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मंगलवार, 30 जुलाई 2024

लघुकथा चर्चा | लघुकथा में लघुता का अनुशासन और उसके रोचक/रुचिकर/प्रभावी होने में अंतर्संबंध

आदरणीय साथियों,

लघुकथाओं के सन्दर्भ में कई ऐसी रचनाएं पढ़ी हैं, जिनमें लघुकथाकारों ने लघुता (ना एक शब्द ज़्यादा ना एक शब्द कम) के अनुशासन को भी तोड़ा है, ताकि लघुकथा प्रभावित कर सके, रोचक या रुचिकर हो सके. उनमें से अधिकतर रचनाएँ लघुकथा ही कही जाती रहीं और कुछ तो काफी प्रसिद्द भी हुईं. हालाँकि, मानकों के अनुसार लघुकथा में स्पष्टता को लेकर एक शब्द भी कम या ज़्यादा नहीं होना चाहिए.

तब यह प्रश्न दिमाग में आया कि क्या रुचिकर होने और लाघव होने के बीच केवल यही अंतर्संबंध है कि यदि किसी वेन आरेख के अनुसार सोचें तो  रुचिकर होना लघु तत्व के भीतर होगा या कभी बाहर हो भी सकता है.

यह अंतर्सबंध और भी किसी तरह से हो सकता है क्या?

इस प्रश्न को सोचते-विचारते ही फेसबुक सोशल मीडिया पर यह एक प्रश्न भेजा, जिसमें काफी उत्तर आए और चर्चा भी अच्छी रही. हालाँकि चर्चाकारों के कमेन्ट के प्रत्युत्तर भी आए, लेकिन मैं यहाँ केवल पहला कमेन्ट ही ले रहा हूँ, ताकि मूल विचार ज्ञात हो सकें. 

प्रश्न:

लघुकथा को रोचक बनाने के लिए, यदि कोई अन्य तरीका न हो और कुछ शब्द अधिक डाल दें या भूमिका/पात्र परिचय लिख दें, तो क्या वह कहानी बन जाएगी?


Kamlesh Bhartiya

बिल्कुल नहीं। कसावट और कम शब्दों में नाविक के तीर‌ की तरह लिखी जानी चाहिए । यह आकाश में बिजली जैसी चमकती है और इसे जानबूझकर लम्बा नहीं किया जा सकता।


Shreya Trivedi

पता नही


Virender Veer Mehta

मेरे विचार से भूमिका पात्र परिचय या शब्दों की अधिकता रचना को विस्तार दे सकती है, लेकिन यदि लघुकथा को कहानी बनाना है तो यह देखना पड़ेगा कि क्या उसके कथ्य में इतना स्कोप है कि उसे विस्तार दिया जा सके; वरना तो एक लघुकथा को कहानी बनाने की कोशिश उस लघुकथा को भी नष्ट करने वाली बात ही होगी।


रमेश कुमार

लघुकथा अपनी पहचान आप ही बनाती है ।


Seema Singh

ऐसे अनूठे प्रश्न आपसे पूछता कौन है भाई जी? ये आपकी अपनी उपज तो शर्तिया नहीं हैं!🤣🤣


Archana Rai

मेरी लघुकथाएँ कुछ लंबी होती हैं। कथा में रोचकता और कौतुहल बनाए रखने के लिए मैं शिल्प पर काम करती हूँ। इसलिए शब्द संख्या बढ़ जाती है।

सतीश राज पुष्करणा जी की बात पर अमल करती हूँ कि

हाथी चाहे बड़ा हो या बच्चा हाथी ही कहलाता है।

उसी तरह अगर कथा लघुकथा के ढांचे में फिट बैठ रही है तो वो लघुकथा ही होगी। बड़ी या छोटी होना कोई मायने न रखता

ये मेरा अपना व्यक्तिगत मानना है । जरूरी नहीं आप भी सहमत हो आदरणीय।


Yograj Prabhakar

रोचक बनाने के स्थान पर लघुकथा को रुचिकर बनाने का प्रयास करना चाहिए भाई Chandresh Kumar Chhatlani जी.


Vimal Shukla

यदि सच में लघुकथा की बात है तो इसमें रोचकता का कोई स्थान नहीं है।दर्द की विधा में ,कैसी रोचकता।सामाजिक ध्वस्त ताना बाना , ही लघुकथाओं को जन्म देता है।बीमार समाज के लिए ये इंजेक्शन का काम करें न कि बोतल का।


Vandana Gupta

सर यदि पोहा खा रहे हैं, स्वाद और भूख के कारण ज्यादा मात्रा में खा लिया, तब भी वह नाश्ता ही कहलाएगा, भोजन नहीं। भोजन वाली बात तो दाल चावल सब्जी रोटी से ही बनेगी।


Soma Sur

कथ्य पर निर्भर करेगा। लेकिन कहानी में क्या लघुकथा की मारक क्षमता आ पायेगी!!


विनोद प्रसाद 'विप्र'

पूर्वजन्म के सवालों को ऐसे ही पटल पर डालते रहें, धन्यवाद।

वरिष्ठ साहित्यकारों के विचार पढ़कर हम नये रचनाकार लाभान्वित होंगे।


Kalpana Bhatt

कहाँ कहाँ से ऐसे सवाल लाते हो भैया? बढ़िया चर्चा हो रही है। जो आपसे ऐसे सवाल करते हैं उनकी जय हो।

सीमा ने सही कहा है यह आपकी उपज नही होगी। परंतु प्रश्न तो प्रश्न ही है।

लघुकथा के आकार को लेकर कब तक भ्रम बना रहेगा?

ऐसे ही कालदोष को लेकर भी....

हाल ही में किसी से सुना था कि अब समय आ गया है कि लघुकथा में कॉमेडी (हास्य)भी आना चाहिए। उसी व्यक्ति ने यह भी कहा कि लघुकथा गम्भीर विधा है। (whatsapp mahavidhyalaya)


Asfal Ashok

मेरे ख्याल से नहीं क्योंकि कहानी का नेचर अलग है


Neeraj Jain

कम शब्दों में बात पूरी हो सकती है तो मैं एक भी शब्द ज्यादा नहीं लिखता

लघुकथा

समय

दो घण्टे लेट आने के बाद मास्टरजी बोले

आज एक नया विषय पढाया जायेगा

"समय का महत्व"

नीरज जैन


पवन जैन

तिलमिलाहट पैदा करना लघुकथा का स्वाभाव है ,

पर उसे इतना भी न जकड़ो कि वह कसमसाने लगे।


Netram Bharti

वर्जनाएं हमेशा से रचनात्मकता में बाधक होती हैं l एक दौर था जब प्रबंधकाव्य में नायक उच्चकुलोत्पन्न, क्षत्रिय या उस जैसा ही होना चाहिए, धीरोद्दात, धीर प्रशांत गुणों से परिपूर्ण होना चाहिए ,यह नियम था, क्या आज भी यदि कोई प्रबंधकाव्य की सर्जना करता है तो उन्हीं राजकुमारों सदृश नायकों को नायक बना रहा है या वैसे नायक समाज में परिलक्षित होते हैं l मैं हमेशा कहता हूँ कि हर काल अपने पूर्वकाल से भिन्न होता है और हर काल की अपनी कुछ विशेषताएं, कुछ वर्जनाएं तो कुछ प्रवृत्तियां होती हैंl उसके अनुसार ही साहित्य और उसकी विधाओं में सर्जन होता है और होना चाहिए नहीं तो ' साहित्य समाज का दर्पण है' इस उक्ति की तर्कसंगतता बाधित होगी l फिर यह भी नहीं भूलना चाहिए कि साहित्यकार यदि अपने समय और उसकी विसंगतियों, प्रगतियों को नजरअंदाज करता है तो उसका लेखन उल्लेखनीय और प्रभावी कैसे होगा यह भी एक प्रश्न है l इसलिए विधा के अंदर रहकर यदि उसमें कथ्य अनुसार कुछ शब्दों की अधिकता हो भी जाती है तो कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए l क्योंकि हर रचना की शब्द संख्या उसके अंदर ही निहित होती है l शर्त यह है कि विधा से छेड़छाड़ नहीं की जानी चाहिए l


Santosh Supekar

अत्यधिक विस्तार, शब्दों - वाक्यों का Repetation होने पर आज का प्रबुद्ध पाठक खुद पूछने लगता है ' ये कहानी है क्या? '


Savita Mishra

दूसरे की कॉपी कर लें, सिम्पल😁


दिव्या राकेश शर्मा

विद्रोह ही लघुकथा का परिचय है इसमें पात्र परिचय भूमिका अतिरेक शब्द डालकर विद्रोह को आत्मसमर्पण बनाने की आवश्यकता ही क्यों है


कथाकार सन्दीप तोमर

लघुकथा को क्यों ही कहानी बनाना। अभी मैंने एक प्रयास किया लघुकथा को कहानी बनाने का, सफल नहीं हुआ।


Kapil Shastri

फिर वो लघुकथा रोचक भी नहीं रहेगी।


Arun Dharmawat

मैं आपकी बात से पूर्णतया सहमत हूँ कि मात्र कुछ शब्द जोड़ने से यदि लेखन, पाठकों के अंतर्मन को छू ले तो इसमें कोई बुराई नहीं है। भाई सुख़न की बारिश तो बड़ी मासूम होती है, उसे नहीं मालूम होता कि वो छप्पर पे बरस रही है या महल पर। लघुकथा कोई गणित का सवाल नहीं जिसमें दो और दो का जोड़ सिर्फ चार ही होता है। ना ही ये कोई रसायन है जिसका लैब में परीक्षण किया जाए कि कितना पदार्थ कितनी मात्रा में ही मिलाना चाहिए।

यदि लेखन में संवेदना संदेश एवं ग्राह्यता नहीं होगी तो वो शो केस में खड़े उस बेजान पुतले से अधिक नहीं होगी जिसे बेहद खूबसूरत वस्त्रों से सजाया तो जा सकता है लेकिन उसमें जीवंतता नहीं होती।

लिखने वाले को सोचना होगा कि उसका सृजन कोई प्रॉडक्ट है अथवा निश्छल निर्बाध बहने वाला प्रपात जो साहित्य मनीषियों के निर्धारित मापदंडों की परिधि में ही जकड़ कर रह जाए। असंख्य कृतियां जिन्हें पाठकों का भरपूर प्यार मिला लेकिन साहित्य के टेक्नीशियनों द्वारा उनमें अनेकों तकनीकी खामियां गिनाकर उनके द्वारा निर्धारित मापदंडों से बाहर कर दिया। एक मासूम बालक चोटिल होने पर किसी बहर में नहीं रोता इसके बावजूद उसकी माता का हृदय स्पंदित हो कर छलक पड़ता है और उसे सीने से लगाकर खुद रोने लगता है।

साहित्य उसी स्पंदन और संवेदना का परिमाण होना चाहिए। इसे शब्दों की गणना, विधि, विधान, तकनीक की परिधियों से मुक्त होना चाहिए।

मैं कहूँ तो ..... शब्दों के संकलन को साहित्य नहीं कहते 'अरुण', शिद्दत और एहसास भी जरूरी है असर होने के लिए।

इति ......

Arun Dharmawat

मेरा मानना है कि जो लेखन उसमें निहित संदेश को यदि पाठक तक पहुँचाने में सफल हो जाए वही श्रेष्ठ है। इसके लिए यदि शाब्दिक सरंचना की संख्या कम अथवा अधिक भी करनी पड़े तो उसमें कोई हर्ज़ नहीं।

जैसा कि आप जानते हैं ग़ज़ल को लिखने के लिए उसे किसी बहर में निबद्ध होना आवश्यक है परंतु ग़ालिब से लेकर फैज़ मोमिन फ़राज़ और वर्तमान के आला उस्ताद शायर भी अपनी बात को मुक़म्मल और बेहतर कहने के लिए आवश्यकता पड़ने पर मात्रा तोड़ देते हैं। इसलिए मैं आपकी ही बात का समर्थन करते हुए कहना चाहता हूँ कि किसी भी लघुकथा को प्रभावशाली बनाने के लिए यदि चंद शब्द अतिरिक्त भी लिखने पड़े तो कोई ग़लत नहीं।

धन्यवाद !

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