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बुधवार, 16 अक्टूबर 2019

ज्योत्सना सिंह की एक लघुकथा : चादर

शौक़ उन्हें भी था अब ज़रूरी तो नहीं कि शौक़ की फ़ेहरिस्त लंबी-चौड़ी या महँगी सस्ती हो वह तो बस होता है।

सो उन्हें भी था ऐसा ही एक छोटा सा शौक़! 

कह भी दिया था उसे उन्होंने बड़े ही मज़ाक़िया लहज़े अपने मियाँ से।

अब जब वह अपनी शरीक-ए-हयात की इत्ती सी चाहत से वाक़िफ़ हुए तब उनसे तो कुछ न बोले पर खुद से ही वादा कर उनकी मंशा पर अपनी क़बूल नामे की मोहर लगा ली।

बस फिर क्या जब साझे परिवार की हांडी पका और दुल्हन बेगम के सारे फ़र्ज़ निभा वह सेज़ पर आती और सारे दिन के उतार-चढ़ाव के बातों के बताशे वह मियाँ के पहलू में बैठ बायाँ करती मियाँ भी उनकी मेहंदी लगी हथेलियों से खेलते हुए इस सब का लुत्फ़ उठाते।

जब वह नींद की आग़ोश में समा जाती तब वह उनकी इकलौती चाहत को बड़े आशिक़ाना अंदाज़ा में अंजाम देते हुए उन्हें उनकी चादर उढ़ा देते।

बस इतनी ही सी ही तो मंशा थी उनकी कि जब वह अपनी सेज़ पर आराम फ़रमाए तो कोई उन्हें चादर उढ़ा दे उन्हें खुद ले कर न ओढ़ना पड़े इसमें उन्हें बड़ी मल्लिकाओं वाले एहसास होते थे।

 एक बात और थी बिना ओढ़े वह नींद का असल मज़ा भी चख न पाती थी।

बीतते वक्त के साथ कई बार ऐसा भी हुआ की  बेगम के अरमगाह में आने से पहले ही मियाँ की नज़रें उनके इंतज़ार में थक कर सो रहीं।

मगरचे न जाने कौन उन्हें सख़्त से सख़्त नींद के पहरे से जगा देता और फिर वह उनकी चाहत को दिया अपना ख़ामोश वादा मुकम्मल कर देते।

इतने सालों में समझ तो वह भी गईं थी कि मियाँ उनकी नादान सी ख़्वाहिश को दिलो जान से निभाते हैं किंतु न वह कुछ कहती न वह कुछ बोले थे।

मेहंदी का रंग अब हँथेलियो को राचाने से ज़्यादा ज़ुल्फ़ों की ज़रूरत बन चुका था।

पर मियाँ बीबी से वह अम्मी, अब्बा का सफ़र न तय कर पाए तो ज़िंदगी का स्वाद बे मज़ा हुआ जाता था।

कमी भी बीवी में थी सभी की ज़ोर आज़माइश से पाँच तो जायज़ हैं का कलाम मियाँ को भी याद हो आया और घर के चिराग़ के लिए वह दूसरा निक़ाह पढ़ आए ।

सगी छोटी बहन उनकी सौत बन कर आई जिसमें रज़ामंदी उनकी भी थी।

पर धीरे-धीरे मल्लिका होने का एहसास उनका उनकी आरामगाह से जाता रहा पर बड़ी अम्मी होने का रुतबा उनके इक़बाल को बुलंद करता था और वह सुकून उनके हर सुकून से ऊपर था।

आज कुछ हरारत सी थी उनको सर्दी ने भी जकड़ रखा था वह सोने की फ़िराक़ में करवटें बदल रहीं थी कि किसी ने आकर उन्हें चादर उढ़ा दी वह चौंक के उठने को हुईं कि कोमल हाथों ने उनके सर पर अपना हाथ रख कहा।

“बड़ी अम्मी! आप की तबियत नासाज़ है आप आराम फ़रमाओ मैं हूँ आपके साथ।”

दबे सैलाब से दो गर्म बूँदे गिरा वह सुकून की गहरी नींद सो रहीं 
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गुरुवार, 26 सितंबर 2019

ज्योत्सना सिंह की एक लघुकथा


उसकी रचना / ज्योत्सना सिंह 


सभा ने उसका स्वागत तालियों की गड़गड़ाहट से किया और फिर  पूरे सभागार में नीम सन्नाटा पसर गया सिर्फ़ उसे सुनने के लिए।
वह जब भी मंच पर होती तो श्रोता गण बड़ी बेताबी से उसकी बारी आने की प्रतीक्षा करते क्यूँ कि जब वह अपनी रचना लोगों के समक्ष रखती तब संपूर्ण उपस्थिति में भी सन्नाटा अपने पाँव जमा लेता।

उसकी रचना समाज के हर उस पहलू को बे-नक़ाब करती जो त्रासदी,व्यभिचार लालच और नफ़रत से भरी हुई होती।

और लोग उसे साँस रोक कर सुनते शायद वह श्रोता के अंदर छुपे उस इंसान को खरोंच देती जिसे सबने ख़ुद से भी बहुत दूर कर रखा है।
लोग उसे सुनते दाद देते तालियों फूलों से उसका सम्मान बढ़ाते हुए आगे बढ़ जाते और फिर समाज ही उसे एक और तड़पता मौक़ा दे देता ऐसी ही किसी नंगी सच्चाई रचने के लिए और हम बन जाते हैं ऐसे आहत भावों का हिस्सा कभी सहते हुए तो कभी करते हुए।

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