समकालीन लघुकथा की शुरुआत १९७० के आसपास से मानी जाये, तब भी एक विधा के रूप में यह जीवन का अर्धशतक पूरा कर चुकी है। इस दौरान इसने अपने रूप सौन्दर्य में काफी परिवर्तन- परिमार्जन किया है। संवेदना और शिल्प के स्तर पर नये-नये प्रयोग किये गये हैं और किये जा रहे हैं। हजारों रचनाएँ लिखी गई हैं, सैकड़ों संग्रह और संकलन प्रकाशित हुये हैं, अनेक पत्र-पत्रिकाओं ने लघुकथा-विशेषांक निकाले हैं; तो लघुकथा गोष्ठियों, प्रदर्शनियों आदि के माध्यम से भी इस पर खूब चर्चा-परिचर्चाएं हुईं हैं। बावजूद इसके हिंदी के आलोचकों-समालोचकों ने गंभीरता से लघुकथा पर लिखना उचित नहीं समझा है। अब आप इसे उनकी उदासीनता कह सकते हैं अथवा उपेक्षा; परन्तु वजह यही है कि हिंदी लघुकथा की आलोचनात्मक पुस्तकों का अभाव बना हुआ है।
ऐसा नहीं है कि इस क्षेत्र में बिल्कुल ही काम नहीं हुआ हो। नामवर विद्वानों के उपेक्षापूर्ण रवैए को देखते हुए स्वयं लघुकथाकार इस कार्य के लिए आगे आए हैं। लेकिन जो भी कार्य हुआ है, वह मजबूरी का ज्यादा प्रतीत होता है, क्योंकि अधिकांश आलोचनात्मक आलेख/ लेख पत्र-पत्रिकाओं के विशेषांकों, सांझा संकलनों अथवा संग्रहों की भूमिका या समीक्षा के लिए लिखे/ लिखवाये गए हैं। आलोचना के लिए आलोचना के रूप में बहुत कम कार्य हुआ है। यही कारण है कि आज तक भी तीन दर्जन से ज्यादा पुस्तकें ऐसी नहीं हैं, जिन्हें आलोचना के लिए लिखा गया हो और इनमें से भी अधिकतर ऐसी हैं, जिनमें विभिन्न अवसरों पर लिखे या लिखवाये गए लेखों को संकलित कर प्रकाशित किया गया है।
लघुकथा समीक्षा की दशा और दिशा पर विचार करते हैं, तो सबसे पहले रामेश्वरनाथ तिवारी की लघुकथा पुस्तक 'रेल की पटरियां' (१९५४) की आचार्य जगदीश पांडेय द्वारा लिखी गई भूमिका 'लघुकथा: स्वरूप निर्माता' पर दृष्टि जाती है। आचार्य पांडेय ने पहली बार इन लघुआकारीय रचनाओं को 'लघुकथा' नाम देकर उसे परिभाषित किया है और उसके कला- रूपों की चर्चा की है; जो शुद्ध रूप से लघुकथा-समीक्षा की शास्त्रीय आधार-भूमि मानी जा सकता है।
इस आलेख में आचार्य जी ने लघुकथा के विचारणीय पक्षों को सात उपशीर्षकों में बांटकर लघुकथा विधा की शास्त्रीय समीक्षा प्रस्तुत की है-(१) शीर्षक (२) पात्र और विधान की प्राख्योन्मुखता (३) कथनोपकथन (४) ज्वार- प्रतिज्वार की त्वरा (५) स्थापत्य की गहराई (६) नियताप्ति और उपराम में व्यंग्य की स्थिति और (७) शैली।[1]
उसके बाद आठवें दशक के पूर्वार्द्ध तक समीक्षा के क्षेत्र में कोई उल्लेखनीय पहल नहीं हुई। आठवें दशक में डा० शंकर पुणतांबेकर, कृष्ण कमलेश, जगदीश कश्यप, डॉ० स्वर्ण किरण, डॉ० रामनिवास मानव आदि ने समीक्षात्मक लेख लिखे। १९७७ में प्रकाशित लघुकथा संकलन 'समांतर लघुकथाएं' में बलराम का आलेख 'हिंदी लघुकथा का विकास', १९७८ में प्रकाशित 'छोटी-बडी़ बातें' में महावीर प्रसाद जैन और जगदीश कश्यप के आलेख और १९७९ में आये 'नवतारा' के लघुकथा-विशेषांक में अनिल जनविजय, जगदीश कश्यप, बालेंदु शेखर तिवारी, भूपाल उपाध्याय, राधेलाल बिजघावने और रामनारायण बेचैन के आलेख विशेष उल्लेखनीय हैं।
नौवां दशक हिंदी लघुकथा के लिए सबसे महत्वपूर्ण रहा। इसकी शुरुआत में ही १९८१ में ‘नवतारा’ का प्रतिक्रिया अंक आया। उसमें प्रकाशित आलेखों में मोहन राजेश का ‘हवा में तने मुक्के’ विशेष महत्वपूर्ण है। १९८१ में ही कृष्ण कमलेश के संपादन में ‘लघुकथा : दशा और दिशा’ आया। १९८२ में डॉ रामनिवास मानव और दर्शन दीप का सांझा लघुकथा संग्रह ‘ताकि सनद रहे’ प्रकाशित हुआ। इसमें डॉ. मानव के छः आलेख भी संग्रहित हैं। इन आलेखों में डॉ मानव ने लघुकथा की ऐतिहासिक परंपरा, उसके स्वरूप, सीमाओं तथा विकास की संभावनाओं पर महत्वपूर्ण विचार व्यक्त किए हैं। १९८२ में ही 'लघुकथा : सृजना और मूल्यांकन' आया। इसमें विक्रम सोनी, डॉ चंद्रेश्वर कर्ण, डॉ जगदीश्वर प्रसाद और डॉ बृजकिशोर पाठक के महत्वपूर्ण आलेखों द्वारा लघुकथा के विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डाला गया है। १९८३ में डॉ सतीशराज पुष्करणा के संपादन में 'लघुकथा : बहस के चौराहे पर' डॉ स्वर्ण किरण, सतीशराज पुष्करणा, महावीर प्रसाद जैन, भगीरथ और जगदीश कश्यप के समीक्षात्मक आलेखों को लेकर आया। १९८६ मेंं 'तत्पश्चात्' ( सतीशराज पुष्करणा) और 'दिशा-४' ( सं० पुष्करणा) में निशांतर के महत्वपूर्ण आलेख प्रकाशित हुए। १९८७ में मुकेश शर्मा ने 'लघुकथा समीक्षा' लघु पुस्तिका के माध्यम से लघुकथा-समीक्षा का प्रयास किया। १९८८ में 'कथा- निकष-१' पूर्ण रूप से लघुकथा-समीक्षा को समर्पित पत्रिका निकली। इसके प्रवेशांक में ही डा० शंकर पुणतांबेकर, डॉ स्वर्ण किरण, भगीरथ, सतीशराज पुष्करणा और जगदीश कश्यप के महत्वपूर्ण आलेख हैं, जो लघुकथा की सृजन-प्रक्रिया, शिल्प-शैली और संरचना एवं मूल्यांकन पर प्रकाश डालते हैं। १९८८ में अमरनाथ चौधरी अब्ज की लघु-पुस्तिका 'लघुकथा: चिंतन और प्रक्रिया' आई, जिसमें मात्र एक आलेख ही समीक्षात्मक है। १९९० में डॉ सतीशराज पुष्करणा के संपादन में 'कथादेश' और 'लघुकथा: सर्जना एवं समीक्षा' आयीं। 'लघुकथा: सर्जना और समीक्षा' में बारह आलेखों के माध्यम से लघुकथा की परंपरा, समीक्षा की समस्याओं, विधागत शास्त्रीयता, रचना प्रक्रिया, शिल्प और शैली, समीक्षा के मानक तत्व आदि पर विचार किया गया है। इसे लघुकथा समीक्षा का पहला गंभीर प्रयास कहा जा सकता है।
१९९१ में 'लघुकथा : संरचना और शिल्प' ( सं० सुरेशचंद्र गुप्त) और मुकेश शर्मा की 'लघुकथा : रचना और समीक्षा', दो महत्वपूर्ण पुस्तकें आईं अमरनाथ चौधरी अब्ज की ‘बूंद-बूंद' १९९३ में ‘चमत्कारवाद’ की घोषणा के साथ आई। लेकिन इसके आलेख 'चमत्कारवाद' के सैद्धांतिक पक्ष को स्पष्ट नहीं कर पाये हैं। परंतु अंत के कुछ आलेख महत्वपूर्ण बन पड़े हैं। १९९४ में कमलेश भट्ट कमल की 'साक्षात्' आई, जिसमें डॉ कमल किशोर गोयनका से लघुकथा पर बातचीत प्रकाशित की गई है। १९९७ में कृष्णानंद कृष्ण की 'हिंदी लघुकथा : स्वरुप और दिशा' प्रकाशित हुई। इसमें लघुकथा के क्रियात्मक पक्ष के साथ-साथ सैद्धांतिक पक्ष पर भी महत्वपूर्ण आलेख हैं। २००२ में प्रकाशित 'हिन्दी-लघुकथा: उलझते-सुलझते प्रश्र' में डॉ रूप देवगुण ने लघुकथा विषयक कुछ प्रश्नों को उठाने का सार्थक प्रयास किया है। डॉ सतीशराज पुष्करणा, कृष्णानंद कृष्ण, नरेंद्र प्रसाद नवीन और डॉ मिथिलेश कुमारी मिश्र के संयुक्त संपादन में एक बहुत ही महत्वपूर्ण पुस्तक ‘लघुकथा का सौंदर्यशास्त्र’ २००३ में आई। इसमें १० आलेखों के माध्यम से लघुकथा के विभिन्न पक्षों पर गंभीरता से विचार किया गया है। इसे हिंदी लघुकथा की दूसरी महत्वपूर्ण संकलित समीक्षा पुस्तक कहा जा सकता है। २००३ में ही डॉक्टर सी० रा० प्रसाद का शोधप्रबंध 'हिन्दी लघुकथाओं का शैक्षिक विश्लेषण' प्रकाशित हुआ है, "जो न मात्र उपयोगी है, अपितु शोधार्थियों, शिक्षकों, विद्यार्थियों और नई पीढ़ी के लघुकथा- लेखकों एवं आलोचकों हेतु यह दिशा निर्देश भी करता है।"[2]
पाँच वर्षों के अंतराल के बाद २००८ में बलराम अग्रवाल की 'समकालीन लघुकथा और प्रेमचंद' तथा डॉ शकुंतला किरण की 'हिंदी लघुकथा' पुस्तकें आईं। 'हिंदी लघुकथा' किसी एक लेखक का पहला ऐसा शोधग्रंथ है, जो ‘लघुकथा के सही स्वरूप को जानने-समझने की जिज्ञासा रखने वालों को को संतुष्ट करने की विश्वस्नीय क्षमता रखता है।’[3] ‘यह कृति लघुकथा की विधागत अंतरकथाओं एवं आलोचना-दृष्टि के संदर्भ में रामायण- महाभारत के प्रसंगों की तरह कालातीत साबित होगी।’[4]
डॉ रामकुमार घोटड़ की दो महत्वपूर्ण पुस्तकें, २००८ में 'लघुकथा विमर्श' और २०१२ में 'भारत का लघुकथा-संसार' आईं। इनमें डॉ घोटड़ ने लघुकथा विषयक अनेक बिंदुओं को स्पष्ट करने और अनेक महत्वपूर्ण जानकारियां उपलब्ध कराने का सफल प्रयास किया है। २०१२ में ही डा० शकुंतला किरण की 'हिंदी लघुकथा' के बाद दूसरा महत्वपूर्ण शोधप्रबंध डॉ सत्यवीर मानव का 'हिंदी लघुकथा: संवेदना और शिल्प' आया है। इसमें डॉ मानव ने हिंदी लघुकथा की परिभाषा, स्वरूप, उद्भव और विकास, हिंदी लघुकथा में संवेदना, हिंदी लघुकथा के शिल्प आदि का विस्तार से विष्लेषण करने के साथ-साथ २२ मानक और विशिष्ट लघुकथाकारों के लेखन के विशेष संदर्भ में हिंदी लघुकथा में संवेदना और उसके शिल्प पर भी विचार किया है। २०१४ में अशोक भाटिया की 'समकालीन हिंदी लघुकथा' और २०१५ में मुकेश शर्मा की 'लघुकथा के आयाम', दो उल्लेखनीय पुस्तकें आईं हैं। २०१५ में ही डा० पुष्पा जमुआर का 'हिंदी लघुकथा: समीक्षात्मक अध्ययन' लघुकथा विषयक समीक्षात्मक लेखों का संग्रह आया है। २००२ में डॉ कमल किशोर गोयनका की पुस्तक 'लघुकथा का व्याकरण' आई थी,इसे २०१६ में पुनः 'लघुकथा का समय' के टाइटल से प्रकाशित किया गया है। इसमें डॉ गोयनका ने लघुकथा की प्रासंगिकता, आंदोलन, सृजन-प्रक्रिया आदि पर अपने लगभग तीन दशकों के विचारों को संकलित किया है। २०१७ में दो महत्वपूर्ण उपलब्धियां—डॉ बलराम अग्रवाल की 'हिंदी लघुकथा का मनोविज्ञान' और डॉ रूप देवगुण की 'आधुनिक हिंदी लघुकथा : आधार और विष्लेषण' का प्रकाशन रहीं। 'हिंदी लघुकथा का मनोविज्ञान'समकालीन हिंदी लघुकथा के विकास को रेखांकित करने, उसका मनोवैज्ञानिक एवं मनोविश्लेषणात्मक विवेचन प्रस्तुत करने की दृष्टि से निश्चित रूप से बहुत ही महत्वपूर्ण कृति है; तो 'आधुनिक हिंदी लघुकथा: आधार और विष्लेषण' में ६१ लघुकथाकारों के पत्र-साक्षात्कारों के आधार पर लघुकथा के परिदृश्य का विष्लेषण किया गया है। २०१८ में डॉ अशोक भाटिया की 'परिंदे पूछते हैं (लघुकथा विमर्श)' और भगीरथ परिहार की 'हिंदी लघुकथा के सिद्धांत' पुस्तकें आईं हैं। 'परिंदे पूछते हैं' में डॉ भाटिया ने लघुकथा विषयक करीब अस्सी ज़रूरी सवालों के जवाब विस्तारपूर्वक सहज- सरल भाषा में दिये हैं। लघुकथा की सैद्धांतिक और व्यावहारिक पक्ष को समझने के इसी क्रम में बलराम अग्रवाल की ‘परिंदों के दरमियां’ महत्वपूर्ण है तो 'हिंदी लघुकथा के सिद्धांत' में भगीरथ परिहार ने लघुकथा विधा के समक्ष समय-समय पर आई चुनौतियों को लक्ष्य कर पिछले चालीस वर्षों में लिखे गए उनके लेखों को संकलित किया है। २०१८ में ही एक और श्रेष्ठ कृति डॉ जितेन्द्र जीतू की ‘समकालीन लघुकथा का सौंदर्यशास्त्र और समाजशास्त्रीय सौंदर्यबोध’ प्रकाशित हुई है।
पाँच वर्षों के अंतराल के बाद २००८ में बलराम अग्रवाल की 'समकालीन लघुकथा और प्रेमचंद' तथा डॉ शकुंतला किरण की 'हिंदी लघुकथा' पुस्तकें आईं। 'हिंदी लघुकथा' किसी एक लेखक का पहला ऐसा शोधग्रंथ है, जो ‘लघुकथा के सही स्वरूप को जानने-समझने की जिज्ञासा रखने वालों को को संतुष्ट करने की विश्वस्नीय क्षमता रखता है।’[3] ‘यह कृति लघुकथा की विधागत अंतरकथाओं एवं आलोचना-दृष्टि के संदर्भ में रामायण- महाभारत के प्रसंगों की तरह कालातीत साबित होगी।’[4]
डॉ रामकुमार घोटड़ की दो महत्वपूर्ण पुस्तकें, २००८ में 'लघुकथा विमर्श' और २०१२ में 'भारत का लघुकथा-संसार' आईं। इनमें डॉ घोटड़ ने लघुकथा विषयक अनेक बिंदुओं को स्पष्ट करने और अनेक महत्वपूर्ण जानकारियां उपलब्ध कराने का सफल प्रयास किया है। २०१२ में ही डा० शकुंतला किरण की 'हिंदी लघुकथा' के बाद दूसरा महत्वपूर्ण शोधप्रबंध डॉ सत्यवीर मानव का 'हिंदी लघुकथा: संवेदना और शिल्प' आया है। इसमें डॉ मानव ने हिंदी लघुकथा की परिभाषा, स्वरूप, उद्भव और विकास, हिंदी लघुकथा में संवेदना, हिंदी लघुकथा के शिल्प आदि का विस्तार से विष्लेषण करने के साथ-साथ २२ मानक और विशिष्ट लघुकथाकारों के लेखन के विशेष संदर्भ में हिंदी लघुकथा में संवेदना और उसके शिल्प पर भी विचार किया है। २०१४ में अशोक भाटिया की 'समकालीन हिंदी लघुकथा' और २०१५ में मुकेश शर्मा की 'लघुकथा के आयाम', दो उल्लेखनीय पुस्तकें आईं हैं। २०१५ में ही डा० पुष्पा जमुआर का 'हिंदी लघुकथा: समीक्षात्मक अध्ययन' लघुकथा विषयक समीक्षात्मक लेखों का संग्रह आया है। २००२ में डॉ कमल किशोर गोयनका की पुस्तक 'लघुकथा का व्याकरण' आई थी,इसे २०१६ में पुनः 'लघुकथा का समय' के टाइटल से प्रकाशित किया गया है। इसमें डॉ गोयनका ने लघुकथा की प्रासंगिकता, आंदोलन, सृजन-प्रक्रिया आदि पर अपने लगभग तीन दशकों के विचारों को संकलित किया है। २०१७ में दो महत्वपूर्ण उपलब्धियां—डॉ बलराम अग्रवाल की 'हिंदी लघुकथा का मनोविज्ञान' और डॉ रूप देवगुण की 'आधुनिक हिंदी लघुकथा : आधार और विष्लेषण' का प्रकाशन रहीं। 'हिंदी लघुकथा का मनोविज्ञान'समकालीन हिंदी लघुकथा के विकास को रेखांकित करने, उसका मनोवैज्ञानिक एवं मनोविश्लेषणात्मक विवेचन प्रस्तुत करने की दृष्टि से निश्चित रूप से बहुत ही महत्वपूर्ण कृति है; तो 'आधुनिक हिंदी लघुकथा: आधार और विष्लेषण' में ६१ लघुकथाकारों के पत्र-साक्षात्कारों के आधार पर लघुकथा के परिदृश्य का विष्लेषण किया गया है। २०१८ में डॉ अशोक भाटिया की 'परिंदे पूछते हैं (लघुकथा विमर्श)' और भगीरथ परिहार की 'हिंदी लघुकथा के सिद्धांत' पुस्तकें आईं हैं। 'परिंदे पूछते हैं' में डॉ भाटिया ने लघुकथा विषयक करीब अस्सी ज़रूरी सवालों के जवाब विस्तारपूर्वक सहज- सरल भाषा में दिये हैं। लघुकथा की सैद्धांतिक और व्यावहारिक पक्ष को समझने के इसी क्रम में बलराम अग्रवाल की ‘परिंदों के दरमियां’ महत्वपूर्ण है तो 'हिंदी लघुकथा के सिद्धांत' में भगीरथ परिहार ने लघुकथा विधा के समक्ष समय-समय पर आई चुनौतियों को लक्ष्य कर पिछले चालीस वर्षों में लिखे गए उनके लेखों को संकलित किया है। २०१८ में ही एक और श्रेष्ठ कृति डॉ जितेन्द्र जीतू की ‘समकालीन लघुकथा का सौंदर्यशास्त्र और समाजशास्त्रीय सौंदर्यबोध’ प्रकाशित हुई है।
२०१९ लघुकथा-समीक्षा की दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण वर्ष रहा। इस वर्ष योगराज प्रभाकर द्वारा संपादित ‘लघुकथा : रचना-प्रक्रिया’ पुस्तक आई, जो लघुकथा की सृजन-प्रक्रिया से जुड़े योगराज प्रभाकर के विभिन्न प्रश्नों के लघुकथाकारों द्वारा दिये गये जवाबों का पुस्तक रूप है। अशोक भाटिया की ‘लघुकथा : आकार और प्रकार’, बलराम अग्रवाल की ‘लघुकथा का प्रबल-पक्ष’ एवं डॉ सत्यवीर मानव की ‘हिंदी लघुकथा : संवेदना और शिल्प’ का द्वितीय संस्करण भी आया है। रामेश्वर कांबोज हिमांशु की ‘लघुकथा का वर्तमान परिदृश्य’ तथा सुकेश साहनी की ‘लघुकथा : सृजन और रचना-कौशल’ लघुकथा के विविध पक्षों का विशिष्ट विवेचन प्रस्तुत करने का प्रयास करती हैं। इसी वर्ष लघुकथा केन्द्रित साक्षात्कारों की दो महत्वपूर्ण पुस्तकें भी आईं। इनमें एक है—कल्पना भट्ट द्वारा संपादित ‘लघुकथा संवाद’ तथा दूसरी है—डॉ॰ लता अग्रवाल द्वारा संपादित ‘अनुगूँज’। ये सभी पुस्तकें लघुकथा विधा को सांगोपांग समझने का सुअवसर प्रदान करती है ।
२०२० की शुरुआत भी अच्छी रही है। डॉ बलराम अग्रवाल की 'लघुकथा : चिंतन-अनुचिंतन' और डॉ सतीशराज पुस्करणा की ‘हिन्दी लघुकथा की प्रविधि’ प्रकाशित हो चुकी हैं।
उपर्युक्त पुस्तकों के अतिरिक्त ‘बीसवीं सदी की लघुकथाएँ’ ( सं० बलराम) और मधुदीप द्वारा प्रस्तुत 'पड़ाव और पड़ताल' जैसी पुस्तक-श्रृंखलाओं में भी महत्वपूर्ण समीक्षात्मक आलेख उपलब्ध हैं। डॉ रामनिवास मानव, डॉ सतीशराज पुष्करणा, डॉ रामकुमार घोटड़, सुकेश साहनी आदि के लघुकथा-साहित्य पर स्वतंत्र रूप से भी समीक्षात्मक पुस्तकें आ चुकी हैं। परंतु लघुकथा के विशाल साहित्य-भंडार को देखते हुए अभी बहुत अधिक कार्य किया जाना शेष है।
- डॉ. सत्यवीर मानव
मोबाइल : 9416238131
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१- हिंदी लघुकथा: स्वरूप और दिशा, कृष्णानंद कृष्ण, पृष्ठ-१२४
२- डॉ. सतीशराज पुष्करणा, हिंदी लघुकथाओं का शैक्षिक विश्लेषण के फ्लेप पर टिप्पणी.
३- डॉ. बलराम अग्रवाल, 'हिंदी लघुकथा' का अग्रलेख, पृष्ठ-२.
४- डॉ. सतीश दूबे, 'हिंदी लघुकथा' की भूमिका, पृष्ठ-२
मोबाइल : 9416238131
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१- हिंदी लघुकथा: स्वरूप और दिशा, कृष्णानंद कृष्ण, पृष्ठ-१२४
२- डॉ. सतीशराज पुष्करणा, हिंदी लघुकथाओं का शैक्षिक विश्लेषण के फ्लेप पर टिप्पणी.
३- डॉ. बलराम अग्रवाल, 'हिंदी लघुकथा' का अग्रलेख, पृष्ठ-२.
४- डॉ. सतीश दूबे, 'हिंदी लघुकथा' की भूमिका, पृष्ठ-२