पावन तट पर: आस्था, मानवता और विवेक का उजला संग
संपादक सुरेश सौरभ हिंदी साहित्य जगत में एक प्रतिष्ठित और बहुआयामी रचनाकार के रूप में जाने जाते हैं। उनकी भाषा में गहन संवेदना है, तो विचारों में सामाजिक यथार्थ का तीक्ष्ण दृष्टिकोण। वे उन साहित्यकारों में से हैं जिनके लेखन में न केवल कलात्मकता बल्कि मानवता की सच्ची पुकार सुनाई देती है। एक शिक्षक के रूप में वे नई पीढ़ी को साहित्यिक चेतना से जोड़ने का कार्य कर रहे हैं, तो एक कथाकार के रूप में वे समाज की विडंबनाओं को शब्दों के माध्यम से उजागर कर रहे हैं। "पावन तट पर" का संपादन उनके इसी संवेदनशील और सजग साहित्यकार रूप का प्रमाण है। इस साझा लघुकथा-संग्रह में उन्होंने विभिन्न दृष्टिकोणों से कुंभ जैसे विशाल सांस्कृतिक आयोजन को देखने की एक ईमानदार और बहुआयामी कोशिश की है।यह संग्रह केवल कुंभ मेले का साहित्यिक दस्तावेज नहीं, बल्कि यह भारतीय जनमानस की आस्था, विश्वास, विरोधाभास और विवेक का प्रत्यक्ष चित्रण है। कुंभ, जो सदियों से हमारी आध्यात्मिक चेतना का प्रतीक रहा है, जहाँ लाखों-करोड़ों लोग पुण्य स्नान के लिए एकत्र होते हैं, वहाँ मानवता की असंख्य कहानियाँ भी जन्म लेती हैं- कुछ श्रद्धा से भरी, कुछ पीड़ा से सराबोर, कुछ प्रश्नों से दग्ध। “पावन तट पर” इन सबको अपने भीतर समेटे हुए है।
संपादक सुरेश सौरभ ने इस संग्रह के माध्यम से केवल धार्मिक आस्था का उत्सव प्रस्तुत नहीं किया, बल्कि उन्होंने उन सामाजिक सच्चाइयों को भी स्वर दिया है जिन्हें अक्सर धार्मिक आवरण के नीचे दबा दिया जाता है। वे इस बात को भली-भांति समझते हैं कि आस्था और अंधविश्वास के बीच एक बेहद महीन रेखा है, और इसी रेखा पर यह संकलन चलता है, कभी श्रद्धा की उजली रोशनी में, तो कभी पाखंड की काली छाया में।
इस संग्रह की विशेषता यह है कि इसमें सम्मिलित प्रत्येक लघुकथा अपने आप में एक अलग दृष्टि, एक अलग संवेदना और एक अलग समाज-सत्य को उद्घाटित करती है। डॉ. रशीद गौरी की ‘निपटारा’ में हम देखते हैं कि कैसे आधुनिक समाज में कुछ लोग आपदा में भी अवसर तलाश लेते हैं। कुंभ जैसे पवित्र अवसर को भी स्वार्थ और छल का माध्यम बना देना, यह रचना हमें भीतर तक झकझोर देती है। वहीं सूर्यदीप कुशवाहा की ‘पुण्य फल’ में मानवीय करुणा का उज्ज्वल उदाहरण मिलता है। रचना यह संदेश देती है कि सच्चा पुण्य किसी तीर्थ या स्नान में नहीं, बल्कि मनुष्य की सहायता में निहित है।
डॉ. पूरन सिंह की ‘ये माँ ही हो सकती है’ पाठक को भावनाओं के ऐसे संसार में ले जाती है, जहाँ मातृत्व की ममता धर्म, दूरी, और वृद्धावस्था के हर बंधन को तोड़ देती है। वृद्धाश्रम की दीवारों के भीतर भी आस्था का दीप जलता है, जो इस लघुकथा को अनमोल बनाता है। डॉ. अंजू दुआ जैमिनी की ‘मोक्ष बनाम मुक्ति’ आधुनिकता और परंपरा के टकराव पर एक साहसिक प्रश्न उठाती है कि क्या केवल स्नान से मुक्ति संभव है, जब जल ही रोग का कारण बन जाए? यह लघुकथा धार्मिक अनुष्ठानों के प्रति प्रश्नाकुल दृष्टि प्रस्तुत करती है। वहीं मनोरमा पंत की ‘मुक्ति की खुशी’ में कुंभ की भीड़ में उमड़ती श्रद्धा की सहजता और नादान हृदय की मासूमता का चित्रण है, जो दिखाता है कि आस्था आज भी भारतीय मन में गहराई से रची-बसी है।
रमाकांत चौधरी की ‘पूर्व जन्म के पाप’ एक मार्मिक लघुकथा है उन ठगों पर जो श्रद्धा का शोषण कर धर्म की गरिमा को कलंकित करते हैं। यह रचना धर्म के बाजारीकरण पर करारा प्रहार करती है। इसी क्रम में गुलज़ार हुसैन, सेवा सदन प्रसाद, चित्रगुप्त, अरविंद असर आदि लघुकथाकारों ने भी समाज में फैली कुरीतियों और विसंगतियों को गहरी संवेदनशीलता और विचारशीलता से उजागर किया है। इन सभी रचनाओं के बीच “पावन तट पर” एक ध्रुव तारे की भांति चमकता है, जो आस्था और विवेक, परंपरा और आधुनिकता, भावना और तर्क, सभी के बीच संतुलन साधता है। इस संग्रह की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह किसी धर्म या विचारधारा का पक्ष नहीं लेता, बल्कि मानवता के पक्ष में खड़ा होता है। यही इसे कालजयी बनाता है।
सुरेश सौरभ की भूमिका में व्यक्त विचार संग्रह की आत्मा हैं। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि साहित्यकार का कार्य किसी विशेष पंथ, जाति या विचारधारा का प्रचार करना नहीं, बल्कि सत्य और मानवता की खोज करना है। उन्होंने यह भी स्वीकार किया है कि दरबारी लेखकों और एजेंडा-चालित रचनाकारों के बीच सच्चे साहित्यकार का दायित्व और भी बढ़ जाता है। सौरभ जी इस बात पर बल देते हैं कि साहित्य वही शाश्वत होता है जो निष्पक्ष, मानवीय और जन-सरोकारों से जुड़ा हो। उनका यह कथन अत्यंत सार्थक है कि “आस्था और अंधविश्वास में एक महीन रेखा है, जिसे समझना और परखना आवश्यक है।” यही बात इस संग्रह को विचारशील बनाती है। “पावन तट पर” न केवल कुंभ के दृश्यात्मक संसार को उकेरता है, बल्कि वह यह भी पूछता है कि क्या हमारी आस्था मानवता को सशक्त बना रही है या उसे अंधकार की ओर धकेल रही है।
यह संग्रह पाठक को बार-बार सोचने पर मजबूर करता है, कुंभ का मेला केवल आस्था का प्रतीक है या यह हमारे समाज की व्यवस्था का आईना भी है? भीड़ में उमड़ती संवेदनाएँ, भक्ति में लिपटा व्यवसाय, स्नान में छिपा स्वार्थ और त्याग- इन सबका सम्मिलित चित्र यह पुस्तक अत्यंत सजीवता से प्रस्तुत करती है। संपादक के रूप में सुरेश सौरभ ने रचनाकारों का चयन अत्यंत सजग दृष्टि से किया है। उन्होंने अनुभवी लेखकों के साथ-साथ नवोदित प्रतिभाओं को भी समान मंच दिया है। यह उनकी लोकतांत्रिक संपादकीय दृष्टि का परिचायक है। उन्होंने केवल कथाओं को संकलित नहीं किया, बल्कि उन्हें एक वैचारिक सूत्र में पिरोया है, जिससे पूरी पुस्तक एक संपूर्ण दार्शनिक विमर्श का रूप ले लेती है।
भाषा की दृष्टि से भी यह संग्रह उल्लेखनीय है। प्रत्येक लघुकथा में एक विशिष्ट शैली, एक अलग लय, और एक सजीव चित्रात्मकता दिखाई देती है। कहीं आस्था का पवित्र जल बहता है, तो कहीं समाज के मलिन जल की गंध आती है। किंतु हर रचना का अंत पाठक के मन में कोई न कोई सवाल, कोई चुभन या कोई आलोक छोड़ जाता है। यही एक सफल लघुकथा-संग्रह की पहचान है। “पावन तट पर” का महत्व केवल धार्मिक या सामाजिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और साहित्यिक दोनों है। यह पुस्तक बताती है कि भारतीय आस्था केवल अनुष्ठानों में नहीं, बल्कि मानवीय संबंधों की पवित्रता में निहित है। यह संग्रह पाठक को एक ऐसी यात्रा पर ले जाता है जहाँ स्नान केवल जल में नहीं, बल्कि आत्मा के भीतर होता है, मलिनताओं से मुक्ति का, और विवेक की ओर अग्रसर होने का।
इस तरह से यह कहा जा सकता है कि “पावन तट पर” एक ऐसा साहित्यिक संकलन है जो अपने समय का साक्षी भी है और समाज का दर्पण भी। यह न केवल पढ़ने योग्य, बल्कि संभालकर रखने योग्य पुस्तक है- एक दस्तावेज, जो आने वाले समय में भी यह बताएगा कि साहित्यकार केवल शब्दों का जादूगर नहीं होता, वह युग का मूक इतिहासकार होता है। सुरेश सौरभ और सभी रचनाकारों को इस उत्कृष्ट साहित्यिक प्रयास के लिए साधुवाद। यह संग्रह न केवल कुंभ मेले की कथा कहता है, बल्कि मानवता के कुंभ की भी व्याख्या करता है, जहाँ हर मन, हर विश्वास, हर संवेदना एक साथ स्नान करती है सत्य और करुणा के पावन जल में।
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समीक्षक: नृपेन्द्र अभिषेक नृप
पुस्तक: पावन तट पर
संपादक : सुरेश सौरभ
प्रकाशन: समृद्ध पब्लिकेशन, दिल्ली
मूल्य: 250 रुपये


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