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शनिवार, 19 मार्च 2022

लघु आलेख | 'अच्छी' बनाम 'प्रभावी' लघुकथा | आलोक कुमार सातपुते

26 नवम्बर 1969 को जन्मे आलोक कुमार सातपुते ने एम.कॉम. तक शिक्षा प्राप्त की है। भारत पाकिस्तान और नेपाल के प्रगतिशील हिन्दी,उर्दू, एवं नेपाली पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन हो चुका है। इसके अतिरिक्त शिल्पायन प्रकाशन समूह दिल्ली के नवचेतन प्रकाशन से आपका लघुकथा संग्रह 'अपने-अपने तालिबान' व दलित कहानी संग्रह 'देवदासी', सामयिक प्रकाशन समूह दिल्ली के कल्याणी शिक्षा परिषद से लघुकथा संग्रह 'वेताल फिर डाल पर', डायमंड पाकेट बुक्स, दिल्ली से कहानियों का संग्रह 'मोहरा' व किस्से-कहानियों का संग्रह 'बच्चा लोग ताली बजायेगा' प्रकाशित हो चुके हैं। अपने-अपने तालिबान का उर्दू संस्करण भी आकिफ बुक डिपो, नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ है तथा इस संग्रह की अंग्रेजी एवं मराठी अनूदित पुस्तकें भी प्रकशित हुई हैं। एक कहानी संग्रह 'रेशम का कीड़ा' प्रकाशनाधीन है। आइए पढ़ते हैं लघुकथा पर उनका लिखा एक लघु आलेख:

'अच्छी' बनाम 'प्रभावी' लघुकथा

मैं यूँ तो लघुकथाओं से सम्बन्धित किसी भी आयोजन में भाग नहीं ले पाता,पर मेरी कोशिश होती है कि इन आयोजनों पर बारीक नज़र रखूं। मैंने पाया है कि ये आयोजन सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने जन-सम्पर्क बढ़ाने का माध्यम बन गये हैं।

आजकल सपाटबयानी को लघुकथा कहा जा रहा है,जिसे पढ़कर समझ में नहीं आता है कि यह लघुकथा है या समाचार। घटनाओं का ज्यों का त्यों विवरण मात्र परोस दिया जा रहा है। इस तरह की लघुकथाएं उत्पादित करने की बहुत सी फेक्टरियाँ खुल गयी हैं और उनमे धकाधक उत्पादन हो रहा है।

लघुकथाओं से सम्बन्धित विभिन्न आयोजन इन उत्पादों की ब्रांडिंग करते हुए प्रतीत होते हैं।इन आयोजनों के प्रायोजक उर्फ़ "लघुकथाओं के मठाधीश" कभी लघुकथा की साईज़ को लेकर मगज़मारी करते हैं,तो कभी उसके भाषा- शिल्प को लेकर ज्ञान बघारने लगते हैं। 

मेरा मानना है कि लघुकथा 'अच्छी' न होकर 'प्रभावी' होनी चाहिए। किसी व्यक्ति के दिमाग में जब कोई विचार उत्पन्न होता है तो वह विचार अपने पूरे स्वरूप में ही होता है।जब इस विचार को दिमाग में ही लगातार तीन-चार माह तक पकाया जाये तो यह विचार खुद ही तय करता है कि उसे कविता के रूप में, कहानी के रूप में या फिर लघुकथा के रूप में प्रकट होना है। इस सारी प्रक्रिया के दौरान यदि वह विचार कमज़ोर हो, तो उसकी मृत्यु हो जाती है। 

जहाँ तक मेरा सवाल है, यदि मेरे मन में उपजने वाला विचार सामाजिक सरोकारों से अछूता है, तो मैं तो उस विचार की बेदर्दी से हत्या कर देता हूँ। 

मनोविज्ञान कहता है कि हर व्यक्ति अपने-अपने पूर्वाग्रह से ग्रस्त होता है। 'अच्छा' कहना मतलब आपके पूर्वाग्रह को तुष्ट करना है। मेरा मानना है कि प्रभावी लघुकथाएँ आपको कभी भी अच्छी नहीं लग सकतीं। 

प्रभावी लघुकथाएं आपको उद्वेलित करती हैं, उत्तेजित करती हैं आपको तमाचे मारती हैं। आपको झकझोर कर सोचने के लिये बाध्य करती है।

दर-अस्ल आज के दौर में सोचने की ज़हमत कोई भी नहीं उठाना चाहता। संभवतः यही कारण है कि बदसूरत से बदसूरत आदमी भी जब फेसबुक पर अपनी फोटो डालता है,तो सैकड़ों लाइक्स मिल जाती हैं,क्योंकि फोटो कुछ सोचने को नहीं कहती है। 

'प्रभावी' लघुकथाएं स्वयंसिद्ध होती हैं और लेखक के नाम के साथ आपके दिमाग पर छप जाती हैं। उसे चीख-चीखकर अपने होने का अहसास नहीं कराना पड़ता है।

- आलोक कुमार सातपुते

(संग्रह-मोक्ष से)

सम्पर्क-832,सेक्टर-5,हाउसिंग बोर्ड कालोनी, सडडू, 
रायपुर 492007 छत्तीसगढ़.
मोबाइल -07440598439.

शनिवार, 25 दिसंबर 2021

आलेख: लघुकथा : प्रवाह और प्रभाव | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

साहित्य में आज लघुकथा अपना एक विशिष्ट स्थान बना चुकी है, क्रिकेट में टेस्ट क्रिकेट फिर वन डे और अब 20-20 की तरह ही साहित्य में भी समय की कमी के कारण पाठक अब छोटी कथाओं को पढने में अधिक रूचि लेते हैं हालाँकि लघुकथा का अर्थ छोटी-कहानी नहीं है, यह कहानी से अलग एक ऐसी विधा है कि जिसमें कोई एक बार डूब गया तो इसका नशा उसे लघुकथाओं से बाहर निकलने नहीं देता। इस लेख में लघुकथा क्या है इसकी कुछ जानकारी दी गयी है।

कल्पना कीजिये कि आप एक प्राकृतिक झरने के पास खड़े हैं, चूँकि यह प्राकृतिक है इसलिए इसका आकार सहज होगा, झरना छोटा भी हो सकता है या बड़ा भी। उस झरने से गिरती हुई पानी की बूँदें धरती को छूकर उछल रही हैं और फिर आपके चेहरे से टकरा रही हैं, आपको झरने के पानी तथा वातावरण के तापमान के अनुसार गर्म-ठंडा महसूस होगा।

एक झरना सागर की तरह विशाल नहीं होता, ना ही नदी जैसे अलग-अलग रास्तों पर चलता है, वह एक ही स्थान पर अपनी बूंदों से अपनी प्रकृति के अनुसार अहसास कराता है। वह गर्म पानी का झरना भी हो सकता है और ठन्डे पानी का भी, वह एक नदी का उद्गम भी हो सकता है और नहीं भी।

इसी प्रकार यदि हम एक लघुकथा की बात करें तो किसी झरने के समान ही लघुकथा ना तो किसी सागर सरीखे उपन्यास की तरह लम्बी होती है और ना ही नदी जैसी कहानी की तरह अलग-अलग पक्षों को समेटे हुए वह अपनी प्रकृति के अनुसार पाठक की चेतना पर कुछ ऐसा अहसास करा देती है, जिससे गंभीर पाठक चिन्तन की ओर उन्मुख हो जाता है। एक उपन्यास में कई घटनाएं होती हैं, कहानी में एक घटना के कई क्षण होते हैं और लघुकथा में एक विशेष क्षण की घटना केंद्र में होती है। एक झरने की तरह ही लघुकथा का आकार सहज होता है कृत्रिम नहीं, उसमें कुछ भी अधिक या कम हो जाये तो कृत्रिमता उत्पन्न हो जाती है। यहाँ हम यह मान सकते हैं कि कहानी के न्यूनतम शब्दों से लघुकथा के शब्द कम हों तो बेहतर।

आज की कम्प्यूटर सभ्यता में जब वार्तालाप में कम से कम शब्दों का प्रयोग हो रहा है, यह स्वाभाविक ही है कि लघुकथा पाठकों के आकर्षण का केंद्र बन रही है। सोशल मीडिया के कई स्त्रोतों द्वारा भी लघुकथाएं, लघु कहानियाँ, लघु बोधकथाएँ आदि बहुधा प्रसारित हो रही हैं। लघुकथा के संवर्धन में किये जा रहे महती कार्य “पड़ाव और पड़ताल” के मुख्य संपादक श्री मधुदीप गुप्ता के अनुसार वर्ष 2020 के बाद का साहित्य युग लघुकथा का युग होगा। इस भविष्यवाणी के पीछे उनका गूढ़ चिन्तन और समय को परखने की क्षमता छिपी हुई है।

लघुकथा का विस्तार और सीमायें

लघुकथा कोई शिक्षक नहीं है ना ही मार्गदर्शक है, वह तो रास्ते में पड़े पत्थरों, टूटी सड़कों और कंटीले झाड़ों को दिखा देती है, उससे बचना कैसे है यह बताना लघुकथा का काम नहीं है। इसका कारण यह माना गया है कि जब किसी समस्या का समाधान बताया जाता है तो लघुकथा में लेखकीय प्रवेश की सम्भावना रहती है। लघुकथा का कार्य है किसी समस्या की तरफ इशारा कर पाठकों के अंतर्मन की चेतना को जागृत करना यह एक बहुत शक्तिशाली हथियार है जो सीधे विचारों पर चोट करता है हालाँकि समकालीन लघुकथाएं बिना अनुशासन भंग किये कई छोटी समस्याओं के समाधान भी बता रही हैं  मैं समझता हूँ कि एक लघुकथाकार यदि किसी छोटी समस्या का समाधान बिना लेखकीय प्रवेश के निष्पक्ष होकर सर्ववर्ग हेतु कहता है तो इसका स्वागत होना चाहिये। हालाँकि इसके विपरीत कोई समस्या छोटी है अथवा बड़ी इसका निर्धारण एक लेखक नहीं कर सकता, यह पाठकों के अनुभवों पर निर्भर करता है। इसलिए यदि कोई समाधान सुझाया जा रहा है तो वह पाठकों के विचारों की विविधता को ध्यान में रखकर सुझाया जाये।

लघुकथा में वातावरण का निर्माण नहीं किया जाता, वरन लघुकथा पढ़ते-पढ़ते ही वातावरण समझ में आ जाता है। प्रेमचन्द की लघुकथा ‘राष्ट्र का सेवक’ में पात्र का नाम इंदिरा और उसके पिता राष्ट्र के सेवक से ही यह समझ में आ जाता है कि वह किनकी बात कर रहे हैं। रचना के अंत में इंदिरा एक नीची जाति के नौजवान से स्वयं के विवाह की बात करती है, जिसे राष्ट्र के सेवक ने भाषण देते समय गले लगाया था, तब राष्ट्र सेवक की आँखों में प्रलय आ जाती है और वह मुंह फेर लेता है। यहाँ प्रेमचन्द ने दो विसंगतियों की तरफ एक साथ इशारा कर दिया, पहला राजनीति में व्याप्त झूठ का और दूसरा जाति भेद का।

अन्य साहित्यकारों की तरह ही लघुकथाकार भी अपने वर्तमान समाज का कुशल चित्रकार होता है जिसके हाथ में कूची के स्थान पर कलम होती है हालाँकि साहित्यकार को न केवल वर्तमान वरन भविष्य के समाज का भी कुशल चित्रकार होना चाहिए। साहित्य के द्वारा समाज का निर्माण होता है, साहित्य समाज के दर्पण के साथ-साथ समाज के लिए दिशा सूचक भी हैअतः समाज में सकारात्मक उर्जा का संचार करना और कर्तव्यबोध कराते हुए  सही दिशा देना भी साहित्यकार का दायित्व है हालाँकि इसका अर्थ यह नहीं है कि केवल सकारात्मक शब्द और हैप्पी एंडिंग ही हो। सकारात्मक चेतना जगाने के लिए लघुकथाकार कई बार कडुवा सच दर्शाते हैं। श्री योगराज प्रभाकर की लघुकथा ‘अपनी अपनी भूख’ के अंत में नौकरानी बुदबुदाती है कि "मेरे बच्चों के सिर पर भी अपने बेटे का हाथ फिरवा दो बीबी जीI", क्योंकि बीबी जी के बेटे को भूख नहीं लगने की बीमारी है। इस रचना में दो माँओं की एक ही प्रकार की तड़प है दोनों अपने बच्चों को भूखा देखकर परेशान हैं, लेकिन परिस्थिति अलग-अलग। नौकरानी की आर्थिक दशा को परिभाषित करती अंतिम पंक्ति पाठकों की चेतना को झकझोरने में पूर्ण सक्षम है।

इसी प्रकार डॉ. अशोक भाटिया की तीसरा चित्र एक ऐसी रचना है जिसके अंत में जब पुत्र कहता है कि पिताजी, इस चित्र की बारी आई तो सब रंग खत्म हो चुके थे।तो पाठकों के हृदय में न केवल संवेदना के भाव आते हैं बल्कि तीन वर्गों के बच्चों में अंतर् करने के लिए चिंतन को मजबूर हो ही जाते हैं।

यदि आपको यह जानना है कि आपके अपने विचार कैसे हैं तो किसी भी विधा में लिखना प्रारंभ कर दीजिये, उस लिखे हुए का अवलोकन कर आप अपने बारे में बहुत अच्छे तरीके से जान सकते हैं।  लेखन में लेखक के निजी विचार उनके अनुभवों और भावनाओं के आधार पर होते ही हैं, लेकिन जब साहित्य में अन्य विचारों का भी लेखक स्वागत करता है तो वह विभिन्न श्रेणी के पाठकों के लिए भी स्वागतयोग्य हो जाता है। लघुकथा एक ऐसी स्त्री की भांति है जो सामने खड़े किसी बीमार और अशक्त बच्चे को अपने आँचल में माँ के समान स्नेह देती है लेकिन अपने जनक को केवल एक उपनाम की तरह अपने साथ रखती है। इसलिए लघुकथा में विशेष सावधानी की आवश्यकता है। ‘लेखकीय प्रवेश’ का अर्थ ‘मैं’ शब्द का लघुकथा में होने या न होने से नहीं है, लघुकथा के किसी अन्य पात्र के जरिये भी लेखकीय प्रवेश हो सकता है और ‘मैं’ शब्द का प्रयोग कर के नहीं भी। यहाँ मैं श्री मधुदीप गुप्ता की एक लघुकथा “तुम इतना चुप क्यों हो दोस्त” को उद्धृत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ, इस रचना में मुख्य पात्र कॉफ़ी हाउस में बैठा है और दूसरी टेबल पर बैठे हुए व्यक्तियों की बातें सुन रहा है, अंत में एक व्यक्ति जब कुछ कहने की बजाय करने की बात करता है तो मुख्य पात्र की ठंडी हो रही कॉफ़ी में उबाल आ जाता है। बहुत खूबसूरती से इस रचना में एक पात्र “मैं” का सृजन किया गया है, जिसमें लेखकीय प्रवेश बिलकुल नहीं दिखाई देता।

कई बार मानव समाज स्वयं की बेहतरी के प्रश्न भी उत्पन्न करने की क्षमता नहीं रखता है, लघुकथा इसमें सहायक हो सकती है। यह राजा विक्रमादित्य और बेताल के उस किस्से की तरह माना जा सकता है, जिसमें राजा विक्रमादित्य बेताल को कंधे पर लेकर जाता है, बेताल उसे कोई लघु-कहानी सुनाता है और अंत में एक प्रश्न रख देता है, जिसका उत्तर राजा विक्रमादित्य अपने विवेक के अनुसार देता है।

 

पठन योग्य लघुकथा

साहित्य की कोई भी विधा हो बिना पाठकों के ना तो विधा का अस्तित्व है और ना ही लेखक का, लेकिन रचनाकार को पाठकों की रूचि और सोच की दिशा के अनुसार सृजन नहीं करना चाहिये हालाँकि यह लोकप्रियता का एक सस्ता-सुगम मार्ग है और साहित्य में चाटुकारिता भी सदियों से होती आई है, परन्तु सस्ती लोकप्रियता एक लेखक का उद्देश्य नहीं होना चाहिये, इसके आने वाले समय में कई दुष्परिणाम होते हैं।

लघुकथा पठन योग्य हो, इसके लिए लघुकथाकार के सृजन की पूरी प्रक्रिया में काफी परिश्रम करना होता है। लेखकीय दृष्टि लिए कोई भी व्यक्ति किसी भी घटनाक्रम को साधारण तरीके से नहीं देखता वरन उसमें अपने लेखन के लिए संभावनाएं तलाश करता है। लघुकथा पाठक के हृदय में कौंध उत्पन्न करती है, लेकिन उसके सृजन को प्रारंभ करने से पहले लेखक के मस्तिष्क में भी कौंध उत्पन्न होनी चाहिये। स्वयं लेखक को यह स्पष्ट होना चाहिये कि वह लघुकथा क्यों कह रहा/रही है। उद्देश्य स्वयं को स्पष्ट होगा तभी पाठकों को स्पष्ट करने की क्षमता होगी।

लघुकथा का उद्देश्य स्पष्ट होने के बाद लघुकथा का कथानक तैयार करना चाहिये, कथानक किसी यथार्थ घटना पर आधारित तो हो सकता है लेकिन यथार्थ घटना को ज्यों का त्यों लिखने से बचना चाहिये अन्यथा लघुकथा का एक साधारण समाचार बन कर रह जाने का खतरा रहता है। लेखक को अपनी कल्पना शक्ति से ऐसे कथानक का सृजन करना चाहिये, जिसका प्रवाह ऐसा हो जो किसी घटना को प्रारंभ से अंत तक क्रमशः वर्णन करने में सक्षम हो, जो रोचक हो, कम से कम पात्रों को लिए हुए हो और लघुकथा के उद्देश्य को स्पष्ट परिभाषित कर सके। लघुकथाकार लघुकथा की शैली पर भी इसी प्रकार कार्य करते हैं ताकि पढने वाले को उबाऊपन का अनुभव न हो और स्पष्टता बनी रहे। संवाद, वर्णनात्मक, मिश्रित आदि शैलियाँ पाठकों में प्रचलित हैं।

अधिकतर लघुकथाकार लघुकथा का अंत इस तरह से करते हैं कि जो विसंगति अथवा प्रश्न उन्हें पाठकों के समक्ष रखना है, वह अंत में प्रकट होकर पाठकों के हृदय में कौंध जाये और पाठक चिन्तन करने को विवश हो जाये।

लघुकथा का शीर्षक भी लघुकथा को परिभाषित कता हुआ इस तरह से हो कि पाठकों में शीर्षक देखते ही रचना पढने की उत्सुकता जाग जाये। श्री बलराम अग्रवाल की ‘कंधे पर बेताल’, ‘प्यासा पानी’, श्री भागीरथ की ‘धार्मिक होने की घोषणा’, श्री मधुदीप गुप्ता की ‘तुम इतना चुप क्यों हो दोस्त’,  ‘सन्नाटों का प्रकाशपर्व’, डॉ. अशोक भाटिया की क्या मथुरा, क्या द्वारका?’, श्री योगराज प्रभाकर की ‘अधूरी कथा के पात्र’ और ‘भारत भाग्य विधाता’, श्री युगल की ‘पेट का कछुआ’, श्री सतीश दुबे की ‘हमारे आगे हिंदुस्तान’ आदि कई रचनाओं के शीर्षक इस तरह कहे गए हैं कि शीर्षक पर नज़र जाते ही रचना को पढने की उत्सुकता बढ़ जाती है।

लघुकथा में कालखंड

कालखंड लघुकथा में कोई दोष है अथवा नहीं, इस पर विभिन्न विद्वानों के विभिन्न मत है। लघुकथा के कथ्य के क्षण से पहले अथवा बाद के काल में व्यक्ति अथवा घटना का जाना कालखंड बदल जाने की श्रेणी में आता है। कालखंड समस्या से निजात पाने के लिए मैं एक चित्र का उदाहरण दूंगा, यह चित्र आप सभी ने कभी न कभी देखा होगा, जिसमें मानव के विकास क्रम को बताया गया है, चौपाये से विकसित हो दो पैरों पर खड़ा पर थोड़ा झुका हुआ पशु, झुके हुए पशु से सीधा खड़ा हुआ पशु, फिर चेहरे का विकास और अंत में आज का मानव खड़ा हुआ है। लाखों वर्षों को एक ही चित्र में समेट दिया जाना इतना आसान नहीं था, लेकिन चित्रकार ने यह कार्य बखूबी कर दिखाया है इसी प्रकार एक लघुकथाकार भी किसी भी इकहरे पक्ष के कई वर्षों को एक ही लघुकथा में सिमटा सकने का सामर्थ्य रखता है। इसके लिए घटना को सिलसिलेवार बता देना, क्षण विशेष को केंद्र में रख कर एक से अधिक काल को बता देना, फ़्लैश बेक में जाना, किसी डायरी को पढ़ना, किसी केस की फाइल को पढना आदि के द्वारा कालखंड दोष से बचा जा सकता है। श्री भागीरथ की लघुकथा ‘शर्त’ में दो दृश्य हैं, एक सवेरे का और दूसरा शाम का, लेकिन लघुकथा के केंद्र में मज़दूर नेता के अडिग आदर्श हैं। यह रचना अलग-अलग कालखंडों को एक ही रचना में समेट लेने के बेहतरीन उदाहरणों में से एक है।

लघुकथा की भाषा

साहित्यशब्द ‘सहित’ शब्द से उत्पन्न हुआ है सहित अर्थात् हित के साथ, यह हित मानव का हो सकता है, अन्य जीवों का हो सकता है, प्रकृति आदि किसी का भी हो सकता है, लेकिन किसी के अहित से परे रह कर। इसी तरह किसी अन्य भाषा का अहित न कर साहित्य का कार्य मातृभाषा का हित भी है। साहित्य भाषा को ज़िन्दा रखता है, यदि साहित्य की भाषा ही सही नहीं हो तो उस भाषा का पतन निश्चित है। एक साहित्यकार अपने विचारों को भाषा के वस्त्राभूषण पहनाता है, जिससे उसकी कृति की सुंदरता और कुरूपता का आकलन भी किया जा सकता है। मेरा मानना है कि जितना संभव हो हिंदी-लघुकथा हिंदी में ही कही जाये, हालाँकि कई बार संवादों में अन्य देसी-विदेशी भाषाओं का प्रयोग किया जाना आवश्यक हो जाता है, जो कि वर्जित नहीं है। आंचलिक एवं अन्य भाषाओं के प्रयोग से कई बार रचना की सुन्दरता और भी बढ़ जाती है। लेकिन इतना अवश्य हो कि वह भाषा सरल हो और एक हिंदी भाषी को आसानी से समझ में आ जाये। जब भी लघुकथाकार विदेशी भाषा का प्रयोग करें तो मैथिलीशरण गुप्त के यह शब्द एक बार ज़रूर याद कर लें, “हिन्दी उन सभी गुणों से अलंकृत है जिनके बल पर वह विश्व की साहित्यिक भाषाओं की अगली श्रेणी में सभासीन हो सकती है।“

लघुकथा में भाषिक सौन्दर्य प्रतीकों, मुहावरों यहाँ तक कि संवादों को अधूरा छोड़ कर तीन डॉट लगा देने से भी बढ़ाया जा सकता है लघुकथाकार इस बात का विशेष ध्यान देते हैं कि भाषा में अलंकार लगाने पर लघुकथा ना तो शाब्दिक विस्तार पाए और ना ही अस्पष्ट हो जाये। कसावट के साथ रोचकता और सरलता भी रहे ताकि पाठकों को आसानी से ग्राह्य हो सके। लेकिन यह भी सत्य है कि कई अच्छी रचनाएँ सरसरी निगाह से पढने पर जल्दी समझ में नहीं आ सकती

उपसंहार

कैनेडा से प्रकाशित अंतरराष्ट्रीय पत्रिका हिंदी चेतना के अक्टूबर-दिसम्बर 2012 के लघुकथा विशेषांक में परिचर्चा के अंतर्गत श्री श्याम सुंदर अग्रवाल ने लघुकथा विधा के विकास में यह अवरोध बताया था कि “नये लेखक इस विधा में नहीं आ रहे हैं” यह प्रसन्नता का विषय है कि इस अंक को तीन वर्ष भी पूर्ण नहीं हुए थे और लघुकथा के स्थापित लेखकों के सद्प्रयासों से 100 से अधिक नवोदित लघुकथाकार इस विधा में गंभीरता से अपने पैर जमाने लगे।  आज यह संख्या और भी बढ़ गयी है। इसी परिचर्चा में वरिष्ठ लघुकथाकार श्री भागीरथ ने यह चिंता व्यक्त की थी कि लघुकथा के कंटेंट और फॉर्म टाइप्ड हो गए हैं और उनमें ताजगी का अभाव है, यह कहते हुए भी हर्ष का अनुभव हो रहा है कि लगभग सभी वरिष्ठ लघुकथाकार, साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादक और कुछ आलोचक न केवल नवोदित रचनाकारों का मार्गदर्शन कर रहे हैं और उनकी रचनाओं के प्रकाशन का मार्ग सुगम कर रहे हैं वरन कई तरह से प्रोत्साहित भी कर रहे हैं, जिससे नयी ताज़ी रचनाओं का अभाव भी अब नहीं रहा।

लघुकथा विधा में विधा के प्रति गंभीर रचनाकारों, गैर-व्यवसायिक साहित्य को समर्पित प्रकाशकों और गंभीर सम्पादकों का समावेश तो है ही, लेकिन आलोचकों/समीक्षकों और गंभीर पाठकों की कमी अभी भी है। लघु-रचनाओं के प्रति पाठकों का झुकाव होने पर भी लघुकथाओं के पाठकों की संख्या बहुत अधिक नहीं है। लघुकथा के नाम पर परोसी जाने वाली हर रचना के पाठकों को लघुकथा का पाठक कहना भी विधा के लिए उचित नहीं है। ई-पुस्तकों, ऑनलाइन ब्लॉग और पूर्व-प्रकाशित पुस्तकों के डिजिटल अंको को प्रचारित-प्रसारित कर पाठकों की संख्या में वृद्धि की जा सकती है। प्रकाशक भी आलोचकों और समीक्षकों को अपनी पुस्तकों से जोड़ें।

लघुकथा अब साहित्याकाश में किसी सितारे की तरह चमक रही है, इसकी रौशनी अब कितनी और फैलेगी इसका आकलन करना मुश्किल है। लेकिन इसकी किरणों की चमक आश्वस्त करती हैं कि इसमें वर्तमान और भविष्य के वे सभी रंग विद्यमान हैं, जिनसे मिलकर मानव विचार चिन्तन का इन्द्रधनुष बना सकें तथा समाज की दशा और अधिक उन्नत हो सके।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

बुधवार, 8 दिसंबर 2021

लेख: 'लघुकथा : एक रोचक विधा' | नेतराम भारती

हर काल अपने पूर्वकाल से भिन्न होता है l हर काल की अपनी कुछ विशेषताएं तो कुछ समस्याएं होती हैं l उन विशेषताओं और समस्याओं को स्वर देने का कार्य साहित्य करता है l साहित्य ही उन्हें दिशा देता है, हवा देता है l और साहित्यकारों की जनमानस तक पहचान का माध्यम भी वही बनता है l इसके लिए हमेशा से ही कलमकारों ने अपने दायित्वों का निर्वहण कभी बेबाकी से, तो कभी, अत्यंत सतर्कता से किया है l और इसके लिए उन्होंने साहित्य की किसी न किसी विधा को अपने लेखन का आधार बनाया, फिर चाहे वह छन्दोबद्ध काव्य हो या पाठकों को झकझोरता गूढ़ गद्य l

वर्तमान समय में साहित्य की जिस विधा ने साहित्यकारों को सर्वाधिक आकर्षित और पाठकों के निकट पहुँचाया है और पहुँचा रही है, वह है लघुकथा l आज यदि यह कहा जाए कि सर्वाधिक साहित्य किस विधा में लिखा - छपा और पढ़ा जा रहा है तो निस्संदेह निस्संकोच रूप से कहा जा सकता है कि वह लघुकथा है l कारण, आकार में लघु होने के साथ ही कम समय में सुपाच्य और शीघ्र भाव - सम्प्रेषण हो जाता है l परिणामस्वरूप पाठक अथवा श्रोता को सहज ही रसानुभूति और भावानुभूति होती है जो एक नाटक, उपन्यास या लंबी कहानी में होती है l आज संचार और दृश्य - श्रव्य के रूप में मनोरंजन के साधनों की इतनी भरमार है कि पाठक, श्रोता अथवा दर्शक बस चैनल ही बदलता रहता है l वह ज्यादा समय एक स्थान पर रुकना ही नहीं चाहता l वह तो, कम से कम समय में ज्यादा से ज्यादा रोचक और उद्देश्य परक मनोरंजन जहाँ मिलता है, वहाँ जाकर रुकता है l और आज लघुकथा ने लुप्त होते जा रहे पाठकों को साहित्य की ओर मोड़ा है, रोका है तो इसके लिए वह बधाई की पात्र है l कुछ ही मिनटों में यदि वह कोई सीख, कोई तंज, कोई रहस्योद्घाटन, कोई विद्रूप यथार्थ, सभ्यता - संस्कृति अंधविश्वास, अनीति और भारतीयता की पहचान को उद्घाटित कर देती है तो, पाठक तो आकर्षित होगा ही l हाँ, विशेष बात यह है कि लघुकथा पढ़ने के बाद पाठक के मन में विचारों का एक सोता फूटता है जो उसे चिंतन - मनन के छींटों से भिगोकर तरो-ताजा करता है, क्योंकि एक अच्छी और प्रभावी लघुकथा जहाँ ख़त्म होती है वहीं से उसका अगला भाग पाठक के मानस में आकार लेने लगता है l

अब प्रश्न उठता है कि आख़िर यह लघुकथा है क्या? क्या यह एक छोटी-सी कहानी है?, क्या यह दादा-दादी की कहानियाँ हैं? लघु उपन्यास है, बोध - जातक कथाएँ हैं अथवा कुछ और?.. क्या हैं?

तो मैं बताता चलूँ कि लघुकथा उपर्युक्त वर्णित कथा - विधाओं से इतर अपने आप में एक स्वतंत्र पूर्ण विधा है जो क्षण - विशेष की घटना या प्रभाव को अभिव्यक्त करती है l यह कुछ वाक्यों से लेकर एक - डेढ़ पृष्ठ तक की हो सकती है l जहाँ तक इसके शब्द सीमा की बात है तो अभी तक लघुकथा के विशेषज्ञ - समीक्षक भी इसकी अंतिम और अधिकतम शब्द सीमा को लेकर एकमत नहीं हैं l फिर भी सामान्यतः जो एक राय बनती दिख रही है वह इसकी अधिकतम सीमा 350 से 500 शब्द तक होना मानती है l पर जिस तरह हर नाटक में उसका अपना रंगमंच निहित रहता है उसी प्रकार हर लघुकथा के कथानक में उसकी शब्द सीमा निहित रहती है l मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि किसी विसंगति पूर्ण क्षण - विशेष के प्रसंग या घटना या प्रभाव को कम से कम शब्दों में प्रभावी ढंग से कहना लघुकथा है, जिसमें लेखक को लेखकीय प्रवेश की अनुमति नहीं है, जिसमें कालखंड बदलने की इजाज़त नहीं है, जिसमें उपदेश देने की छूट नहीं है l छूट है तो उस 'अनकहे' की, जो कहा नहीं गया लेकिन लघुकथा में प्रतिध्वनित है l छूट है तो शब्दों की मितव्ययिता की, छूट है तो समस्या के समाधान की अनिवार्यता की l संवेदनाओं को झंकृत करना, थोड़े में अधिक कहना, सांकेतिकता, ध्वन्यात्मकता, बिम्बात्मकता, प्रतीकात्मकता आदि लघुकथा के प्रमुख तत्व कहे जा सकते हैं l संक्षेप में कहा जा सकता है कि कथानक, शिल्प, शैली, मारक पंक्ति (पंच), विसंगतिपूर्ण क्षण - विशेष, इकहरापन, भूमिकाविहीन, कालखंड दोष से रहित प्रेरक और सामाजिक महत्व को प्रकट करना लघुकथा के तत्व कहे जा सकते हैं l

इतना समझने के बाद इतना तो समझ आ ही जाता है कि लघुकथा - लेखन आम सामान्य लेखन नहीं है l लेकिन ऐसा भी नहीं है कि इसे लिखा ही न जा सके l सतत अभ्यास और सतर्कता बरती जाए और सिद्ध लघुकथाकारों की लघुकथाओं के अध्ययन - मनन किया जाए तो लघुकथा-लेखन में सफलता प्राप्त की जा सकती है l आजकल इन्टरनेट पर देश भर के अनेक लघुकथा को समर्पित पटल - मंच हैं, जो न केवल समय - समय पर लघुकथा-लेखन को प्रोत्साहित ही कर रहे हैं बल्कि देशभर के लब्धप्रतिष्ठ वरिष्ठ और प्रबुद्ध लघुकथाकारों के साथ लघुकथा पर गोष्ठियाँ आयोजित कर, नवोदित लघुकथाकारों को उनकी लघुकथाओं के वाचन, और उनकी समीक्षा द्वारा मार्गदर्शन, और प्रोत्साहन देने का मह्त्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं l कुछेक नाम देखें जा सकते हैं - ' लघुकथा के परिंदे', 'क्षितिज', 'कथा - दर्पण साहित्य मंच', ' साहित्य सम्वेद', 'लघुकथालोक' आदि आदि I

और जहाँ तक लघुकथा के वर्तमान प्रमुख हस्ताक्षरों की बात है तो श्री रमेश बत्रा जी, श्री जगदीश कश्यप जी, स्व. श्री सतीशराज पुष्करणा जी, श्री कृष्ण कमलेश जी, श्री भगीरथ परिहार जी, श्री सतीश दूबे जी, श्री योगराज प्रभाकर जी, श्री बलराम अग्रवाल जी, श्रीमती कांता राय जी, श्री संतोष सुपेकर जी, श्री चन्द्रेश छतलानी जी, श्री सुकेश साहनी जी, श्री कमल चोपड़ा जी, श्री सतीश राठी जी, श्री संजीव वर्मा 'सलिल' जी, डॉ. श्री अशोक भाटिया जी, श्री ओम नीरव जी, श्रीमती सुनीता मिश्रा जी आदि के नाम आदर के साथ लिए जा सकते हैं l और इनके लघुकथा पर विचार, इनके लघुकथा संग्रहों को पढ़कर लघुकथा को समझना - लिखना आसान होगा l

आख़िर में, इतना जरूर कहना चाहूँगा कि इक्कीसवीं सदी और आने वाली सदियों में लघुकथा एक स्थापित साहित्यिक विधा के रूप में और प्रतिष्ठा पायेगी, और प्रतिष्ठित होगी जिसकी शुभ शुरूआत हो भी चुकी है l हाल ही में अखिल भारतीय और प्रादेशिक स्तर पर मध्यप्रदेश साहित्य परिषद ने अकादमी पुरस्कारों में पहली बार लघुकथा को साहित्य के प्रतिष्ठित अकादमी पुरस्कारों की श्रेणी में शामिल किया है जिसके अंतर्गत अखिल भारतीय लघुकथा पुरस्कार एक लाख रुपये राशि का और प्रादेशिक लघुकथा पुरस्कार इक्यावन हज़ार रुपये राशि का निश्चित कर भोपाल के श्री घनश्याम मैथिल 'अमृत' जी को उनके लघुकथा संग्रह "... एक लोहार की " पर पहला जैनेन्द्र कुमार जैन पुरस्कार देने की घोषणा की l आशा है देश की अन्य राज्यों की साहित्य परिषद भी प्रेरित हों अपने यहाँ भी लघुकथा को शीर्ष साहित्यिक पुरस्कारों की श्रेणी में शामिल करेंगी, क्योंकि अब लघुकथा की चमक को अनदेखा करना असंभव है l

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- नेतराम भारती

गाज़ियाबाद उत्तर प्रदेश


शुक्रवार, 3 दिसंबर 2021

लेख: क्या आप लघुकथा लेखक हैं? | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

आप लघुकथा लेखक हैं! वाह! लेकिन कभी कोई कहानी या उपन्यास भी लिखा है? या सिर्फ आसान विधा तक ही...

इस तरह के या मिलते-जुलते प्रश्नों से, मेरे अनुसार, कई लघुकथाकार रूबरू हुए होंगे। इस प्रश्न के आधार में निहित प्रश्न यह भी है कि एक सुप्रसिद्ध विधा के लिए ऐसे प्रश्नों का उद्गम होता ही क्यों है? मेरे अनुसार शायद इसका एक कारण यह भी है कि लघुकथा जैसी श्रमसाध्य विधा में कितने ही व्यक्ति ऐसा (आसान) लेखन भी कर रहे हैं, जो लघुकथा होहो लेकिन उसे लघुकथा की संज्ञा ज़रूर मिल रही है। खैर, उन सभी को याद करने से अधिक आवश्यक यह है कि इस तरह के प्रश्नों का उन्मूलन आवश्यक है और आप एक लघुकथाकार हैं तो यह भी जानते हैं कि एक लघुकथा अपने पाठकों को रोमांचित कर सकती है, उन्हें वाह और आह कहने को विवश कर सकती है, सोचने के लिए प्रेरित भी कर सकती है, आक्रोश भी दिला सकती है और शांति भी। लेकिन अपवादों को छोकर, इस तरह के सृजन के लिए केवल कुछ घंटों की ब्रेनस्टॉर्मिंग पर्याप्त नहीं है। लघुकथा सहित किसी भी सृजन की सफलता जी कहो जी कहलाओ द्वारा या धन देकर प्रकाशित-प्रसारित होकर, यूट्यूब पर अपना ऑडियो-वीडियो डालकर ही नहीं है, बल्कि इस बात पर है कि सामान्य व्यक्तियों पर हमारी रचनाएँ कितना प्रभाव डाल सकती हैं? इस लेख में लघुकथा की सरंचना की बजाय एक अच्छी लघुकथा लिखने के लिए कुछ ऐसी युक्तियों पर बात की गयी है जो लघुकथाकारों के लिए उपयोगी हो सकती हैं, जिसे लघुकथाकार अपने सृजन को कुछ और बेहतर कर सकते हैं और प्रोत्साहित हो इस लेख की प्रथम पंक्ति में दर्शाये गये प्रश्न को उलट सकने का प्रयास भी कर सकते हैं

 

1. अवलोकन करते रहिए

 

किसी भी अन्य सृजन की तरह ही लघुकथा सृजन में भी लघुकथाकार की कल्पना-शक्ति की काफी बड़ी भूमिका है। सृजन के समय आपको पात्रों की कल्पना करनी होगी, उनकी व्यथा, उनके डर, उनकी जीत-हार, उनके चरित्र, उनकी भाषा, उनके हाव-भाव की कल्पना भी करनी होगी। वातावरण की कल्पना भी करें, कई बार वातावरण का संक्षिप्त विवरण ही बहुत कुछ कह जाता है। कल्पना-शक्ति उन्नत करने के लिए हमारा अवलोकन सूक्ष्म होना चाहिए। आप अपने आस-पास घट रही घटनाओं, चारों तरफ के व्यक्ति, बातें कर रहे लोग, खेल रहे बच्चे, इमारतें, लिफ्ट, सीढ़ियाँ, आदि-आदि का सूक्ष्म निरीक्षण नहीं करते हैं तो कृपया प्रारम्भ कर दीजिये, क्योंकि यही निरीक्षण शब्दों में ढल कर आपके सृजन को जीवंत बनाएगा।

 

प्रभावशाली बातों, हरकतों, संवादों आदि के बारे में नोट्स बना कर, उन्हें बाद में आप अपनी लघुकथाओं में शामिल कर सकते हैं। हालाँकि लघुकथा के मुख्य कथानक को अपने अवचेतन मन में ही तैयार होने  दें।

 

2. प्रेरणा प्राप्त करना

 

प्रेरणा कहीं से भी प्राप्त हो सकती है। एक उदाहरण देता हूँ, मैं मोबाईल फोन से कुछ समय दूर रहने के लिए अधिकतर बार बाग में घूमते वक्त फोन लेकर नहीं जाता। हालांकि बाग में घूम रहे अधिकतर लोग मोबाईल फोन पर या तो बातें करते हैं अथवा गाने सुनते हैंमुझे इस पर भी आश्चर्य होता है कि अन्य व्यक्ति मोबाइल की ध्वनी से परेशान न हों, इसलिए घूम रहे व्यक्ति ईयरफोन या ब्लूटूथ का इस्तेमाल क्यों नहीं करते! बहरहाल, एक दिन ऐसे ही घूमते समय पीपल के पेड़ से कुछ पत्तियां टूट कर मेरे सामने गिरीं और मुझे लघुकथा के इस प्लॉट का बोध करा गईं कि बाग़ में लगभग पूरे दिन कोई-न-कोई अपने फोन सहित आता रहता है। उनके मोबाईल फोन का (कु)प्रभाव पर्यावरण और वृक्षोँ आदि पर भी होता ही होगा, इस विषय पर रचना कही जा सकती हैइस लेख के लिखे जाने तक यह रचना फिलवक्त अवचेतन में ही हैइसी प्रकार प्रेरणा के लिए आवश्यक नहीं कि केवल मानवीय समाज से प्राप्त हो, सपनों से लेकर सुदूर सितारों की ऊर्जा प्रेरणा का स्त्रोत बन सकती है। इसके लिए ब्रह्माण्ड खुला है।

 

3. विषय का पर्याप्त अध्ययन

पाठकों को वही रचनाएँ प्रभावित करेंगी जो उनकी बुनियादी समस्याओं से जुड़ी हों। जिस समस्या अथवा विषय पर लघुकथा कहना चाह रहे हैं, उसका आपके पाठकों से कितना सम्बन्ध है, उसका पर्याप्त अध्ययन करें। हालांकि यह तुलना किस हद तक सही होगी यह विचारणीय है, लेकिन फिर भी, यह हम सभी को विदित है ही कि सुप्रसिद्ध कलाकार अमिताभ बच्चन की प्रथम सफलता का श्रेय आम व्यक्ति के आक्रोश को अपनी फिल्म में व्यक्त करना भी था।

 

विषय और समाज के सह-सम्बन्ध के अध्ययन के अतिरिक्त लघुकथा में तथ्यात्मक त्रुटि से बचने हेतु विषय से संबन्धित तथ्यों का अध्ययन ज़रूर कर लें। एक उदाहरण देता हूँ, 23 जनवरी 2020 को जय नारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर के पत्रकारिता विभाग में अखलाक अहमद उस्मानी ने "भारत के मुद्रित माध्यमों में अरब देशों से संबंधित समाचार समाचारों का विश्लेषणात्मक अध्ययन" विषय पर पीएच.डी. अर्जित की। उन्होंने कुछ देशों का भ्रमण तो केवल विषय की गंभीरता को समझने के लिये किया। हालांकि पीएच.डी. से एक लघुकथा सृजन की तुलना भी अतिशयोक्ति मानी जा सकती है, लेकिन मेरे अनुसार तथ्य और विषय समझने की गंभीरता इससे कम नहीं होनी चाहिए।

 

4. पर्याप्त लघुकथाओं को पढ़ना

 

सिक्खों के  दसवें गुरू गोबिंद सिंह जी ने कहा था कि, “आज्ञा भई अकाल दी, तबे चलायो पंथ, सब सिखन को हुक्म है गुरु मानयो ग्रंथउन्होंने ग्रन्थ को गुरु कहा। यही एक पुस्तक में लिखे की शक्ति है। अध्ययन करना और उस पर चिंतन करना कितना आवश्यक है, यह इस एक वाक्य से समझा जा सकता है। मूल रूप से पढ़ने का अर्थ पठन के अनुरूप अपना मस्तिष्क तीक्ष्ण करना और उचित मानसिक वातावरण तैयार करना है। प्रश्न यह है पर्याप्त पठन का अर्थ क्या? सांख्यिक तौर पर पर्याप्त की मात्रा ज्ञात करना असंभव है। यह लघुकथाकार और पढी जा रही लघुकथा पर निर्भर करता है। कभी सौ-पचास लघुकथाएं पढ़ कर भी उचित वातावरण नहीं बनता तो कभी एक-दो रचनाएं भी बहुत कुछ सिखा जाती हैं। सच यह है कि पठन कार्य ऐसा कार्य है जो लेखन से अधिक आवश्यक और अंतहीन है। जिस दिन आप पढ़ने से संतुष्ट हो गए, लेखन से विरक्ति होना शुरू हो जाएगी और यदि विरक्ति ना भी हुई तो भी लेखन धीरे-धीरे आत्मकेंद्रित होता जाएगा। लेखक अंतर्मुखी हो तो अच्छा लेकिन आत्मकेंद्रित हो तो ऊपर वाला ही मालिक है। एक और बात जिससे जितना अधिक बचा जाये उतना बेहतर कि, किसी भी लेखक को अधिक पढ़ने से उसकी शैली हमारे ऊपर हावी हो सकती है, अतः विविध साहित्य पढ़ें। प्रयास करें स्वयं की एक अलग ही शैली हो।

 

5. लघुकथा का एक रेखाचित्र तैयार करना

एक रेखाचित्र बना लें, चाहे मन में या चाहे लिख कर लघुकथा सृजन के किसी भी रेखाचित्र में निम्न तत्व हो सकते हैं (इनसे कम-अधिक भी हो सकते हैं, लेकिन न्यूनाधिक ये तो होंगे ही):

·        उद्देश्य

·        समस्या

·        परिदृश्य

·        मुख्य चरित्र एवं अन्य पात्र

·        कथानक

·        शैली

·        भाषा

·        प्रारंभ

·        समायोजन

·        समाधान (सीमित)

·        अंत

·        शीर्षक

रेखाचित्र के जिन तत्वों में आप सृजित हो रही लघुकथा से सम्बन्धित जो कुछ भर सकते हैं, भर दीजिए और जिनमें कुछ नहीं भर पा रहे, उन्हें छो दीजिए। जब लघुकथा अवचेतन में पक जाए, तब पहला ड्राफ्ट ही अपने इस रेखाचित्र के प्रति सचेत रहते हुए सृजित करें। हालाँकि कई बार सृजन के समय रचना कहीं और भटक सकती है। ध्यान रखिये कि यदि रचना प्राकृतिक रूप से कहीं और जा रही है तो जबरदस्ती रेखाचित्र के मार्ग पर लाना उचित नहीं लेकिन यदि अन्य किसी कारण से भटकाव हो रहा है, जैसे आपने रचना की शैली पत्र शैली सोची हो, लेखन के समय वह पत्र शैली से ही प्रारम्भ हो, लेकिन बाद में डायरी शैली जैसी होने लगे, तब उसे तय किये गए रेखाचित्र पर वापस लाने का प्रयास कीजिये।

 

चूँकि रेखाचित्र में वर्णित उपरोक्त तत्वों पर कई लेखों में कहा जा चुका है, यहाँ इन पर कु्छ और न कहते हुए, मैं आगे बढ़ता हूँ। हालांकि इनमें से कुछ तत्वों पर मेरे अनुसार कुछ टिप्स इस लेख में आगे बताई गयी हैं।

 

6. पास्ट/फ्यूचर लाईफ रिग्रेशन:

 

अपने पात्रों की पिछली ज़िंदगी का रिग्रेशन (प्रतीपगमन) कीजिए कि वे जैसे हैं वैसे क्यों हैं? उनके शरीर की बनावट, ज़ख़्मों के निशान, चश्मे की डंडी तक के बारे में सोचिए। उस समय यह भूल जाईये कि पात्र की किसी बात को अपनी लघुकथा में शामिल करना है अथवा नहीं। उनके बारे में गहराई से सोचने पर उनके सही चरित्र को उभारने में आपको मदद मिलेगी।

 

एक प्रयोग और है, अपने कंठ से पात्रों के लिए उनके भूतकाल, चरित्र, वातावरण आदि के अनुसार अलग-अलग स्वर में संवाद कह कर उन्हें महसूस करें। लेखन के समय पात्र के चरित्र के साथ न्याय करने के अलावा जब लघुकथा का एक ड्राफ्ट तैयार हो जाएगा और आप उसे कहने का प्रयास करेंगे, तब भी यह प्रयोग उपयोगी होगा।

 

और केवल पात्रों की ही नहीं, लघुकथा में जिस क्षण को उभार रहे हैं, उसके भूत और भविष्य के क्षणों को भी अपने मन में चित्रित कीजिये।

 

7. प्रारंभ

प्रारंभ दिलचस्प और दिलकश रखिए। पाठक को आकृष्ट करने के लिए ऐसे वाक्य कहिये, जो जिज्ञासा परक हों और कुछ अलग हों।

 

उदाहरणस्वरुप "आज मैं अकेला चाय पी रहा था" को यदि यों कहें कि "चाय की पहली चुस्की लेते ही मुझे समझ में आ गया ना तो मैं अच्छी चाय बना सकता हूँ और ना ही ये भरा हुआ कप मेरा खालीपन दूर कर सकता है।" दूसरे तरह की पंक्ति में शब्द ज़्यादा ज़रूर हैं, लेकिन कुछ कलात्मक हैं और पात्र के अकेलेपन व खालीपन को बेहतर दर्शा रहे हैं। अतः पाठकों का ध्यानाकर्षण कर सकते हैं।

 

8. संवाद टैग

 

लघुकथा में संवाद टैग्स यथा ज़ोर से कहा, ‘आँख चुराते हुए बोली, ‘उसके स्वर में जोश था आदि का प्रयोग करने भर से ही कई बातों को पाठकों को अधिक कुछ कहे बिना समझाया जा सकता है। हाँ! इन टैग्स को बहुत अधिक न भरें अन्यथा रचना बोझिल होने का खतरा है। 

 

9. अंत

कोशिश करें अंत प्राकृतिक हो लेकिन पाठकों के दिल तक पहुंचे। इसके लिए अलग-अलग अंत आजमाइए। भावनात्मक, आश्चर्यचकित करता, चौंकाता, रहस्योद्घाटन करता, सुखांत/दुखांत आदि आजमाएं और दृष्टिगोचर करें कि कैसा अंत आपकी रचना के साथ उचित प्रतीत हो रहा है। चाहे अंत में अनकहा हो लेकिन स्पष्टता अंत के साथ आवश्यक है।

 

किसी चुटकुले पर विचार करें तो उसके अंत में ही हास्य उत्पन्न होता है। चुटकुले और लघुकथा में एक अंतर यह भी है कि लघुकथा के अंत में हास्य नहीं बल्कि लघुकथा का वास्तविक दर्शन उत्पन्न होता है।

 

ऐसे अंत से बचें, जिसका अनुमान पाठक रचना पढ़ते हुए ही लगा लें, ना ही ऐसा अंत रखें जो एक झटके से लघुकथा को समाप्त कर दे और पाठक उलझते रहें कि इससे आगे कु्छ और होना चहिए। रचना की सफलता-असफलता अंत पर बहुत कुछ निर्भर करती है।

 

10. प्रयोग

बाइबल में कहा गया है कि आदम एक मशीन जैसा नहीं था, वह खुद चुनाव कर सकता था कि सही क्या है और गलत क्या और आदम ने परमेश्वर की आज्ञा न मानने का फैसला किया। उसने एक नई तरह की सृष्टि की रचना की, जिसमें वह खुद जीता भी और मरता भी। इस प्रयोग से मानव जाति को लाभ हुआ या हानि, यह एक अलग विषय है लेकिन बाइबल की मानें तो प्रयोग करना हमारे सबसे पहले पूर्वज का बताया हुआ मार्ग है।

 

पूरी लघुकथा में अपने पाठक का ध्यान न बंटने देने हेतु, उसे बेहतर और सामयिक बनाने हेतु अलग-अलग प्रयोग कीजिए। नए प्रयोगों से न केवल आप सीखेंगे अपितु रचना का शिल्प भी बेहतर होगा। शैली में प्रयोग करें। मधुदीप जी ने अपनी कुछ रचनाओं को पाठक के साथ परस्पर संवादात्मक बनाया है। मैंने एक लघुकथा में विभिन्न कालखंडों को दर्शाने हेतु पुलिस फाइल का सहारा लिया था। अंत के साथ भी प्रयोग करें। कभी अपनी कल्पना से भविष्य में आने वाले समय में जाएँ और वहां के बारे में लिखें। जिन क्षेत्रों में लघुकथा न लिखी गई हो, वहां कथा-तत्व ढूंढिए। किसी पौराणिक चरित्र का चित्रण कर देखिये कि लघुकथा में ढाल सकते हैं अथवा नहीं। इसी प्रकार अलग-अलग प्रयोग कीजिये।

 

प्रयोग करने के अनुशासन का ज़रूर ध्यान रखें। कुरान में एक स्थान पर लिखा है निराधार और अनजाने कामों से परहेज़ करो। हालाँकि प्रयोग ज़रूर कीजिये लेकिन निराधार नहीं। दूसरे कोई ऐसा प्रयोग आप कर रहे हैं जिसके विषय का आपको अधिक ज्ञान नहीं है तो प्रयोग से पूर्व उस विषय का अध्ययन कीजिये।

 

11. ओवरलोड

वाहन भरने के अतिरिक्त कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग में भी ओवरलोडिंगका उल्लेख किया गया है। इसमें एक ही नाम से एक से अधिक कार्य किया जा सकता है। जैसे दो संख्याओं को जोड़ने के लिए जो प्रोग्राम (फंक्शन) लिखा गया है, उसी नाम से दो संख्याओं के गुणा आदि का फंक्शन भी लिखा जा सकता है। यहाँ यह फंक्शन एकांगी नहीं रहा। इस प्रकार की ओवरलोडिंग (एकांगी नहीं रहना) लघुकथा का मूल स्वरूप समाप्त कर देती है, इससे लघुकथा को बचा कर ही रखें।  लघुकथा के परिप्रेक्ष्य में ओवरलोडिंग का अर्थ अनावश्यक विवरण भी है और पठन में बोझिलता भी है। इन्हें हटा कर लघुकथा को कसें। दृश्य, पात्र, विवरण जिन्हें हटाने के बाद भी लघुकथा की स्पष्टता और प्रवाह बरकरार रहता है, को हटा दें।

 

12. परिष्करण

 

अपनी लघुकथा को बोलकर देखिये, इसे दोहराइए भी। यदि वह स्वयं को समझा नहीं पा रही है अथवा बोलने के प्रवाह में भी कहीं अस्पष्ट है तो उस पर और कार्य करें।

 

ठेस लगे बुद्धि बढ़े वाली उक्ति लघुकथा सृजन में भी चारितार्थ होती है। अपनी लघुकथा अन्य लेखकों से पढ़ावें और उन्हें उचित व निष्पक्ष आलोचना करने को प्रेरित करें। उनसे यह भी पूछिए कि लघुकथा ने उन्हें किस हद तक प्रभावित/अप्रभावित किया। इसके लिए इन दिनों सोशल मीडिया उत्तम स्थान है। यह लेख लिखे जाने तक मुझे सोशल मीडिया पर इस तरह का कोई समूह ज्ञात नहीं है, जहां लघुकथा लेखक अपनी अप्रकाशित लघुकथा सुधार हेतु भेज कर अन्य रचनाकारों की प्रतिक्रिया प्राप्त सकें। लेकिन मुझे विश्वास है कि निकट भविष्य में ऐसे समूह सोशल मीडिया पर अवश्य ही होंगे। इसे कार्यशाला का रूप भी दिया जा सकता है।

 

अंत में योगराज प्रभाकर जी के लेख 'लघुकथा विधा : तेवर और कलेवर'  का एक महत्वपूर्ण अंश, उन्होंने लिखा है कि "जल्दबाज़ी: काम शैतान का

 

जो विचार मन में आए उसको परिपक्व होने का पूरा समय दिया जाना चाहिए, पोस्ट अथवा प्रकाशन की जल्दबाज़ी से लघुकथा अपनी सुंदरता खो सकती है।"

 

जल्दबाज़ी न करने का अर्थ निरुत्साहित होना भी नहीं है। वाल्मीकि रामायण में एक श्लोक है:

उत्साह-उत्साहो बलवानार्य नास्त्युत्साहात्परं बलम्। सोत्साहस्य हि लोकेषु न किञ्चदपि दुर्लभम्॥

जिसका भावार्थ यह है कि 'यदि आप उत्साहपूर्वक किसी भी कार्य को करते हैं तो आपके लिए उसका संपन्न होना दुर्लभ नहीं है।' अतः उत्साहपूर्वक बिना जल्दबाज़ी के अपना रचनाकर्म कीजिये।

 

मैं यह दावा नहीं करता कि आपकी लघुकथा को बेहतर बनाने के लिए सभी युक्तियों को इस लेख में स्थान दे दिया है, किसी एक लेख में यह सम्भव भी नहीं। न सिर्फ ऐसी बल्कि इनसे बेहतर कई और युक्तियाँ आपको अन्य लेखों में, चर्चा से, साक्षात्कारों से और अपने स्वयं के मस्तिष्क-मंथन से प्राप्त हो सकती हैं। सबसे बड़ी युक्ति मैं यही मानता हूँ कि धैर्यपूर्वक अध्ययन करते रहिए, मस्तिष्क मथते रहिए और अभ्यासी बनिए।

 

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डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

346, प्रभात नगर

सेक्टर-5, हिरण मगरी

उदयपुर - 313 002  - राजस्थान

चलभाष: 9928544749

ईमेल: chandresh.chhatlani@gmail.com


(मूल रूप से 'सेतु: कथ्य से तत्व तक 'पुस्तक स. शोभना श्याम व मृणाल आशुतोष में प्रकाशित)