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बुधवार, 29 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: खरीदी हुई तलाश | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


लघुकथा: खरीदी हुई तलाश | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

उस रेड लाइट एरिया में रात का अंधेरा गहराने के साथ ही चहल-पहल बढती जा रही थी। जिन्हें अपने शौक पूरे करने के लिये रौशनी से बेहतर अंधेरे लगते हैं, वे सभी निर्भय होकर वहां आ रहे थे।

वहीँ एक मकान के बाहर एक अधेड़ उम्र की महिला पान चबाती हुई खोजी निगाहों से इधर-उधर देख रही थी कि सामने से आ रहे एक आदमी को देखकर वह चौंकी और उसके पास जाकर पूछा,

"क्या हुआ साब, आज यहाँ का रास्ता कैसे भूल गए? तीन दिन पहले ही तो तुम्हारा हक़ पहुंचा दिया था।"

सादे कपड़ों में घूम रहे उस पुलिस हवलदार को वह महिला अच्छी तरह पहचानती थी।

“कुछ काम है तुमसे।” पुलिसकर्मी ने थकी आवाज़ में कहा।

“परेशान दिखाई दे रहे हो साब, लेकिन तुम्हें देखकर हमारे ग्राहक भी परेशान हो जायेंगे, कहीं अलग चलकर बात करते है।”

वह उसे अपने मकान के पास ले गयी और दरवाज़ा आधा बंद कर इस तरह खड़ी हो गयी कि पुलिसकर्मी का चेहरा बंद दरवाजे की तरफ रहे।

पुलिसकर्मी ने फुसफुसाते हुए पूछा,
"आज-कल में कोई नयी लड़की... लाई गयी है क्या?"

"क्यों साब? कोई अपनी है या फिर..." उस महिला ने आँख मारते हुए कहा।

"चुप... तमीज़ से बात कर... मेरी बीवी की बहन है, दो दिनों से लापता है।" पुलिसकर्मी का लहजा थोड़ा सख्त था।

उस महिला ने अपनी काजल लगीं आँखें तरेर कर पुलिसकर्मी की तरफ देखा और व्यंग्य से मुस्कुराते हुए कहा,

"तुम्हारे जैसों के लालच की वजह से कितने ही भाई यहाँ आकर खाली हाथ लौट गए, उनकी बहनें किसी की बीवी नहीं बन पायीं और तुम यहीं आकर अपनी बीवी की बहन को खोज रहे हो!"

और वह सड़क पर पान की पीक थूक कर अपने मकान के अंदर चली गयी।

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चित्रः साभार गूगल

मंगलवार, 28 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: धर्म-प्रदूषण | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी



लघुकथा: धर्म-प्रदूषण |  लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

उस विशेष विद्यालय के आखिरी घंटे में शिक्षक ने अपनी सफेद दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए, गिने-चुने विद्यार्थियों से कहा, "काफिरों को खत्म करना ही हमारा मक़सद है, इसके लिये अपनी ज़िन्दगी तक कुर्बान कर देनी पड़े तो पड़े, और कोई भी आदमी या औरत, चाहे वह हमारी ही कौम के ही क्यों न हों, अगर काफिरों का साथ दे रहे हैं तो उन्हें भी खत्म कर देना। ज़्यादा सोचना मत, वरना जन्नत के दरवाज़े तुम्हारे लिये बंद हो सकते हैं, यही हमारे मज़हब की किताबों में लिखा है।"

"लेकिन हमारी किताबों में तो क़ुरबानी पर ज़ोर दिया है, दूसरों का खून बहाने के लिये कहाँ लिखा है?" एक विद्यार्थी ने उत्सुक होकर पूछा।

"लिखा है... बहुत जगहों पर, सात सौ से ज़्यादा बार हर किताब पढ़ चुका हूँ, हर एक हर्फ़ को देख पाता हूँ।"

"लेकिन यह सब तो काफिरों की किताबों में भी है, खून बहाने का काम वक्त आने पर अपने खानदान और कौम की सलामती के लिए करना चाहिए। चाहे हमारी हो या उनकी, सब किताबें एक ही बात तो कहती हैं..."

"यह सब तूने कहाँ पढ़ लिया?"

वह विद्यार्थी सिर झुकाये चुपचाप खड़ा रहा, उसके चेहरे पर असंतुष्टि के भाव स्पष्ट थे।

"चल छोड़ सब बातें..." अब उस शिक्षक की आवाज़ में नरमी आ गयी, "तू एक काम कर, अपनी कौम को आगे बढ़ा, घर बसा और सुन, शादीयां काफिरों की बेटियों से ही करना..."

"लेकिन वो तो काफिर हैं, उनकी बेटियों से हम पाक लोग शादी कैसे कर सकते हैं?"

शिक्षक उसके इस सवाल पर चुप रहा, उसके दिमाग़ में यह विचार आ रहा था कि “है तो नहीं लेकिन फिर भी कल मज़हबी किताबों में यह लिखा हुआ बताना है कि, ‘उनके लिखे पर सवाल उठाने वाला नामर्द करार दे दिया जायेगा’।”

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चित्रः साभार गूगल

सोमवार, 27 अप्रैल 2020

लघुकथा समाचार: क्षितिज की ऑनलाइन सार्थक लघुकथा ऑडियो गोष्ठी

लॉकडाऊन में रचनाधर्मिता को नवीन आयामलघुकथा प्रवासी और टेक दुनिया के अंतरंग का हिस्सा- श्री बीएल आच्छा

तकनीक के इस युग में कुछ भी असम्भव नहीं है। कोरोना वायरस के कारण लाकडाउन के मध्य  क्षितिज साहित्य मंच, इंदौर द्वारा शनिवार 25 अप्रैल 2020 सांय 4:00 बजे एक ऑनलाइन ऑडियो सार्थक लघुकथा गोष्ठी का आयोजन किया गया । क्षितिज साहित्य मंच द्वारा आयोजित ऑनलाइन सार्थक लघुकथा ऑडियो गोष्ठी सचमुच प्रशंसनीय थी। बलराम अग्रवाल अध्यक्ष और विशेष अतिथि बी.एल.आच्छा थे। संचालन किया वरिष्ठ लघुकथाकार अंतरा करवड़े और वसुधा गाडगिल ने। 

कोरोना वायरस के कारण किए गए लॉकडाऊन को देखते हुए क्षितिज साहित्य मंच, इंदौर द्वारा दिनांक 25 अप्रैल 2020 शनिवार शाम 4:00 बजे एक ऑनलाइन ऑडियो सार्थक लघुकथा गोष्ठी का क्षितिज साहित्य मंच के पटल पर आयोजन किया गया। इस गोष्ठी की अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार, लघुकथाकार, कथाकार, आलोचक श्री बलराम अग्रवाल (दिल्ली) ने की और इस समारोह के प्रमुख अतिथि थे मूर्धन्य साहित्यकार, समीक्षक, आलोचक श्री बी. एल. आच्छा (चैन्नई)। गोष्ठी के आरम्भ में क्षितिज संस्था के अध्यक्ष वरिष्ठ साहित्यकार, लघुकथाकार, समीक्षक श्री सतीश राठी द्वारा स्वागत भाषण दिया गया और अतिथियों का स्वागत करते हुए श्री राठी ने कहा कि आज हमारे लिए बड़ी ख़ुशी कि बात है कि इस ऑनलाइन कार्यक्रम में आदरणीय श्री बलराम अग्रवाल (दिल्ली) और श्री बी. एल. आच्छा (चैन्नई) के साथ देश के वरिष्ठ साहित्यकार और लघुकथाकार आदरणीय सर्वश्री अशोक भाटिया (चंडीगढ़), सुभाष नीरव (दिल्ली), भागीरथ (रावतभाटा), माधव नागदा (नाथद्वारा), रामकुमार घोटड़ (चूरू, राजस्थान), अशोक जैन, मुकेश शर्मा, (गुरुग्राम), ओम मिश्रा (बीकानेर), योगराज प्रभाकर, जगदीश कुलारिया (पंजाब), हीरालाल मिश्रा (कोलकाता) लता चौहान चौहान (बेंगलुरु) पवन शर्मा (छत्तीसगढ़), पवन जैन (जबलपुर), संध्या तिवारी (पीलीभीत), अरूण धूत, संतोष श्रीवास्तव, अशोक गुजराती (भोपाल), मनीष वैद्य (देवास), राजेंद्र काटदारे (मुम्बई), अंजना अनिल (अलवर), देवेन्द्र सोनी (इटारसी), पवित्रा अग्रवाल (हैदराबाद), गोविन्द गुंजन (खंडवा), कुलदीप दासोत (जयपुर), धर्मपाल महेंद्र जैन (टोरंटो), सत्यनारायण व्यास सूत्रधार, व्यंग्यकार कांतिलाल ठाकरे, राकेश शर्मा संपादक वीणा, अश्विनी कुमार दुबे, पुरुषोत्तम दुबे, ब्रजेश कानूनगो, चंद्रा सायता, वन्दना पुणताम्बेकर, पदमा राजेंद्र, संगीता भारूका, रजनी रमण शर्मा, जगदीश जोशी, सुषमा व्यास, राजनारायण बोहरे, अर्जुन गौड़, नंदकिशोर बर्वे, सुभाष शर्मा, उमेश नीमा, ललित समतानी, सीमा व्यास, चेतना भाटी, मंजुला भूतड़ा, निधि जैन, राममूरत राही, (इंदौर), नई दुनिया के हमारे साथी श्री अनिल त्रिवेदी, दैनिक भास्कर के हमारे साथी श्री रविंद्र व्यास, पत्रिका से रूख़साना जी, बैंक के साथी गोपाल शास्त्री, गोपाल कृष्ण निगम (उज्जैन) भी उपस्थित हैं, मैं इन सभी का स्वागत करता हूँ और ह्रदय से अभिनन्दन करता हूँ।

इसके पश्चात लघुकथा विधा को लेकर वर्ष 1983 से क्षितिज संस्था द्वारा किए गए कार्यों की जानकारी एवं क्षितिज के विभिन्न प्रकाशनों की जानकारी श्री सतीश राठी द्वारा दी गई। इस गोष्ठी में हमारे इंदौर शहर से बाहर के क्षितिज के सदस्य लघुकथाकारों सर्वश्री संतोष सुपेकर, दिलीप जैन, कोमल वाधवानी, आशा गंगा शिरढोनकर (उज्जैन), सीमा जैन (ग्वालियर), कांता राय (भोपाल ), अनघा जोगलेकर, विभा रश्मि (गुरुग्राम), अंजू निगम, सावित्री कुमार( देहरादून), कनक हरलालका (धुबरी, आसाम), हनुमान प्रसाद मिश्रा (अयोध्या) ने लघुकथाओं का पाठ किया गया, स्व पारस दासोत की लघुकथा का पाठ उनकी बहू द्वारा किया गया। इन रचनाओं पर श्री बलराम अग्रवाल ने अपने उद्बोधन में कहा दिलीप जैन की लघुकथा 'गिनती की रोटी' में पात्र का चरित्र उसके दादाजी से प्राप्त संस्कार के रूप में आकार ग्रहण करता है और एक विशेष प्रकार का मनोविकार बन जाता है। कुल मिलाकर यह लघुकथा पद प्रतिष्ठा और स्थिति के अनुरूप भारतीय स्त्री भारतीय स्त्री के संस्कार पूर्ण मनोविज्ञान को सफलतापूर्वक हमारे सामने प्रस्तुत करती है। अंजू निगम की लघुकथा 'मां' के केंद्र में सौतेली मां की प्रचलित छवि को बदलने का प्रयास नजर आता है। विषय नया न होकर भी अच्छा है, लेकिन इस लघुकथा का शिल्प अभी कमजोर है। इस सदी में लघुकथा लेखन में कुछ सधी हुई कलम भी आई हैं। उनमें सीमा जैन ऐसा नाम है जिनका जो व्यक्ति जीवन के संवेदनशील क्ष‌‌णों को पकड़ने और प्रस्तुत करने के प्रति बहुत सचेत रहती हैं। उनकी प्रस्तुति जाने पहचाने विषय को भी नयापन दे देती है। उनकी लघुकथा 'उड़ान' सकारात्मक सरोकारों से लबालब है।

कांता राय की लघुकथा 'मां की नजर'! इस पूरी लघुकथा में पात्रों के चरित्र के साथ न्याय होता मुझे नजर नहीं आता है! कोमल वाधवानी लघुकथा 'गुहार'! यह संस्मरणात्मक शैली में लिखी कथा है। कथा का अंत इस अर्थ में अति नाटकीय हो गया है कि दीवारें अपने गिरने का पूर्वाभास नहीं देती हैं। वे गिर ही जाती हैं, बूढ़ी काकी की तरह किसी को बचा लेने का अवसर भी वे नहीं देतीं। सावित्री कुमार की लघुकथा 'भ्रम का संबल' कथ्य की दृष्टि से एक सुंदर लघुकथा है। इसका आधार एक मनोवैज्ञानिक सत्य है। इस लघुकथा में, मुझे लगता है कि अनु का डॉक्टर के पास हर बार पहले जाना जरूरी नहीं है। आशा गंगा प्रमोद शिरढोणकर की लघुकथा 'उसके बाद'। बढी उम्र में जीवनसाथी से बिछोह के बाद त्रस्त जीवन की भावपूर्ण झांकी इस लघुकथा में बड़ी सहजता से सफलतापूर्वक प्रस्तुत की गई है। अनघा जोगलेकर की लघुकथा 'जुगनू'। उन्होंने किसान के जीवन में आशा की एक किरण को 'जुगनू' की संज्ञा दी है! लघुकथा के इस कथानक में कई बातें अस्पष्ट सी छूट गई हैं। 'वेरी गुड' संतोष सुपेकर की लघुकथा है। मेरा विश्वास है कि बालमन को समझना और बालक का मान रखना हंसी खेल नहीं है। विपरीत परिस्थिति में भी इस लघुकथा का मुख्य पात्र जिस तरह अपने बेटे का मान रखता है वह हमें दूर तक फैले खुशियों के उपवन में ले जाता है। विभा रश्मि की एंटीवायरस स्त्री मनोविज्ञान की बेहतरीन लघुकथा है! हनुमान प्रसाद मिश्र अपेक्षाकृत कम लिखने वाले वरिष्ठ लेखक हैं। क्षितिज के इस ऑनलाइन लघुकथा गोष्ठी कार्यक्रम में उनकी उपस्थिति उत्साह बढ़ाने वाली है। दृष्टांत शैली की यह रचना प्रभावित करती है। कनक हरलालका की 'इनसोर' लघु कथा में एक मजदूर की पीड़ा को उभारने की भरपूर कोशिश है। शिल्प की दृष्टि से इसे अभी और कसा जा सकता था फिर भी इस भाव संप्रेषण के कारण कि मजदूर की पहली जरूरत उसके आज की पूर्ति होना है, यह एक प्रभावशाली लघुकथा कही जा सकती है।

कुल मिलाकर देखा जाए तो वर्तमान लघु कथा लेखन नवीन विषयों को लेकर तो कुछ नवीन प्रस्तुतियों को लेकर साहित्य मार्ग पर अग्रसर है और उसकी यह अग्रसारिता संतुष्ट करती है।

श्री बी. एल. आच्छा ने ऑनलाइन सार्थक लघुकथा ऑडियो गोष्ठी पर अपनी प्रतिक्रया देते हुए कहा “हिंदी लघुकथा नई विधा है, पर अल्पकाल में इस विधा ने जितने संघर्षों को समेटा है, विमर्शों को अंतरंग बनाया है, मानव मन के अंतर्जाल को उकेरा है, उससे लगता है कि अन्य विधाओं की लंबी काल यात्रा लघुकथा में उतर आई है। यही नहीं लघुकथा ने आज की टेक दुनिया के साथ प्रवासी दुनिया तक विस्तार किया है। बड़ी बात यह इसका एक सिरा चूल्हे- चौके या मजदूर किसान जीवन से सिरजा है, उतना ही बुर्जुआ और बोल्ड संस्कृति से भी। प्रयोग के लिए न केवल अनेक नई पुरानी शैलियों को आजमाया है, बल्कि अन्य विधाओं से इसे संवादी नाट्यपरक और विजुअल बनाया है। आज की लघुकथा यद्यपि मोटे तौर पर मध्यमवर्गीय जीवन के घेरे में ज्यादा है, पर प्रवासी और टेक दुनिया भी उसका अंतरंग हिस्सा बनी है। आज की संगोष्ठी में इसकी झलक देखी जा सकती है।

अनघा जोगलेकर की लघुकथा किसानी व्यथाओं में पत्नी के जीवट में जुगनू की चमक दिखाती है, तो विभा रश्मि की 'एंटीवायरस 'आँखों के स्क्रीन में एंटीवायरस प्रोग्राम से हमउम्र के मनोविकारों को धोकर रख देती है। दिलीप जैन की लघुकथा 'गिनती की रोटी 'में पीढ़ियों की समझ का फेर भले ही हो पर ह्रदय कल्मश नहीं है। सावित्री कुमार की लघुकथा 'भ्रम का संबल' में नारी की उदात्त पारिवारिक भूमिका मन को छू लेती है। कोमल वाधवानी की 'गुहार' और आशा गंगा शिरढोणकर की 'उसके बाद 'लघुकथा में पारिवारिक रिश्तो में वृद्धावस्था की बेचैनियों के नुकीले सिरे चुभनदार बन जाते हैं ।अंजू निगम की 'मां' लघुकथा अपने उद्देश्य में बिखरती हुई भी समझ को विकसित करती है। सीमा जैन की 'उड़ान 'में जेंडर असमानता के बीच लड़की की उड़ान नारी चेतना के पंखों में गति ला देती है। संतोष सुपेकर दो मनोभूमियों के कंट्रास्ट को 'व्हेरी गुड 'में बखूबी मुखर कर देते हैं। हनुमानप्रसाद मिश्र दायित्व बोध लघुकथा में मानवेतर के माध्यम से सांस्कारिकता का संदेश देते हैं। कनक हरलालका की लघुकथा 'इनसोर 'में कारपोरेट बचत की बाजारवादी सोच में भूख की पीड़ा असरदार है। कांता राय की 'माँ की नजर में' लघुकथा पतित्व की स्वामी- सत्ता का घुलता हुआ अंदाज है। स्व.पारस दासोत की लघुकथा 'भारत 'में तमाम फटेहाली के बावजूद गरीब की जीत का जज्बा है। पठित रचनाओं में कथाभूमियाँ विविधता के क्षेत्रफल में बुनी हुई है। वे सामाजिक -पारिवारिक सरोकारों को जितनी वास्तविकताओं के साथ बुनती हैं,उतना ही बदलती दुनिया से भी।नरेटिव से संवादी बनती हैं और अंतर्वृत्तियों को सामने लाती हैं।

इस गोष्ठी की एक प्रमुख विशेषता रही है कि 1 घंटे के इस कार्यक्रम में देश के वरिष्ठ साहित्यकार और लघुकथाकार श्रोताओं के रूप में उपस्थित रहकर प्रथम ऑनलाइन लघुकथा संगोष्ठी के सहभागी और साक्षी बने। क्षितिज ऑनलाईन सार्थक लघुकथा ऑडियो गोष्ठी जो कि क्षितिज संस्था का एक महत्वपूर्ण आयोजन था, ऐतिहासिक रूप से सफल रही। क्षितिज संस्था ने इस अनूठे साहित्यिक समारोह द्वारा लघुकथा विधा में नये आयाम स्थापित किए। इस गोष्ठी का संचालन जानी मानी मंच संचालक अंतरा करवड़े और डॉ. वसुधा गाडगिल ने किया। कार्यक्रम के अंतिम चरण में ऑनलाइन उपस्थित सहभागियों ने अपनी-अपनी प्रतिक्रियाएं पोस्ट की और क्षितिज संस्था के सचिव श्री दीपक गिरकर द्वारा आभार व्यक्त किया गया।

नई दुनिया में इसका समाचारः




लघुकथा वीडियो: इंसान जिन्दा है | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


लघुकथा: इंसान जिन्दा है |  लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

वह अपनी आत्मा के साथ बाहर निकला था, आत्मा को इंसानों की दुनिया देखनी थी।

वे दोनों एक मंदिर में गये, वहां पुजारी ने पूछा, "तुम हिन्दू हो ना!" आत्मा हाथ जोड़ कर चल दी।

और एक मस्जिद में गये, वहां मौलवी ने पूछा, "तुम मुसलमान हो ना!" आत्मा ने मना कर दिया।

फिर एक गुरूद्वारे में गये, वहां पाठी ने पूछा, "तुम सिख तो नहीं लगते" आत्मा वहां से चल दी।

और एक चर्च में गये, वहां पादरी ने पूछा, "तुम इसाई हो क्या?" आत्मा चुपचाप रही।

 वे दोनों फिर घर की तरफ लौट गये। रास्ते में उसकी आत्मा ने कहा, "इंसान मर गया, सम्प्रदाय ज़िन्दा है।"

 उसने कहा, "नहीं! "इंसान जिंदा है। सभी जगह सम्प्रदाय नहीं होते।"

अपनी बात को साबित करने के लिए वह अपनी आत्मा को पहले एक हस्पताल में लेकर गया, जहाँ बहुत सारे 'रोगी' ठीक होने आये थे।

और फिर एक जेल में लेकर गया, जहाँ बहुत सारे 'कैदी' थे।

और मदिरालय लेकर गया, जहाँ सब के सब 'शराबी' थे।

और एक विद्यालय लेकर गया, जहाँ 'विद्यार्थी' पढने आये थे।

अब आत्मा ने कहा, "इंसान ज़िन्दा तो है, लेकिन कुछ और बनने के बाद।"

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चित्रः साभार गूगल

रविवार, 26 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: जानवरीयत | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


लघुकथा: जानवरीयत |  लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

वृद्धाश्रम के दरवाज़े से बाहर निकलते ही उसे किसी कमी का अहसास हुआ, उसने दोनों हाथों से अपने चेहरे को टटोला और फिर पीछे पलट कर खोजी आँखों से वृद्धाश्रम के अंदर पड़ताल करने लगा। उसकी यह दशा देख उसकी पत्नी ने माथे पर लकीरें डालते हुए पूछा, "क्या हुआ?"

उसने बुदबुदाते हुए उत्तर दिया, "अंदर कुछ भूल गया..."

 पत्नी ने उसे समझाते हुए कहा, "अब उन्हें भूल ही जाओ, उनकी देखभाल भी यहीं बेहतर होगी। हमने फीस देकर अपना फ़र्ज़ तो अदा कर ही दिया है, चलो..." कहते हुए उसकी पत्नी ने उसका हाथ पकड़ कर उसे कार की तरफ खींचा।

 उसने जबरन हाथ छुड़ाया और ठन्डे लेकिन द्रुत स्वर में बोला, "अरे! मोबाइल फोन अंदर भूल गया हूँ।"

 "ओह!" पत्नी के चेहरे के भाव बदल गए और उसने चिंतातुर होते हुए कहा, "जल्दी से लेकर आ जाओ, कहीं इधर-उधर हो गया तो? मैं घंटी करती हूँ, उससे जल्दी मिल जायेगा।"

वह दौड़ता हुआ अंदर चला गया। अंदर जाते ही वह चौंका, उसके पिता, जिन्हें आज ही वृद्धाश्रम में दाखिल करवाया था, बाहर बगीचे में उनके ही घर के पालतू कुत्ते के साथ खेल रहे थे। पिता ने उसे पल भर देखा और फिर कुत्ते की गर्दन को अपने हाथों से सहलाते हुए बोले, "बहुत प्यार करता है मुझे, कार के पीछे भागता हुआ आ गया... जानवर है ना!"

 डबडबाई आँखों से अपने पिता को भरपूर देखने का प्रयास करते हुए उसने थरथराते हुए स्वर में उत्तर दिया, “जी पापा, जिसे जिनसे प्यार होता है... वे उनके पास भागते हुए पहुँच ही जाते हैं...”

 और उसी समय उसकी पत्नी द्वारा की हुई घंटी के स्वर से मोबाइल फोन बज उठा। वो बात और थी कि आवाज़ उसकी पेंट की जेब से ही आ रही थी।

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चित्रः साभार गूगल

शनिवार, 25 अप्रैल 2020

सतीश राठी की लघुकथा राशन पर बनी शॉर्ट फिल्म


लघुकथा वीडियो: इतिहास गवाह है | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी



लघुकथा: इतिहास गवाह है |  लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

“योर ऑनर, सच्चाई यह है कि महाराणा ने युद्ध जीता था... इसलिए युद्धभूमि का नाम अब महाराणा के नाम पर ही होना चाहिए”, न्यायालय के एक खचाखच भरे कक्ष में पहले वकील ने पुरजोर शब्दों में दलील दी।

“माफ़ी चाहता हूँ योर ऑनर, लेकिन मेरे विद्वान मित्र सच नहीं कह रहे। युद्ध शहंशाह ने जीता था, इतिहास गवाह है...” दूसरे वकील ने अंतिम तीन शब्दों पर ज़ोर देते हुए कहा।

पहले वकील ने मुस्कुराते हुए प्रत्युत्तर दिया, “अगर मेरे दोस्त का कहना सच है कि इतिहास गवाह है... तो योर ऑनर उन्हें यह आदेश फरमाएं, कि बुला लें इतिहास को गवाही के लिए...”

सुनते ही कोर्ट रूम में बैठे ज़्यादातर लोग हँसने लगे, यहाँ तक कि जज भी मुस्कुराने से बच नहीं सके।

पीछे बैठा एक व्यक्ति शरारत से चिल्लाया, “इतिहास हाज़िर होsss”

लेकिन जब तक कोई चिल्लाने वाले व्यक्ति की शक्ल भी देख पाता, कटघरे के नीचे से धुएँ का एक गुबार उठा और कटघरा धुएँ से भर गया।

वहीँ से एक गंभीर स्वर गूंजा, “मैं वर्तमान और भविष्य की कसम खा कर कहता हूँ कि मैं कभी झूठ नहीं बोलता, मेरे नाम से लोग झूठ बोलते हैं।”

कोर्ट रूम में बैठे सभी व्यक्ति हतप्रभ रह गए, कटघरे में धुंए के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। जज हडबडाये स्वर में बोला, “कौन है वहां?”

स्वर गूंजा, “इतिहास...”

दोनों वकीलों के हलक सूख गए। पहले वकील ने किसी तरह खुदको सम्भाल कर अपनी आँखे धुएँ में गाड़ने का असफल प्रयास करते हुए पूछा, “युद्ध... महाराणा... ने ही...” बाकी शब्द उसके कंठ में ही अटक गए।

स्वर गूंजा, “नहीं...”

यह सुनकर दूसरे वकील की जान में जैसे प्राण आ गये, वह बोला, “मतलब… शहंशाह ने जीता...”

स्वर फिर गूंजा, “नहीं...”

“तो फिर?” जज ने पूछा, हालाँकि उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह प्रश्न कर किससे रहा है।

“युद्ध जीता था - नफरत ने।” स्वर तीक्ष्ण था।

जज ने अब उत्सुकतापूर्ण स्वर में अगला प्रश्न पूछा, “लेकिन हम कैसे मान लें कि तुम इतिहास हो?”

और अगले ही क्षण धुएँ का गुबार छंट गया। कटघरा खाली था...

कहीं से वही स्वर आया, “मुझे पहचान नहीं सकते तो कटघरे में खड़ा कैसे कर सकते हो?”

कोर्ट रूम में फिर खामोशी छा गयी।

ख़ामोशी उसी स्वर ने तोड़ी,

“उस ज़मीन का नाम मोहब्बत रख देना – आपको आपके भविष्य की कसम...”

और इस बार स्वर भर्राया हुआ था।

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चित्र: साभार गूगल


शुक्रवार, 24 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: मेरा घर छिद्रों में समा गया । लेखन व वाचन: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी



माँ भारती ने बड़ी मुश्किल से अंग्रेज किरायेदारों से अपना एक कमरे का मकान खाली करवाया था। अंग्रेजों ने घर के सारे माल-असबाब तोड़ डाले थे, गुंडागर्दी मचा कर खुद तो घर के सारे सामानों का उपभोग करते, लेकिन माँ भारती के बच्चों को सोने के लिए धरती पर चटाई भी नसीब नहीं होती। खैर, अब ऐसा प्रतीत हो रहा था कि सब ठीक हो जायेगा।

लेकिन…
पहले ही दिन उनका बड़ा बेटा भगवा वस्त्र पहन कर आया साथ में गीता, रामायण, वेद-पुराण शीर्षक की पुस्तकें तथा भगवान राम-कृष्ण की तस्वीरें लाया।

उसी दिन दूसरा बेटा पजामा-कुरता और टोपी पहन कर आया और पुस्तक कुरान, 786 का प्रतीक, मक्का-मदीना की तस्वीरें लाया।

तीसरा बेटा भी कुछ ही समय में पगड़ी बाँध कर आया और पुस्तकें गुरु ग्रन्थ साहिब, सुखमणि साहिब के साथ गुरु नानक, गुरु गोविन्द की तस्वीरें लाया।

और चौथा बेटा भी वक्त गंवाएं बिना लम्बे चोगे में आया साथ में पुस्तक बाइबल और प्रभु ईसा मसीह की तस्वीरें लाया।

चारों केवल खुदकी किताबों और तस्वीरों को घर के सबसे अच्छे स्थान पर रख कर अपने-अपने अनुसार घर बनाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने आपस में लड़ना भी शुरू कर दिया।
यह देख माँ भारती ने ममता के वशीभूत हो उस एक कमरे के मकान की चारों दीवारों में कुछ ऊंचाई पर एक-एक छेद करवा दिया। जहाँ उसके बेटों ने एक-दूसरे से पीठ कर अपने-अपने प्रार्थना स्थल टाँगे और उनमें अपने द्वारा लाई हुई तस्वीरें और किताबें रख दीं।


वो बात और है कि अब वे छेद काफी मोटे हो चुके हैं और उस घर में बदलते मौसम के अनुसार बाहर से कभी ठण्ड, कभी धूल-धुआं, कभी बारिश तो कभी गर्म हवा आनी शुरू हो चुकी है… और माँ भारती?... अब वह दरवाज़े पर टंगी नेमप्लेट में रहती है।
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चित्र: साभार गूगल

गुरुवार, 23 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: गरीब सोच | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी






अपेक्षानुसार परदादा की अलमारी से भी कुछ नहीं मिला तो अलादीन ने निराश होकर जोर से उसका दरवाज़ा बंद किया, अंदर से मिट्टी सना एक चिराग बाहर गिरा। चिराग बेच कर कुछ रुपयों की उम्मीद से वह उस पर लगी मिट्टी साफ़ करने लगा ही था कि उसमें से धुँआ निकला और देखते-ही-देखते धुँआ एक जिन्न में बदल गया। जिन्न ने मुस्कुराते हुए कहा, "मैं इस चिराग का जिन्न हूँ, मेरे आका, जो चाहे मांग लो।" अलादीन ने पूछा, "क्या तुम मेरी गरीबी हटा सकते हो?" “क्यों नहीं!” जिन्न के कहते ही अगले ही क्षण रूपये-हीरे-जवाहरात आ गए, अलादीन ने ख़ुशी से पूछा, “यह लाते कहाँ से हो?” “ये सब देश के एक बड़े उद्योगपति के हैं।” “क्या..? टैक्स चोरी, एक रूपये की चीज़ सौ रूपये में बेच कर कमाए हुए रूपये मैं नहीं लूँगा” अलादीन ने इनकार कर दिया। जिन्न उन्हें गायब कर रुपयों का एक बक्सा ले आया। अलादीन को पहले ही संदेह हो चुका था, उसने पूछा, “यह कहाँ से आया?” “एक नेता ने घर में छिपा रखा था।” “नहीं, यह काली कमाई भी मैं नहीं लूँगा।” जिन्न उसे हटा कर, एक संदूक भर रुपया ले आया, और बताया, “यह अनाज, सब्जी और फल बेचकर कमाया गया है, जो इसके मालिक ने किसानों से खरीदा था।” “और किसान भूखे मर रहे हैं..., यह मैं हरगिज़ नहीं लूँगा।” अब जिन्न बहुत सारे रूपये लाया और बताया, “ये रूपये एक साधू के हैं, जो हस्पताल और समाजसेवी संस्थायें चलाते हैं” “ये तो सबसे बड़े चोर हैं, समाजसेवा की आड़ में नकली दवाएं और गलत धंधे चलाते हैं, ये मैं नहीं ले सकता, मुझे केवल शराफत से कमाए रूपये चाहिए” जिन्न सोचते हुए कुछ क्षण खड़ा रहा, और अलादीन को एक पर्ची थमा कर गायब हो गया। अलादीन ने पर्ची खोली, उसमें लिखा था, “रूपये पेड़ों पर नहीं उगते हैं।” -0- चित्रः साभार गूगल

बुधवार, 22 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: तीन संकल्प । लेखन व वाचन: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी




वह दौड़ते हुए पहुँचता उससे पहले ही उसके परिवार के एक सदस्य के सामने उसकी वह ही तलवार आ गयी, जिसे हाथ में लेते ही उसने पहला संकल्प तोड़ा था कि 'वह कभी किसी की भी बुराई नहीं सुनेगा'। वह पीछे से चिल्लाया, "रुक जाओ तुम्हें तो दूसरे धर्मों के लोगों को मारना है।" लेकिन तलवार के कान कहाँ होते हैं, उसने उसके परिवार के उस सदस्य की गर्दन काट दी।

वह फिर दूसरी तरफ दौड़ा, वहाँ भी उससे पहले उसी की एक बन्दूक पहुँच गयी थी, जिसे हाथ में लेकर उसने दूसरा संकल्प तोड़ा था कि 'वह कभी भी बुराई की तरफ नहीं देखेगा'। बन्दूक के सामने आकर उसने कहा, "मेरी बात मानो, देखो मैं तुम्हारा मालिक हूँ..." लेकिन बन्दूक को कुछ कहाँ दिखाई देता है, और उसने उसके परिवार के दूसरे सदस्य के ऊपर गोलियां दाग दीं।

वह फिर तीसरी दिशा में दौड़ा, लेकिन उसी का आग उगलने वाला वही हथियार पहले से पहुँच चुका था, जिसके आने पर उसने अपना तीसरा संकल्प तोड़ा था कि 'वह कभी किसी को बुरा नहीं कहेगा'। वह कुछ कहता उससे पहले ही हथियार चला और उसने उसके परिवार के तीसरे सदस्य को जला दिया।

और वह स्वयं चौथी दिशा में गिर पड़ा। उसने गिरे हुए ही देखा कि एक बूढ़ा आदमी दूर से धीरे-धीरे लाठी के सहारे चलता हुआ आ रहा था, गोल चश्मा पहने, बिना बालों का वह कृशकाय बूढ़ा उसका वही गुरु था जिसने उसे मुक्ति दिला कर ये तीनों संकल्प दिलाये थे।

उस गुरु के साथ तीन वानर थे, जिन्हें देखते ही सारे हथियार लुप्त हो गये।

और उसने देखा कि उसके गुरु उसे आशा भरी नज़रों से देख रहे हैं और उनकी लाठी में उसी का चेहरा झाँक रहा है, उसके मुंह से बरबस निकल गया 'हे राम!'।

कहते ही वह नींद से जाग गया।
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चित्र: साभार गूगल

मंगलवार, 21 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: अपवित्र कर्म | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी



पौ फटने में एक घंटा बचा हुआ था। उसने फांसी के तख्ते पर खड़े अंग्रेजों के मुजरिम के मुंह को काले कनटोप से ढक दिया, और कहा, "मुझे माफ कर दिया जाए। हिंदू भाईयों को राम-राम, मुसलमान भाईयों को सलाम, हम क्या कर सकते है हम तो हुकुम के गुलाम हैं।"

कनटोप के अंदर से लगभग चीखती सी आवाज़ आई, "हुकुम के गुलाम, मैं न तो हिन्दू हूँ न मुसलमान! देश की मिट्टी का एक भक्त अपनी माँ के लिये जान दे रहा है, उसे 'भारत माता की जय' बोल कर विदा कर..."

उसने जेल अधीक्षक की तरफ देखा, अधीक्षक ने ना की मुद्रा में गर्दन हिला दी । वह चुपचाप अपने स्थान पर गया और अधीक्षक की तरफ देखने लगा, अधीक्षक ने एक हाथ में बंधी घड़ी देखते हुए दूसरे हाथ से रुमाल हिला इशारा किया, तुरंत ही उसने लीवर खींच लिया। अंग्रेजों के मुजरिम के पैरों के नीचे से तख्ता हट गया, कुछ मिनट शरीर तड़पा और फिर शांत पड़ गया। वह देखता रहा, चिकित्सक द्वारा मृत शरीर की जाँच की गयी और फिर  सब कक्ष से बाहर निकलने लगे।

वह भी थके क़दमों से नीचे उतरा, लेकिन अधिक चल नहीं पाया। तख्ते के सामने रखी कुर्सी और मेज का सहारा लेकर खड़ा हो गया।

कुछ क्षणों बाद उसने आँखें घुमा कर कमरे के चारों तरफ देखना शुरू किया, कमरा भी फांसी के फंदे की तरह खाली हो चुका था। उसने फंदे की तरफ देखा और फफकते हुए अपने पेट पर हाथ मारकर चिल्लाया,

"भारत माता की जय... माता की जय... मर जा तू जल्लाद!"

लेकिन उस की आवाज़ फंदे तक पहुँच कर दम तोड़ रही थी।
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सोमवार, 20 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: मेरी याद । लेखन व वाचन: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी



रोज़ की तरह ही वह बूढा व्यक्ति किताबों की दुकान पर आया, आज के सारे समाचार पत्र खरीदे और वहीँ बाहर बैठ कर उन्हें एक-एक कर पढने लगा, हर समाचार पत्र को पांच-छः मिनट देखता फिर निराशा से रख देता।

आज दुकानदार के बेटे से रहा नहीं गया, उसने जिज्ञासावश उनसे पूछ लिया, "आप ये रोज़ क्या देखते हैं?"

"दो साल हो गए... अख़बार में मेरी फोटो ढूंढ रहा हूँ...." बूढ़े व्यक्ति ने निराशा भरे स्वर में उत्तर दिया।

यह सुनकर दुकानदार के बेटे को हंसी आ गयी, उसने किसी तरह अपनी हंसी को रोका और व्यंग्यात्मक स्वर में पूछा, "आपकी फोटो अख़बार में कहाँ छपेगी?"

"गुमशुदा की तलाश में..." कहते हुए उस बूढ़े ने अगला समाचार-पत्र उठा लिया। 
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चित्र: साभार गूगल

रविवार, 19 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: असगर वजाहत की लघुकथाएं | वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी



असग़र वजाहत जी का जन्म 5 जुलाई 1946 को फतेहपुर, उत्तर प्रदेश में हुआ था। उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम॰ए॰ की और फिर वहीं से पी-एच॰डी॰ की उपाधि भी अर्जित की। पोस्ट डॉक्टोरल रिसर्च JNU, दिल्ली से किया।

असग़र वजाहत साहब हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कहानीकार एवं सिद्धहस्त नाटककार के रूप में मान्य हैं। आपने कहानी, लघुकथा, नाटक, उपन्यास, यात्रा-वृत्तांत, फिल्म तथा चित्रकला आदि विभिन्न क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण रचनात्मक योगदान किया है। असग़र साहब दिल्ली स्थित जामिया मिलिया इस्लामिया में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके हैं।

खाल बदलने पर असग़र वजाहत की दो लघुकथाएं।

1)

बंदर / असग़र वजाहत


एक दिन एक बंदर ने एक आदमी से कहा– “भाई, करोड़ों साल पहले तुम भी बंदर थे। क्यों न आज एक दिन के लिए तुम फिर बंदर बनकर देखो।”

यह सुनकर पहले तो आदमी चकराया, फिर बोला– “चलो ठीक है। एक दिन के लिए मैं बंदर बन जाता हूँ।”

बंदर बोला– “तो तुम अपनी खाल मुझे दे दो। मैं एक दिन के लिए आदमी बन जाता हूँ।” इस पर आदमी तैयार हो गया।

आदमी पेड़ पर चढ़ गया और बंदर ऑफिस चला गया। शाम को बंदर आया और बोला– “भाई, मेरी खाल मुझे लौटा दो। मैं भर पाया।”

आदमी ने कहा– “हज़ारों-लाखों साल मैं आदमी रहा। कुछ सौ साल तो तुम भी रहकर देखो।”

बंदर रोने लगा– “भाई, इतना अत्याचार न करो।” पर आदमी तैयार नहीं हुआ। वह पेड़ की एक डाल से दूसरी, फिर दूसरी से तीसरी, फिर चौथी पर जा पहुँचा और नज़रों से ओझल हो गया। विवश होकर बंदर लौट आया।

और तब से हक़ीक़त में आदमी बंदर है और बंदर आदमी।
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2)

राजा / असग़र वजाहत

उन दिनों शेर और लोमड़ी दोनों का धंधा मंदा पड़ गया था। लोमड़ी किसी से चिकनी-चुपड़ी बातें करती तो लोग समझ जाते कि दाल में कुछ काला है। शेर दहाड़कर किसी जानवर को बुलाता तो वह जल्दी से अपने घर में घुस जाता। ऐसे हालात से तंग आकर एक दिन लोमड़ी और शेर ने सोचा कि आपस में खालें बदल लें। शेर ने लोमड़ी की खाल पहन ली और लोमड़ी ने शेर की खाल।

अब शेर को लोग लोमड़ी समझते और लोमड़ी को शेर। शेर के पास छोटे-मोटे जानवर अपने आप चले आते और शेर उन्हें गड़प जाता।

लोमड़ी को देखकर लोग भागते तो वह चिल्लाती ‘अरे सुनो भाई. . .अरे इधर आना लालाजी. . .बात तो सुनो पंडितजी!’ शेर का यह रंग-ढंग देखकर लोग समझे कि शेर ने कंठी ले ली है। वे शेर, यानी लोमड़ी के पास आ जाते। शेर उनसे मीठी-मीठी बातें करता और बड़े प्यार से गुड़ और घी मांगता। लोग दे देते। खुश होते कि चलो सस्ते छूटे।

एक दिन शेर लोमड़ी के पास आया और बोला, ‘मुझे अपना दरबार करना है। तुम मेरी खाल मुझे वापस कर दो। मैं लोमड़ी की खाल में दरबार कैसे कर सकता हूं?’ लोमड़ी ने उससे कहा, ‘ठीक है, तुम परसों आना।’ शेर चला गया।

लोमड़ी बड़ी चालाक थी। वह अगले ही दिन दरबार में चली गई। सिंहासन पर बैठ गई। राजा बन गई।

दोस्तो, यह कहानी बहुत पुरानी है। आज जो जंगल के राजा हैं वे दरअसल उसी लोमड़ी की संतानें हैं, जो शेर की खाल पहनकर राजा बन गई थी।
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चित्रः साभार गूगल

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: राष्ट्र का सेवक | लेखन:मुंशी प्रेमचन्द | वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


राष्ट्र के सेवक ने कहा- देश की मुक्ति का एक ही उपाय है और वह है नीचों के साथ भाईचारे का सलूक, पतितों के साथ बराबरी का बर्ताव। दुनिया में सभी भाई हैं, कोई नीच नहीं, कोई ऊँच नहीं।
दुनिया ने जय-जयकार की - कितनी विशाल दृष्टि है, कितना भावुक हदय!
उसकी सुन्दर लड़की इन्दिरा ने सुना और चिन्ता के सागर में डूब गई।
राष्ट्र के सेवक ने नीची जाति के नौजवान को गले लगाया।
दुनिया ने कहा- यह फरिश्ता है, पैगम्बर है, राष्ट्र की नैया का खेवैया है।
इन्दिरा ने देखा और उसका चेहरा चमकने लगा।
राष्ट्र का सेवक नीची जाति के नौजवान को मन्दिर में ले गया, देवता के दर्शन कराए और कहा - हमारा देवता गरीबी में है, ज़िल्लत में है, पस्ती में है।
दुनिया ने कहा- कैसे शुद्ध अन्त:करण का आदमी है! कैसा ज्ञानी!
इन्दिरा ने देखा और मुस्कराई।
इन्दिरा राष्ट्र के सेवक के पास जाकर बोली- श्रद्धेय पिताजी, मैं मोहन से ब्याह करना चाहती हूँ।
राष्ट्र के सेवक ने प्यार की नज़रों से देखकर पूछ- मोहन कौन है?
इन्दिरा ने उत्साह भरे स्वर में कहा- मोहन वही नौजवान है, जिसे आपने गले लगाया, जिसे आप मन्दिर में ले गए, जो सच्चा, बहादुर और नेक है।
राष्ट्र के सेवक ने प्रलय की आंखों से उसकी ओर देखा और मुँह फेर लिया।
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चित्र: साभार गूगल।



गुरुवार, 16 अप्रैल 2020

"हिन्दी-लघुकथा का उद्भव और विकास" | विभा रानी श्रीवास्तव


“हाइकु की तरह अनुभव के एक क्षण को वर्तमान काल में दर्शाया गया चित्र लघुकथा है।”

यों तो किसी भी विधा को ठीक-ठीक परिभाषित करना कठिन ही नहीं लगभग असंभव होता है, कारण साहित्य गणित नहीं है, जिसकी परिभाषाएं, सूत्र आदि स्थायी होते हैं। साहित्य की विधाओं को परिभाषा स्वरूप दी गयी टिप्पणियों से विधा के अनुशासन तक पहुँचा जा सकता है किन्तु उसे उसके स्वरूप के अनुसार हू-ब-हू परिभाषित नहीं किया जा सकता। लघुकथा भी इस तथ्य से भिन्न नहीं है।
          इसका कारण यह है कि साहित्य की कोई भी विधा हो समयानुसार उसमें परिवर्त्तन होते रहते हैं, यह परिवर्तन विधा के प्रत्येक पक्ष के स्तर पर होते हैं। लघुकथा की भी यही स्थिति है। फिर भी लघुकथा के अनुशासन तक पहुँचने हेतु अनेक विद्वानों ने इसे परिभाषित करने का सद्प्रयास किया है जिनमें सर्वप्रथम इसे परिभाषित करने का प्रयास किया वह हैं बुद्धिनाथ झा 'कैरव'  जिन्होंने अपनी पुस्तक 'साहित्य साधना की पृष्ठभूमि' के पृष्ठ 267 पर न मात्र 'लघुकथा' शब्द का प्रयोग किया अपितु उसे इस प्रकार परिभाषित भी किया,- "संभवत: लघुकथा शब्द अंग्रेजी के 'शॉट स्टोरी' शब्द का अनुवाद है। 'लघुकथा' और कहानी में कोई तात्विक अंतर नहीं है। यह लम्बी कहानी का संक्षिप्त रूप नहीं है। लघुकथा का विकास दृष्टान्तों के रूप में हुआ। ऐसे दृष्टान्त नैतिक और धार्मिक क्षेत्रों से प्राप्त हुए। 'ईसप की कहानियों', 'पंचतंत्र की कथाएँ', 'महाभारत', 'बाइबिल' जातक आदि कथाएं इसी के रूप में हैं।“
                आधुनिक कहानी के संदर्भ में 'लघुकथा' का अपना स्वतंत्र महत्त्व एवं अस्तित्व है। जीवन की उत्तरोत्तर द्रुतगामिता और संघर्ष के फलस्वरूप इसकी अभिव्यक्ति की संक्षिप्तता ने आज कहानी के क्षेत्र में लघुकथाओं को अत्यधिक प्रगति दी है। रचना और दृष्टि से लघुकथा में भावनाओं का उतना महत्त्व नहीं है।
     1958 ई. में लक्ष्मीनारायण लाल ने बुद्धिनाथ झा 'कैरव' द्वारा दी गई लघुकथा की परिभाषा को ही लगभग हू-ब-हू हिन्दी साहित्य-कोश(भाग-1) पृष्ठ 740 पर उतार दिया था। यहाँ यह बताना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि 'लघुकथा' नाम 'छोटी कहानी', 'मिनी कहानी', 'लघु कहानी' आदि नामों के बाद ही रूढ़ हुआ। लघुकथा को यों तो शब्दकोश के अनुसार स्टोरिएट (storiette) एवं उर्दू में 'अफसांचा' कहा जाता है। किन्तु ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी, लंदन में डॉ. इला ओलेरिया शर्मा द्वारा प्रस्तुत शोध प्रबंध 'द लघुकथा ए हिस्टोरिकल एंड लिटरेरी एनालायसिस ऑफ ए मॉर्डन हिन्दी पोजजेनर'(he Laghukatha , A Historical and Literary Analysis of a modern Hindi Prose Genre') में उन्होंने लघुकथा को storiette न लिखकर 'लघुकथा' (Laghukatha) ही लिखा है। अतः हमें यह मान लेने में अब कोई असुविधा नहीं है कि जिसे हम लघुकथा कहते हैं वह अंग्रेजी में लघुकथा ही है और storiette से मतलब छोटी कहानी आदि हो सकता है। खैर...
              लघुकथा को यों तो अनेक लेखकों ने अपने-अपने ढंग से परिभाषित करने का प्रयास किया है किन्तु मैं जिन परिभाषाओं को वर्त्तमान लघुकथा के करीब पाती हूँ उन्हें यहाँ उद्धृत करना चाहती हूँ–
पृथ्वीराज अरोड़ा के शब्दों में–"प्रामाणिक अनुभूतियों पर आधारित किसी एक क्षण को सुगठित आकार के माध्यम से लिपिबद्ध किया गया प्रारूप लघुकथा है।"डॉ. माहेश्वर के शब्दों में,–"दरअसल कम–से–कम शब्दों में काफी पुरअसर ढंग से जिंदगी का एक तीखा सच कथा में ढाल दिया जाये तो वह लघुकथा कहलाएगी।"
दिनेशचन्द्र दुबे के शब्दों में,–"जिए हुए क्षण के किसी टुकड़े को उसी प्रकार शब्दों के टुकड़े–भर में प्राण दे–देना लघुकथा है।"विक्रम सोनी के शब्दों में,–"जीवन का सही मूल्य स्थापित करने के लिए व्यक्ति और उसका परिवेश, युगबोध को लेकर कम-से–कम और स्पष्ट सारगर्भित शब्दों में असरदार ढंग से कहने की विधा का नाम लघुकथा है।"
रामलखन सिंह के शब्दों में,–"अनुभव प्रायः घनीभूत होकर ही आते हैं और बिना पिघलाएं(डाइल्यूट किये) कहना लघुकथा है।"
वेद हिमांशु के शब्दों में,–"एक क्षण की आणविक मनःस्थिति को शाब्दिक सांकेतिकता द्वारा जो अभिव्यक्ति दी जाती है तथा जिंदगी के व्यापक कैनवास को रेखांकित करती है–लघुकथा है।"
डॉ. सतीशराज पुष्करणा के शब्दों में,–"समाज में व्याप्त विसंगतियों में किसी विसंगति को लेकर सांकेतिक भाषा-शैली में चलने वाला सारगर्भित प्रभावशाली एवं सशक्त कथ्य जब झकझोर/छटपटा देने आलू लघु आकारीय कथात्मक रचना का आकार धारण कर लेता है, तो लघुकथा कहलाता है।"  ये सारी परिभाषाएं मेरी दृष्टि से लघुकथा क्या है? तक पहुँचाने में पर्याप्त सहायक हैं। इन परिभाषाओं के माध्यम से हम लघुकथा को पहचान सकते हैं।
     अब प्रश्न उठता है कि लघुकथा का उद्भव कहाँ से माना जाए? अबतक हुए शोधों के आधार पर मैं यह कह पाने में स्वयं को सक्षम पाती हूँ कि,–"1874 ई० बिहार के सर्वप्रथम हिन्दी साप्ताहिक पत्र 'बिहार-बन्धु' में कतिपय उपदेशात्मक लघुकथाओं का प्रकाशन हुआ था। इन लघुकथाओं के लेखक मुंशी हसन अली के जो बिहार के प्रथम हिन्दी पत्रकार थे।"(डॉ. राम निरंजन परिमलेन्दु, बिहार के स्वतंत्रता–पूर्व हिन्दी–कहानी–साहित्य, परिषद-पत्रिका, स्वर्ण जयंती अंक,वर्ष:50, अंक:1–4, अप्रैल 2010 से मार्च 2011, बिहार–राष्ट्रभाषा–परिषद, पटना-4, पृष्ठ 261)
     1875 ई० में भारतेंदु हरिश्चंद्र का लघुकथा–संग्रह परिहासिनी प्रकाश में आया इसके पश्चात तो फिर माखनलाल चतुर्वेदी, माधवराव सेप्ते, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, छबीलेलाल गोस्वामी, अयोध्या प्रसाद गोयलीय, कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, जगदीशचंद्र मिश्र, आनंदमोहन अवस्थी, जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, निराला, आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री, रामवृक्ष बेनीपुरी, यशपाल, विनोबा भावे, सुदर्शन, रामनारायण उपाध्याय, पाण्डेय बेचन शर्मा, उपेंद्रनाथ अश्क, भृंग तुपकरी, दिगम्बर झा, रामधारी सिंह 'दिनकर', शरद कुमार मिश्र 'शरद', हजारी प्रसाद द्विवेदी, हरिशंकर परसाई, रावी, श्यामानन्द शास्त्री, शांति मेहरोत्रा, शरद जोशी, विष्णु प्रभाकर, भवभूति मिश्र, रामेश्वरनाथ तिवारी, पूरन मुद्गल इत्यादि ने लघुकथा को अपने–अपने समय के सच को रेखांकित करते हुए लघुकथा को ठोस आधार दिया। इसके पश्चात् सातवें–आठवें दशक में डॉ. सतीश दुबे, डॉ. कृष्ण कमलेश, डॉ. शंकर पुणतांबेकर, भगीरथ, जगदीश, कश्यप, महावीर प्रसाद जैन, पृथ्वीराज अरोड़ा, रमेश बत्तरा, बलराम, डॉ. सतीशराज पुष्करणा, बलराम अग्रवाल, डॉ. कमल चोपड़ा, डॉ. शकुंतला किरण, विक्रम सोनी, सुकेश साहनी, अंजना अनिल, नीलम जैन, सतीश राठी, मधुदीप, मधुकांत, अनिल शूर, चित्रा मुद्गल, अशोक वर्मा, रामेश्वर काम्बोज हिमांशु, रूपदेवगुण, राजकुमार निजात, रामकुमार घोटड़, महेंद्र सिंह महलान, सुभाष नीरव इत्यादि ने इसे आधुनिक स्वरूप देकर साहित्य जगत् में समुचित प्रतिष्ठा दिलाते हुए विधिवत् विधा का स्थान दिलाया।
    लघुकथा के लिए आठवां दशक बहुत ही महत्त्वपूर्ण रहा है। इस दशक में अनेक पत्र-पत्रिकाओं ने अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया जिनमें सारिका, तारिका, शुभ तारिका, समग्र, वीणा, मिनियुग, प्रगतिशील समाज, नालंदा दर्पण, दीपशिखा, अंतयात्रा, कहानीकार, प्रयास, दीपशिखा लघुकथा, विवेकानंद बाल सन्देश इत्यादि प्रमुख हैं। इसी काल में 'गुफाओं से मैदान की ओर'(सं० भगीरथ एवं रमेश जैन), 'श्रेष्ठ लघुकथाएं'(सं० शंकर पुणतांबेकर’, ‘समान्तर लघुकथाएं'(सं०नरेंद्र मौर्य एवं नर्मदा प्रसाद उपाध्याय),'छोटी–बड़ी बातें'(सं०महावीर प्रसाद जैन एवं जगदीश कश्यप),'आठवें दशक की लघकथाएँ'(सं० सतीश दूबे), 'बिखरे संदर्भ'(सं० डॉ. सतीशराज पुष्करणा),'हालात','प्रतिवाद','अपवाद','आयुध','अपरोक्ष'(सं० कमल चोपड़ा),'हस्ताक्षर'(सं०शमीम शर्मा),'आतंक(सं० नन्दल हितैषी एवं धीरेनु शर्मा)','लघुकथा:दशा और दिशा(सं० डॉ. कृष्ण कमलेश एवं अरविंद)' इत्यादि ने लघुकथा को साहित्य-जगत् विधा के रूप में न मात्र स्थापित कर दिया अपितु इसे पाठकों के मध्य लोकप्रिय बनाने में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।इसके पश्चात 'मानचित्र', 'छोटे-छोटे सबूत', 'पत्थर से पत्थर तक', 'लावा(विक्रम सोनी)", 'चीखते स्वर(नरेंद्र प्रसाद'नवीन')', 'लघुकथा : सृजन एवं मूल्यांकन(कृष्णानन्द कृष्ण)', 'काशें', 'अक्स-दर-अक्स', 'आज के प्रतिबिंब', 'प्रत्यक्ष', 'हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ लघुकथाएं', 'तत्पश्चात', 'मंटो और उनकी लघुकथाएं', 'बिहार की हिन्दी लघुकथाएं', 'बिहार की प्रतिनिधि हिन्दी लघुकथाएं', 'कथादेश', 'दिशाएं', 'आठ कोस की यात्रा', 'तनी हुई मुट्ठियाँ', 'पड़ाव और पड़ताल के 30 खंड(सं० मधुदीप), 'जिंदगी के आस-पास एवं पतझड़ के बाद(सं० राजेन्द्र मोहन त्रिवेदी 'बन्धु')', 'कल के लिए(सं० मिथलेश कुमारी मिश्र)', 'नई धमक(मधुदीप)', 'नई सदी की लघुकथाएं(अनिल शुर)', 'किरचों की वीची:वक़्त की उलीची(सं० डॉ. सतीशराज पुष्करणा)', 'अभिव्यक्ति के स्वर, खण्ड-खण्ड जिंदगी, यथार्थ सृजन, मुट्ठी में आकाश:सृष्टि में प्रकाश(सं० विभा रानी श्रीवास्तव)' इत्यादि असंख्य संकलनों ने तथा रवि यादव(रेवाड़ी/हरियाणा) द्वारा अन्य लेखकों की लघुकथा का पाठ करना लघुकथा के विकास में सहायक हुआ है। लघुकथा में एकल संग्रह भी असंख्य लोगों के आ चुके हैं इनमें प्रमुख रूप से डॉ. सतीश दुबे, भगीरथ, बलराम, मधुदीप, डॉ. सतीशराज पुष्करणा, बलराम अग्रवाल, कमल चोपड़ा, जगदीश कश्यप, विक्रम सोनी, पारस दासोत, मधुकांत, राजेन्द्र मोहन त्रिवेदी 'बन्धु', डॉ. मिथलेश कुमारी मिश्र, कमलेश भारतीय, सतीश राठी, विक्रम सोनी, डॉ. स्वर्ण किरण, सिद्धेश्वर, तारिक असलम 'तस्लीम', अतुल मोहन प्रसाद, सुकेश साहनी, रूपदेव गुण, शील कौशिक, राजकुमार निजात, रामेश्वर काम्बोज हिमांशु, प्रबोध कुमार गोविल, डॉ. रामकुमार घोटड़, अनिल शूर इत्यादि अन्य अनेक का नाम सगर्व लिया जा सकता है। इनके अतिरिक्त लघुकथा कलश, लघुकथा डॉट कॉम, संरचना, दृष्टि, क्षितिज, ललकार, लकीरें, काशें, पुनः, सानुबन्ध, दिशा, व्योम, कथाबिम्ब, भागीरथी, अंचल, भारती, गंगा, आगमन, राही, साहित्यकार, क्रांतिमन्यु, पल-प्रतिपल आदि सैकड़ों पत्रिकाओं ने भी लघुकथा के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है।  लघुकथा के विकास हेतु डॉ. शकुंतला किरण, शमीम शर्मा, डॉ. मंजू पाठक, डॉ. ईश्वरचंद्र, डॉ. अमरनाथ चौधरी 'अब्ज' शंकर लाल, डॉ. सीताराम प्रसाद आदि ने शोध प्रबंध लिखकर पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की है। लघुकथा विकास में अन्य जिन माध्यमों का योगदान रहा है उनमें सम्मेलनों एवं गोष्ठियों का बहुत महत्त्व है। लघुकथा-सम्मेलनों एवं गोष्ठियों में पटना, फतुहा, गया, धनबाद, बोकारो, राँची, सिरसा, दिल्ली, इंदौर, बरेली, जलगाँव, होशंगाबाद, नारनौल, हिसार, जबलपुर इत्यादि के योगदान को भी विस्मृत नहीं किया जा सकता। लघुकथा पोस्टर प्रदर्शनियों के माध्यम से सिद्धेश्वर, सुरेश जांगिड़ उदय इत्यादि लोगों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। इनके द्वारा पटना, धनबाद, राँची, लखनऊ, कैथल इत्यादि नगरों में लघुकथा पोस्टर प्रदर्शनियों लग चुकी हैं। पटना, राँची, धनबाद, सिरसा,इंदौर में लघुकथा–मंचन भी हुए हैं। लघुकथा प्रतियोगिताओं एवं अनुवाद द्वारा भी सार्थक कार्य हुए हैं। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन भी इस कार्य में पीछे नहीं रहे हैं। साक्षात्कारों–परिचर्चाओं द्वारा भी उल्लेखनीय कार्य हुए हैं।लघुकथा में समीक्षात्मक–आलोचनात्मक कार्य को जिनलोगों ने बल दिया है उनमें मधुदीप, डॉ. सतीशराज पुष्करणा, रामेश्वर काम्बोज हिमांशु, जितेंद्र जीतू, डॉ. ध्रुव कुमार, डॉ. मिथलेश कुमारी मिश्र, डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा, सुकेश साहनी, योगराज प्रभाकर, रवि प्रभाकर, बलराम अग्रवाल, सतीश दुबे, डॉ. शंकर पुणतांबेकर, रमेश बतरा, जगदीश कश्यप, कमल चोपड़ा, राधिका रमण अभिलाषी, निशान्तर, डॉ. वेद प्रकाश जुनेजा, विक्रम सोनी, राजेन्द्र मोहन त्रिवेदी 'बन्धु', प्रो. निशांत केतु, डॉ. स्वर्ण किरण इत्यादि प्रमुख हैं। पड़ाव और पड़ताल के तीस खंडों में अनेक नए आलोचक भी सामने आये हैं। अनेक राज्यों में जिनमें बिहार भी की सरकारों द्वारा लघुकथा के योगदान हेतु सम्मान एवं पुरस्कार भी दिए जाते हैं। इस कार्य में देशभर में सक्रिय अनेक संस्थाएं भी सोत्साह अपने दायित्व का निर्वाह कर रही हैं। बिहार, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, गुजरात संग कुछ और राज्यों की पाठ्य-पुस्तकों में भी लघुकथाएं शामिल हैं। लघुकथा–जगत् में आयी नयी पीढ़ी जिनमें गणेश जी बागी, संदीप तोमर, संध्या तिवारी, कल्पना भट्ट, सरिता रानी, रानी कुमारी, वीरेंद्र भारद्वाज, आलोक चोपड़ा, पुष्पा जमुआर, कांता राय, कमल कपूर, अंजू दुआ जैमिनी, अनिता ललित, अंतरा करवड़े, अशोक दर्द, आकांक्षा यादव, आरती स्मित, इंदु गुप्ता, डॉ. लता अग्रवाल, उमेश महादोषी, उषा अग्रवाल 'पारस', ओम प्रकाश क्षत्रिय 'प्रकाश', कपिल शास्त्री, ज्योत्स्ना कपिल, कृष्ण कुमार यादव, चंद्रेश कुमार छतलानी, जगदीश राय कुलरियाँ, जितेंद्र जीतू, ज्योति जैन, त्रिलोक सिंह ठकुरेला, दीपक मशाल, डॉ. नीरज शर्मा सुधांशु, नीलिमा शर्मा निविया, पंकज जोशी, पवित्रा अग्रवाल, पवन जैन, पूनम डोगरा, पूरन सिंह, मधु जैन, महावीर रँवाल्टा, माला वर्मा, मुन्नू लाल, राधेश्याम भारतीय, वीरेंद्र 'वीर' मेहता, शशि बंसल, शेख शहज़ाद उस्मानी, शोभा रस्तोगी, मृणाल आशुतोष, कुमार गौरव, सन्तोष सुपेकर, सीमा जैन, सुधीर द्विवेदी, सीमा सिंह, स्वाति तिवारी, पूर्णिमा शर्मा, मंजू शर्मा, दिव्या राकेश शर्मा, विभा रानी श्रीवास्तव इत्यादि प्रमुख हैं। इस पीढ़ी में अनन्त संभावनाएं हैं। मुझे विश्वास है यह पीढ़ी अपने से पूर्व पीढ़ी के कार्यों को पूरी त्वरा से आगे ले जाएगी। यह पीढ़ी भी लघुकथा के हर उस पक्ष में कार्य करेगी जिससे लघुकथा का विकास उत्तरोत्तर पूरी त्वरा से होता जाएगा।

 - विभा रानी श्रीवास्तव

Original Source:
https://vranishrivastava1.blogspot.com/2020/04/blog-post_12.html

मंगलवार, 14 अप्रैल 2020

लघुकथा: मानव-मूल्य | लेखन व वाचनः डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी


वह चित्रकार अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति को निहार रहा था। चित्र में गांधीजी के तीनों बंदरों  को विकासवाद के सिद्दांत के अनुसार बढ़ते क्रम में मानव बनाकर दिखाया गया था।

उसके एक मित्र ने कक्ष में प्रवेश किया और चित्रकार को उस चित्र को निहारते देख उत्सुकता से पूछा, "यह क्या बनाया है?"

चित्रकार ने मित्र का मुस्कुरा कर स्वागत किया फिर ठंडे, गर्वमिश्रित और दार्शनिक स्वर में उत्तर दिया, "इस तस्वीर में ये तीनों प्रकृति के साथ विकास करते हुए बंदर से इंसान बन गये हैं, अब इनमें इंसानों जैसी बुद्धि आ गयी है। ‘कहाँ’ चुप रहना है, ‘क्या’ नहीं सुनना है और ‘क्या’ नहीं देखना है, यह समझ आ गयी है। अच्छाई और बुराई की परख - पूर्वज बंदरों को ‘इस अदरक’ का स्वाद कहाँ मालूम था?"

आँखें बंद कर कहते हुए चित्रकार की आवाज़ में बात के अंत तक दार्शनिकता और बढ़ गयी थी।

"ओह! लेकिन तस्वीर में इन इंसानों की जेब कहाँ है?" मित्र की आवाज़ में आत्मविश्वास था।

चित्रकार हौले से चौंका, थोड़ी सी गर्दन घुमा कर अपने मित्र की तरफ देखा और पूछा, "क्यों...? जेब किसलिए?"

मित्र ने उत्तर दिया,
"ये केवल तभी बुरा नहीं देखेंगे, बुरा नहीं कहेंगे और बुरा नहीं सुनेगे जब इनकी जेबें भरी रहेंगी। इंसान हैं बंदर नहीं..."
-०-

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
   9928544749
   chandresh.chhatlani@gmail.com
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चित्र: साभार गूगल

सोमवार, 13 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: गुलाम अधिनायक । लेखन व वाचन: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी




उसके हाथ में एक किताब थी, जिसका शीर्षक ‘संविधान’ था और उसके पहले पन्ने पर लिखा था कि वह इस राज्य का राजा है। यह पढने के बावजूद भी वह सालों से चुपचाप चल रहा था। उस पूरे राज्य में बहुत सारे स्वयं को राजा मानने वाले व्यक्ति भी चुपचाप चल रहे थे। किसी पुराने वीर राजा की तरह उन सभी की पीठ पर एक-एक बेताल लदा हुआ था। उस बेताल को उस राज्य के सिंहासन पर बैठने वाले सेवकों ने लादा था। ‘आश्वासन’ नाम के उस बेताल के कारण ही वे सभी चुप रहते।  वह बेताल वक्त-बेवक्त सभी से कहता था कि, “तुम लोगों को किसी बात की कमी नहीं ‘होगी’, तुम धनवान ‘बनोगे’। तुम्हें जिसने आज़ाद करवाया है वह कहता था – कभी बुरा मत कहो। इसी बात को याद रखो। यदि तुम कुछ बुरा कहोगे तो मैं, तुम्हारा स्वर्णिम भविष्य, उड़ कर चला जाऊँगा।” बेतालों के इस शोर के बीच जिज्ञासावश उसने पहली बार हाथ में पकड़ी किताब का दूसरा पन्ना पढ़ा। उसमें लिखा था – ‘तुम्हें कहने का अधिकार है’। यह पढ़ते ही उसने आँखें तरेर कर पीछे लटके बेताल को देखा। उसकी आँखों को देखते ही आश्वासन का वह बेताल उड़ गया। उसी समय पता नहीं कहाँ से एक खाकी वर्दीधारी बाज आया और चोंच चबाते हुए उससे बोला, “साधारण व्यक्ति, तुम क्या समझते हो कि इस युग में कोई बेताल तुम्हारे बोलने का इंतज़ार करेगा?” और बाज उसके मुंह में घुस कर उसके कंठ को काट कर खा गया। फिर एक डकार ले राष्ट्रसेवकों के राजसिंहासन की तरफ उड़ गया। -०- चित्र: साभार गूगल

रविवार, 12 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: नीरव प्रतिध्वनि । लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी



हॉल तालियों से गूँज उठा, सर्कस में निशानेबाज की बन्दूक से निकली पहली ही गोली ने सामने टंगे खिलौनों में से एक खिलौना बतख को उड़ा दिया था। अब उसने दूसरे निशाने की तरफ इशारा कर उसकी तरफ बन्दूक उठाई। तभी एक जोकर उसके और निशानों के बीच सीना तान कर खड़ा हो गया।   निशानेबाज उसे देख कर तिरस्कारपूर्वक बोला, "हट जा।" जोकर ने नहीं की मुद्रा में सिर हिला दिया। निशानेबाज ने क्रोध दर्शाते हुए बन्दूक उठाई और जोकर की टोपी उड़ा दी। लेकिन जोकर बिना डरे अपनी जेब में से एक सेव निकाल कर अपने सिर पर रख कर बोला “मेरा सिर खाली नहीं रहेगा।” निशानेबाज ने अगली गोली से वह सेव भी उड़ा दिया और पूछा, "सामने से हट क्यों नहीं रहा है?" जोकर ने उत्तर दिया, "क्योंकि... मैं तुझसे बड़ा निशानेबाज हूँ।" "कैसे?" निशानेबाज ने चौंक कर पूछा तो हॉल में दर्शक भी उत्सुकतावश चुप हो गए। “इसकी वजह से...” कहकर जोकर ने अपनी कमीज़ के अंदर हाथ डाला और एक छोटी सी थाली निकाल कर दिखाई। यह देख निशानेबाज जोर-जोर से हँसने लगा। लेकिन जोकर उस थाली को दर्शकों को दिखा कर बोला, “मेरा निशाना देखना चाहते हो... देखो...”  कहकर उसने उस थाली को ऊपर हवा में फैंक दिया और बहुत फुर्ती से अपनी जेब से एक रिवाल्वर निकाल कर उड़ती थाली पर निशाना लगाया। गोली सीधी थाली से जा टकराई जिससे पूरे हॉल में तेज़ आवाज़ हुई – ‘टन्न्न्नन्न.....’ गोली नकली थी इसलिए थाली सही-सलामत नीचे गिरी। निशानेबाज को हैरत में देख जोकर थाली उठाकर एक छोटा-ठहाका लगाते हुए बोला, “मेरा निशाना चूक नहीं सकता... क्योंकि ये खाली थाली मेरे बच्चों की है...” हॉल में फिर तालियाँ बज उठीं, लेकिन बहुत सारे दर्शक चुप भी थे उनके कानों में “टन्न्न्नन्न” की आवाज़ अभी तक गूँज रही थी। -०- चित्र: साभार गूगल

शनिवार, 11 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: भटकना बेहतर । लेखन व वचन: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी



कितने ही सालों से भटकती उस रूह ने देखा कि लगभग नौ-दस साल की बच्ची की एक रूह पेड़ के पीछे छिपकर सिसक रही है। उस छोटी सी रूह को यूं रोते देख वह चौंकी और उसके पास जाकर पूछा, "क्यूँ रो रही हो?"
वह छोटी रूह सुबकते हुए बोली, "कोई मेरी बात नहीं सुन पा रहा है… मुझे देख भी नहीं पा रहा। कल से ममा-पापा दोनों बहुत रो रहे हैं… मैं उन्हें चुप भी नहीं करवा पा रही।"
वह रूह समझ गयी कि इस बच्ची की मृत्यु हाल ही में हुई है। उसने उस छोटी रूह से प्यार से कहा, "वे अब तुम्हारी आवाज़ नहीं सुन पाएंगे ना ही देख पाएंगे। तुम्हारा शरीर अब खत्म हो गया है।"
"मतलब मैं मर गयी हूँ!" छोटी रूह आश्चर्य से बोली।
"हाँ। अब तुम्हारा दूसरा जन्म होगा।"
"कब होगा?" छोटी रूह ने उत्सुकता से पूछा।
"पता नहीं...जब ईश्वर चाहेगा तब।"
"आपका…  दूसरा जन्म कब..." तब तक छोटी रूह समझ गयी थी कि वह जिससे बात कर रही है वो भी एक रूह ही है।
"नहीं!! मैं नहीं होने दूंगी अपना कोई जन्म।" सुनते ही रूह उसकी बात काटते हुए तीव्र स्वर में बोली।
"क्यूँ?" छोटी रूह ने डर और आश्चर्यमिश्रित स्वर में पूछा।
"मुझे दहेज के दानवों ने जला दिया था। अब कोई जन्म नहीं लूंगी, रूह ही रहूंगी क्यूंकि रूहों को कोई जला नहीं सकता।" वह रूह अपनी मौत के बारे में कहते हुए सिहर गयी थी।
"फिर मैं भी कभी जन्म नहीं लूँगी।"
"क्यूँ?"
छोटी रूह ने भी सिहरते हुए कहा,
"क्यूंकि रूहों के साथ कोई बलात्कार भी नहीं कर सकता।"
-0-

चित्र: साभार गूगल

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: पश्चाताप । लेखन व वाचन: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी



उसका दर्द बहुत कम हो गया, इतनी शांति उसने पूरे जीवन में कभी अनुभव नहीं की थी। रक्त का प्रवाह थम गया था। मस्तिष्क से निकलती जीवन की सारी स्मृति एक-एक कर उसके सामने दृश्यमान हो रही थी और क्षण भर में अदृश्य हो रही थी। वह समझ गया कि मृत्यु निकट ही है।

वह जीना चाह कर भी आँखें नहीं खोल पा रहा था। असहनीय दर्द से उसे छुटकारा जो मिल रहा था।

अचानक एक स्मृति उसकी आँखों के समक्ष आ गयी, और वो हटने का नाम नहीं ले रही थी। मृत्यु एकदम से दूर हो गयी, वो विचलित हो उठा। उसकी आँखों में स्पंदन होने लगा, एक क्षण को लगा कि आँसूं आयेंगे, लेकिन आँसू बचे कहाँ थे? मुंह से गहरी साँसें भरते हुए उसने उस विचार से दूर जाने के लिये धीरे-धीरे आँखें खोल दीं।

उसके सामने अब उसका बेटा और बहू खड़े थे। डॉक्टर ने बेटे को उसकी स्थिति के बारे में बता दिया था। उसकी आँखें खुलते ही बेटे के चेहरे पर संतोष के भाव आये, और उसके हाथ को अपने हाथ में लेकर कहा, "पापा, आपकी बहू माँ बनने वाली है।"

"मेरा... समय.. आ... गया है...!" उसने लड़खड़ाती धीमी आवाज़ में कहा।

"पापा आप वादा करो कि आप फिर हमारे पास आओगे...हमारे बेटे बनकर..." बेटे की आँखों से आँसू झरने लगे।

वह बहू की कोख देख कर मुस्कुराया, फिर बेटे को इशारे से बुला कर कहा, "तू भी... वादा कर ... मैं बेटे की जगह... बेटी बनकर आया... तो मुझे मार मत देना...!"

कहते ही उसके सीने से बोझ उतर गया। उसने फिर आँखें बंद कर लीं, अब उसे पत्नी की रक्तरंजित कोख दिखाई नहीं दे रही थी।
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- डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी, 9928544749, chandresh.chhatlani@gmail.com

चित्र: साभार गूगल

गुरुवार, 9 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: दायित्व-बोध । लेखन व वाचन: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी



दायित्व-बोध

पिता की मृत्यु के बारह दिन गुज़र गये थे, नाते-रिश्तेदार सभी लौट गये आखिरी रिश्तेदार को रेलवे स्टेशन तक छोड़कर आने के बाद, उसने घर का मुख्य द्वार खोला ही था कि उसके कानों में उसके पिता की कड़क आवाज़ गूंजी, "सड़क पार करते समय ध्यान क्यों नहीं देता है, गाड़ियाँ देखी हैं बाहर"

उसकी साँस गहरी हो गयी, लेकिन गहरी सांस दो-तीन बार उखड़ भी गयी पिता तो रहे नहीं, उसके कान ही बज रहे थे और केवल कान ही नहीं उसकी आँखों ने भी देखा कि मुख्य द्वार के बाहर वह स्वयं खड़ा था, जब वह बच्चा था जो डर के मारे कांप रहा था

वह थोड़ा और आगे बढ़ा, उसे फिर अपने पिता का तीक्ष्ण स्वर सुनाई दिया, "दरवाज़ा बंद क्या तेरे फ़रिश्ते करेंगे?"

उसने मुड़ कर देखा, वहां भी वह स्वयं ही खड़ा था, वह थोड़ा बड़ा हो चुका था, और मुंह बिगाड़ कर दरवाज़ा बंद कर रहा था

दो क्षणों बाद वह मुड़ा और चल पड़ा, कुछ कदम चलने के बाद फिर उसके कान पिता की तीखी आवाज़ से फिर गूंजे, "दिखाई नहीं देता नीचे पत्थर रखा है, गिर जाओगे"

अब उसने स्वयं को युवावस्था में देखा, जो तेज़ चलते-चलते आवाज़ सुनकर एकदम रुक गया था

अब वह घर के अंदर घुसा, वहां उसका पोता अकेला खेल रहा था, देखते ही जीवन में पहली बार उसकी आँखें क्रोध से भर गयीं और पहली ही बार वह तीक्ष्ण स्वर में बोला, "कहाँ गये सब लोग? कोई बच्चे का ध्यान नहीं रखता, छह महीने का बच्चा अकेला बैठा है"

और उसे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे उसके पैरों में उसके पिता के जूते हैं


- डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी

बुधवार, 8 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: खजाना । लेखन व वाचन: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी


पिता के अंतिम संस्कार के बाद शाम को दोनों बेटे घर के बाहर आंगन में अपने रिश्तेदारों और पड़ौसियों के साथ बैठे हुए थे। इतने में बड़े बेटे की पत्नी आई और उसने अपने पति के कान में कुछ कहा। बड़े बेटे ने अपने छोटे भाई की तरफ अर्थपूर्ण नजरों से देखकर अंदर आने का इशारा किया और खड़े होकर वहां बैठे लोगों से हाथ जोड़कर कहा, “अभी पांच मिनट में आते हैं”।

फिर दोनों भाई अंदर चले गये। अंदर जाते ही बड़े भाई ने फुसफुसा कर छोटे से कहा, "बक्से में देख लेते हैं, नहीं तो कोई हक़ जताने आ जाएगा।" छोटे ने भी सहमती में गर्दन हिलाई ।

पिता के कमरे में जाकर बड़े भाई की पत्नी ने अपने पति से कहा, "बक्सा निकाल लीजिये, मैं दरवाज़ा बंद कर देती हूँ।" और वह दरवाज़े की तरफ बढ़ गयी।

दोनों भाई पलंग के नीचे झुके और वहां रखे हुए बक्से को खींच कर बाहर निकाला। बड़े भाई की पत्नी ने अपने पल्लू में खौंसी हुई चाबी निकाली और अपने पति को दी।

बक्सा खुलते ही तीनों ने बड़ी उत्सुकता से बक्से में झाँका, अंदर चालीस-पचास किताबें रखी थीं। तीनों को सहसा विश्वास नहीं हुआ। बड़े भाई की पत्नी निराशा भरे स्वर में  बोली, "मुझे तो पूरा विश्वास था कि बाबूजी ने कभी अपनी दवाई तक के रुपये नहीं लिये, तो उनकी बचत के रुपये और गहने इसी बक्से में रखे होंगे, लेकिन इसमें तो....."

इतने में छोटे भाई ने देखा कि बक्से के कोने में किताबों के पास में एक कपड़े की थैली रखी हुई है, उसने उस थैली को बाहर निकाला। उसमें कुछ रुपये थे और साथ में एक कागज़। रुपये देखते ही उन तीनों के चेहरे पर जिज्ञासा आ गयी। छोटे भाई ने रुपये गिने और उसके बाद कागज़ को पढ़ा, उसमें लिखा था,

"मेरे अंतिम संस्कार का खर्च"
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सभी चित्र: साभार गूगल।

मंगलवार, 7 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: स्वाद । लेखक: सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा । वाचन: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी



लघुकथा: स्वाद / सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा वो जहां भी जाता , इंसानों के किसी भी समूह में बैठता या अपने कमरे में चुप बैठकर अपने आप से बातें करता तो उसे लोग आपस में लड़ते हुए दिखाई देते। फरेब, ईर्ष्या, द्वेष, बीमारियां,षड्यंत्रों और दंगों के बीच सुविधाओं की भूख और आपसी मारामारी के बीच, कई बार तो अपने आप से ही आगे निकलने की होड़। वह खीझ उठता कि हर कोई अपनी जिंदगी को खूबसूरत देखना चाहता है पर ख़ूबसूरती है कि रेगिस्तान में मायावी पानी की तरह दूर भागती फिरती है। यहां तक कि सरकारी खर्चे पर पल रहे पार्क या पहाड़ों की हरी-भरी घाटियों की प्राकृतिक छटा को भी आदमी ने बंदूकों की बारूद से निकली दुर्गंध या फिर अपनी ही गंदगी से भर दिया है। वो खीझ की हद तक खुद को उलझन में पाता कि ये ईश्वर भी क्या चीज है जो अपनी ही बनाई हुई दुनिया को शांति से नहीं रख पा रहा । क्या वो अपनी इस उद्दंड सृष्टि को देखकर संतुष्ट रह पाता होगा? और ऐसे हालात में भी अगर वो संतुष्ट रहता है तो निश्चय ही उसे किसी अच्छे रचनाकार का दर्जा नहीं दिया जाना चाहिए। न जाने क्यों लोग उसे पालनहार कह कर उसकी महिमा का बखान करते हैं। अपने आप में गुम हुई उसकी तंद्रा को अचानक दरवाजे पर पड़ी हल्की सी थाप ने भंग कर दिया। उसने उस थाप को अनसुना कर दिया और अपनी बनाई गुमशुदगी में फिर से खो गया। जिंदगी का बेमानीपन उसे जिंदगी का सच लगने लगा। उसके दिल की धड़कनो ने पाया कि हवा में घुली बारूद उसकी वाहिकाओं में उतरने को आतुर है। इसी बीच दरवाजे पर पड़ी पहले वाली हलकी थाप दुगुने आवेग से दरवाजे पर फिर से आ पड़ी। इस बार की थाप में किसी बच्चे का तोतलापन भी घुला था, " दलवाजा तोलो, नहीं तो हम भीद जायेंगें। हमाली मम्मा को बुखाल है, वो मल जाएगी।" इस तुतलाहट को वह नजरअंदाज नहीं कर पाया और उसने दरवाजा खोल दिया। सामने का दृश्य उसकी तंद्रा के लिए दर्द से अधिक डरावना था। अधूरी पौशाक से ढकी उस औरत के वक्ष से लिपटा दो-तीन साल का बच्चा भी बारिश की बूंदा-बांदी में भीग चुका था। उन दोनों की दयनीय आँखें बिना कुछ कहे कह रही थीं कि वो दोनों अनचाही बरसात से भीगे ही नहीं हैं, वे दोनों बिन बुलाई भूख से बिलबिला भी रहे हैं। अगर उन दोनों को, उनकी इन दोनों मुसीबतों से तुरंत निजात न मिली तो आज रात वे दोनों एक साथ दम तोड़ देंगें। अगले कुछ छणो में वे उसके कमरे के अंदर आ चुके थे और वह खुद, कुछ देर पहले की अपनी दुनिया से बाहर निकलने को मजबूर हो गया था। उसने उस माँ और उसके बच्चे के लिए पहले एक चारपाई, फिर एक बिछावन और फिर घर में रखे कपड़ों का इंतजाम किया। जब माँ-बेटे का दयनीय क्रंदन समाप्त हो गया और वे दोनों कुछ सामान्य हो गए तो उसने उन दोनों के लिए गर्म चाय और खाने का इंतजाम भी कर दिया। थोड़ी देर में, उसके दिए लिहाफ में सिमटकर वे दोनों लावारिस सो भी गए। फिर वो अकेला अपनी उसी कुर्सी पर जा कर बैठा जिस पर वह उन दोनों के आने से पहले बैठकर, जिंदगी के अनमनेपन से जूझ रहा था। उसे लगा, "जिंदगी में हर जगह वीरानी और रेगिस्तान का उजाड़ होता तो फिर इन दोनों के पास आज जिंदगी वापस कैसे आती? उसके पास अभी करने को, बहुत कुछ है, जो उसे करना चाहिए।" उसने अपने लिए एक कप चाय बनाई और उसे पीते हुए उसे, चीनी का भरपूर स्वाद आया। - सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा डी - श्याम पार्क एक्सटेंशन , साहिबाबाद - ( उत्तर प्रदेश ) 20 /03 /2020

सोमवार, 6 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: एक - दो - तीन | लेखिकाः मेरी बायल ओ'रीयली | वाचनः डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी । अनुवाद: भारतदर्शन पोर्टल




यूरोपेयन महायुद्ध की बात है।

बर्लिन-स्टेशन से मुसाफिरों से भरी रेलगाड़ी रेंगती हुई रवाना हुई। गाड़ी में औरतें, बच्चे, बूढ़े--सभी थे; पर कोई पूरा तन्दुरुस्त नज़र न आता था। एक डब्बे में, भूरे बालों वाला एक फौजी सिपाही एक अध-बूढ़ी स्त्री के पास बैठा था। स्त्री कमज़ोर और बीमार-सी नज़र आती थी। तेज़ चलती हुई गाड़ी के पहियों की किच-किच आवाज़ में मुसाफिरों ने सुना कि वह स्त्री रह-रहकर गिनती-सी गिन रही है--'एक-दो-तीन...'

शायद वह किसी गहरे विचार में मग्न थी। बीच-बीच में वह चुप हो जाती, और फिर वही--'एक - दो - तीन!'

सामने दो युवतियाँ बैठी थीं। उनसे रहा न गया, और वे खिलखिलाकर हँस पड़ीं। साथ ही इस वृद्धा के अजीब बरताव का वे आपस में मज़ाक उड़ाने लगीं।

इतने में एक बुजुर्ग आदमी ने उन्हें झिड़क दिया। कुछ देर के लिए सन्नाटा छा गया।

'एक-दो-तीन'- वृद्धा ने फिर कुछ बेसुध-सी हालत में कहा। युवतियाँ फिर भद्दे ढंग से हँस पड़ी।

भूरे बालों वाला सिपाही कुछ आगे की ओर झुका, और बोला--'श्रीमतीजी, यह सुनकर आपका खिलखिलाना शायद बन्द हो जाएगा कि जिसपर आप हँस रही हैं, वह मेरी स्त्री है। अभी हाल ही में हमारे तीन जवान बेटे लड़ाई में मारे गये हैं। मैं खुद भी लड़ाई पर जा रहा हूँ; लेकिन जाने के पहले उन बेटों की माँ को पागलखाने पहुँचा देना ज़रूरी है।

सहसा डब्बे में एक भयंकर सन्नाटा छा गया, जैसे सबकी छाती पर साँप लोट गया हो।

- मेरी बायल ओ'रीयली

रविवार, 5 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: अति का अंत । लेखक: 'नरेंद्र' नोहर सिंह ध्रुव । स्वर: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी



परलोक में सृष्टि के रचयिता, मनुष्यों के कृत्यों से काफ़ी परेशान थे।

रचयिता,पहले ही भू-लोक में महान हस्तियों के रूप में अवतरित होकर मनुष्यों को सही राह पर चलने की शिक्षा दे चुके थे, पर उन्हें निराशा ही हाथ लगी ।

उन्होंने अपने शिल्पकार को बुला कर कहा, " मनुष्यों ने अब बहुत अति कर ली है, जल्द ही इनके अति का अंत करना होगा। "

" पर मनुष्य तो आपको सबसे प्रिय हैं ना, फिर उनको..? ", शिल्पकार ने पूछा।

उसे उत्तर मिला,
" प्रिय तो मुझे वो जीव भी थे जिन्हें मनुष्य डायनासोर कहते हैं...।"

- 'नरेंद्र' नोहर सिंह ध्रुव