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शनिवार, 19 नवंबर 2022

लघुकथा में साक्षात्कार शैली का एक प्रयोग | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

एक मिश्रित शैली की लघुकथा को साक्षात्कार शैली में भी ढाला जा सकता है. एक उदाहरण का प्रयास किया है. यह एक साक्षात्कार और विवरण शैली की मिश्रित लघुकथा है, जो लघुकथा कलश के अंक 10 में प्रकाशित हुई थी:


प्रश्नशून्य काल/चंद्रेश कुमार छतलानी


"जब आप मुख्यमंत्री थे, तब तो आपने राज्य के विकास के लिए कुछ नहीं किया और अब विकास के यही सवाल आप वर्तमान सरकार से क्यों पूछ रहे हैं?" एक टीवी चैनल पर इंटरव्यू में सवाल दागा गया।
पूर्व मुख्यमंत्री मुस्कुराने लगे।
यह देख प्रश्नकर्ता का हौसला और बढ़ गया और तेज़ आवाज़ में उसने फिर पूछा, "चुप क्यों हैं सर? बताइए कि आपकी सरकार ने क्या किया था?"
पूर्व मुख्यमंत्री के चेहरे की मुस्कुराहट और गहरी हो गई।
अब तो प्रश्नकर्ता चीख ही उठा, "मेरे सवाल का जवाब नहीं है ना आपके पास, कि आपने राज्य के विकास के लिए कुछ क्यों नहीं किया?"
"क्योंकि जब मैं मुख्यमंत्री था, तब किसी भी मीडिया ने मुझसे प्रश्न नहीं किए।"
उत्तर देते हुए पूर्व मुख्यमंत्री का चेहरा गंभीर हो गया। एक क्षण की खामोशी के बाद वे फिर बोले,
"काश! आप सरकारों से भी प्रश्न पूछते।"
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इस लघुकथा को हम साक्षात्कार शैली में कुछ इस प्रकार से ढाल सकते हैं:


प्रश्नशून्य काल/चंद्रेश कुमार छतलानी

प्रश्नकर्ता: "जब आप मुख्यमंत्री थे, तब तो आपने राज्य के विकास के लिए कुछ नहीं किया और अब विकास के यही सवाल आप वर्तमान सरकार से क्यों पूछ रहे हैं?"

पूर्व मुख्यमंत्री: ...(खामोश) मुस्कराहट।

प्रश्नकर्ता तेज़ आवाज़ में: "चुप क्यों हैं सर? बताइए कि आपकी सरकार ने क्या किया था?"

पूर्व मुख्यमंत्री: ...(खामोश) गहरी मुस्कराहट।

प्रश्नकर्ता चीखते हुए: "मेरे सवाल का जवाब नहीं है ना आपके पास, कि आपने राज्य के विकास के लिए कुछ क्यों नहीं किया?"

पूर्व मुख्यमंत्री: "क्योंकि जब मैं मुख्यमंत्री था, तब किसी भी मीडिया ने मुझसे प्रश्न नहीं किए।"

एक क्षण की खामोशी।

पूर्व मुख्यमंत्री: "काश! आप सरकारों से भी प्रश्न पूछते।"

खामोशी।
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(इसमें कोई सुधार लगे तो कृपया चर्चा ज़रूर करें,)
सादर,

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

गुरुवार, 17 मार्च 2022

कल 16 मार्च 2022 के पत्रिका समाचार पत्र में होली पर एक लघुकथा | रक्षा कवच

 


रक्षा कवच

शहर की सबसे बड़ी होली के धधकते अंगारों से निकलती आसमान छूती लपटें पूर्णिमा के चाँद को जैसे लाल करने को आतुर थीं। उस दृश्य को देखने एक परिवार के तीन सदस्य पिता, माँ और उनकी बेटी भी होलिका दहन में आये हुए थे। लगभग 22 वर्षीया बेटी, जिसने एक वर्ष पूर्व ही एक नारी सशक्तिकरण संस्थान में कार्य करना प्रारम्भ किया था, उस दहकती अग्नि को गौर से देख रही थी और देखते-देखते उसकी आखों में आंसू आ गए। बेटी के आंसू माँ की नजरों से छिप नहीं सके। उसने अपनी बेटी को अपने पास लाकर प्यार से पूछा, “अरे! क्या हुआ तुझे?”

बेटी ने ना की मुद्रा में सिर हिला कर कहा, “कुछ नहीं माँ, लेकिन मुझे लगता है कि होलिका ने प्रह्लाद को खुद ही अपनी ना जलने वाली चादर दे दी होगी, ताकि उसका भतीजा नहीं जले। लेकिन अगर प्रह्लाद बेटी होता तो शायद वह अपनी चादर कभी नहीं देती।” 
कहते-कहते उसका स्वर भर्रा गया।

उसके पिता ने यह बात सुनकर उसके कंधे पर हाथ रखा और गंभीर स्वर में कहा, “तब शायद उसका पिता हिरण्यकश्यप ही एक और चादर का इंतजाम कर देता। ना बुआ जलती और ना ही भतीजी।“
फिर एक क्षण चुप रहते हुए पिता ने अपनी बेटी को गौर से देखा और कहा,“प्रेम की चादर को क्रोध की अग्नि जला नहीं सकती।”

और बेटी की आखों में चमक आ गयी।
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- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


सोमवार, 28 फ़रवरी 2022

मेरी एक लघुकथा राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर | मानव-मूल्य

 

मानव-मूल्य / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

वह चित्रकार अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति को निहार रहा था। चित्र में गांधीजी के तीनों बंदरों  को विकासवाद के सिद्दांत के अनुसार बढ़ते क्रम में मानव बनाकर दिखाया गया था।
उसके एक मित्र ने कक्ष में प्रवेश किया और चित्रकार को उस चित्र को निहारते देख उत्सुकता से पूछा, “यह क्या बनाया है?”
चित्रकार ने मित्र का मुस्कुरा कर स्वागत किया फिर ठंडे, गर्वमिश्रित और दार्शनिक स्वर में उत्तर दिया, “इस तस्वीर में ये तीनों प्रकृति के साथ विकास करते हुए बंदर से इंसान बन गये हैं, अब इनमें इंसानों जैसी बुद्धि आ गयी है। ‘कहाँ’ चुप रहना है, ‘क्या’ नहीं सुनना है और ‘क्या’ नहीं देखना है, यह समझ आ गयी है। अच्छाई और बुराई की परख – पूर्वज बंदरों को ‘इस अदरक’ का स्वाद कहाँ मालूम था?”
आँखें बंद कर कहते हुए चित्रकार की आवाज़ में बात के अंत तक दार्शनिकता और बढ़ गयी थी।
“ओह! लेकिन तस्वीर में इन इंसानों की जेब कहाँ है?” मित्र की आवाज़ में आत्मविश्वास था।
चित्रकार हौले से चौंका, थोड़ी सी गर्दन घुमा कर अपने मित्र की तरफ देखा और पूछा, “क्यों…? जेब किसलिए?”
मित्र ने उत्तर दिया,
“ये केवल तभी बुरा नहीं देखेंगे, बुरा नहीं कहेंगे और बुरा नहीं सुनेगे जब इनकी जेबें भरी रहेंगी। इंसान हैं बंदर नहीं…”
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- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
उदयपुर (राजस्थान)
9928544749
chandresh.chhatlani@gmail.com




शनिवार, 26 फ़रवरी 2022

जनलोक इंडिया टाइम्स में मेरी एक लघुकथा | सब्ज़ी मेकर

 

at janlokindiatimes.com (URL पर जाने हेतु क्लिक/टैप करें)

इस दीपावली वह पहली बार अकेली खाना बना रही थी। सब्ज़ी बिगड़ जाने के डर से मध्यम आंच पर कड़ाही में रखे तेल की गर्माहट के साथ उसके हृदय की गति भी बढ रही थी। उसी समय मिक्सर-ग्राइंडर जैसी आवाज़ निकालते हुए मिनी स्कूटर पर सवार उसके छोटे भाई ने रसोई में आकर उसकी तंद्रा भंग की। वह उसे देखकर नाक-मुंह सिकोड़कर चिल्लाया, "ममा... दीदी बना रही है... मैं नहीं खाऊंगा आज खाना!"

सुनते ही वह खीज गयी और तीखे स्वर में बोली, "चुप कर पोल्यूशन मेकर, शाम को पूरे घर में पटाखों का धुँआ करेगा..."

उसकी बात पूरी सुनने से पहले ही भाई स्कूटर दौड़ाता रसोई से बाहर चला गया और बाहर बैठी माँ का स्वर अंदर आया, "दीदी को परेशान मत कर, पापा आने वाले हैं, आते ही उन्हें खाना खिलाना है।"

लेकिन तब तक वही हो गया था जिसका उसे डर था, ध्यान बंटने से सब्ज़ी थोड़ी जल गयी थी। घबराहट के मारे उसके हाथ में पकड़ा हुई मिर्ची का डिब्बा भी सब्ज़ी में गिर गया। वह और घबरा गयी, उसकी आँखों से आँसूं बहते हुए एक के ऊपर एक अतिक्रमण करने लगे और वह सिर पर हाथ रखकर बैठ गयी। 

उसी मुद्रा में कुछ देर बैठे रहने के बाद उसने देखा कि  खिड़की के बाहर खड़ा उसका भाई उसे देखकर मुंह बना रहा था। वह उठी और खिड़की बंद करने लगी, लेकिन उसके भाई ने एक पैकेट उसके सामने कर दिया। उसने चौंक कर पूछा, "क्या है?"

भाई धीरे से बोला, "पनीर की सब्ज़ी है, सामने के होटल से लाया हूँ।"

उसने हैरानी से पूछा, "क्यूँ लाया? रूपये कहाँ से आये?"

भाई ने उत्तर दिया, "क्रैकर्स के रुपयों से... थोड़ा पोल्यूशन कम करूंगा... और क्यूँ लाया!"
अंतिम तीन शब्दों पर जोर देते हुए वह हँसने लगा।
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- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

रविवार, 30 जनवरी 2022

लघुकथा: टाइम पास । डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी

 आज के पत्रिका समाचार पत्र में मेरी एक लघुकथा। आप सभी के सादर अवलोकनार्थ।



टाइम पास / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

दो आदमी रेल में सफर कर रहे थे। दोनों अकेले थे और आमने-सामने बैठे थे।
उनमें से एक आदमी दूसरे से दार्शनिक अंदाज़ में बोला, "ये रेल की पटरियां भी क्या चीज़ हैं! साथ रहते हुए कभी मिलती नहीं।"
यह सुनते ही दूसरे आदमी के चेहरे पर दुःख आ गया और उसने दर्द भरे स्वर में उत्तर दिया, "कुछ उसी तरह जैसे दो भाई एक घर में रह कर भी हिलमिल कर नहीं रह सकते।"
पहले आदमी के चेहरे पर भी भाव बदल गए। उसने भी सहमति में सिर हिला कर प्रत्युत्तर दिया, "काश! दोनों मिल जाते तो ट्रेन जैसी ज़िन्दगी का बोझ अकेले-अकेले नहीं सहना पड़ता।"
दूसरे आदमी ने भी उसके स्वर में स्वर मिलाया और कहा, "सभी जगह यही हो रहा है। घर से लेकर समाज तक और समाज से लेकर दुनिया तक। हर काम लोग अपने-अपने स्वार्थ के लिए ही करते हैं।"
पहला आदमी मुस्कुरा कर बोला, "यही तो गलत हो रहा है भाई।"
और उनकी बात यूं ही अनवरत चलती रही, तब तक, जब तक कि उनका गंतव्य न आ गया। फिर वे दोनों अपने-अपने रास्ते चले गए, एक-दूसरे के नाम तक भूलते हुए।
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- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

शनिवार, 25 दिसंबर 2021

आलेख: लघुकथा : प्रवाह और प्रभाव | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

साहित्य में आज लघुकथा अपना एक विशिष्ट स्थान बना चुकी है, क्रिकेट में टेस्ट क्रिकेट फिर वन डे और अब 20-20 की तरह ही साहित्य में भी समय की कमी के कारण पाठक अब छोटी कथाओं को पढने में अधिक रूचि लेते हैं हालाँकि लघुकथा का अर्थ छोटी-कहानी नहीं है, यह कहानी से अलग एक ऐसी विधा है कि जिसमें कोई एक बार डूब गया तो इसका नशा उसे लघुकथाओं से बाहर निकलने नहीं देता। इस लेख में लघुकथा क्या है इसकी कुछ जानकारी दी गयी है।

कल्पना कीजिये कि आप एक प्राकृतिक झरने के पास खड़े हैं, चूँकि यह प्राकृतिक है इसलिए इसका आकार सहज होगा, झरना छोटा भी हो सकता है या बड़ा भी। उस झरने से गिरती हुई पानी की बूँदें धरती को छूकर उछल रही हैं और फिर आपके चेहरे से टकरा रही हैं, आपको झरने के पानी तथा वातावरण के तापमान के अनुसार गर्म-ठंडा महसूस होगा।

एक झरना सागर की तरह विशाल नहीं होता, ना ही नदी जैसे अलग-अलग रास्तों पर चलता है, वह एक ही स्थान पर अपनी बूंदों से अपनी प्रकृति के अनुसार अहसास कराता है। वह गर्म पानी का झरना भी हो सकता है और ठन्डे पानी का भी, वह एक नदी का उद्गम भी हो सकता है और नहीं भी।

इसी प्रकार यदि हम एक लघुकथा की बात करें तो किसी झरने के समान ही लघुकथा ना तो किसी सागर सरीखे उपन्यास की तरह लम्बी होती है और ना ही नदी जैसी कहानी की तरह अलग-अलग पक्षों को समेटे हुए वह अपनी प्रकृति के अनुसार पाठक की चेतना पर कुछ ऐसा अहसास करा देती है, जिससे गंभीर पाठक चिन्तन की ओर उन्मुख हो जाता है। एक उपन्यास में कई घटनाएं होती हैं, कहानी में एक घटना के कई क्षण होते हैं और लघुकथा में एक विशेष क्षण की घटना केंद्र में होती है। एक झरने की तरह ही लघुकथा का आकार सहज होता है कृत्रिम नहीं, उसमें कुछ भी अधिक या कम हो जाये तो कृत्रिमता उत्पन्न हो जाती है। यहाँ हम यह मान सकते हैं कि कहानी के न्यूनतम शब्दों से लघुकथा के शब्द कम हों तो बेहतर।

आज की कम्प्यूटर सभ्यता में जब वार्तालाप में कम से कम शब्दों का प्रयोग हो रहा है, यह स्वाभाविक ही है कि लघुकथा पाठकों के आकर्षण का केंद्र बन रही है। सोशल मीडिया के कई स्त्रोतों द्वारा भी लघुकथाएं, लघु कहानियाँ, लघु बोधकथाएँ आदि बहुधा प्रसारित हो रही हैं। लघुकथा के संवर्धन में किये जा रहे महती कार्य “पड़ाव और पड़ताल” के मुख्य संपादक श्री मधुदीप गुप्ता के अनुसार वर्ष 2020 के बाद का साहित्य युग लघुकथा का युग होगा। इस भविष्यवाणी के पीछे उनका गूढ़ चिन्तन और समय को परखने की क्षमता छिपी हुई है।

लघुकथा का विस्तार और सीमायें

लघुकथा कोई शिक्षक नहीं है ना ही मार्गदर्शक है, वह तो रास्ते में पड़े पत्थरों, टूटी सड़कों और कंटीले झाड़ों को दिखा देती है, उससे बचना कैसे है यह बताना लघुकथा का काम नहीं है। इसका कारण यह माना गया है कि जब किसी समस्या का समाधान बताया जाता है तो लघुकथा में लेखकीय प्रवेश की सम्भावना रहती है। लघुकथा का कार्य है किसी समस्या की तरफ इशारा कर पाठकों के अंतर्मन की चेतना को जागृत करना यह एक बहुत शक्तिशाली हथियार है जो सीधे विचारों पर चोट करता है हालाँकि समकालीन लघुकथाएं बिना अनुशासन भंग किये कई छोटी समस्याओं के समाधान भी बता रही हैं  मैं समझता हूँ कि एक लघुकथाकार यदि किसी छोटी समस्या का समाधान बिना लेखकीय प्रवेश के निष्पक्ष होकर सर्ववर्ग हेतु कहता है तो इसका स्वागत होना चाहिये। हालाँकि इसके विपरीत कोई समस्या छोटी है अथवा बड़ी इसका निर्धारण एक लेखक नहीं कर सकता, यह पाठकों के अनुभवों पर निर्भर करता है। इसलिए यदि कोई समाधान सुझाया जा रहा है तो वह पाठकों के विचारों की विविधता को ध्यान में रखकर सुझाया जाये।

लघुकथा में वातावरण का निर्माण नहीं किया जाता, वरन लघुकथा पढ़ते-पढ़ते ही वातावरण समझ में आ जाता है। प्रेमचन्द की लघुकथा ‘राष्ट्र का सेवक’ में पात्र का नाम इंदिरा और उसके पिता राष्ट्र के सेवक से ही यह समझ में आ जाता है कि वह किनकी बात कर रहे हैं। रचना के अंत में इंदिरा एक नीची जाति के नौजवान से स्वयं के विवाह की बात करती है, जिसे राष्ट्र के सेवक ने भाषण देते समय गले लगाया था, तब राष्ट्र सेवक की आँखों में प्रलय आ जाती है और वह मुंह फेर लेता है। यहाँ प्रेमचन्द ने दो विसंगतियों की तरफ एक साथ इशारा कर दिया, पहला राजनीति में व्याप्त झूठ का और दूसरा जाति भेद का।

अन्य साहित्यकारों की तरह ही लघुकथाकार भी अपने वर्तमान समाज का कुशल चित्रकार होता है जिसके हाथ में कूची के स्थान पर कलम होती है हालाँकि साहित्यकार को न केवल वर्तमान वरन भविष्य के समाज का भी कुशल चित्रकार होना चाहिए। साहित्य के द्वारा समाज का निर्माण होता है, साहित्य समाज के दर्पण के साथ-साथ समाज के लिए दिशा सूचक भी हैअतः समाज में सकारात्मक उर्जा का संचार करना और कर्तव्यबोध कराते हुए  सही दिशा देना भी साहित्यकार का दायित्व है हालाँकि इसका अर्थ यह नहीं है कि केवल सकारात्मक शब्द और हैप्पी एंडिंग ही हो। सकारात्मक चेतना जगाने के लिए लघुकथाकार कई बार कडुवा सच दर्शाते हैं। श्री योगराज प्रभाकर की लघुकथा ‘अपनी अपनी भूख’ के अंत में नौकरानी बुदबुदाती है कि "मेरे बच्चों के सिर पर भी अपने बेटे का हाथ फिरवा दो बीबी जीI", क्योंकि बीबी जी के बेटे को भूख नहीं लगने की बीमारी है। इस रचना में दो माँओं की एक ही प्रकार की तड़प है दोनों अपने बच्चों को भूखा देखकर परेशान हैं, लेकिन परिस्थिति अलग-अलग। नौकरानी की आर्थिक दशा को परिभाषित करती अंतिम पंक्ति पाठकों की चेतना को झकझोरने में पूर्ण सक्षम है।

इसी प्रकार डॉ. अशोक भाटिया की तीसरा चित्र एक ऐसी रचना है जिसके अंत में जब पुत्र कहता है कि पिताजी, इस चित्र की बारी आई तो सब रंग खत्म हो चुके थे।तो पाठकों के हृदय में न केवल संवेदना के भाव आते हैं बल्कि तीन वर्गों के बच्चों में अंतर् करने के लिए चिंतन को मजबूर हो ही जाते हैं।

यदि आपको यह जानना है कि आपके अपने विचार कैसे हैं तो किसी भी विधा में लिखना प्रारंभ कर दीजिये, उस लिखे हुए का अवलोकन कर आप अपने बारे में बहुत अच्छे तरीके से जान सकते हैं।  लेखन में लेखक के निजी विचार उनके अनुभवों और भावनाओं के आधार पर होते ही हैं, लेकिन जब साहित्य में अन्य विचारों का भी लेखक स्वागत करता है तो वह विभिन्न श्रेणी के पाठकों के लिए भी स्वागतयोग्य हो जाता है। लघुकथा एक ऐसी स्त्री की भांति है जो सामने खड़े किसी बीमार और अशक्त बच्चे को अपने आँचल में माँ के समान स्नेह देती है लेकिन अपने जनक को केवल एक उपनाम की तरह अपने साथ रखती है। इसलिए लघुकथा में विशेष सावधानी की आवश्यकता है। ‘लेखकीय प्रवेश’ का अर्थ ‘मैं’ शब्द का लघुकथा में होने या न होने से नहीं है, लघुकथा के किसी अन्य पात्र के जरिये भी लेखकीय प्रवेश हो सकता है और ‘मैं’ शब्द का प्रयोग कर के नहीं भी। यहाँ मैं श्री मधुदीप गुप्ता की एक लघुकथा “तुम इतना चुप क्यों हो दोस्त” को उद्धृत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ, इस रचना में मुख्य पात्र कॉफ़ी हाउस में बैठा है और दूसरी टेबल पर बैठे हुए व्यक्तियों की बातें सुन रहा है, अंत में एक व्यक्ति जब कुछ कहने की बजाय करने की बात करता है तो मुख्य पात्र की ठंडी हो रही कॉफ़ी में उबाल आ जाता है। बहुत खूबसूरती से इस रचना में एक पात्र “मैं” का सृजन किया गया है, जिसमें लेखकीय प्रवेश बिलकुल नहीं दिखाई देता।

कई बार मानव समाज स्वयं की बेहतरी के प्रश्न भी उत्पन्न करने की क्षमता नहीं रखता है, लघुकथा इसमें सहायक हो सकती है। यह राजा विक्रमादित्य और बेताल के उस किस्से की तरह माना जा सकता है, जिसमें राजा विक्रमादित्य बेताल को कंधे पर लेकर जाता है, बेताल उसे कोई लघु-कहानी सुनाता है और अंत में एक प्रश्न रख देता है, जिसका उत्तर राजा विक्रमादित्य अपने विवेक के अनुसार देता है।

 

पठन योग्य लघुकथा

साहित्य की कोई भी विधा हो बिना पाठकों के ना तो विधा का अस्तित्व है और ना ही लेखक का, लेकिन रचनाकार को पाठकों की रूचि और सोच की दिशा के अनुसार सृजन नहीं करना चाहिये हालाँकि यह लोकप्रियता का एक सस्ता-सुगम मार्ग है और साहित्य में चाटुकारिता भी सदियों से होती आई है, परन्तु सस्ती लोकप्रियता एक लेखक का उद्देश्य नहीं होना चाहिये, इसके आने वाले समय में कई दुष्परिणाम होते हैं।

लघुकथा पठन योग्य हो, इसके लिए लघुकथाकार के सृजन की पूरी प्रक्रिया में काफी परिश्रम करना होता है। लेखकीय दृष्टि लिए कोई भी व्यक्ति किसी भी घटनाक्रम को साधारण तरीके से नहीं देखता वरन उसमें अपने लेखन के लिए संभावनाएं तलाश करता है। लघुकथा पाठक के हृदय में कौंध उत्पन्न करती है, लेकिन उसके सृजन को प्रारंभ करने से पहले लेखक के मस्तिष्क में भी कौंध उत्पन्न होनी चाहिये। स्वयं लेखक को यह स्पष्ट होना चाहिये कि वह लघुकथा क्यों कह रहा/रही है। उद्देश्य स्वयं को स्पष्ट होगा तभी पाठकों को स्पष्ट करने की क्षमता होगी।

लघुकथा का उद्देश्य स्पष्ट होने के बाद लघुकथा का कथानक तैयार करना चाहिये, कथानक किसी यथार्थ घटना पर आधारित तो हो सकता है लेकिन यथार्थ घटना को ज्यों का त्यों लिखने से बचना चाहिये अन्यथा लघुकथा का एक साधारण समाचार बन कर रह जाने का खतरा रहता है। लेखक को अपनी कल्पना शक्ति से ऐसे कथानक का सृजन करना चाहिये, जिसका प्रवाह ऐसा हो जो किसी घटना को प्रारंभ से अंत तक क्रमशः वर्णन करने में सक्षम हो, जो रोचक हो, कम से कम पात्रों को लिए हुए हो और लघुकथा के उद्देश्य को स्पष्ट परिभाषित कर सके। लघुकथाकार लघुकथा की शैली पर भी इसी प्रकार कार्य करते हैं ताकि पढने वाले को उबाऊपन का अनुभव न हो और स्पष्टता बनी रहे। संवाद, वर्णनात्मक, मिश्रित आदि शैलियाँ पाठकों में प्रचलित हैं।

अधिकतर लघुकथाकार लघुकथा का अंत इस तरह से करते हैं कि जो विसंगति अथवा प्रश्न उन्हें पाठकों के समक्ष रखना है, वह अंत में प्रकट होकर पाठकों के हृदय में कौंध जाये और पाठक चिन्तन करने को विवश हो जाये।

लघुकथा का शीर्षक भी लघुकथा को परिभाषित कता हुआ इस तरह से हो कि पाठकों में शीर्षक देखते ही रचना पढने की उत्सुकता जाग जाये। श्री बलराम अग्रवाल की ‘कंधे पर बेताल’, ‘प्यासा पानी’, श्री भागीरथ की ‘धार्मिक होने की घोषणा’, श्री मधुदीप गुप्ता की ‘तुम इतना चुप क्यों हो दोस्त’,  ‘सन्नाटों का प्रकाशपर्व’, डॉ. अशोक भाटिया की क्या मथुरा, क्या द्वारका?’, श्री योगराज प्रभाकर की ‘अधूरी कथा के पात्र’ और ‘भारत भाग्य विधाता’, श्री युगल की ‘पेट का कछुआ’, श्री सतीश दुबे की ‘हमारे आगे हिंदुस्तान’ आदि कई रचनाओं के शीर्षक इस तरह कहे गए हैं कि शीर्षक पर नज़र जाते ही रचना को पढने की उत्सुकता बढ़ जाती है।

लघुकथा में कालखंड

कालखंड लघुकथा में कोई दोष है अथवा नहीं, इस पर विभिन्न विद्वानों के विभिन्न मत है। लघुकथा के कथ्य के क्षण से पहले अथवा बाद के काल में व्यक्ति अथवा घटना का जाना कालखंड बदल जाने की श्रेणी में आता है। कालखंड समस्या से निजात पाने के लिए मैं एक चित्र का उदाहरण दूंगा, यह चित्र आप सभी ने कभी न कभी देखा होगा, जिसमें मानव के विकास क्रम को बताया गया है, चौपाये से विकसित हो दो पैरों पर खड़ा पर थोड़ा झुका हुआ पशु, झुके हुए पशु से सीधा खड़ा हुआ पशु, फिर चेहरे का विकास और अंत में आज का मानव खड़ा हुआ है। लाखों वर्षों को एक ही चित्र में समेट दिया जाना इतना आसान नहीं था, लेकिन चित्रकार ने यह कार्य बखूबी कर दिखाया है इसी प्रकार एक लघुकथाकार भी किसी भी इकहरे पक्ष के कई वर्षों को एक ही लघुकथा में सिमटा सकने का सामर्थ्य रखता है। इसके लिए घटना को सिलसिलेवार बता देना, क्षण विशेष को केंद्र में रख कर एक से अधिक काल को बता देना, फ़्लैश बेक में जाना, किसी डायरी को पढ़ना, किसी केस की फाइल को पढना आदि के द्वारा कालखंड दोष से बचा जा सकता है। श्री भागीरथ की लघुकथा ‘शर्त’ में दो दृश्य हैं, एक सवेरे का और दूसरा शाम का, लेकिन लघुकथा के केंद्र में मज़दूर नेता के अडिग आदर्श हैं। यह रचना अलग-अलग कालखंडों को एक ही रचना में समेट लेने के बेहतरीन उदाहरणों में से एक है।

लघुकथा की भाषा

साहित्यशब्द ‘सहित’ शब्द से उत्पन्न हुआ है सहित अर्थात् हित के साथ, यह हित मानव का हो सकता है, अन्य जीवों का हो सकता है, प्रकृति आदि किसी का भी हो सकता है, लेकिन किसी के अहित से परे रह कर। इसी तरह किसी अन्य भाषा का अहित न कर साहित्य का कार्य मातृभाषा का हित भी है। साहित्य भाषा को ज़िन्दा रखता है, यदि साहित्य की भाषा ही सही नहीं हो तो उस भाषा का पतन निश्चित है। एक साहित्यकार अपने विचारों को भाषा के वस्त्राभूषण पहनाता है, जिससे उसकी कृति की सुंदरता और कुरूपता का आकलन भी किया जा सकता है। मेरा मानना है कि जितना संभव हो हिंदी-लघुकथा हिंदी में ही कही जाये, हालाँकि कई बार संवादों में अन्य देसी-विदेशी भाषाओं का प्रयोग किया जाना आवश्यक हो जाता है, जो कि वर्जित नहीं है। आंचलिक एवं अन्य भाषाओं के प्रयोग से कई बार रचना की सुन्दरता और भी बढ़ जाती है। लेकिन इतना अवश्य हो कि वह भाषा सरल हो और एक हिंदी भाषी को आसानी से समझ में आ जाये। जब भी लघुकथाकार विदेशी भाषा का प्रयोग करें तो मैथिलीशरण गुप्त के यह शब्द एक बार ज़रूर याद कर लें, “हिन्दी उन सभी गुणों से अलंकृत है जिनके बल पर वह विश्व की साहित्यिक भाषाओं की अगली श्रेणी में सभासीन हो सकती है।“

लघुकथा में भाषिक सौन्दर्य प्रतीकों, मुहावरों यहाँ तक कि संवादों को अधूरा छोड़ कर तीन डॉट लगा देने से भी बढ़ाया जा सकता है लघुकथाकार इस बात का विशेष ध्यान देते हैं कि भाषा में अलंकार लगाने पर लघुकथा ना तो शाब्दिक विस्तार पाए और ना ही अस्पष्ट हो जाये। कसावट के साथ रोचकता और सरलता भी रहे ताकि पाठकों को आसानी से ग्राह्य हो सके। लेकिन यह भी सत्य है कि कई अच्छी रचनाएँ सरसरी निगाह से पढने पर जल्दी समझ में नहीं आ सकती

उपसंहार

कैनेडा से प्रकाशित अंतरराष्ट्रीय पत्रिका हिंदी चेतना के अक्टूबर-दिसम्बर 2012 के लघुकथा विशेषांक में परिचर्चा के अंतर्गत श्री श्याम सुंदर अग्रवाल ने लघुकथा विधा के विकास में यह अवरोध बताया था कि “नये लेखक इस विधा में नहीं आ रहे हैं” यह प्रसन्नता का विषय है कि इस अंक को तीन वर्ष भी पूर्ण नहीं हुए थे और लघुकथा के स्थापित लेखकों के सद्प्रयासों से 100 से अधिक नवोदित लघुकथाकार इस विधा में गंभीरता से अपने पैर जमाने लगे।  आज यह संख्या और भी बढ़ गयी है। इसी परिचर्चा में वरिष्ठ लघुकथाकार श्री भागीरथ ने यह चिंता व्यक्त की थी कि लघुकथा के कंटेंट और फॉर्म टाइप्ड हो गए हैं और उनमें ताजगी का अभाव है, यह कहते हुए भी हर्ष का अनुभव हो रहा है कि लगभग सभी वरिष्ठ लघुकथाकार, साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादक और कुछ आलोचक न केवल नवोदित रचनाकारों का मार्गदर्शन कर रहे हैं और उनकी रचनाओं के प्रकाशन का मार्ग सुगम कर रहे हैं वरन कई तरह से प्रोत्साहित भी कर रहे हैं, जिससे नयी ताज़ी रचनाओं का अभाव भी अब नहीं रहा।

लघुकथा विधा में विधा के प्रति गंभीर रचनाकारों, गैर-व्यवसायिक साहित्य को समर्पित प्रकाशकों और गंभीर सम्पादकों का समावेश तो है ही, लेकिन आलोचकों/समीक्षकों और गंभीर पाठकों की कमी अभी भी है। लघु-रचनाओं के प्रति पाठकों का झुकाव होने पर भी लघुकथाओं के पाठकों की संख्या बहुत अधिक नहीं है। लघुकथा के नाम पर परोसी जाने वाली हर रचना के पाठकों को लघुकथा का पाठक कहना भी विधा के लिए उचित नहीं है। ई-पुस्तकों, ऑनलाइन ब्लॉग और पूर्व-प्रकाशित पुस्तकों के डिजिटल अंको को प्रचारित-प्रसारित कर पाठकों की संख्या में वृद्धि की जा सकती है। प्रकाशक भी आलोचकों और समीक्षकों को अपनी पुस्तकों से जोड़ें।

लघुकथा अब साहित्याकाश में किसी सितारे की तरह चमक रही है, इसकी रौशनी अब कितनी और फैलेगी इसका आकलन करना मुश्किल है। लेकिन इसकी किरणों की चमक आश्वस्त करती हैं कि इसमें वर्तमान और भविष्य के वे सभी रंग विद्यमान हैं, जिनसे मिलकर मानव विचार चिन्तन का इन्द्रधनुष बना सकें तथा समाज की दशा और अधिक उन्नत हो सके।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

गुरुवार, 25 नवंबर 2021

लघुकथा | ज़हर आदमी का | अनिल गुप्ता


ज़हर आदमी का 


साँप के बिल में मातम पसरा हुआ था। 

दूर-दूर के जंगलों से उसके रिश्तेदार यानि नाग नागिन, उसके पास सांत्वना देने आए हुए थे। 

उनमें से एक ने पूछा कि "यह कोबरा मरा कैसे?"

डरते-डरते उन्ही में से एक ने उत्तर दिया, "इसने शहर जाकर एक आदमी को काट लिया था।"

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अनिल गुप्ता

कोतवाली रोड़ उज्जैन

मंगलवार, 9 नवंबर 2021

क्षितिज संवादात्मक लघुकथा अंक

सतीश राठी जी और दीपक गिरकर जी के सम्पादन में क्षितिज का संवादात्मक लघुकथा अंक प्राप्त हुआ। पढ़ना प्रारम्भ किया है। मेरी एक लघुकथा भी इसमें सम्मिलित है।



एक औरत / लघुकथा / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

"काजल लगाने के बाद तुम्हारी आँखें कितनी सुंदर हो जाती हैं?"
"जी, मेरे बॉस भी यही कहते हैं।"
"अच्छा, तुम्हारे कपड़ों का चयन भी बहुत अच्छा है, तुम पर एकदम फिट!"
"बॉस को भी यही लगता है"
"ओह, तुम जो मेकअप करती हो उससे तुम्हारा रूप कितना खिल उठता है।"
"बॉस भी बिलकुल यही शब्द कहते हैं..."
"उफ़.... तुम्हारा पति मैं हूँ या बॉस?"
"आपकी नज़रें पति जैसी नहीं, बॉस जैसी हैं। वर्ना इस सुंदरता के पीछे एक औरत भी है।"
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रविवार, 31 अक्तूबर 2021

ई-पुस्तक | मेरी कमज़ोर लघुकथा (लघुकथाकारों द्वारा आत्म-आलोचना) | शोध कार्य


विश्व भाषा अकादमी  (रजि),भारत की राजस्थान इकाई द्वारा लघुकथाओं पर शोध कार्य के तहत एक अनूठे ई-लघुकथा संग्रह का प्रकाशन किया गया है। इस संग्रह में विभिन्न लघुकथाकारों की 55 कमज़ोर लघुकथाओं का संकलन किया गया है। लघुकथाओं के साथ ही उन लघुकथाओं पर लघुकथाकारों का यह वक्तव्य भी संकलित है कि उनकी रचना कमज़ोर क्यों है? इस कार्य का मुख्य उद्देश्य यह ज्ञात करना था कि लघुकथा लेखन में ऐसी कौनसी कमियाँ हैं जो रह जाएं तो रचना को प्रकाशन हेतु नहीं भेजना चाहिए। जहां तक ज्ञात है, इस प्रकार का कोई कार्य हिन्दी साहित्य में आज से पूर्व नहीं किया गया है। रचनाकारों को आत्म-आलोचना के लिए प्रेरित करता यह संग्रह निम्न लिंक पर निःशुल्क पढ़ा व डाउनलोड जा सकता है:


https://vbaraj.blogspot.com/2021/10/blog-post.html


इस संग्रह में लघुकथाओं और उन पर लेखकीय वक्तव्य सहित शामिल है रावी का दुर्लभ साक्षात्कार मुकेश शर्मा (विश्व भाषा अकादमी के राष्ट्रीय चेयरमैन) द्वारा, डॉ. अशोक भाटिया का लेख व डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी की विवेचना।

विश्वास है कि यह संग्रह न केवल एक विशिष्ट कार्य  बनेगा बल्कि कई शोधकार्यों में भी सहायक होगा। इस शोधपरक संग्रह पर आपकी राय अपेक्षित है।

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श्री मुकेश शर्मा, राष्ट्रीय चेयरमैन, विभाअ

डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी, सम्पादक




मंगलवार, 11 फ़रवरी 2020

लघुकथा: मेच फिक्सिंग | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

नीदरलैंड और भारत की पत्रिका अम्स्टेल गंगा (ISSN: 2213-7351) के  जनवरी – मार्च २०२० (अंक २८, वर्ष ९) मेरी एक लघुकथा

लघुकथा 'मेच फिक्सिंग'

“सबूतों और गवाहों के बयानों से यह सिद्ध हो चुका है कि वादी द्वारा की गयी ‘मेच फिक्सिंग’ की शिकायत सत्य है, फिर भी यदि प्रतिवादी अपने पक्ष में कुछ कहना चाहता है तो न्यायालय उसे अपनी बात रखने का अधिकार देता है।” न्यायाधीश ने अंतिम पंक्ति को जोर देते हुए कहा।

“मैं कुछ दिखाना चाहता हूँ।” प्रतिवादी ने कहा

“क्या?”

उसने कुछ चित्र और एक समाचार पत्र न्यायाधीश के सम्मुख रख दिये।
पहला चित्र एक छोटे बच्चे का था, जो अपने माता-पिता के साथ हँस रहा था।

दूसरे चित्र में वो छोटा बच्चा थोड़ा बड़ा हो गया था, और एक विशेष खेल को खेल रहा था।


तीसरे चित्र में वो राष्ट्र के लिए खेल रहा था, और सबसे आगे था।

चौथे चित्र में वो देश के प्रधानमंत्री से सम्मानित हो रहा था।

पांचवे चित्र में उसी के कारण उसके खेल को राष्ट्रीय खेल घोषित किया जा रहा था।

और अंतिम चित्र में वो बहुत बीमार था, उसके आसपास कोई दवाई नहीं थी केवल कई पदक थे।

इसके बाद उसने देश के सबसे बड़े समाचार पत्र का बहुत पुराना अंक प्रस्तुत किया, जिसका मुख्य समाचार था, “दवाइयां न खरीद पाने के कारण हॉकी का जादूगर नहीं रहा।”



न्यायाधीश के हृदय में करुणा जागी लेकिन जैसे ही उसने कानून की देवी की मूर्ती की तरफ देखा, स्वयं की आँखें भी बंद कर ली।
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Source:
अम्स्टेल गंगा

मंगलवार, 10 दिसंबर 2019

मुकेश कुमार ऋषि वर्मा की एक लघुकथा और उसका अंग्रेजी अनुवाद

फोटो सेसन / मुकेश कुमार ऋषि वर्मा

सांसद साहब सुबह-सुबह पूरे दलबल के साथ शहर की मुख्य सड़क पर आ चुके थे। उनके आते ही सड़क पर सरकारी गार्डन का कूड़ा करकट बिखेरा गया। सांसद जी ने एक लम्बा सा झाडू चलाना प्रारम्भ किया तो उनके देखा-देखी उनके चेले चपाटों ने भी स्वच्छता अभियान में चार चाँद लगा दिये।

तभी पीछे से आवाज आई - ‘हो गया सर हो गया’... और कैमरे शांत हो गये।

सांसद जी ने अपने निजी सहायक को कुछ इशारा किया और चमचमाती विदेशी कार से फुर्र हो गये।

और इस फोटो सेसन में सहभागी सभी मीडिया कर्मी अपना-अपना लिफाफा लेकर न्यूज रुम, प्रिंट रुम की तरफ दौड़ पड़े।
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ग्राम रिहावली, डाक तारौली, 
फतेहाबाद, आगरा, 283111,उ.प्र.

अंग्रेजी अनुवाद (English Translation)

Photo Session / Mukesh Kumar Rishi Verma
Translation By: Dr. Chandresh Kumar Chhatlani

In the early morning, MP sahab had arrived at the main road of the city with gathering of people. As soon as he arrived, the garbage of the Government Garden is scattered on that road. The MP Saheb started sweeping with a long broom. After seeing this, his disciples have also put four moons in the cleanliness campaign.

Then a voice came from behind - 'Done Sir, it is done.' ... and all the cameras went quiet.

The MP Saheb made a few gestures to his personal secretary and gone in the gleaming foreign car.

And all the media workers participating in this photo session took their envelopes and ran towards the news desk room, print room.
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- 3 PA 46, Prabhat Nagar
Sector-5, Hiran Magari
UDAIPUR - 313 002

गुरुवार, 5 दिसंबर 2019

अनिल शूर आज़ाद की एक लघुकथा 'विद्रोही'

वरिष्ठ लघुकथाकार अनिल शूर आज़ाद जी की लघुकथा 'विद्रोही' की अंतिम पंक्ति मेरे अनुसार गूढ़ अर्थ रखती है। आइये पहले पढ़ते हैं यह रचना:

विद्रोही / अनिल शूर आज़ाद

पार्क की बेंच पर बैठे एक सेठ, अपने पालतू 'टॉमी' को ब्रेड खिला रहे थे। पास ही गली का एक आवारा कुत्ता खड़ा दुम हिला रहा था।

वह खड़ा दुम हिलाता रहा, हिलाता रहा। पर..लम्बी प्रतीक्षा के बाद भी जब, कुछ मिलने की संभावना नहीं दिखी तो..एकाएक झपट्टा मारकर वह ब्रेड ले उड़ा। कयांउ-पयांउ करता टॉमी अपने मालिक के पीछे जा छिपा। सेठ अपनी उंगली थामे चिल्लाने लगा।

थोड़ी दूरी पर बैठे उसे, बहुत अच्छा लगा था यह सब देखना!
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- अनिल शूर आज़ाद
एजी-1/33-बी, विकासपुरी
नई दिल्ली -110018
दूरभाष - 9871357136


इस लघुकथा पर मेरे विचार / चन्द्रेश कुमार छतलानी 

इस लघुकथा की अंतिम पंक्ति में "उसे" का अर्थ मैंने एक गरीब / सड़क पर रहने वाले बच्चे से लगाया। "अच्छा लगा" अर्थात उसके दिमाग में बात रह गई कि छीन कर खाया जा सकता है। 

यह लघुकथा स्पष्ट तरीके से यह बता रही है कि एक विद्रोही को देखकर दूसरा विद्रोही कैसे बनता है। रचना यह संकेत दे रही है कि अमीर व्यक्ति यदि अपने 'पालतू' के अतिरिक्त अन्य गरीबों की क्षुधा  भी किसी तरह शांत करने का यत्न करें तो विद्रोह की प्रवृत्ति शायद उभरे ही नहीं। 


मंगलवार, 3 दिसंबर 2019

मेरी तीन लघुकथाएं - विचार वीथी में | संपादक सुरेश सर्वेद





तीन संकल्प / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

वो दौड़ते हुए पहुँचता,उससे पहले ही उसके परिवार के एक सदस्य के सामने उसकी वो ही तलवार आ गयी, जिसे हाथ में लेते ही उसने पहला संकल्प तोड़ा था कि वो कभी किसी की भी बुराई नहीं सुनेगा। वो पीछे से चिल्लाया - रुक जाओ, तुम्हें तो दूसरे धर्मों के लोगों को मारना है। लेकिन तलवार के कान कहाँ होते हैं। उसने उसके परिवार के उस सदस्य की गर्दन काट दी।

वो फिर दूसरी तरफ  दौड़ा। वहाँ भी उससे पहले उसी की एक बन्दूक पहुँच गयी थी। जिसे हाथ में लेकर उसने दूसरा संकल्प तोड़ा था कि वो कभी भी बुराई की तरफ  नहीं देखेगा। बन्दूक के सामने आकर उसने कहा - मेरी बात मानो, देखो मैं तुम्हारा मालिक हूँ ... लेकिन बन्दूक को कुछ कहाँ दिखाई देता है, और उसने उसके परिवार के दूसरे सदस्य के ऊपर गोलियां दाग दीं।

वो फिर तीसरी दिशा में दौड़ा, लेकिन उसी का आग उगलने वाला वही हथियार पहले से पहुँच चुका था, जिसके आने पर उसने अपना तीसरा संकल्प तोड़ा था कि वो कभी किसी को बुरा नहीं कहेगा। वो कुछ कहता उससे पहले ही हथियार चला और उसने उसके परिवार के तीसरे सदस्य को जला दिया।

और वो स्वयं चौथी दिशा में गिर पड़ा। उसने गिरे हुए ही देखा कि एक बूढ़ा आदमी दूर से धीरे - धीरे लाठी के सहारे चलता हुआ आ रहा था। गोल चश्मा पहने, बिना बालों का वो कृशकाय बूढ़ा उसका वही गुरु था, जिसने उसे मुक्ति दिला कर ये तीनों संकल्प दिलाये थे।

उस गुरु के साथ तीन वानर थे, जिन्हें देखते ही सारे हथियार लुप्त हो गये।
और उसने देखा कि उसके गुरु उसे आशा भरी नज़रों से देख रहे हैं और उनकी लाठी में उसी का चेहरा झाँक रहा है। उसके मुंह से बरबस निकल गया ’हे राम’।

कहते ही वो नींद से जाग गया।
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सोयी हुई सृष्टि / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

उसने स्वप्न में स्वयं को सोये हुए देखा। उसके आसपास और भी कई लोग सो रहे थे। दायरा बढ़ता गया और उसने देखा कि उसके साथ हज़ारों या लाखों नहीं बल्कि करोड़ों से भी ज़्यादा लोग सो रहे हैं।

उन सोये हुओं में से एक व्यक्ति की आँखें खुलीं। उस व्यक्ति ने देखा कि खादी के कपड़े पहने कुछ लोग खड़े हुए हैं और अपने मुंह से आवाज़ और विषैला धुआं निकाल रहे हैं। आवाज़ से सोये हुओं के चेहरों पर विभिन्न मुद्राएँ बन रहीं थीं और धुएँ से सभी को नींद आ रही थी। वह व्यक्ति चिल्लाया - जागो, तुम्हें विषैले धुएं द्वारा सुलाया जा रहा है।

जहाँ तक वह आवाज़ जा सकती थी, वहां तक सभी सोने वालों के कानों में गयी और उनके चेहरों की भाव - भंगिमाएं बदलीं। उनमें से कुछ जाग भी गए और उस व्यक्ति के साथ खड़े हो गए। अपनी आवाज़ की शक्ति देख उस व्यक्ति ने पहले से खड़े व्यक्तियों में से एक के कपड़े छीन कर स्वयं पहन लिए और दूर खड़ा हो गया।

लेकिन पोशाक पहनते ही उसका स्वर बदल गया और उसके मुंह से भी विषैला धुआं निकलने लगा। जिससे उसके साथ जो लोग जागे थे, वे भी सो गए। उस व्यक्ति की पोशाक में कुछ सिक्के रखे थे जो लगातार खनक रहे थे।

और उसी समय उसका स्वप्न टूट गया। उसे जैसे ही महसूस आया कि वह भी जागा हुआ है। वह घबराया और उठकर तेज़ी से एक अलमारी के पास गया। उसमें से अपने परिचय पत्र को निकाला और उसमें अपने पिता का नाम पढ़ कर राहत की सांस ली।
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गुलाम अधिनायक / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

उसके हाथ में एक किताब थी। जिसका शीर्षक ’ संविधान’ था और उसके पहले पन्ने पर लिखा था कि वह इस राज्य का राजा है। यह पढ़ने के बावजूद भी वह सालों से चुपचाप चल रहा था। उस पूरे राज्य में बहुत सारे स्वयं को राजा मानने वाले व्यक्ति भी चुपचाप चल रहे थे। किसी पुराने वीर राजा की तरह। उन सभी की पीठ पर एक - एक बेताल लदा हुआ था। उस बेताल को उस राज्य के सिंहासन पर बैठने वाले सेवकों ने लादा था। ’ आश्वासन’  नाम के उस बेताल के कारण ही वे सभी चुप रहते।

वह बेताल वक्त - बेवक्त सभी से कहता था कि - तुम लोगों को किसी बात की कमी नहीं होगी। तुम धनवान बनोगे। तुम्हें जिसने आज़ाद करवाया है वह कहता था - कभी बुरा मत कहो। इसी बात को याद रखो। यदि तुम कुछ बुरा कहोगे तो मैं, तुम्हारा स्वर्णिम भविष्य, उड़ कर चला जाऊँगा।

बेतालों के इस शोर के बीच जिज्ञासावश उसने पहली बार हाथ में पकड़ी किताब का दूसरा पन्ना पढ़ा। उसमें लिखा था - तुम्हें कहने का अधिकार है। यह पढ़ते ही उसने आँखें तरेर कर पीछे लटके बेताल को देखा। उसकी आँखों को देखते ही आश्वासन का वह बेताल उड़ गया। उसी समय पता नहीं कहाँ से एक खाकी वर्दीधारी बाज आया और चोंच चबाते हुए उससे बोला - ’ साधारण व्यक्ति’ तुम क्या समझते हो कि इस युग में कोई बेताल तुम्हारे बोलने का इंतज़ार करेगा?

और बाज उसके मुंह में घुस कर उसके कंठ को काट कर खा गया। फिर एक डकार ले राष्ट्रसेवकों के राजसिंहासन की तरफ  उड़ गया।
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3-46, प्रभात नगर, सेक्टर -5, 
हिरण मगरी, उदयपुर ( राजस्थान) 313 002
मोबाईल : 9928544749
ईमेल- chandresh.chhatlani@gmail.com

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बुधवार, 27 नवंबर 2019

लघुकथा: हथरेटी-चकारेटी | शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"लो, आज तुम जी भर के देख लो ये हथरेटी-चकारेटी वग़ैरह! इन्हीं से समझो कि क्या होती है चकरेटी, गुल्बी और छेन, कीला, पही!" 

"ये तो इनके और इनके सामानों के नाम हैं, हमें तो इनकी कलाकारी देखनी है!" नेताजी की बात पर उन की पत्नी ने कहा और कुम्हारों को बड़ी लगन के साथ मटकियां, बर्तन और गुल्लक वग़ैरह बनाते देखने लगीं। 

"बड़ा ही अद्भुत काम है यह! मिट्टी देखो, मिट्टी के गुल्ले देखो, चकरेटी से घुमाते चाक की गति देखो!" नेताजी अपनी पत्नी को यह सब पता नहीं क्यों दिखाना चाह रहे थे। कुम्हारों, उनकी पत्नियों और बच्चों की एक-एक गतिविधि को ध्यान से देख कर पत्नी बहुत आश्चर्य चकित हो रहीं थी।

"अरे, उधर देखो, ये तो ठठेरे का काम भी करते हैं मिट्टी के बर्तनों पर!" पत्नी ने कहा। 

"हाँ, चके पर बने बर्तन को पीट-पीट कर ये हवा व नमी निकाल कर उनको सही रूप देते हैं, फिर भट्टे में तपाकर उन्हें सुखाते-पकाते हैं!" 

यह कहते हुए, एक कुम्हार को साथ लेकर नेताजी पत्नी को भट्टे के नज़दीक़ ले गए, जहाँ से कुछ दूर तैयार बर्तन, मटके, गुल्लक वग़ैरह रखे हुए थे। काफी देर तक सब कुछ देखने-समझने के बाद जब वे दोनों कार में वापस जाने लगे, तो दोनों कहीं खोये हुए थे। उनकी आँखों में कुम्हारों के चलते हाथ, चके की गति, उँगलियों की गतिविधियों और हथेलियों की थापों के दृश्य झूल रहे थे। पूरे परिवार की सहभागिता से वे अचंभित थे। 

"कहाँ खो गई हो!" नेताजी ने पत्नी से पूछा। 

"सोच रही हूँ कि काश तुम भी कुम्हार की तरह होते, तो अपने बेटे आज कुछ और होते!" 

"मैं होता? कुम्हार जैसा तो तुम्हें होना चाहिए, घर में तुम्हारा काम है यह!"

"और तुम्हारा क्या काम है? सब कुछ औरतों के ही मत्थे क्यों?" 
"बाप-दादाओं की दी हुई राजनीतिक विरासत कौन संभालेगा? परिवारवाद राजनीति में अब नहीं चल रहा? बेटों से क्या उम्मीद रखें?" नेताजी गंभीर होकर बोले। 

"तो कुम्हारों के काम देखते वक्त भी क्या तुम राजनीति और देश के हालात में ही खोये हुए थे?" पत्नी ने नेताजी की टोपी सही करते हुए कहा। 
"क्या ये भी अपने घर-परिवार नहीं हैं? इनके हथरेटी-चकारेटी कौन हैं?" यह कहते हुए नेताजी के हाथ स्टिअरिंग पर कुम्हार की चकरेटी की तरह अनायास तेजी से चलने लगे। 

शेख़ शहज़ाद उस्मानी
शिवपुरी (मध्यप्रदेश)