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बुधवार, 16 मार्च 2022

समीक्षा | लघुकथा-संग्रह " ब्रीफ़केस" | लेखक: नेतराम भारती | हिन्दी दैनिक समाचार- पत्र "इंदौर समाचार" में प्रकाशित | समीक्षाकार: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी





पुस्तक: ब्रीफ़केस (लघुकथा- संग्रह )

लघुकथाकार : नेतराम भारती

प्रकाशक : अयन प्रकाशन, दिल्ली

पृष्ठ :160

मूल्य : 315/-


समकालीन संवेदनाओं के ओजपूर्ण कथन

- डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी 


नेल्सन मंडेला ने कहा था कि, "यदि आप किसी व्यक्ति से उस भाषा में बात करते हैं जो वो समझता है तो बात उसके दिमाग में जाती है, लेकिन यदि आप उससे उसकी अपनी भाषा में बात करते हैं तो बात सीधे उसके दिल तक जाती है।" साहित्य भी इसी प्रकार के दृष्टिकोण से निर्मित किया जाता है और साहित्य की एक विधा - लघुकथा चूँकि न्यूनतम शब्दों में अपने पाठकों को दीर्घ सन्देश दे पाती है। अतः ऐसा वातावरण, जो मानवीय संवेदनाओं और समकालीन विसंगतियों को दिल तक उतार पाए, का निर्माण करने में लघुकथा का दायित्व अन्य गद्य विधाओं से अधिक स्वतः ही हो जाता है।

हिन्दी शिक्षक, गद्य व पद्य दोनों ही की विभिन्न विधाओं में समान रूप से सक्रिय युवा लेखक श्री नेतराम भारती के लघुकथा संग्रह 'ब्रीफ़केस' में भी सामयिक भाषा व समकालीन विषय, जो सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक यथार्थ की पृष्ठभूमि से जुड़े हैं, की एक सौ एक रचनाएं संगृहीत हैं। लघुकथा लघु और कथा की मर्यादाओं के साथ-साथ जिस क्षण विशेष की बात कर रही होती है, वह, पूरी रचना में हाथों से फिसलना नहीं चाहिए अन्यथा लघुकथा के भटक जाने का खतरा होता है। नेतराम भारती की लघुकथाएं इन दृष्टिकोणों से आश्वस्त करती हैं, इनके अतिरिक्त उनकी कलम किसी नोटों से भरे ब्रीफ़केस से ऊपर उठी दिखाई देती है। इस संग्रह की ‘ब्रीफ़केस’ लघुकथा इसी विचार पर केन्द्रित है। जमील मज़हरी का एक शे'र है,

 "जलाने वाले जलाते ही हैं चराग़ आख़िर, 

ये क्या कहा कि हवा तेज़ है ज़माने की।" 

इस संग्रह की एक अन्य लघुकथा 'रसीदी टिकट' भी भोगवादिता और भाववादिता के अंतर को दर्शाती एक ऐसी रचना है जो चरागों को रोशन करने का पैगाम दे रही है। लघुकथा 'सदमा' के मध्य की यह पंक्ति //वे ही अगर जीवित होती तो, पिताजी के जाने का इतना दुःख नहीं होता।//, न केवल उत्सुकता बढ़ाती है बल्कि रचना का अंत आते-आते यह पञ्चलाइन भी बन जाती है। संस्कृत में एक श्लोक है - "भूमे:गरीयसी माता,स्वर्गात उच्चतर:पिता।" अर्थात भूमि से श्रेष्ठ माता है, स्वर्ग से ऊंचे पिता हैं। रचना 'नये पिता' भारतवर्ष की इसी संस्कृति को उद्घाटित कर रही है। 'फ़रिश्ता' की बात करें तो यह नारी सशक्तिकरण की उन रचनाओं में से एक है जिनका विषय समकालीन व उत्कृष्ट है। 'इडियट को थैंक्स' मित्रता का सन्देश दे रही है और 'आख़िरी पतंग' पिता-पुत्र के प्रेम का। 'पत्नी ने कहा था' का अंत मार्मिक है और निष्ठपूर्ण आचरण का द्योतक है। 'बुज़ुर्ग का चुंबन' प्रवासी भारतीयों का प्रतिनिधित्व करती एक रचना है, जिन्होंने अपने स्वदेश को देखा भी नहीं है। 'शब्दहीन अभिव्यक्ति' में कुत्तों के एक युगल के मध्य प्रेम की अद्भुत अभिव्यक्ति है। 'मैडम सिल्विया' में संवादों की लम्बाई रचना को थोडा उबाऊ ज़रूर कर रही है, परन्तु रचना का शीर्षक व प्रारम्भ उत्सुकता बढ़ाने वाला है। 'कान और मुँह' एक अनछुए विषय पर कही गई रचना है। 'बेड नंबर 118' मेडिक्लेम इंश्योरेंस के प्रति हस्पताल के लालच से परिचय करवाती है तो 'ऑनलाइन - ऑफलाइन' आभासी और भौतिक रिश्तों में अंतर को दर्शाती है। 'एक सत्य यह भी' एक पूर्ण रचना है, इसका शिल्प और अधिक उत्तम होने की सम्भावना है। 'संवेदना की वेदना' वास्तविक वेदना पर हावी टीवी सीरियल की स्क्रिप्टिड वेदना को बहुत अच्छे तरीके से दर्शा रही है। 'सफ़ेद कोठी' अपने संघर्ष के दिनों को न भूलने की सलाह देती हुई है। 'मुहिम' पद से हटाने की रणनीति बताती है। 'क्रॉकरी या जीवन' अपने जीवन काल में स्वअर्जित वस्तुओं के उपभोग का सन्देश दे रही है तो 'यूज एंड थ्रो' लिव-इन-रिलेशनशिप के कटु सत्य को दर्शा रही है। 'गाँधारी काश! तू मना कर देती' एक बेहतरीन शीर्षक की बेमेल विवाह से मना करने की राह दिखाती रचना है। 'अफ़सोस' मृत्यु के समय मनुष्य का अन्तिम वेदोक्त का कर्तव्य अर्थात्

 "वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तंशरीरम्। ओ३म् क्रतो स्मर क्लिबे स्मर कृतंस्मर।।" 

को याद दिला रही है। 'औज़ार...' लघुकथा सत्य को कहने का साहस और 'टायर-पंचर' परेशानी में मदद करने का सन्देश दे रही है।

लेखक की कई रचनाओं में किसी न किसी पात्र का नाम 'दिवाकर' है। पढ़ने-लिखने और प्रश्न करने वाले व्यक्ति की बुद्धि के बारे में कहा गया है कि "दिवाकरकिरणैः नलिनी, दलं इव विस्तारिता बुद्धिः॥" अर्थात वह बुद्धि ऐसे बढ़ती है जैसे कि 'दिवाकर' की किरणों से कमल की पंखुड़ियाँ। इस पुस्तक रुपी रचनाकर्म में भी समाज में सनातन नैतिक मूल्यों को सुदृढ़ बनाने हेतु जिस निष्ठा और समर्पण से सन्देश दीप्तिमान किया गया है वह प्रज्ञा संवृद्धि करता है। अधिकतर रचनाएं सौहार्दपूर्ण सकारात्मक दृष्टिकोण से कही गई हैं। शिल्प उत्तम है और जिस बात की भूरी-भूरी सराहना की जानी चाहिए वह है श्री भारती द्वारा विषय की गूढ़ अध्ययनशीलता और उस अध्ययन को कलमबद्ध करने की क्षमता। कहीं-कहीं जैसे,'शब्दहीन अभिव्यक्ति' में 'भाई सहाब' आदि को छोड़कर वर्तनी की त्रुटियाँ नहीं हैं। भाषा आम बोलचाल की है। कुछ रचनाओं के शीर्षक उत्तम होने की संभावना रखते हैं। समग्रतः, प्रबुद्ध सोच के पश्चात समकालीन मानवीय संवेदनाओं, चिन्तन हेतु आवश्यक विषयों से ओतप्रोत लघुकथाओं का यह संग्रह पठनीय व संग्रहणीय है।


- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

अध्यक्ष, राजस्थान इकाई, विश्व भाषा अकादमी

ब्लॉगर, लघुकथा दुनिया ब्लॉग

सहायक आचार्य (कम्प्यूटर विज्ञान)

बुधवार, 23 फ़रवरी 2022

लघुकथा संग्रह समीक्षा | कितना-कुछ अनकहा | समीक्षक: अनिल मकारिया | लेखिका: कनक हरलालका

विचारक बन पाना आसान बात नहीं है और वो भी साहित्य में, जहां आपके समक्ष कई महारथी सितारे सदृश चमक रहे हों। ऐसे में अपने विचारों में ताज़गी और नयापन ही आपकी कलम को प्रकाशित कर सकते हैं। अनिल मकारिया से मेरी पहचान यों तो एक अच्छे लघुकथाकार के रूप में हुई थी लेकिन कुछ ही समय में उनकी समीक्षा करने की शैली में एक ऐसी ताज़गी का अनुभव हुआ जिससे मैं प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाया। कनक हरलालका के लघुकथा संग्रह 'कितना-कुछ अनकहा' की समीक्षा आपने चार भागों में की है और लगभग सभी रचनाओं पर अपनी बात रखी है। इस तरह की समीक्षा, मैं मानता हूँ कि, सभी के समक्ष आनी चाहिए। समीक्षा के चारों भाग यहाँ भी प्रस्तुत हैं:

लघुकथा संग्रह: कितना-कुछ अनकहा

समीक्षक: अनिल मकारिया

लेखिका: कनक हरलालका

प्रकाशन : दिशा प्रकाशन, दिल्ली

मूल्य : ₹३००

पृष्ठ : १२०


भाग-1

एक 65 साला इंसानी जुर्रत है जो अपनी रचनाओं के बाबत लिखती हैं, "लघुकथारूपी रस्सियों से आसमान को बांधकर ज़मीन पर लाने का यह मेरा एक प्रयास मात्र है।"

मुझे आश्चर्य है की जब इनकी हमजातें सास-बहू के विवाद और अमलतास-हरसिंगार की प्रेम कहानियां लिख रही होंगी तब यह जुर्रत 'गांधी को किसने मारा?' 'मिट्टी' और 'इनसोर' रच रही थी।

शालीन और मौन जुर्रत की अगर कोई इंसानी पहचान होती तो शायद वह कनक हरलालका के नाम से जानी जाती।

इस पुस्तक का लेखकीय व्यक्तव्य पढ़ने से पहले भी मुझे जर्रा भर शुबहा नही था कि कनक जी की कलम पर पवन जैन सर के अदब की रहबरी है।

किसी भी लेखक/लेखिका की जनप्रियता इस बात पर भी निर्भर करती है कि वह खुद को किस तरह से प्रस्तुत करता है?

आजकल खुद को प्रस्तुत करने के मायने fb वॉल या इंस्टा की तस्वीरें हैं लेकिन यहां पर मेरा सवाल लेखन द्वारा प्रस्तुत करने से संबंधित है।

आप जब किताबों में जादू और तिलस्म पढ़ने की ख्वाहिश रखते हैं तो अनायास ही जे.के रोलिंग का नाम जादुई झाड़ू पर सवार आपके दिमाग के इर्द-गिर्द घूमने लगता है। उसी प्रकार चेतन भगत युवा वर्ग और नए दौर के लेखन का परिचायक बन चुके हैं क्योंकि इन्होंने इस तरह के ही लेखन द्वारा खुद को प्रस्तुत किया है।

अनकहा केवल कनक जी के लघुकथा लेखन का ही परिचायक नही है बल्कि उनके द्वारा सोशल साइट्स की हर बहस-मुबाहिसा में भी स्वंय को अनकहा ही रखना खुद के शालीन प्रस्तुतिकरण का स्थापन है।

इस लघुकथा संग्रह के बारे में मधुदीप सर की लिखी इन पंक्तियां से भी मैं इतेफाक रखता हूँ,

'इन लघुकथाओं को पढ़कर हम विधा(लघुकथा विधा) की ताकत को सहज ही समझ सकते हैं।'

'कितना-कुछ अनकहा' शीर्षक लेखिका की लघुकथाओं का ही नही वरन् लेखिका के व्यक्तित्व का भी प्रतिनिधित्व कर रहा है और शीर्षक के ऐन नीचे बना चित्र भी खुद का अनकहा ही व्यक्त कर रहा है।

 चित्र में पति-पत्नी-बच्चे के सामाजिक त्रिकोण के बीच में फंसी लाल बिंदी के बहते आंसू एवं गुबार उस त्रिकोण की सीमा रेखा को लांघते साफ दिख रहे हैं।

 पढ़ते-पढ़ते

दो दुश्मन देशों के राष्ट्राध्यक्ष शतरंज खेल रहे हैं (अनकहा) लेकिन लघुकथा में यह कहीं नही लिखा गया कि वे दोनों राष्ट्राध्यक्ष हैं या फिर दुश्मन देशों के हैं। यह काबिले रश्क अंदाजे बयाँ हैं कनक जी का।

इस लघुकथा के दो सबसे छोटे संवाद जब आप पढ़ते हो।

"हाँ, तो तुम क्या लोगे?"

"जो तुम ले रहे हो।"

लगता है कि बात तो हो रही है शराब की लेकिन मन में कहीं बजता है मानों दो देशों के बीच किसी विवादास्पद क्षेत्र या प्रदेश को हड़पने, कब्जा कर बैठने का तंज मारा जा रहा है। (अनकहा)

इन दोनों संवादों से पहले वाले संवाद भी अपरोक्ष रूप से हमेशा चलने वाली सैनिक झड़पों का ही इशारा दे रहे हैं।

एक बढ़िया कथ्य //बाजी फिर उलझ गई।//  पर लघुकथा खत्म करके लेखिका प्रस्तुत कर सकती थी लेकिन पता नही किस प्रभाव से अंत में जबरन अस्वाभाविकता जोड़ दी गई है।

//पर तभी अचानक... खड़े-खड़े देखते रह गए// इन पंक्तियों से लघुकथा में अप्रभावी कथ्य एवं अस्वाभाविकता का जन्म हो रहा है।

यह पंक्तियां पढ़कर मुझे लगा जैसे एक बेहतरीन शिल्प और कथ्य को बलपूर्वक खत्म कर दिया गया।

मुझे इस संग्रह की समीक्षा से अलग सिर्फ इस लघुकथा की समीक्षा करने के लिए इन्हीं बेज़ा अंतिम पंक्तियों ने मजबूर किया है।

इस लघुकथा का कथानक एवं शीर्षक चयन इतना मौजूं है कि आप इसे कनक जी के इस संग्रह की (कितना-कुछ अनकहा) प्रतिनिधि लघुकथा कह सकते हैं ।

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भाग-2

120 पन्नों के संग्रह में कुल 87 लघुकथाएं हैं अब मैं अगर संग्रह 29 लघुकथाओं को भागों में विभक्त करके पहले भाग की 29 लघुकथाओं में से चुनिंदा बेहतरीन एवं कमजोर लघुकथाओं की बात रखूंगा और मैं कोशिश करूँगा की मेरा यह प्रयास पाठकों के लिए नीरस साबित न हो। अगर आपने कनक जी को पहले पढ़ा है तो जानते होंगे की इन के लघुकथा रूपी कमरे में से एन वही वस्तु गायब कर दी जाती है जिसकी तलाश में पाठक उस कमरे में मौजूद होता है और उसी चीज को ढूंढने के लिए पाठक पुनः पुनः उस लघुकथा रूपी कमरे में अपनी हाजिरी दर्ज करवाता रहता है।

लेखिका के इसी हस्ताक्षर लेखन की बानगी है संग्रह की प्रथम लघुकथा 'प्यास'। मुझे यकीन है की पाठक इस बेहतरीन शिल्प से कसी लघुकथा पर नायिका की प्यास समझने के लिए कई बार दस्तक देंगे।

'घुटन' शीर्षक वाली लघुकथा के किरदार ऑटोरिक्शा चालक को मैं आज की आपाधापी से भरी स्वार्थी जिंदगी का अविष्कार मानता हूं। आज किसीके पास खुद के परिवार के लिए वक्त नही है और ऐसे दौर में एक ऑटो रिक्शा चालक यह उम्मीद रखता है कि कोई जिंदा इंसान उसके बेटे की मौत के बाबत उससे पूछे या उसका दर्द सुनें... मैं यकीन दिलाता हूं कि आप इस लघुकथा का अंत पढ़ते हुए खुद को कहीं न कहीं जरूर जोड़ लोगे, याद आने लगेगा कि कब आपने आईने, दीवार, पेड़ या किसी जानवर के सामने अपना ग़ुबार बाहर निकाला था ताकि अंदर की घुटन से मुक्ति मिल सके।

'भीड़' 'जंगली' और 'बंद ताले' लघुकथाएं अच्छी बन पड़ी हैं। बालमन केंद्रित लघुकथायें 'भूख' और 'सुख' ने मुझे विशेष आकर्षित किया है अगर आप संवेदनशील हैं तो इन दो लघुकथाओं को पढने से पहले अपने भीतर निर्दयता का मुलम्मा जरूर चढ़ाइए।

'राह' 'रंगीन मौसम' 'प्रतिदान' अपेक्षाकृत कमजोर लघुकथाएं हैं। 'राह' के कथानक एवं कथ्य की मांग भावनात्मक प्रस्तुतिकरण की थी जबकि यह लघुकथा किसी 'बालकथा' की मानिंद प्रस्तुत कर दी गई है। 'रंगीन मौसम' हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे के पुराने कथ्य पर लॉक डाउन वाले कथानक का तड़का लगाने का प्रयास है लेकिन प्रस्तुतिकरण प्रभावहीन है या फिर लेखन वह अहसास नही पैदा कर पाया जिसकी दरकार थी।

'प्रतिदान' रावण महिमामंडन एवं यशोधरा त्याग वाले सामाजिक बहस-मुबाहिसे के ट्रेंड वाले दौर की कृति है जिसे आप हिस्टोरिकल फिक्शन के तौर पर पढ़ सकते हैं लेकिन अब यशोधरा-बुद्ध वैचारिक अलगाव वाला कथ्य ऊब और खीज का ही निर्माण करता है।

'अनकही' सरल-सहज कथानक वाली संजीदा लघुकथा है लेकिन इसमें जिस तरह कथ्य को प्रस्तुत किया गया है वह काबिले-तारीफ है।

'कीचड़' कथा है इस दौर में भी भीतर तक पेवस्त असमानता एवं भेदभाव के कीचड़ की, संदेश एवं प्रस्तुतिकरण मुखर होने के बावजूद मुझे यह लघुकथा मंजिल तक पंहुचने से कुछ पहले ही दम तोड़ती महसूस हुई क्योंकि इसमें स्त्री विद्रोह वाले स्वर को हीन रखा गया है और मुखिया के किरदार को अधिक प्रबलता से प्रस्तुत किया गया है।

'कठपुतलियां' लघुकथा की विस्तृत समीक्षा मैं पिछली पोस्ट में कर चुका हूं।

'वापसी' लघुकथा में शहर का प्रतिनिधित्व करती सड़क और गांव को दर्शाती पगडंडी का वार्तालाप उतना ही दिलचस्प है जितना किसी महिला के लिए सास-बहू का विवाद। इस लघुकथा का शिल्प और शीर्षक रचनाकार के लेखन/साहित्य स्तर का अलिखित प्रमाणपत्र है।

'गरीब' लघुकथा के उम्दा अंदाजे-बयाँ एवं बढ़िया कथानक चयन के मुकाबले चौंक अथवा पंचलाइन प्रभावहीन महसूस हुई ।

'दरकन' लघुकथा घरेलू महिला की दरक रही हसरतों का रोजनामचा है। एक बेजोड़ रचनाकर्म जिसे नवोदित लघुकथाकारों को सिलेबस की तरह पढना चाहिए ।

'कामचोर' इस लघुकथा की गैरजरूरी अंतिम पंक्ति //कामचोर का काम...हो चुका था// हटा दी जानी चाहिए। यह लघुकथा आज के दौर में भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी कि भूख।

मैं 'बोन्साई' लघुकथा का विस्तृत विवेचन करना चाहूंगा। (नीचे दिए चित्र में लघुकथा पढ़ सकते हैं।)

लघुकथा में मुख्य किरदार के पति की तेरहवीं है और उसका 63 साल का गुज़श्ता दांपत्य जीवन उसकी आंखों के आगे कुछ इस तरह नमूदार है मानों किसी वृक्ष के विकास को शैशवकाल से ही उसकी जड़ों को बांधकर एवं शीर्ष पर दबाव डालकर अवरुद्ध कर दिया गया हो।

जिसे अपनी शाखाएं फैलाने की उतनी ही आजादी है जितनी वृक्ष को 'बोन्साई' बनाने वाला देना चाहता है।

इस लघुकथा का शीर्षक इसके कथ्य का मिनिएचर है।

इस लघुकथा में एक भी शब्द कम करने की गुंजाइश नही है जो भी विन्यास रचा गया है बेहद जरूरी है।

इस लघुकथा की पंचलाइन //बेटा, आप लोग जैसा...कैसे करना चाहते...!// बीते 63 साल का निचोड़ कहने में सक्षम है।

यह कनक जी की लिखी बेहतरीन रचनाओं में अपने उम्दा शिल्प के कारण ली जा सकती है। 

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भाग-3

कुछ लघुकथाएं होती है जिनकी विवेचना आप तत्काल करके फ़ारिग नही हो सकते क्योंकि ऐसी लघुकथाएं आपको विमर्श की राह पर बनाये रखती हैं और बार-बार पढ़ने के लिए उद्वेलित करती हैं। इस संग्रह की चुनींदा लघुकथाएं इसीप्रकार की विशेषता रखती हैं।

जैसे. कठपुतलियां, बोन्साई, असूर्यम्पश्या, प्राण-प्रतिष्ठा, समय सीमा, खबर, मिट्टी, कैरियर, गूंज और भेड़िया आया।

यदि आप इस संग्रह की शुरुआती तीस लघुकथाएं पढ़ने के बाद यह कहते हुए किताब रख देंगे कि 'भाई! हर संग्रह की शुरुआती चंद रचनाएँ ही बेहतर होती हैं।' तो यक़ीन मानिए आप लघुकथा विधा की खूबसूरती का बयान करती हुई कई शानदार लघुकथाओं को पढ़ने से वंचित रह जाओगे।

'बोन्साई' लघुकथा की मैं मुकम्मल समीक्षा पिछले भाग में कर ही चुका हूं।

कठोर कांक्रीट से बने शहर के फ्लैट में अपने गांव के घर-खेत की मिट्टी तलाशते बुजुर्ग और उनके पोते की व्यथाकथा है 'बालकनी'।

समझौतों की मौली बांधती हुई उम्दा संवादात्मक लघुकथा है 'सगाई की अंगूठी'।

'चलो पार्टी करें' 'चौकीदार' 'ख्वाहिशें' अगर लेखिका के लेखन स्तर के मुकाबले कमजोर लघुकथाएं है तो 'मौसम' और 'अलग-अलग जाड़ा' अपने प्रस्तुतिकरण की वजह से औसत लघुकथाएं मालूम पड़ती हैं।

उम्रभर घर-संसार में बंधी गृहणी को अपने जीवन के सांयकाल में विदेश जाने का निमंत्रण पत्र मिलता है, उसकी इसी दुविधा को दर्शाती हुई लघुकथा 'खुला आकाश' का कथ्य मुझे 'बोन्साई' का कैरिकेचर प्रतीत हुआ।

बढ़िया शीर्षक और संदेश वाली लघुकथा है 'ऑक्सीजन' । शिक्षा से बदलाव की हवा पैदा करती हुई नई पीढ़ी अब अपने अनपढ़ मां-बाप को भी साफ हवा और साफ खाने का महत्व समझाने लगी है।

'जरूरी सामान' लघुकथा बुजुर्गों की मसरूफियत की कथा है इसका प्रस्तुतिकरण एवं कथ्य तो बढ़िया है ही साथ ही शीर्षक चयन भी बेमिसाल है। 

'बदलते सुर' बेटे द्वारा अपनी जिंदगी के संतुलन को ठीक करने के लिए माँ पर आजमाई हुई एक तरकीब की कथा है, निःसंदेह! आम पाठक को यह लघुकथा जरूर पसंद आएगी। 

'असूर्यम्पश्या' में अगर प्रतीकात्मकता द्वारा लेखिका ने सफलतापूर्वक बंदिनी/महिला का दर्द प्रस्तुत किया है तो 'रफ कॉपी' के जरिये से महिला की शादीशुदा जिंदगी का विश्लेषण भी उसी निर्ममता से किया है।

'प्राण-प्रतिष्ठा' 'निशानदेही' और 'रोशनी' मुझे कमजोर लघुकथाएं लगी जिन्हें कसा जाना चाहिए अथवा उनके अंत पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए।

'शहादत' अगर एक बच्चे की युद्ध विभीषिका पर प्रकट जिज्ञासा का मौन जवाब है तो 'सड़क और पुल' चुनावी नारों का कानफाड़ू शोर । 'अनुदान' साहब के घरेलू नौकरों और बाहर के गरीबों का फर्क समझाती हुई शानदार लघुकथा है।

"तो अम्मा, युद्ध के कारण छह-सात दिनों से हमें खाना नहीं मिल रहा है, अगर हम भी भूख और प्यास से मर जाएंगे तो क्या हम भी शहीद ही कहलाएंगे?"

'शहादत' लघुकथा में बच्चे के मुंह से निकला हुआ यह प्रश्न अगर युद्ध से नफ़रत करने पर मजबूर न कर दे तो यकीनन अब हम इंसानों को शहादत के मायने बदलने पड़ेंगे।

'रोशनी' घिसे-पीटे कथ्य एवं कथानक वाली लघुकथा है जिसके प्रस्तुतिकरण में भी कोई नयापन नही है।

 इस भाग में मैं मुकम्मल विवेचना हेतु, कनक जी की वैचारिक रूप से कमजोर लघुकथा 'प्रतिफलन' लेने की जुर्रत करूँगा। (सलंग्न चित्र में यह लघुकथा पढ़ी जा सकती है)

हमारे देश में कई विचारों के साथ एक विचार यह भी प्रसिद्ध है कि कॉन्वेंट स्कूल धीरे-धीरे बच्चों को पश्चिमी सभ्यता एवं ईसाइयत की ओर अग्रसर करते हैं और इसी विचार को समर्थित करती लघुकथा है 'प्रतिफलन'।

इसतरह के किसी भी अतार्किक विचार का समर्थन करती रचना अपने आप में ही एक कमजोर रचना होकर रह जाती है बिल्कुल वैसे ही जैसे आप सैटेलाइट और रॉकेट के इस दौर में भी पृथ्वी के चपटी होने के विचार का समर्थन करती कोई रचना लिख दो।

आज भारत के करोड़ों बच्चे कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ते हैं, उसमें से कितने प्रतिशत ईसाई बन जाते हैं या चर्च में जाने लगते हैं और मारिया से शादी कर लेते हैं ?

अगर इतिहास और फैक्ट्स की बात की जाए तो भारत के अशिक्षा उन्मूलन कार्य में सबसे बड़ा योगदान इन्हीं कान्वेंट स्कूलों का रहा है बाकी बात रही बच्चों के पश्चिमी सभ्यता उन्मुख होने की तो सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले या फिर झोपड़पट्टी में रहने वाले अशिक्षित किशोर तक पश्चिमी सभ्यता की नकल करने लगे हैं तो इसे इस तरह तो कतई नही ले सकते कि कान्वेंट की वजह से पश्चिमी सभ्यता का प्रचार प्रसार हो रहा है।

भारत में कई युवा हैं जो चर्च, दरगाह, गुरुद्वारा और मंदिर जाना पसंद करते है और हर प्रकार के धार्मिक स्थल का इतिहास जानना चाहते हैं । विविधता में एकता विचार वाले इस देश में इस तरह के एकतरफा एवं एकधर्मी विचार पर लघुकथा लिखना कतई सराहनीय नही हो सकता।

अब क्योंकि मूल विचार ही कमजोर है तो मैं शीर्षक, शिल्प, कथ्य इत्यादि लघुकथा के बाकी अंगों के बारे में नही लिखूंगा।

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भाग-4 (अंतिम)

जिन पाठकों ने इस पुस्तक समीक्षा के पिछले तीनों भाग पढ़े हैं, वे इतना तो समझ ही चुके होंगे कि यह पुस्तक अपनी छपी कीमत के मुकाबले पाठक को बेहतर साहित्य मुहैया करवा रही है।

जनसेवा से शुरू हुई आजाद भारत की राजनीति आज निजी स्वार्थ को पूरा करने के लिए किन कुटिलताओं से गुजरती है! यह समझाती हुई लघुकथा 'गहरे पानी पैठ' अपने व्यंग्यात्मक संवादों की वजह से दिलचस्प तो है ही लेकिन उतनी ही प्रखर भी है और यह साबित करती है इस लघुकथा की समापन पंक्ति 'मंत्री जी के ख्याल गहरे पानी के स्वीमिंगपूल में तैर रहे थे।'

कुछ रचनाएँ समझाई नहीं जा सकती बल्कि वह मासूम प्रेम की तरह सिर्फ महसूस की जा सकती हैं और 'गीतांजलि' लघुकथा ऐसी ही रचनाओं में शामिल है। यह लघुकथा रवींद्रनाथ टैगौर को आदरांजलि देती प्रतीत होती है।

मैंने 'प्रतिफलन' लघुकथा की जिस मुखरता से आलोचना की थी आज उसी मुखरता से 'नक्शे कदम' लघुकथा की तारीफ करना चाहूंगा। एक मशहूर खेल को कथानक में लेकर जिस तरह भारत के अनेकता में एकता वाले विचार को कथ्य में निरूपित किया है उसके लिए लेखिका को मेरी ओर से एक सलाम!

'खो गई छाँव' मेरे जैसे प्रकृति प्रेमी के लिए एक डरावनी लघुकथा है लेकिन प्रकृति का विनाश रोकने के लिए साहित्य द्वारा यह डर प्रस्तुत करते रहना भी उतना ही जरूरी भी है।

 'क्लासिक' एक कमजोर संदेश देती हुई अलग-सी लघुकथा है। प्रस्तुतिकरण की शैली इसे अपनी तरह की दूसरी लघुकथाओं से अलग कर रही है।

 'गुणवत्ता' लघुकथा में 'नक्शे कदम' की भांति एक मशहूर खेल को कथानक में लेकर राजनीति की सत्तालोलुपता का कथ्य तरीके एवं सलीके से प्रस्तुत किया गया है।

'अंदर...बाहर...' लघुकथा बनावटी जिंदगी एवं दिखावटी प्रेम का दस्तावेज है जिसके अंत में प्रस्तुत निजता भी एक स्वार्थ अथवा छलावा है।

'दोषी कौन' और 'बरसती आंखे' मुझे सन्देशहीनता की वजह से विशेष प्रभावित नहीं कर पाई।

 'मिट्टी' आज के संवेदनहीन समाज का ब्लड टेस्ट करती एक मार्मिक लघुकथा है। साधारण कथ्य की अलहदा प्रस्तुति है लघुकथा 'कैरियर' ।

'कैक्टस के फूल' आधुनिक समस्याओं का भावनात्मक निवारण प्रस्तुत करती शानदार लघुकथा है।

'नया इंकलाब' लघुकथा का निर्वहन ठीक से नहीं हुआ है। / / उस शाम गड़रियों ने भेड़ों के माँस की शानदार दावत की। / / यह पंक्ति कुछ अजीब-सी लगी। मानवेत्तर अथवा प्रतीकात्मक लघुकथाओं की भी अपनी कुछ स्वभाविकताएँ एवं अस्वभाविकताएँ होती है।

'दुर्गा अष्टमी' और 'जीवन स्त्रोत' के कथ्य, कथानक पुराने होने के बावजूद लघुकथाओं की बुनावट अच्छी है।

मेरे नजरिये से 'बड़ा कौन' एक औसत लघुकथा है क्योंकि इसका कथ्य कहता है कि रचयिता ही अपनी रचना के साथ अन्यायपूर्ण रवैया अपनाता है। वह क्षमाशील नहीं है और वह निर्दोष, मासूमों या अहंकारियों में कोई फर्क न करते हुए दावानल की भांति अंधा न्याय करता है।

स्त्री व्यथा की बानगी 'चुटकीभर सिंदूर' अगर औसत लघुकथा है तो 'खबर' उतनी ही सशक्त एवं मार्मिक प्रस्तुति है।

 'आवरण' लघुकथा बरबस ही वरिष्ठ साहित्यकार कीर्तिशेष मधुदीप गुप्ता सर की याद दिला देती है।

'अधूरा सच' का निर्वहन एकतरफा है। हर आंदोलन के दो पहलू होते हैं अगर यह ध्यान में रखकर लिखा जाता तो लघुकथा बेहतरीन में शुमार होती।

'जनानी जात' लघुकथा पढ़कर मुझे गर्व की अनुभूति होती है कि मुझे कनक जी जैसी सशक्त लेखनी का सान्निध्य प्राप्त है। आप यह लघुकथा पढ़कर समझ सकते हो कि घिसे-पिटे कथ्य के प्रस्तुतिकरण में नवीनता क्या कमाल कर जाती है!

 'गूंज' लघुकथा वाकई अपने अंदर आदिवासी लड़की के थप्पड़ की गूंज लिए हुए है। 'परिवर्तन' लघुकथा में खरगोश की पीठ पर चढ़ा कछुआ सशक्त संदेश दे रहा है। 'उड़ान' लघुकथा आपको खुले आकाश और बाबू की हवेली की छत वाली आजादी का अंतर समझा देगी।

 'आँचल' लघुकथा आधुनिक जीवन शैली एवं नए प्रचलनों पर यक्षप्रश्न खड़ा करने में सक्षम साबित हुई है। यकीन मानिए 'ठंडी हवा का झोंका' आपके मन को भिगो देगा।

 'इनसोर' लघुकथा, व्यवस्था, समाज और उनके द्वारा बनाये इन्शुरन्स तक गरीब की पहुँच का असल चिट्ठा खोलती है। मैं अगर इस लघुकथा का किरदार 'मैनेजर साहब' होता तो एकबारगी कह उठता "स्साला! यह मजदूर सवाल बहुत पूछता है!" लेकिन सच यह है कि इस लघुकथा ने इन्शुरन्स क्लेम में गरीब की भागीदारी पर सवाल तो खड़ा कर ही दिया है।

अब अगर मुझसे पूछा जाए कि इस लघुकथा संग्रह के परिप्रेक्ष्य में आप लेखिका को किस नजरिये से देखते हो? ...तो मेरा जवाब बेहद साफ और स्पष्ट होगा कि आप यदि नवीन विषयों पर पढ़ना पसंद करते हो और आप को आधुनिक युग के जमीन से जुड़े हुए किरदार पढ़ने है तो जरूर 'कनक हरलालका जी' को पढ़िए।

मैं विस्तार में जाने से बच रहा हूँ फिर भी मुझे 'इनसोर' का सवाल पूछता हुआ मजदूर और 'घुटन' का फफक-फफककर रोता हुआ ऑटोरिक्शा ड्राइवर कहीं मेरे आसपास के ही किरदार लगते हैं।

एक अच्छी पुस्तक और उसके रचनाकार का जरूर सम्मान होना चाहिए और 'कितना-कुछ अनकहा' लघुकथा संग्रह एवं इसकी लेखिका 'कनक हरलालका जी' इस सम्मान की पूरी तरह हकदार हैं।

धन्यवाद,

- अनिल मकारिया

गुरुवार, 3 फ़रवरी 2022

अनिल मकारिया जी द्वारा मेरी एक लघुकथा की समीक्षा



स्वप्न को समर्पित । डॉ.चंद्रेशकुमार छतलानी 

लेखक उसके हर रूप पर मोहित था, इसलिये प्रतिदिन उसका पीछा कर उस पर एक पुस्तक लिख रहा था। आज वह पुस्तक पूरी करने जा रहा था, उसने पहला पन्ना खोला, जिस पर लिखा था, "आज मैनें उसे कछुए के रूप में देखा, वह अपने खोल में घुस कर सो रहा था"

फिर उसने अगला पन्ना खोला, उस पर लिखा था, "आज वह सियार के रूप में था, एक के पीछे एक सभी आँखें बंद कर चिल्ला रहे थे"

और तीसरे पन्ने पर लिखा था, "आज वह ईश्वर था और उसे नींद में लग रहा था कि उसने किसी अवतार का सृजन कर दिया"

अगले पन्ने पर लिखा था, "आज वह एक भेड़ था, उसे रास्ते का ज्ञान नहीं था, उसने आँखें बंद कर रखीं थीं और उसे हांका जा रहा था"

उसके बाद के पन्ने पर लिखा था, "आज वह मीठे पेय की बोतल था, और उसके रक्त को पीने वाला वही था, जिसे वह स्वयं का सृजित अवतार समझता था, उसे भविष्य के स्वप्न में डुबो रखा था।

लेखक से आगे के पन्ने नहीं पढ़े गये, उसके प्रेम ने उसे और पन्ने पलटने से रोक लिया। उसने पहले पन्ने पर सबसे नीचे लिखा - 'अकर्मण्य', दूसरे पर लिखा - 'राजनीतिक नारेबाजी', तीसरे पर - 'चुनावी जीत', चौथे पर - 'शतरंज की मोहरें' और पांचवे पन्ने पर लिखा - 'महंगाई'।

फिर उसने किताब बंद की और उसका शीर्षक लिखा - 'मनुष्य'

-चंद्रेश कुमार छतलानी


इस लघुकथा पर समीक्षा । अनिल मकारिया

यह लघुकथा बेहद रोचक है । यूँ समझिये एक ग्रंथ को लघुकथा में समाहित कर दिया है ।

कुछ प्रतीकों को मैं खोल पाया कुछ को शायद किसी और तरीके से ज्ञानीजन खोल पाएं ।

इस लघुकथा का शीर्षक 'स्वप्न को समर्पित' इस लघुकथा की मूल संकल्पना है आप इस शीर्षक को इस लघुकथा की चाबी कह सकते हैं ।

विष्णु पुराण के मुताबिक यह दुनिया शेषनाग पर सो रहे विष्णु का स्वप्न मात्र है ।

जब विष्णु क्षीरसागर में तैरते हुए शेषनाग पर सो रहे होते हैं तब वे किसी अवत्तार रूप में मृत्युलोक (धरती) पर विचरण कर रहे होते हैं और जब धरती पर अवत्तार रूप में सो रहे होते है तब वह विष्णु रूप में जागृत अवस्था में कायनात का राजकाज देख रहे होते हैं ।

// "आज वह ईश्वर था और उसे नींद में लग रहा था कि उसने किसी अवतार का सृजन कर दिया"//

तीसरे पन्ने पर लेखक (ईश्वर) द्वारा सृजित यह पंक्तियां इस लघुकथा के शीर्षक की संकल्पना को बल देती है ।

इस लघुकथा में ईश्वर को लेखक की संज्ञा दी गई है जो अपनी ही रचना मनुष्य पर मोहित है (प्रतीक: रची गई किताब का शीर्षक 'मनुष्य')

वह अपने बनाये आज के मनुष्य की विवेचना कर रहा है ।

उसे अपना बनाया मनुष्य विभिन्न जानवरों की तरह आचरण करते तो दिख रहा है लेकिन मनुष्यत्व उसमें नदारद है।

शायद इसीलिए अपनी प्रिय रचना मनुष्य से हताश लेखक (ईश्वर) ने अपनी ही किताब के लिखे बाकी के पन्ने पलटने से खुद को रोक दिया ।

//उसने पहले पन्ने पर सबसे नीचे लिखा - 'अकर्मण्य', दूसरे पर लिखा - 'राजनीतिक  नारेबाजी', तीसरे पर - 'चुनावी जीत', चौथे पर - 'शतरंज की मोहरें' और पांचवे पन्ने पर लिखा - 'महंगाई'।//

हर पन्ने को दिए गए शीर्षक आज के मनुष्य की कहानी पन्ना-दर-पन्ना बयान करते हैं ।

'अकर्मण्यता' की वजह से 'नारेबाजी' पर ज्यादा जोर देना जिसके फलस्वरूप 'चुनावी जीत' हासिल करना और दुर्बल वर्ग अथवा सता को शतरंज के मोहरों की तरह इस्तेमाल करके 'महंगाई' का कारण बनाना ।

इस लघुकथा के प्रतीकों को मैंने अपने नजरिये से समझा है हो सकता है लेखक का नजरिया इस लघुकथा को लिखते समय अलग रहा हो ।

मुझे यह लघुकथा निजी तौर पर बेहद पसंद आई । यह लघुकथा पाठक के लिए एक 'कैलिडोस्कोप' है जिसमें कांच के टुकड़े हर बार नई आकृति गढ़ते रहते हैं ।

- अनिल मकारिया

#Anil_Makariya

Jalgaon (Maharashtra)

मंगलवार, 1 फ़रवरी 2022

वरिष्ठ लघुकथाकार योगराज प्रभाकर जी की लघुकथा और रचना की कल्पना भट्ट जी द्वारा समीक्षा

घड़ी की सुईयां / योगराज प्रभाकर


दादा और पोता, टीवी स्क्रीन पर आँखें गड़ाए बैठे थे जहाँ कश्मीर के मुद्दे पर गरमा गर्म  बहस चल रही थीI वक्ताओं का पूरा पैनल बहुत ही जोश में थाI हर कोई एक दूसरे से बढ़ चढ़ कर भारत के विरुद्ध विष वमन कर रहा थाI 
"हिन्दुस्तानी फ़ौज हमारे कश्मीरी भाईओं पर दिन रात जुल्म कर रही हैI" एक वक्ता ने लगभग चिल्लाते हुए कहाI 
"हिंदुस्तान की सरकार बेगुनाह कश्मीरियों का कत्ल कर रही हैI" दूसरे वक्ता ने ऊँचे स्वर में कहाI 
"दिन दिहाड़े हमारी माँ बहनों की इज्ज़त लूटी जा रही हैI" लम्बी दाढ़ी वाले वक्ता का स्वर उभराI 
"हमारी फ़ौज इंडिया की ईंट से ईंट बजा देंगेI" यह एक सेवानिवृत्त सेना अधिकारी का स्वर थाI  
"हम तन मन और धन से अपने जिहादी भाईओं की मदद करेंगेI" लम्बी दाढ़ी वाले मौलाना ने अपना बाजू हवा में लहराते हुए कहाI
"इंशाअल्लाह! बहुत जल्द कश्मीर में हमारा झंडा लहरा रहा होगाI" जलती आग में घी डालती हुई यह आवाज़ एक जिहादी नेता की थीI
"जिस कश्मीर को ये हिन्दुस्तानी अपना सिर कहते हैं, हम इस सिर को धड़ से अलग किये बगैर हम चैन से नहीं बैठेंगेI" दोनों बाहें उठाते हुए यह फतवा लम्बी दाढ़ी वाले मौलाना की तरफ से उछाला गयाI 
इसी बीच दादा और पोते ने एक दूसरे की तरफ देखाI जहाँ नौजवान पोते की मुट्ठियाँ तनी हुईं और माथे पर क्रोध की रेखाएं थीं वहीँ बूढ़े दादा जी के चहरे पर निराशा और ऊब के मिश्रित चिन्ह उभर आए थेI 
अचानक टीवी के सामने से उठते हुए दादा जी ने कहा: "मैं अब सोने जा रहा हूँ बेटाI" 
उन्हें यूँ अचानक उठते हुए देख पोते ने पूछा: "इस मुद्दे पर आपकी क्या राय है दादा जी?" 
दादा जी के चहरे पर एक फीकी सी मुस्कान फैलीI अपनी छड़ी से दीवार पर टंगे मानचित्र की तरफ इशारा करते हुए उन्होंने उत्तर दिया:  "बेअक्ल लोग हैं ये सबI 1971 में बांग्लादेश गंवा दिया था....लगता है अब बलोचिस्तान की  बार ...| 
पोते के चेहरे पर चढ़ी क्रोध की लाली सहसा पीलेपन में परिवर्तित होने लगी, किन्तु टीवी पर बहस अभी भी जारी थीI
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समीक्षा / कल्पना भट्ट (अप्रैल 2018)

‘घड़ी की सुइयां’ आज की ज्वलंत समस्या जिहाद को लेकर कही गयी एक समसामायिक और लोगों को जागृत करने वाली एक लघुकथा है| कश्मीर! भारत का स्वर्ग कहलाता है, पडोसी मुल्क की नज़र हमेशा से कश्मीर की सर ज़मीन पर गढ़ी हुई है, वक़्त बेवक्त सीमापार पर आक्रमण जारी रखता है, और जिहाद के नाम पर लोगों के बीच ज़हर उगलता है| चैन-ओ-अमन में रहना वाला कश्मीर अब डर के साए में रहता है|
 
मीडिया का काम है लोगों तक खबर पहुंचाना और निष्पक्ष चर्चा करवाना और लोगों को समय समय पर जागृत करना| इन दिनों मीडिया का विकास बहुतरी हुआ है, और देश-विदेश की खबरे घर बैठे ही मिल जाती हैं, जहाँ एक तरफ आज के मीडिया ने सरहदों को एक कर दिया है वहीँ दूसरी ओर अपने व्यापार और टी.आर.पी. को बढाने के लिए हर टी.वी. चैनलों में ख़बरों को लेकर होड़ चली है. किस समाचार को कौन कितनी जल्दी और किस रूप में प्रेषित करना है|’ दादा और पोता, टीवी स्क्रीन पर आँखें गड़ाए बैठे थे जहाँ कश्मीर के मुद्दे पर गरमा गर्म  बहस चल रही थीI वक्ताओं का पूरा पैनल बहुत ही जोश में थाI हर कोई एक दूसरे से बढ़ चढ़ कर भारत के विरुद्ध विष वमन कर रहा थाI’ दादा और पोता समाचार देख रहे थे, कश्मीर को लेकर बहस चल रही थी, लोगों से अपनी राय मांगी जा रही थी, वक्ता अपनी अपनी बात रख रहे थे.और भारत के खिलाफ ज़हर उगल रहे थे| अपने ही देश के लोगों के बीच बढ़ रही असुरक्षा की भावना जिहाद की एक वजह रही है, जीहाद का बीज बोने वाले लोग अपनी जड़ों को फैलाने के लिए हर वो सहारा लेना चाहते हैं जिससे वह देश के अमन-ओ-शांति को छिन् सकें| 
किसी भी समाचार को सुनने और देखने में भी फर्क होता है, किसी व्यक्ति के वक्तव्यों को सुन कर भी जोश आता है पर फिर भी व्यक्ति के बोलते वक़्त के हाव भाव दिखाई नहीं देते पर टी.वी. पर तो इंसान चूँकि दिखाई भी देता है, जोश और भी संवेदना जगाने में काफी प्रभावशाली होता है| 

योगराज प्रभाकर जी ने इस गम्भीर विषय को लेकर संवादों के माध्यम  इस समस्या का सजीव चित्रण प्रस्तुत किया है जो काफी प्रभावशाली रहा हैं : “हिन्दुस्तानी फ़ौज हमारे कश्मीरी भाईओं पर दिन रात जुल्म कर रही हैI" एक वक्ता ने लगभग चिल्लाते हुए कहाI "हिंदुस्तान की सरकार बेगुनाह कश्मीरियों का कत्ल कर रही हैI" दूसरे वक्ता ने ऊँचे स्वर में कहाI "दिन दिहाड़े हमारी माँ बहनों की इज्ज़त लूटी जा रही हैI" लम्बी दाढ़ी वाले वक्ता का स्वर उभराI "हमारी फ़ौज इंडिया की ईंट से ईंट बजा देंगेI" यह एक सेवानिवृत्त सेना अधिकारी का स्वर थाI  "हम तन मन और धन से अपने जिहादी भाईओं की मदद करेंगेI" लम्बी दाढ़ी वाले मौलाना ने अपना बाजू हवा में लहराते हुए कहाI "इंशाअल्लाह! बहुत जल्द कश्मीर में हमारा झंडा लहरा रहा होगाI" जलती आग में घी डालती हुई यह आवाज़ एक जिहादी नेता की थीI "जिस कश्मीर को ये हिन्दुस्तानी अपना सिर कहते हैं, हम इस सिर को धड़ से अलग किये बगैर हम चैन से नहीं बैठेंगेI" दोनों बाहें उठाते हुए यह फतवा लम्बी दाढ़ी वाले मौलाना की तरफ से उछाला गयाI’ कश्मीर पर हो रही चर्चा ने तूल पकड़ा है और लोग अपनी बेबाक टिप्पणी दे रहें हैं| 
लोगों की बेबाक टिप्पणियों से जीहाद के नाम से लोगों में फूट डलवाना और अपनी छोटी मानसिकता को बढ़ावा देना है| और इस तरह से मीडिया का ऐसी चर्चाओं को प्रसारित करना उसकी अपनी जिम्मेदारियों पर सवालिया निशान खड़ा करती है| चर्चा का मुख्य विषय एक भाई को दुसरे भाई से अलग करवाने से ज्यादा उनके बीच के फासले को और बढ़ाना है| 
सन १९४७ के में जब देश आज़ाद हुआ, भारत के तब के प्रधानमन्त्री पंडित जवाहरलाल नेहरु और मोहम्मद अली जिन्ना जी के बीच एक संधि हुई थी और भारत दो हिस्सों में विभाजित हो गया था, हिन्दुस्तान और पाकिस्तान| कश्मीर को लेकर तब से अब तक उसके स्वामित्व को लेकर बहस बादस्तूर आज भी जारी है| ऐसे ही १९७१  में कलकत्ता को दो हिस्सों में बाँटा गया, पूर्वी कोलकता जो बांग्लादेश कहलाया और पश्चिम कोलकत्ता भारत के हिस्से में आया, अंग्रेजो ने तीनसो साल भारत पर अपना शाशन चलाया और जाते जाते भी उनकी जो पालिसी रही, ‘डिवाइड एंड रूल’ की उसका एक बीज और बोकर ब्रिटिश हुकूमत ने अपनी मानसिकता से परिचय करवाया है| योगराज प्रभाकर जी की सोच और उनका किसी भी विषय पर गहन अध्यन यह आपकी साहित्यिक रूचि और आपकी बारीक नज़र से परिचय इस कथा के माध्यम से होता है, लघुकथा वस्तुतः  माइक्रोस्कोपिक दृष्टी से अंकुरित होती है, इस कथा के माध्यम से योगराज प्रभाकर जी ने विभाजन के दौरान लोगों के अंदर की कसक और दर्द को बाखूबी दर्शाया है| 

इसी बीच दादा और पोते ने एक दूसरे की तरफ देखाI जहाँ नौजवान पोते की मुट्ठियाँ तनी हुईं और माथे पर क्रोध की रेखाएं थीं वहीँ बूढ़े दादा जी के चहरे पर निराशा और ऊब के मिश्रित चिन्ह उभर आए थेI टी.वी. पर हो रही चर्चा की वजह से दादा और पोते ने एक दुसरे की ओर देखा, वे एक दुसरे की प्रतिक्रिया जानना चाह रहे थे| जवान खून इस चर्चा के चलते विचलित हुआ जब की बूढ़े दादाजी के चेहरे पर निराशा और ऊब के मिश्रित चिन्ह उभर आये, बूढ़े दादा ने विभाजित होने का दर्द सहा था, और इस चर्चा ने उनके घाव पर नमक छिड़क दिया था| योगराज प्रभाकर जी ने दादा और पोते के भाव प्रदर्शित करके विभाजन के दर्द को हरा कर दिया  पाठक को सोचने पर विवश कर दिया, सरहदों के विभाजन में गर दिलों की दूरियाँ भी बढ़ जाए तो आग में घी डालने का काम ही करेगा| युवा वर्ग के सामने जो परोसा जायेगा वही उसे सच लगेगा, और दुश्मन अपनी चाल पर कामयाबी हासिल होगा, ऐसे में गर बुजुर्गों का सही मार्गदर्शन मिल जाए तो उसे अपनी सोच पर सोचने का मौका मिल जाता है| यहाँ घर में बड़े-बुजुर्गों की अहमियत को दर्शाया गया है, आज को बीते हुए कल के अनुभव ही सही दिशा दिखाता है| चाहे वह विभाजन का दर्द हो या किसी अन्य का, घर के बड़े हमेंशा सही मार्गदर्शन देते हैं| 
दादा जी के चेहरे पर के भाव ने पोते को सोचने पर विवश किया:- अचानक टीवी के सामने से उठते हुए दादा जी ने कहा: "मैं अब सोने जा रहा हूँ बेटाI" उन्हें यूँ अचानक उठते हुए देख पोते ने पूछा: "इस मुद्दे पर आपकी क्या राय है दादा जी?" यहाँ दादा जी के मनोभाव को पढ़कर पोते पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पडा, यहाँ एक दादा और पोते के आत्मीय रिश्ते को योगराज प्रभाकर जी ने बहुत ही सुंदर तरीके से पेश किया है| 
 
दादा जी के चहरे पर एक फीकी सी मुस्कान फैलीI अपनी छड़ी से दीवार पर टंगे मानचित्र की तरफ इशारा करते हुए उन्होंने उत्तर दिया:  "बेअक्ल लोग हैं ये सबI 1971 में बांग्लादेश गंवा दिया था....लगता है अब बलोचिस्तान की  बार ...| समय बदल गया है और आगे बढ़ गया पर फिर वही भूल दोहराने वाले लोगों पर इससे बेहतर वक्तव्य हो ही नहीं सकता | बड़े बुज़ुर्ग अपने बच्चों के कहे और अनकहे को पहचानते हैं और उनकी चिंता स्वाभाविक है, और उनका अपने दिल की बात को साझा करना युवा वर्ग के लिए वरदान साबित होता है तभी तो -जिस पोते का खून खौल रहा था अब:- पोते के चेहरे पर चढ़ी क्रोध की लाली सहसा पीलेपन में परिवर्तित होने लगी, किन्तु टीवी पर बहस अभी भी जारी थीI
पोते को एहसास हो गया था, की चर्चा गलत राह पर ले जा रही है, ज़हर फैलाने से सिर्फ मौत का तांडव होगा पर यह कोई हल नहीं है| 

‘समय की सुइयां’ लघुकथा के माध्यम से योगराज प्रभाकर जी ने एक बेहतरीन सन्देश दिया है | कथा जैसे जैसे बढती जा रही है, उत्सुकता बढती जा रही है यह जानने के लिए आगे क्या होगा? यह एक सधे हुए लेखक के गुण होते हैं जो पाठक को अपनी लेखनी से बाँध सके| शिल्प की दृष्टि से लघुकथा सधी हुई है और बीच में संवादों की वजह से कथा सजीव हो गयी है और पाठक के आगे चलचित्र की तरह चल रही है| भाषा सहज और सरल है जिसने लघुकथा को काफी प्रभावित बना दिया है| समय की सुइयां इस लघुकथा के लिए उत्तम शीर्षक साबित हुआ है| योगराज जी ने इस कथा के माध्यम से एक सशक्त सन्देश देने का प्रयत्न किया है जिसमे वे कामयाब हुए है बीच के संवाद और पात्रों के बीच जल्दी जल्दी बदलाव के चलते कहीं कहीं कथा उलझन पैदा कर रही है पर इसके बावजूद लघुकथा अपनी अमित छाप छोड़ने में सफल रही है| 
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 - कल्पना भट्ट

रविवार, 19 दिसंबर 2021

समीक्षा | लघुकथा:ऊँचाई लेखक: रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' | समीक्षक: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

आइए सबसे पहले लघुकथा पढ़ते हैं:

ऊँचाई /  रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

 

 

पिताजी के अचानक आ धमकने से पत्नी तमतमा उठी, "लगता है बूढ़े को पैसों की ज़रूरत आ पड़ी है, वर्ना यहाँ कौन आने वाला था। अपने पेट का गड्ढा भरता नहीं, घर वालों का कुआँ कहाँ से भरोगे?"

 

मैं नज़रें बचाकर दूसरी ओर देखने लगा। पिताजी नल पर हाथ-मुँह धोकर सफर की थकान दूर कर रहे थे। इस बार मेरा हाथ कुछ ज्यादा ही तंग हो गया। बड़े बेटे का जूता मुँह बा चुका है। वह स्कूल जाने के वक्त रोज़ भुनभुनाता है। पत्नी के इलाज़ के लिए पूरी दवाइयाँ नहीं खरीदी जा सकीं। बाबू जी को भी अभी आना था।

 

घर में बोझिल चुप्पी पसरी हुई थी। खाना खा चुकने पर पिताजी ने मुझे पास बैठने का इशारा किया। मैं शंकित था कि कोई आर्थिक समस्या लेकर आए होंगे। पिताजी कुर्सी पर उकड़ू बैठ गए। एकदम बेफिक्र, "सुनो" - कहकर उन्होंने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा। मैं साँस रोककर उनके मुँह की ओर देखने लगा। रोम-रोम कान बनकर अगला वाक्य सुनने के लिए चौकन्ना था।

 

 वे बोले, "खेती के काम में घड़ी भर की फ़ुर्सत नहीं मिलती है। इस बखत काम का जोर है। रात की गाड़ी से ही वापस जाऊँगा। तीन महीने से तुम्हारी कोई चिट्ठी तक नहीं मिली। जब तुम परेशान होते हो, तभी ऐसा करते हो।"

 

उन्होंने जेब से सौ-सौ के दस नोट निकालकर मेरी तरफ़ बढ़ा दिए- "रख लो। तुम्हारे काम आ जाएँगे। इस बार धान की फ़सल अच्छी हो गई है। घर में कोई दिक्कत नहीं है। तुम बहुत कमज़ोर लग रहे हो। ढंग से खाया-पिया करो। बहू का भी ध्यान रखो।"

 

मैं कुछ नहीं बोल पाया। शब्द जैसे मेरे हलक में फँसकर रह गए हों। मैं कुछ कहता इससे पूर्व ही पिताजी ने प्यार से डाँटा- "ले लो। बहुत बड़े हो गए हो क्या?"

 

"नहीं तो" - मैंने हाथ बढ़ाया। पिताजी ने नोट मेरी हथेली पर रख दिए। बरसों पहले पिताजी मुझे स्कूल भेजने के लिए इसी तरह हथेली पर इकन्नी टिका दिया करते थे, परन्तु तब मेरी नज़रें आज की तरह झुकी नहीं होती थीं।

 

 - रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

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समीक्षा

कुछ वर्षों पूर्व मैंने एक कविता लिखी थी, 'पुरुष'। उस कविता की एक पंक्ति है, “मैंने हस्तरेखा की छाया में, गीता का कर्मज्ञान पढ़ा।कविता की इस पंक्ति को लिखते समय मेरे मस्तिष्क में जिनकी छवि आ रही थी, वे मेरे पिता ही थे। अपने पिता से यों तो अधिकतर व्यक्ति प्रभावित होते ही हैं। आखिर उन्हीं का डीएनए हमारे रक्त में मौजूद है। मैंने भी अपने अंतिम समय तक कर्म करने का ज्ञान अपने पिता ही से प्राप्त किया है। वे अपने अंतिम समय तक अपने दायित्व का निर्वाह कर रहे थे और शायद दायित्वपूर्ण होने की संतुष्टि के कारण ही अंत समय में उनके होठों पर मुस्कान थी। चुंकि यह मेरा अपना अनुभव है, शायद इसीलिए, जैसे ही पिता सबंधी लघुकथाओं की चर्चा होती है, मुझे सबसे पहले रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' की लघुकथा 'ऊँचाई' ही याद आती है। इस रचना में भी पिता अपने पितृ-धर्म का पालन करते हैं, पुत्र चाहे विचलित क्यों न हो रहा हो। बुढ़ापा आने पर अपनी आर्थिक कमजोरियों के कारण कई बच्चे अपने माता-पिता का भरण-पोषण करने में समर्थ नहीं होते। लेकिन पिता एक ऐसा आदर्श भी हैं, जो उस असमर्थता को समझते हुए स्वयं को और अधिक सशक्त करने की आंतरिक शक्ति भी रखते हैं। पुत्र की आर्थिक कमजोरी को उसका भाग्य मानते हुए स्वयं कर्म को प्रवृत्त हो उस अशक्तता को कम करने का प्रयास करते हैं। "मैंने हस्तरेखा की छाया में, गीता का कर्मज्ञान पढ़ा" की तरह। यह एक ऐसा संदेश है जो न केवल पिता के प्रति सम्मान का भाव जागृत करता है बल्कि उच्च आदर्शों एवं नैतिक मूल्यों को स्थापित भी कर रहा है।

 

पिता के अतुल्य त्याग और सुसमर्पण की महती भावना को दर्शाती इस रचना से मैं लघुकथा लिखना प्रारम्भ करने से पूर्व से परिचित हूँ। रचना के प्रारम्भ में पत्नी तमतमा कहती है कि, "लगता है बूढ़े को पैसों की ज़रूरत आ पड़ी है, वर्ना यहाँ कौन आने वाला था। अपने पेट का गड्ढा भरता नहीं, घर वालों का कुआँ कहाँ से भरोगे?" यह संवाद ही इस लघुकथा के आधार को व्यक्त कर देता है। इस लघुकथा में इस संवाद के बाद किसी अतिरिक्त भूमिका की आवश्यकता है ही नहीं। पिता काफी समय के बाद अपने बेटे के घर पर आए हैं और बेटे की अर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है।

 

पिता का सम्मान हर सम्प्रदाय में आवश्यक रूप से कहा गया है, हिंदू नीति में लिखा है कि "जनकश्चोपनेता च यश्च विद्यां प्रयच्छति। अन्नदाता भयत्राता पश्चैते पितरः स्मृताः॥" अर्थात जन्मदाता, यज्ञोपवीत कराने वाला, विद्या देने वाले, भोजन प्रदान करने वाले और भय से रक्षा करने वाले व्यक्ति पिता हैं। वहीं इस्लाम में सूरतुल इस्रा : 23 के अनुसार “...माता-पिता के साथ अच्छा व्यवहार करना, उनके बुढ़ापे में उनसे कुछ भी बुरा न कहते हुए विनम्र रहना, सिर झुकाये रखना, और कहना कि ऐ रब दया कर उन दोनों पर जिस तरह उन दोनों ने मेरे बचपन में मुझे पाला है।" सिखों के दशम गुरु श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी के चार सुपुत्रों को सामूहिक रूप से संबोधित चार साहिबज़ादे किया जाता है, क्योंकि अपने पिता के लिए वे मिल कर एक ही शक्ति बने और इसाई धर्म में तो चर्च के पादरी को ही फादर जैसे महत्वपूर्ण शब्द से सम्बोधित किया जाता है।

 

इस लघुकथा में भी अंत में जब यह पंक्ति आती है कि //पिताजी ने प्यार से डाँटा- "ले लो। बहुत बड़े हो गए हो क्या?"// तब अंतर्मन में पिता के प्रति सम्मान स्वतः ही जागृत हो उठता है। क्योंकि उस समय वे अपने युवा पुत्र और उसके परिवार के लिए भी भोजन प्रदान करने वाले अन्नदाता बन जाते हैं। इसी प्रकार "रात की गाड़ी से ही वापस ... तभी ऐसा करते हो।" वाला अनुच्छेद पिता का भय से रक्षा करने वाला चरित्र उजागर कर रहा है।

 

इस रचना में पुत्र पहले तो यह सोचता है कि //बाबू जी को भी अभी आना था।// लेकिन जब पिताजी कुर्सी पर उकड़ू बैठ गए। एकदम बेफिक्र, "सुनो" - कहकर उन्होंने पुत्र का ध्यान अपनी ओर खींचा तब वह सोचता है कि "मैं साँस रोककर उनके मुँह की ओर देखने लगा।" हालांकि उसे यह उम्मीद थी कि पिता कुछ मांगेंगे, लेकिन फिर भी चुपचाप उनकी बात सुनने को आतुर होता है यहां पुत्र के चरित्र का वही आदर्श स्थापित हो रहा है जैसा कि सूरतुल इस्रा : 23 में कहा गया है उनके बुढ़ापे में उनसे कुछ भी बुरा न कहते हुए विनम्र रहना, सिर झुकाये रखना।

 

पिता-पुत्र के संबंधों के आदर्शों की व्याख्या करती यह रचना केवल आदर्शों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इस लघुकथा की ऊँचाई इससे अधिक है। बड़े बेटे का जूता, पत्नी की दवाइयाँ और स्वयं की कमज़ोरी का कारण केवल अपनी पत्नी और अपने बच्चों को ही अपना आश्रित मानना है। (माता-)पिता को ऐसे समय में भुला देने का एक अर्थ उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियों से पलायन करना भी है। //बाबू जी को भी अभी आना था।// वाला वाक्य यह दर्शाने में पूरी तरह समर्थ है। इसके अतिरिक्त अंतिम पंक्ति इस रचना के शीर्षक को सार्थक करते पुत्र को पितृ-धर्म की ऊँचाई भी समझा रही है, जो वह पहले नहीं समझ पाया तो शर्मिंदा सा हुआ।

 

लघुकथा का शीर्षक श्रेष्ठ है, भाषा सभी के समझ में आ जाए ऐसी है। कुल मिलाकर श्री काम्बोज की विवेकी, गूढ़ और प्रबुद्ध सोच का प्रतिफल यह लघुकथा एक उत्तम और सभी के लिए पठनीय साहित्यिक कृति है।

 

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


सोमवार, 8 नवंबर 2021

समीक्षा: लघुकथा संग्रह: ज़िंदा मैं | लेखक: अशोक जैन | समीक्षक: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

लघुकथा की सहजता का ध्वजावाहक: ज़िंदा मैं

भगवान श्रीराम ने वनवास के कई वर्ष पंचवटी में व्यतीत किए थे। पंचवटी अर्थात पांच वृक्ष। ये पांच पेड़ थे - पीपल, बरगद, आँवला, बेल तथा अशोक। इन पर एक शोध के बाद वैज्ञानिकों ने पाया कि इन पाँचों के आस-पास रहने से बीमारियों की आशंका कम हो जाती है और शरीर की प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ती है। आज कोरोना और अन्य कई संक्रमणों के बीच में जीवित रह रहे हम सभी के लिए इन पांच वृक्षों में से एक के नाम वाले लेखक-कवि-सम्पादक श्री 'अशोक' जैन का लघुकथा संग्रह  "ज़िंदा मैं" का आवरण पृष्ठ मेरे अनुसार प्रकृति और जलवायु के सरंक्षण का प्रतिनिधित्व करता हुआ इसी बात को इंगित करता है कि उचित रहन-सहन हेतु वृक्षों द्वारा प्रदान की जा रही ऊर्जा का सही दिशा में उपयोग होना चाहिए। यह किताब खोलने से पहले ही मुझे इसके आवरण चित्र ने मुझे यों प्रभावित किया। वृक्षों की कटाई की आँधियों के बीच कोई 'बूढा बरगद' (इस संग्रह की एक रचना) अपनी हिलती जड़ों के बावजूद आज भी सरंक्षण देता है और कोई नन्ही कोंपल इस परम्परा की संवाहक बन जाती है। इस संग्रह की भूमिका उदीयमान व प्रभावोत्पादक रचनाओं  के लेखक श्री वीरेंदर 'वीर' मेहता ने लिखी है, जो संग्रह का सही-सही प्रतिनिधित्व कर रही है। एक उदीयमान रचनाकार से भूमिका लिखवाने का यह प्रयोग मुझ सहित कई नवोदितों को ऊर्जावान करने में सक्षम है।

भारतवर्ष के इतिहास में उदारता, प्रेम, भय, स्वाभाविकता, सहजता, गरिमा, उन्नति, लक्ष्मी, सरस्वती, स्वास्थ्य, विज्ञान आदि गुण श्रेष्ठतम स्तर पर हैं। ऐसा ही पुरातन साहित्य भी है। इतिहास और पुरातन साहित्य हमें हिम्मत प्रदान करता है, लेकिन जब हम अपने समय का हाल देखते हैं तो उपरोक्त गुणों को तलाशने में ही हाथ-पैर फूल जाते हैं। साहित्य का दायित्व तब बढ़ ही जाता है। महाकवि जयशंकर प्रसाद की कामायनी के मनु की तरह, “विस्मृति का अवसाद घेर ले, नीरवता बस चुप कर दे।” 41 लघुकथाओं के इस संग्रह "ज़िंदा मैं" में भी उपरोक्त गुणों को समय के साथ विस्मृत नहीं होने देने की रचनाएं निहित हैं। यह साहित्य का धर्म भी है ताकि साहित्य सनातन के साथ सतत बना रहे लेकिन सतही न हो। इस संग्रह की भी अधिकतर लघुकथाएं सहज हैं। शून्य को शून्य रहने तक भय नहीं रहता है लेकिन जब वह किसी संख्या के पीछे लग जाता है तो उसका मूल्य तो बढ़ता ही है, मूल्यवान के दिल में किसी भी शून्य के हटने का डर भी बैठ जाता है और वह स्वयं के प्रति भी सजग हो उठता है। संग्रह की पहली रचना 'डर' भी इसी प्रकार के एक भय का प्रतिनिधित्व कर रही है। 'मुक्ति-मार्ग' एक ऐसी रचना है जो सतही तौर पर पढी ही नहीं जा सकती, यदि कोई ऐसे पढ़ता भी है तो वह अच्छा पाठक नहीं हो सकता। 'गिरगिट' यों तो कथनी-करनी के अंतर जैसे विषय पर आधारित है, लेकिन यह भी सत्य है कि अतीत की इस कथा का वर्तमान से कई जगह गहरा सम्बन्ध है। कुछ लघुकथाओं में पात्रों के नाम समयानूकूल नहीं हैं जैसे, 'हरी बाबू', 'हरखू'। हालांकि ये लघुकथाएं समाज के विभिन्न वर्गों की परिस्थितियों का उचित वर्णन कर रही हैं।

कुछ लघुकथाओं में प्रतीकों का इस तरह प्रयोग किया गया है, जो विभिन्न पाठकों में भिन्न-भिन्न विचारों को उत्पन्न कर सकते हैं, उदाहरणस्वरूप, 'टूटने के बाद' व 'दाना पानी'। पुस्तक की शीर्षक रचना मैं-बड़ा के भाव, अहंकार, भोगवादी संस्कृति, पारिवारिक बिखराव के साथ-साथ स्वाभिमान जैसे गुणों-अवगुणों की नुमाइंदगी करती है। इसी प्रकार 'आरपार' में लालटेन को लेकर, 'खुसर-पुसर' में चित्र के द्वारा, 'बोध' में कदमताल व 'माहौल' में  बादलों के जरिए संवेदनाओं को दर्शाया गया है, जो इन रचनाओं को उच्च स्तर पर ले जाता है। 'जेबकतरा' इस संग्रह की श्रेष्ठतम रचनाओं में से एक है, एक गोल्ड मेडलिस्ट परिस्थितिवश जेबकतरा बन अपने ही शिक्षक की जेब काट लेता है, उसकी मानसिकता का अच्छा मनोवैज्ञानिक वर्णन किया गया है। 'पोस्टर' भी ऐसी रचना है जो एक से अधिक संवेदनाओं की ओर संकेत कर रही है। कुछ लघुकथाओं जैसे 'गिरगिट' में कहीं-कहीं लेखकीय प्रवेश भी दिखाई दिया। अधिकतर लघुकथाएँ सामयिक हैं जैसे 'मौकापरस्त'। ज़्यादातर रचनाओं की भाषा चुस्त है, लाघवता विद्यमान है, शिल्प और शैली भी अच्छी व सहज है। कथ्य का निर्वाह भी बेहतर तरीके से किया गया है और सबसे बड़ी बात अधिकतर रचनाएं पठनीय हैं। अशोक जैन जी की कलम कई मुद्दों पर बराबर स्याही बिखेरने की कूवत रखती है। अतः यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि लघुकथा संग्रह "ज़िंदा मैं" साहित्य के सन्मार्ग पर पंचवटी की तरह ऐसे वृक्षों का न केवल बीजारोपण कर रहा है, बल्कि उन वृक्षों के लिए खाद-पानी भी है, जिनसे लघुकथाएँ खुलकर श्वास ले सकती हैं।
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- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
928544749
chandresh.chhatlani@gmail.com
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लघुकथा संग्रह: ज़िंदा मैं
लेखक: अशोक जैन
प्रकाशक: अमोघ प्रकाशन,गुरूग्राम
मूल्य: ₹80/-

शनिवार, 6 नवंबर 2021

लघुकथा संग्रह: कितना-कुछ अनकहा | लेखिका: कनक हरलालका | समीक्षा: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी




"जब व्यक्ति व समाज की विसंगतियों से भरी कोई समस्या हृदय पर आघात कर उसका समाधान खोजने के लिए विवश कर देती है तो कलम स्वतः ही अपने उद्गार प्रकट करने के लिए विवश हो उठती है।"

- कनक हरलालका (अपने लघुकथा संग्रह के लेखकीय वक्तव्य में)

कनक हरलालका जी न केवल एक समर्थ लघुकथाकारा हैं बल्कि एक अच्छी कवयित्री भी हैं। दो विधाओं में महारथ हासिल करने से पहले किसी भी व्यक्ति को  शब्दों का धनी होना होता ही है, जो प्रतिभा श्रीमती हरलालका में विद्यमान है।

लघुकथा विधा में यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि लघुकथा विसंगतियों की कोख से जन्म लेती हैं। अपने प्रथम लघुकथा संग्रह में हरलालका कहती हैं कि, "विसंगतियाँ मुझे हमेशा से व्यथित करती रही हैं, इसीलिए मैंने विभिन्न विषयों को अपनी लघुकथाओं का माध्यम बनाया है। धरती के प्राय: सभी रंगो को मैंने इन लघुकथाओं में उतारने की कोशिश की है।"

आज का साहित्यकार नैतिक, राजनैतिक दर्शन के मूल्यों को दर्शाने से पिंड छुड़ाता दिखाई नहीं देता वरन इन्हें दर्शा कर अपनी रचनाओं के सौन्दर्य में वृद्धि करता है। इस संग्रह में भी इसी तरह की सत्तासी लघुकथाएं संग्रहित हैं। पहली लघुकथा 'प्यास' से लेकर अंतिम लघुकथा 'भेड़िया आया' कुछ न कुछ प्रभाव ज़रूर छोड़ जाती है। किसी रचना की भाषा तो किसी का शिल्प, कथ्य, विषय, संवेदना और/या शीर्षक प्रभावोत्पादक हैं। लघुकथाओं में मानव सम्बन्धी मूल्यों की वृद्धि का भाव यदि विद्यमान हो तो न केवल रचना उत्तम बल्कि कालजयी बनने का सामर्थ्य भी रखती हैं। इस संग्रह की 'गांधी को किसने मारा' भी एक ऐसी रचना है जो गांधी जी के आदर्श और मूल्यों के ह्वास को दर्शा रही है। 'इनसोर' लघुकथा का शीर्षक कलात्मक और उत्सुकता पैदा करने वाला है। इसी प्रकार 'वयसन्धि', 'कठपुतलियाँ', 'दरकन', 'पुनर्जीवी', 'असूर्यम्पश्या', आदि लघुकथाओं के शीर्षक भी उत्तम हैं।

मज़दूरों के इन्श्योरेंस पर आधारित लघुकथा 'इनसोर' की यह पंक्ति झकझोर देती है कि //"साहब... भूख से मरने पर भी इनसोर का रुपिया मिलेगा क्या...?"// लघुकथा 'सगाई की अंगूठी' का अनकहा आकर्षित करता है। 'वयसन्धि' की भाषा और यह पंक्ति कि // गरीबों की लड़कियां  बचपन से सीधे बड़ी हो जाती हैं// प्रभावित करती है। जहाँ “भीड़” की पंचलाइन उद्वेलित करती है वहीं 'अनुदान' का विषय और उसका निर्वाह काफी बढ़िया है। 'दरकन' लघुकथा का सौन्दर्य इस बात में है कि हर पंक्ति में नायिका विद्यमान होकर भी कहीं नहीं है। पुराने विषय की होकर भी इस रचना का शिल्प महत्वपूर्ण है। 'जंगली', 'उन्होंने कहा था', 'भेड़िया आया' व 'एकलव्य' भी प्रभावित करती रचनाएं हैं। कहीं-कहीं उपदेशात्मकता ज़रूर प्रतीत हुई, जिसे कम किया जा सकता था।

नैतिक, सामजिक, राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आदि मानवीय मूल्यों के संक्रमण को दर्शाती इस संग्रह की अधिकतर रचनाएं पैनी हैं, परिपक्व हैं और अपनी बात बिना किसी लाग-लपेट के कहने में समर्थ हैं। समग्रतः यह संग्रह न केवल पठनीय बल्कि संग्रहणीय भी है।

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- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

chandresh.chhatlani@gmail.com

9928544749


लघुकथा संग्रह: कितना-कुछ अनकहा

लेखिका: कनक हरलालका

प्रकाशन : दिशा प्रकाशन, दिल्ली

मूल्य : ₹३००

पृष्ठ : १२०

रविवार, 23 फ़रवरी 2020

समीक्षा: लघुकथा संग्रह | आप बीती कुछ जग बीती | लेखक: डॉ. अशोक चतुर्वेदी | समीक्षक: डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा

लघुकथा संग्रह : 
आप बीती कुछ जग बीती
लघुकथाकार : डॉ. अशोक चतुर्वेदी
प्रकाशक : शारदा ऑफसेट प्रा.लि., रायपुर
प्रकाशन वर्ष : 2019
संस्करण : प्रथम
पृष्ठ संख्या : 80
मूल्य : 100

जीवन के विभिन्न रंगों को अपने में समेटे डॉ. अशोक चतुर्वेदी जी की छप्पन लघुकथाओं का एक अनूठा संगम है, यह पुस्तक- 'आप बीती कुछ जग बीती'। इसकी हर कथा संक्षिप्त, मनोरंजक, सार्थक एवं इंसानी स्वभाव के उज्ज्वल पक्ष की पक्षधर है, जो सुधी पाठकों के अंतर्मन को भले-बुरे का एहसास कराती हुई जीवन पथ पर आगे बढ़ने के लिए मार्ग-प्रशस्त करती है। बस ज़रूरत है, तो सिर्फ़ पठन के साथ मनन करते हुए सकारात्मक सोच के साथ उसे अपने व्यवहार में लाने की। 'आप बीती कुछ जग बीती' संग्रह की लघुकथाओं से गुजरते हुए मैंने पाया कि इसमें से अधिकतर लघुकथाएँ भावनात्मक और मानवीय संवेदनाओं से ओतप्रोत हैं। लेखक डॉ. अशोक चतुर्वेदी छत्तीसगढ़ राज्य के एक वरिष्ठ अधिकारी हैं, जिन्होंने अपने लगभग दो दशक के दीर्घ प्रशासनिक जीवन में गाँव के अंतिम छोर पर स्थित व्यक्ति से सीधा संपर्क रखा और उनके सुख-दुःख में बहुत
ही आत्मीयता से जुड़ाव रखा।
लघुकथा गद्य साहित्य में अभिव्यक्ति की वह नवीनतम और लोकप्रिय विधा है, जो आकार में छोटी है, परन्तु अपनी पूरी बात कम से कम शब्दों में कहने में पूरी तरह से सक्षम है। यह कवि बिहारीलाल के दोहों की तरह 'देखन में छोटन लगे, घाव करे गंभीर' को चरितार्थ करती है। लेखक डॉ. अशोक चतुर्वेदी जी ने अपनी बात इसी विधा में कहने का सफल प्रयास किया है। डॉ. अशोक चतुर्वेदी जी ने अपनी लघुकथाओं में जीवन के हर क्षेत्र में व्याप्त सामाजिक विद्रूपताओं के अलावा उच्च अधिकारियों द्वारा आम आदमी के शोषण, भ्रष्टाचार, जुगाड़, कथनी- करनी भेद, उच्च वर्ग की सम्पन्नता तथा निम्न वर्ग के संघर्षमय जीवन का बहुत ही सीधे, सरल तथा सजीव रूप से सुन्दर चित्रण किया है। इनके पात्र कहीं भी हवाई या काल्पनिक नहीं, बल्कि अपने आसपास के ही प्रतीत हो रहे हैं। चतुर्वेदी जी की लघुकथाएँ कमोबेश रूप से यथार्थ के बहुआयामी पक्षों को संकेत करती हैं, जिनमें व्यंग्य की व्यंजना तथा अर्थ की दूरगामी व्यंजना का समावेश इस प्रकार होता है कि वहखुले अंत की ओर संकेत करती हैं।
डॉ. अशोक चतुर्वेदी जी ने अपनी लघुकथाओं के लिए विषय का चयन अपने परिवेश से ही किया है। उनकी लघुकथाएँ जिस शिद्दत के साथ आज के यथार्थ को एक रचनात्मक संदर्भ देती हैं, वह उनके सुदीर्घ अनुभव, ज्ञान एवं संवेदना के उचित समायोजन का प्रतिफल प्रतीत होता है। शासकीय सेवा में एक वरिष्ठ पद पर कार्य करते होते हुए भी शासन-प्रशासन की अव्यवस्था एवं विद्रूपताओं को बिना किसी लाग-लपेट के कथा का आधार बनाना लेखक डॉ. अशोक चतुर्वेदी के साहस एवं सामाजिक सरोकारों के प्रति जवाबदेही और स्पष्टवादिता का परिचायक है। यथा, 'जनअदालत' में उन्होंने लिखा है- ''आज फिर शांत बस्तर की खूबसूरत वादियों में, शासन के द्वारा किए जा रहे विकास कार्यों की प्रशंसा करने वाले एक उत्साही नौजवान को मुखबीरी के नाम पर 'जन- अदालत' लगाकर नक्सलियों द्वारा मौत की सजा दी गई। पहले उसकी ऊँगलियों के नाखून निकाल दिए गए फिर ऊँगलियाँ काट दी गईं और कठोर यातना के बाद एक वीभत्स मौत।'' पुलिस अधिकारियों के द्वारा प्रभावशाली एवं साधारण आदमी के एक ही प्रकार के प्रकरण में अपनाए जाने वाले दोहरे व्यवहार, नक्सल प्रभावित क्षेत्रों मंे आयोजित जन अदालत, गौ-सेवा, अदालती कार्यवाही में देरी, उच्चाधिकारियों के कथनी-करनी में भेद और दोहरे चरित्र पर आधारित अनेक लघुकथाएँ, बहुत ही अच्छी बन पड़ी हैं।
इस संग्रह से गुजरते वक्त मुझे कहीं भी अजीब-सा नहीं लगा। सभी लघुकथाएँ सहज, सरल और जीवन्त लगीं, जिन्हें पढ़ना अपने आप में एक अलग अनुभव प्राप्त करना है। संग्रह की लघुकथाएँ पाठकों के समक्ष कई बड़े प्रश्न भी उठाती हैं। मूर्तिपूजा, जीवहत्या, ईश्वर-अल्लाह, दामिनी: एक प्रश्न, बच्चे का भविष्य, अल्पसंख्यक, आरक्षण, महिला आरक्षण, अमीर कौन गरीब कौन में उठाए गए सवाल ऐसे हैं, जहाँ आकर पाठक बहुत कुछ सोचने पर विवश हो जाता है। यहाँ लेखक ने स्वयं इनके उत्तर नहीं दिए हैं, बल्कि पाठकों के समक्ष ही प्रश्न रख दिए हैं। अब पाठकों को ही उनके उत्तर तलाशने होंगे। यथा- ''क्या हत्या और दंगे ईश्वर या अल्लाह की मर्जी से होते हैं?'' ''प्रश्न बड़ा गंभीर है। कौन है ज़्यादा महत्त्वपूर्ण? शरीर या आत्मा?'' ''पर संसद, मंत्रिमंडल एवं विधानसभाओं में यह प्रावधान कब लागू होगा ? होगा भी कभी?'' यूँ तो सीमित कलेवर वाली लघुकथा में परिवेश के चित्रण की ज्यादा संभावना नहीं रहती,परंतु चतुर्वेदी जी ने अपनी कई लघुकथाओं में बहुत ही सुंदर रूप में परिवेश का चित्रण कर दिया है।
जैसे- बढ़ता ड्राईंगरूम: घटते मानवीय रिश्ते, फ्लैट, मकान, ट्रेन की सीटी के मायने, कब्रिस्तान का सच, स्वतंत्रता क्या है ?, अपहरण, इकलौता, एक नन्ही-सी जान, आँसू, तकदीर का फ़साना। विचारों के प्रवाह, संवेदना की गहराई एवं संवादों की मार्मिकता के कारण डॉ. अशोक चतुर्वेदी की कई लघुकथाएँ बहुत ही अच्छी बन पड़ी हैं। विषयों की विविधता इस बात का सूचक है कि लेखक की नजर हर संवेदना पर टिकी है और उन्होंने हर अनुभूति को शब्दों में पिरोने का प्रयास किया है। संग्रह की लघुकथाओं में उनके मानवीय मूल्यों की झलक दिखाई देती है, जिन्हें पठनोपरांत इनकी सम्प्रेषणीयता पाठक के अंतर्मन की गहराई तक उतर जाती है। यथा- ''सात-आठ वर्षीय बड़े बेटे द्वारा अपनी मृत माँ एवं दुग्धपान करते अनुज को अविरल निहारते रहने की पीड़ा, वेदना।'' डॉ. अशोक चतुर्वेदी जी की लघुकथाएँ पारिवारिक जीवन के बदलते हुए रूपों को सामने लाती हैं, जहाँ रिश्तों में खुरदुरापन ही नहीं वीरानापन भी पसर रहा है। यथा- ''घर में साल में कभी-कभार कोई मेहमान या रिश्तेदार एक-दो दिन के लिए आते हैं।'' एक अन्य लघुकथा में उन्होंने लिखा है- ''एक भाई ने अपने सगे भाई को ही गोली मार दी, पैत्रिक सम्पत्ति हथियाने के लिए।'' चतुर्वेदी जी की अनेक लघुकथाओं में जहाँ भावनात्मक रिश्तों की ज़मीन दरक रही है, वहीं उसके उजले अध्याय भी हैं। यथा- 'मदर्स डे' शीर्षक लघुकथा की ये पंक्तियाँ, ''मेरी माँ के लिए है। मेरे पास सिर्फ़ तीस रुपए हैं। क्या इतने में देंगे ?'' एक अन्य लघुकथा 'इकलौता' में उन्होंने लिखा है- ''बेटा, हम तुझे ज़्यादा चाहते हैं, क्योंकि हम तो दो हैं और तू एक ही है।''


डॉ. अशोक चतुर्वेदी जी की लघुकथाएँ भ्रष्ट सरकारी तंत्र, राजनीतिक कुचक्र और उनमें फँसे एक आम आदमी की पीड़ा की सार्थक अभिव्यक्ति है। ''घटना को बीते कई साल बीत गए। विभाग द्वारा अभी आत्महत्या के लिए प्रेरित करने वाले कारणों एवं जिम्मेदारियों का निर्धारण किया जा रहा है।'' इसी प्रकार एक अन्य लघुकथा में उन्होंने लिखा है- ''अ-सरदार जी बड़े ही विनम्र स्वभाव के थे और भ्रष्ट भी। चाटुकारिता के गुण उनमें कूट-कूट कर भरे थे, जो आज के युग में हर मर्ज की
दवा है।'' डॉ. अशोक चतुर्वेदी जी की लघुकथाएँ वर्तमान सामाजिक एवं राजनीतिक व्यवस्था में फैले हुए दिखावटी सत्य के ऊपरी आवरण को भेदकर अंदरूनी वास्तविकताओं को चित्रित करती हुई प्रतीत हो रही हैं। उन्होंने अपनी लघुकथाओं के माध्यम से समाज में व्याप्त मूल्यहीनता, मानवाधिकारों के हनन, बाह्याडंबर, आर्थिक सामाजिक, राजनैतिक, एवं नैतिक विडम्बनाओं पर सीधे-सीधे प्रहार करते हैं। ये लघुकथाएँ जहाँ मानवीय मूल्यों के ह्रास का चित्रण करती हैं, वहीं पाठकों को नए सिरे सेसोचने पर विवश भी कर देती हैं।
डॉ. अशोक चतुर्वेदी जी की भाषा काफी लचीली है, जिसमें वे बातचीत के अंदाज में ही अपनी बात कहते चले गए हैं। सामान्य शब्दों के साथ-साथ उन्होंने कहीं-कहीं भारी भरकम शब्दों का भी प्रयोग किया है, जिनका पर्याय आम बोलचाल के शब्दों में भी उपलब्ध है। यथा- कमोडधारी समाज, विकलित, दुर्दांत, सेवा-सुश्रुशा, मुखबीरी, अ-सरदार आदि। 'आप बीती कुछ जग बीती' की एक और खास बात, जिसका उल्लेख किए बिना बात अधूरी ही रहेगी, वह है- इसकी सुन्दर चित्रकारी। सामान्यतः लघुकथा संकलनों में चित्रों का समावेश नहीं के बराबर होता है, परंतु इस पुस्तक में डॉ. अशोक चतुर्वेदी जी की कल्पना को खूबसूरत चित्रों के माध्यम से जीवन्त बना दिया है- युवा चित्रकार राजेन्द्र सिंह ठाकुर ने। यदि हम यूँ कहें कि चित्रों ने पुस्तक की खूबसूरती में चार चाँद लगा दिए हैं, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। 'आप बीती कुछ जग बीती' अशोक जी की पहली लघुकथा संग्रह है। यदि हम इस संग्रह की लघुकथाओं को लघुकथा की कसौटी पर कसें, तो संभव है कि कई लघुकथाएँ पूरी तरह से खरी नहीं उतरेंगी। इसे लेखक ने अपने आत्मकथ्य में स्वयं स्वीकार भी किया है, परंतु लेखक की प्रस्तुतीकरण एवं भाव-प्रवणता ऐसी है कि इन्हें पढ़कर हमें सहज ही आभास हो जाता है कि उनमें लेखन की अपार क्षमता है। 'आप बीती कुछ जग बीती' न तो पूरी तरह से कहानी संग्रह है, न आत्मकथ्य और न ही लघुकथा संग्रह। इसे एक नई विधा के रूप में देखा जा सकता है, जो आत्मकथ्य शैली में कहानी की रवानगी से शुरू होकर लघुकथा के कलेवर में हमारे समक्ष प्रस्तुत होती है। आशा ही नहीं, मुझे पूरा विश्वास है कि ये सहज, सरल एवं सारगर्भित लघुकथाएँ निश्चित रूप से सुधी पाठकों के मानस पटल पर अपना प्रभाव छोड़ने में कामयाब होंगी और लोगों में खंडित हो रहे मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था जगेगी।

Source:
https://shabdpravah.page/article/aap-beetee-kuchh-jag-beetee-laghukatha-sangrah-/dV230m.html

गुरुवार, 26 दिसंबर 2019

पुस्तक समीक्षा | महानगर की लघुकथाएँ | संपादक : सुकेश साहनी | समीक्षा: कल्पना भट्ट


महानगर की लघुकथाएँ
संपादक : सुकेश साहनी
प्रकाशक : अयन प्रकाशन १/२०, महरौली, नई दिल्ली-११००३०
प्रथम संस्करण : १९९३, द्वितीय संस्करण : २०१९
मूल्य : ३०० रुपये



हिंदी लघुकथा अपनी गति से क्रमशः प्रगति की राह पर चल रही है। लघुकथा आज के समय की माँग भी है और यह  भौतिक और मशीनीयुग की जरूरत भी बन चुकी है। लोगों के पास लम्बी-लम्बी कहानी और उपन्यास पढ़ने का समय नहीं है। अनेकानेक लेखकों ने हिंदी- लघुकथा के विकास में  एकल संग्रह, संकलन और पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से लघुकथा के विकास में अपना योगदान दिया है।

हिंदी लघुकथा में ऐसे लेखकों में सुकेश साहनी का नाम पांक्तेय है।  ‘ठंडी रजाई’ आपकी प्रतिनिधि लघुकथा है। उन्होंने हिंदी- लघुकथा की पहली वेबसाइट www.laghukatha.com  का वर्ष 2000 से सम्पादन किया है, वर्ष २००८  से रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ भी उनके साथ इस काम में जुड़ गये। सुकेश साहनी के  १२ संपादित  लघुकथा संकलनों में ‘महानगर की लघुकथाएँ’ विशेष स्थान रखता है।

जैसे की नाम से विदित होता है कि प्रस्तुत पुस्तक ‘महानगर’ विषय पर आधारित है, इस पुस्तक में महानगर के जीवन से परिचय तो होता ही है, साथ ही  महानगर को समझने के लिए एक सकारात्मक दृष्टिकोण भी बनता नज़र आता है। सुकेश साहनी ने अपने सम्पादकीय में अपने अनुभवों को साझा करते हुए महानगर से सम्बंधित कुछ समस्यायों पर अपने विचार प्रकट किये हैं जो विचारणीय है।

प्रस्तुत संकलन  को दो भागों  में बाँटा गया है, पहले भाग में कुल ९३ लेखकों की लघुकथाएँ प्रकाशित हैं  जिनमें   चर्चित लघुकथाकारों के साथ-साथ कुछ अचर्चित लेखकों की भी उत्कृष्ट लघुकथाएँ प्रकाशित हुई हैं। दूसरे भाग में   परिशिष्ट में प्रथम संस्करण में प्रकाशित रचनाकारों के अतिरिक्त  २१ नई लघुकथाओं को भी शामिल किया गया है। युवा पीढ़ी ऐसे संकलनो से न सिर्फ अपने वरिष्ठ रचनाकारों को पढ़कर सीख सकती हैं अपितु शोधार्थियों के लिए भी विषय आधारित संकलन  अध्ययन हेतु उपयोगी साबित होते हैं। सुकेश साहनी ने उपर्युक्त पुस्तक का दूसरा संस्करण प्रकाशित करवा कर हिंदी- लघुकथा- जगत् को एक अनमोल और ऐतिहासिक धरोहर प्रदान की है जिसके लिए सुकेश साहनी बधाई के पात्र हैं। जहां तक मेरा अध्ययन है महानगर को लेकर यह प्रथम संकलन है।

इस संकलन का अध्ययन करते समय संपादक की ये पंक्तियाँ अत्यधिक महत्त्वपूर्ण प्रतीत होती हैं, “महानगरों में रहने वाला आदमी  कितना प्रतिशत कंप्यूटर में बदल गया है और कहाँ कहाँ उसकी आत्मा का लोप हुआ है। किसी भी समाज को जिवीत रखने के लिए अनिवार्य संवेदना एवं सहानुभूति की भावना की महानगरों में कितनी कमी हुई है।” इसमें प्रकाशित प्रायः लघुकथाकारों ने महानगरों में उपज रही समस्यायों एवं विडम्बनाओं का चित्रण बहुत ही सुंदर ढंग से किया है। मानव मूल्यों हेतु संघर्ष करते लोगों का चित्रण, ‘रिश्ते’ (पृथ्वीराज अरोड़ा), ‘अर्थ’ (कुमार नरेन्द्र) की लघुकथाओं में स्पष्ट देखा जा सकता है जो जितना बड़ा महानगर है उसमे उतनी ही भ्रष्ट व्यवस्था है जिसे ‘सवारी’ (राजेंद्र मोहन त्रिवेदी ‘बंधु’) ,’सुरक्षा’ (श्रीकांत चौधरी), ‘हादसा’ (महेश दर्पण) इत्यादि लघुकथाओं में स्पष्ट है।

आज शिक्षा की जब सबसे ज्यादा आवश्यकता है तो ऐसे समय में शिक्षा संस्थानों में जो भ्रष्टाचार मचा हुआ है वो भी किसीसे छिपा नहीं है, महानगर की  इस समस्या पर यूँ तो कई लोगों ने लिखा है किन्तु ‘वज़न’ (सुरेश अवस्थी), ‘शुरुआत’ (शशिप्रभा शास्त्री) की लघुकथाएँ अपने उद्देश्य में अधिक सफल रही हैं। महानगर में नित्यप्रति हो रहे अवमूल्यन पर भी लघुकथाकारों ने अपने-अपने ढंग से सुंदर चित्रण किया है ‘आशीर्वाद’ (पल्लव), ‘कमीशन’( यशपाल वैद, ‘आग’ (भारत भूषण), ‘लंगड़ा’ (पवन शर्मा), ‘बीसवीं सदी का आदमी’ (भारत यायावर) इत्यादि लेखकों ने अपने कौशल से लोहा मनवाया है। अरविन्द ओझा की ‘खरीद’ लघुकथा महानगर में किस प्रकार लोगों का विदेशी वस्तुओं के प्रति  आकर्षण बढ़ता जा रहा है उसपर करारी चोट की है और महानगरों में जितनी तेज़ी से आबादी बढ़ रही है, उतनी ही तेज़ी से सभी क्षेत्रों में प्रदूषण भी बढ़ता जा रहा है, जिसे रमाकांत की लघुकथा ‘मृत आत्मा’ में देखा जा सकता है। इतना ही नहीं छोटे शहरों की अपेक्षा महानगरों में क्रूर मानसिकता का भी तेज़ी से विकास हो रहा है जिसे ज्ञानप्रकाश विवेक की लघुकथा ‘जेबकतरा’ में देखा जा सकता है।

अपवाद को छोड़ दें तो महानगरों में प्रायः लोग दोहरा जीवन जी रहे हैं। एक ही बात पर दूसरों के प्रति उनकी विचारधारा कुछ होती है और अपने बारे में उनकी विचारधारा ठीक इसके विपरीत होती है जिसे सतीशराज पुष्करणा की लघुकथा  ‘उच्छलन’ में देखा जा सकता है,अर्थाभाव के कारण कैसे व्यक्ति संवेदना शून्य हो जाता है इसे प्रायः महानगरों में देखा जा सकता है इस मानसिकता को महावीर प्रसाद जैन ने अपनी लघुकथा ‘हाथ वाले’ में प्रत्यक्ष किया है।

प्रायः व्यक्ति अच्छी बातों कि अपेक्षा बुरी बातों से जल्दी प्रभावित होता है, यही बात फिल्मों के सन्दर्भ में भी कही जा सकती है, फिल्मों द्वारा उपजी बुराइयों का प्रभाव किस प्रकार बढ़ता जा रहां  इसे रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की लघुकथा ‘स्क्रीन-टेस्ट’ में देखा जा सकता है। आज हमारी नज़र जितनी दूर भी जाती है हम देखते हैं कि पैसा बेचा जा रहा है और पैसा ही खरीदा जा रहा है आज हमारे जीवन  में पैसा ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बन गया है जिसके आगे रिश्तों के बीच का अपनापन लुप्त होता हुआ प्रतीत होता है इसे बहुत ही सटीक ढंग से दर्शाती है कमल चोपड़ा की लघुकथा ‘किराया’। ऐसी ही श्रेष्ठ लघुकथाएँ लिखने में सुकेश साहनी ने अपना लोहा मनवाया है यहाँ भी ‘काला घोड़ा’ लघुकथा में महानगरीय सभ्यता से अभिशप्त इंसान का चित्रण करके स्वयं को सिद्ध कर दिया है। महानगर में जहाँ अम्बानी जैसे धनाढ्य लोग हैं वहीँ दिहाड़ी पर काम करने वाले लाखों इंसान भी हैं। धनाढ्य लोगों के चक्रव्ह्यू में किस प्रकार आदमी फंसता-सिमटता जा रहा है यह बात गीता डोगरा ‘मीनू’ की लघुकथा ‘हमदर्द’ में भली-भाँति देखा जा सकता है। आज उपभोक्तावादी संस्कृति में महानगर के आदमी को  इस बुरी सभ्यता ने इस तरह से जकड़ लिया है कि उसकी प्राथमिकतायें ही बदलती जा रही है। इन्हें हम इस संकलन की प्रायः लघुकथाओं में देख सकते हैं। इसके अतिरिक्त विविध समस्याओं से परिपूर्ण जो लघुकथाएँ आकर्षित करती हैं उनमें डॉ. सतीश दुबे, शंकर पुणताम्बेकर, रमेश बत्रा, प्रबोध गोविल, चित्रा मुद्गल, मधुदीप, बलराम, सुदर्शन, विक्रम सोनी, कृष्ण कमलेश, असगर वजाहत, कृष्णानन्द कृष्ण, मंटो, हीरालाल नागर, सतीश राठी, सुभाष नीरव, पवन शर्मा, राजकुमार गौतम, मधुकांत, कमल कपूर, अशोक लव, भगवती प्रसाद द्विवेदी, बलराम अग्रवाल, रमेश गौतम, मार्टीन जॉन ‘अजनबी’, नीलिमा शर्मा निविया, अनीता ललित, डॉ.सुषमा गुप्ता, सविता मिश्रा, सत्या शर्मा ‘कीर्ति’ इत्यादि की लघुकथाओं की परख की जा सकती है। एक संकलन में इतनी अधिक एक ही विषय पर श्रेष्ठ लघुकथाओं का होना संपादक के सम्पादकीय कौशल को प्रत्यक्ष करता है।

इतना ही नहीं, नामी लघुकथाकारों की लघुकथाओं के साथ-साथ जहाँ उन्होंने नवोदित लघुकथाकारों को स्थान दिया है वहाँ अज्ञात नामों की लघुकथाओं को छापने में भी परहेज़ नहीं किया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि सम्पादक को नामों की अपेक्षा श्रेष्ठ लघुकथाओं से ही मतलब रहा है।


इस संकलन के लिए मैं बिना किसी संकोच के कहना चाहती हूँ कि सम्पादित लघुकथा संकलनों में यह संकलन अपनी विशिष्ट पहचान प्रत्यक्ष करता है। अंत में मैं संपादक को एक अति विनम्र सुझाव देना चाहती हूँ कि वे इसी प्रकार ‘ग्रामीण क्षेत्र की लघुकथाओं’ पर भी काम करें, क्योंकि इस विषय पर लघुकथा में अभी कोई काम हुआ हो ऐसा मेरी जानकारी में नहीं है।



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कल्पना भट्ट 
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