लघुकथा के पुरोधा डॉ. सतीश दुबे साहब को नमन!
आज का दिन लघुकथा के लिए बहुत बड़ा दिन होता है। हाँ, बहुत बड़ा। क्योंकि आज के दिन ही लघुकथा के व्यास श्रद्धेय डॉ. सतीश दुबे साहब इस दुनिया में अवतरित हुए थे। समकालीन लघुकथा के सबसे बड़े हस्ताक्षर ही नहीं, वह लघुकथा के पर्याय हैं। नियमित और समर्पित लघुकथा लेखकों की सूची में उनका नाम सबसे पहले तो आता ही है, वे ऐसे प्रथम हस्ताक्षर भी हैं, जिनकी लघुकथाओं का प्रकाशन सबसे पहले आरम्भ हुआ। जीवन-भर वह लघुकथा के लिए समर्पित रहे और अंतिम श्वाँस भी उन्होंने लघुकथा के नाम की ही ली। अंतिम वर्ष में किसी एक विषय पर संग्रह भर लघुकथाओं का सृजन (लघुकथा संग्रह ़‘प्रेम के रंग’) उनके समर्पण भाव की गहराई को दर्शाता है।
श्रद्धेय दुबे साहब को नमन करते हुए उनके सुप्रसिद्ध लघुकथा संग्रह ‘ट्वीट’ से उनकी एक महत्वपूर्ण लघुकथा मित्रों के लिए प्रस्तुत है। हमारी सामाजिक और कानून व्यवस्था पर इस लघुकथा में तीखी टिप्पणी है। आजादी से लेकर आज तक हमने जिस व्यवस्था को खड़ा किया है, उस पर इससे बड़ी टिप्पणी और क्या हो सकती है!
जन सुनवाई/डॉ. सतीश दुबे
‘‘नाम रमणलाल वल्द आनंदीलाल, निवासी ग्राम कस्बा भाटखेड़ी तहसील असरावदा और ये मेरी औरत याने पत्नी दुर्गेश...’’ आत्म-परिचय के साथ उसने अपनी अर्जी जन-सुनवाई के लिए बैठे आला अफसरों के सामने पेश कर दी।
आवेदन पर सरसरी नजर डालकर, बीच वाली कुर्सी पर बैठे बड़े साब ने आँखें उठाकर आवेदक की ओर देखा- ’’इसमें जो लिखा है, उसके बारे में मुँहजबानी कुछ बताइए।’’
प्रत्युत्तर में पुरुष की बजाय भाल तक घूँघट निकालकर साथ में खड़ी महिला आक्रोश भरे स्वर में बोली- ‘‘साब, ऑफिस, थाना, लोग-बाग सबसे कहते-कहते जुबान को भी अब तो शरम आने लगी किन्तु सुनने वालों को नहीं। न न्याय न धरम...।’’ अंतिम लब्ज बोलते हुए महिला का आक्रोशी कंठ भावावेग में बदलकर रुँध गया।
बड़े साब की ‘‘आप बताइए’’ प्रश्नवाचक सांकेतिक मुद्रा के प्रत्युत्तर में पुरुष का क्षणिक मौन एकदम बुलंद-स्वरों में फूट पड़ा- ‘‘साब, लोग-बाग कहते हैं कि लड़कियों-औरतों को चटक-भटक, चुहुलबाजी के कारण छेड़छाड़ और...। मेरी लड़की तो बिचारी एकदम गाय से भी सीधी। सलवार-कुरता का कपड़ा देने टेलर की दुकान पर जा रही थी। रास्ते में नशे की दवाई रुमाल में सुँघाकर वो खानदानी गुंडा उसे उठा ले गया... और...।’’
‘‘वो मुंजला अपने कमीने दोस्तों के साथ हिजड़ों जैसी मूँछों पर ताव देकर घूम रहा है।’’
‘‘हाँ साब, पुलिस में रिपोर्ट लिखाई थी। पर पुलिस हाथ पर हाथ धरे इसलिए बैठ गई कि उसने प्रमाण देकर यह सफाई दे दी कि वारदात वाले दिनों वह उदयपुर-जयपुर था...।’’
‘‘साब, लड़की महीने भर में मरी हत्या हो गई है। उसकी छोटी बेन ही नहीं गाँव-कस्बे की सब लड़कियाँ घर से बाहर निकलने में डरती हैं।’’
दोनों की समवेत कथा सुनकर अफसरों ने एक-दूसरे की ओर देखा तथा फुसफुसाए- ‘‘यह तो पेचीदा मामला है।’’
‘‘साब, मालूम था कि यहाँ भी कुछ होना-जाना नहीं, पर ये औरत दूसरों के कहने में नी मानी...।’’ कहते हुए पुरुष ने औरत की ओर देखा तथा- ‘‘सुन लिया ना, चल अब’’ शब्दों के साथ उसे धकेलकर जोरों से झकझोरा तथा जनसुनवाई बैठक में आशा की ललक से आई जन की भीड़ को चीरता हुआ बाहर निकल गया। उसे न जाने क्यों कानों में प्रतिध्वनि हो रही, ‘‘अरे आप लोग सुनिए तो...’’ आवाज में आस्था नहीं रही थी।