"लो, आज तुम जी भर के देख लो ये हथरेटी-चकारेटी वग़ैरह! इन्हीं से समझो कि क्या होती है चकरेटी, गुल्बी और छेन, कीला, पही!"
"ये तो इनके और इनके सामानों के नाम हैं, हमें तो इनकी कलाकारी देखनी है!" नेताजी की बात पर उन की पत्नी ने कहा और कुम्हारों को बड़ी लगन के साथ मटकियां, बर्तन और गुल्लक वग़ैरह बनाते देखने लगीं।
"बड़ा ही अद्भुत काम है यह! मिट्टी देखो, मिट्टी के गुल्ले देखो, चकरेटी से घुमाते चाक की गति देखो!" नेताजी अपनी पत्नी को यह सब पता नहीं क्यों दिखाना चाह रहे थे। कुम्हारों, उनकी पत्नियों और बच्चों की एक-एक गतिविधि को ध्यान से देख कर पत्नी बहुत आश्चर्य चकित हो रहीं थी।
"अरे, उधर देखो, ये तो ठठेरे का काम भी करते हैं मिट्टी के बर्तनों पर!" पत्नी ने कहा।
"हाँ, चके पर बने बर्तन को पीट-पीट कर ये हवा व नमी निकाल कर उनको सही रूप देते हैं, फिर भट्टे में तपाकर उन्हें सुखाते-पकाते हैं!"
यह कहते हुए, एक कुम्हार को साथ लेकर नेताजी पत्नी को भट्टे के नज़दीक़ ले गए, जहाँ से कुछ दूर तैयार बर्तन, मटके, गुल्लक वग़ैरह रखे हुए थे। काफी देर तक सब कुछ देखने-समझने के बाद जब वे दोनों कार में वापस जाने लगे, तो दोनों कहीं खोये हुए थे। उनकी आँखों में कुम्हारों के चलते हाथ, चके की गति, उँगलियों की गतिविधियों और हथेलियों की थापों के दृश्य झूल रहे थे। पूरे परिवार की सहभागिता से वे अचंभित थे।
"कहाँ खो गई हो!" नेताजी ने पत्नी से पूछा।
"सोच रही हूँ कि काश तुम भी कुम्हार की तरह होते, तो अपने बेटे आज कुछ और होते!"
"मैं होता? कुम्हार जैसा तो तुम्हें होना चाहिए, घर में तुम्हारा काम है यह!"
"और तुम्हारा क्या काम है? सब कुछ औरतों के ही मत्थे क्यों?"
"बाप-दादाओं की दी हुई राजनीतिक विरासत कौन संभालेगा? परिवारवाद राजनीति में अब नहीं चल रहा? बेटों से क्या उम्मीद रखें?" नेताजी गंभीर होकर बोले।
"तो कुम्हारों के काम देखते वक्त भी क्या तुम राजनीति और देश के हालात में ही खोये हुए थे?" पत्नी ने नेताजी की टोपी सही करते हुए कहा।
"क्या ये भी अपने घर-परिवार नहीं हैं? इनके हथरेटी-चकारेटी कौन हैं?" यह कहते हुए नेताजी के हाथ स्टिअरिंग पर कुम्हार की चकरेटी की तरह अनायास तेजी से चलने लगे।
शेख़ शहज़ाद उस्मानी
शिवपुरी (मध्यप्रदेश)
"ये तो इनके और इनके सामानों के नाम हैं, हमें तो इनकी कलाकारी देखनी है!" नेताजी की बात पर उन की पत्नी ने कहा और कुम्हारों को बड़ी लगन के साथ मटकियां, बर्तन और गुल्लक वग़ैरह बनाते देखने लगीं।
"बड़ा ही अद्भुत काम है यह! मिट्टी देखो, मिट्टी के गुल्ले देखो, चकरेटी से घुमाते चाक की गति देखो!" नेताजी अपनी पत्नी को यह सब पता नहीं क्यों दिखाना चाह रहे थे। कुम्हारों, उनकी पत्नियों और बच्चों की एक-एक गतिविधि को ध्यान से देख कर पत्नी बहुत आश्चर्य चकित हो रहीं थी।
"अरे, उधर देखो, ये तो ठठेरे का काम भी करते हैं मिट्टी के बर्तनों पर!" पत्नी ने कहा।
"हाँ, चके पर बने बर्तन को पीट-पीट कर ये हवा व नमी निकाल कर उनको सही रूप देते हैं, फिर भट्टे में तपाकर उन्हें सुखाते-पकाते हैं!"
यह कहते हुए, एक कुम्हार को साथ लेकर नेताजी पत्नी को भट्टे के नज़दीक़ ले गए, जहाँ से कुछ दूर तैयार बर्तन, मटके, गुल्लक वग़ैरह रखे हुए थे। काफी देर तक सब कुछ देखने-समझने के बाद जब वे दोनों कार में वापस जाने लगे, तो दोनों कहीं खोये हुए थे। उनकी आँखों में कुम्हारों के चलते हाथ, चके की गति, उँगलियों की गतिविधियों और हथेलियों की थापों के दृश्य झूल रहे थे। पूरे परिवार की सहभागिता से वे अचंभित थे।
"कहाँ खो गई हो!" नेताजी ने पत्नी से पूछा।
"सोच रही हूँ कि काश तुम भी कुम्हार की तरह होते, तो अपने बेटे आज कुछ और होते!"
"मैं होता? कुम्हार जैसा तो तुम्हें होना चाहिए, घर में तुम्हारा काम है यह!"
"और तुम्हारा क्या काम है? सब कुछ औरतों के ही मत्थे क्यों?"
"बाप-दादाओं की दी हुई राजनीतिक विरासत कौन संभालेगा? परिवारवाद राजनीति में अब नहीं चल रहा? बेटों से क्या उम्मीद रखें?" नेताजी गंभीर होकर बोले।
"तो कुम्हारों के काम देखते वक्त भी क्या तुम राजनीति और देश के हालात में ही खोये हुए थे?" पत्नी ने नेताजी की टोपी सही करते हुए कहा।
"क्या ये भी अपने घर-परिवार नहीं हैं? इनके हथरेटी-चकारेटी कौन हैं?" यह कहते हुए नेताजी के हाथ स्टिअरिंग पर कुम्हार की चकरेटी की तरह अनायास तेजी से चलने लगे।
शेख़ शहज़ाद उस्मानी
शिवपुरी (मध्यप्रदेश)