यह ब्लॉग खोजें

अशोक भाटिया लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
अशोक भाटिया लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

बुधवार, 9 अक्टूबर 2024

वैश्विक सरोकार की लघुकथाएं । भाग 3 । शिक्षा पर लघुकथा सर्जन

आदरणीय मित्रों,

वैश्विक मुद्दों की जानकारी में इस पोस्ट में एक ऐसे मुद्दे पर चर्चा का प्रयास है जो, दुनिया में नक्शे बदल देने में समर्थ है। जीतने भी देश विकसित हैं, उनके मूल में उचित शिक्षा है। हमारे देश में भी सदियों पहले, उस समय के अनुसार शिक्षा थी, तो हम उन्नत थे। सोने की चिड़िया भी कहलाए और विश्वगुरु भी। आज शिक्षा के प्रति जागरूकता की हालांकि, वैश्विक स्तर पर हर देश में, कहीं कम तो कहीं अधिक आवश्यकता है। इस पर चर्चा करते हैं।

वैश्विक स्तर पर, शिक्षा को महत्वपूर्ण चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, इनमें सभी तक शिक्षा की पहुँच, शिक्षा की गुणवत्ता और सभी को समान शिक्षा सहित अन्य मुद्दे शामिल हैं। सबसे महत्वपूर्ण मुद्दों में शैक्षिक इन्फ्रास्ट्रक्चर और संसाधनों के मामले में विकसित और विकासशील देशों के बीच बढ़ता अंतर भी शामिल है। जहां उच्च आय वाले देश प्रौद्योगिकी-संचालित (digitally/technological controlled) शिक्षा और व्यक्तिगत सीखने में निवेश करते हैं/पूरा ध्यान देते हैं, वहीँ कई कम आय वाले देश अपर्याप्त शिक्षक प्रशिक्षण, कम शिक्षक संख्या, भीड़भाड़ वाली कक्षाओं, (कथित) अच्छे शिक्षण के नाम पर डोनेशन, और बुनियादी शिक्षण सामग्री की कमियों से जूझ रहे हैं। यह फर्क देशों के मध्य शिक्षा के परिणामों में अंतर को बढ़ाता है, जिससे वंचित क्षेत्रों के छात्रों के लिए वैश्विक अर्थव्यवस्था में प्रतिस्पर्धा करना मुश्किल हो जाता है।

एक और बड़ी समस्या समावेशिता की कमी, महिला शिक्षा, विकलांग बच्चों की शिक्षा या जलवायु परिवर्तन के कारण विस्थापित व्यक्तियों / समूहों के लिए शिक्षा प्रदान करने में विफलता है। सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी 4) जैसी वैश्विक प्रतिबद्धताओं के बावजूद, लाखों बच्चे स्कूल से बाहर रहते हैं, विशेषकर गरीबी, युद्ध और भेदभाव से प्रभावित क्षेत्रों में। इसके अतिरिक्त, शिक्षा के पारंपरिक मॉडल अक्सर आधुनिक human resource की जरूरतों, जैसे डिजिटल साक्षरता और critical thinking, skill based system आदि की मांग के अनुकूल होने में धीमे होते हैं, जिससे कई छात्र भविष्य के रोजगार के अवसरों के लिए तैयार नहीं हो पा रहे हैं। जैसे AI का विरोध कर एक भय का वातावरण है कि परंपरागत रोजगार छीन जाएंगे। जबकि, होगा यह कि नए रोजगार भी उत्पन्न होंगे। उसके अनुसार human resource तैयार करना ज़रूरी है। 

डिजिटल नैतिकता, उचित शोध, शोध में नकल, साहित्यिक चोरी, शोध का वैश्विक विकास में महत्व भी महत्वपूर्ण मुद्दे हैं।

इनके अतिरिक्त, परीक्षा प्रणाली पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है। विकसित देशों में कई बार अच्छे विद्यार्थियों की परीक्षा ना ली जाकर उन्हें एक समिति द्वारा उन विद्यार्थियों की क्षमतानुसार मार्क्स दे दिए जाते हैं। विकासशील देशों में भाई-भतीजावाद या यूं कहें कि ईमानदारी की कमी के कारण यह अभी तक संभव नहीं है।

एक विसंगति यह भी है कि, सरकारी कौंसिल्स के नियमों में भी कहीं ना कहीं विरोधाभास सा दिखाई देता है। जैसे, किसी दो वर्ष के कोर्स में, इंटेक 60, फीस अधिकतम 30,000/- प्रति वर्ष, आचार्यों की संख्या: प्रोफ़ेसर-1, एसोशिएट प्रोफेसर्स-2, अस्सिस्टेंट प्रोफेसर्स-4...आदि से पात्रता मिली हो तो, इसमें विद्यार्थियों की अधिकतम संख्या 60x2 वर्ष=120, तब अधिकतम वार्षिक फीस आएगी120x30,000= 36,00,000/- (छत्तीस लाख रुपये)। अब सरकारी ग्रेड से तुलना करें तो एक प्रोफ़ेसर की सैलरी कम से कम लगभग 1.5 लाख रुपये महीना (18 लाख रुपये सालाना), एसोशिएट प्रो. की लगभग 1 लाख रुपए महिना (दो की 24 लाख रुपये )। इन दोनों की वार्षिक सैलरी ही आय से अधिक है (लगभग 42 लाख रुपये)। अब अन्य कर्मचारियों की सैलरी, और दुसरे खर्चे। इन सभी को पूरा करने के लिए सरकारी फंड की व्यवस्था भी इतनी सही नहीं। प्राइवेट कॉलेज तब या तो घालमेल शुरू कर देते हैं या अधिक पाठ्यक्रम चला कर खर्चा निकालते हैं। गवर्नमेंट ग्रेड से तनख्वाह नहीं देते। दें भी तो कहाँ से? यहाँ शिक्षा की गुणवत्ता से सीधे-सीधे समझौता हो ही जाता है।

एक अन्य विषय है, अपनी भाषा में पढ़ाई। अपनी यह बात सालों पहले से मैं सेमिनार्स, कांफ्रेंस आदि में रखता रहा हूँ। कई बार देश के बड़े वक्ताओं के माध्यम से भी पहुंचाई है, mygov.in पर भी भेजा है कि हमारे डीएनए में अपनी भाषा में सीखने की क्षमता अधिक होती है वनिस्पत विदेशी भाषा के। हालाँकि अब अंग्रेज़ी भी हमारे डीएनए में बस गई है। लेकिन फिर भी यह सच है कि विकसित देशों में अन्य गुणों के साथ-साथ पढ़ाई उनकी अपनी भाषा में ही होती है। भला हो कस्तूरीरंगन कमिटी का जिनके विचार भी यही थे कि भारत में हिंदी व अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ाई हो और उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा नीति में यह लागू कर दिया। हालाँकि, अब इसके क्रियान्वयन में समस्या आ रही है कि, पाठ्य सामग्री उपलब्ध नहीं हो पा रही। और भी कुछ समस्याएं हो सकती हैं। इस विषय पर भी रचनाकर्म किया जा सकता है।

भारत की राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 एक हद तक परिवर्तनकारी दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है, लेकिन इसके क्रियान्वयन में भी कई चुनौतियाँ हैं। मुख्य बाधाओं में से एक बड़े पैमाने पर इन्फ्रास्ट्रक्चर में सुधार की आवश्यकता है, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में, जहाँ स्कूलों में अक्सर उचित सुविधाओं और शिक्षण संसाधनों की कमी होती है। हमारी एनईपी में जिस तरह से डिजिटल शिक्षा की ओर बदलाव पर जोर दिया गया है, वह भी इंटरनेट और डिजिटल उपकरणों तक असमान पहुँच तथा केवल सैद्धांतिक रूप से सक्षम शिक्षकों की सीमाओं के कारण पूरी तरह लागू नहीं हो पा रहा है, और यह शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच शैक्षिक असमानताओं को और बढ़ा रहा है। इसके अतिरिक्त, शिक्षकों को नए शैक्षणिक तरीकों को अपनाने और पारंपरिक रटने वाली शिक्षा प्रणाली से दूर जाने के लिए प्रशिक्षित करने के लिए समय, संसाधनों और शिक्षकों और छात्रों के बीच मानसिकता में बदलाव की आवश्यकता भी है।

ट्यूशन संस्कृति, कोचिंग सेंटर्स, शिक्षकों का आर्थिक शोषण, शिक्षण संस्थानों में फंड की कमी, आदि और भी बहुत से मुद्दे हैं, जिन पर ध्यान देने की ज़रूरत है।

कुल मिलाकर, सच यह है कि, जब शिक्षा उचित दिशा में होगी, सिर्फ तभी ही विकास की दिशा भी उचित होगी, उसके बिना कतई नहीं। 

इस विषय पर रचनाकर्म हेतु मुद्दों की कोई कमी नहीं, केवल दृष्टिकोण विश्वव्यापी रखिए।

डॉ. अशोक भाटिया जी सर की एक रचना प्रस्तुत है, जो सरकारी स्कूल शिक्षा के सत्य हालात बयान कर रही है। ऐसी व्यवस्थाएं केवल भारत में नहीं हैं, बल्कि कई विकासशील देशों में हैं. इसे पढ़िए,

****

लगा हुआ स्कूल / अशोक भाटिया 

नए साल में स्कूल खुल गए थे। रामगढ़ गाँव का यह सरकारी स्कूल मिडिल से हाई स्कूल बन गया था। कुछ दिन पहले वहां एक नया अधिकारी बिना पूर्व सूचना दिए पहुँच गया। उस समय स्कूल में एक सेवादार के अलावा कोई जिम्मेवार व्यक्ति दिखाई नहीं दे रहा था। बच्चे खुले में कूद-फांद रहे थे। गाड़ी को देख वे अपनी-अपनी कक्षाओं में दुबक गए। कमरों में लाइट नहीं थी, गर्मी और अँधेरा था। 

-क्या बात, किधर हैं सब लोग?’ युवा अधिकारी का पारा चढ़ गया। सेवादार उनके निर्देशानुसार हाजरी का रजिस्टर ले आया। उसमें सभी अध्यापकों की हाजरी लगी हुई थी। अधिकारी को दाल में काला ही काला नज़र आ रहा था। उसने दोषियों को देख लेने की सख्त भाव-मुद्रा बना ली। सेवादार बड़ा अनुभवी था। ऐसे हालात से वह कई बार निपट चुका था। उसने साहब को खुद ही बता दिया कि हेडमास्साब बैंक तक गए हैं। आने ही वाले होंगे। 

अध्यापकों के बारे पूछने पर वह तफसील से बताने लगा। पहला नाम सबसे सीनियर टीचर रामफल का था। 

-जी रामफड़ गाम मैं ड्राप आउट बाड़कां का पता करण गए हैं। 

-और श्रीचंद?

-वो आज बाड़कां खात्तर सब्जी खरीदण ने जा रया सै। मिड डे मील बणेगा। 

-और ये कृष्ण कुमार कहाँ जा रहा है?’ कड़क अधिकारी ने सेवादार से ही सारी जानकारी लेना ठीक समझा या उसकी यह मजबूरी थी- कहा नहीं जा सकता। 

-जी किशन भी दूध-धी खरीदण जा रया सै। 

-सुबह-सुबह क्यों नहीं चला गया?’ अधिकारी ने टांग पर दूसरी टांग रखते हुए पूछा। 

-जी वा बच्यां की गिणती करके ले जाणी थी।’ सेवादार ने स्पष्टीकरण दिया, जैसे सारी जिम्मेदारी उसी की हो। 

अधिकारी ने ठोड़ी पर हाथ फेरते हुए सोचा– सारे बाहर के काम इन टीचर्स को ही दे रखे हैं। अब बाकी के टीचर तो पक्का फरलो पर होने चाहिएं।  

-वो संस्कृत वाले शास्त्री कहाँ हैं?

-जी वा नए बाड़काँ खात्तर यूनिफाम का रेट पता करण शहर नै जाण लाग रे। इहाँ गाम मैं तो मिलदी कोन्या। 

अधिकारी सकपका गया, पर उसे चौकीदार की बातें सच लग रहीं थीं। अब तक जितना उसने सुन रखा था, उसमें उसे अध्यापक ही दोषी और काम न करने वाले लगते थे। लेकिन यहाँ तो उसे माजरा कुछ और ही लग रहा था। उसे अपना इरादा पूरा होता नहीं दिख रहा था। उसने इधर-उधर देखा,धीरे-धीरे पानी के दो घूँट भरे, फिर चौकीदार से कहा- ये गणित वाले भूषण की भी रामकहानी सुना दे फिर।’

-साब वो हर साल स्टेशनरी अर बैग खरीदया करे है। इब्बी आ ज्यागा। 

इतने में कैंटीन वाला बुज़ुर्ग चाय ले आया था। 

कक्षाओं में से बच्चे रह-रहकर बाहर झाँकते हुए उस अधिकारी को देख लेते, मानो वह चिड़ियाघर से भागा हुआ कोई जंतु हो। अधिकारी को बहुत मीठी चाय भी कड़वी लग रही थी। उसने दो घूँट भरकर अपना काम पूरा करने की कवायद फिर शुरू की। 

-ये अनिल कुमार भी किसी काम गया है?

-जी, गाम की मर्दमशुमारी की उसकी ड्यूटी लग री सै। 

-जनगणना तो खत्म हो चुकी है!’ अधिकारी की सवालिया निगाहें उसकी ओर उठीं। 

-साब वो तो पिछले महीन्ने घर और गाए-भैंस गिणन की हुई थी। इबकै धर्म अर जात का पता करण गए हैं जी। 

अब तक पी.टी.मास्टर को भी खबर मिल चुकी थी। वह आखरी कमरे से तेजी से निकला। आकर अधिकारी को करारी नमस्ते ठोकी और अपना परिचय दिया। वह स्कूल में तरह-तरह के काम करने से बड़ा परेशान था। अधिकारी ने चेहरे पर सख्ती और गर्दन में अकड़ को बढ़ाते हुए उससे पूछा –

-आप कहाँ थे? ये बच्चे हुडदंग कर रहे थे। इन्हें कौन कण्ट्रोल करेगा?

-सर, मैं नौवीं क्लास के बच्चों की आँखें और दांत चेक कर रहा था। 

-ये काम तो डॉक्टर का है!

-सर, यहाँ कभी कोई डॉक्टर नहीं आता। पीर-बावर्ची-खर-भिश्ती सब हमें ही बनना पड़ता है।’ कहकर पी.टी. मास्टर अपनी भाषा पर मुग्ध हो गया। 

तभी स्कूटर पर स्कूल के मुख्य अध्यापक अवतरित हुए। उन्होंने अधिकारी को बताया कि वे बैंक में बच्चों के खाते खुलवाने के कागज़ात जमा कराकर आये हैं। स्कूल का एकमात्र क्लर्क उस दिन छुट्टी पर था। अधिकारी और मुख्य अध्यापक- दोनों की आँखों में कुछ सवाल और विषय चमके, फिर दोनों की संक्षिप्त बातचीत के बाद उन सवालों की बत्तियां गुल हो गईं। 

पी.टी.मास्टर बच्चों को आयरन की गोलियां बांटने नौवीं कक्षा की तरफ हो लिया। मुख्य अध्यापक ने अधिकारी को नाश्ते के लिए जैसे-कैसे मनाया और उसे अपने घर की तरफ लेकर चल दिया। 

स्कूल फिर पहले की तरह चलने लगा, जो आज तक वैसा ही चल रहा है....

- अशोक भाटिया 

-0-

गौर कीजिए इन पंक्तियों पर

//पीर-बावर्ची-खर-भिश्ती सब हमें ही बनना पड़ता है।//

//दोनों की आँखों में कुछ सवाल और विषय चमके, फिर दोनों की संक्षिप्त बातचीत के बाद उन सवालों की बत्तियां गुल हो गईं।//

सादर

- चंद्रेश कुमार छ्तलानी

शुक्रवार, 7 जून 2024

हिन्दी लघुकथा की उपस्थिति और सामाजिक परिदृश्य | पुस्तक समीक्षा | कथा-समय — दस्तावेजी लघुकथाएँ | समीक्षक: प्रो. मलय पानेरी

 हिन्दी लघुकथा की उपस्थिति और सामाजिक परिदृश्य


प्रो. मलय पानेरी

प्रोफेसर (हिंदी) एवं अधिष्ठाता 

मानविकी व सामाजिक विज्ञान संकाय

जनार्दन राय नागर राजस्थान विद्यापीठ, उदयपुर


साहित्य में लघुकथा एकदम नयी विधा नहीं है। इसका चलन भी अन्य विधाओं की तरह बहुत पुराना है लेकिन अभी कुछ दशकों से यह अधिक लिखी-पढ़ी जा रही है। किसी कथा का बड़ा होना महत्त्वपूर्ण नहीं है और न ही लघु होना महत्त्वपूर्ण है। दोनांे ही स्थितियों में कथा का होना जरूरी है। विधा की प्रकृति और रचनाकार की सामर्थ्य किसी रचना को दशक बताती हैं। हिन्दी में कहानी की परंपरा बहुत प्राचीन है। कहानी का कथ्य और शैली रचनाकार का निजी गुण है, इससे यह अपनी विचार पाठकों तक ले जाता है। यह उसी पर निर्भर करता है कि वह अपनी रचना को कई पन्नों में समझाना चाहता है या कुछेक परिच्छेद में ही। जैसे कम खर्चे में घर चलाना कठिन है ठीक इसी तरह कम शब्दों में समझाना मुश्किल है। इसीलिए लघुकथा में रचनात्मक-उद्देश्य चुनौतीपूर्ण होते हैं। लघुकथा लिखने-पढ़ने में ज़रूर छोटी होती है परन्तु उसके निष्कर्ष बहुत व्यापक होते हैं।

लघुकथा की स्थिति पर विचार करने से पहले मुझे एक प्रसंग का उल्लेख अप्रासंगिक नहीं लग रहा है - अक्सर हमने किसी छोटे कद के व्यक्ति के बारें में अन्य लोगों को यह कहते सुना है कि ‘अरे, उस बावन्ये से सावधान रहना, वह जितना बाहर दिख रहा है उससे दुगुना अन्दर है।‘ यह हास्य से अधिक कुछ नहीं है लेकिन लघुकथा के रचना-विधान पर एकदम फिट बैठता हैं। अर्थात् लघुकथा जिन शब्दों में रची गई है वह उसके अलावा भी बहुत कुछ कह जाती है। लघुकथा हमें अनकहे शब्दों से जोड़े रखती है। प्रश्नात्मकता में भी और सांकेतिकता में भी। रचनाकार की अनुभूतियाँ हमारे आसपास की घटनाओं से और लोक के आचरण-व्यवहार आदि से उपजती हैं परन्तु कहीं भी निरर्थक नहीं लगती हैं, उनमें एक व्यापक सत्य अन्तर्निहित रहता हैं। रचनाकार उन्हें ही उद्घाटित करता है। लघुकथा के माध्यम से रचनाकार समस्याग्रस्त समाज का ही नहीं बल्कि समस्या बन चुकी व्यक्ति-मानसिकता का भी अच्छा चित्रण करता है। लघुकथा बहुधा यथार्थ और आदर्श के अंतर पर टिकी होती है - व्यंग्य या कटाक्ष के माध्यम से। यथार्थ हमेशा समय और स्थान सापेक्ष होता है, जिसके अनुसार वह बदलता भी रहता है। बहुआयामी जीवन प्रवाह की नियमित प्रक्रिया में कई तरह की अन्तर्बाधाएँ साथ रहती ही हैं। बाधाएँ दूर करना मानवीय प्रयास है परन्तु सप्रयोजन कष्ट देना व्यक्ति के आचारण की विसंगति ही कही जाएगी। इसी विसंगति को पहचान कर रचनाकार उसके उन्मूलन की चेतना प्रदान करता है। चाहे कथा हो अथवा लघुकथा-दोनों का लक्ष्य समान है लेकिन शैली-भिन्नता के कारण लघुकथा से तीखे प्रहार की ही अपेक्षा रह जाती है। लघुकथा अपने इस गुण के लिए अधिक सराहनीय विधा बन सकी है - इसमें अतिशयोक्ति नहीं है। साथ ही यह भी कि आज लघुकथा-लेखन पर्याप्त मात्रा में हो रहा है लेकिन उसका मूल्यांकन अभी भी अपेक्षित बना हुआ है। लघुकथाओं को लघु पत्रिकाओं में तथा और भी अन्य साहित्यिक-शोध पत्रिकाओं में बहुत कम स्थान मिल रहा है। इससे इस विधा के प्रति पाठक-रूचि होने पर भी एक अभाव महसूस किया जा रहा है। इस कमी को पूरा करने के लिए अब कुछ अच्छे प्रयास हो रहे हैं - इसी शृंखला में अशोक भाटिया के संपादन में दस्तावेजी लघुकथाओं का संकलन ‘कथा-समय‘ एक उम्मीद जगाता है। अशोक भाटिया जी ने इस पुस्तक की भूमिका(ओं) में लघुकथा की प्रकृति, प्रवृति और आवश्यकता पर टिप्पणी करते हुए इसके संभावनाशील भविष्य की ओर संकेत किया है। उनका स्पष्ट मानना है कि लघुकथा जिन कम शब्दों में विषय को उघाड़ सकती है वो काम कहानी नहीं कर सकती है। लघुकथा पाठक के लिए समझ का विवेक-निर्माण करती है। परिवेश का जो यथार्थ कहानी में है वहीं लघुकथा में भी है परन्तु चुभन का अहसास यहाँ अधिक है। पत्थर से ठोकर लगते ही उठी पीड़ा की तरह लघुकथा अपना लक्ष्य-संधान कर जाती है। कोई विषय नहीं, कोई विवेचन नहीं लेकिन मस्तिष्क के विचार-तंतु खोल देती है लघुकथा। यहाँ तक कि छोटी-छोटी बातों में की गई टीका-टिप्पणी भी व्यापक विचारों को समेटे हुए होती हैं। लघुकथा की प्रवृति यही है। उसमें निष्प्रयोजनीय कुछ भी नहीं होता है। भाटिया जी का कहना - ‘‘आकार में छोटी ये कथाएँ अपने निहितार्थ और उद्देश्य में बड़ी और दूरगामी प्रभाव की रचनाएँ हैं।‘‘ बहुत उचित है। लघुकथा-लेखक की जिम्मेदारी इस दृष्टि से अधिक गंभीर एवं चुनौतीपूर्ण है। लघुकथा को लोकप्रिय भी होना है और श्रेष्ठ भी होना है - यह संतुलन ही लेखक के दायित्व को गुरूत्तर बनाता है। सामाजीकरण की प्रक्रिया कभी सरल नहीं होती है। उसे कई तरह के संकटों से गुजरना होता है। व्यवस्था की बाधाओं को लघुकथा ठीक-ठीक भाँप लेती है। यही क्षमता उसकी ताकत भी बनती है। इस पुस्तक में संकलित लघुकथाकारों ने यह लगभग प्रमाणित-सा करनें का प्रयास किया कि साहित्य की यह विधा किसी भी कोण से कमतर नहीं है। समाज-सुधार के सारे विटामिन इसमें मौजूद हैं। आवश्यकता सिर्फ इस बात की है कि कब कौनसे विटामिन का इंजेक्शन देना है। इस प्रारंभिक जाँच से ही लघुकथा अपनी पकड़ में मरीज को लेती है। भगीरथ परिहार की लघुकथाएँ उनकी वैज्ञानिक एवं मार्क्सवादी विचारों को प्रसारित करती एक समतामूलक व्यवस्था की पैरवी करती है। उनके लेखन के केन्द्र में सिर्फ इंसान है, न जाति, न धर्म, न औरत, न आदमी - केवल एक अदद मनुष्य है। वे अपनी ‘आग‘ लघुकथा में इंसानी धर्म की बात करते हैं तो ‘बैसाखियों के पैर‘ में आत्मविश्वासहीन होते जा रहे व्यक्ति के पराजय-भाव की शंका पर प्रश्न उठाते हैं लेकिन उनकी ‘अन्तहीन ऊँचाइयाँ‘ लघुकथा फिर एक आशा का संचार कर देती है। वे अपनी ‘आत्मकथ्य‘ लघुकथा में औद्यागिकीकरण को आज की आवश्यकता बताते हैं परंतु इसके साथ ही समाप्त होती गाँव-संस्कृति का उन्हें दुःख भी है। रोजगार की संभावना-तलाशते युवा वर्ग के लिए मशीनी-संस्कृति नये अवसर पैदा कर रही है। तकनीक-ज्ञान-सम्पन्न व्यक्ति इसमें खप जाएंगे - यह पहलू सुखद है लेकिन यहाँ लेखक पूँजीवाद के पंजे में फँसे अपने वर्तमान पर क्षोभ भी व्यक्त करता है। निर्माण के सुख के पीछे बहुत कुछ लुटा चुके का दंश ज्यादा पीड़ा देता है। ‘अफसर‘ लघुकथा निर्मम अफसरशाही की ही कथा है। यूनियन नेता को लुभाकर रखने और किसी भी प्रकार के आर्थिक लाभ पर कैंची चलाने की प्रवृत्ति को रेखांकित करती है। भगीरथ परिहार अपनी लघुकथाओं में व्यापक अनुभवों को संक्षेपण-कौशल से पाठक-प्रिय बना देते हैं। बलराम अग्रवाल की लघुकथाएँ हमें एक नये अनुभव से साक्षात कराती हैं। वे सामयिक स्थितियों में आधुनिकता से ग्रस्त, महानगरीय प्रभावों से युक्त जीवन-यथार्थ से हमें रू-ब-रू कराते हुए समस्या-बोध की स्थिति तक ले आते हैं। सोच और संवेदन के स्तर पर ये लघुकथाएँ हमें निरंतर कुरेदती हैं। बलराम अग्रवाल लघुकथा में सांकेतिकता को अनिवार्य मानते है। इनका यह मानना है कि ‘‘लघुकथा मुझे उतनी ही सक्षम विधा लगती है, जितनी सक्षम विधा बिरजू महाराज को नृत्य की, एम.एफ. हुसैन को चित्रांकन की और बिस्मिल्ला खां को शहनाई बजाने की लगती होगी।‘‘ अर्थात् लघुकथा उतनी ही गंभीर और गहरी विधा है जितनी कि अन्य कला-विधाएँ। विज्ञान का एक नियम है - द्रव का दाब उसकी गहराई पर निर्भर करता है। कला और साहित्य के क्षेत्र में ‘दाब‘ को हम ‘प्रभाव‘ मान लें और ‘द्रव‘ को ‘कला‘। कला की संपूर्णता भी उसकी गहराई का परिणाम होती है। बलराम जी की लघुकथाओं में हम समय के साथ संवाद करते हैं। उनकी ‘समन्दर: एक प्रेमकथा‘ एक दादी के जीवन की न केवल सुख-संयोग की कथा है, बल्कि अपनी उम्र के चौथे पड़ाव पर नॉस्टेल्जिया से स्वयं को उर्जस्वित रखने की कथा भी बन जाती है। उनकी ‘बुधुआ‘ भी इसी भाव की कहानी है पर  इसमें अभिलषित को न पा सकने का दर्द भी मौजूद है। लघुकथा की यही दशकता है कि वह बिना किसी भूमिका के अपनी बात कह जाने की क्षमता बनाये रखती है। ‘रुका हुआ पंखा‘ अति संवेदनशीलता के भाव को दर्शाने वाली लघुकथा है। एक पिता को अपनी बेटी के कमरे में बंद पंखा सशंकित करता है। उन्हें बंद पंखा किसी करूण कथा के सच को सामने लाता प्रतीत होता है। आज की युवा पीढ़ी पर यद्यपि भरोसा बढ़ा है लेकिन निराशा की स्थिति में तुरंत अपने जीवन को अवसान के अंधेरे में धकेलने की घटनाएँ बहुत आम हो गई हैं, इसलिए माता-पिता का अपने बच्चों पर विश्वास कुछ टूटता-सा भी दिखाई देता है।

साहित्य अक्सर सामाजिक चिन्ताओं से घिरा रहता है। क्योंकि मनुष्य अपने व्यक्तिगत जीवन की सफलताओं से समाज में अपनी पहचान स्थापित करना चाहता है। रचनाकार इस सत्य से परिचित है, इसीलिए उसके लेखन में समाज, घर, परिवार, परिवेश आदि अपनी पूर्णता के साथ उपस्थित रहते हैं। अशोक भाटिया जी जो इस पुस्तक के संपादक भी हैं एक अच्छे कथाकार के रूप में लब्ध प्रतिष्ठ हैं। उनकी लघुकथाएँ हमारे परिवेश और परिस्थितियों की संगति-विसंगतियों की सूक्ष्म संकेतिका जैसी हैं। ऐसा लगता है वे सप्रयोजन अपनी लेखनी को इतना कसते हैं कि एक शब्द भी कहीं ढीला पड़ता नहीं दिखता है। लघुकथा की व्याप्ति उनकी चिंता भी है - इसीलिए ‘बैताल की नई कहानी‘ का अंत विक्रम के निरूत्तर हो जाने से है। यह लघुकथा इंसानी व्यवहार पर कटाक्ष भी करती है और इंसानी धर्म को समझाती भी है। यह धर्म हम अभ्यागत के स्वागत में अपनाते थे, लेकिन आज की स्थितियाँ इसके ठीक विपरीत है। ‘तब और अब‘ लघुकथा व्यक्ति-संबंधों के निरंतर रीतते जाने की व्यथा दर्शाती है। उनकी ‘युगमार्ग‘, ‘देश‘, ‘रंग‘ लघुकथाएँ व्यक्ति की लाचारी, व्यवस्थाओं की नाकामी, समाज-भिन्न आदमी के मन की पीड़ा की कहानियाँ है परन्तु पाठक के लिए वे गहन सोच-विचार की रचनाएँ हैं। भाटिया जी की लघुकथाएँ प्रकट व्यंग्य की नहीं बल्कि छिपे व्यंग्य की कथाएँ हैं। उनमें वे व्यवस्था तंत्र को लगभग ललकारने के करीब आ कर चुप हो जाते हैं ताकि पाठक उसके मर्म और निष्कर्ष को अपने अनुसार तय कर सके। उनकी ‘लोक और तंत्र‘ लघुकथा वास्तव में लोकहीन तंत्र की कथा है। यह तंत्र भी अव्यवस्थाओं का है। लोकतंत्र में से लोक लगभग नकारा जा रहा है और उसके प्रतिरोध का कोई संगठित स्वर भी नहीं सुनाई दे रहा है। वहीं आज भी छुआछूत की मानसिकता में कहीं बदलाव नहीं दिखाई दे रहा है - ‘कपों की कहानी‘ इसी विषय को केन्द्रित करती है। कहने में सभी बातें भली हैं परन्तु करने के स्तर पर बहुत बुरी है, वहाँ हमारी जात-बिरादरी का भाव हमें ही दबा देता है। ‘भीतर का सच‘ कहानी लिंग-भेद की मानसिकता की परतें उघाड़ती हैं तो ‘लगा हुआ स्कूल‘ हमारे शिक्षा तंत्र की असलियत सामने लाती है। वहीं मनुष्य की पहचान उसकी निजी न होकर धर्माधारित हो जाती है - इसकी सटीक अभिव्यक्ति है ‘पहचान‘ लघुकथा। वास्तव में समाज और व्यवस्था का अप्रिय सच लघुकथा की रचना का मूल कारक बनता है।

सुकेश साहनी अपनी लघुकथाओं में स्वतंत्रता के बाद के वातावरण को व्यापक संदर्भों में इस रूप में प्रस्तुत करते हैं कि व्यवस्था ही अव्यवस्था में बदलकर व्यक्ति जीवन को असहनीय बना देती है। उनका यह मानना है कि लघुकथा अपने रचनात्मक उद्देश्यों को संकल्प के साथ पूरा करती है। साहित्य की अन्य विधाओं की तरह ही लघुकथा का जन्म भी लम्बी सृजन-प्रक्रिया के बाद ही संभव है। जीवन के वास्तविक पात्र ही बहुधा लघुकथा के भी नायक होते हैं। सुकेश जी इस विधा को कथ्य के हिसाब से सीमित फलक की विधा नहींे बनाते हैं, बल्कि उसे व्यापक विस्तार देते हैं। छोटे आकार की इस विधा में कितनी क्षमता भरी जा सके इसका नियोजन उनके यहाँ मौजूद है। ‘ईश्वर‘ लघुकथा परंपरागत रूप से चली आ रही ईश्वरीय आस्था की रचना है परंतु अनवरत ईश्वर खोजने की व्यर्थता भी सिद्ध करती है। ‘त्रिभुज के कोण‘ लघुकथा आर्थिक रूप से मध्यवर्ग की परेशानियों को सामने लाती है और साथ ही अभावग्रस्तता में पारिवारिक-भावना को बचा लेने में सफल हो जाती है, वहीें ‘डरे हुए लोग‘ लघुकथा हमारे शासनिक तंत्र की ज़मीनी हकीकत को बयां करती है। साधारण लोग ‘सरकारी-व्यवस्था‘ की कारगुजारियों से परिचित हैं इसीलिए उन्हें लोक-निर्माण के कार्यों में हमेशा एक संशय दिखता है, जो इस व्यवस्था का सच भी है। यह भी हम देखते आए हैं कि गरीब गरीबी की ओर एवं अमीर अमीरी की ओर ही कैसे बढ़ा चला आ रहा है। धनहीन और धनाढ्य का अंतर निरंतर बढ़ता हुआ समाज में व्यवस्थाओं के बटँवारे को असमान ही करता रहा है। समर्थ और अर्थ-सम्पन्न व्यक्ति सभी के हक के प्राकृतिक संसाधनों पर भी कब्जा करता रहा है। इसकी सटीक अभिव्यक्ति है - ‘कुआँ खोदने वाला‘ लघुकथा। इसमें लेखक ने संकेत और प्रतीक से अपना मंतव्य स्पष्ट किया है। इनकी अन्य उल्लेखनीय लघुकथाओं में ‘ठण्डी रजाई‘, ‘बिरादरी‘, ‘आधी दुनिया‘, ‘उतार‘, ‘कसौटी‘, ‘कोलाज‘ आदि हैं। इनमें रचनाकार ने उन प्रासंगिक विषयों को उठाया है, जो साधारण जन-जीवन से संबंधित हैं तथा उनसे चाहे-अनचाहे हमारा वास्ता रहता है। निस्संदेह लघुकथा जन-मानस में हरकत पैदा करने में सफल होती है।

कमल चोपड़ा की लधुकथाएँ चिकोटी काट पीड़ा पैदा करती है। रचना की यही सफलता भी है कि वह एक बारगी इंसान को रोक कर सोचने को बाध्य करें।  किसी अच्छे परिवर्तन के लिए यदि व्यक्ति लीक से हटता है तो कोई परेशानी नही है लेकिन नये की स्थापना में रोड़े अटकाने वाले भी उपस्थित होते हैं - उनकी पड़ताल करती है कमल चोपड़ा की लघुकथाएँ। पेशे से चिकित्सक कमल चोपड़ा की लेखनी समाज की पश्चगामी प्रवृत्तियों पर प्रहार करती है और इंसानी-धर्म के विरूद्ध सक्रिय शक्तियों को निस्तेज भी करती है। हमारा आसपास, समाज, परिवेश, बदलता परिदृष्य आदि ऐसे घटक है जो चिंतनशील व्यक्ति को हमेशा जगाए रखता है। इसीलिए कमल जी साम्प्रदायिकता के विरोध में ‘छोनू‘ लघुकथा लिख पाते है। ब्याजखोरी से पनप रहे भ्रष्टचार और शोषण के चक्र से मुक्ति की कामना करते उन्हें ‘है कोई‘ लघुकथा लिखनी पड़ी, वहीं सामाजिक विसंगति को केन्द्र में रखते हुए वे ‘निशानी‘ लघुकथा लिखते हैं। वास्तव में मुझे ऐसा लगता है हमारा सामाजिक परिदृष्य नयी आधुनिकता के बरअक्स ज्यादा असामाजिक हुआ है। कितनी ही रैलियाँ निकाल लें, आन्दोलन कर लें, समय-समय पर ज्ञापन देकर समाचारों में आने की औपचारिकता-पूर्ति कर लें, मानव-शृंखलाएँ बनालें फिर भी समाज में लिंग-भेद की समस्या रहेगी, बाल-मजदूरी की छिपी-प्रवृत्ति रहेगी, आर्थिक-विपन्नता के कारण कर्ज-समस्या रहेगी ही - आखिर इनसे निजात कैसे मिले! स्वार्थ-प्रवृत्ति का परित्याग यदि व्यक्ति स्वेच्छा से करेगा तो ही शायद उनसे आंशिक मुक्ति मिल सकती है। आज बाजारवाद ने भी हमारे सामने कई तरह की परेशानियाँ पैदा की हैं। सम्पन्न राष्ट्रों ने पूंजी के खेल का भयानक विस्तार किया है। इसकी अच्छी व्याख्या करती है ‘मंडी में रामदीन‘ लघुकथा। इसमें एक साधारण किसान की माली हालत का वर्णन है और उचित कीमत के लिए छटपटाते उसे अन्ततः समझौता करना पड़ता है। क्योकि जो था वह तो लुटा ही पर, खुद बच गया यही गनीमत है उसके लिए। ये लघुकथाएँ एक सीधे-सादे इंसान को बचाने की कवायद करती हैं।

माधव नागदा राजस्थान के सजग रचनाशील कथाकार हैं। हिन्दी कथा साहित्य उनके रचनात्मक अवदान से निरंतर समृद्ध होता रहा है। हिन्दी-कहानी साहित्य को अच्छी विचारवान कहानियाँ देते रहने वाले नागदा जी लघुकथा को एक प्रभावशाली विधा मानते हैं। संपूर्ण कहानियों के भी वे सिद्धहस्त लेखक हैं, इसलिए कथा-कहानी का अंतर जानते हैं। जब किसी रचनाकार के पास विषयों का खजाना भरा हो तो उसकी बेचैनी बढ़ जाती है। इसका शमन ऊर्जा के रचनात्मक उपयोग से हो पाता है। माधव जी इसी कोटि के कहानीकार हैं। वे अपनी लघुकथाओं को वक्रता से मुक्त रखते हैं। सीधे-सीधे कहने में कथा की सरलता और पाठक की रूचि बनी रहती है। इसीलिए वे लघुकथा में अभिव्यक्ति की असीम संभावनाएँ देख पाते हैं। कहानी का कहानीपन और लघुकथा की लघुता महत्त्वपूर्ण होती है। दोनों विधाएँ कहने-पढ़ने की है, अन्तर सिर्फ शैली का है। हम उनकी ‘आग‘ लघुकथा को ही लें - सामाजिक सद्भाव को कितनी आसानी से तहस-नहस किया जा सकता है - इसका सटीक उदाहरण यह है। उनकी ‘कुण सी जात बताऊँ‘ लघुकथा जाति-धर्म के विरूद्ध एक मनुष्य की खोज की कथा है। एक व्यक्ति अपने ही घर में सब तरह के काम करके सारी जातें जी लेता है तो फिर बाहर यह आडंबर क्यों? आज हम कितने भी अभिजात्य संस्कारों की बातें कर लें किंतु स्वयं के मन में जड़े जमा चुके अंध मतों से हम मुक्ति नहीं पा रहे हैं। मनुष्यता तो एक ढोंग की तरह दिखाई देती है। ‘उलझन में शताब्दियाँ‘, ‘क्या समझे‘, ‘वह चली क्यों गई‘, माँ बनाम माँ‘ आदि ऐसी रचनाएँ हैं जो व्यक्ति के दुर्भाग्य, निरुपायता, अकेलापन, भयावहता, पलायन आदि भावों को करीने से अभिव्यक्त करती हैं। माधव नागदा जी अपनी लघुकथा में सामाजिक एवं व्यक्ति-जीवन की विसंगतियों को उभारने में पूर्णतः सफल रचनाकार हैं। एक अतिरिक्त गुण की ओर संकेत करना चाहूँगा कि उनकी अधिकाँश लघुकथाएँ किसी नायक का चेहरा नहीं उभारती हैं, बल्कि वे पात्र-नाम से मुक्त रहकर सर्वनाम मंें ही विचरण करती हुई अपने निष्कर्ष पर पहुँच जाती हैं। वे अपनी लघुकथाओं में कथ्य के साथ भाषा का ऐसा सामंजस्य बिठाते हैं कि उसमें स्थानीय परिवेश जीवंत हो उठता है। माधव जी की लघुकथाएँ शीतल विधि से की गई शल्य क्रिया जैसी है। 

इसी क्रम में चन्द्रेश छतलानी की लघुकथाएँ मनुष्य और मनुष्य के बीच के अंतर को रेखांकित करती हैं। वे अपनी रचनाओं में कहीं भी कथा-विस्तार नहीं करते हैं। बहुत कम शब्दों में लघुकथा के उद्देश्यों को विस्तार देते हैं। उन्हें छद्म मनुष्य से घृणा है इसीलिए वे ‘गरीब सोच‘ कथा के माध्यम से कमाई के वैधानिक तरीके अपनाकर पनप रहे, भ्रष्टाचारियों को सामने रखते हैं। वे ‘मानव-मूल्य‘ लघुकथा में निरंतर गर्त में जा रहे जीवन-सिद्धान्तों और आदर्शो पर चिंता व्यक्त करते हैं। हमारे यहाँ मंदिर-मस्जिद मुद्दे तरह-तरह से नये रंगों में रंगे होते हैं। उनकी वास्तविक समस्याओं से किसी का संबंध नहीं होता है केवल वक्त की बर्बादी ही जैसे लक्ष्य रह गया हो। ऐसे कई मामलात हैं जो अनिर्णीत ही रह जाते हैं - धीरे-धीरे उनका मूल स्वरूप ही नष्ट होने लगता है और कोर्ट के निर्णय भी प्रभावित हो जाते हैं। ऐसी महंगी प्रक्रिया पर नश्तर चुभोती है ‘इतिहास गवाह है‘ लघुकथा। चन्द्रेश छतलानी अपनी रचनाओं में मूल समस्या के बहुत करीब रहकर अपनी प्रहार-शक्ति भाषा गढ़ते हैं। यद्यपि उनकी कथाओं में सांकेतिकता अधिक रहती है फिर भी कथा-उद्देश्य अप्रकट नहीं रह जाता है। ‘विधवा धरती‘ लघुकथा देश-प्रेम की भावना के साथ एक करूणा भी जगा देती है; ठीक इसी तरह ‘इंसान जिंदा है‘ में वे मनुष्य धर्म को सम्प्रदायवाद से ऊपर उठाते हैं तो ‘धर्म-प्रदूषण‘ में वे मनुष्य-विरोधी ताकतों को पहचानने की कोषिष करते हैं। वहीं ‘मुआवजा‘ लघुकथा सामंती अत्याचारों की अमानवीयता सामने लाती है। साधारण लोगों का जीवन हमेशा से ही प्रभु वर्ग की आततायी प्रवृत्तियों का शिकार रहा है। लेकिन अब वहाँ महिलाएँ भी इसके विरोध में खड़ी होने लगी है - यह बहुत बड़ा संदेश बन जाता है इस लघुकथा का। उनकी ‘भेद-अभाव‘ लघुकथा रोशनी और अंधेरे की उपस्थिति की द्वन्द्व-कथा है। जहाँ रचनाकार एक उम्मीद जगाता है कि जीवन में रोशनी के लिए अंधेरे पर विजय अनिवार्य होती है। 

समग्रतः हिन्दी में आज लघुकथा अच्छी स्थिति में है। सटीक और स्पष्ट कहने की इस गुणात्मक विधा में व्यंग्य, कटाक्ष, प्रतीक, संकेत आदि भी अपने महत्त्व को दर्शाते हैं। लघुकथाएँ कैसे हमारे अन्तर्मन को छू कर हमारी संवेदी योग्यताओं का मूल्यांकन भी करती हैं इसका प्रमाण हैं दीपक मशाल की रचनाएँ। वे सामाजिक विघटन को बेहतर देखते हैं। उन्हें मनुष्यता के क्षरण का बहुत क्षोभ है। समाज का दोहरा चरित्र उन्हें मानसिक क्लेश देता है इसीलिए वे अपनी रचनाओं में मूल्यों के विघटन पर खासी चिंता व्यक्त करते हैं। उनकी ‘इज्जत‘ लघुकथा व्यक्ति के दो मुँहेपन पर करारी चोट करती है। वहीं ‘बेचैनी‘ लघुकथा मानवीय संवेदना को टटोलने वाली कथा है तो ‘पानी‘ लघुकथा एक तरफ पत्रकारिता के गिरते स्तर को दर्शाती है तथा मौके का फायदा उठाने वाले लोगों की मानसिकता भी बयां करती है उनकी ‘भाषा‘ कथा अनकहे के महत्त्व को समझाती है - तो ‘औरो‘ से ‘बेहतर‘ की सांकेतिकता मनुष्य से रीत चुकी मनुष्यता की बेहतर बानगी बन गई है। ‘रेजर के ब्लेड़‘ पारिवारिक रिश्तों में खटास की अनुभूति कराती है तो ‘खबर‘ रचना फौजी जीवन की अनिष्चितता की ओर हमें ले जाती है। ‘शिकार‘ कथा लोकतंत्र और राजतंत्र के अंतर पर प्रकाश डालती है, ‘मुआवजा‘ लघुकथा सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार को बेनकाब करती है। आजकल यह भी देखने में आता है कि कैसे योग्य एवं हकदार व्यक्ति को उसके अधिकारों से वंचित किया जाए। इसी भाव पर केन्द्रित ‘फेलोशिप‘ लघुकथा बेईमानी की षड़यंत्र-सक्रियता को बेपर्दा करती है। वास्तव में लघुकथा के लिए घटना-प्रसंगों सहित विषयों की अधिकता है - इससे रचनाकार एक सभ्य समाज की निर्माण-सामग्री हमारे सामने रखता है।

समग्रतः ‘कथा-समय‘ पुस्तक हिन्दी के नये कथा-रूप की संभावनाओं से पाठकों को परिचित कराने में सफल रही है। संपादक अशोक भाटिया ने इस विधा पर विद्वान लेखकों के वक्तव्यों के साथ स्वयं का सारगर्भित अभिमत यहाँ प्रस्तुत किया है। इससे लघुकथा की आंरभिक स्थिति, प्रवृत्ति, आवश्यकता और भविष्य में इसकी ग्राहृता की वास्तविकता का पता भी चलता है। निस्संदेह इसमें संकलित लघुकथाकारों की रचनाएँ हमें हमारे समय को देखने और समझने की सामर्थ्य देती हैं। एक ही विषय के विस्तार में नहीं बल्कि खण्ड-खण्ड विषय को व्याख्यातित करना ही लघुकथा का ध्येय होना भी चाहिए। यहाँ यह उल्लेख भी आवश्यक है कि खण्ड-खण्ड का अर्थ खण्डित होना नहीं हैं। बल्कि खण्ड-खण्ड रूप में समग्र की व्याख्या करना है - इस दृष्टि से लघुकथा अपने सैद्धान्तिक गुण को बनाये रखते हुए पाठकों को आकर्षित करती रहेगी। पाठक-रूचि से ही आज लघुकथा इस सम्मानजनक सोपान तक पहुँची है - इसमें दो राय नहीं है।

-0-


डॉ. मलय पानेरी

431/37 पानेरियों की मादड़ी

उदयपुर-313001 (राज.)

मो.: 94132-63428


रविवार, 29 मार्च 2020

लघुकथा वीडियो: क्या क्यूँ कैसे @ लघु कथा संग्रह | लेखन: अशोक भाटिया | वाचन: सृजनउत्सव



अशोक भाटिया करनाल से हैं। हिन्दी में एसोसिएट प्रोफेसर रह चुके हैं, आजकल लेखन और सामाजिक कार्यों में सक्रिय हैं। आपकी कविता, आलोचना, बाल साहित्य, व्यंग्य, लघु कथा जैसे विषयों पर 13 मौलिक और 15 संपादित पुस्तकें आ चुकी हैं। उनके लघुकथा संग्रह 'क्या क्यूँ कैसे' से लीजिए कुछ लघुकथाएँ सुनिए..


रविवार, 5 जनवरी 2020

लघुकथा समाचार : विश्व पुस्तक मेले में होगा डॉ. भाटिया की पुस्तक का लोकार्पण


हरियाणा के लघुकथाकार डॉ. अशोक भाटिया की नई पुस्तक कथा समय का दिल्ली में आयोजित विश्व पुस्तक मेले में लोकार्पण होगा। डॉ. अशोक की यह 33वीं पुस्तक है...

जागरण संवाददाता, करनाल : हरियाणा के लघुकथाकार डॉ. अशोक भाटिया की नई पुस्तक कथा समय का दिल्ली में आयोजित विश्व पुस्तक मेले में लोकार्पण होगा। डॉ. अशोक की यह 33वीं पुस्तक है, जिसे आठ जनवरी को वरिष्ठ साहित्यकारों द्वारा विमोचित किया जाएगा। कथा समय पुस्तक में लघुकथा के 50 वर्षो के संघर्ष के साक्षी और यात्री रहे प्रतिनिधि कथाकारों की चुनिदा लघुकथाएं शामिल हैं।

पूर्व एसोसिएट प्रोफेसर अशोक भाटिया की अनेक पुस्तकों के कई-कई संस्करण छपकर लोकप्रिय हो चुके हैं। इनकी जंगल में आदमी और अंधेरे में आंख लघुकथा पुस्तकें हिदी जगत में बहुत सराही गई हैं। इनके द्वारा पंजाबी से अनुवाद कर श्रेष्ठ पंजाबी लघुकथाएं हिदी में इस तरह की पहली पुस्तक है। हरियाणा ग्रंथ अकादमी के अनुरोध पर लिखी समकालीन हिदी लघुकथा इस विद्या की प्रतिमानक पुस्तक मानी जाती है। साहित्यिक क्षेत्र में निरंतर सक्रिय डा. भाटिया की अनेक लघुकथाएं स्कूली तथा विश्वविद्यालयों के पाठयक्रमों में पढ़ाई जा रही हैं। इन्हें अब तक हरियाणा साहित्य अकादमी सहित कोलकाता, पटना, शिलांग, हैदराबाद, इंदौर, भोपाल, रायपुर, अमृतसर, जालंधर आदि की संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत व सम्मानित किया जा चुका है।

Source:
https://www.jagran.com/haryana/karnal-bhatia-book-will-be-released-at-the-world-book-fair-19904749.html

सोमवार, 17 जून 2019

विचार-विमर्श: डॉ॰ अशोक भाटिया जी के लेख: लंबी लघुकथाएं : आकार और प्रकार पर

डॉ० अशोक भाटिया जी के इस लेख पर इन दिनों फेसबुक पर काफी विचार-विमर्श हो रहा है। जहां अनिल शूर आज़ाद जी ने "लम्बी लघुकथाएं" शब्द पर एतराज़ किया और यह मत भी प्रकट किया कि जिन लघुकथाओं का डॉ० भाटिया ने उदाहरण दिया है वे वास्तव में लघु कहानियाँ हैं।

उसके उत्तर में अशोक भाटिया जी ने बताया कि उन्होने देश-विदेश की लगभग ४५ लघुकथाओं का उदाहरण दिया है। उनका लेख विशुद्ध रचनात्मक आधार पर है।

डॉ० बलराम अग्रवाल जी के अनुसार भी 'छोटी लघुकथा' 'लघुकथा' और 'लम्बी लघुकथा' के विभाजन का समय अभी नहीं है। अभी लोग 'लघुकथा' शब्द के आभामंडल से चमत्कृत हैं, सराबोर हैं। 'लघुत्तम लघुकथा' की अवधारणा भी सिर पटक रही है। अतीत में 'अणुकथा' की अवधारणा दम तोड़ चुकी है।

श्री वीरेंद्र सिंह के अनुसार कुदरत ने हर चीज का आकार तय किया है। एक मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो हर चीज को अलग दृष्टिकोण से देखा करता है। किसी भी विषय पर बात कीजिए। हर विषय वस्तु की अपनी सीमाएं है। अतः लघुकथा का मतलब ही उसका लघु रूप में विराजमान होना है।

सुभाष नीरव जी की प्रतिक्रिया कुछ इस प्रकार से आई कि बराय मेहरबानी  'लघुकथा' को लघुकथा ही रहने दो ! और उनके अनुसार वे कहानी में लंबी कहानी बेशक खूब चली और पाठकों ने उसे स्वीकार भी किया हो, पर उसी की तर्ज पर लघुकथा का ' लंबी लघुकथा ' के रूप में वर्गीकरण करने के पक्ष में वे नहीं हैं। 

डॉ० अशोक भाटिया का उत्तर कुछ निम्न बिन्दुओं में आया:
  • लघुकथा का बाहरी स्पेस थोड़ा बाधा लेने से यथार्थ को व्यक्त करने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं |पिछले पंद्रह-बीस वर्षों में ऐसी कई श्रेष्ठ लघुकथाएं सामने आई हैं,जो पांच सौ से अधिक और एक हजार शब्दों तक जाती हैं और उन्होने कुछ लघुकथाओं के उदाहरण दिये। 
  • लघुकथा में आकारगत विस्तार हो रहा है,लघुकथा के ही फॉर्मेट में रहते हुए और यह एक स्वस्थ प्रवृत्ति है |क्या इस प्रवृत्ति को उजागर नहीं किया जाना चाहिए ?
  • यथार्थ के अनेक आयाम लघुकथा-लेखक से इसलिए भी छूट जाते हैं कि वह अपने अर्धचेतन में इसके आकार की सीमा को तय किये बैठा है |इस उपक्रम में कई लघुकथाएं इसलिए नहीं लिखी जातीं कि ये तय सीमा से बाहर हैं।
  • लघुकथा के आकार का लेखक के अर्ध-चेतन में बना यह दबाव कहाँ से आया--इस पर विस्तार से फिर बात करेंगे।
  • जून 1973 और जुलाई 1975 के सारिका के लघुकथा विशेषांक में लघुकथा के बारे 250 शब्दों तक आकार रहने की बात करने वाले लेखक ही अधिक थे, तब डा.बालेन्दु शेखर तिवारी ने एक पत्र में लिखा था कि, "अब समय आ गया है कि 250 से अधिक शब्दों वाली रचना को लघुकथा के दायरे से बाहर कर दिया जाए।" पर ऐसा न हुआ,न होना था। लेकिन फिर 500 शब्दों की लघुकथा की भी बात और स्वीकृति होने लगी। अब 1000 का विरोध है,तो यह आकार भी स्वीकृत होगा,क्योंकि यहाँ तक अनेक श्रेष्ठ लघुकथाएं जाती हैं।
  • 'लम्बी लघुकथा' कहने से लघुकथा का विभाजन नहीं होता,क्योंकि यह लघुकथा का विस्तार है,जैसे कि इसने दो-ढाई सौ शब्दों से आगे विस्तार पाया। |लघु उपन्यास शब्द में भी विरोधाभास है,वह भी स्वीकृत हुआ
उपरोक्त डॉ॰ भाटिया की फेसबुक पोस्ट पर राजेश उत्साही जी की टिप्पणी कुछ यों थी, जिन लघुकथाओं की बात हो रही है, वे श्रेष्‍ठ का दर्जा पा चुकी हैं। इसलिए उन्‍हें स्‍वीकारने या नकारने का तो कोई प्रश्‍न ही नहीं है। इससे यह बात तो लगभग तय है कि श्रेष्‍ठ लघुकथाओं के लिए यह शब्‍द संख्‍या पर्याप्‍त है। दूसरे शब्‍दों में कहें तो श्रेष्‍ठ लघुकथा इससे अधिक जगह की माँग नहीं करेगी। हाँ यहाँ समस्‍या उनके लिए है जो उसे 250,500 या 700 शब्‍दों की सीमा में बाँधने के पक्षधर हैं। अपन तो 1000 शब्‍दों की सीमा में बाँधने के पक्षधर भी नहीं हैं। क्‍योंकि लघुकथा का जो शिल्‍प है, वह एक स्‍वाभाविक आकार के बाद स्‍वयं ही दम तोड़ देगा। उसकी विषयवस्‍तु को अगर लम्‍बा खींचने की कोशिश होगी, तो वह बिखर जाएगा। इसका विलोम भी है कि अगर शब्‍द सीमा तय की जाएगी, तो भी उसका कथ्‍य दम तोड़ देगा, या उभरेगा ही नहीं। कल मैंने अभ्‍यास के तौर पर अपनी 19 लघुकथाओं में शब्‍दों की गिनती की। उनमें कम से कम 50 शब्‍दों की है और अधिक से अधिक 721 शब्‍दों की। मेरी दृष्टि में तो दोनों ही अपनी बात कहने में सक्षम हैं।

और इसी पोस्ट पर सुभाष नीरव जी की टिप्पणी अत्यंत महत्वपूर्ण है, पढ़िये, मुझे 'संरचना' का ताज़ा अंक मिल चुका है और मैंने सबसे पहले इस आलेख को ही पढ़ा। मुझे पूरा आलेख छिटपुट असहमति को छोड़कर कहीं से भी नकारे जाने योग्य नहीं लगा। बहुत सी बातें, धारणाएं तो मेरी अपनी सोच को पुष्ट करती ही लगीं। मैंंने तो स्वयं शब्द गिनकर कभी लघुकथाएं नहीं लिखीं, उन्हें अपना सहज आकार लेने दिया और मेरी अधिकतर लघुकथाएं 500 शब्दों से लेकर 800 शब्दों तक गई हैं। मैं लघुकथा को कम शब्दों की वज़ह से 'लघु' नहीं मानता, मैं लघु कथ्य की ओर ध्यान देता हूँ। अपनी लघुकथा लेखन यात्रा के दौरान मुझे भी लगता रहा है कि बदलते समय में जब दुनिया में इतना कुछ नया जुड़ा है, और बहुत कुछ बदला है, तो नये विषय लघुकथा के घेरे में लाने के लिए लघुकथा के आकार में कुछ तो वृद्धि होना स्वाभाविक ही है, तभी उस नये विषय से सही में न्याय हो पाएगा, अन्यथा वे विषय 250 -300 शब्दों की अवधारणा के चलते अपना दम तोड़ देंगे। और रचनाकार के अन्दर जो प्रयोगधर्मी होने का गुण होता है, वह भी मर जाएगा। मैं इस बात से सहमत रहा हूँ कि 'आकार बाहरी चीज़ है ।'

डॉ० भाटिया की उपरोक्त दर्शित पोस्ट पर ही श्री योगराज प्रभाकर की टिप्पणी भी उल्लेखनीय है, उनके अनुसार, इस आलेख में कहीं भी अशोक भाटिया जी लघुकथा के आकार को लेकर आग्रही नहीं दिखे। न ही उन्होंने "लम्बी लघुकथा" शब्द लिखकर कोई आकार के हवाले से लघुकथा को डिफ्रेंशिएट करने का प्रयास ही किया है। अगर सीधे सादे शब्दों में कहा जाए तो किसी इमारत की विशालता, भव्यता या उपयोगिता प्लॉट के साइज़ पर भी निर्भर करती है। वैसे जब लघुकथा में कोई न्यूनतम शब्द सीमा तय नहीं तो अधिकतम शब्द सीमा को 250 या 300 में बांधना कहाँ की समझदारी है?

बहरहाल, इस विमर्श के एक भाग को आप सभी के समक्ष रखा वह लेख भी आप सभी के समक्ष है। आइये इसे भी पढ़ते हैं।


संकलन: डॉ० चंद्रेश कुमार छ्तलानी

गुरुवार, 24 जनवरी 2019

लघुकथा वीडियो : डॉ. अशोक जी भाटिया की लघुकथा "रंग"


मित्रों, लघुकथा वीडियो में आज देखिये-सुनिए वरिष्ठ लघुकथाकार डॉ. अशोक जी भाटिया की लघुकथा रंग।
आम व्यक्ति को लगता है ख़ास बन जाऊं लेकिन ख़ास बनकर कहीं न कहीं फिर से सामान्य व्यक्ति बनने इच्छा रहती ही है। यह छोटी सी रचना कितने ही लोगों के जीवन से जुडी हुई है।
देखिये किस तरह होली पर किसी ने रंग ना लगाया तो, ख़ास होने के अहंकार से भरपूर एक व्यक्ति अपने पर गर्वित होते समय, अचानक स्वयं को आम दुनिया से अलग-थलग पाता है और फिर......



डॉ. अशोक जी भाटिया की लघुकथा "रंग"
courtesy: YouTube

सोमवार, 26 नवंबर 2018

लघुकथा समाचार

पंजाब कला साहित्य अकादमी ने किया 14 राज्यों से आए साहित्यकारों का सम्मान
Jagaran| 25 Nov 2018 |जालंधर 

उत्तर भारत की प्रमुख साहित्यिक एवं सामाजिक संस्था पंजाब कला साहित्य अकादमी पूरे देश के साहित्यकारों को एक मंच पर ला रही है। पंकस अकादमी के कार्यक्रम में पूरे देश से आए साहित्यकारों ने हिस्सा लिया। अकादमी का यह प्रयास सराहनीय है। यह कहना था पूर्व मंत्री मनोरंजन कालिया का, जो अकादमी अवार्ड समारोह में विशेष अतिथि के तौर पर शामिल हुए। उन्होंने कहा कि अकादमी के अध्यक्ष सिमर सदोष पंजाब के साहित्यकारों के लिए बहुत कुछ कर रहे हैं। इस दौरान मुख्य मेहमान के तौर पर मौजूद आईजी पंजाब प्रवीण कुमार ¨सन्हा, व पुलिस कमिश्नर गुरप्रीत ¨सह भुल्लर ने कहा कि अकादमी अवार्ड समारोह में जो लोग आते हैं, वह सब अपने अपने राज्यों के प्रसिद्ध साहित्यकार कवि और लेखक हैं। ऐसे लोगों के बीच में रहना बेहद गर्व की बात है। विधायक राजेंद्र बेरी व मेयर जगदीश राज राजा ने कहा कि जालंधर की धरती हमेशा साहित्य एवं कला से समृद्ध रही है। पंजाब में बड़े-बड़े साहित्यकार कवि एवं लेखक हुए हैं। पंकस आदमी ऐसे लेखकों, साहित्यकारों, व कवियों को सम्मानित कर नई नई प्रतिभाओं को आगे लाने का मौका भी दे रही है।

हिमाचल के पूर्व बागवानी मंत्री ठाकुर सत्य प्रकाश ने कहा कि पंकस अकादमी की ख्याति पूरे देश में फैली हुई है। आने वाले समय में अकादमी और ऊंचाइयों पर जाएगी। कार्यक्रम की शुरुआत में प्रेमलता ठाकुर, रोहणी मेहरा, विनोद कालड़ा, रानू सलारिया व पूजा ने ज्योति प्रज्ज्वलित की। सख्शियतों को इन अवॉर्डो से नवाजा एसएसपी नवजोत ¨सह माहल को शौर्य सम्मान से सम्मानित किया। गया। इसके अलावा चंडीगढ़ स्थित अकाल ओल्ड एज होम को मानवता की सेवा में एक विनम्र यत्न के ²ष्टिगत शुभ कर्मण सम्मान दिया गया। लुधियाना से साहित्यकार डॉक्टर फकीरचंद शुक्ला को आजीवन उपलब्धि सम्मान, हिमाचल की प्रोफेसर सुरेश परमार को आधी दुनिया पंकस अकादमी अवार्ड, राजस्थान से डॉक्टर सुधीर उपाध्याय, एमबीएम इंजीनियर आशा शर्मा बीकानेर, साहित्यकार अरुण नैथानी, डॉक्टर विनोद कुमार, वीणा विज, मनजीत कौर मीत, डॉक्टर कुल¨वदर कौर, अशोक भंडारी, शिमला से आए यादवेंद्र चौहान को अकादमी अवार्ड प्रदान किया गया। ठाकुर सत्य प्रकाश, डॉ अजय शर्मा, डेजी एस शर्मा, नवजोत ¨सह को विद्या वाचस्पति उपाधि एवं सारस्वत सम्मान दिया गया। लघुकथा के क्षेत्र में अशोक भाटिया को लघु कथा श्रेष्ठी सम्मान एवं डॉक्टर कुंवर वीर ¨सह मार्तंड व कांता राय को साहित्य शिरोमणि सम्मान दिया गया। शिरोमणि पत्रकारिता अवॉर्ड इलेक्ट्रॉनिक मीडिया प्रभारी सुनील रुद्रा, अंबाला से वरिष्ठ पत्रकार उज्जवल शर्मा को दिया गया। सहकार प्रबंधन अवॉर्ड रमेश ठाकुर को दिया गया। यश भारती सम्मान विश्वविद्यालय औद्योगिक संपर्क विभाग की कनुप्रिया को दिया गया। साज सज्जा सम्मान निक्स नीलू स्टूडियो की निक्स व नीलू को दिया गया। गौरव मेहरा को युवा प्रतिभा सम्मान, मनोज प्रीत, विष्णु सागर, गगन बंसल, रजनीश राणा, डोरा ¨सह महंत, सोनू त्रेहण को विशिष्ट पंकस अकादमी सम्मान दिया गया।

News Source:
https://www.jagran.com/punjab/jalandhar-city-pankas-academy-award-ceremony-18680868.html

मंगलवार, 6 मार्च 2018

पुस्तक समीक्षा: देश-विदेश से कथाएं - संपादन : अशोक भाटिया

देश-विदेश से कथाएं : गिने-चुने शब्दों में दीन-दुनिया की अनगिनत बातें
अगर आपके पास वक्त की कमी है, लेकिन कुछ अच्छा साहित्य पढ़ना चाहते हैं तो आपको ये लघुकथाएं जरूर पढ़नी चाहिए
Satyagrah | 05 मार्च 2017 |

संपादन : अशोक भाटिया
प्रकाशन : साहित्य उपक्रम
कीमत : 80 रुपये


कहने का अंदाज क्या हो, अक्सर खुद बात ही यह तय करती है. कभी कोई बात कविता में कही जाती है, तो कभी कहने के लिए कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध,लेख या फिर लघुकथा का सहारा लिया जाता है. इन विधाओं में लघुकथा को भले ही बाकियों जितना महत्व न मिला हो लेकिन यह साहित्य में आज भी जिंदा है. न सिर्फ भारत बल्कि दुनियाभर के साहित्य में लघुकथा ने अपनी उपस्थिति दर्ज की है.

‘देश-विदेश से कथाएं’ में अशोक भाटिया ने दुनियाभर के 66 लेखकों और 18भाषाओं की बहुत अच्छी लघुकथाएं संकलित की हैं. अंग्रेजी, रूसी, जर्मन, स्पेनिश, जापानी, अरबी, फारसी, चीनी आदि विदेशी भाषाओं की लघुकथाएं इस किताब में शामिल हैं तो वहीं हिन्दी-उर्दू के साथ दूसरी भारतीय भाषाओं की लघुकथाएं भी यहां मिलेंगी.

इन लघुकथाओं में जहां एक तरफ सामाजिक विसंगतियों और नैतिकता पर व्यंग्य है, वहीं दूसरी तरफ मानवीय मूल्यों को समाज में स्थापित करने की तीव्र इच्छा भी है. ऐसी ही बहुत अच्छी अरबी लघुकथा है, ‘पागलखाना’. खलील जिब्रान इस लघुकथा में सभ्य समाज के उन मूल्यों और अपेक्षाओं पर तंज कसते हैं, जिसमें खुद को श्रेष्ठ मानने वाला हर व्यक्ति दूसरे को अपने जैसा बनाने पर अमादा है. खलील जिब्रान तर्कसंगत तरीके से आदर्शां से भरी दुनिया को असली पागलखाना साबित कर देते हैं-

‘उस पागलखाने के बगीचे में एक युवक से मेरी भेंट हो गई... मैं उसकी बगल में ही बेंच पर जा बैठा और उससे पूछा, ‘अरे, तुम यहां कैसे आए?’...‘मेरे शिक्षक और तर्कशास्त्र के अध्यापक, सब के सब इस बात पर आमादा हैं कि वे मुझमें दर्पण की तरह अपना प्रतिबिम्ब देखें. इसलिए मुझे यहां आना पड़ा. यहां मैं अधिक सहज हूं. कम से कम यहां मेरा अपना व्यक्तित्व तो है.’अचानक मेरी ओर घूमकर वह बोला, ‘लेकिन यह बताइए, आप यहां कैसे आए ? क्या आपको भी आपकी शिक्षा और सद्बुद्धि ने यहां आने के लिए प्रेरित किया ?’

मैंने उत्तर दिया, ‘नहीं, मैं तो यहां एक दर्शक के रूप में आया हूं.’ उसने कहा, ‘समझा! आप इस चहारदीवारी के बाहर के विस्तृत पागलखाने के निवासी हैं.’

भारत-पाकिस्तान के प्रमुख प्रगतिशील कथाकार जोगिंदर पाल को इस विधा में खासा ऊंचा मुकाम हासिल है. इस किताब में उनकी दो लघुकथाएं शामिल हैं और दोनों ही दिल को बेहद छूने वाली हैं. ‘जागीरदार’ नाम की लघुकथा का अंत तो सुन्न कर देने वाला है. इसमें एक पिता अपनी 12-13 साल की बेटी के हाथ में एक चिठ्ठी देकर लेखक के पास भेजता है. चिठ्ठी में माली हालत का जिक्र करते हुए, कम से कम पांच रुपये देने की बात लिखी होती है. लेखक पांच रुपये दे देता है. फिर और भी कई बार वह लड़की ऐसी ही चिठ्ठी लेकर आती है, लेकिन अब लेखक उसे दो रुपये देकर भेज देता है. यह घटना कई बार दोहराई जाती है. फिर कई महीनों के बाद एक दिन वह व्यक्ति स्वयं लेखक के पास आता है और कहता है (लघुकथा की पंक्तियां) –

‘इस बार लड़की को चिठ्ठी देकर नहीं भेजा. आप ही हाजिर हो गया हूं. मुझे आपसे यह निवेदन करना है कि... ‘मैंने उसे दो रुपये देने के लिए जेब में हाथ डाला. ‘नहीं, ठहरिए, पहले मेरी विनती सुन लीजिए - मैं अपनी चिठ्ठियों में जो रकम लिखूं, कृपया आप वही भेजा करें.’
मैं उसकी तरफ हैरत और गुस्से से देखने लगा.

‘मेरी बेटी अब पूरी जवान हो चुकी है जनाब. आपको अब तो पूरे ही पैसे चुकाने होंगे.’

इस किताब में शामिल चीनी भाषा की लघुकथा ‘नींद’ पति-पत्नी के रिश्ते की बहुत ही प्यारी कहानी है. इसमें एक पति द्वारा अपनी पत्नी के लिए किए गए त्याग-भाव का छू लेने वाला वर्णन है. लियो टॉल्सटॉय की लघुकथा ‘बोझ’ एक घोड़े के माध्यम से मालिक की झूठी चिंता पर तंज करती है –

‘कुछ फौजियों ने दुश्मन के इलाके पर हमला किया तो एक किसान भागता हुआ खेत में अपने घोड़े के पास गया और उसे पकड़ने की कोशिश करने लगा, पर घोड़ा था कि उसके काबू में ही नहीं आ रहा था.

किसान ने उससे कहा, ‘मूर्ख कहीं के, अगर तुम मेरे हाथ न आये तो दुश्मन के हाथ पड़ जाओगे.’

‘दुश्मन मेरा क्या करेगा ?’ घोड़ा बोला.

‘वह तुम पर बोझ लादेगा और क्या करेगा’

‘तो क्या मैं तुम्हारा बोझ नहीं उठाता?’ घोड़े ने कहा, ‘मुझे क्या फर्क पड़ता है कि में किसका बोझ उठाता हूं.’

इस किताब में अशोक भाटिया ने काफी अच्छी लघुकथाओं को संकलित किया है. अपवाद छोड़कर लगभग सभी अनुवादकों ने अच्छा अनुवाद किया है. अरबी लघुकथाएं ‘पागल खाना’, ‘आजादी’, ‘वह पवित्र नगर; उर्दू भाषा की ‘जागीरदार, ‘नहीं रहमान बाबू; चीनी की ‘नींद’; रूसी की ‘बोझ; जर्मन की ‘कानून के मुहाने पर’; अंग्रेजी की ‘पिछले बीस वर्ष’, ‘ईसा के चित्र’, ‘रंग-भेद’; स्पेनिश की ‘आखिरी स्टेशन’; बांग्ला की ‘नीम का पेड़’; ‘हिंदी की ‘पेट का कछुआ‘, ‘पेट सबके हैं’, ‘बयान’, ‘बिना नाल का घोड़ा’, ‘कपों की कहानी’, ‘कसौटी’, ‘आग’; पंजाबी की ‘भगवान का घर’, ‘प्रताप’; तेलुगु की ‘स्पर्श’, ‘भोज्येषु माता’, ‘टैस्ट’; मलयाली की ‘उपनयन’; मराठी की ‘बकरी’, ‘सत्कार’; गुजराती की ‘विदाई’; कश्मीरी की ‘फाटक’ आदि लघुकथाएं पाठक की सीरत पर असर डालने वाली लगती हैं.

किताब की कीमत इसमें संकलित सामग्री के हिसाब से बहुत कम है. साहित्य उपक्रम इस मामले में साहित्य को समर्पित सच्चा प्रकाशन लगता है जो लोगों की जेब का ख्याल करके उन तक उत्कृष्ट साहित्य को पहुंचाने की दिशा में सराहनीय काम कर रहा है. किताब में सभी लेखकों के बारे में संक्षेप में बताया गया है. इतने सारे लेखकों का परिचय पढ़ना और साथ में उनके कृतित्व की बानगी देखना अपने आप में बेहद रोचक है. विश्व और हिंदी से इतर दूसरी भाषाओं की लघुकथाओं को एक साथ संकलित करना, इस संग्रह को और भी समृद्ध बनाता है. भागादौड़ी की दिनचर्या में पाठकों को साहित्य से जोड़े रखने को ये लघुकथाएं प्रेरित करती हैं. लगता है जैसे कहती हों, ‘हमें आपकी लंबी सिटिंग नहीं चाहिए, कभी भी, कहीं भी...आपका स्वागत है.’


Source:
https://satyagrah.scroll.in/article/105298/book-review-desh-videsh-se-kathayen-ashok-bhatiya