1)
कीचड़ में कमल
साड़ी का खूँट पकड़कर मेरा बेटा मुझसे हठ करने लगा, “अम्मा कीचड़ में क्या खिलता है...बताओ न?”
“अरे...हट, तंग मत कर। देख, कितने घने बादल हैं... जोर से बारिश आने वाली है, जल्दी-जल्दी बिचड़ा लगाकर घर जाना है मुझे। कल से घर में चूल्हा नहीं जला है। पता नहीं...इंद्र देव क्यों कुपित हो गये हैं? आज भी ओले बन कहर बरपायेंगे तो घर में खाना-पीना..रहना सब दूभर हो जाएगा! जलावन सूखी बची रहेगी या...फिर.. कल की तरह, सत्तू खाकर ही दिन काटना पड़ेगा और इधर... बिचड़ों के लिए अलग ही ध्यान टँगा रहेगा।”
“अम्मा...पहले मुझे बताओ...न?”
“तू भी..सच में...बड़ा जिद्दी है। बिना बताये कभी मानता कहाँ। कीचड़ में बिचड़ों का मुस्कुराना, मुझे बहुत ही सुकून देता है। रे...तू क्या समझेगा...अभी इसी तरह अबोध जो है।”
धान के बिचड़ों को कीचड़ सने हाथों से सहलाते हुए मैं बोली।
“पर, अम्मा... किताबों में तो यही लिखा है कि कीचड़ में कमल खिलता है।”
“पढ़ा होगा तू ! जिस किताब की बात तू कर रहा है..न..वो भाषा मुझे नहीं सुहाती ! भूखे पेट...कीचड़ में कमल नहीं...मुझे, धान की बालियाँ ही लुभाती है।”
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2)
रील बनाम रीयल
तालियों की गड़गड़ाहट के साथ हॉल की सारी बत्तियां एक साथ जल उठी।
“कमाल का रोमांस, बिल्कुल अमिताभ और रेखा की जोड़ी ।” एक साथ कई आवाजें दर्शक-दीर्घा से आयी ।
“अरे...चल रहा होगा दोनों में रोमांस । थियेटर-सिनेमा में काम करने वाले लोगों के लिए प्यार की परिभाषाएं कुछ अलग होती है ! जहाँ-जिससे मिले, दोस्ती..प्यार में बदल गई । पति-पत्नी कहने भर के लिए होते हैं। यूज़ एंड थ्रो वाला हिसाब-किताब, हा..हा..हा... ।”
फिर से कुछ तेज आवाजें ...मेरे कानों में गर्म सलाखों की तरह चुभने लगी।
लोग अपना टेंशन दूर करने रंगमंच का खूब रसास्वादन करते हैं। पर, जैसे ही पटाक्षेप होता है.. इनकी रंग बदलते देर नहीं लगती। भिड़ जाते हैं, नायक-नायिका की बखिया उधेड़ने में। जैसे खुद कितने दूध के धुले हों!
मैं, साथी कलाकार (रोहित) के साथ, खचाखच भीड़ से बचते हुए हॉल से बाहर निकल आयी । सीधे पार्किंग में लगी गाड़ी की तरफ आगे बढ ही रही थी, कि रोहित ने मेरा हाथ पकड़ते हुए कहा , ”रुको.., मुझे अभी तुमसे कुछ जरूरी बातें करनी है ।”
“अभी नहीं रोहित , जल्दी घर पहुंचना है।” अपना हाथ खींचते हुए मैं बोली।
“प्लीज, मेरे लिए दो मिनट रुक जाओ।”
“अच्छा...जल्दी से बताओ।“
“ मैं तुमसे शादी करना चाहता हूँ।”
“तुम्हारा दिमाग तो नहीं खराब हो गया है। रोहित, रील लाइफ और रीयल लाइफ में बहुत का अंतर होता है। पता है न..शादी में दोनों परिवारों को भी जुड़ना पड़ता है?”
“हाँ....सब पता है। मेरे परिवार में सिर्फ मैं हूँ और मेरी माँ। माँ से तुम पहले ही फंक्शन में मिल चुकी हो।” रोहित एक ही सांस में सारी बातें कह गया ।
“ और,मेरे परिवार में? मैंने तो तुम्हें...विधवा हूँ...सिर्फ इतना ही बताया था? और कुछ भी नहीं!"
“अरे...मैडम जी , मुझे सब पता है । तुम्हारे ड्राईवर से तुम्हारे बारे में मैंने सब कुछ पता कर लिया है। तभी से तो मैं ,तुमसे बेहद प्यार करने लगा हूँ। तुम्हारी एक अपाहिज बेटी भी है? उसी के इलाज के लिए तुम ये सब कर रही हो।” रोहित मुस्कुराते हुए बोला।
मैं ठगी सी रोहित को देखती रही। वो अपलक मुझे निहारता रहा।
"जाने से पहले एक बात तुम्हें बताना चाहता हूँ, मुझे अपनी संतान की इच्छा नहीं है। हां, तुम्हारी बेटी का पिता कहलाना मुझे अच्छा लगेगा। अब, आगे निर्णय तुम्हारे हाथों में है।"
मैं चुपचाप...रोहित को जाते हुए देख रही थी । वह आज मुझे मर्द कम देवता अधिक नजर आ रहा था।
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3)
बाल सखा
“फिर तुम.. इतनी रात को ! देखो, शोर मत मचाओ, सभी सोये हैं..जग जायेंगे । तुम्हे पता है न..समय के साथ सभी को नाचना पड़ता है।
बच्चे स्कूल जाते हैं, पति काम पर , और मैं...मूरख, अकेली दिनभर इस कोठी का धान उस कोठी करती रहती हूँ । चाहे घर के पीछे अपना जीवन खपा दो, घर के कामों का कोई मोल नहीं देता !
खैर, छोड़ो इसे। बचपन में तुम्हारे साथ बिताये पल, मुझे हमेशा सताते रहता है। पर, मैं तुम्हारी तरह स्वच्छंद उड़ान नहीं भर सकती।
समय के साथ रिश्तों की अहमियत बदल जाती है । अब तो मैं बाल-बच्चेदार वाली हो गयी हूँ और तुम, वही कुंवारे के कुंवारे!
तुम क्या जानो शादी के बाद क्या सब परिवर्तन होता है ! ओह ! फिर से शोर, बस भी करो या..र ! पता है मुझे , बिना देखे तुम जाओगे नहीं ! ठीक है, खिड़की के पास आती हूँ, देखकर तुरंत वापस लौट जाना।"
जैसे ही मैं खिड़की के पास पहुंची, एकाएक बिजली की कौंध से ... उसका, वही नटखट चेहरा, साफ़-साफ़ दिख गया । दिल के कोने में दबा प्यार फिर से हिलकोर मारने लगा।
मैं..झट दरवाजा खोल बाहर निकल आई। दरवाजे की चरमराहट से पति जगते ही चिल्लाये, “ क्या हुआ? कहाँ जा रही हो ?” कहते-कहते वो भी मेरे पीछे दरवाजे के पास आ पहुँचे।
सामने टकटकी लगाये, उताहुल खड़ा... मेरा बाल सखा ‘तूफान' और अंदर, सुरक्षा का ढाल लिए खड़े पति। अकस्मात, दहलीज से बाहर निकले मेरे पैर... कमरे में फिर से कैद हो गए।
मेरी नजरें तूफ़ान और टिकी रही। बाहर खड़ा तूफान एकदम शांत हो गया। शायद अब तक वो समझ चुका था कि औरत ख्वाबों में उड़ान भरने से ज्यादा अपने को महफ़ूज रखना अधिक पसंद करती है।
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4)
गर्भपात
“चाचा ओ चाचा (घोंसला )... सो गये क्या ?” सभी बच्चे (अंडे) एकसाथ चिल्लाये ।
“हाँ..थोड़ी झपकी लग गई। घर का मुखिया हूँ..न..रात को ठीक से सो भी नहीं पाता।”
"सो तो है चाचा , आप सर्दी-गर्मी, आंधी-तूफ़ान सभी से हमें बचाते हैं। पर, चाचा बात ही कुछ ऐसी है बहुत घबराहट सी हो रही है।”
“क्या बात है? बताओ तो।”
कल हमने मकान मालिक को बोलते सुना था, “अगले हफ्ते दीपावली है ...घर के कोने-कोने की सफाई होगी, और रंग-रोगन भी।
चाचा, अब, हमलोगों का क्या होगा? यहाँ हम ,सीढी-घर के रोशनदान में कितने बेफिक्र और महफूज रहते आये हैं । आज बहुत भयभीत हैं दीपावली की सफाई में, हमारी भी सफाई....तय ही समझो।”
“अरे...शुभ-शुभ बोल। चिंता किस बात की मैं हूँ..न!”
बच्चों को ढाढ़स बांधते हुए चाचा खखसकर बोले।
“धपर...धपर....की आवाज, लगता है कोई सीढ़ी पर चढ़ रहा है । वो...सामने देखिये...आ गई महिला सफाईकर्मी । चाचा, वो किसी को नहीं बकसेगी । बहुत निर्दयी होकर झाड़ू चलाती है । सोचेगी भी नहीं कि इसमें किसी जोड़े का सपना सजा है ।“ सफाईकर्मी को देखते ही अंडों में हडकंप मच गया ।
”बच्चों, जब तुम्हें पता था, तो.. तुमने अपनी माँ को क्यों नहीं बताया? वो आज तिनका लाने नहीं जाती?” मौत को सामने खड़ा देख घोंसला खुद को असहाय महसूस करने लगा।
“ हमें माँ की चिंता सताए जा रही है। चाचा, वो यहाँ पहुंचेगी और हमें ढूंढेगी, हमारी लाश तक का जब कोई ठिकाना उसे नहीं मिलेगा... फिर क्या बीतेगी माँ पर! बेचारी के सभी संजोये सपने... दीपावली के चकाचौंध में तिनके की तरह बिखर जायेंगे।”
सफाईकर्मी तेजी से हमलोगों के करीब आ पहुंची। उसके हाथ की झाड़ू पर नजर पड़ते ही, बलि के बकड़े की तरह हमसभी थरथराने लगे और दिल धौकनी की तरह धड़कने लगी।
वो फुसफुसाई, “बहुत तेज दर्द हुआ था मुझे... जब मेरे घरवालों ने भ्रूण-परीक्षण के बहाने मेरा गर्भपात करवाया था ।
बच्चों, मैं भी स्त्री हूँ... तुम्हारी माँ की पीड़ा अच्छी तरह समझ सकती हूँ।“
कहते हुए सफाईकर्मी ने अपनी दिशा बदल ली ।
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