डॉ.स्मिता मिश्रा, डॉ. सुरंगमा यादव, डॉ.सुषमा सिंह, संतोष श्रीवास्तव के बहुत ही शोधपरक लेखों  को इस पुस्तक में सम्मिलित किया गया हैं।  लेखों में लघुकथा के शिल्प, संवेदना, और लघुकथा के  वर्तमान, अतीत और भविष्य पर बड़ी सहजता, सूक्ष्मता और गंभीरता से विमर्श किया गया है। पुस्तक में हिंदी लघुकथा के बारे में डॉक्टर मिथिलेश दीक्षित से डॉ.लता अग्रवाल की बातचीत भी कई महत्वपूर्ण बिंदुओं पर की गई है, जिसमें लघुकथा की प्रासंगिकता, उसकी उपयोगिता, उसका आकार-प्रकार व मर्म, उसमें व्यंग्य तथा शिल्पगत विविधता आदि।
         प्रसिद्ध साहित्यकार  गिरीश पंकज पुस्तक में अपने आलेख में लिखते हैं-" कुछ लेखक लघुकथा को लघु कहानी समझ लेते हैं जिसे अंग्रेजी में 'शॉर्ट स्टोरी' कहते हैं, जबकि वह लघु नहीं पूर्ण विस्तार वाली सुदीर्घ कहानी ही होती है। लघुकथा के नाम पर 500 या 1000 शब्दों वाली भी लघुकथाएं मैंने देखी हैं और चकित हुआ हूं ।ये किसी भी कोण  से लघुकथा के मानक में फिट नहीं हो सकती। मेरा अपना मानना है कि लघुकथा 300 शब्दों तक ही सिमट जाएं तो बेहतर है। तभी सही मायने में उसे हम संप्रेषणीय में लघुकथा कहेंगे। अगर वह 500 या उससे अधिक शब्दों तक फैल जाती है तो उसे लघु कहानी के श्रेणी में रखना उचित  होगा।"
         मिथिलेश जी ने बहुत श्रमसाध्य कार्य किया है,  लघुकथा पर कालजयी विमर्श की पहल की है उन्हें हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं।

पुस्तक- हिंदी लघुकथा स्वरूप और सार्थकता
संपादक- डॉ. मिथिलेश दीक्षित
प्रकाशक-शुभदा बुक्स साहिबाबाद उ.प्र.
मूल्य-300/
पृष्ठ-112 (पेपर बैक)

समीक्षक-सुरेश सौरभ

निर्मल नगर लखीमपुर खीरी उत्तर प्रदेश-262701
मो-7860600355

बुधवार, 17 जुलाई 2024

पुस्तक समीक्षा । मुट्ठी भर धूप । कनक हरलालका

मानवीय दायित्व निर्वाह को प्रस्तुत करती लघुकथाएं

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

अभूतपूर्व चुनौतियों से भरे युग में कुछ समस्याओं के उन्मूलन की तत्काल आवश्यकता हमारी सामूहिक चेतना में केंद्र स्तर पर है। इसी आवश्यकता को ध्यानाकार्षित करता प्रख्यात लघुकथाकारा कनक हरलालका का प्रस्तुत संग्रह ‘मुट्ठी भर धूप’ लघुकथाओं का एक ऐसा संग्रह है जो पाठकों को सुबह जागने से लेकर रात्री सोने के बीच के ऐसे कितने ही क्षेत्रों की यात्रा करा देता है, जिनसे बहुत से जनमानस जुड़े हुए हैं। इनके अतिरिक्त यह संग्रह स्वप्न में विद्यमान कल्पनाशीलता की साहित्यिक प्रतिभा की झलक भी दर्शाता है। यह कहा जा सकता है कि यह संग्रह न केवल गंभीर विषयों को संबोधित करता है, बल्कि कुछ सामान्य समस्याओं के निराकरण के लिए एक रोडमैप भी प्रदान करता है।

संग्रह की शक्तियों में से एक इसकी भाषा और कल्पना का कुशल संयोजन है। प्रथम लघुकथा ‘वैष्णव जन तो तेनेकहि ये…’ हिन्दू मंदिर के प्रसाद के उन मूल्यों को दर्शाती है जो मानवीय हैं, ‘उपज’ एक काल्पनिक उपज को दर्शाते हुए महत्वपूर्ण सन्देश भी दे रही है, ‘अनन्त लिप्सा’ मानवीय जिज्ञासा में छिपे तुष्टिकरण को दर्शा रही है, ‘लोहे के नाखून’ में 'बारह महीने के तेरह त्यौहार' सरीखे मुहावरे का प्रयोग इस रचना को उत्तम बना रहा है इस रचना का अंत भी बहुत बढ़िया है, ‘ईश्वर के दूत’ में स्त्रियाँ मृत्यु पश्चात जीवन को ही उद्धार मानते हुए यहाँ तक कि ईश्वर के दूतों को भी ठुकरा देती हैं। इस रचना का शीर्षक और अच्छा होने की संभावना है। 

लघुकथा विधा में चरित्र चित्रण न करने के कारण पात्रों के साथ पाठकों का भावनात्मक संबंध बनाने के लिए आवश्यक गहराई का अभाव होता है, लेकिन ‘शुरुआत’ और 'ब्रिलिएंट' लघुकथाएँ विधा के साथ पूरी तरह न्याय करते हुए पाठकों को पात्रों से जोड़ रही हैं। हालाँकि इन दोनों में नाम के बाद 'जी' लगाने की आवश्यकता नहीं है। 'क्रमशः' रचना का शीर्षक आकर्षित करता है और उसकी शैली और कथ्य भी उत्तम से कम नहीं हैं। 'सोने सा हाथ..सोने के साथ' दिव्यांग व्यक्तियों के लिए प्रेरणा देती हुई बेहतरीन रचना है।

यद्यपि रचनाएं मानवीय संवेदनाओं और उत्तम शिल्प से सुसज्जित हैं, तथापि गिने-चुने पहलुओं पर आलोचनात्मक मूल्यांकन की आवश्यकता है। 'वर्जित फल' रचना में पूर्णता की ओर बढ़ने में अंत में कुछ अधिक शब्द कह दिए गए हैं। ‘अक्स’ जितना अच्छा अक्स प्रारम्भ में प्रस्तुत करती है, वहीँ अंत तक पहुँच कर क्षीण गति की हो जाती है। यहाँ पाठकों को एक उद्देश्यपूर्ण दिशा दिए जाने की संभावना है।

‘गुलाबी आसमान’ अपने शीर्षक के अनुरूप ही विशिष्ट लघुकथा है। ‘समय यात्रा’ पर्यावरण सरंक्षण जैसे अति संवेदनशील मुद्दे पर उचित प्रयास है। ‘गिद्ध धर्म’ शीर्षक, शिल्प, उद्देश्य और लेखकीय कौशल का एक उत्तम उदाहरण है। ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ बढ़िया कथानक की रचना है, हालाँकि इसे और अधिक कसा जा सकता है। 'किस्सागोई' में लेखिका का पाठकों को संबोधित करते हुए कहना रचना को दिलचस्प बनाता है। 'रक्त-सम्बन्ध', 'ताला लगी जुबान' जैसी रचनाएं मानवीय बनने का एक शक्तिशाली अनुस्मारक हैं। 'स्यामी जुड़वां' सरीखी कुछ रचनाओं में शीर्षक में अप्रचलित शब्दों का प्रयोग भी है, जो शीर्षक को रचना का प्राण बनाते हैं। 'वायरस' लघुकथा विज्ञान को धता बता मानवीयता का आँचल पकड़ती है।  'रणनीति' में व्यंग्य की प्रधानता दृष्टिगोचर हो रही है। ‘भूख का मौसम’ रचना के कथ्य और शीर्षक बेहतर होने की गुंजाइश है। 'पहला पत्थर' ईमानादारी की मान्यता का ध्वस्त होना कुशलता से दर्शाती है। यह रचना संग्रह की बेहतरीन रचनाओं में से एक है। ‘मुक्ति’ लघुकथा में धर्म की आड़ में चल रहे अधर्म को बचाने की चिंता-रेखा दिखाई देती है। 'राह की चाह' स्वतंत्रता और स्वछंदता में अंतर को परिलक्षित कर रही है।

एक ग़ज़ल का शेर है, "मैं अपने आप को कभी पहचान नहीं पाया / मेरे घर में आईने थे बहोत।", 'पहचान' लघुकथा भी इसी तरह की एक रचना है। ‘अपना दर्द पराया दर्द’ लिंगभेद को कम करने की बात तो कहती है, लेकिन तीसरा बच्चा हुआ भी दिखा रही है, जनसंख्या वृद्धि जैसी समस्या पर ध्यान देना भी आवश्यक है। 'होड़ की दौड़' नई-पुरानी पीढ़ियों के विचारों में और आर्थिक अंतर पर आधारित एक अच्छी रचना है।

आदर्श लघुकथा की धुरी तो हो सकते हैं लेकिन उसके कथ्य का हिस्सा बनने से लघुकथा के भटकने का अंदेशा रहता है। इस संग्रह की अधिकतर रचनाओं में इस बात का ध्यान रख विचारोत्तेजक वर्णन हैं, जो आदर्शों को आधार बनाकर ऐसे ज्वलंत मानसिक परिदृश्य निर्मित करते हैं, जिनसे पाठक विभिन्न दुनियाओं में डूब जाता है। कुछ रचनाओं में क्षेत्रीय भाषा रचना को खूबसूरती दे रही है ।

रचनाओं में प्रेरणाओं, संघर्षों और विकास की भावनात्मक अनुगूंज को बढ़ा सकने की शक्ति निहित है। ‘देना–पावना’ सरीखी कुछ लघुकथाएं नपे-तुले शब्दों और शिल्प की सुघटता के साथ रची गई हैं हैं, जिससे पाठकों को कथा की बारीकियों को समझ पाने का पूरा अवसर मिलता है। कुछ लघुकथाएं अप्रत्याशित अंत के साथ भी हैं जो प्रश्न और कथात्मक जिज्ञासा अपने पीछे छोड़ जाती हैं। अप्रत्याशितता और संतोषजनक समाधान के बीच संतुलन बनाना एक विशिष्ट कला है, और कथानक में निहित सूक्ष्म दृष्टिकोण रचनाओं को अधिक क्षमतावान बनाता है। ये गुण इस संग्रह की लघुकथाओं में विद्यमान हैं। काफी रचनाओं में मुहावरों का प्रयोग प्रभावित करता है जैसे 'समरथ के नहींदोष गुसाईं', ‘मुक्ति मार्ग’ आदि। ‘रंगीली घास’ एक ऐसी लघुकथा है, जो कोई सशक्त हृदय और लेखनी के धनी ही कह सकते हैं, //वादों के प्लास्टिक में लपेटने पर रंग दिखता ही कहाँ है।// इस एक नए मुहावरे का उद्भव भी इस रचना को विशिष्ट बना रहा है। 

चूँकि लेखिका एक बेहतरीन कवयित्री भी हैं, अतः संग्रह की लघुकथाओं में भावनाओं और वातावरण के सामंजस्य से बुनी हुई कशीदाकारी सरीखे शिल्प में काव्यात्मक संवेदनाओं की प्रतिध्वनि भी है। ‘नव साम्राज्यवाद’, ‘सुर्ख फूलों वाली लतर’ जैसी रचनाओं में कविता स्पष्ट विद्यमान है, ‘आह्वान’ में कविता को पात्र बना कवि को शुष्कता से हरियाली की ओर बढ़ने को प्रेरित किया गया है। सुविचारित लेखन संकलन के समग्र प्रभाव को बढ़ा रहा है। इसके अतिरिक्त, यह संकलन विविध विषयों की व्यापक अवधारणा की आंतरिक पड़ताल भी करता है। जहाँ ‘'प्रश्न चिन्ह', ‘स्वयंसिद्धा’, ‘इन्कलाब’ सरीखी कुछ लघुकथाएं मानवेत्तर हैं, वहीं ‘अछूत रोजगार’, 'तबीयत', ‘गरम शॉल’, ‘शिकार’, ‘स्टार्ट... कट...’ जैसी कुछ रचनाएं यथार्थ कथ्य और पात्रों को सम्मिलित करती भी। कुछ लघुकथाएं प्रतीकात्मक और मानवीय पात्रों का मिश्रण भी हैं जैसे ‘संग–संग’।

इब्न खलदून कहते थे, "जो एक नया रास्ता खोजता है एक पथप्रदर्शक है, भले ही उसे फिर से दूसरों को ढूंढना पड़े, और जो अपने समकालीनों से बहुत आगे चलता है वह एक नेता है, भले ही सदियां बीतने के बाद उसे पहचाना जाए।" इस संग्रह की कुछ रचनाओं में पथ प्रदर्शन और भविष्य दर्शन की क्षमता है। इनमें ‘इस पार... उस पार...’, 'खाली बिस्तर', ‘उपासना’, 'अनन्त लिप्सा' जैसी रचनाएं हैं। ‘प्रतिदान’ में मृत्यु के पश्चात हिन्दू धर्म में आवश्यक स्वर्णदान को सेवा के बदले प्रतिदान कहा गया है, यह रचना संस्कृति परिष्करण पर भी बल देती है।

कुलमिलाकर, सामंजस्यपूर्ण विचारों, गूढ़ सोच, सुसंगत गति और सूक्ष्म दृष्टिकोण लिए रचनाओं का यह संग्रह कुछ आलोचनाओं के बावजूद भी लेखिका की चिन्तनशीलता, रचनात्मक क्षमता और मानवीय संवेदनाओं के प्रति उनके दायित्व निर्वाह को बखूबी प्रस्तुत करता है। विभिन्न शैलियों और दृष्टिकोणों की एक विस्तृत श्रृंखला का यह प्रयास निःसंदेह पठनीय और संग्रहनीय है।

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चंद्रेश कुमार छतलानी
9928544749
writerchandresh@gmail.com

शनिवार, 23 सितंबर 2023

पुस्तक समीक्षा | गुलाबी गलियाँ (साझा लघुकथा संग्रह) | समीक्षक-मनोरमा पंत

 सबसे उपेक्षित वर्ग की गुलाबी गलियाँ / मनोरमा पंत


पुस्तक-गुलाबी गलियाँ (साझा लघुकथा संग्रह)

संपादक-सुरेश सौरभ

मूल्य-रु 249/-

प्रकाशन-श्वेतवर्णा प्रकाशन नई दिल्ली

वर्ष-2023 





सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुरेश सौरभ द्वारा संपादित लघुकथा संग्रह “गुलाबी गलियाँ" समाज के सबसे उपेक्षित, तिरस्कृत तथा निन्दनीय वर्ग वेश्याओं के अंतहीन दर्द और वेदनाओं का जीता जागता एक दस्तावेज है। दुःख के महासागर को समेटे हुए इस संग्रह की लघुकथाओं में समाज के दोहरे चरित्र को उजागर करने का ईमानदारी से प्रयास किया गया है। जहां एक ओर दिन के उजाले में उन्हें चरित्रहीन तथा समाज का गंदा धब्बा तवायफ, कुलटा जैसे जुमलों से नवाज़ा जाता है, वहीं दूसरी ओर रात के अंधेरे में वे ही घृणित नारियां रम्या बन जाती हैं। 

पौराणिक काल से ही “मनुष्य“ शब्द का प्रयोग केवल पुरुष के लिये ही तय किया जा चुका है। औरत को मनुष्य शब्द से निकाल कर अलग ही चौखट में जड़ दिया गया। उसके मन की इच्छओं, भावों, और संवेदना को पुरातन काल से ही पुरुष द्वारा नकार दिया गया। इन्द्र द्वारा अहिल्या हरण, भीष्म द्वारा अम्बा अम्बालिका का हरण चंद उदाहरण हैं। “गुलाबी गलियाँ“ की प्रत्येक लघुकथा में वेश्याओं की यही अर्न्तवेदना स्पष्ट रूप से मुखरित होती दीख पड़ती है। 

प्रारम्भ करें संग्रह की प्रथम लघुकथा “मरुस्थल“ से। सुकेश साहनी की यह एक ऐसी औरत की करुण दास्तान है जिसके लिये पति ही उसके अस्तित्व का प्रमाण था। उसकी मृत्यु के पश्चात वह आर्थिक मोर्चे पर हारकर चकलाघर पहुंच जाती है। पति के हमशक्ल ग्राहक में अपने पति को खोजने के निरर्थक प्रयास में अन्त में मर्मान्तक दुःख ही उसके हाथ लगता है।          

सुप्रसिद्ध साहित्यकार राजेन्द्र  अवस्थी ने अपनी  एक रचना में लिखा है-“औरत के पैरों तले पक्की जमीन होती ही नहीं। उसके सिर पर हमेशा बोझ होता है, आर्थिक गुलामी का। “पति की मौत होने पर, बीमारी में परिवार  का पेट भरने के लिए मजबूर होकर ऐसी औरतें वेश्या बन जाती हैं। इस मजबूरी की तड़प देखने को मिलती है-’पूनम (कतरियार) की ’खुखरी’, सत्या शर्मा की “पीर जिया की“,सीमा रानी की “ईमानदारी“,महावीर रावांल्टा की लघुकथा “मदद के हाथ “जैसी लघुकथाओं में। 

प्राचीन कल से ही यह देखा गया है कि पुरुष द्वारा निर्मित परिवेश में जो स्त्री स्वयं को नहीं ढाल पाती ,अपना अस्तित्व सिद्ध करने की कोशिश करती हैं, परन्तु आर्थिक रुप से सक्षम  नहीं हैं, तो अपने पति, प्रेमी, रिश्तेदार यहां तक कि पिता, भाई के द्वारा भी चकलाघर पहुंचा दी जाती हैं। रेखा शाह की लघुकथा “इस देश न आना लाडो“ में प्रेमी द्वारा, ऋचा शर्मा की“ निष्कासन“ और मनोरमा पंत की “पेशा “में पति द्वारा, सुधा भार्गव  की “वह एक रात  में“ पिता के कारण और डॉ. अशोक गुजराती की’ बेटी तू बची रह“ में दलाल द्वारा लड़कियों को वेश्यावृति में धकेल दिया जाता है।

वेश्या का काम है तन से पुरुष को खुश करना। लेखन से उसका क्या वास्ता ? मीरा जैन की लघुकथा ‘कालम खुशी का’ में नगरवधू जैसे ही आत्मकथा के रूप में एक किताब लिखने की घोषणा करती है तो अगले दिन ही वह लापता हो जाती है। क्यों ? पाठक इसे भली-भांति जानते हैं। यह लघुकथा सभ्य समाज पर एक तमाचा है।

चकलाघर में पहुंच जाने पर भी कुछ वेश्याएं अपने स्त्रीयोंचित अस्तित्व को बचाए रहती हैं। अनिल पतंग की ‘मजहब’ लघुकथा में सलमा वेश्या समाज के तथाकथित सफेदपोश संभ्रात जनों को कटाक्ष सहित आइना दिखाती है। वह निडरता से कहती है “मैं तो सिर्फ शरीर बेचती हूँ हुजूर ! पर आप लोग ईमान के साथ पूरा देश बेचते हैं। आपका और मेरा एक ही मजहब है केवल पैसा ,पैसा,पैसा। 

भगवान  वैद्य  की लघुकथा “असली चेहरा “में वेश्या सुंदरी तल्खी के साथ कहती है -“इस शहर के एक और तथाकथित प्रतिष्ठित व्यक्ति का असली चेहरा लेकर जा रही हूं। रुपम झा की लघुकथा “गंगाजल “में वेश्या कहती है “हम तो दुनिया को बता के अपनी अदाएं बेचतीं हैं लेकिन आप जैसे लोग तो.. अपनी आत्मा और ईमान बेच लेते हैं साहेब।“

रघुविंद्र यादव के “चरित्र हनन“ में चंपा बाई चिढ़ कर बोलती  है-‘‘आज के नेताओं के पास चरित्र है ही कहां? जिसका कोई हनन कर सके।’’

नीरू मित्तल की एक शानदार लघुकथा है जिसमें ग्राहक वेश्या से कहता है-“पति और बच्चे के होते हुए तुम्हें यह सब करने की क्या जरूरत है?’’

‘‘जरूरत होती है साब.....घर की बहुत सी जरूरत हैं, कुछ इच्छाएं भी होती हैं। पति के आगे हाथ फैलाना और मन मसोस कर रह जाना बहुत मुश्किल होता है।’’ यह लघुकथा उन लोगों की आँखे खोलने के लिए पर्याप्त है, जो वेश्याओं के ऊपर अपना पैसा लुटा देते हैं और पत्नी की छोटी-छोटी ज़रूरतें पूरी करने के लिए भी उसे पैसा नहीं देते।

“दिनेश कुमार थर्रा उठा यह सोचकर कि पहले पत्नी लड़ती थी पर अब बहुत समय से खामोश रहती है, कहीं उसकी पत्नी भी तो...?,आगे आप समझ ही गये होंगे ।

मर्द अपने पुत्र में अपनी परछाई को देखता है। अतः उत्तराधिकारी को जन्म देने के लिये उसे पत्नी की आवश्यकता पड़ी। मर्द का हमेशा से यही दृष्टिकोण रहा कि उसकी पत्नी, कभी भी किसी गैर मर्द का संग न करे और पवित्र बनी रही, जबकि स्वयं के लिए उसका अपना दृष्टिकोण है कि पत्नी उत्तराधिकारी को जन्म देने के लिये, और वेश्या खुशी देने के लिये होती है। पुरुष की इसी दोहरी मानसिकता को इस संग्रह की लघुकथाओं में बखूबी चित्रित किया गया है। शुचि भवि की लघुकथा ‘रजिस्टर्ड तवायफ’ में जीनत तवायफ ग्राहक प्रफुल्ल के बटुए से गिरी उसकी पत्नी की फोटो देखकर कहती है ‘‘साहब किसी और के बटुए में भी यही तस्वीर देखी है।“ तो प्रफुल्ल पागल सा हो जाता है। क्योंकि उसकी पत्नी मर्द के पहले से बने-बनाए चौखट में फिट नहीं हो रही थी, ऐसा उसे लगता है जबकि सच्चाई बड़ी पकीजा थी।

रमेश प्रसून की लघुकथा ‘आधुनिक रंडिया’ लघुकथा में एक अनुभवी वेश्या व्यंग्यपूर्वक कहती है “सुनो कास्टिग काउच, लिव इन रिलेशन, पत्नियां की अदला-बदली क्या वेश्यावृत्ति नहीं?

‘वेश्याओं  का जन्म जिन्दगी के अंधियारों में होता है ,और उसी  अंधेरे में खामोशी से अंत भी हो जाता है। पूरी जिन्दगी उनका इस्तेमाल  ’एक वस्तु' की तरह होता है। अदित कंसल की लघुकथा “चरित्रहीन “में सोनी कहती है-‘‘इस शहर में ऐसा कोई नहीं जो हमारे जज्बात समझे। सब जिस्म के भूखे भेड़िए हैं।’’

इसी तरह के दर्द और वेदना के संवाद सुधा भार्गव की लघुकथा “वह एक रात में“ देखने को मिलते हैं। कई लघुकथाओं में वेश्यालय में जन्मे ऐसे बच्चों का जिक्र किया गया है जो जलालत की जिंदगी से बाहर निकल पाए और एक हसीन मुकाम पर पहुंच गए। “बजरंगी लाल की“ वापसी कल्पना भट्ट की “बार गर्ल “विभा रानी श्रीवास्तव की “अंधेरे घर का उजाला “अलका वर्मा की “मैं ऋणी हूं “मंजरी तिवारी की “एक देवी “जिज्ञासा सिंह की “आहट “राजेंद्र पुरोहित की “रंग बदलती तस्वीर में“ ऐसे ही बच्चों की तस्वीरें उकेरी गईं हैं।                                 

वेश्या से विवाह करके उसे सामान्य जिंदगी देने वाली आदर्श लघुकथाएं भी इस संग्रह की शोभा बढ़ाती है। सुधा भार्गव की “वह एक रात“ अभय कुमार भारती की “कोठे वाली“ राजकुमार  घोटड;  की “कोठे के फूल  में“ ग्राहक  वेश्याओं  से विवाह  करके उन्हें सम्मानजनक जिन्दगी प्रदान करते हैं।

सत्या शर्मा की लघुकथा “पीर जिया की “में लिखा हुआ है कि उस हाड़-मांस के शरीर के अंदर एक कोमल हृदय भी था,जो न जाने कब से किसी के लिए तड़पने को बेचैन था“ पर वेश्याओं के लिए तो यह सोचा जाता है कि उनका कोई मन ही नहीं होता है।’

पढ़िये कुछ चुभते हुए  वाक्यांश  जो वेश्याओं के लिए  कहे जाते हैं :

-वह एक कलंक है और नए कलंक को जन्म देने जा रही है  (ज्ञानदेव मुकेश  की “शूल तुम्हारा फूल हमारा“)

 -“तुम्हारा क्या धर्म और क्या जात (“गुलजार  हुसैन की “दंगे की एक रात“)

-“हर रोज नये नये मर्द फाँसती है यह“(कांता राय की “रंडी“ लघुकथा)

-भगवान  के मंदिर को भी नहीं छोड़ा इन लोगों ने। छिः कैसे लोग हैं ,यहां भी गंदगी फैलाने आ गए (“डॉ.रंजना जायसवाल की “कैसे कैसे लोग“)

-साली को कहीं जगह नहीं मिलती तो यहां चली आती है। (सिद्धेश्वर  की “आदमीयत“)

-इन लोगों की क्या औकात  है मेरे सामने (रुपम झा की “गंगाजल“)

-“चुप रह रंडी। हमसे बराबरी करती है “(मुकेश कुमार ‘मृदुल’ की “चोट“।) 

-रास्ते की औरत और गली का कुत्ता कभी इज्जत नहीं पाते (रमेशचन्द्र शर्मा की लघुकथा “कैरेक्टर लेस")

इस संग्रह  में अपमानित  करने वाले इन जुमलों को नकारती हुई ऐसे भी अनेक लघुकथाएं हैं, जो वेश्याओं के उजले पक्ष को समाज के सामने रखती हैं। ये लघुकथाएं बतलाती हैं कि जो वेश्याएं इस गंदगी फँसी हुईं हैं, वे नहीं चाहती कि और भी लड़कियां उसमें  धकेली जाएं या उनके कारण किसी ग्राहक का घर बर्बाद हो।

इससे संबंधित कमलेश भारतीय की एक खूबसूरत लघुकथा है “प्यार नहीं करती“ जिसमें वह अपने ग्राहक का घर उजाड़ नहीं चाहती है। इसलिए वह कहती है-जब मैं एक औरत द्वारा अपना पति छीन लिए जाने का दुख भोग रही हूं। तब तुम मुझसे यह उम्मीद कैसे करते हो कि मैं अपना घर बसाने के लिए किसी का बसा बसाया घर उजाड़ दूंगी?’’

इसी तरह की और भी लघुकथाएं हैं जैसे मिन्नी मिश्रा की “दलदल“ पूनम आनंद की लघुकथा “तवायफ,“ रमाकांत चौधरी की बेहतरीन लघुकथा “गुलबिया“  चित्रगुप्त की “सीख“ ऋचा शर्मा की “मां सी ,“नीना मंदिलवार  की “नवजीवन “ ,राजकुमार घोटड; की “कोठे के फूल “,राजेंद्र पुरोहित की “रंग बदलती तस्वीर“ अरविंद असर की “उसूल“ विजयानन्द विजय की “धुंधलका छंटता  हुआ“ अशोक गुजराती की “बेटी तू बची रह“ ज्योति मानव की “एक गुण“ आती हैं । 

तन और मन के गहरे भेद को समझाते-बुझाते हुए सुरेश सौरभ की लघुकथा “गंगा मैली नहीं“ में कहा गया है “गंगा मैली नहीं होती कभी नहीं होती।... किसी वेश्या के लिए सौरभ जी के भाव पावन व पुनीत हैं।

लेखक गुलजार  हुसैन “दंगे की रात में“ वेश्या को कह जाते हैं-सबसे खूबसूरत औरत..  और वह यही नहीं रुकते वेश्या को गुलाब की सुंगध तक कह डालते हैं। ओमप्रकाश क्षत्रिय की लघुकथा“ “सफाई“मे  वेश्या का पावन चरित्र दृष्टिगोचर होता है। डॉ.चन्द्रेश कुमार छतलानी की लघुकथा “देवी“ भी वेश्या का पवित्र रुप दर्शाती है।

इन लघुकथाओं में कुछ लघुकथाएं ऐसे भी हैं जिसमें यह दिखाया गया है कि कुछ  लेखक /पत्रकार  वेश्याओं  की जीवनी जानने के लिए कोठे पर पहुंचते हैं पर उनके जख्मों को कुरेदने के कारण  उन्हें,  अपमानित ही होना पड़ता है। इन लघुकथाओं में भगवती प्रसाद द्विवेदी की “गर्व “लघुकथा है जिसमें वेश्या कहती है-हमें बकवास पसंद नहीं फटाफट अपना काम निपटाओ और फूटो।’’

डॉ. सुषमा सेंगर की लघुकथा “झूठ के व्यापार “में एक बड़े कहानीकार को कहा जाता है-जिसे देखो वही मुंह उठाए चला आता है जख्म कुरेदने।

नज़्म सुभाष  की लघुकथा “ग्राहक“ में हृदयहीन ग्राहक वेश्या की खराब तबियत  की परवाह ही नहीं करता है।.... एक कठोर यथार्थ नज्म़ ने प्रस्तुत किया है।

इस संग्रह की और भी प्रेरणात्मक लघुकथाएं हैं जिनमें ,“देवेन्द्र राज सुथार की “बदचलन  “,डा.प्रदीप उपाध्याय  की “वादा“ ,डा .शैलेश गुप्त  ‘वीर’ की “गुडबाय“ सुषमा सिन्हा की “पापी कौन“,अनिता रश्मि की ‘असर’ अविनाश अग्निहोत्री की “नातेदार“,कल्पना भट्ट  की “बार गर्ल्स  डॉ. पूनम आंनद  की “तवायफ “,राजेन्द्र वर्मा की “बहू “,विभा रानी श्रीवास्तव  की “अंधेरे घर का उजियारा “ ,बजरंगी लाल यादव  की “सजना है मुझे “तथा जिज्ञासा सिंह की “आहट “राजेन्द्र  उपाध्याय  की “दृष्टि “ पुष्प  कुमार  राय  की “बार गर्ल्स“  नीना सिन्हा की “निषिद्धौ पाली रज“ डा .सत्यवीर जी की “सीढियाँ उतरते हुए, विजयानंद विजय की धुंधलका छंटता हुआ’ सहित सभी लघुकथाएं श्लाघनीय हैं।

सबसे सुखद यह है कि इस संग्रह की भूमिका प्रसिद्ध साहित्यकार संजीव जायसवाल ‘संजय’ ने लिखी है। दो उदीयमान साहित्यकार देवेन्द्र कश्यप ‘निडर’ व नृपेन्द्र अभिषेक नृप ने भी इस दस्तावेजी संग्रह में अपनी छोटी-छोटी विचारोत्तेजक टिप्पणियां जोड़ कर, संग्रह को और भी महत्वपूर्ण बना दिया है।

अंत में मैं सुरेश सौरभ जी के संपादकीय शब्द दोहराना चाहती हूं-

इस साझा संकलन को पढ़ते-पढ़ते वेश्याओं के जीवन, उनके संघर्ष उनके सुख-दुख पर अगर एक व्यक्ति की भी संवेदना जाग्रत होती है तो मैं समझता हूँ कि इस संग्रह का उद्देश्य पूर्ण हुआ। मेरा श्रम सार्थक हुआ।’’ 

मैं सौरभ जी को इस सुंदर लघुकथा संकलन के संपादन हेतु बधाई प्रेषित करती हूं। सुंदर आवरण बनाने, किताब को हार्ड बाउंड मजबूत बाइंडिंग में प्रकाशित करने के लिए भी मैं श्वेतवर्णा प्रकाशन की मुक्त कंठ से प्रशंसा करती हूं।


मनोरमा पंत 

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सोमवार, 31 जुलाई 2023

तूणीर में तीर: मधुकांत की लघुकथाएँ | कल्पना भट्ट



पुस्तक का शीर्षक: तूणीर (लघुकथा सँग्रह)

लेखक: डॉ. मधुकान्त

प्रकाशक: अयन प्रकाशन

प्रथम संस्करण : 2019 

मूल्य : 240 रुपये 

पृष्ठ: 128






हिन्दी लघुकथा जगत् में डॉ. मधुकान्त एक जाने-माने हस्ताक्षर हैं। आप रक्तदान हेतु भी जाने जाते हैं। 

आपने अपनी भूमिका में 'तरकश' नामक आपके प्रथम लघुकथा सँग्रह, जो वर्ष 1984 में प्रकाशित हुआ था, का उल्लेख किया है। परंतु मेरे लिये आपका प्रस्तुत लघुकथा सँग्रह 'तूणीर' द्वारा ही आपकी लेखनी से परिचय हुआ है, जिसे कहने में मैं बिल्कुल संकोच नहीं करूँगी।

डॉ. सतीशराज पुष्करणा ने अपने आलेख 'हिन्दी लघुकथा की रचना-प्रविधि' में लिखा है कि ' कथा को अन्य विधाओं की अपेक्षाकृत लघुकथा बहुत क्षिप्र होती है और वह अपने गन्तव्य तक यथासम्भव शीघ्र पहुँचती है। 

प्रस्तुत सँग्रह में कुल 91 लघुकथाएँ प्रकाशित हैं जिनको मैंने इन शीर्षकों में विभाजित किया है।

1. राजीनीति पर आधारित लघुकथाएँ :- इस विषय पर आपकी लघुकथाओं में ' 'वोट की राजनीति'- इस में वोट डालने की परंपरा को अपने संविधानिक अधिकार से अधिक एक औपचारिक निभाते हुए लोगों का चित्रांकन है।  'पहचान'- इस लघुकथा में वोट माँगने जाने वाले नेताओं का चित्रण है, जो चुनाव  के बाद अगर जीत जाते हैं तब उसके बाद वह कहीं दिखाई नहीं देते। ऐसे में ज़मीनी तौर पर कोई आम गरीब नागरिक उस नेता को फिर चाहे वह प्रधानमंत्री ही क्यों न हों वह अगर उनको न पहचान पाने की बात करते हुए अपनी झोपड़ी के भीतर चला जाये तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। यहाँ प्रधानमंत्री  का उल्लेख है जिनके लिये उनके सहयोगी 'ताकतवर देश के ये प्रधनमंत्री' करके सम्बोधन हैं  वहीं उस गरीब व्यक्ति के लिये  वह 'दो हड्डी' का है का सम्बोधन है। यहाँ सहयोगी उनकी चापलूसी एवं उनकी पदवी को अहमियत देता नज़र आ रहा है वहीं दो हड्डी के सम्बोधन में वह कमज़ोर और निर्जन नेता प्रतीत होता है । 'निर्मल गाँव'- इस लघुकथा में कथानायक सरपंच सरकार से मेल-जोल बढ़ाकर आदि देकर वह अपने गाँव को 'निर्मल गाँव' घोषित करवा लेता है और फंड्स भी ले लेता है।  परन्तु एक मास में उसको अपने गाँव को स्वच्छ बनाना था और वह नहीं बना पाया था। इस हेतु वह गाँव के सभी घरों में शौचालय बनाने का बीड़ा उठाता है।  लोगों को पंचायत घर में बुलाता है, बी.डी.ओ  भी वहाँ बैठे होते हैं।  ऐसे में वह एक ग्रामीण भीमन को बुलाकर पूछता है, "तुम्हारे घर में अभी तक शौचालय नहीं बना?" जिसपर वह उत्तर देता है, "कहाँ सरकार...दो वर्ष से फसल चौपट हो रही है। खाने के लाले पड़े हैं, पखाना कैसे बनेगा?" इसपर सरपंच उसको विश्वास में लेने के इरादे से कहता है, "अरे सरकार तुमको पच्चीस हज़ार का चैक देगी शौचालय बनवाने के लिये परंतु तुमको अपने हिस्से का पाँच हज़ार जमा करवाना पड़ेगा।" 

"सरकार, हम पाँच हज़ार कहाँ से लावें...?"

"सरकार पिछली स्किम में पकड़ा था, अभी तक उसका ब्याज भी चुकता नहीं हुआ।" 

इन सँवादों से सरकारी स्किम और उसको अमल पर लाने हेतु जिस तरह से ग्रामीणों को बहलाया-फुसलाया जाता है और इसकी आड़ में वह लोग जिस तरह से कर्ज़ के दलदल में फँसते और धँसते नज़र आते हैं का बहुत ही करीने से दर्शाया गया है। 

इसके बाद के सँवादों को भी देखें-

"सोचो, घर में शौचालय बन गया तो काम किसे आएगा...?"  

"मालूम नहीं।"

"अरे भीमा, क्या गंवारों वाली बात करते हो। इतना भी नहीं जानते शौचालय तुम्हारे घर में बनेगा तो तुम्हारे ही काम आएगा।"

सरपंच अपना कपट का जाल बिछाने में कहीं पीछे नहीं हटता और वह पहले से भी अधिक कसा हुआ जाल बिछाने के लिये प्रयास करता है ताकि सरकारी कागज़ों पर उसके कार्यो को सफल माना जाए और अगले चुनाव में भी वह अपनी कुर्सी को पा सके। 

परंतु इस बार कथानायक भीमा सरपंच के झाँसे में नहीं आता और उसको मुँह तोड़ जवाब देता है, "सरपंच जी, कुछ खाने को होगा तभी तो काम आएगा।" इन शब्दों को उगल कर वह कमरे से बाहर आ जाता है। 

इस आखरी सँवाद में ग्रामीण लोगों की न सिर्फ दयनीय स्थिति दिखाई पड़ती है अपितु वह सरकारी महकमें से सचेत और जागरूक होता जा रहा है का परिचय भी करवाता हुआ प्रतीत होता है। 

 ईमानदार राजनीति':- इस लघुकथा के माध्यम से लेखक ने यह कहने का प्रयास किया है कि राजनीति में आने वालों की छवि इस हद तक बिगड़ी हुई है कि अगर इस महकमें में कोई नेता  ईमानदारी से अपना कार्य करने का प्रयास करता है तब उसके अपने परिवार वालों के चेहरों पर उदासी छा जाती है। इस लघुकथा के माध्यम से लेखक जिस उद्देश्य के साथ चले हैं वह पूर्णतः उसमें सफल होते हैं।  'वोट किसे दूँ':- पत्र शैली में लिखी गयी एक सुंदर लघुकथा हुई है जिसमें  चुनावी मतदान में खड़े प्रत्यायशी के लिये एक आम नागरिक की क्या राय है और वह प्रत्याशियों के बारे में किस तरह से सोचता है और उनके प्रति उसकी उदासीनता और पीड़ा को कथानायक जिस तरह से अपने मित्र को पत्र द्वारा बताता है का सहज और सुंदर व्याख्या दिखाई देती है। 'सीमाएँ चल उठी':-  अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर लिखी इस लघुकथा में काले देश और गोरे देश को प्रतीक बनाकर यह चित्रांकित किया गया है कि कैसे विकसित देश किसी विकाशील देश को अपने को हथियारों से लेस होकर  सुरक्षित हो जाने के  अपने झाँसे में ले लेता है और  उनको हथियार दे देते हैं और उदारता से यह कहते हैं कि पैसा आराम से लौटा देना।  वह इतने चिंतित दिखाई पड़ते हैं  कि लगने लगता है कि सच में वह अपना हितैषी है परंतु जब वह बिल्कुल ऐसा ही पड़ोसी देश के लिये भी करता है तब उस देश की कुटिल राजनीति का पर्दाफाश होता है परंतु इस बीच दोनों विकासशील देशों के मध्य सीमाओं को लेकर युध्द हो जाता है। और विकसित देश पुनः जीत जाता है और वह न सिर्फ अपनी देश के लिये विदेशी मुद्रा हासिल कर अपने को पहले से और समृद्ध करता है परंतु वह खुद को और भी मजबूत कर लेता है। और विकासशील देशों की अर्थ व्यवस्था लथड़ती हुई नजर आती है। इस गम्भीर विषय पर कलम चलाकर लेखक ने अपना लेखकीय कौशल का बाखूबी परिचय दिया है। और इसका शीर्षक 'सीमाएँ चल उठी' कथानक के अनुरूप है। 'वोट बिकेंगे नहीं':- इस लघुकथा में वोट को न बेचने की बात पर जोर दिया गया है।'परछाई':- यह लघुकथा राजनीति भ्रष्टाचार पर निर्धारित है। जब सभी अपनी-अपनी ज़िम्मेदारी छोड़कर सिर्फ अपना हित सोचेंगे तो देश का क्या होगा?  साथ ही कभी किसी भ्रष्ट व्यक्ति का आमना-सामना अपनी ही परछाई से हो जाए तो उस व्यक्ति का भयभीत होना कितना स्वाभाविक होता है। इसका बहुत सुंदर चित्र इस लघुकथा में दृष्टिगोचर होता है। 'अंगूठे'- यह लघुकथा वोट की खरीद पर आधारित है कि किस तरह एक भ्रष्ट नेता अपनी ताकत को बढ़ाने के उद्देश्य से अँगूठे यानी कि अनपढ़ लोगों के मतों को खरीद लेता है , और किसी को शराब, किसी को नोट, किसीको आश्वासन देकर वह भारी मतों से चुनाव जीत जाता है। और सत्ता मिल जाने के जनून में वह इतना खो जाता है कि वह अपने खरीदे हुए अँगूठों से अधिक खून निकालने लग जाता है, और यदा-कदा कोई ऊँचे स्वर में बोलता हुआ नजर आता है तब वह उनको कटवाकर ज़मीन में दबवा देता है। परिणाम स्वरूप एक ही वर्ष में ही उसकी जमीन में अनेक नाखून वाले अँगूठे अँकुरित हो जाते है, जिसके लिये वह तैयार नही होने के कारण उनको देखकर वह डरा-डरा-सा रहने लगता है। इस लघुकथा का विषय नया नहीं है परंतु इसके प्रत्तिकात्मक प्रस्तुतिकरण के कारण यह एक बेहतरीन लघुकथा की श्रेणी में खड़ी मिलती है। 

 'मलाईमार':- एक ऐसा मौकापरस्त व्यक्ति जो अवसर देखकर बार-बार पार्टी बदल लेता है। ऐसे लोगों को अंत में हार का ही सामना करना पड़ जाता है और वह व्यक्ति ये कहता सुनाई दे जाता है, "सच तो यही है कि जनता अब समझदार हो गयी है।" यही वाक्य इस लघुकथा का अंतिम वाक्य है जो इस लघुकथा के मर्म को दर्शा रहा है और इस लघुकथा के उद्देश्य को भी परिलक्षित कर रहा है। यह एक सुंदर लघुकथा है और इसके प्रतीकात्मक शीर्षक के कारण और रोचक बन गयी है।

 'राजनीति का प्रभाव',:- राजनीति के क्षेत्र में सफलता हासिल हो जाने के उपरांत वह व्यक्ति इतना खास हो जाता है कि उसका प्रभाव डॉक्टर, व्यापारी, या कोई प्रशासनिक अधिकारी क्यों न हों सभी पर पड़ता है और अपना काम करवाने की इच्छा से सभी उसके मुँह की ओर ताकते हुए नज़र आते है।  इसी कथ्य को इस लघुकथा के माध्यम से उकेरा गया है।

'प्रजातन्त्र':- यह एक मानवेत्तर लघुकथा है । एक जंगल में प्रजातंत्र की घोषणा करी जाती है , और यहाँ के संविधान के अनुसार प्रत्येक पाँच वर्ष के बाद जंगल में प्रधान का चुनाव होने लगता है। यहाँ जंगल के हिंसक प्राणी जैसे शेर, बाघ और चीता को पात्र बनाया गया है ।अब अगर इस लघुकथा की चर्चा करें तो जंगल में प्रथम बार शेर, फिर बाघ और फिर चीते को सिंहासन सौंप दिया जाता है। राजपाट चलाने के लिये नव नियुक्त प्रधान (चीता) जब पूर्व प्रधानों से गुप्त मन्त्रणा करने जाता है तब 

शेर समझाता है -आपको पाँच वर्ष तक शासन करना है। पहले दो वर्ष हमें गालियाँ निकालते रहो। आवश्यकता पड़े तो आरामदायक जेल में भी डाल देना...जनता खुश होगी। 

बाघ कहता है- डिवाइड एण्ड रूल...जातियों में बांट दो परन्तु बात एकता की करो। उद्घाटन करते रहो परन्तु सबको उलझाए रखो और पाँचवे वर्ष में शेर समझाता है -जनता के दुःख दर्द को सुनो । झूठे आश्वासन दो, खजाना खोल दो। आप जीत गए तो फिर मज़े करो, यदि नहीं तो हम जीत जायेंगे। हम तुमको और तुम्हारे परिवार को तनिक कष्ट नहीं देंगे। पक्का वादा। 

राजनैतिक दाँव-पेंचों को समझकर चीता पूर्णतः आश्वस्त हो जाता है। 

राजनीति में अगर कोई सदस्य नया आता है तो उसको उसके वरिष्ठ कुछ इसी तरह से राजनीति दाँव-पेच सिखाते हैं और समय-समय पर उसके साथ होने का दिखावा करते हुए अपनी ही तरह छल-कपट वाली राजनीति सिखाते और करवाते हैं। यह लघुकथा इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखकर लिखी गयी है जो अच्छी बन पड़ी है। 

2.हरियाणा में साहित्य एवं रक्तदान के क्षेत्र में मधुकांत जी अपनी अलग पहचान रखते हैं। रक्तदान को लेकर आप हमेंशा कहते है कि इससे बड़ा दान दुनिया में कोई नहीं । आप समय-समय पर न सिर्फ रक्त का दान करते हैं अपितु दूसरों को भी इसके लिये प्रेरित करते है और ऐसा ही प्रयास आपने लघुकथा लेखन के माध्यम से भी किया है। रक्तदान सम्बंधित आपके दो एकल सँग्रह एड्स का भूत (सन्-2015 ई.)में धर्मदीप प्रकाशन, दिल्ली एवं दूसरा एकल सँग्रह 'रक्तमंजरी' (सन्-2019) में पारूल प्रकाशन , न. दिल्ली से प्रकाशित हुआ। 'लाल चुटकी' नामक आपका लघुकथा संकलन (सन्-2018) में  इंटकचुवल फाउन्डेशन , रोहतक से प्रकाशित हुआ। अब प्रस्तुत लघुकथा सँग्रह ' तूणीर' में प्रकाशित आपकी रक्तदान पर आधारित लघुकथाओं की चर्चा करें तो  विषय पर आपकी लघुकथाओं में 'फरिश्ता'- इस लघुकथा में रक्त के दान हेतु एक रक्तदाता एक रोगी कि जिसको वह अपना रक्त दान में देता है और उसकी जान बचाता है को प्रेरित करता दिखाई पड़ता है।  'लम्बी मुस्कान'- इस लघुकथा में एक युवा रक्तदान को लेकर उसकी माँ के भीतर के भय को निकालने में सफल हो जाता है और उनको रक्तदान के महत्त्व को भी समझा देता है जिससे उसकी माँ कह उठती है, "सचमुच बेटा, आज तूने बहुत बड़ा काम किया है। आज मैं समझ गयी मेरा बेटा बचपन को छोड़कर जवान हो गया है।" ...और माँ प्यार से अपने बेटे की पीठ थपथपाने लगती है। 'लाल कविता' :-  इस लघुकथा में पूरे सप्ताह प्रकाशनार्थ आयी कविताओं को पढ़कर वह कोने में रखता जाता है और एक-एक कर कुड़ेदानी में फैंक देता है। फिर कुछ दिन उस कवि की कोई कविता न आने पर वह बेचैन हो जाता है और कुछ दिनों में उस कवि को भूल जाता है, परंतु फिर एक दिन रक्तदान दिवस पर उसी कवि की इसी विषय पर एक सुंदर सी कविता उसके पास आती है जिसके लिफाफे के ऊपर लाल स्याही से लिखा होता है- रक्तदान दिवस पर विशेष और कविता के शीर्षक के स्थान पर गुलाब का सुंदर चित्र बना होता है। वह इस कविता को पढ़ता ही है तभी अचानक फोन की घण्टी बजती है और कविता छूट जाती है। सामने वाला उसको यह सूचना देता है, "भाई कमलकांत, अभी-अभी मनोज का एक्सीडेंट हो गया । वह मैडिकल में है। खून बहुत निकल गया। डॉक्टर ने कहा है तुरंत खून चाहिए, तुम कुछ करो...' अपने किसी परिचित या घर वाले को अगर रक्त की आवश्यकता पड़ जाती है तब इस दान का असली अर्थ का पता चलता है और आँखे खुल जाती हैं। ऐसा ही कुछ कथानायक के साथ होता है। और वह कुछ करने का आश्वासन देकर  फोन को  रख देता है। तब उसको एहसास होता है कि इस कवि का सम्बन्ध अवश्य ही कुछ रक्तदाताओं से होगा...कविता भी बहुमूल्य लगने लगती है और वह अपने भांजे को रक्त दिलवाने के लिये कविता उठाकर कवि का फोन नम्बर तलाशने लगता है।  यह एक साधारण कथ्य है परंतु यह अपने उद्देश्य को सम्प्रेषित करती है और रक्तदान महादान है का संदेश देती है। इसके अतिरिक्त इसी विषय आपकी  पुरस्कार', 'रक्तदानी बेटा', 'मच्छर का अंत', 'अपना खून', 'अपना दान', 'वैलेनटाइन डे', 'जानी अनजानी', 'रक्त दलाल', 'चिट्ठी' इत्यादि शामिल हैं जो किसी न किसी तरह से रक्तदान को बढ़ावा देती है। 

3.वस्तुतः इक्कीसवीं सदी महिला सदी है। वर्ष 2001 महिला सशक्तिकरण वर्ष के रूप में मनाया गया। 

इसमें महिलाओं की क्षमताओं और कौशल का विकास करके उन्हें अधिक सशक्त बनाने तथा समग्र समाज को महिलाओं की स्थिति और भूमिका के संबंध में जागरूक बनाने के प्रयास किये गए। महिला सशक्तिकरण हेतु वर्ष 2001 में 

प्रथम बार प्रथम बार ''राष्ट्रीय महिला उत्थान नीति''बनाई गई जिससे देश में महिलाओं के लिये विभिन्न क्षेत्रों में उत्थानऔर समुचित विकास की आधारभूत विशेषताए निर्धारित किया जाना संभव हो सके। इसमें आर्थिक सामाजिक,सांस्कृतिक सभी क्षेत्रों में पुरूषों के साथ समान आधार पर महिलाओं द्वारा समस्त मानवाधिकारों तथा मौलिक स्वतंत्रताओं का सैद्धान्तिक तथा 

वस्तुतः उपभोग पर तथा इन क्षेत्रों में 

महिलाओं की भागीदारी व निर्णय स्तर तक 

समान पहुँच पर बल दिया गया है।

आज देखने में आया है कि महिलाओं ने 

स्वयं के अनुभव के आधार पर, अपनी मेहनत और आत्मविश्वास के आधार   पर अपने लिए नई मंजिलें ,नये रास्तों का निर्माण किया है। और अपने को पहले से कहीं ज्यादा सशक्त और दृढ़ बना लिया है। कहते हैं न की साहित्य समाज का आईना होती है और साहित्यकार समाज और साहित्य को अपने कलम से सजाता है और अपने पाठकों तक अपनी बात को पहुँचाता है। इस कार्य मे मधुकांत जी भी पीछे नहीं हैं और आपने इस लघुकथा सँग्रह में कुछेक लघुकथाएँ लिखीं हैं जो .21 वीं सदी की  महिलाओं को चित्रांकित करती हैं इस श्रेणी में  'अपना अपना घर':- इस लघुकथा की मुख्य नायिका सरिता राजन नामक व्यक्ति से प्यार करती है और दोनों विवाह सूत्र में बंध जाने के इच्छुक हैं । परंतु विवाह के पूर्व सरिता राजन से कहती है कि चूँकि वह माँ की इकलौती सन्तान है और पापा भी इस दुनिया में नहीं हैं, इसलिये शादी के बाद आपको मेरे साथ मेरी माँ के घर मे रहना होगा।" इस पर राजन की असहमति हो जाती है और दोनों के बीच गम्भीर चर्चा होती है और राजन उसको अपने समाज की पुरखों से चली आ रही परंपरा जिसमें एक लडक़ी को शादी के बाद अपने ससुराल में रहने की बात करता है परंतु सरिता इस बात को नहीं मानती है और वह कहती है, "राजन, जब आप मेरे लिए अपने परिवार को नहीं छोड़ सकते तो मैं आपके लिए अपनी माँ को कैसे अकेली छोड़ दूँ? फिर समझ लो हमारी शादी नहीं हो सकती..." और गुड बॉय कहकर वह वहाँ से उठकर चली जाती है और राजन उसके कठोर निर्णय के सामने उसको रोकने की हिम्मत नहीं जुटा पाता।

यहाँ लेखक ने सरिता के चरित्र से एक शसक्त महिला का चरित्रचित्रण किया है जो प्रशंसनीय है।  

, 'प्रथम':- इस लघुकथा की नायिका अलका  भी सरिता की तरह शसक्त है और शादी के पहले प्रथम परिचय के समय, निर्णायक बातचीत करने से पूर्व लड़का-लड़की के मध्य एकांत में चल रही बातचीत को रेखांकित करती है। लड़का उसको पूछता है, "एक बात सच-सच बताइए, आपका किसी लड़के से लव-अफेयर है....?" अलका इस प्रश्न से चौंक जाती है और इसके प्रत्युत्तर में वह यही प्रश्न लड़के से पूछती है । लड़के का पुरुष अहम जाग जाता है और वह कहता है, "अपने होने वाले पति से ऐसा सवाल पूछने का आपका कोई अधिकार नहीं..."अलका के क्यों पूछने पर वह कहता है, "क्योंकि तुम्हें पसन्द करने मैं आया हूँ।" इसपर अलका कहती है, "देखिए जनाब, पसन्द और नापसंद पर मेरा भी बराबर अधिकार है। आप मेरे सवाल का जवाब नहीं देना चाहते तो मैं भी आपसे कोई सम्बंध नहीं जोड़ सकती।" और अलका वहाँ से उठ जाती है। इन दोनों लघुकथाओं में सँवाद सहज और स्वाभाविक तरह से कथानक को आगे बढ़ाते है  और उसकी रोचकता को बरकरार रखते हुए निर्णायक यानी कि चरम तक पहुँचाते हैं। 'नई सदी' एवं 'अनसुना', लघुकथाओं में बेबाक, उद्दण्ड और दबंग लड़कियों को केंद्रित करके लिखी गयी लघुकथाएँ हैं जिसमें वे लोग लड़को को इस कदर छेड़ती हैं जिसके चलते वह उनसे आतंकित हो जाते हैं और लड़का वहाँ से अपना सर झुकाए चला जाता है परंतु वे उपहास करते हुए नहीं रुकती ।

'सगाई':- इस लघुकथा मे लड़के को देखने लड़की और उसके घरवाले आते हैं और वे लड़के से वो सब पूछते हैं जो आमतौर पर लड़के वाले सगाई से पहले  लड़की से पूछते हैं। लड़की नौकरी पेशा है और उसकी पहले भी शादी हो चुकी होती है और वह अपने पति को इसलिये छोड़ देती आ

है और डाइवोर्स ले लेती है क्योंकि उसको लगता है कि वह दकियानूसी है । वह महिला अपने पिता से कहती है कि वह इस पुरुष को एक हफ्ते के ट्रायल पर रखेगी और उसके बाद ही शादी करने का निर्णय लेगी ।  इसके कथानक के सच में होने की सम्भवना समाज मे कितनी है यह एक शोध का विषय है ।  'अर्थबल':- इस लघुकथा में पति-पत्नी दोनों ही नौकरी पेशा हैं परंतु पत्नी अपने कैरियर और नौकरी को लेकर इतनी सजग है कि वह अपने पति से कह देती है कि बच्चे के लिये वह अपनी नौकरी नहीं छोड़ सकेगी परंतु पति को अगर उनके बच्चे की चिंता हो तो वह नौकरी छोड़कर घर में रहकर अपने बेटे की देखभाल कर सकता है। अर्थबल शीर्षक कथानक के अनुरूप सटीक है। 

'आरक्षण'-, महिलाओं के आरक्षण के चलते देश के अधिकांश मुख्य पदों पर महिलाओं की नियुक्ति होने पर पुरुष वर्ग की चिंता और उनके बीच बढ़ रही बेरोजगारी पर केंद्रित यह लघुकथा अच्छी बन पड़ी है जो किसी भी आरक्षण के दुष्परिणाम को रेखांकित कर रही है । आरक्षण जैसे गम्भीर विषय पर समाज को और भी सजग और चिंतन मनन करने की आवश्यकता है ।  इसी उद्देश्य को परिलक्षित कर रही है यह लघुकथा।  'आभूषणों में क़ैद'- वर्तमान में नारी अपने को आभूषणों में लदी हुई नहीं देखना चाहती अपितु वह शक्तिशाली बनकर अपने पाँवों पर खड़ा होना चाहती हैं। यही बात इस लघुकथा में कही गयी है।  

प्रस्तुत सँग्रह में प्रकाशित में लेखक ने .मोनोविज्ञान पर आधारित लघुकथाओं की चर्चा करते हुए सर्वप्रथम इस श्रेणी की 'मन का आतंक'  लघुकथा का अवलोकन करते हैं। यह एक प्रयोगात्मक लघुकथा है जो एकालाप शैली में  लिखी गई। इस लघुकथा में एक ही पात्र है जो बोल रहा है और एक पात्र अपरोक्ष रूप से अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहा है। इस लघुकथा का इकलौता पात्र एक पत्नी है जो अपनी मन की पीड़ा और डर के परतों को खोल रही है। इसमें एक पत्नी के मनोविज्ञान को बहुत ही करीने से दर्शाया गया है। इस लघुकथा को देखें- अचानक उसकी नज़र द्वार पर चली गयी। 

"आप इस समय?क्या ऑफिस जल्दी छूट गया? आप कुछ बोलते क्यों नहीं? नाराज़ हो क्या...?"

....वह कॉलेज में मेरे साथ पढ़ता था....नहीं नहीं, ऐसा कुछ नहीं हुआ....सच तुम्हारी कसम....अचानक सड़क पर मिल गया....औपचारिकतावश चाय के लिए टोक दिया था....हाँ.... हाँ.... कॉलेज की कुछ बातें हुईं थीं.... बस और कुछ नहीं, बिल्कुल भी नहीं....फिर कभी मिला तो कन्नी काट जाऊँगी, ....बोलो अब तो खुश हो न आप...."

पत्नी का कॉलेज के समय का कोई दोस्त जिसको वह इतने वर्षों बाद मिली परंतु यह बात अब तक उसने अपने पति से छिपाई थी जो आज उसने कहा दिया। परंतु उसने देखा कि तेज हवा से द्वार का पर्दा हिल रहा था।

'अरे यहाँ तो कोई नहीं आया...फिर मैं किससे बातें कर रही थी?' उसने अपने माथे को छुआ तो चौंक गयी, सचमुच माथा पसीने से गीला था। 

एक पत्नी की आत्मग्लानि जो माथे से पसीना बन बह रही थी । यह इस सँग्रह की उत्कृष्ट लघुकथा है। इसके इसी प्रस्तुतिकरण के कारण यह पाठकों के हृदय को छू लेगी ऐसा मेरा पूर्ण विश्वास है।

 'तपन':- 'एक व्यक्ति जो नियमित समाचार सुनता तो है परंतु वह सिर्फ सुनता ही है और दूसरे रूप में देखें तो जब कुदरत अपना कहर बरसाती है तब वह प्रलय जैसी स्थिति उत्पन्न कर देती है और इंसान सुनते हुए भी समझते हुए भी कुछ नही कर पाता। ऐसा ही कुछ इस लघुकथा के नायक के साथ होता है जो प्रथम दिन समाचार में सुनता है कि पड़ोसी देश मे भयंकर तूफान आया और सैंकड़ों लोग मारे गए तथा हज़ारों बेघर हो गए। 

जब दूसरे देश की बात थी तब उसने इस समाचार को आसपास बाँटने का कार्य किया एक तमाशबीन की तरह। दूसरे दिन उसने सुना कि तूफान उसके देश की सीमाओं में प्रवेश कर लिया है, तीसरे दिन  तूफान  उसके राज्य में मंडराने लगा, तब वह चिंता में डूब गया  उसी रात तूफान का शोर उसे गाँव की सीमा पर सुनाई पड़ने लगा और वह आपने छप्पर को मजबूत करने लगा पर बहुत देर हो चुकी थी, सुबह-सुबह तूफान बहुत तेज हुआ और उसके घर के छप्पर को उखाड़ कर ले गया। प्रतीकात्मक शैली में लिखी इस लघुकथा में छिपा संदेश कि हर व्यक्ति को दूर की सोच कर ही अपने जीवन में कार्य करना चाहिये क्योंकि मुसीबत कभी कहकर नहीं आती। यह एक अच्छी लघुकथा है और इसका शीर्षक तपन में प्रतिकात्मक है जो कथानक के अनुरूप है कि और अपने में जीवन की तपन को दर्शा रहा है।

 ', 'माहत्मा का सच' :- धर्म का  प्रचार एवं मनुष्य को नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले बाबाओं का अपना योगदान है । यह भी अपने आप में एक व्यवसाय-सा बन गया है और इन लोगों के आडम्बर के चर्चे आम बात है। ऐसे में अगर कोई महात्मा इस लघुकथा के नायक की तरह  यह शपत ले ले कि आज जो कहूँगा सच कहूँगा और सच के अलावा कुछ नहीं कहूँगा तब उनके अनुयायीओं की प्रतिक्रिया शायद ऐसी ही हो जैसा कि लेखक ने इस लघुकथा में वर्णन की है। कथानायक पहले तो अपने भक्तों के सामने बाबा क्यों बना इसके पीछे यह कारण बताते हैं कि प्यार में धोखा मिला और बाद में यह भी बताते हैं कि नेताओं के काले धन को सफेद करवाने का माध्यम हैं।  उनके भक्तों को पहले तो आश्चर्य हुआ परंतु फिर उनकी समझ में आ गया कि उनके  स्वामी सत्यवादी, विनम्र एवं निर्दोष हैं। इसके बाद इनके यहाँ भीड़ बढ़ने लगी। कुल मिलाकर यह बहुत ही साधारण सी लघुकथा है । 

'उबाल' :- घरेलू हिंसा पर आधारित इस लघुकथा में नायिका पत्नी अपने पति की कमीज पर क्रोध निकालकर उसको ज़ोर से पीटना शुरू कर देती है जिस कारण वो वहाँ से फट जाती है पर उसको तनिक भी पश्चाताप नही होता। पुरुष-प्रधान समाज में पत्नी के हालातों को दर्शाती एक साधारण-सी लघुकथा है। दूर के ढोल'- इस लघुकथा के माध्यम से लेखक ने यह समझाने का प्रयास किया है कि आजकल  भक्त प्रह्लाद जैसा पुत्र कोई नहीं बनता । 

'अवस्था के बिम्ब':- यह भी एक प्रयोगात्मक लघुकथा है जिसमें तीन दृश्य दिखाए गए हैं।   लगभग 18 वर्ष का जोड़ा, पार्क के कोने वाले बैंच पर एक दूसरे को आँखों में आँखें डाले, एक दूसरे से सटकर मौन बैठा था। 

उसी पार्क में लगभग 35 वर्ष का युगल पार्क की छतरी के नीचे, साथ-साथ बैठा, बतिया रहा था। 

पार्क की दीवार की ओट में 75 वर्ष का, एक दूसरे पर आश्रित जोड़ा आमने सामने बैठा धूप सेक रहा था। 

इस लघुकथा के अंतिम वाक्य में इसका सार है पार्क के बीच में खड़ा आश्चर्यचकित बालक तीनों जोड़ों को देखकर घबरा रहा है। 

बच्चे को समझ नहीं आता कि आगे जाकर उसको क्या और कैसे रहना है क्योंकि सब अपने-अपने हिसाब से रहते हैं बिना यह सोचे कि बच्चों के भविष्य का क्या होगा? 

 'विस्तार':- इस लघुकथा में बेटा-बहू के कहने पर अपनी माँ को अनाथाश्रम छोड़ आता है परंतु जब घर के काम-काज करने में वह थकने लगती है तो वह अपने पति को पुनः उनको घर लिवाने के लिए भेज देती है । वह माफ़ी माँगते हुए जब उनको घर आने को कहता है तब एक स्वाभिमानी माँ यह कहती है, "माफी किस बात की? तुमने तो यहाँ भेजकर मुझपर उपकार ही किया है। वहाँ तो मैं केवल तुम्हारी माँ थी, परन्तु यहाँ तो तीस बच्चों की माँ हूँ। आश्रम के स्वामी जी तथा सभी सेवक मुझे भरपूर सम्मान देते हैं। अब तो यह आश्रम ही मुझको अपना घर लगने लगा है।" 

इसका अंतिम वाक्य बेहद सुंदर बन पड़ा है- सारे पासे असफल होते देख बेटा उदास हो गया। परंतु कमरे की खिड़कियों से झाँकती नन्हीं-नन्हीं आँखों में चमक भर गयी। माँ को बच्चों का प्यार और तीस बच्चों को माँ का प्यार मिल जाता है। इस लघुकथा का अंत जिस तरह हुआ है उस कारण यह लघुकथा सुंदर बन पड़ी है। 

'डरे-डरे संरक्षक':- इस लघुकथा के माध्यम से लेखक ने वर्तमान में बच्चों की बदलती मानसिकता को लेकर चिंता व्यक्त की है। कानून ने बच्चों को स्कूल में मारने-पीटने पर रोक लगाई है और अगर वह उनके अभिभावकों को उनकी शिकायत करते हैं तब वे यह कहते हुए मिलते हैं कि अगर उन्होंने उसको डाँटा या मारा और इकलौता बेटा घर से भाग जाएगा...। ये कैसा डर है जो लगभग हर संरक्षक के हृदय में घर कर गया है । यह एक गम्भीर विषय है जिसपर समाज को भी गम्भीरता से सोचना समझना होगा और बच्चों के मानसिकता को समझते हुए उनको सही दिशा दिखाना होगी। 

'पहली लड़ाई' :- एक डरपोक व्यक्ति जब पहली बार पतंग उड़ाता है तब उसकी पतंग कट जाती है परंतु उसको यह सन्तोष हो जाता है कि उसने अपनी पहली लड़ाई इस पतंग के माध्यम से लड़ी और वह दूसरी पतंग को उड़ाने के लिये चला जाता है।  इस लघुकथा के माध्यम से लेखक ने यह समझाने का प्रयास किया है कि व्यक्ति का डर और उस डर से लड़ने की क्षमता दोनों ही उसके भीतर होती है। बस उसको उन चीजों को समझना होता है और अपने डर पर प्रयास करके विजय हासिल करना होता है। 'पत्रों का संघर्ष':- इस लघुकथा में पत्रों के माध्यम से लेखक ने पत्रिका के प्रकाशक को जहाँ उसको प्रकाश में लाने हेतु पैसों की आवश्यकता पड़ती है और इसके लिये वह अपने मित्र को लिखने में भी नहीं हिचकता कि क्योंकि उसके पास राशि नहीं है सो हो सकता है वह इस पत्रिका को न ला सके ऐसे में अगर वह मित्र उसको अपनी परेशानी बताते हुए कुछ राशि को उसके बैंक के खाते में डाल दी है कि सूचना देता है तब प्रकाशक का आश्चर्यचकित होना और उसको उसके पत्रों की इबारत अक्षरतः दिखाई देने लगती है जो बहुत ही स्वाभाविक है। ऐसा ही दृश्य इस लघुकथा में चित्रांकित किया गया है। इसके अतिरिक्त  'डी. एन. ए.:- सँवाद शैली में लिखी गयी इस लघुकथा में एक मंत्री के किसी महिला से अनैतिक सम्बन्ध और फलस्वरूप जब वह महिला वर्षों बाद उसको सम्पर्क करती है और यह बताती है कि उसका बेटा जवान हो गया है और पिता का नाम चाहता है। ऐसे में मंत्री जब उसको हड़का देता है तब वह महिला कहती है कि वह बच्चे का का डी. एन.ए टेस्ट करवा सकती है। तब वह मंत्री डर जाता है और उसके घर पहुँचने की बात करता है। उस मंत्री को एहसास हो जाता है कि जवानी में की गई गलती को दबाना कितना कठिन होता है। यहाँ इसी भाव को लिखकर लेखक ने इस लघुकथा का अंत किया है। 


5. भ्रष्टाचार पर आधारित लघुकथाएँ की बात करें प्रस्तुत सँग्रह में 'संस्कार' 'इज्जत के लिए', 'खोज', 'अंधा बांटे रेवड़ी', इत्यादि  रचनाएँ शामिल हैं। संस्कार लघुकथा  नौकरी में आरक्षण पर आधारित है जिसमें सुयोग व्यक्ति को कई बार उसके योग्य नौकरी नहीं मिल पाती और वह अपने से कम योग्य व्यक्ति के अंडर काम करने पर मजबूर हो जाता है। इज्जत के लिये :- चिकित्सा विभाग में डॉक्टर द्वारा भ्रष्टाचार किए जाने पर प्रकाश डाला गया है। मरीज और उसके घर वाले किस हद तक मजबूर हो जाते हैं कि गरीब व्यक्ति को अपने परिजन जो मृत्युशैया पर लेटा है जिसका बचना असंभव है उसको वह डॉक्टर को दिखाने के लिये कर्ज भी लेता है समाज के डर से कि कहीं समाज यह न कहे कि जानबूझकर उसने अपने माता या पिता का इलाज नहीं करवाया और ऐसे में अगर कोई झोलाछाप डॉक्टर जो मरीज को  इंजेक्शन लगाता है परंतु वह देखता है कि सिरिंज में खून निकलकर भर रहा है। पर लोक-लाज के मारे वह उससे कहता तो कुछ नही पर उसको समझने में यह देर नहीं लगती कि यह डॉक्टर अनाड़ी है। ऐसे डॉक्टर कई जगह नज़र आ जाते हैं जो मरीजों के जीवन से खेल जाते हैं। यह एक गम्भीर समस्या है जिसका निदान होना अति आवश्यक है।

खोज:- पुलिस भ्रष्टाचार पर आधारित इस लघुकथा में आधी रात को डाकू किसी गाँव में लूटपाट कर दो हत्या कर देते हैं और गाँव से तीन-चार किलोमीटर दूर चले जाते हैं। तब बस्ती में भारी जूतों की आवाज़ ठपठपाने लगती है। वे लोग सवाल पूछ-पूछकर चले जाते हैं और दूसरे दिन शाम को डी. एस. पी. ग्रामीण लोगों को एकत्रित करके बताते हैं, "आपको यह जानकर खुशी होगी कि डाकुओं की बंदूक से निकले दो कारतूस हमने बरामद कर लिए हैं...अब जल्दी ही डाकुओं की पहचान कर ली जाएगी...

इसका अंतिम वाक्य आमजन के बीच पुलिस प्रशासन के प्रति निराशा दर्शा रही है कि किस कदर इन लोगों ने अपनी छवि बिगाड़ कर रखी है- एक सप्ताह बीत गया, धीरे-धीरे लोगों की आँखें धुँधलाने लगीं। 'अँधा बांटे रेवड़ी'- किसी भी तरह के पुरस्कार बांटने में भी किस तरह से राजनीति होती है और आयोजकों का प्रयास रहता है कि ऐसे में जब लिस्ट बनती है तो नेता यह चाहता है कि अपनी जाति और क्षेत्र का कोई व्यक्ति हो तो उसको लिस्ट में सर्वप्रथम होना चाहिए।


6.अन्यान्य विषयों पर आधारित लघुकथाएँ:- 'नाम की महिमा' जो कि सम्पदान व्यवसाय पर आधारित है जिसमें यह दर्शाया गया है कि इस व्यवसाय में एक नामी रचनाकार की रचना को स्थान मिल जाता है फिर चाहे उस रचना में कोई दम न हो परंतु जब यह पता चल जाता है कि वह रचना किसी साधारण लेखक ने लिखी है तब उस रचना को कचरे की टोकरी में फैंक दिया जाता है।, 

 'आजादी' :- इस लघुकथा में लेखक ने यह सन्देश देने का सद्प्रयास किया है कि अमीर होना सुख को पाना नहीं और न ही उसकी खर्च करने की क्षमताओं को देखकर उसकी आजादी का अनुमान लगाया जा सकता है क्योंकि वह अपने नौकरों के आधीन हो जाता है वहीं एक गरीब व्यक्ति जो खुले आसमान के नीचे सोता है परंतु वह जहाँ चाहे जब चाहे आना-जाना कर सकता है और वह स्वतंत्रता से अपने निर्णय ले सकता है। यही सच्ची आज़ादी होती है।  यह लघुकथा थोड़ी उपदेशात्मक हो गयी है। , 'प्रशिक्षण':- वर्तमान शिक्षा नीति और उसके बाद उत्पन्न होती बेरोजगारी की समस्या को लेकर व्यंग्य है कि इससे बेहतर है कि राजनीति के मैदान में उतार देना आसान होता है । 'सभ्रान्त नागरिक' :- सड़क दुर्घटना पर आधारित इस लघुकथा में देश के एक जागरूक नागरिक का चित्रण है जो दुर्घटना के होते ही पुलिस स्टेशन में इसकी सूचना देता है और अस्पताल भी ले जाता है। पुलिस जहाँ रिपोर्ट लिखवाने की खाना-पूर्ति करती दिखाई पड़ती है और उस भले इंसान को बे वजह परेशान करती है। ऐसे में अस्पताल से अगर डॉक्टर यह कह देता है कि क्योंकि पेशंट को समय पर अस्पताल में भर्ती करवाया गया उसकी जान बच गयी है। तब एक सम्भ्रान्त नागरिक की परेशानियों का मीठा फल मिल जाता है और उसकी चिंता मिट जाती है। इस लघुकथा में किसी अस्पताल में बिना पुलिस की जानकारी या रिपोर्ट किये उसका इलाज शुरू कर देने वाली घटना पर विश्वास कर पाना मेरे लिये थोड़ा मुश्किल हो रहा है। 

, 'बातूनी' :- यह लघुकथा विद्यार्थी जीवन पर आधारित है जिसमें एक बच्चा अपने दोस्तों के मध्य गपशप करके अपना समय बर्बाद करता है और उसकी माँ उसको पढ़ाई करने को कहती है। 'सुनो कहानी', बदलाव' (फंतासी):- ये दोनों लघुकथाएँ फंतासी शैली में लिखी गयी हैं।  सुनो कहानी में एक सुंदर सी लड़की जिसका विवाह एक राजा के साथ होता है परंतु वह उसके महल में अपने सुख-दुःख को किसी से बांट नही पाती क्योंकि ऐसा ही आदेश राजा ने दिया था। और आखिर में वह मर जाती है। इस लघुकथा में मनुष्य सामाजिक प्राणी है जिसको अपने सुख-दुःख बांटने के लिए किसी व्यक्ति की आवश्यकता पड़ती है । फिर वह चाहे बड़े से महल में ही क्यों न रहता हो पर जब उसके भीतर अकेलापन घर कर लेता है और ऐसे में उसके पास किसी को न पाकर वह दम तोड़ देता है जो बहुत ही स्वाभाविक है।

 'अपनी-अपनी ज़मीन' :-भूख पर आधारित इस लघुकथा में लेखक का यह उद्देश्य परिलक्षित हुआ है  कि भूख हर व्यक्ति को लगती है और यह जात-पात नहीं देखती ।अपने अपने रिश्ते' :अंतर जातीय विवाह पर आधारित है । 

, 'सहारा':- इस लघुकथा में कामकाजी बहू के पक्ष में खड़ी एक सास दिखाई देती है जो अभी-अभी काम से घर लौटी है और उसका पति चाय की फरमाइश कर देता है। ऐसे में सास अपने बेटे को टोक देती है और स्वयं चाय बनाने हेतु खड़ी हो जाती है। बेटी जब उसको टोकती है तब वह कह देती है कि बहू से जब नौकरी करवाना है तो घर में उसका हाथ बंटवाने की ज़िम्मेदारी घर के हर सदस्य की बन जाती है। परिवार में प्रेम-भाव बढ़ाने के उद्देश्य से लिखी गई यह एक सुंदर लघुकथा है।  'मेरा वृक्ष' :- यह लघुकथा पर्यावरण संरक्षण के महत्त्व को बढ़ाती लघुकथा है। जिसमें  एक भाई के पब्लिक पार्क के चित्र को बनाता है। जिसको रंगों से सजाता है और एक कोने में वट वृक्ष को खड़ा कर देता है। उसका छोटा भाई जलन के मारे अपनी कलम निकाल लेता है और वृक्ष पर काटा लगा देता है। दोनों भाइयों में बहस हो जाती है, और शिकायत माँ तक पहुँच जाती है। वह कुछ कह पाए उसके पहले ही बड़ा भाई कहता है, "अम्मा, इस पागल को इतना भी ज्ञान नहीं कि पेड़ो की शीतल छाया और ऑक्सिजन हमको मिलती है, सरकार को नहीं, इसलिए ये वृक्ष हमारे हैं..."

और छोटे भाई को अपनी गलती का एहसास हो जाता  है और अपनी गलती मान लेता है और बड़े भाई का क्रोध शांत हो जाता है। बाल-सुलभ आधारित यह एक सुंदर लघुकथा हुई है।

, 'फिर एक बार':-  शरणार्थी का दर्द को उकेरती यह एक अच्छी लघुकथा है। एक व्यक्ति जो पाकिस्तान से अपना देश समझकर अपने देश आ जाता है, उसको एक बार तब लूटा गया जब दस वर्षों तक उसको लोग पाकिस्तानी ....शरणार्थी कहते रहे, अगले बीस वर्ष पंजाबी कहकर दंश देते रहे , अब लोगों को इनके शरीर से हरियाणवी मिट्टी की गंध आने लगती है... फिर एक बार सारी गंध सूख जाती है... वह जूतों को बेचने वाला एक व्यापारी होता है जिसकी दूकान को लूट लिया जाता है। वह चिंतित हो जाता है कि वह कैसे चुकाएगा थोक व्यपारी की उधार और कहाँ से भरेगा बैंक की किश्त! यह एक मार्मिक लघुकथा है जो सहज ही हृदय को छू जाती है।, 'सपना' :- इस लघुकथा में  एक पत्रकार को राम राज्य का  सपना आता है और वह एक लेख लिखता है परंतु लोग उसका कहीं उपहास न उड़ाएँ इस डर से वह  अपने लेख को एक फ़ाइल में रख देता है और धीरे-धीरे वह उसमें दबता चला जाता है और पत्रकार लेख को प्रकाशित करवाने हेतु उपयुक्त समय की प्रतीक्षा करता है। साहित्य की स्थिति को दिखाती यह एक गम्भीर रचना है ।

  'अतिथि देवो भव' मातृ दक्षिणा :- इस लघुकथा में विदेशियों की मदद करता हुआ एक किसान दिखाई देता है जो उनकी गाड़ी के पंक्चर हुए पहिये को निकालकर डिग्गी से दूसरा पहिया निकालकर लगा देता है और उनके द्वारा बख्शीश की राशि को न लेकर भारतीय संस्कृति का परिचय देता है। 'ऊँचा तिरंगा':- यह बाल मनोविज्ञान पर आधारित एक सुंदर लघुकथा है।  स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर एक मोहल्ले के  बच्चों में बहस छिड़ जाती है कि कल देखते हैं सबसे ऊँचा झण्डा कौन फहराएगा। सब बच्चें अपनी अपनी बात रखते हैं ऐसे में एक बच्चा जिसका घर बहुत नीचा होता है और जो पाइप भी नहीं ला सकता वह चिंतित हो जाता है और रात एक बजे उसको एक ख्याल सूझता है और वह चुपचाप अपने मकान की छत पर आ जाता है।  मुंटी में से अपनी चरखड़ी और तिरंगे वाली पतंग निकाल लेता है और आकाश में पतंग उड़ाने लगता है। स्वतंत्रता दिवस की शीतल हवा उसके मन को मस्त और पुलकित कर देती है। पतंग को आकाश में चढ़ाकर वह आसपास के सभी मकानों की और देखता है औए कह उठता है, "हाँ मेरी पतंग सबसे ऊँची है।"  यह सोचकर वह सुबह होने की प्रतीक्षा करने लगता है।  जहाँ चाह वहाँ राह के मुहावरे को परिभाषित करती यह अपने सोए आत्मविश्वास को जगाने वाली एक सार्थक  लघुकथा है।

 , 'कन्या पूजन' :- एक दाई जो कन्याओं को गर्भ में मरवाती देती थी को कान्याओं की महत्ता तब समझ में आती है जब दुर्गाष्टमी के पूजन करने के बाद सात कान्याओं को एकत्रित करने के लिये मोहल्ले में निकलती है परंतु उसको सिर्फ पाँच ही कन्याएँ मिल पाती हैं।  दो थाली बच जाने से वह उन दोनों थालियों को लेकर मन्दिर चली जाती है। जब वहाँ दूसरी महिलाओं के साथ चर्चा चलती है तब वह कहती है कि वह दाई इसलिये बनी थी क्योंकि यह उसकी सास की इच्छा थी पर जब पूजन की बात आई तो यह उसके संस्कारो की बात थी जिसमें वह हार गई सो शपत खाती है कि आगे से वह कान्याओं की हत्या किसी के भी गर्भ में न करेगी न करवाएगी। यहाँ पूजन के बाद लड़कियों का न मिल पाने की स्थिति एकदम से आ जाये यह बात थोड़ी खटक रही है। 

 'बोहनी' :- गरीब व्यक्ति के लिये अपने सामान की बिक्री से हो रही बोहनी कितनी महत्त्वपूर्ण होती है यह बात अनुभवी आँखों की आवश्यकता होती है जैसा इस लघुकथा के नायक ज्ञानरंज को होता है जब वह एक मैली- कुचैली लड़की रंग-बिरंगी बॉल बेच रही थी और उसकी बोहनी करवाने की मिन्नते कर रही थी। वह जब बॉल को देखता है तब चाइना मेड होने के कारण एक बार तो खरीदने के लिये इनकार कर देता है पर जब वह उस बच्ची के मुरझाए चेहरे की पीड़ा को देखता है तो एक गेंद खरीदकर उसकी बोहनी करवा देता है।  बच्ची के चेहरे पर मुस्कान आ जाती है। यह व्यक्ति के कोमल भावना को दर्शाती हुई प्यारी सी लघुकथा है। भविष्य की चिंता' :- साहनुभूति पाकर अपने लिए खाना माँगने के लिये ज़ोर-ज़ोर से रोने वाले भिखारी को एक दिन अचानक से भविष्य की चिंता सताने लगती है कि अगर किसी दिन किसी को पता चल गया और खाना देना बंद कर दिया तो...और वह बावला भिखारी और तेज रोने लग जाता है।  विद्यासागर अभी ज़िंदा है- इस लघुकथा के माध्यम से लेखक ने यह कहने का सद्प्रयास किया है कि व्यक्ति तो मर जाता है परंतु उसके द्वारा किया गया काम उसकी मृत्यु के बाद भी याद किया जाता है और उस व्यक्ति को अपने कार्यों के लिये जाना-पहचाना और जीवंत रखता है। 

इन लघुकथाओं के विषयों में नयापन नहीं है परंतु भाषा सहज और स्वाभाविक है। आपके इस संग्रह के शीर्षक 'तूणीर' की बात करें तो इसका सामान्य अर्थ तरकश यानी कि तीर रखने वाला पात्र जो सामान्यतः काँधे पर लटकाया जाता है। आपकी लघुकथाओं को पढ़कर यह कहना गलत न होगा कि आपकी लेखनी से निकली कुछ  बेहतरीन लघुकथाएँ तीर की तरह पाठकों के ह्रदय को  चीरकर उसमें वास करेंगी । मुख्य पृष्ठ आकर्षक लगा। 

कुल मिलाकर मैं यह कहने में अपने को बहुत ही सहज पा रही हूँ कि प्रस्तुत सँग्रह पठनीय है और पाठकों को इसकी लघुकथाएँ पसन्द आएँगी।  मधुकांत जी के 'तूणीर' नामक इस एकल लघुकथा सँग्रह को पढ़ते हुए जितना मैं समझ पायी हूँ उस अनुसार अपने विचारों को रखने का विनम्र प्रयास किया है । अब इसमें मैं कितना सफ़ल हो पाई हूँ इसका निर्णय मैं आप सभी सुधिपाठकों पर छोड़ती हूँ।


- कल्पना भट्ट

स्थान:- ठाणे(मुम्बई)


सोमवार, 22 मई 2023

समीक्षा : हाल-ए-वक्त | कमल कपूर

समय की नब्ज़ को पहचानती कृति…हाल-ए-वक्त


   डॉ चंद्रेश कुमार जी को मैं सुविज्ञ लघुकथा-पुरोधाओं  की क़तार में आगे-आगे खड़ा पाती हूँ सदा। मेरा यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि सही मायने में लघुकथा कैसे लिखी जाती है… यह चंद्रेश जी से सीखा जा सकता है। बानगी के तौर पर उनका नव लघुकथा-संग्रह ‘ हाल-ए-वक़्त ‘ सामने है ।सौम्य एवं शीर्षकानुकूल नयनाभिराम आवरण-पृष्ठ से सुसज्जित पुस्तक के मात्र 90 पृष्ठों पर क़रीने से टंकी एक कम 80 लघुकथाएँ…समय की नब्ज़ को कसकर थामे हुए हैं । समाज के विविध क्षेत्रों से कथानक उठाकर सुलेख ने , सलीक़े से ये कथाएँ बुनी हैं…कुछ इस तरह कि हर कथा का अंदाज़ निराला है और मिज़ाज जुदा और पंच मारक भी तथा प्रहारक भी ।



 सर्वप्रथम सुलेखक ने 'लेखकीय वक्तव्य' के अंतर्गत समय की महत्ता पर प्रकाश डाला है। रहीम जी के एक अनमोल दोहे का दृष्टांत देते हुए  समझाया है कि  समय लाभ सम लाभ नाहिं, समय चूक नाहिं चूक।

कृति के शीर्षक से संग्रह में कोई कथा नहीं है। वस्तुतः संग्रह की प्रत्येक कथा ‘ हाल-ए-वक़्त ‘  ही तो कह रही है…सरल, सहज एवं सरस भाषा-शैली में। दरअसल प्रस्तुत कृति एक समाज-यात्रा है, जो ‘देशबंदी' से शुभारंभित होकर ‘कोई तो मरा है‘ पर समाप्त होती है। बीच में 77 मोड़ हैं, जो बहुत-बहुत कुछ समझाते और सिखाते हैं । इनमें व्यवस्था के प्रति चिंता भी है और चिंतन भी। किसान द्वारा क्षुब्ध होकर की गई खेतीबंदी कैसे देशबंदी का रूप ले लेती है…स्वयं पढ़ें । ’कोई तो मरा है‘ माँसाहारी-वर्ग पर वार करती है तो ‘ माँ के सौदागर ‘  गौहत्या के वास्तविक कारणों की अजब किंतु सच्ची कहानी बयां करती है।’ मार्गदर्शक ‘ स्वार्थी नेताओं की अवसरवादिता पर कटाक्ष करती है और ‘ मेरी याद ‘ … अति मार्मिक… अपनी गुमशुदगी की खबर खोजते हताश-निराश वृद्ध की व्यथा कथा सुनाती सी। ‘बच्चा नहीं‘ कथा अनकही में बहुत कुछ कह जाती है सिर्फ़ इतना कहकर,” उसका बच्चा किन्नर हुआ है…।”



   ‘ सोयी हुई सृष्टि ‘ सुलेखक के यथार्थ में कल्पना रस घोलने का सुंदर प्रयास है…इसे पढ़कर चंद्रेश जी की कलम को नमन करने को जी चाहता है । ईलाज, धर्म-प्रदूषण, गरीब सोच,एक बिखरता टुकड़ा , कटती हुई हवा ,अन्नदाता एवं इतिहास गवाह है भी अति सराहनीय सुपठनीय कथाएँ हैं किन्तु ‘अस्वीकृत मृत्यु‘ को मैं कृति की सर्वश्रेष्ठ लघुकथा कहूँगी , जो बलात्कार को तीनों लोकों का जघन्यता गुनाह ठहराती है..; इतना कि इसके गुनाहगार को नर्क भी स्वीकार नहीं करता और कीड़े-मकौड़े तक भी उसके पास नहीं फटकते । इस लघुकथा के तो पोस्टर बनने चाहिए और पाठ्यक्रम में भी इसे शामिल करना चाहिए ।


   कुल मिलाकर ‘हाल-ए-वक्त ‘ एक सुंदर-संग्रहणीय संग्रह है, जो शोधार्थियों के लिए भी अति उपयोगी सिद्ध होगा ।

अंततः  सुलेखक को मन-प्राण से बधाई तथा उनके उज्ज्वल भविष्य के लिये अतिशय मंगल कामनाएँ ।इति!


- कमल कपूर 

अध्यक्ष: नारी अभिव्यक्ति मंच ‘ पहचान ‘

2144/9

फ़रीदाबाद 121006

हरियाणा

बुधवार, 14 दिसंबर 2022

पुस्तक समीक्षा | अपकेन्द्रीय बल | लेखक: संतोष सुपेकर | समीक्षक: दिव्या राकेश शर्मा

संवेदना को हौले-हौले से जगाती कथाएँ


"सुपेकर उन लघुकथाकारों में से हैं जो लघुकथा-सृजन का रास्ता अपनी वैचारिक शक्ति के बूते एक अन्वेषी के रूप में खुद खोजते हैं।किसी का अनुगामी होकर चलना उनके रचानात्मक स्वभाव में नहीं हैं।"

आदरणीय संतोष सुपेकर जी के लिए यह उदगार आदरणीय डॉ. पुरुषोत्तम दूबे सर के हैं। उनकी इस बात से मैं भी पूरी तरह सहमत हूँ। हम सुपेकर सर की रचनाओं को विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में अक्सर पढ़ते रहते हैं। उनकी रचनाशीलता व लघुकथा के प्रति समर्पण भी उनकी साहित्यिक कर्मठता को दिखाता है।वैचारिक शक्ति का एक उदाहरण सुपेकर जी के नये लघुकथा संग्रह 'अपकेन्द्रीय बल' में आपको मिलेगा।यह उनका छठा लघुकथा संग्रह है जो एचआई पब्लिकेशन से प्रकाशित हुआ है।

'अपकेन्द्रीय बल' में संकलित कथाओं के बारें में आदरणीय योगराज सर लिखते हैं कि,

"इस संग्रह से गुजरते हुए मैंने पाया कि संतोष सुपेकर की लघुकथाएँ हमारे जीवन की विसंगतियों का बहुत ही बारीकी से अन्वेषण करती हैं।यथार्थ से सजी इन लघुकथाओं में जीवन की श्वेत श्याम फोटोग्राफी है।"

कथाओं में निहित मूल भाव और उद्देश्य का सार योगराज सर ने अपने इस वक्तव्य में दिया है। जो भी पाठक संतोष सुपेकर जी की लघुकथाओं से परिचित है वह इस बात से सहमत होगा कि संतोष सुपेकर जी की लघुकथाएँ यथार्थ का आईना हैं।

इन कथाओं में कोई कृत्रिमता नहीं है बल्कि स्वभाविक भाव लिए उन बिन्दुओं पर चोट है जिन बिन्दुओं की डार्क स्याही से हम बचकर निकल जाने की कोशिश करते हैं। कथाओं के पात्र हमारे इर्दगिर्द ही हैं जिन्हें आप रोज देखते हो और आगे बढ़ जाते हो।

सबसे पहले मैं इस संग्रह की लघुकथा विवश प्रस्ताव का जिक्र करूंगी। यह कथा भले ही लेखक के दिमाग की कल्पना हो, लेकिन पात्र सच्चे हैं और मैं व्यक्तिगत ऐसे पात्रों को देख चुकी हूं जिन्होंने लेखन को अपनी आत्मा बना लिया है। एक बेबस वरिष्ठ लेखक जिसने जीवन में लेखन से सम्मान तो पाया किन्तु धन नहीं कमा सके। धन तो जीवन में सम्मान से बढ़कर होता है! इसलिए लेखक के घरवालों को अब लेखक का लिखना पसंद नहीं। लेखन को बचाने के लिए वरिष्ठ लेखक अपनी जमापूंजी को ऐसे व्यक्ति के हाथों सौंप देता है जो संस्था द्वारा लेखकों को सम्मान देने का.काम करता है।

"इसमें से तीन हजार आपकी संस्था के सहायतार्थ रख लीजिए और…दो हजार मेरा सम्मान कार्यक्रम कर मुझे दे देना ताकि मेरे घरवाले मुझे लेखन करने दें।"

इस संवाद को पढ़कर इस कथा के मूल से आप परिचित हो गए होंगे।

लेखक ने लेखन में समाज की उस विसंगति को जो कि लेखको की आत्मपीड़ा बनकर आर्तनाद कर रही है। इस कथा के माध्यम से बड़ी मार्मिकता से उभारा है। डिसेंडिंग ऑर्डर शीर्षक से क्रमशः एक और दो कथाएँ हैं, दोनों ही उम्दा हैं। मुहर,अपार्टमेंट, संकुचन,स्थाई कसक,जुड़ाव, फायर,जैसी कथाएँ मनोवैज्ञानिक अवलोकन पर आधारित हैं।

सुपेकर जी ने सरकारी कार्यालयों और सरकारी कर्मचारियों को लेकर अनेक कथाएँ लिखी हैं।इन कथाओं में व्यवस्था और उसमें शामिल भ्रष्टाचार अपने नग्न रुप में सामने आ रहा है।

संग्रह की कथाओं में प्रवाह है और ठहराव भी।भाषा सहज सुगम है और पात्रानुकूल है।

इन कथाओं के पात्र कभी अपने रोग से लड़ते हुए विजेता होने का सपना देखते हैं तो कभी सच रिश्तों की चुगली कर बतियाते हैं।

हताशा का लावा अच्छा शीर्षक है कथा भी जानदार। कथाओं की डोर सख्त कील से बंधी लेकिन अपने ऊपर ढेरों आशाएं टाँगे यह डोर संवेदना को हौले-हौले से झिंझोड़ कर जगा रही है।

सात रहती दूरियाँ ऐसे ही आपको खंरोच कर निकल जाती है, तो रास्ते का पत्थर टक से आपके दिल पर जाकर लगता है। इस कथा को पढ़कर एक बार अपने मन को ज़रूर टटोलना होगा कि कहीं कभी हमने भी ऐसा तो न कहा या किया था!

सुपेकर जी रचनाधर्मिता के साथ एक और धर्म बहुत स्पष्टता से निभा रहे हैं और वह है साहित्यकारों के हृदय की पीड़ा उनके जीवन में आने वाली दिक्कतों को संजीदगी के साथ समाज और व्यवस्था के सामने रखना। उन्होंने अनेक कथाओं में लेखन जगत की विसंगतियों को उभारा है जैसा कि मैं पहले लिख ही चुकी हूँ।

चाल ,साजिशें और गिरगिट की तरह रंग बदलते पात्रों में एक पात्र लखन दादा भी है, जो राकेश की बारात का स्वागत इसलिए करता है क्योंकि अब उसे पार्षद के इलेक्शन के लिए गरीब राकेश की बस्ती के वोट चाहिएं।

उस रक्त स्नान के खिलाफ इंसानियत के बचने की कथा है।

'अपकेन्द्रीय बल' संग्रह की शीर्षक कथा समाजिक असमानता के तानेबाने और सोच व ज़रूरत पर लिखी गई कथा है। सेठ छगनलाल और सेवक मंगल की आवश्कताओं का अपकेन्द्रीय बल जो कि बेहतरीन कथा बन पड़ी है।

जाति धर्म एक ऐसा विषय जो बेहद संवेदनशील विषय है और अक्सर झगड़े की वजह भी बनता है। संग्रह की प्रथम लघुकथा 'इस बार' में चार दोस्तों के बीच अपने धर्म और जाति के विवाद के बीच उपजी बहस में अचानक सभी सच को देख खामोश हो जाते हैं और अपने ऊपर शर्मिंदा होने लगते हैं।

लघुकथाओं को समझने के लिए पाठकों को उपन्यास को समझने से ज्यादा धैर्य व श्रम की आवश्यकता होती है।अमूमन यह धारणा है कि लघुकथाएं उपन्यास के सामने महत्व नहीं रखती जबकि ऐसा नहीं है क्योंकि एक लघुकथा जो चंद वाक्यों में लिखी जाती है वह हज़ारों शब्दों में लिखे गए उपन्यास से ज्यादा लम्बी कहानी को समेटे होती है, जिसका उद्देश्य समाज की चेतना को जाग्रत करना होता है।

इस संग्रह में भी आपको ऐसी ही कथाएं पढ़ने को मिलेंगी।

संग्रह के लिए आदरणीय सुपेकर सर को बधाई व शुभकामनाएं।

- दिव्या शर्मा

मंगलवार, 29 नवंबर 2022

पुस्तक समीक्षा | तूणीर (लघुकथा सँग्रह) | लेखक: डॉ. मधुकान्त | समीक्षक: कल्पना भट्ट

पुस्तक का नाम: तूणीर (लघुकथा सँग्रह)

लेखक: डॉ मधुकान्त

प्रकाशक: अयन प्रकाशन

प्रथम संस्करण : 2019 

मूल्य : 240 रुपये 

पृष्ठ: 128


तूणीर में तीर: मधुकांत  की लघुकथाएँ

हिन्दी लघुकथा जगत् में डॉ मधुकान्त जी एक जाने-माने हस्ताक्षर हैं। आप रक्तदान हेतु भी जाने जाते हैं। 

आपने अपनी भूमिका में 'तरकश' नामक आपके प्रथम लघुकथा सँग्रह जो वर्ष 1984 में प्रकाशित हुआ था का उल्लेख किया है। परंतु मेरे लिये आपका प्रस्तुत लघुकथा सँग्रह 'तूणीर' से ही आपकी लेखनी से परिचय हुआ है, इसको कहने में मैं बिल्कुल संकोच नहीं करूँगी।

डॉ. सतीशराज पुष्करणा ने अपने आलेख 'हिन्दी लघुकथा की रचना-प्रविधि' में लिखा है कि ' कथा को अन्य विधाओं की अपेक्षाकृत लघुकथा बहुत क्षिप्र होती है और वह अपने गन्तव्य तक यथासम्भव शीघ्र पहुँचती है। 

प्रस्तुत सँग्रह में कुल 91 लघुकथाएँ प्रकाशित हैं जिनको मैंने इन शीर्षकों में विभाजित किया है।

1. राजीनीति पर आधारित लघुकथाएँ :- इस विषय पर आपकी लघुकथाओं में ' 'वोट की राजनीति'- इस में वोट डालने की परंपरा को अपने संविधानिक अधिकार से अधिक एक औपचारिक निभाते हुए लोगों का चित्रांकन है।  'पहचान'- इस लघुकथा में वोट माँगने जाने वाले नेताओं का चित्रण है, जो चुनाव  के बाद अगर जीत जाते हैं तब उसके बाद वह कहीं दिखाई नहीं देते। ऐसे में ज़मीनी तौर पर कोई आम गरीब नागरिक उस नेता को फिर चाहे वह प्रधानमंत्री ही क्यों न हों वह अगर उनको न पहचान पाने की बात करते हुए अपनी झोपड़ी के भीतर चला जाये तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। यहाँ प्रधानमंत्री  का उल्लेख है जिनके लिये उनके सहयोगी 'ताकतवर देश के ये प्रधनमंत्री' करके सम्बोधन हैं  वहीं उस गरीब व्यक्ति के लिये  वह 'दो हड्डी' का है का सम्बोधन है। यहाँ सहयोगी उनकी चापलूसी एवं उनकी पदवी को अहमियत देता नज़र आ रहा है वहीं दो हड्डी के सम्बोधन में वह कमज़ोर और निर्जन नेता प्रतीत होता है । 'निर्मल गाँव'- इस लघुकथा में कथानायक सरपंच सरकार से मेल-जोल बढ़ाकर आदि देकर वह अपने गाँव को 'निर्मल गाँव' घोषित करवा लेता है और फंड्स भी ले लेता है।  परन्तु एक मास में उसको अपने गाँव को स्वच्छ बनाना था और वह नहीं बना पाया था। इस हेतु वह गाँव के सभी घरों में शौचालय बनाने का बीड़ा उठाता है।  लोगों को पंचायत घर में बुलाता है, बी.डी.ओ  भी वहाँ बैठे होते हैं।  ऐसे में वह एक ग्रामीण भीमन को बुलाकर पूछता है, "तुम्हारे घर में अभी तक शौचालय नहीं बना?" जिसपर वह उत्तर देता है, "कहाँ सरकार...दो वर्ष से फसल चौपट हो रही है। खाने के लाले पड़े हैं, पखाना कैसे बनेगा?" इसपर सरपंच उसको विश्वास में लेने के इरादे से कहता है, "अरे सरकार तुमको पच्चीस हज़ार का चैक देगी शौचालय बनवाने के लिये परंतु तुमको अपने हिस्से का पाँच हज़ार जमा करवाना पड़ेगा।" 

"सरकार, हम पाँच हज़ार कहाँ से लावें...?"

"सरकार पिछली स्किम में पकड़ा था, अभी तक उसका ब्याज भी चुकता नहीं हुआ।" 

इन सँवादों से सरकारी स्किम और उसको अमल पर लाने हेतु जिस तरह से ग्रामीणों को बहलाया-फुसलाया जाता है और इसकी आड़ में वह लोग जिस तरह से कर्ज़ के दलदल में फँसते और धँसते नज़र आते हैं का बहुत ही करीने से दर्शाया गया है। 

इसके बाद के सँवादों को भी देखें-

"सोचो, घर में शौचालय बन गया तो काम किसे आएगा...?"  

"मालूम नहीं।"

"अरे भीमा, क्या गंवारों वाली बात करते हो। इतना भी नहीं जानते शौचालय तुम्हारे घर में बनेगा तो तुम्हारे ही काम आएगा।"

सरपंच अपना कपट का जाल बिछाने में कहीं पीछे नहीं हटता और वह पहले से भी अधिक कसा हुआ जाल बिछाने के लिये प्रयास करता है ताकि सरकारी कागज़ों पर उसके कार्यो को सफल माना जाए और अगले चुनाव में भी वह अपनी कुर्सी को पा सके। 

परंतु इस बार कथानायक भीमा सरपंच के झाँसे में नहीं आता और उसको मुँह तोड़ जवाब देता है, "सरपंच जी, कुछ खाने को होगा तभी तो काम आएगा।" इन शब्दों को उगल कर वह कमरे से बाहर आ जाता है। 

इस आखरी सँवाद में ग्रामीण लोगों की न सिर्फ दयनीय स्थिति दिखाई पड़ती है अपितु वह सरकारी महकमें से सचेत और जागरूक होता जा रहा है का परिचय भी करवाता हुआ प्रतीत होता है। 

 ईमानदार राजनीति':- इस लघुकथा के माध्यम से लेखक ने यह कहने का प्रयास किया है कि राजनीति में आने वालों की छवि इस हद तक बिगड़ी हुई है कि अगर इस महकमें में कोई नेता  ईमानदारी से अपना कार्य करने का प्रयास करता है तब उसके अपने परिवार वालों के चेहरों पर उदासी छा जाती है। इस लघुकथा के माध्यम से लेखक जिस उद्देश्य के साथ चले हैं वह पूर्णतः उसमें सफल होते हैं।  'वोट किसे दूँ':- पत्र शैली में लिखी गयी एक सुंदर लघुकथा हुई है जिसमें  चुनावी मतदान में खड़े प्रत्यायशी के लिये एक आम नागरिक की क्या राय है और वह प्रत्याशियों के बारे में किस तरह से सोचता है और उनके प्रति उसकी उदासीनता और पीड़ा को कथानायक जिस तरह से अपने मित्र को पत्र द्वारा बताता है का सहज और सुंदर व्याख्या दिखाई देती है। 'सीमाएँ चल उठी':-  अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर लिखी इस लघुकथा में काले देश और गोरे देश को प्रतीक बनाकर यह चित्रांकित किया गया है कि कैसे विकसित देश किसी विकाशील देश को अपने को हथियारों से लेस होकर  सुरक्षित हो जाने के  अपने झाँसे में ले लेता है और  उनको हथियार दे देते हैं और उदारता से यह कहते हैं कि पैसा आराम से लौटा देना।  वह इतने चिंतित दिखाई पड़ते हैं  कि लगने लगता है कि सच में वह अपना हितैषी है परंतु जब वह बिल्कुल ऐसा ही पड़ोसी देश के लिये भी करता है तब उस देश की कुटिल राजनीति का पर्दाफाश होता है परंतु इस बीच दोनों विकासशील देशों के मध्य सीमाओं को लेकर युध्द हो जाता है। और विकसित देश पुनः जीत जाता है और वह न सिर्फ अपनी देश के लिये विदेशी मुद्रा हासिल कर अपने को पहले से और समृद्ध करता है परंतु वह खुद को और भी मजबूत कर लेता है। और विकासशील देशों की अर्थ व्यवस्था लथड़ती हुई नजर आती है। इस गम्भीर विषय पर कलम चलाकर लेखक ने अपना लेखकीय कौशल का बाखूबी परिचय दिया है। और इसका शीर्षक 'सीमाएँ चल उठी' कथानक के अनुरूप है। 'वोट बिकेंगे नहीं':- इस लघुकथा में वोट को न बेचने की बात पर जोर दिया गया है।'परछाई':- यह लघुकथा राजनीति भ्रष्टाचार पर निर्धारित है। जब सभी अपनी-अपनी ज़िम्मेदारी छोड़कर सिर्फ अपना हित सोचेंगे तो देश का क्या होगा?  साथ ही कभी किसी भ्रष्ट व्यक्ति का आमना-सामना अपनी ही परछाई से हो जाए तो उस व्यक्ति का भयभीत होना कितना स्वाभाविक होता है। इसका बहुत सुंदर चित्र इस लघुकथा में दृष्टिगोचर होता है। 'अंगूठे'- यह लघुकथा वोट की खरीद पर आधारित है कि किस तरह एक भ्रष्ट नेता अपनी ताकत को बढ़ाने के उद्देश्य से अँगूठे यानी कि अनपढ़ लोगों के मतों को खरीद लेता है , और किसी को शराब, किसी को नोट, किसीको आश्वासन देकर वह भारी मतों से चुनाव जीत जाता है। और सत्ता मिल जाने के जनून में वह इतना खो जाता है कि वह अपने खरीदे हुए अँगूठों से अधिक खून निकालने लग जाता है, और यदा-कदा कोई ऊँचे स्वर में बोलता हुआ नजर आता है तब वह उनको कटवाकर ज़मीन में दबवा देता है। परिणाम स्वरूप एक ही वर्ष में ही उसकी जमीन में अनेक नाखून वाले अँगूठे अँकुरित हो जाते है, जिसके लिये वह तैयार नही होने के कारण उनको देखकर वह डरा-डरा-सा रहने लगता है। इस लघुकथा का विषय नया नहीं है परंतु इसके प्रत्तिकात्मक प्रस्तुतिकरण के कारण यह एक बेहतरीन लघुकथा की श्रेणी में खड़ी मिलती है। 

 'मलाईमार':- एक ऐसा मौकापरस्त व्यक्ति जो अवसर देखकर बार-बार पार्टी बदल लेता है। ऐसे लोगों को अंत में हार का ही सामना करना पड़ जाता है और वह व्यक्ति ये कहता सुनाई दे जाता है, "सच तो यही है कि जनता अब समझदार हो गयी है।" यही वाक्य इस लघुकथा का अंतिम वाक्य है जो इस लघुकथा के मर्म को दर्शा रहा है और इस लघुकथा के उद्देश्य को भी परिलक्षित कर रहा है। यह एक सुंदर लघुकथा है और इसके प्रतीकात्मक शीर्षक के कारण और रोचक बन गयी है।

 'राजनीति का प्रभाव',:- राजनीति के क्षेत्र में सफलता हासिल हो जाने के उपरांत वह व्यक्ति इतना खास हो जाता है कि उसका प्रभाव डॉक्टर, व्यापारी, या कोई प्रशासनिक अधिकारी क्यों न हों सभी पर पड़ता है और अपना काम करवाने की इच्छा से सभी उसके मुँह की ओर ताकते हुए नज़र आते है।  इसी कथ्य को इस लघुकथा के माध्यम से उकेरा गया है।

'प्रजातन्त्र':- यह एक मानवेत्तर लघुकथा है । एक जंगल में प्रजातंत्र की घोषणा करी जाती है , और यहाँ के संविधान के अनुसार प्रत्येक पाँच वर्ष के बाद जंगल में प्रधान का चुनाव होने लगता है। यहाँ जंगल के हिंसक प्राणी जैसे शेर, बाघ और चीता को पात्र बनाया गया है ।अब अगर इस लघुकथा की चर्चा करें तो जंगल में प्रथम बार शेर, फिर बाघ और फिर चीते को सिंहासन सौंप दिया जाता है। राजपाट चलाने के लिये नव नियुक्त प्रधान (चीता) जब पूर्व प्रधानों से गुप्त मन्त्रणा करने जाता है तब 

शेर समझाता है -आपको पाँच वर्ष तक शासन करना है। पहले दो वर्ष हमें गालियाँ निकालते रहो। आवश्यकता पड़े तो आरामदायक जेल में भी डाल देना...जनता खुश होगी। 

बाघ कहता है- डिवाइड एण्ड रूल...जातियों में बांट दो परन्तु बात एकता की करो। उद्घाटन करते रहो परन्तु सबको उलझाए रखो और पाँचवे वर्ष में शेर समझाता है -जनता के दुःख दर्द को सुनो । झूठे आश्वासन दो, खजाना खोल दो। आप जीत गए तो फिर मज़े करो, यदि नहीं तो हम जीत जायेंगे। हम तुमको और तुम्हारे परिवार को तनिक कष्ट नहीं देंगे। पक्का वादा। 

राजनैतिक दाँव-पेंचों को समझकर चीता पूर्णतः आश्वस्त हो जाता है। 

राजनीति में अगर कोई सदस्य नया आता है तो उसको उसके वरिष्ठ कुछ इसी तरह से राजनीति दाँव-पेच सिखाते हैं और समय-समय पर उसके साथ होने का दिखावा करते हुए अपनी ही तरह छल-कपट वाली राजनीति सिखाते और करवाते हैं। यह लघुकथा इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखकर लिखी गयी है जो अच्छी बन पड़ी है। 

2.हरियाणा में साहित्य एवं रक्तदान के क्षेत्र में मधुकांत जी अपनी अलग पहचान रखते हैं। रक्तदान को लेकर आप हमेंशा कहते है कि इससे बड़ा दान दुनिया में कोई नहीं । आप समय-समय पर न सिर्फ रक्त का दान करते हैं अपितु दूसरों को भी इसके लिये प्रेरित करते है और ऐसा ही प्रयास आपने लघुकथा लेखन के माध्यम से भी किया है। रक्तदान सम्बंधित आपके दो एकल सँग्रह एड्स का भूत (सन्-2015 ई.)में धर्मदीप प्रकाशन, दिल्ली एवं दूसरा एकल सँग्रह 'रक्तमंजरी' (सन्-2019) में पारूल प्रकाशन , न. दिल्ली से प्रकाशित हुआ। 'लाल चुटकी' नामक आपका लघुकथा संकलन (सन्-2018) में  इंटकचुवल फाउन्डेशन , रोहतक से प्रकाशित हुआ। अब प्रस्तुत लघुकथा सँग्रह ' तूणीर' में प्रकाशित आपकी रक्तदान पर आधारित लघुकथाओं की चर्चा करें तो  विषय पर आपकी लघुकथाओं में 'फरिश्ता'- इस लघुकथा में रक्त के दान हेतु एक रक्तदाता एक रोगी कि जिसको वह अपना रक्त दान में देता है और उसकी जान बचाता है को प्रेरित करता दिखाई पड़ता है।  'लम्बी मुस्कान'- इस लघुकथा में एक युवा रक्तदान को लेकर उसकी माँ के भीतर के भय को निकालने में सफल हो जाता है और उनको रक्तदान के महत्त्व को भी समझा देता है जिससे उसकी माँ कह उठती है, "सचमुच बेटा, आज तूने बहुत बड़ा काम किया है। आज मैं समझ गयी मेरा बेटा बचपन को छोड़कर जवान हो गया है।" ...और माँ प्यार से अपने बेटे की पीठ थपथपाने लगती है। 'लाल कविता' :-  इस लघुकथा में पूरे सप्ताह प्रकाशनार्थ आयी कविताओं को पढ़कर वह कोने में रखता जाता है और एक-एक कर कुड़ेदानी में फैंक देता है। फिर कुछ दिन उस कवि की कोई कविता न आने पर वह बेचैन हो जाता है और कुछ दिनों में उस कवि को भूल जाता है, परंतु फिर एक दिन रक्तदान दिवस पर उसी कवि की इसी विषय पर एक सुंदर सी कविता उसके पास आती है जिसके लिफाफे के ऊपर लाल स्याही से लिखा होता है- रक्तदान दिवस पर विशेष और कविता के शीर्षक के स्थान पर गुलाब का सुंदर चित्र बना होता है। वह इस कविता को पढ़ता ही है तभी अचानक फोन की घण्टी बजती है और कविता छूट जाती है। सामने वाला उसको यह सूचना देता है, "भाई कमलकांत, अभी-अभी मनोज का एक्सीडेंट हो गया । वह मैडिकल में है। खून बहुत निकल गया। डॉक्टर ने कहा है तुरंत खून चाहिए, तुम कुछ करो...' अपने किसी परिचित या घर वाले को अगर रक्त की आवश्यकता पड़ जाती है तब इस दान का असली अर्थ का पता चलता है और आँखे खुल जाती हैं। ऐसा ही कुछ कथानायक के साथ होता है। और वह कुछ करने का आश्वासन देकर  फोन को  रख देता है। तब उसको एहसास होता है कि इस कवि का सम्बन्ध अवश्य ही कुछ रक्तदाताओं से होगा...कविता भी बहुमूल्य लगने लगती है और वह अपने भांजे को रक्त दिलवाने के लिये कविता उठाकर कवि का फोन नम्बर तलाशने लगता है।  यह एक साधारण कथ्य है परंतु यह अपने उद्देश्य को सम्प्रेषित करती है और रक्तदान महादान है का संदेश देती है। इसके अतिरिक्त इसी विषय आपकी  पुरस्कार', 'रक्तदानी बेटा', 'मच्छर का अंत', 'अपना खून', 'अपना दान', 'वैलेनटाइन डे', 'जानी अनजानी', 'रक्त दलाल', 'चिट्ठी' इत्यादि शामिल हैं जो किसी न किसी तरह से रक्तदान को बढ़ावा देती है। 

3.वस्तुतः इक्कीसवीं सदी महिला सदी है। वर्ष 2001 महिला सशक्तिकरण वर्ष के रूप में मनाया गया। 

इसमें महिलाओं की क्षमताओं और कौशल का विकास करके उन्हें अधिक सशक्त बनाने तथा समग्र समाज को महिलाओं की स्थिति और भूमिका के संबंध में जागरूक बनाने के प्रयास किये गए। महिला सशक्तिकरण हेतु वर्ष 2001 में 

प्रथम बार प्रथम बार ''राष्ट्रीय महिला उत्थान नीति''बनाई गई जिससे देश में महिलाओं के लिये विभिन्न क्षेत्रों में उत्थानऔर समुचित विकास की आधारभूत विशेषताए निर्धारित किया जाना संभव हो सके। इसमें आर्थिक सामाजिक,सांस्कृतिक सभी क्षेत्रों में पुरूषों के साथ समान आधार पर महिलाओं द्वारा समस्त मानवाधिकारों तथा मौलिक स्वतंत्रताओं का सैद्धान्तिक तथा 

वस्तुतः उपभोग पर तथा इन क्षेत्रों में 

महिलाओं की भागीदारी व निर्णय स्तर तक 

समान पहुँच पर बल दिया गया है।

आज देखने में आया है कि महिलाओं ने 

स्वयं के अनुभव के आधार पर, अपनी मेहनत और आत्मविश्वास के आधार   पर अपने लिए नई मंजिलें ,नये रास्तों का निर्माण किया है। और अपने को पहले से कहीं ज्यादा सशक्त और दृढ़ बना लिया है। कहते हैं न की साहित्य समाज का आईना होती है और साहित्यकार समाज और साहित्य को अपने कलम से सजाता है और अपने पाठकों तक अपनी बात को पहुँचाता है। इस कार्य मे मधुकांत जी भी पीछे नहीं हैं और आपने इस लघुकथा सँग्रह में कुछेक लघुकथाएँ लिखीं हैं जो .21 वीं सदी की  महिलाओं को चित्रांकित करती हैं इस श्रेणी में  'अपना अपना घर':- इस लघुकथा की मुख्य नायिका सरिता राजन नामक व्यक्ति से प्यार करती है और दोनों विवाह सूत्र में बंध जाने के इच्छुक हैं । परंतु विवाह के पूर्व सरिता राजन से कहती है कि चूँकि वह माँ की इकलौती सन्तान है और पापा भी इस दुनिया में नहीं हैं, इसलिये शादी के बाद आपको मेरे साथ मेरी माँ के घर मे रहना होगा।" इस पर राजन की असहमति हो जाती है और दोनों के बीच गम्भीर चर्चा होती है और राजन उसको अपने समाज की पुरखों से चली आ रही परंपरा जिसमें एक लडक़ी को शादी के बाद अपने ससुराल में रहने की बात करता है परंतु सरिता इस बात को नहीं मानती है और वह कहती है, "राजन, जब आप मेरे लिए अपने परिवार को नहीं छोड़ सकते तो मैं आपके लिए अपनी माँ को कैसे अकेली छोड़ दूँ? फिर समझ लो हमारी शादी नहीं हो सकती..." और गुड बॉय कहकर वह वहाँ से उठकर चली जाती है और राजन उसके कठोर निर्णय के सामने उसको रोकने की हिम्मत नहीं जुटा पाता।

यहाँ लेखक ने सरिता के चरित्र से एक शसक्त महिला का चरित्रचित्रण किया है जो प्रशंसनीय है।  

'प्रथम':- इस लघुकथा की नायिका अलका  भी सरिता की तरह शसक्त है और शादी के पहले प्रथम परिचय के समय, निर्णायक बातचीत करने से पूर्व लड़का-लड़की के मध्य एकांत में चल रही बातचीत को रेखांकित करती है। लड़का उसको पूछता है, "एक बात सच-सच बताइए, आपका किसी लड़के से लव-अफेयर है....?" अलका इस प्रश्न से चौंक जाती है और इसके प्रत्युत्तर में वह यही प्रश्न लड़के से पूछती है । लड़के का पुरुष अहम जाग जाता है और वह कहता है, "अपने होने वाले पति से ऐसा सवाल पूछने का आपका कोई अधिकार नहीं..."अलका के क्यों पूछने पर वह कहता है, "क्योंकि तुम्हें पसन्द करने मैं आया हूँ।" इसपर अलका कहती है, "देखिए जनाब, पसन्द और नापसंद पर मेरा भी बराबर अधिकार है। आप मेरे सवाल का जवाब नहीं देना चाहते तो मैं भी आपसे कोई सम्बंध नहीं जोड़ सकती।" और अलका वहाँ से उठ जाती है। इन दोनों लघुकथाओं में सँवाद सहज और स्वाभाविक तरह से कथानक को आगे बढ़ाते है  और उसकी रोचकता को बरकरार रखते हुए निर्णायक यानी कि चरम तक पहुँचाते हैं। 'नई सदी' एवं 'अनसुना', लघुकथाओं में बेबाक, उद्दण्ड और दबंग लड़कियों को केंद्रित करके लिखी गयी लघुकथाएँ हैं जिसमें वे लोग लड़को को इस कदर छेड़ती हैं जिसके चलते वह उनसे आतंकित हो जाते हैं और लड़का वहाँ से अपना सर झुकाए चला जाता है परंतु वे उपहास करते हुए नहीं रुकती ।

'सगाई':- इस लघुकथा मे लड़के को देखने लड़की और उसके घरवाले आते हैं और वे लड़के से वो सब पूछते हैं जो आमतौर पर लड़के वाले सगाई से पहले  लड़की से पूछते हैं। लड़की नौकरी पेशा है और उसकी पहले भी शादी हो चुकी होती है और वह अपने पति को इसलिये छोड़ देती आ

है और डाइवोर्स ले लेती है क्योंकि उसको लगता है कि वह दकियानूसी है । वह महिला अपने पिता से कहती है कि वह इस पुरुष को एक हफ्ते के ट्रायल पर रखेगी और उसके बाद ही शादी करने का निर्णय लेगी ।  इसके कथानक के सच में होने की सम्भवना समाज मे कितनी है यह एक शोध का विषय है ।  'अर्थबल':- इस लघुकथा में पति-पत्नी दोनों ही नौकरी पेशा हैं परंतु पत्नी अपने कैरियर और नौकरी को लेकर इतनी सजग है कि वह अपने पति से कह देती है कि बच्चे के लिये वह अपनी नौकरी नहीं छोड़ सकेगी परंतु पति को अगर उनके बच्चे की चिंता हो तो वह नौकरी छोड़कर घर में रहकर अपने बेटे की देखभाल कर सकता है। अर्थबल शीर्षक कथानक के अनुरूप सटीक है। 

'आरक्षण'-, महिलाओं के आरक्षण के चलते देश के अधिकांश मुख्य पदों पर महिलाओं की नियुक्ति होने पर पुरुष वर्ग की चिंता और उनके बीच बढ़ रही बेरोजगारी पर केंद्रित यह लघुकथा अच्छी बन पड़ी है जो किसी भी आरक्षण के दुष्परिणाम को रेखांकित कर रही है । आरक्षण जैसे गम्भीर विषय पर समाज को और भी सजग और चिंतन मनन करने की आवश्यकता है ।  इसी उद्देश्य को परिलक्षित कर रही है यह लघुकथा।  'आभूषणों में क़ैद'- वर्तमान में नारी अपने को आभूषणों में लदी हुई नहीं देखना चाहती अपितु वह शक्तिशाली बनकर अपने पाँवों पर खड़ा होना चाहती हैं। यही बात इस लघुकथा में कही गयी है।  

प्रस्तुत सँग्रह में प्रकाशित में लेखक ने .मोनोविज्ञान पर आधारित लघुकथाओं की चर्चा करते हुए सर्वप्रथम इस श्रेणी की 'मन का आतंक'  लघुकथा का अवलोकन करते हैं। यह एक प्रयोगात्मक लघुकथा है जो एकालाप शैली में  लिखी गई। इस लघुकथा में एक ही पात्र है जो बोल रहा है और एक पात्र अपरोक्ष रूप से अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहा है। इस लघुकथा का इकलौता पात्र एक पत्नी है जो अपनी मन की पीड़ा और डर के परतों को खोल रही है। इसमें एक पत्नी के मनोविज्ञान को बहुत ही करीने से दर्शाया गया है। इस लघुकथा को देखें- अचानक उसकी नज़र द्वार पर चली गयी। 

"आप इस समय?क्या ऑफिस जल्दी छूट गया? आप कुछ बोलते क्यों नहीं? नाराज़ हो क्या...?"

....वह कॉलेज में मेरे साथ पढ़ता था....नहीं नहीं, ऐसा कुछ नहीं हुआ....सच तुम्हारी कसम....अचानक सड़क पर मिल गया....औपचारिकतावश चाय के लिए टोक दिया था....हाँ.... हाँ.... कॉलेज की कुछ बातें हुईं थीं.... बस और कुछ नहीं, बिल्कुल भी नहीं....फिर कभी मिला तो कन्नी काट जाऊँगी, ....बोलो अब तो खुश हो न आप...."

पत्नी का कॉलेज के समय का कोई दोस्त जिसको वह इतने वर्षों बाद मिली परंतु यह बात अब तक उसने अपने पति से छिपाई थी जो आज उसने कहा दिया। परंतु उसने देखा कि तेज हवा से द्वार का पर्दा हिल रहा था।

'अरे यहाँ तो कोई नहीं आया...फिर मैं किससे बातें कर रही थी?' उसने अपने माथे को छुआ तो चौंक गयी, सचमुच माथा पसीने से गीला था। 

एक पत्नी की आत्मग्लानि जो माथे से पसीना बन बह रही थी । यह इस सँग्रह की उत्कृष्ट लघुकथा है। इसके इसी प्रस्तुतिकरण के कारण यह पाठकों के हृदय को छू लेगी ऐसा मेरा पूर्ण विश्वास है।

 'तपन':- 'एक व्यक्ति जो नियमित समाचार सुनता तो है परंतु वह सिर्फ सुनता ही है और दूसरे रूप में देखें तो जब कुदरत अपना कहर बरसाती है तब वह प्रलय जैसी स्थिति उत्पन्न कर देती है और इंसान सुनते हुए भी समझते हुए भी कुछ नही कर पाता। ऐसा ही कुछ इस लघुकथा के नायक के साथ होता है जो प्रथम दिन समाचार में सुनता है कि पड़ोसी देश मे भयंकर तूफान आया और सैंकड़ों लोग मारे गए तथा हज़ारों बेघर हो गए। 

जब दूसरे देश की बात थी तब उसने इस समाचार को आसपास बाँटने का कार्य किया एक तमाशबीन की तरह। दूसरे दिन उसने सुना कि तूफान उसके देश की सीमाओं में प्रवेश कर लिया है, तीसरे दिन  तूफान  उसके राज्य में मंडराने लगा, तब वह चिंता में डूब गया  उसी रात तूफान का शोर उसे गाँव की सीमा पर सुनाई पड़ने लगा और वह आपने छप्पर को मजबूत करने लगा पर बहुत देर हो चुकी थी, सुबह-सुबह तूफान बहुत तेज हुआ और उसके घर के छप्पर को उखाड़ कर ले गया। प्रतीकात्मक शैली में लिखी इस लघुकथा में छिपा संदेश कि हर व्यक्ति को दूर की सोच कर ही अपने जीवन में कार्य करना चाहिये क्योंकि मुसीबत कभी कहकर नहीं आती। यह एक अच्छी लघुकथा है और इसका शीर्षक तपन में प्रतिकात्मक है जो कथानक के अनुरूप है कि और अपने में जीवन की तपन को दर्शा रहा है।

'महात्मा का सच' :- धर्म का  प्रचार एवं मनुष्य को नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले बाबाओं का अपना योगदान है । यह भी अपने आप में एक व्यवसाय-सा बन गया है और इन लोगों के आडम्बर के चर्चे आम बात है। ऐसे में अगर कोई महात्मा इस लघुकथा के नायक की तरह  यह शपत ले ले कि आज जो कहूँगा सच कहूँगा और सच के अलावा कुछ नहीं कहूँगा तब उनके अनुयायीओं की प्रतिक्रिया शायद ऐसी ही हो जैसा कि लेखक ने इस लघुकथा में वर्णन की है। कथानायक पहले तो अपने भक्तों के सामने बाबा क्यों बना इसके पीछे यह कारण बताते हैं कि प्यार में धोखा मिला और बाद में यह भी बताते हैं कि नेताओं के काले धन को सफेद करवाने का माध्यम हैं।  उनके भक्तों को पहले तो आश्चर्य हुआ परंतु फिर उनकी समझ में आ गया कि उनके  स्वामी सत्यवादी, विनम्र एवं निर्दोष हैं। इसके बाद इनके यहाँ भीड़ बढ़ने लगी। कुल मिलाकर यह बहुत ही साधारण सी लघुकथा है । 

'उबाल' :- घरेलू हिंसा पर आधारित इस लघुकथा में नायिका पत्नी अपने पति की कमीज पर क्रोध निकालकर उसको ज़ोर से पीटना शुरू कर देती है जिस कारण वो वहाँ से फट जाती है पर उसको तनिक भी पश्चाताप नही होता। पुरुष-प्रधान समाज में पत्नी के हालातों को दर्शाती एक साधारण-सी लघुकथा है। दूर के ढोल'- इस लघुकथा के माध्यम से लेखक ने यह समझाने का प्रयास किया है कि आजकल  भक्त प्रह्लाद जैसा पुत्र कोई नहीं बनता । 

'अवस्था के बिम्ब':- यह भी एक प्रयोगात्मक लघुकथा है जिसमें तीन दृश्य दिखाए गए हैं।   लगभग 18 वर्ष का जोड़ा, पार्क के कोने वाले बैंच पर एक दूसरे को आँखों में आँखें डाले, एक दूसरे से सटकर मौन बैठा था। 

उसी पार्क में लगभग 35 वर्ष का युगल पार्क की छतरी के नीचे, साथ-साथ बैठा, बतिया रहा था। 

पार्क की दीवार की ओट में 75 वर्ष का, एक दूसरे पर आश्रित जोड़ा आमने सामने बैठा धूप सेक रहा था। 

इस लघुकथा के अंतिम वाक्य में इसका सार है पार्क के बीच में खड़ा आश्चर्यचकित बालक तीनों जोड़ों को देखकर घबरा रहा है। 

बच्चे को समझ नहीं आता कि आगे जाकर उसको क्या और कैसे रहना है क्योंकि सब अपने-अपने हिसाब से रहते हैं बिना यह सोचे कि बच्चों के भविष्य का क्या होगा? 

 'विस्तार':- इस लघुकथा में बेटा-बहू के कहने पर अपनी माँ को अनाथाश्रम छोड़ आता है परंतु जब घर के काम-काज करने में वह थकने लगती है तो वह अपने पति को पुनः उनको घर लिवाने के लिए भेज देती है । वह माफ़ी माँगते हुए जब उनको घर आने को कहता है तब एक स्वाभिमानी माँ यह कहती है, "माफी किस बात की? तुमने तो यहाँ भेजकर मुझपर उपकार ही किया है। वहाँ तो मैं केवल तुम्हारी माँ थी, परन्तु यहाँ तो तीस बच्चों की माँ हूँ। आश्रम के स्वामी जी तथा सभी सेवक मुझे भरपूर सम्मान देते हैं। अब तो यह आश्रम ही मुझको अपना घर लगने लगा है।" 

इसका अंतिम वाक्य बेहद सुंदर बन पड़ा है- सारे पासे असफल होते देख बेटा उदास हो गया। परंतु कमरे की खिड़कियों से झाँकती नन्हीं-नन्हीं आँखों में चमक भर गयी। माँ को बच्चों का प्यार और तीस बच्चों को माँ का प्यार मिल जाता है। इस लघुकथा का अंत जिस तरह हुआ है उस कारण यह लघुकथा सुंदर बन पड़ी है। 

'डरे-डरे संरक्षक':- इस लघुकथा के माध्यम से लेखक ने वर्तमान में बच्चों की बदलती मानसिकता को लेकर चिंता व्यक्त की है। कानून ने बच्चों को स्कूल में मारने-पीटने पर रोक लगाई है और अगर वह उनके अभिभावकों को उनकी शिकायत करते हैं तब वे यह कहते हुए मिलते हैं कि अगर उन्होंने उसको डाँटा या मारा और इकलौता बेटा घर से भाग जाएगा...। ये कैसा डर है जो लगभग हर संरक्षक के हृदय में घर कर गया है । यह एक गम्भीर विषय है जिसपर समाज को भी गम्भीरता से सोचना समझना होगा और बच्चों के मानसिकता को समझते हुए उनको सही दिशा दिखाना होगी। 

'पहली लड़ाई' :- एक डरपोक व्यक्ति जब पहली बार पतंग उड़ाता है तब उसकी पतंग कट जाती है परंतु उसको यह सन्तोष हो जाता है कि उसने अपनी पहली लड़ाई इस पतंग के माध्यम से लड़ी और वह दूसरी पतंग को उड़ाने के लिये चला जाता है।  इस लघुकथा के माध्यम से लेखक ने यह समझाने का प्रयास किया है कि व्यक्ति का डर और उस डर से लड़ने की क्षमता दोनों ही उसके भीतर होती है। बस उसको उन चीजों को समझना होता है और अपने डर पर प्रयास करके विजय हासिल करना होता है। 'पत्रों का संघर्ष':- इस लघुकथा में पत्रों के माध्यम से लेखक ने पत्रिका के प्रकाशक को जहाँ उसको प्रकाश में लाने हेतु पैसों की आवश्यकता पड़ती है और इसके लिये वह अपने मित्र को लिखने में भी नहीं हिचकता कि क्योंकि उसके पास राशि नहीं है सो हो सकता है वह इस पत्रिका को न ला सके ऐसे में अगर वह मित्र उसको अपनी परेशानी बताते हुए कुछ राशि को उसके बैंक के खाते में डाल दी है कि सूचना देता है तब प्रकाशक का आश्चर्यचकित होना और उसको उसके पत्रों की इबारत अक्षरतः दिखाई देने लगती है जो बहुत ही स्वाभाविक है। ऐसा ही दृश्य इस लघुकथा में चित्रांकित किया गया है। इसके अतिरिक्त  'डी. एन. ए.:- सँवाद शैली में लिखी गयी इस लघुकथा में एक मंत्री के किसी महिला से अनैतिक सम्बन्ध और फलस्वरूप जब वह महिला वर्षों बाद उसको सम्पर्क करती है और यह बताती है कि उसका बेटा जवान हो गया है और पिता का नाम चाहता है। ऐसे में मंत्री जब उसको हड़का देता है तब वह महिला कहती है कि वह बच्चे का का डी. एन.ए टेस्ट करवा सकती है। तब वह मंत्री डर जाता है और उसके घर पहुँचने की बात करता है। उस मंत्री को एहसास हो जाता है कि जवानी में की गई गलती को दबाना कितना कठिन होता है। यहाँ इसी भाव को लिखकर लेखक ने इस लघुकथा का अंत किया है। 


5. भ्रष्टाचार पर आधारित लघुकथाएँ की बात करें प्रस्तुत सँग्रह में 'संस्कार' 'इज्जत के लिए', 'खोज', 'अंधा बांटे रेवड़ी', इत्यादि  रचनाएँ शामिल हैं। संस्कार लघुकथा  नौकरी में आरक्षण पर आधारित है जिसमें सुयोग व्यक्ति को कई बार उसके योग्य नौकरी नहीं मिल पाती और वह अपने से कम योग्य व्यक्ति के अंडर काम करने पर मजबूर हो जाता है। इज्जत के लिये :- चिकित्सा विभाग में डॉक्टर द्वारा भ्रष्टाचार किए जाने पर प्रकाश डाला गया है। मरीज और उसके घर वाले किस हद तक मजबूर हो जाते हैं कि गरीब व्यक्ति को अपने परिजन जो मृत्युशैया पर लेटा है जिसका बचना असंभव है उसको वह डॉक्टर को दिखाने के लिये कर्ज भी लेता है समाज के डर से कि कहीं समाज यह न कहे कि जानबूझकर उसने अपने माता या पिता का इलाज नहीं करवाया और ऐसे में अगर कोई झोलाछाप डॉक्टर जो मरीज को  इंजेक्शन लगाता है परंतु वह देखता है कि सिरिंज में खून निकलकर भर रहा है। पर लोक-लाज के मारे वह उससे कहता तो कुछ नही पर उसको समझने में यह देर नहीं लगती कि यह डॉक्टर अनाड़ी है। ऐसे डॉक्टर कई जगह नज़र आ जाते हैं जो मरीजों के जीवन से खेल जाते हैं। यह एक गम्भीर समस्या है जिसका निदान होना अति आवश्यक है।

खोज:- पुलिस भ्रष्टाचार पर आधारित इस लघुकथा में आधी रात को डाकू किसी गाँव में लूटपाट कर दो हत्या कर देते हैं और गाँव से तीन-चार किलोमीटर दूर चले जाते हैं। तब बस्ती में भारी जूतों की आवाज़ ठपठपाने लगती है। वे लोग सवाल पूछ-पूछकर चले जाते हैं और दूसरे दिन शाम को डी. एस. पी. ग्रामीण लोगों को एकत्रित करके बताते हैं, "आपको यह जानकर खुशी होगी कि डाकुओं की बंदूक से निकले दो कारतूस हमने बरामद कर लिए हैं...अब जल्दी ही डाकुओं की पहचान कर ली जाएगी...

इसका अंतिम वाक्य आमजन के बीच पुलिस प्रशासन के प्रति निराशा दर्शा रही है कि किस कदर इन लोगों ने अपनी छवि बिगाड़ कर रखी है- एक सप्ताह बीत गया, धीरे-धीरे लोगों की आँखें धुँधलाने लगीं। 'अँधा बांटे रेवड़ी'- किसी भी तरह के पुरस्कार बांटने में भी किस तरह से राजनीति होती है और आयोजकों का प्रयास रहता है कि ऐसे में जब लिस्ट बनती है तो नेता यह चाहता है कि अपनी जाति और क्षेत्र का कोई व्यक्ति हो तो उसको लिस्ट में सर्वप्रथम होना चाहिए।


6.अन्यान्य विषयों पर आधारित लघुकथाएँ:- 'नाम की महिमा' जो कि सम्पदान व्यवसाय पर आधारित है जिसमें यह दर्शाया गया है कि इस व्यवसाय में एक नामी रचनाकार की रचना को स्थान मिल जाता है फिर चाहे उस रचना में कोई दम न हो परंतु जब यह पता चल जाता है कि वह रचना किसी साधारण लेखक ने लिखी है तब उस रचना को कचरे की टोकरी में फैंक दिया जाता है।, 

 'आजादी' :- इस लघुकथा में लेखक ने यह सन्देश देने का सद्प्रयास किया है कि अमीर होना सुख को पाना नहीं और न ही उसकी खर्च करने की क्षमताओं को देखकर उसकी आजादी का अनुमान लगाया जा सकता है क्योंकि वह अपने नौकरों के आधीन हो जाता है वहीं एक गरीब व्यक्ति जो खुले आसमान के नीचे सोता है परंतु वह जहाँ चाहे जब चाहे आना-जाना कर सकता है और वह स्वतंत्रता से अपने निर्णय ले सकता है। यही सच्ची आज़ादी होती है।  यह लघुकथा थोड़ी उपदेशात्मक हो गयी है। , 'प्रशिक्षण':- वर्तमान शिक्षा नीति और उसके बाद उत्पन्न होती बेरोजगारी की समस्या को लेकर व्यंग्य है कि इससे बेहतर है कि राजनीति के मैदान में उतार देना आसान होता है । 'सभ्रान्त नागरिक' :- सड़क दुर्घटना पर आधारित इस लघुकथा में देश के एक जागरूक नागरिक का चित्रण है जो दुर्घटना के होते ही पुलिस स्टेशन में इसकी सूचना देता है और अस्पताल भी ले जाता है। पुलिस जहाँ रिपोर्ट लिखवाने की खाना-पूर्ति करती दिखाई पड़ती है और उस भले इंसान को बे वजह परेशान करती है। ऐसे में अस्पताल से अगर डॉक्टर यह कह देता है कि क्योंकि पेशंट को समय पर अस्पताल में भर्ती करवाया गया उसकी जान बच गयी है। तब एक सम्भ्रान्त नागरिक की परेशानियों का मीठा फल मिल जाता है और उसकी चिंता मिट जाती है। इस लघुकथा में किसी अस्पताल में बिना पुलिस की जानकारी या रिपोर्ट किये उसका इलाज शुरू कर देने वाली घटना पर विश्वास कर पाना मेरे लिये थोड़ा मुश्किल हो रहा है। 

, 'बातूनी' :- यह लघुकथा विद्यार्थी जीवन पर आधारित है जिसमें एक बच्चा अपने दोस्तों के मध्य गपशप करके अपना समय बर्बाद करता है और उसकी माँ उसको पढ़ाई करने को कहती है। 'सुनो कहानी', बदलाव' (फंतासी):- ये दोनों लघुकथाएँ फंतासी शैली में लिखी गयी हैं।  सुनो कहानी में एक सुंदर सी लड़की जिसका विवाह एक राजा के साथ होता है परंतु वह उसके महल में अपने सुख-दुःख को किसी से बांट नही पाती क्योंकि ऐसा ही आदेश राजा ने दिया था। और आखिर में वह मर जाती है। इस लघुकथा में मनुष्य सामाजिक प्राणी है जिसको अपने सुख-दुःख बांटने के लिए किसी व्यक्ति की आवश्यकता पड़ती है । फिर वह चाहे बड़े से महल में ही क्यों न रहता हो पर जब उसके भीतर अकेलापन घर कर लेता है और ऐसे में उसके पास किसी को न पाकर वह दम तोड़ देता है जो बहुत ही स्वाभाविक है।

 'अपनी-अपनी ज़मीन' :-भूख पर आधारित इस लघुकथा में लेखक का यह उद्देश्य परिलक्षित हुआ है  कि भूख हर व्यक्ति को लगती है और यह जात-पात नहीं देखती ।अपने अपने रिश्ते' :अंतर जातीय विवाह पर आधारित है । 

, 'सहारा':- इस लघुकथा में कामकाजी बहू के पक्ष में खड़ी एक सास दिखाई देती है जो अभी-अभी काम से घर लौटी है और उसका पति चाय की फरमाइश कर देता है। ऐसे में सास अपने बेटे को टोक देती है और स्वयं चाय बनाने हेतु खड़ी हो जाती है। बेटी जब उसको टोकती है तब वह कह देती है कि बहू से जब नौकरी करवाना है तो घर में उसका हाथ बंटवाने की ज़िम्मेदारी घर के हर सदस्य की बन जाती है। परिवार में प्रेम-भाव बढ़ाने के उद्देश्य से लिखी गई यह एक सुंदर लघुकथा है।  'मेरा वृक्ष' :- यह लघुकथा पर्यावरण संरक्षण के महत्त्व को बढ़ाती लघुकथा है। जिसमें  एक भाई के पब्लिक पार्क के चित्र को बनाता है। जिसको रंगों से सजाता है और एक कोने में वट वृक्ष को खड़ा कर देता है। उसका छोटा भाई जलन के मारे अपनी कलम निकाल लेता है और वृक्ष पर काटा लगा देता है। दोनों भाइयों में बहस हो जाती है, और शिकायत माँ तक पहुँच जाती है। वह कुछ कह पाए उसके पहले ही बड़ा भाई कहता है, "अम्मा, इस पागल को इतना भी ज्ञान नहीं कि पेड़ो की शीतल छाया और ऑक्सिजन हमको मिलती है, सरकार को नहीं, इसलिए ये वृक्ष हमारे हैं..."

और छोटे भाई को अपनी गलती का एहसास हो जाता  है और अपनी गलती मान लेता है और बड़े भाई का क्रोध शांत हो जाता है। बाल-सुलभ आधारित यह एक सुंदर लघुकथा हुई है।

, 'फिर एक बार':-  शरणार्थी का दर्द को उकेरती यह एक अच्छी लघुकथा है। एक व्यक्ति जो पाकिस्तान से अपना देश समझकर अपने देश आ जाता है, उसको एक बार तब लूटा गया जब दस वर्षों तक उसको लोग पाकिस्तानी ....शरणार्थी कहते रहे, अगले बीस वर्ष पंजाबी कहकर दंश देते रहे , अब लोगों को इनके शरीर से हरियाणवी मिट्टी की गंध आने लगती है... फिर एक बार सारी गंध सूख जाती है... वह जूतों को बेचने वाला एक व्यापारी होता है जिसकी दूकान को लूट लिया जाता है। वह चिंतित हो जाता है कि वह कैसे चुकाएगा थोक व्यपारी की उधार और कहाँ से भरेगा बैंक की किश्त! यह एक मार्मिक लघुकथा है जो सहज ही हृदय को छू जाती है।, 'सपना' :- इस लघुकथा में  एक पत्रकार को राम राज्य का  सपना आता है और वह एक लेख लिखता है परंतु लोग उसका कहीं उपहास न उड़ाएँ इस डर से वह  अपने लेख को एक फ़ाइल में रख देता है और धीरे-धीरे वह उसमें दबता चला जाता है और पत्रकार लेख को प्रकाशित करवाने हेतु उपयुक्त समय की प्रतीक्षा करता है। साहित्य की स्थिति को दिखाती यह एक गम्भीर रचना है ।

  'अतिथि देवो भव' मातृ दक्षिणा :- इस लघुकथा में विदेशियों की मदद करता हुआ एक किसान दिखाई देता है जो उनकी गाड़ी के पंक्चर हुए पहिये को निकालकर डिग्गी से दूसरा पहिया निकालकर लगा देता है और उनके द्वारा बख्शीश की राशि को न लेकर भारतीय संस्कृति का परिचय देता है। 'ऊँचा तिरंगा':- यह बाल मनोविज्ञान पर आधारित एक सुंदर लघुकथा है।  स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर एक मोहल्ले के  बच्चों में बहस छिड़ जाती है कि कल देखते हैं सबसे ऊँचा झण्डा कौन फहराएगा। सब बच्चें अपनी अपनी बात रखते हैं ऐसे में एक बच्चा जिसका घर बहुत नीचा होता है और जो पाइप भी नहीं ला सकता वह चिंतित हो जाता है और रात एक बजे उसको एक ख्याल सूझता है और वह चुपचाप अपने मकान की छत पर आ जाता है।  मुंटी में से अपनी चरखड़ी और तिरंगे वाली पतंग निकाल लेता है और आकाश में पतंग उड़ाने लगता है। स्वतंत्रता दिवस की शीतल हवा उसके मन को मस्त और पुलकित कर देती है। पतंग को आकाश में चढ़ाकर वह आसपास के सभी मकानों की और देखता है औए कह उठता है, "हाँ मेरी पतंग सबसे ऊँची है।"  यह सोचकर वह सुबह होने की प्रतीक्षा करने लगता है।  जहाँ चाह वहाँ राह के मुहावरे को परिभाषित करती यह अपने सोए आत्मविश्वास को जगाने वाली एक सार्थक  लघुकथा है।

 , 'कन्या पूजन' :- एक दाई जो कन्याओं को गर्भ में मरवाती देती थी को कान्याओं की महत्ता तब समझ में आती है जब दुर्गाष्टमी के पूजन करने के बाद सात कान्याओं को एकत्रित करने के लिये मोहल्ले में निकलती है परंतु उसको सिर्फ पाँच ही कन्याएँ मिल पाती हैं।  दो थाली बच जाने से वह उन दोनों थालियों को लेकर मन्दिर चली जाती है। जब वहाँ दूसरी महिलाओं के साथ चर्चा चलती है तब वह कहती है कि वह दाई इसलिये बनी थी क्योंकि यह उसकी सास की इच्छा थी पर जब पूजन की बात आई तो यह उसके संस्कारो की बात थी जिसमें वह हार गई सो शपत खाती है कि आगे से वह कान्याओं की हत्या किसी के भी गर्भ में न करेगी न करवाएगी। यहाँ पूजन के बाद लड़कियों का न मिल पाने की स्थिति एकदम से आ जाये यह बात थोड़ी खटक रही है। 

 'बोहनी' :- गरीब व्यक्ति के लिये अपने सामान की बिक्री से हो रही बोहनी कितनी महत्त्वपूर्ण होती है यह बात अनुभवी आँखों की आवश्यकता होती है जैसा इस लघुकथा के नायक ज्ञानरंज को होता है जब वह एक मैली- कुचैली लड़की रंग-बिरंगी बॉल बेच रही थी और उसकी बोहनी करवाने की मिन्नते कर रही थी। वह जब बॉल को देखता है तब चाइना मेड होने के कारण एक बार तो खरीदने के लिये इनकार कर देता है पर जब वह उस बच्ची के मुरझाए चेहरे की पीड़ा को देखता है तो एक गेंद खरीदकर उसकी बोहनी करवा देता है।  बच्ची के चेहरे पर मुस्कान आ जाती है। यह व्यक्ति के कोमल भावना को दर्शाती हुई प्यारी सी लघुकथा है। भविष्य की चिंता' :- साहनुभूति पाकर अपने लिए खाना माँगने के लिये ज़ोर-ज़ोर से रोने वाले भिखारी को एक दिन अचानक से भविष्य की चिंता सताने लगती है कि अगर किसी दिन किसी को पता चल गया और खाना देना बंद कर दिया तो...और वह बावला भिखारी और तेज रोने लग जाता है।  विद्यासागर अभी ज़िंदा है- इस लघुकथा के माध्यम से लेखक ने यह कहने का सद्प्रयास किया है कि व्यक्ति तो मर जाता है परंतु उसके द्वारा किया गया काम उसकी मृत्यु के बाद भी याद किया जाता है और उस व्यक्ति को अपने कार्यों के लिये जाना-पहचाना और जीवंत रखता है। 

इन लघुकथाओं के विषयों में नयापन नहीं है परंतु भाषा सहज और स्वाभाविक है। आपके इस संग्रह के शीर्षक 'तूणीर' की बात करें तो इसका सामान्य अर्थ तरकश यानी कि तीर रखने वाला पात्र जो सामान्यतः काँधे पर लटकाया जाता है। आपकी लघुकथाओं को पढ़कर यह कहना गलत न होगा कि आपकी लेखनी से निकली कुछ  बेहतरीन लघुकथाएँ तीर की तरह पाठकों के ह्रदय को  चीरकर उसमें वास करेंगी । मुख्य पृष्ठ आकर्षक लगा। 

कुल मिलाकर मैं यह कहने में अपने को बहुत ही सहज पा रही हूँ कि प्रस्तुत सँग्रह पठनीय है और पाठकों को इसकी लघुकथाएँ पसन्द आएँगी।  मधुकांत जी के 'तूणीर' नामक इस एकल लघुकथा सँग्रह को पढ़ते हुए जितना मैं समझ पायी हूँ उस अनुसार अपने विचारों को रखने का विनम्र प्रयास किया है । अब इसमें मैं कितना सफ़ल हो पाई हूँ इसका निर्णय मैं आप सभी सुधिपाठकों पर छोड़ती हूँ।


- कल्पना भट्ट