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बुधवार, 27 नवंबर 2019

लघुकथा: हथरेटी-चकारेटी | शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"लो, आज तुम जी भर के देख लो ये हथरेटी-चकारेटी वग़ैरह! इन्हीं से समझो कि क्या होती है चकरेटी, गुल्बी और छेन, कीला, पही!" 

"ये तो इनके और इनके सामानों के नाम हैं, हमें तो इनकी कलाकारी देखनी है!" नेताजी की बात पर उन की पत्नी ने कहा और कुम्हारों को बड़ी लगन के साथ मटकियां, बर्तन और गुल्लक वग़ैरह बनाते देखने लगीं। 

"बड़ा ही अद्भुत काम है यह! मिट्टी देखो, मिट्टी के गुल्ले देखो, चकरेटी से घुमाते चाक की गति देखो!" नेताजी अपनी पत्नी को यह सब पता नहीं क्यों दिखाना चाह रहे थे। कुम्हारों, उनकी पत्नियों और बच्चों की एक-एक गतिविधि को ध्यान से देख कर पत्नी बहुत आश्चर्य चकित हो रहीं थी।

"अरे, उधर देखो, ये तो ठठेरे का काम भी करते हैं मिट्टी के बर्तनों पर!" पत्नी ने कहा। 

"हाँ, चके पर बने बर्तन को पीट-पीट कर ये हवा व नमी निकाल कर उनको सही रूप देते हैं, फिर भट्टे में तपाकर उन्हें सुखाते-पकाते हैं!" 

यह कहते हुए, एक कुम्हार को साथ लेकर नेताजी पत्नी को भट्टे के नज़दीक़ ले गए, जहाँ से कुछ दूर तैयार बर्तन, मटके, गुल्लक वग़ैरह रखे हुए थे। काफी देर तक सब कुछ देखने-समझने के बाद जब वे दोनों कार में वापस जाने लगे, तो दोनों कहीं खोये हुए थे। उनकी आँखों में कुम्हारों के चलते हाथ, चके की गति, उँगलियों की गतिविधियों और हथेलियों की थापों के दृश्य झूल रहे थे। पूरे परिवार की सहभागिता से वे अचंभित थे। 

"कहाँ खो गई हो!" नेताजी ने पत्नी से पूछा। 

"सोच रही हूँ कि काश तुम भी कुम्हार की तरह होते, तो अपने बेटे आज कुछ और होते!" 

"मैं होता? कुम्हार जैसा तो तुम्हें होना चाहिए, घर में तुम्हारा काम है यह!"

"और तुम्हारा क्या काम है? सब कुछ औरतों के ही मत्थे क्यों?" 
"बाप-दादाओं की दी हुई राजनीतिक विरासत कौन संभालेगा? परिवारवाद राजनीति में अब नहीं चल रहा? बेटों से क्या उम्मीद रखें?" नेताजी गंभीर होकर बोले। 

"तो कुम्हारों के काम देखते वक्त भी क्या तुम राजनीति और देश के हालात में ही खोये हुए थे?" पत्नी ने नेताजी की टोपी सही करते हुए कहा। 
"क्या ये भी अपने घर-परिवार नहीं हैं? इनके हथरेटी-चकारेटी कौन हैं?" यह कहते हुए नेताजी के हाथ स्टिअरिंग पर कुम्हार की चकरेटी की तरह अनायास तेजी से चलने लगे। 

शेख़ शहज़ाद उस्मानी
शिवपुरी (मध्यप्रदेश)

शनिवार, 23 नवंबर 2019

लघुकथा : डेटोनेशन | शेख़़ शहज़ाद उस्मानी

डेटोनेशन अर्थात विस्फोट। 

शेख़़ शहज़ाद उस्मानी जी द्वारा सृजित यह रचना एक प्रयोग सा भी प्रतीत होती है, जिसमें लेखक अलग ही अंदाज में अपने विचार कथानक का सहारा लेकर प्रस्तुत कर रहे हैं। आइये पढ़ते हैं डेटोनेशन:



डेटोनेशन / शेख़़ शहज़ाद उस्मानी  

एक तरफ़ दुश्मन सेना, उसके रोबोट्स और चट्टानों माफ़िक़ प्रशिक्षित जाँबाज़ फ़ुर्तीले कुत्ते थे; तो दूसरी तरफ़ मौत रूपी खाई। विस्फोटकों से युक्त जैकेट पहने, अपनी पत्नियों और कुछ मासूम बच्चों को अपनी ढाल बनाये इस 'कलयुग' का वह ख़ूंखार 'आतंकी' खाई में कूंद गया। 

अपना दुखांत नज़दीक देख वह सुनियोजित व्यवस्थित सुरंग में दौड़ता-हाँफता प्रवेश तो कर गया, लेकिन उसे सुरंग के अंत का पता न था। बंद सुरंग के छोर पर मौत ने दस्तक दी और उसने अपनी जैकेट को डेटोनेट कर अपने ही शरीर के चीथड़े उड़ा दिए। 

ढालों का भी काम तमाम हो चुका था। जाँबाज़ कुत्तों ने अपना एक साथी खो दिया, शेष घायल चिकित्सा के हक़दार हो गए। वह 'आतंकी' नहीं था; 'ईमानदारी' थी। दुश्मन 'सेना' के सैनिक थे - स्वार्थ, लोभ, भ्रष्टाचार, काम-क्रोध, तानाशाही, दानवता, कट्टरता, धन-सम्पत्ति आदि । 'रोबोट्स' थे - उद्योग, विज्ञान और तकनीक; पद, सत्ता, व्यापारी, उद्योगपति, राजनीति और कुख्यात अपराधी। 'पत्नियां' थीं - विभिन्न जाति-धर्म... और मासूम 'बच्चे' थे - धर्मगुरु, बाबा, साधु-संत! 'विस्फोटक' थे - धार्मिक ग्रंथ, उपदेश, नीति-शास्त्र आदि! जाँबाज़ कुत्ते थे - नेता, मंत्री, अधिकारी, पदाधिकारी आदि। 'खाई' थी - समाज, मुल्क या दुनिया.... और वह 'सुरंग' थी - 'दुनियादारी'! 


- शेख़ शहज़ाद उस्मानी 
शिवपुरी (मध्यप्रदेश)