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बुधवार, 2 अक्तूबर 2019

समाज्ञा में आज गांधी जयंती पर मेरी एक लघुकथा




सत्याग्रह नहीं सत्यादेश / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी 

सौलह-सत्रह वर्ष की एक लड़की दौड़ती हुई उस बाग़ में गांधी जी की प्रतिमा के पीछे जा छिपी। कुछ क्षणों तक हाँफने के बाद उसने गांधीजी प्रतिमा की तरफ देखा, लाठी के सहारे खड़े गांधीजी मुस्कुरा रहे थे। अपनी चुन्नी को सीधे करते हुए उसने उसी से अपने चेहरे को ढका और मन ही मन बुदबुदाई, "गांधीजी, पूरे देश को बचाया... आज मुझे भी बचा लो।"

उसका बुदबुदाना था कि गांधीजी की प्रतिमा में जैसे प्राण आ गए और वह प्रतिमा बोली, 
"क्या हुआ बेटी?"

आवाज़ सुनते ही वह घबरा गयी, उसने चारों तरफ नजरें दौड़ाई और देखा कि उस प्रतिमा के होंठ हिल रहे थे, वह आश्चर्यचकित हो उठी, उसी स्थिति में उसने कहा, "कुछ दरिन्दे मेरी इज्ज़त..."

वह आगे नहीं कह पाई, फिर प्रतिमा ने पूछा "कहाँ रहती हो?
"यहीं पास में।" 

"कौन-कौन है घर में?"
"पिताजी, भाई, माँ और मैं।"

"घर से बाहर कितना निकलती हो?"
"बहुत कम, आज महीनों बाद अकेली निकली थी और ये..."

"घर में क्या करती हो?"
"खाना बनाना, सफाई करना, पानी भरना..."

"कुछ खेलती हो?"
"घर के कामों से समय ही नहीं मिलता।"

"क्या तुम से और तुम्हारे भाई से अलग-अलग व्यवहार होता है?"
"वो तो लड़का है इसलिए..."

"कभी मार पड़ती है?"
"बहुत बार, जनम होने से पहले से... मुझे मारना चाहा था... लेकिन बच गयी।" 

"कभी विरोध किया?"
"नहीं..."

"अहिंसात्मक विरोध करो बेटी, कितनी पढ़ी हो?” प्रतिमा के होंठ मुस्कुरा रहे थे।
"आठवीं तक, फिर घरवालों ने नहीं भेजा... अब घर पर ही थोड़ा-बहुत..." 

यह सुनते ही गांधीजी की प्रतिमा के होंठ भींच गए और उसने अपनी लाठी लड़की की तरफ बढ़ा कर कहा,
“इसे लो... पहले पढ़ो... तुम्हें गांधी की नहीं लाठी की ज़रूरत है।"
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