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शुक्रवार, 7 जून 2024

हिन्दी लघुकथा की उपस्थिति और सामाजिक परिदृश्य | पुस्तक समीक्षा | कथा-समय — दस्तावेजी लघुकथाएँ | समीक्षक: प्रो. मलय पानेरी

 हिन्दी लघुकथा की उपस्थिति और सामाजिक परिदृश्य


प्रो. मलय पानेरी

प्रोफेसर (हिंदी) एवं अधिष्ठाता 

मानविकी व सामाजिक विज्ञान संकाय

जनार्दन राय नागर राजस्थान विद्यापीठ, उदयपुर


साहित्य में लघुकथा एकदम नयी विधा नहीं है। इसका चलन भी अन्य विधाओं की तरह बहुत पुराना है लेकिन अभी कुछ दशकों से यह अधिक लिखी-पढ़ी जा रही है। किसी कथा का बड़ा होना महत्त्वपूर्ण नहीं है और न ही लघु होना महत्त्वपूर्ण है। दोनांे ही स्थितियों में कथा का होना जरूरी है। विधा की प्रकृति और रचनाकार की सामर्थ्य किसी रचना को दशक बताती हैं। हिन्दी में कहानी की परंपरा बहुत प्राचीन है। कहानी का कथ्य और शैली रचनाकार का निजी गुण है, इससे यह अपनी विचार पाठकों तक ले जाता है। यह उसी पर निर्भर करता है कि वह अपनी रचना को कई पन्नों में समझाना चाहता है या कुछेक परिच्छेद में ही। जैसे कम खर्चे में घर चलाना कठिन है ठीक इसी तरह कम शब्दों में समझाना मुश्किल है। इसीलिए लघुकथा में रचनात्मक-उद्देश्य चुनौतीपूर्ण होते हैं। लघुकथा लिखने-पढ़ने में ज़रूर छोटी होती है परन्तु उसके निष्कर्ष बहुत व्यापक होते हैं।

लघुकथा की स्थिति पर विचार करने से पहले मुझे एक प्रसंग का उल्लेख अप्रासंगिक नहीं लग रहा है - अक्सर हमने किसी छोटे कद के व्यक्ति के बारें में अन्य लोगों को यह कहते सुना है कि ‘अरे, उस बावन्ये से सावधान रहना, वह जितना बाहर दिख रहा है उससे दुगुना अन्दर है।‘ यह हास्य से अधिक कुछ नहीं है लेकिन लघुकथा के रचना-विधान पर एकदम फिट बैठता हैं। अर्थात् लघुकथा जिन शब्दों में रची गई है वह उसके अलावा भी बहुत कुछ कह जाती है। लघुकथा हमें अनकहे शब्दों से जोड़े रखती है। प्रश्नात्मकता में भी और सांकेतिकता में भी। रचनाकार की अनुभूतियाँ हमारे आसपास की घटनाओं से और लोक के आचरण-व्यवहार आदि से उपजती हैं परन्तु कहीं भी निरर्थक नहीं लगती हैं, उनमें एक व्यापक सत्य अन्तर्निहित रहता हैं। रचनाकार उन्हें ही उद्घाटित करता है। लघुकथा के माध्यम से रचनाकार समस्याग्रस्त समाज का ही नहीं बल्कि समस्या बन चुकी व्यक्ति-मानसिकता का भी अच्छा चित्रण करता है। लघुकथा बहुधा यथार्थ और आदर्श के अंतर पर टिकी होती है - व्यंग्य या कटाक्ष के माध्यम से। यथार्थ हमेशा समय और स्थान सापेक्ष होता है, जिसके अनुसार वह बदलता भी रहता है। बहुआयामी जीवन प्रवाह की नियमित प्रक्रिया में कई तरह की अन्तर्बाधाएँ साथ रहती ही हैं। बाधाएँ दूर करना मानवीय प्रयास है परन्तु सप्रयोजन कष्ट देना व्यक्ति के आचारण की विसंगति ही कही जाएगी। इसी विसंगति को पहचान कर रचनाकार उसके उन्मूलन की चेतना प्रदान करता है। चाहे कथा हो अथवा लघुकथा-दोनों का लक्ष्य समान है लेकिन शैली-भिन्नता के कारण लघुकथा से तीखे प्रहार की ही अपेक्षा रह जाती है। लघुकथा अपने इस गुण के लिए अधिक सराहनीय विधा बन सकी है - इसमें अतिशयोक्ति नहीं है। साथ ही यह भी कि आज लघुकथा-लेखन पर्याप्त मात्रा में हो रहा है लेकिन उसका मूल्यांकन अभी भी अपेक्षित बना हुआ है। लघुकथाओं को लघु पत्रिकाओं में तथा और भी अन्य साहित्यिक-शोध पत्रिकाओं में बहुत कम स्थान मिल रहा है। इससे इस विधा के प्रति पाठक-रूचि होने पर भी एक अभाव महसूस किया जा रहा है। इस कमी को पूरा करने के लिए अब कुछ अच्छे प्रयास हो रहे हैं - इसी शृंखला में अशोक भाटिया के संपादन में दस्तावेजी लघुकथाओं का संकलन ‘कथा-समय‘ एक उम्मीद जगाता है। अशोक भाटिया जी ने इस पुस्तक की भूमिका(ओं) में लघुकथा की प्रकृति, प्रवृति और आवश्यकता पर टिप्पणी करते हुए इसके संभावनाशील भविष्य की ओर संकेत किया है। उनका स्पष्ट मानना है कि लघुकथा जिन कम शब्दों में विषय को उघाड़ सकती है वो काम कहानी नहीं कर सकती है। लघुकथा पाठक के लिए समझ का विवेक-निर्माण करती है। परिवेश का जो यथार्थ कहानी में है वहीं लघुकथा में भी है परन्तु चुभन का अहसास यहाँ अधिक है। पत्थर से ठोकर लगते ही उठी पीड़ा की तरह लघुकथा अपना लक्ष्य-संधान कर जाती है। कोई विषय नहीं, कोई विवेचन नहीं लेकिन मस्तिष्क के विचार-तंतु खोल देती है लघुकथा। यहाँ तक कि छोटी-छोटी बातों में की गई टीका-टिप्पणी भी व्यापक विचारों को समेटे हुए होती हैं। लघुकथा की प्रवृति यही है। उसमें निष्प्रयोजनीय कुछ भी नहीं होता है। भाटिया जी का कहना - ‘‘आकार में छोटी ये कथाएँ अपने निहितार्थ और उद्देश्य में बड़ी और दूरगामी प्रभाव की रचनाएँ हैं।‘‘ बहुत उचित है। लघुकथा-लेखक की जिम्मेदारी इस दृष्टि से अधिक गंभीर एवं चुनौतीपूर्ण है। लघुकथा को लोकप्रिय भी होना है और श्रेष्ठ भी होना है - यह संतुलन ही लेखक के दायित्व को गुरूत्तर बनाता है। सामाजीकरण की प्रक्रिया कभी सरल नहीं होती है। उसे कई तरह के संकटों से गुजरना होता है। व्यवस्था की बाधाओं को लघुकथा ठीक-ठीक भाँप लेती है। यही क्षमता उसकी ताकत भी बनती है। इस पुस्तक में संकलित लघुकथाकारों ने यह लगभग प्रमाणित-सा करनें का प्रयास किया कि साहित्य की यह विधा किसी भी कोण से कमतर नहीं है। समाज-सुधार के सारे विटामिन इसमें मौजूद हैं। आवश्यकता सिर्फ इस बात की है कि कब कौनसे विटामिन का इंजेक्शन देना है। इस प्रारंभिक जाँच से ही लघुकथा अपनी पकड़ में मरीज को लेती है। भगीरथ परिहार की लघुकथाएँ उनकी वैज्ञानिक एवं मार्क्सवादी विचारों को प्रसारित करती एक समतामूलक व्यवस्था की पैरवी करती है। उनके लेखन के केन्द्र में सिर्फ इंसान है, न जाति, न धर्म, न औरत, न आदमी - केवल एक अदद मनुष्य है। वे अपनी ‘आग‘ लघुकथा में इंसानी धर्म की बात करते हैं तो ‘बैसाखियों के पैर‘ में आत्मविश्वासहीन होते जा रहे व्यक्ति के पराजय-भाव की शंका पर प्रश्न उठाते हैं लेकिन उनकी ‘अन्तहीन ऊँचाइयाँ‘ लघुकथा फिर एक आशा का संचार कर देती है। वे अपनी ‘आत्मकथ्य‘ लघुकथा में औद्यागिकीकरण को आज की आवश्यकता बताते हैं परंतु इसके साथ ही समाप्त होती गाँव-संस्कृति का उन्हें दुःख भी है। रोजगार की संभावना-तलाशते युवा वर्ग के लिए मशीनी-संस्कृति नये अवसर पैदा कर रही है। तकनीक-ज्ञान-सम्पन्न व्यक्ति इसमें खप जाएंगे - यह पहलू सुखद है लेकिन यहाँ लेखक पूँजीवाद के पंजे में फँसे अपने वर्तमान पर क्षोभ भी व्यक्त करता है। निर्माण के सुख के पीछे बहुत कुछ लुटा चुके का दंश ज्यादा पीड़ा देता है। ‘अफसर‘ लघुकथा निर्मम अफसरशाही की ही कथा है। यूनियन नेता को लुभाकर रखने और किसी भी प्रकार के आर्थिक लाभ पर कैंची चलाने की प्रवृत्ति को रेखांकित करती है। भगीरथ परिहार अपनी लघुकथाओं में व्यापक अनुभवों को संक्षेपण-कौशल से पाठक-प्रिय बना देते हैं। बलराम अग्रवाल की लघुकथाएँ हमें एक नये अनुभव से साक्षात कराती हैं। वे सामयिक स्थितियों में आधुनिकता से ग्रस्त, महानगरीय प्रभावों से युक्त जीवन-यथार्थ से हमें रू-ब-रू कराते हुए समस्या-बोध की स्थिति तक ले आते हैं। सोच और संवेदन के स्तर पर ये लघुकथाएँ हमें निरंतर कुरेदती हैं। बलराम अग्रवाल लघुकथा में सांकेतिकता को अनिवार्य मानते है। इनका यह मानना है कि ‘‘लघुकथा मुझे उतनी ही सक्षम विधा लगती है, जितनी सक्षम विधा बिरजू महाराज को नृत्य की, एम.एफ. हुसैन को चित्रांकन की और बिस्मिल्ला खां को शहनाई बजाने की लगती होगी।‘‘ अर्थात् लघुकथा उतनी ही गंभीर और गहरी विधा है जितनी कि अन्य कला-विधाएँ। विज्ञान का एक नियम है - द्रव का दाब उसकी गहराई पर निर्भर करता है। कला और साहित्य के क्षेत्र में ‘दाब‘ को हम ‘प्रभाव‘ मान लें और ‘द्रव‘ को ‘कला‘। कला की संपूर्णता भी उसकी गहराई का परिणाम होती है। बलराम जी की लघुकथाओं में हम समय के साथ संवाद करते हैं। उनकी ‘समन्दर: एक प्रेमकथा‘ एक दादी के जीवन की न केवल सुख-संयोग की कथा है, बल्कि अपनी उम्र के चौथे पड़ाव पर नॉस्टेल्जिया से स्वयं को उर्जस्वित रखने की कथा भी बन जाती है। उनकी ‘बुधुआ‘ भी इसी भाव की कहानी है पर  इसमें अभिलषित को न पा सकने का दर्द भी मौजूद है। लघुकथा की यही दशकता है कि वह बिना किसी भूमिका के अपनी बात कह जाने की क्षमता बनाये रखती है। ‘रुका हुआ पंखा‘ अति संवेदनशीलता के भाव को दर्शाने वाली लघुकथा है। एक पिता को अपनी बेटी के कमरे में बंद पंखा सशंकित करता है। उन्हें बंद पंखा किसी करूण कथा के सच को सामने लाता प्रतीत होता है। आज की युवा पीढ़ी पर यद्यपि भरोसा बढ़ा है लेकिन निराशा की स्थिति में तुरंत अपने जीवन को अवसान के अंधेरे में धकेलने की घटनाएँ बहुत आम हो गई हैं, इसलिए माता-पिता का अपने बच्चों पर विश्वास कुछ टूटता-सा भी दिखाई देता है।

साहित्य अक्सर सामाजिक चिन्ताओं से घिरा रहता है। क्योंकि मनुष्य अपने व्यक्तिगत जीवन की सफलताओं से समाज में अपनी पहचान स्थापित करना चाहता है। रचनाकार इस सत्य से परिचित है, इसीलिए उसके लेखन में समाज, घर, परिवार, परिवेश आदि अपनी पूर्णता के साथ उपस्थित रहते हैं। अशोक भाटिया जी जो इस पुस्तक के संपादक भी हैं एक अच्छे कथाकार के रूप में लब्ध प्रतिष्ठ हैं। उनकी लघुकथाएँ हमारे परिवेश और परिस्थितियों की संगति-विसंगतियों की सूक्ष्म संकेतिका जैसी हैं। ऐसा लगता है वे सप्रयोजन अपनी लेखनी को इतना कसते हैं कि एक शब्द भी कहीं ढीला पड़ता नहीं दिखता है। लघुकथा की व्याप्ति उनकी चिंता भी है - इसीलिए ‘बैताल की नई कहानी‘ का अंत विक्रम के निरूत्तर हो जाने से है। यह लघुकथा इंसानी व्यवहार पर कटाक्ष भी करती है और इंसानी धर्म को समझाती भी है। यह धर्म हम अभ्यागत के स्वागत में अपनाते थे, लेकिन आज की स्थितियाँ इसके ठीक विपरीत है। ‘तब और अब‘ लघुकथा व्यक्ति-संबंधों के निरंतर रीतते जाने की व्यथा दर्शाती है। उनकी ‘युगमार्ग‘, ‘देश‘, ‘रंग‘ लघुकथाएँ व्यक्ति की लाचारी, व्यवस्थाओं की नाकामी, समाज-भिन्न आदमी के मन की पीड़ा की कहानियाँ है परन्तु पाठक के लिए वे गहन सोच-विचार की रचनाएँ हैं। भाटिया जी की लघुकथाएँ प्रकट व्यंग्य की नहीं बल्कि छिपे व्यंग्य की कथाएँ हैं। उनमें वे व्यवस्था तंत्र को लगभग ललकारने के करीब आ कर चुप हो जाते हैं ताकि पाठक उसके मर्म और निष्कर्ष को अपने अनुसार तय कर सके। उनकी ‘लोक और तंत्र‘ लघुकथा वास्तव में लोकहीन तंत्र की कथा है। यह तंत्र भी अव्यवस्थाओं का है। लोकतंत्र में से लोक लगभग नकारा जा रहा है और उसके प्रतिरोध का कोई संगठित स्वर भी नहीं सुनाई दे रहा है। वहीं आज भी छुआछूत की मानसिकता में कहीं बदलाव नहीं दिखाई दे रहा है - ‘कपों की कहानी‘ इसी विषय को केन्द्रित करती है। कहने में सभी बातें भली हैं परन्तु करने के स्तर पर बहुत बुरी है, वहाँ हमारी जात-बिरादरी का भाव हमें ही दबा देता है। ‘भीतर का सच‘ कहानी लिंग-भेद की मानसिकता की परतें उघाड़ती हैं तो ‘लगा हुआ स्कूल‘ हमारे शिक्षा तंत्र की असलियत सामने लाती है। वहीं मनुष्य की पहचान उसकी निजी न होकर धर्माधारित हो जाती है - इसकी सटीक अभिव्यक्ति है ‘पहचान‘ लघुकथा। वास्तव में समाज और व्यवस्था का अप्रिय सच लघुकथा की रचना का मूल कारक बनता है।

सुकेश साहनी अपनी लघुकथाओं में स्वतंत्रता के बाद के वातावरण को व्यापक संदर्भों में इस रूप में प्रस्तुत करते हैं कि व्यवस्था ही अव्यवस्था में बदलकर व्यक्ति जीवन को असहनीय बना देती है। उनका यह मानना है कि लघुकथा अपने रचनात्मक उद्देश्यों को संकल्प के साथ पूरा करती है। साहित्य की अन्य विधाओं की तरह ही लघुकथा का जन्म भी लम्बी सृजन-प्रक्रिया के बाद ही संभव है। जीवन के वास्तविक पात्र ही बहुधा लघुकथा के भी नायक होते हैं। सुकेश जी इस विधा को कथ्य के हिसाब से सीमित फलक की विधा नहींे बनाते हैं, बल्कि उसे व्यापक विस्तार देते हैं। छोटे आकार की इस विधा में कितनी क्षमता भरी जा सके इसका नियोजन उनके यहाँ मौजूद है। ‘ईश्वर‘ लघुकथा परंपरागत रूप से चली आ रही ईश्वरीय आस्था की रचना है परंतु अनवरत ईश्वर खोजने की व्यर्थता भी सिद्ध करती है। ‘त्रिभुज के कोण‘ लघुकथा आर्थिक रूप से मध्यवर्ग की परेशानियों को सामने लाती है और साथ ही अभावग्रस्तता में पारिवारिक-भावना को बचा लेने में सफल हो जाती है, वहीें ‘डरे हुए लोग‘ लघुकथा हमारे शासनिक तंत्र की ज़मीनी हकीकत को बयां करती है। साधारण लोग ‘सरकारी-व्यवस्था‘ की कारगुजारियों से परिचित हैं इसीलिए उन्हें लोक-निर्माण के कार्यों में हमेशा एक संशय दिखता है, जो इस व्यवस्था का सच भी है। यह भी हम देखते आए हैं कि गरीब गरीबी की ओर एवं अमीर अमीरी की ओर ही कैसे बढ़ा चला आ रहा है। धनहीन और धनाढ्य का अंतर निरंतर बढ़ता हुआ समाज में व्यवस्थाओं के बटँवारे को असमान ही करता रहा है। समर्थ और अर्थ-सम्पन्न व्यक्ति सभी के हक के प्राकृतिक संसाधनों पर भी कब्जा करता रहा है। इसकी सटीक अभिव्यक्ति है - ‘कुआँ खोदने वाला‘ लघुकथा। इसमें लेखक ने संकेत और प्रतीक से अपना मंतव्य स्पष्ट किया है। इनकी अन्य उल्लेखनीय लघुकथाओं में ‘ठण्डी रजाई‘, ‘बिरादरी‘, ‘आधी दुनिया‘, ‘उतार‘, ‘कसौटी‘, ‘कोलाज‘ आदि हैं। इनमें रचनाकार ने उन प्रासंगिक विषयों को उठाया है, जो साधारण जन-जीवन से संबंधित हैं तथा उनसे चाहे-अनचाहे हमारा वास्ता रहता है। निस्संदेह लघुकथा जन-मानस में हरकत पैदा करने में सफल होती है।

कमल चोपड़ा की लधुकथाएँ चिकोटी काट पीड़ा पैदा करती है। रचना की यही सफलता भी है कि वह एक बारगी इंसान को रोक कर सोचने को बाध्य करें।  किसी अच्छे परिवर्तन के लिए यदि व्यक्ति लीक से हटता है तो कोई परेशानी नही है लेकिन नये की स्थापना में रोड़े अटकाने वाले भी उपस्थित होते हैं - उनकी पड़ताल करती है कमल चोपड़ा की लघुकथाएँ। पेशे से चिकित्सक कमल चोपड़ा की लेखनी समाज की पश्चगामी प्रवृत्तियों पर प्रहार करती है और इंसानी-धर्म के विरूद्ध सक्रिय शक्तियों को निस्तेज भी करती है। हमारा आसपास, समाज, परिवेश, बदलता परिदृष्य आदि ऐसे घटक है जो चिंतनशील व्यक्ति को हमेशा जगाए रखता है। इसीलिए कमल जी साम्प्रदायिकता के विरोध में ‘छोनू‘ लघुकथा लिख पाते है। ब्याजखोरी से पनप रहे भ्रष्टचार और शोषण के चक्र से मुक्ति की कामना करते उन्हें ‘है कोई‘ लघुकथा लिखनी पड़ी, वहीं सामाजिक विसंगति को केन्द्र में रखते हुए वे ‘निशानी‘ लघुकथा लिखते हैं। वास्तव में मुझे ऐसा लगता है हमारा सामाजिक परिदृष्य नयी आधुनिकता के बरअक्स ज्यादा असामाजिक हुआ है। कितनी ही रैलियाँ निकाल लें, आन्दोलन कर लें, समय-समय पर ज्ञापन देकर समाचारों में आने की औपचारिकता-पूर्ति कर लें, मानव-शृंखलाएँ बनालें फिर भी समाज में लिंग-भेद की समस्या रहेगी, बाल-मजदूरी की छिपी-प्रवृत्ति रहेगी, आर्थिक-विपन्नता के कारण कर्ज-समस्या रहेगी ही - आखिर इनसे निजात कैसे मिले! स्वार्थ-प्रवृत्ति का परित्याग यदि व्यक्ति स्वेच्छा से करेगा तो ही शायद उनसे आंशिक मुक्ति मिल सकती है। आज बाजारवाद ने भी हमारे सामने कई तरह की परेशानियाँ पैदा की हैं। सम्पन्न राष्ट्रों ने पूंजी के खेल का भयानक विस्तार किया है। इसकी अच्छी व्याख्या करती है ‘मंडी में रामदीन‘ लघुकथा। इसमें एक साधारण किसान की माली हालत का वर्णन है और उचित कीमत के लिए छटपटाते उसे अन्ततः समझौता करना पड़ता है। क्योकि जो था वह तो लुटा ही पर, खुद बच गया यही गनीमत है उसके लिए। ये लघुकथाएँ एक सीधे-सादे इंसान को बचाने की कवायद करती हैं।

माधव नागदा राजस्थान के सजग रचनाशील कथाकार हैं। हिन्दी कथा साहित्य उनके रचनात्मक अवदान से निरंतर समृद्ध होता रहा है। हिन्दी-कहानी साहित्य को अच्छी विचारवान कहानियाँ देते रहने वाले नागदा जी लघुकथा को एक प्रभावशाली विधा मानते हैं। संपूर्ण कहानियों के भी वे सिद्धहस्त लेखक हैं, इसलिए कथा-कहानी का अंतर जानते हैं। जब किसी रचनाकार के पास विषयों का खजाना भरा हो तो उसकी बेचैनी बढ़ जाती है। इसका शमन ऊर्जा के रचनात्मक उपयोग से हो पाता है। माधव जी इसी कोटि के कहानीकार हैं। वे अपनी लघुकथाओं को वक्रता से मुक्त रखते हैं। सीधे-सीधे कहने में कथा की सरलता और पाठक की रूचि बनी रहती है। इसीलिए वे लघुकथा में अभिव्यक्ति की असीम संभावनाएँ देख पाते हैं। कहानी का कहानीपन और लघुकथा की लघुता महत्त्वपूर्ण होती है। दोनों विधाएँ कहने-पढ़ने की है, अन्तर सिर्फ शैली का है। हम उनकी ‘आग‘ लघुकथा को ही लें - सामाजिक सद्भाव को कितनी आसानी से तहस-नहस किया जा सकता है - इसका सटीक उदाहरण यह है। उनकी ‘कुण सी जात बताऊँ‘ लघुकथा जाति-धर्म के विरूद्ध एक मनुष्य की खोज की कथा है। एक व्यक्ति अपने ही घर में सब तरह के काम करके सारी जातें जी लेता है तो फिर बाहर यह आडंबर क्यों? आज हम कितने भी अभिजात्य संस्कारों की बातें कर लें किंतु स्वयं के मन में जड़े जमा चुके अंध मतों से हम मुक्ति नहीं पा रहे हैं। मनुष्यता तो एक ढोंग की तरह दिखाई देती है। ‘उलझन में शताब्दियाँ‘, ‘क्या समझे‘, ‘वह चली क्यों गई‘, माँ बनाम माँ‘ आदि ऐसी रचनाएँ हैं जो व्यक्ति के दुर्भाग्य, निरुपायता, अकेलापन, भयावहता, पलायन आदि भावों को करीने से अभिव्यक्त करती हैं। माधव नागदा जी अपनी लघुकथा में सामाजिक एवं व्यक्ति-जीवन की विसंगतियों को उभारने में पूर्णतः सफल रचनाकार हैं। एक अतिरिक्त गुण की ओर संकेत करना चाहूँगा कि उनकी अधिकाँश लघुकथाएँ किसी नायक का चेहरा नहीं उभारती हैं, बल्कि वे पात्र-नाम से मुक्त रहकर सर्वनाम मंें ही विचरण करती हुई अपने निष्कर्ष पर पहुँच जाती हैं। वे अपनी लघुकथाओं में कथ्य के साथ भाषा का ऐसा सामंजस्य बिठाते हैं कि उसमें स्थानीय परिवेश जीवंत हो उठता है। माधव जी की लघुकथाएँ शीतल विधि से की गई शल्य क्रिया जैसी है। 

इसी क्रम में चन्द्रेश छतलानी की लघुकथाएँ मनुष्य और मनुष्य के बीच के अंतर को रेखांकित करती हैं। वे अपनी रचनाओं में कहीं भी कथा-विस्तार नहीं करते हैं। बहुत कम शब्दों में लघुकथा के उद्देश्यों को विस्तार देते हैं। उन्हें छद्म मनुष्य से घृणा है इसीलिए वे ‘गरीब सोच‘ कथा के माध्यम से कमाई के वैधानिक तरीके अपनाकर पनप रहे, भ्रष्टाचारियों को सामने रखते हैं। वे ‘मानव-मूल्य‘ लघुकथा में निरंतर गर्त में जा रहे जीवन-सिद्धान्तों और आदर्शो पर चिंता व्यक्त करते हैं। हमारे यहाँ मंदिर-मस्जिद मुद्दे तरह-तरह से नये रंगों में रंगे होते हैं। उनकी वास्तविक समस्याओं से किसी का संबंध नहीं होता है केवल वक्त की बर्बादी ही जैसे लक्ष्य रह गया हो। ऐसे कई मामलात हैं जो अनिर्णीत ही रह जाते हैं - धीरे-धीरे उनका मूल स्वरूप ही नष्ट होने लगता है और कोर्ट के निर्णय भी प्रभावित हो जाते हैं। ऐसी महंगी प्रक्रिया पर नश्तर चुभोती है ‘इतिहास गवाह है‘ लघुकथा। चन्द्रेश छतलानी अपनी रचनाओं में मूल समस्या के बहुत करीब रहकर अपनी प्रहार-शक्ति भाषा गढ़ते हैं। यद्यपि उनकी कथाओं में सांकेतिकता अधिक रहती है फिर भी कथा-उद्देश्य अप्रकट नहीं रह जाता है। ‘विधवा धरती‘ लघुकथा देश-प्रेम की भावना के साथ एक करूणा भी जगा देती है; ठीक इसी तरह ‘इंसान जिंदा है‘ में वे मनुष्य धर्म को सम्प्रदायवाद से ऊपर उठाते हैं तो ‘धर्म-प्रदूषण‘ में वे मनुष्य-विरोधी ताकतों को पहचानने की कोषिष करते हैं। वहीं ‘मुआवजा‘ लघुकथा सामंती अत्याचारों की अमानवीयता सामने लाती है। साधारण लोगों का जीवन हमेशा से ही प्रभु वर्ग की आततायी प्रवृत्तियों का शिकार रहा है। लेकिन अब वहाँ महिलाएँ भी इसके विरोध में खड़ी होने लगी है - यह बहुत बड़ा संदेश बन जाता है इस लघुकथा का। उनकी ‘भेद-अभाव‘ लघुकथा रोशनी और अंधेरे की उपस्थिति की द्वन्द्व-कथा है। जहाँ रचनाकार एक उम्मीद जगाता है कि जीवन में रोशनी के लिए अंधेरे पर विजय अनिवार्य होती है। 

समग्रतः हिन्दी में आज लघुकथा अच्छी स्थिति में है। सटीक और स्पष्ट कहने की इस गुणात्मक विधा में व्यंग्य, कटाक्ष, प्रतीक, संकेत आदि भी अपने महत्त्व को दर्शाते हैं। लघुकथाएँ कैसे हमारे अन्तर्मन को छू कर हमारी संवेदी योग्यताओं का मूल्यांकन भी करती हैं इसका प्रमाण हैं दीपक मशाल की रचनाएँ। वे सामाजिक विघटन को बेहतर देखते हैं। उन्हें मनुष्यता के क्षरण का बहुत क्षोभ है। समाज का दोहरा चरित्र उन्हें मानसिक क्लेश देता है इसीलिए वे अपनी रचनाओं में मूल्यों के विघटन पर खासी चिंता व्यक्त करते हैं। उनकी ‘इज्जत‘ लघुकथा व्यक्ति के दो मुँहेपन पर करारी चोट करती है। वहीं ‘बेचैनी‘ लघुकथा मानवीय संवेदना को टटोलने वाली कथा है तो ‘पानी‘ लघुकथा एक तरफ पत्रकारिता के गिरते स्तर को दर्शाती है तथा मौके का फायदा उठाने वाले लोगों की मानसिकता भी बयां करती है उनकी ‘भाषा‘ कथा अनकहे के महत्त्व को समझाती है - तो ‘औरो‘ से ‘बेहतर‘ की सांकेतिकता मनुष्य से रीत चुकी मनुष्यता की बेहतर बानगी बन गई है। ‘रेजर के ब्लेड़‘ पारिवारिक रिश्तों में खटास की अनुभूति कराती है तो ‘खबर‘ रचना फौजी जीवन की अनिष्चितता की ओर हमें ले जाती है। ‘शिकार‘ कथा लोकतंत्र और राजतंत्र के अंतर पर प्रकाश डालती है, ‘मुआवजा‘ लघुकथा सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार को बेनकाब करती है। आजकल यह भी देखने में आता है कि कैसे योग्य एवं हकदार व्यक्ति को उसके अधिकारों से वंचित किया जाए। इसी भाव पर केन्द्रित ‘फेलोशिप‘ लघुकथा बेईमानी की षड़यंत्र-सक्रियता को बेपर्दा करती है। वास्तव में लघुकथा के लिए घटना-प्रसंगों सहित विषयों की अधिकता है - इससे रचनाकार एक सभ्य समाज की निर्माण-सामग्री हमारे सामने रखता है।

समग्रतः ‘कथा-समय‘ पुस्तक हिन्दी के नये कथा-रूप की संभावनाओं से पाठकों को परिचित कराने में सफल रही है। संपादक अशोक भाटिया ने इस विधा पर विद्वान लेखकों के वक्तव्यों के साथ स्वयं का सारगर्भित अभिमत यहाँ प्रस्तुत किया है। इससे लघुकथा की आंरभिक स्थिति, प्रवृत्ति, आवश्यकता और भविष्य में इसकी ग्राहृता की वास्तविकता का पता भी चलता है। निस्संदेह इसमें संकलित लघुकथाकारों की रचनाएँ हमें हमारे समय को देखने और समझने की सामर्थ्य देती हैं। एक ही विषय के विस्तार में नहीं बल्कि खण्ड-खण्ड विषय को व्याख्यातित करना ही लघुकथा का ध्येय होना भी चाहिए। यहाँ यह उल्लेख भी आवश्यक है कि खण्ड-खण्ड का अर्थ खण्डित होना नहीं हैं। बल्कि खण्ड-खण्ड रूप में समग्र की व्याख्या करना है - इस दृष्टि से लघुकथा अपने सैद्धान्तिक गुण को बनाये रखते हुए पाठकों को आकर्षित करती रहेगी। पाठक-रूचि से ही आज लघुकथा इस सम्मानजनक सोपान तक पहुँची है - इसमें दो राय नहीं है।

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डॉ. मलय पानेरी

431/37 पानेरियों की मादड़ी

उदयपुर-313001 (राज.)

मो.: 94132-63428


गुरुवार, 24 अक्टूबर 2019

सांझा लघुकथा संकलन योजना : इक्कीसवीं सदी के प्रतिनिधि लघुकथाकार

(Mrinal Ashutosh) मृणाल आशुतोष जी की फेसबुक पोस्ट 

सभी लघुकथाकार मित्र ध्यान दें।
#ink की एक और पहल -
शीर्षक : इक्कीसवीं सदी के प्रतिनिधि लघुकथाकार
संपादक : श्री अश्विनी कुमार आलोक  Ashwini Kumar Alok (प्रतिष्ठित लघुकथाकार व संपादक)
देश के सक्रिय एवं शीर्षस्थ लघुकथाकारों से दो वैसी लघुकथाएँ आमंत्रित हैं , जिनके दम पर वे इक्कीसवीं सदी के लघुकथा - लेखन में अपने को मजबूत और उल्लेखनीय समझ रहे हों। कोशिश हो कि सकारात्मक और समाजहित के विषय उठाये जायें। परंतु लघुकथाएँ पुरातन बोधकथाएँ अर्थात् पारंपरिक दृष्टांत मात्र बनकर न रह जायें , उनमें आधुनिक लेखन - शिल्प का उचित समावेश हुआ हो।यह साझा संकलन लघुकथा - लेखन के समकालीन एवं ज्वलंत विषयों को प्रशस्त करने एवं लघुकथा विधा की उपयोगिता व्यक्त करने का महत्त्वाकांक्षी आयोजन है।लघुकथाकार सिर्फ दो चयनित लघुकथाएँ भेजें और उन दोनों लघुकथाओं से संबंधित एक पृष्ठ की रचना - प्रक्रिया भी; ताकि पाठक वैसी परिस्थितियों से जुड़कर लघुकथाएँ पढ़ें कि जिन्होंने लेखक को अभिव्यक्ति के लिए उद्वेलित किया हो।
लघुकथाओं के साथ अपना संक्षिप्त परिचय और फोटोग्राफ ( सिर्फ डिजिटल)भेजें। चयनित लघुकथाकारों की सूची सिर्फ फेसबुक पर जारी की जायेगी। लघुकथाओं में संपादकीय संशोधन हो सकता है। आवश्यक हुआ तो संपादक लेखकों से फोन संपर्क कर सकते हैं।
रचनाएँ ईमेल से यहाँ भेजें :
ashwinikumaralok@gmail.com
संपादक से इस नं. पर बात हो सकती है :8789335785

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बुधवार, 24 अप्रैल 2019

लघुकथा संकलन: लोकतंत्र का चुनाव | बीजेन्द्र जैमिनी



श्री बीजेन्द्र जैमिनी द्वारा लोकतन्त्र का चुनाव शीर्षक से उनके ब्लॉग पर एक लघुकथा संकलन प्रकाशित किया जा रहा है। अब तक कुल 61 रचनाएँ चयनित कर प्रकाशित की जा चुकी हैं।





सम्पादकीय

विश्व में लोकतंत्र का अपना महत्व है । जो समय समय पर परिवर्तनशील होता है । भारत भी लोकतंत्र पर ही कामयाबी हासिल हुई है । चुनाव के लिए अनेक तरह की कार्यप्रणाली अपनाई जाती है ताकि जनता अपने मत का प्रयोग हमारे पक्ष में करती रही है । कार्यप्रणाली के विभिन्न रूपों को देखने के उद्देश्य से इस लघुकथा संकलन का सम्पादन किया जा रहा है ।

ब्लॉग का लिंक:

http://bijendergemini.blogspot.com/2019/04/blog-post_16.html


बुधवार, 3 अप्रैल 2019

बीजेन्द्र जैमिनी के सम्पादन में मां पर लघुकथा संकलन



श्री बीजेन्द्र जैमिनी के सम्पादन में मां पर लघुकथा संकलन उनके ब्लॉग पर निम्न कड़ी पर उपलब्ध है:

https://bijendergemini.blogspot.com/2019/03/blog-post_95.html


इस संकलन के संपादकीय में,

"मां के बिना जन्म सम्भव नहीं है। प्रथम गुरु भी मां है। मां जीवन का सत्य है। जिसकी मां नहीं होती है यानि बचपन में बिछडे जाती है कारण कुछ भी हो सकता है। उसका जीवन संधर्ष से भर होता है। 

ऐसे ही जीवन के संधर्ष की लघुकथाओं को पेश किया जा रहा है। अनुभव व संधर्ष सभी के अपने अपने है। इसलिए लघुकथा की विषय वस्तु अलग - अलग होना निश्चित है। भाषा शैली भी अलग अलग होगी। यही स्थिति ही लघुकथा की पहचान होती है। जो लेखक की मौलिक पहचान होती है।"

सोमवार, 18 मार्च 2019

लघुकथा संकलन: महिला लघुकथाकारों के लिए

महिला कथाकारों से चुनिंदा 10 बेहतरीन लघुकथाएं आमन्त्रित हैं

किताबगंज प्रकाशन द्वारा प्रकाशित होने वाली साझा संकलनों की महायात्रा के अंतर्गत नवीनतम साझा संकलन "बोलती लघुकथाएं" के लिए महिला लघुकथाकारों से बेहतरीन और चुनिंदा 10 लघुकथाएं सचित्र परिचय सहित ईमेल से आमन्त्रित हैं।


  • प्रत्येक महिला रचनाकार को संकलन में सिर्फ चार पृष्ठ दिए जाएंगे। संकलन में सिर्फ 25 महिला रचनाकारों को ही स्थान दिया जाएगा।
  • प्रकाशित/अप्रकाशित को कोई बंधन नहीं हैं। आप सिर्फ मौलिक तथा टाईपशुदा चुनिंदा एवं बेहतरीन 10 लघुकथाएं में से चार चयनित की जाएगी. इस हेतु अपना सचित्र परिचय नाम, जन्मतिथि, योग्यता, मोबाइल न, पता व मेल आईडी के प्रारूप सहित ही ईमेल से भिजवाएं।
  • पुस्तक के यथाशीघ्र "किताबगंज प्रकाशन" से प्रकाशित होगी।
  • सहयोगी कथाकारों को संकलन की पहली लेखकीय प्रति निःशुल्क भेजी जाएगी और उनके द्वारा इस संकलन की अन्य प्रतियां खरीदने पर 50% स्पेशल डिस्काउंट (+डाक खर्च अतिरिक्त) पर उपलब्ध कराई जाएगी ।
  • कृपया अपने चुनिंदा एवं बेहतरीन 10 लघुकथाएं निम्न ईमेल पर 25 मार्च 2019 तक भेजें.


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ओमप्रकाश क्षत्रिय 'प्रकाश'
संपादक (बोलती लघुकथाएं)
📲: 942-407-9675
📧: opkshatriya@gmail.com
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डाॅ. प्रमोद सागर
(चेयरमैन)
किताबगंज प्रकाशन
📲: 8750-660-105
📧: kitabganj@gmail.com

बुधवार, 16 जनवरी 2019

लघुकथा समाचार : मातृभारती.कॉम द्वारा आयोजित लघुकथा संकलन "स्वाभिमान" का लोकार्पण



मातृभारती.कॉम द्वारा आयोजित लघुकथा संकलन "स्वाभिमान" का  लोकार्पण

11 जनवरी 2019 को  मातृभारती.कॉम आयोजित राष्ट्रीय लघुकथा प्रतियोगिता में विजयी ५० श्रेष्ठ लघुकथाओं को पुस्तक स्वरूप देकर पुस्तक लोकार्पण कार्यक्रम रखा गया। लघुकथा संकलन का नाम स्वाभिमान दिया गया है और इसे प्रकाशित किया है वनिका पब्लिकेशन्स ने।

इस मौके पर देश के विभिन्न राज्यों से आए लघुकथाकारों ने अपनी अपनी लघुकथाओं का पाठ किया। कार्यक्रम में उपस्थित मुख्य अतिथि थे वरिष्ठ कथाकार श्री सुभाष नीरव, वरिष्ठ लघुकथाकार व आलोचक श्री जितेंद्र जीतू और प्रकाशक श्रीमती नीरज सुधांशु। कार्यक्रम का सफल  संचालन किया कवयित्री व लेखिका श्रीमती नीलिमा शर्मा जी ने। कार्यक्रम की शुरूआत करते हुए मातृभारती.कॉम के फाउंडर श्री महेंद्र शर्मा जी ने उपस्थित महमानों का स्वागत किया और साथ ही लघुकथा लेखकों और लेखिकाओं का उत्साह बढ़ाया। साथ ही इस दिन यानी 11 जनवरी को प्रति वर्ष लघुकथा स्वाभिमान दिवस के तौर पर मनाने का प्रस्ताव भी रखा।

श्री सुभाष नीरव जी ने अपनी लघुकथा यात्रा के बारे में बताते हुए कहा कि इस विषय पर प्रतियोगिताओं का होना एक उत्तम कार्य है, प्रतियोगिताओं के माध्यम से ही श्रेष्ठ लेखकों को पाठकों के समक्ष लाया जा सकता है। साथ ही उन्होंने लघुकथा लेखकों व नवोदितों के लिए एक वर्कशॉप करने का प्रस्ताव भी रक्खा।

श्री जितेंद्र जीतू जी, जो इस प्रतियोगिता के निर्णायक भी रहे, उन्होंने अपने मन्तव्य प्रेक्षकों के समक्ष रक्खे। श्रेष्ठ लघुकथाओं का समीक्षात्मक मूल्याकन करके कथाएं क्यों सर्वश्रेष्ठ रही यह बताया ।

प्रतियोगिता में 5 सर्वश्रेष्ठ कथाओं को सम्मान दिया गया जिसमें
भगवान वैद्य
डॉ.आर बी भंडारकर
रत्न कुमार सांभरिया
प्रदीप मिश्र
शोभा रस्तोगी शामिल हैं।

श्रीमती नीरज सुधांशु ने अपनी प्रकाशक व निर्णायक की भूमिका के बारे में प्रेक्षकों को अवगत कराया व साथ ही प्रतियोगिता के विषय के अनुरूप लेखन को योग्य बताया। विषय व समय मर्यादा के साथ लिखकर ही लेखक एक उत्कृष्ट रचना का सर्जन कर सकता है।

कार्यक्रम के अंत मे श्री नीलिमा शर्मा जी ने सभी उपस्थित मेहमानों के प्रति आभार व्यक्त किया और महेंदर शर्मा जी ने भविष्य में इस प्रकार के कार्यक्रमों को करने का आश्वासन दिया |


Courtesy: thepurvai.com
URL: https://www.thepurvai.com/%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A5%83%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A5%80-%E0%A4%95%E0%A5%89%E0%A4%AE-%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE-%E0%A4%86%E0%A4%AF%E0%A5%8B/

सोमवार, 7 जनवरी 2019

लघुकथा समाचार

जोधपुर, जैसलमेर, बाड़मेर, पाली व नागौर के मूल निवासी लघुकथाकारों हेतु एक संकलन की योजना 

जोधपुर नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति (नराकास) जोधपुर की ओर से राजभाषा के प्रति जागरूकता व इसे बढ़ावा देने में विशिष्ट योगदान देने वाले स्थानीय व प्रादेशिक साहित्यकारों से उनकी गद्य, पद्य और कथेतर रचनाओं का संकलन प्रकाशित किया जाएगा। इस साझा पुस्तक का विमोचन देश के विख्यात साहित्यकारों की मौजूदगी में वार्षिक राजभाषा समारोह जून में किया जाएगा। नराकास के अध्यक्ष केसी पाठक के अनुसार इस पुस्तक में अपनी रचनाएं प्रकाशित कराने के इच्छुक साहित्यकार 20 जनवरी तक ईमेल से tolic.bobjodhpur@gmail.com पर भेज सकते हैं। समिति की संयोजक बैंक ऑफ बड़ौदा है। पाठक के अनुसार रचनाकार अपनी गद्य कहानी या लघुकथा को अधिकतम 4 पृष्ठ में दो हजार शब्द, पद्य कविता अधिकतम एक पृष्ठ पर 300 शब्द और कथेतर निबंध, संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, यात्रावृत्त एवं डायरी अधिकतम तीन पृष्ठ में 1500 शब्द की सीमा में भेज सकते हैं। रचनाएं भेजने वाले साहित्यकार जोधपुर, जैसलमेर, बाड़मेर, पाली व नागौर के मूल निवासी होने चाहिए। रचनाएं और परिचय एक ही फाइल में भेजनी होगी। अधिक जानकारी के लिए बैंक नराकास सचिव ओमप्रकाश बैरवा से संपर्क किया जा सकता है।

News Source:
https://www.bhaskar.com/rajasthan/jodhpur/news/the-compositions-are-invited-for-publication-in-39contemporary-creation39-book-044032-3572351.html

सोमवार, 12 नवंबर 2018

लघुकथा समाचार

देखत तौ छोटे लगें घाव करें गंभीर' जैसे दोहे से लघुकथा को आंका
Dainik Bhaskar: Nov 12, 2018, New Delhi 


विश्व मैत्री मंच द्वारा प्रकाशित लघुकथा संकलन 'सीप में समुद्र' किताब का लोकार्पण हिन्दी भवन के महादेवी वर्मा कक्ष में हुआ। कार्यक्रम में मुख्य अतिथि साहित्य अकादमी के निदेशक उमेश कुमार सिंह थे। राष्ट्र भाषा प्रचार प्रसार समिति के संयोजक कैलाश चन्द्र पंत की अध्यक्षता में वरिष्ठ समीक्षक युगेश शर्मा और घनश्याम मैथिल ने पुस्तक पर विमर्श किया। इस अवसर पर संस्था की अध्यक्ष और संग्रह के संपादक संतोष श्रीवास्तव ने संपादन के अनुभव साझा किए।

दूसरे सत्र में हुआ गीत, गजल 

डॉ. उमेश कुमार सिंह ने लघुकथा पर अपना दृष्टिकोण रखा। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए कैलाशचंद पंत ने लघुकथा की विसंगतियों और साहित्यिक परिदृश्य में प्राचीन साहित्य और संस्कृति की चर्चा करते हुए सतसैया के दोहरे, अरु नावुक के तीरु, देखत तौ छोटे लगें घाव करें गंभीर जैसे लोकप्रिय दोहे से लघुकथा को आंका। दूसरे सत्र में गीत गजल संध्या का आयोजन हुआ, जिसमें शहर के नामचीन शायरों ने शिरकत की।

News Source:
https://www.bhaskar.com/mp/bhopal/news/quotwatching-tau-tau-chong-chahta-chahra-chakte-sache-srilquot-such-as-judging-the-short-story-043059-3173314.html