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बुधवार, 27 नवंबर 2024

वैश्विक सरोकार की लघुकथाएं | भाग 15 | विषय: जल

सम्माननीय प्रबुद्धजन,

हमारे जीवन का सबसे ज़रूरी हिस्सा कौन सा है? अगर आप सोच रहे हैं कि मोबाइल, इंटरनेट, या चाय—तो रुकिए ज़रा! असली चीज़ है "पानी"। लेकिन आजकल पानी खुद इतनी परेशानी में है कि उसे हमारे सहारे की ज़रूरत है। जीवन का यह मूलभूत संसाधन कमी, प्रदूषण और कुप्रबंधन के कारण वैश्विक चिंता का विषय बनता जा रहा है। चूंकि दुनिया अभूतपूर्व जल संकट का सामना कर रही है, इसलिए इसकी जटिलताओं और इन चुनौतियों को संबोधित करने में हमारी और सभी की भूमिका को समझना पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। प्राचीन सभ्यताएं, जो नदियों के किनारे पनपी थीं, से लेकर आज की आधुनिक चुनौतियों तक जल सदा से ही भारतवर्ष की उन्नति और समृद्धि के केंद्र में रहा है।

अथर्ववेद में जल की स्वच्छता एवं सुरक्षा बनाये रखने के लिए कुछ इस तरह से प्रार्थना की है:

या आपो दिव्या उत वा स्रवन्ति
खनित्रिमा उतवा स्वयं जाः
समुद्रार्था या षुचयः पवकास्।
ता आपो देवीरिह मामवन्तु।।

जल से सम्बन्धित मुख्य वैश्विक मुद्दे

मुझे लगता है कि पानी अगर बोल पाता तो शायद कुछ ऐसा कहता, "मैं हर जगह हूं, फिर भी हर जगह नहीं हूं। कहीं बर्बाद किया जाता हूं, तो कहीं लोग मेरी एक बूंद के लिए तरसते हैं। कितने लोग तो ऐसे भी हैं जिन्हें देखते हुए मुझे लगता है कि, नल चालू तो उनका दिमाग बंद हो जाता है।

उपरोक्त बात पर विचार करते हुए कुछ वैश्विक मुद्दों पर बात करते हैं, जो जल से सम्बंधित हैं।

जल की कमी: वास्तव में दुनिया के 70% हिस्से में पानी है, लेकिन पीने लायक सिर्फ 1%, बाकी तो या तो नमकीन है या खारा। 2 बिलियन से अधिक लोग उच्च जल टेंशन वाले क्षेत्रों में रहते हैं। तेजी से बढ़ती जनसंख्या, शहरीकरण, अपर्याप्त जल संबंधी इन्फ्रास्ट्रक्चर और भूजल के अत्यधिक दोहन से जल की मांग आपूर्ति से ज़्यादा हो रही है और इसने ताजे पानी की कमी को और बढ़ा दिया है।
इसके अलावा, "बॉटल का पानी प्योर है," कहने वाले ये नहीं जानते कि एक लीटर बोतल बनाने में 3 लीटर पानी लगता है। कुल मिलाकर, जो बचा रहे हैं, वही बर्बाद कर रहे हैं।

जल प्रदूषण: औद्योगिक अपशिष्ट, कृषि अपवाह और अनुपचारित सीवेज जल प्रदूषण में प्रमुख योगदानकर्ता हैं, जो जल निकायों को विषाक्त और उपभोग या कृषि के लिए अनुपयुक्त बनाते हैं।

जलवायु परिवर्तन: जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा के पैटर्न में बदलाव, बढ़ते तापमान और पिघलते ग्लेशियरों ने जल चक्रों को बाधित किया है, जिससे सूखा और बाढ़ आ रही है।

जल की स्वच्छता और गुणवत्ता :  हर 10 में से 1 इंसान साफ पानी से दूर है। मतलब, करोड़ों लोग रोज़ पानी के लिए लाइन लगाते हैं, जैसे टिकट के लिए लगाते थे।  वैश्विक प्रयासों के बावजूद, लगभग 771 मिलियन लोगों के पास सुरक्षित पेयजल तक पहुँच नहीं है। यह मुद्दा हाशिए पर पड़े और कम आय वाले समुदायों को असमान रूप से प्रभावित करता है। पानी में कई तरह की गंध और स्वाद पानी की गुणवत्ता को बताते हैं। जैसे कि, सड़े हुए अंडे या सल्फ़र की गंध या स्वाद हाइड्रोजन सल्फ़ाइड की मौजूदगी का संकेत देता है।

सीमा पार जल संघर्ष: नील, सिंधु और मेकांग जैसे देशों के बीच साझा नदियाँ और जल निकाय, प्रतिस्पर्धी माँगों और न्यायसंगत समझौतों की कमी के कारण तनाव के स्रोत रहे हैं। भारत में भी अंतरराज्यीय जल विवाद है, देश  की ज़्यादातर नदियां एक से ज़्यादा राज्यों से होकर बहती हैं, इसलिए हर राज्य अपनी सीमा के अंदर बहने वाली नदियों के पानी का ज़्यादा से ज़्यादा इस्तेमाल करना चाहता है। इससे अंतरराज्यीय जल विवाद पैदा होता है। पानी भी सोचता होगा, "भाई, मुझे शांति से बहने दो, इंसानों!"

जलजनित बीमारियां: दूषित पानी से हैज़ा और टाइफ़ाइड जैसी बीमारियां हो सकती हैं। आंकड़ों के अनुसार भारत में सबसे अधिक स्वास्थ्य समस्याएं जलजनित बीमारियों से आती हैं।

इनके अतिरिक्त, पारिस्थितिक तंत्र के संतुलन और जलवायु परिवर्तन को न्यूनतम करने के लिए भी जल-सरंक्षण की आवश्यकता है।

परिवर्तनकर्ताओं का योगदान

कई विद्वान, शोधकर्ता और वैज्ञानिक यह सुनिश्चित करने के लिए अथक प्रयास कर रहे हैं कि भारत के जल संसाधनों का प्रबंधन आने वाली पीढ़ियों के लिए कुशलतापूर्वक और स्थायी रूप से किया जाए। इनमें से कुछ पर बात करते हैं,

भारत के जलपुरुष - डॉ. राजेंद्र सिंह:

भारत के जलपुरुष के रूप में जाने जाने वाले मेग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित डॉ. राजेंद्र सिंह ने पारंपरिक वर्षा जल संचयन तकनीकों का उपयोग करके राजस्थान में कई नदियों को पुनर्जीवित किया है। उनके जमीनी प्रयासों ने सूखाग्रस्त क्षेत्रों में जल सुरक्षा बहाल की है और वैश्विक स्तर पर इसी तरह की पहल को प्रेरित किया है।

ग्रेटा थनबर्ग:

ग्रेटा थनबर्ग जैसे समर्पित कार्यकर्ता जल संसाधनों की सुरक्षा के लिए जलवायु परिवर्तन को संबोधित करने के महत्व पर जोर देते हैं। उनके प्रयासों ने स्थायी जल नीतियों की आवश्यकता को बढ़ाया है।

स्थानीय समुदाय और गैर सरकारी संगठन: 

मैट डेमन द्वारा सह-स्थापित water.org जैसे संगठन जल और स्वच्छता परियोजनाओं के लिए माइक्रोफाइनेंसिंग पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जिससे सभी को सुरक्षित जल तक पहुँच पाए।

वैज्ञानिक और नवप्रवर्तक:

जल शोधन तकनीकों में प्रगति, जैसे कि विलवणीकरण और सौर ऊर्जा से चलने वाले filtration, शुष्क क्षेत्रों में जल की कमी को दूर करने में गेम-चेंजर हैं। कई वैज्ञानिक और नवप्रवर्तक इस कार्य में रत हैं।

जल मुद्दों के समाधान 

1. सरकारों को सख्ती से जल नीतियों को लागू करना चाहिए जो संरक्षण, समान वितरण और प्रदूषण नियंत्रण को प्राथमिकता दें। 

2. वर्षा जल संचयन जैसी स्वदेशी जल प्रबंधन प्रथाओं को कृत्रिम recharge जैसी आधुनिक तकनीकों के साथ मिलाने से भूजल स्तर में वृद्धि हो सकती है। 

3. बड़े स्तर पर लोगों को जल संरक्षण, कुशल उपयोग और प्रदूषण की रोकथाम के बारे में शिक्षित करना दीर्घकालिक परिवर्तन का आधार बन सकता है।

4. अंतर्देशीय और अंतराज्यीय  जल समझौतों को सशक्त करना और जल निकायों में shared governance को बढ़ावा देना झगड़ों को कम कर सकता है।

5. बांध, नहरें और treatment plants जैसे जल infrastructure का विकास, उपलब्धता और पहुंच सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है।

एक अन्य वास्तविक उदाहरण:

छत्तीसगढ़ के महासमुंद जिले के दूरस्थ वनांचल क्षेत्र में स्थित हरदा गांव में पीने के पानी की समस्या को जल जीवन मिशन के तहत किए गए सफल प्रयासों से उस गांव को “हर घर जल“ गांव के रूप में घोषित कर दिया गया है।

हम क्या करें?

  • ज़रूरत के मुताबिक ही पानी का इस्तेमाल करें। 
  • पानी का रिसाव होने पर उसकी जांच करें और उसे ठीक करें। 
  • नहाने का वक्त थोड़ा कम करें। दाढ़ी बनाते समय या वॉशबेसिन का प्रयोग करते समय, नल पर भी दिमाग लगाएं।
  • कम पानी गरम होने वाले धीमे शॉवर हेड का इस्तेमाल करें। 
  • हर बार टॉयलेट फ्लश करने में 6 लीटर पानी जाता है। इसका समझदारी से प्रयोग करें। कम फ़्लश या दोहरे फ़्लश वाले शौचालय का इस्तेमाल करें। 
  • शौचालय में पानी देने के लिए खारे पानी या बरसाती पानी का इस्तेमाल करें। 
  • पानी की बोतल में बचा पानी फेंकने की बजाय पौधों को सींचने में इस्तेमाल करें। 
  • सब्ज़ियां और फल धोने के पानी से फूलों और सजावटी पौधों को सींचें। 
  • पानी के हौज़ को खुला न छोड़ें। 
  • तालाबों, नदियों, या समुद्र में कूड़ा न फेंकें। 
  • पुरानी तरकीबें अपनाएं, जैसे राजस्थान के जोहड़ और कुवों की परंपरा। 

     .... आदि-आदि

मित्रों, पानी की एक-एक बूंद को संजोना सीखें। कुल मिलाकर पानी का कुशलतापूर्वक उपयोग करें।

जल मुद्दों पर साहित्य सृजन

अनेक पुस्तकें और अध्ययन जल संकट की जटिलताओं पर प्रकाश डालते हैं और समाधान प्रस्तुत करते हैं।

चार्ल्स फिशमैन द्वारा सृजित "The Big Thirst" पुस्तक जल की प्रचुरता और कमी के मध्य विरोधाभास की पड़ताल करती है और इस बात पर प्रकाश डालती है कि हम सभी जल के साथ अपने संबंधों पर कैसे पुनर्विचार कर सकता हैं?

"When the Rivers Run Dry" फ्रेड पीयर्स द्वारा लिखी गई है जो, वैश्विक जल संकट पर एक सम्मोहक कथा, नदियों और जल प्रणालियों पर मानवीय क्रियाओं के प्रभाव को प्रदर्शित करती है।

मौड बार्लो ने "Blue Covenant" शीर्षक से एक पुस्तक लिखी है, जो जल की राजनीति पर एक आवश्यक पुस्तक है। इसमें जल को एक मौलिक मानव अधिकार के रूप में मान्यता देने की वकालत की गई है।

वंदना शिवा द्वारा लिखी गई "Water Wars" पुस्तक जल संसाधनों पर संघर्षों की जांच करती है और टिकाऊ और लोकतांत्रिक प्रबंधन की आवश्यकता पर जोर देती है।

भारत के जलपुरुष जल पर आधारित कई पुस्तकों के रचियता हैं। इनमें विरासत स्वराज यात्रा, बाढ़ व सुखाड़ जैसी पुस्तकें बहुत कुछ स्पष्ट करती हैं।

जल सम्बंधित लघुकथाएं:

खारा पानी / सुकेश साहनी

दाहिने हाथ में शकुनक-दंड [डिवाइनिंग-राड] थामे, धीरे-धीरे कदम बढ़ाते बूढ़े सगुनिया का मन काम में नहीं लग रहा था।इस जमीन पर कदम रखते ही उसकी अनुभवी आँखों ने उन पौधों को खोज लिया था, जो ज़मीन के नीचे मीठे पानी के स्रोत के संकेतक माने जाते हैं। अब बाकी का काम उसे दिखावे के लिए ही करना था। उसकी नज़र लकड़ी के सिरे पर लटकते धागे के गोले से अधिक वहाँ खड़े उन बच्चों की ओर चली जाती थी, जिनके अस्थिपंजर-से शरीरों पर मोटी-मोटी गतिशील आँखें ही उनके जीवित होने का प्रमाण थीं। कोई बड़ा-बूढ़ा ग्रामवासी वहां दिखाई नहीं दे रहा था। जहाँ तक नज़र जाती थी,मुख्यमंत्री के ब्लैक कमांडो फैले हुए थे। प्रशासन ने मुख्यमंत्री की सुरक्षा को दृष्टिगत रखते हुए वहां के वृक्षों को कटवा दिया था।

बड़ी-सी छतरी के नीचे बैठे मुख्यमंत्री उत्सुकता से सगुनिया की कार्यवाही को देख रहे थे। गृह सचिव के अलावा अन्य छोटे-बड़े अफसरों की भीड़ वहाँ मौजूद थी।

काम पूरा होते ही सगुनिया मुख्यमंत्री के नज़दीक आकर खड़ा हो गया।

“तुम्हारी जादुई लकड़ी क्या कहती है।” बूढ़े ने बताया।

सचिव ने खुश होकर मुख्यमंत्री को बधाई दी। मुख्यमंत्री अभी भी संतुष्ट नज़र नहीं आ रहे थे। पिछली दफा फार्म हाउस के लिए ज़मीन का चुनाव करते हुए उन्होंने पूरी सावधानी बरती थी, पानी का रासायनिक विश्लेषण भी कराया था। परीक्षण रिपोर्ट के अनुसार पानी बहुत बढ़िया था, पर फार्म हाउस के बनते-बनते ज़मीन के नीचे का पानी खारा हो गया था। हारकर उनको न्ए सिरे से फार्म हाउस के लिए मीठे पानी वाली ज़मीन की खोज करवानी पड़ रही थी।

“आगे चलकर पानी खारा तो नहीं हो जाएगा?” इस बार मुख्यमंत्री ने बूढ़े से पूछा।

“इसके लिए ज़रूरी है कि आँसुओं की बरसात को रोका जाए।” बूढ़े ने क्षितिज की ओर ताकते हुए धीरे से कहा।

“आँसुओं की बरसात?” सचिव चौंके।

“ऐसा तो कभी नहीं सुना।” मुख्यमंत्री के मुँह से निकला।

“इस बरसात के बारे में जानने के लिए ज़रुरी है कि मुख्यमंत्री जी भी उसी कुँए से पानी पिएँ जिससे कि प्रदेश की जनता पीती है।” कहकर बूढ़े ने शकुनक-दंड अपने कंधे पर रखा और समीपस्थ गाँव की ओर चल दिया।

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- सुकेश साहनी


दशरथ जल / अनिल मकारिया 

पीने लायक पानी के स्त्रोत जब गिने-चुने ही बचे तब उन पर वर्चस्व हेतु दुनिया के कई देश व संगठन एक-दूसरे पर हमला करने लगे। इन हमलों की एक बड़ी वजह यह भी थी कि ऐसे युद्धों से प्रायः पानी वाले प्रदेशों में स्थित एक बड़ी आबादी का सफाया हो जाता जिससे सत्ताधीशों द्वारा पानी का विभाजन बची हुई आबादी के बीच करना आसान होता। जिस गाँव के अधिकतर युवा इस तरह के युद्धों में खेत रहे थे, उसी गाँव के जलाशय से पहरा उठवाकर सत्ताधीशों ने पीने का पानी गाँव वालों में बाँटने का आदेश दे दिया ।

लेकिन जब कोई भी अपने हिस्से का पानी लेने नहीं पहुँचा तब एक पत्रकार ने गाँव की विधवा महिला से इस बाबत पूछताछ की,

" गाँववालों के लिए जलाशय के पानी को बाँटने का आदेश आया है ! क्या आपको पीने का 'मीठा' पानी मिला ?" पत्रकार का जोर 'मीठा' शब्द पर अधिक था।

"नहीं !... हमें अब अनायास ही आँखों से मुँह तक पहुँचते खारे पानी को पीने की आदत पड़ चुकी है।" नमकीन पानी का ज्वार-भाटा अब उस महिला के स्वर में साफ दिख रहा था।

"नदी, तालाब के पानी का स्वाद, खारे पानी से तो बेहतर ही होता है। " पत्रकार कुरेदकर खुशी निकालना चाहती थी ।

"मीठे पानी का स्वाद अब अपनों के खून-सा लगने लगा है।" और महिला का गम था कि कम होने का नाम नहीं ले रहा था ।

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- अनिल मकारिया 


दो बूँदें जल की / अंशु श्री सक्सेना

आज मानसून ने पहली दस्तक दी है । रमा सूखे कपड़े लेकर कमरे में आयी तो देखा उसकी सात वर्षीया पोती इशी, खिड़की से अपने दोनों हाथ बाहर निकाल कर अपनी नन्ही नन्ही हथेलियों के बीच बारिश की बूँदे सहेजने का प्रयास कर रही है । मैं उसे देख कर हँस पड़ी और बोली “ ये क्या कर रही है लाडो ?”

“ पानी की बूँदे सहेज रही हूँ दादी....मेरी टीचर जी ने बताया है कि हमारी धरती से पीने वाला पानी बहुत तेज़ी से ख़त्म हो रहा है....हमारी नदियाँ, तालाब, कुएँ, सब सूख रहे हैं....तो जब हमें भगवान जी पानी देते हैं तो उसको हमें सहेज कर रख लेना चाहिये....हमारी टीचर जी कहती हैं कि जल की दो बूँदे आपके सोने के झुमके से भी ज़्यादा क़ीमती हैं...सच में दादी ?” इशी ने अपनी बालसुलभ चंचलता में मेरे झुमके हिलाते हुए पूछा।

“ हाँ लाडो “ मैंने हँस कर उत्तर दिया और अपने आँगन और बरामदे मेँ रेन वॉटर हारवेस्टिंग के लिये गड्ढे बनवाने के निर्णय ले लिया । 

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- अंशु श्री सक्सेना


पानी / नीना सिन्हा

“रधवा के माई! ओलावृष्टि और बेमौसम की बरसात से सारी फसल खराब हो गई है। क्यों न शहर चलें? दिहाड़ी मज़दूरी मिल जाएगी। साथी ने रहने की जगह खोज रखी है। बच्चों को भूखा कैसे रखें?”

“ठीके है रधवा के बापू! और कुच्छो नहीं सूझ रहा है?”

दोपहर होते-होते सीमित गृहस्थी समेटकर पास के शहर जा पहुँचे। अंधियारा कमरा एक छोटी सी बस्ती में, धूल और गंदगी से भरा हुआ; एक कोने में सामान जमाया, बेटे को कहा कि खाली डिब्बों में कुछ पानी भर लाए, ताकि कमरा धुल सके।

“माँ! इतने सारे डिब्बों में पानी मैं अकेला कैसे ला सकूँगा?”

“तू चल बेटा! तेरी बहन को पीछे से भेजती हूँ, अभी मेरी मदद कर रही है। झाड़ू लगाकर धोने से ही कमरा रात में सोने योग्य होगा।”

वह नल पर गया, सप्लाई का पानी जा चुका था। पता लगा, आधा किलोमीटर दूरी पर एक चापाकल है।

“बच्चे! अगर जरूरी हो चापाकल से ले आओ, नहीं तो शाम को पानी आता है।”किसी ने सलाह दी।

उसने वापस जाकर माँ को बताया और चल पड़ा। रास्ते में नजर एक वाटर पार्क पर पड़ी; एक फव्वारे से पानी तेजी से ऊपर जाकर वापस गिर रहा था। गिरते पानी में कुछ लोग उछल कूद मचा कर नहा रहे थे। ऐसी जगह सिर्फ टीवी पर देखी थी।

गार्ड से पूछा, “चाचा! क्या यहाँ से पानी ले सकता हूँ?”

“नहीं बच्चे! यह मनोरंजन की जगह है, पानी लेने की नहीं?”

“मुझे आधा किलोमीटर पैदल चलना पड़ेगा। मुझे पानी लेने दीजिए।”

“अंदर जाने की फीस ढाई सौ है, दे सकते हो? यहाँ चारों ओर सीसीटीवी कैमरे लगे हैं, गलती होते ही मेरी नौकरी चली जाएगी।”

“जब बस्ती के नल में पानी नहीं आ रहा है, तो यहाँ इतना सारा पानी कैसे आ रहा है?”

“बच्चे! ये अमीर लोगों की जगह है? यहाँ पानी जमा करके रखा जाता है।”

“चाचा! क्या भगवान भी अमीर-गरीब का फर्क करके पानी देते हैं? हमारी बस्ती में नल सूखा है और अमीरों के नल से पानी इतनी तेजी से आ रहा है, क्यों?”

तब तक माँ-बहन पीछे से पहुँच गईं और उसे कानों से खींचकर आगे ले गईं।

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- नीना सिन्हा


निष्कर्षतः, जल वैश्विक रूप से एक साझा संसाधन है और वैश्विक जल चुनौतियों का समाधान करने के लिए सामूहिक जिम्मेदारी की आवश्यकता है। व्यक्तियों, समुदायों, सरकारों और वैश्विक संगठनों को इस महत्वपूर्ण संसाधन को स्थायी रूप से संरक्षित, प्रबंधित और साझा करने के लिए एकजुट होना चाहिए। डॉ. राजेंद्र सिंह जैसे व्यक्तियों के प्रयास हमें याद दिलाते हैं कि बदलाव जमीनी स्तर से शुरू होता है और प्रतिबद्धता व नवाचार के साथ, जल-सुरक्षित भविष्य हासिल किया जा सकता है।

बुधवार, 23 फ़रवरी 2022

लघुकथा संग्रह समीक्षा | कितना-कुछ अनकहा | समीक्षक: अनिल मकारिया | लेखिका: कनक हरलालका

विचारक बन पाना आसान बात नहीं है और वो भी साहित्य में, जहां आपके समक्ष कई महारथी सितारे सदृश चमक रहे हों। ऐसे में अपने विचारों में ताज़गी और नयापन ही आपकी कलम को प्रकाशित कर सकते हैं। अनिल मकारिया से मेरी पहचान यों तो एक अच्छे लघुकथाकार के रूप में हुई थी लेकिन कुछ ही समय में उनकी समीक्षा करने की शैली में एक ऐसी ताज़गी का अनुभव हुआ जिससे मैं प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाया। कनक हरलालका के लघुकथा संग्रह 'कितना-कुछ अनकहा' की समीक्षा आपने चार भागों में की है और लगभग सभी रचनाओं पर अपनी बात रखी है। इस तरह की समीक्षा, मैं मानता हूँ कि, सभी के समक्ष आनी चाहिए। समीक्षा के चारों भाग यहाँ भी प्रस्तुत हैं:

लघुकथा संग्रह: कितना-कुछ अनकहा

समीक्षक: अनिल मकारिया

लेखिका: कनक हरलालका

प्रकाशन : दिशा प्रकाशन, दिल्ली

मूल्य : ₹३००

पृष्ठ : १२०


भाग-1

एक 65 साला इंसानी जुर्रत है जो अपनी रचनाओं के बाबत लिखती हैं, "लघुकथारूपी रस्सियों से आसमान को बांधकर ज़मीन पर लाने का यह मेरा एक प्रयास मात्र है।"

मुझे आश्चर्य है की जब इनकी हमजातें सास-बहू के विवाद और अमलतास-हरसिंगार की प्रेम कहानियां लिख रही होंगी तब यह जुर्रत 'गांधी को किसने मारा?' 'मिट्टी' और 'इनसोर' रच रही थी।

शालीन और मौन जुर्रत की अगर कोई इंसानी पहचान होती तो शायद वह कनक हरलालका के नाम से जानी जाती।

इस पुस्तक का लेखकीय व्यक्तव्य पढ़ने से पहले भी मुझे जर्रा भर शुबहा नही था कि कनक जी की कलम पर पवन जैन सर के अदब की रहबरी है।

किसी भी लेखक/लेखिका की जनप्रियता इस बात पर भी निर्भर करती है कि वह खुद को किस तरह से प्रस्तुत करता है?

आजकल खुद को प्रस्तुत करने के मायने fb वॉल या इंस्टा की तस्वीरें हैं लेकिन यहां पर मेरा सवाल लेखन द्वारा प्रस्तुत करने से संबंधित है।

आप जब किताबों में जादू और तिलस्म पढ़ने की ख्वाहिश रखते हैं तो अनायास ही जे.के रोलिंग का नाम जादुई झाड़ू पर सवार आपके दिमाग के इर्द-गिर्द घूमने लगता है। उसी प्रकार चेतन भगत युवा वर्ग और नए दौर के लेखन का परिचायक बन चुके हैं क्योंकि इन्होंने इस तरह के ही लेखन द्वारा खुद को प्रस्तुत किया है।

अनकहा केवल कनक जी के लघुकथा लेखन का ही परिचायक नही है बल्कि उनके द्वारा सोशल साइट्स की हर बहस-मुबाहिसा में भी स्वंय को अनकहा ही रखना खुद के शालीन प्रस्तुतिकरण का स्थापन है।

इस लघुकथा संग्रह के बारे में मधुदीप सर की लिखी इन पंक्तियां से भी मैं इतेफाक रखता हूँ,

'इन लघुकथाओं को पढ़कर हम विधा(लघुकथा विधा) की ताकत को सहज ही समझ सकते हैं।'

'कितना-कुछ अनकहा' शीर्षक लेखिका की लघुकथाओं का ही नही वरन् लेखिका के व्यक्तित्व का भी प्रतिनिधित्व कर रहा है और शीर्षक के ऐन नीचे बना चित्र भी खुद का अनकहा ही व्यक्त कर रहा है।

 चित्र में पति-पत्नी-बच्चे के सामाजिक त्रिकोण के बीच में फंसी लाल बिंदी के बहते आंसू एवं गुबार उस त्रिकोण की सीमा रेखा को लांघते साफ दिख रहे हैं।

 पढ़ते-पढ़ते

दो दुश्मन देशों के राष्ट्राध्यक्ष शतरंज खेल रहे हैं (अनकहा) लेकिन लघुकथा में यह कहीं नही लिखा गया कि वे दोनों राष्ट्राध्यक्ष हैं या फिर दुश्मन देशों के हैं। यह काबिले रश्क अंदाजे बयाँ हैं कनक जी का।

इस लघुकथा के दो सबसे छोटे संवाद जब आप पढ़ते हो।

"हाँ, तो तुम क्या लोगे?"

"जो तुम ले रहे हो।"

लगता है कि बात तो हो रही है शराब की लेकिन मन में कहीं बजता है मानों दो देशों के बीच किसी विवादास्पद क्षेत्र या प्रदेश को हड़पने, कब्जा कर बैठने का तंज मारा जा रहा है। (अनकहा)

इन दोनों संवादों से पहले वाले संवाद भी अपरोक्ष रूप से हमेशा चलने वाली सैनिक झड़पों का ही इशारा दे रहे हैं।

एक बढ़िया कथ्य //बाजी फिर उलझ गई।//  पर लघुकथा खत्म करके लेखिका प्रस्तुत कर सकती थी लेकिन पता नही किस प्रभाव से अंत में जबरन अस्वाभाविकता जोड़ दी गई है।

//पर तभी अचानक... खड़े-खड़े देखते रह गए// इन पंक्तियों से लघुकथा में अप्रभावी कथ्य एवं अस्वाभाविकता का जन्म हो रहा है।

यह पंक्तियां पढ़कर मुझे लगा जैसे एक बेहतरीन शिल्प और कथ्य को बलपूर्वक खत्म कर दिया गया।

मुझे इस संग्रह की समीक्षा से अलग सिर्फ इस लघुकथा की समीक्षा करने के लिए इन्हीं बेज़ा अंतिम पंक्तियों ने मजबूर किया है।

इस लघुकथा का कथानक एवं शीर्षक चयन इतना मौजूं है कि आप इसे कनक जी के इस संग्रह की (कितना-कुछ अनकहा) प्रतिनिधि लघुकथा कह सकते हैं ।

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भाग-2

120 पन्नों के संग्रह में कुल 87 लघुकथाएं हैं अब मैं अगर संग्रह 29 लघुकथाओं को भागों में विभक्त करके पहले भाग की 29 लघुकथाओं में से चुनिंदा बेहतरीन एवं कमजोर लघुकथाओं की बात रखूंगा और मैं कोशिश करूँगा की मेरा यह प्रयास पाठकों के लिए नीरस साबित न हो। अगर आपने कनक जी को पहले पढ़ा है तो जानते होंगे की इन के लघुकथा रूपी कमरे में से एन वही वस्तु गायब कर दी जाती है जिसकी तलाश में पाठक उस कमरे में मौजूद होता है और उसी चीज को ढूंढने के लिए पाठक पुनः पुनः उस लघुकथा रूपी कमरे में अपनी हाजिरी दर्ज करवाता रहता है।

लेखिका के इसी हस्ताक्षर लेखन की बानगी है संग्रह की प्रथम लघुकथा 'प्यास'। मुझे यकीन है की पाठक इस बेहतरीन शिल्प से कसी लघुकथा पर नायिका की प्यास समझने के लिए कई बार दस्तक देंगे।

'घुटन' शीर्षक वाली लघुकथा के किरदार ऑटोरिक्शा चालक को मैं आज की आपाधापी से भरी स्वार्थी जिंदगी का अविष्कार मानता हूं। आज किसीके पास खुद के परिवार के लिए वक्त नही है और ऐसे दौर में एक ऑटो रिक्शा चालक यह उम्मीद रखता है कि कोई जिंदा इंसान उसके बेटे की मौत के बाबत उससे पूछे या उसका दर्द सुनें... मैं यकीन दिलाता हूं कि आप इस लघुकथा का अंत पढ़ते हुए खुद को कहीं न कहीं जरूर जोड़ लोगे, याद आने लगेगा कि कब आपने आईने, दीवार, पेड़ या किसी जानवर के सामने अपना ग़ुबार बाहर निकाला था ताकि अंदर की घुटन से मुक्ति मिल सके।

'भीड़' 'जंगली' और 'बंद ताले' लघुकथाएं अच्छी बन पड़ी हैं। बालमन केंद्रित लघुकथायें 'भूख' और 'सुख' ने मुझे विशेष आकर्षित किया है अगर आप संवेदनशील हैं तो इन दो लघुकथाओं को पढने से पहले अपने भीतर निर्दयता का मुलम्मा जरूर चढ़ाइए।

'राह' 'रंगीन मौसम' 'प्रतिदान' अपेक्षाकृत कमजोर लघुकथाएं हैं। 'राह' के कथानक एवं कथ्य की मांग भावनात्मक प्रस्तुतिकरण की थी जबकि यह लघुकथा किसी 'बालकथा' की मानिंद प्रस्तुत कर दी गई है। 'रंगीन मौसम' हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे के पुराने कथ्य पर लॉक डाउन वाले कथानक का तड़का लगाने का प्रयास है लेकिन प्रस्तुतिकरण प्रभावहीन है या फिर लेखन वह अहसास नही पैदा कर पाया जिसकी दरकार थी।

'प्रतिदान' रावण महिमामंडन एवं यशोधरा त्याग वाले सामाजिक बहस-मुबाहिसे के ट्रेंड वाले दौर की कृति है जिसे आप हिस्टोरिकल फिक्शन के तौर पर पढ़ सकते हैं लेकिन अब यशोधरा-बुद्ध वैचारिक अलगाव वाला कथ्य ऊब और खीज का ही निर्माण करता है।

'अनकही' सरल-सहज कथानक वाली संजीदा लघुकथा है लेकिन इसमें जिस तरह कथ्य को प्रस्तुत किया गया है वह काबिले-तारीफ है।

'कीचड़' कथा है इस दौर में भी भीतर तक पेवस्त असमानता एवं भेदभाव के कीचड़ की, संदेश एवं प्रस्तुतिकरण मुखर होने के बावजूद मुझे यह लघुकथा मंजिल तक पंहुचने से कुछ पहले ही दम तोड़ती महसूस हुई क्योंकि इसमें स्त्री विद्रोह वाले स्वर को हीन रखा गया है और मुखिया के किरदार को अधिक प्रबलता से प्रस्तुत किया गया है।

'कठपुतलियां' लघुकथा की विस्तृत समीक्षा मैं पिछली पोस्ट में कर चुका हूं।

'वापसी' लघुकथा में शहर का प्रतिनिधित्व करती सड़क और गांव को दर्शाती पगडंडी का वार्तालाप उतना ही दिलचस्प है जितना किसी महिला के लिए सास-बहू का विवाद। इस लघुकथा का शिल्प और शीर्षक रचनाकार के लेखन/साहित्य स्तर का अलिखित प्रमाणपत्र है।

'गरीब' लघुकथा के उम्दा अंदाजे-बयाँ एवं बढ़िया कथानक चयन के मुकाबले चौंक अथवा पंचलाइन प्रभावहीन महसूस हुई ।

'दरकन' लघुकथा घरेलू महिला की दरक रही हसरतों का रोजनामचा है। एक बेजोड़ रचनाकर्म जिसे नवोदित लघुकथाकारों को सिलेबस की तरह पढना चाहिए ।

'कामचोर' इस लघुकथा की गैरजरूरी अंतिम पंक्ति //कामचोर का काम...हो चुका था// हटा दी जानी चाहिए। यह लघुकथा आज के दौर में भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी कि भूख।

मैं 'बोन्साई' लघुकथा का विस्तृत विवेचन करना चाहूंगा। (नीचे दिए चित्र में लघुकथा पढ़ सकते हैं।)

लघुकथा में मुख्य किरदार के पति की तेरहवीं है और उसका 63 साल का गुज़श्ता दांपत्य जीवन उसकी आंखों के आगे कुछ इस तरह नमूदार है मानों किसी वृक्ष के विकास को शैशवकाल से ही उसकी जड़ों को बांधकर एवं शीर्ष पर दबाव डालकर अवरुद्ध कर दिया गया हो।

जिसे अपनी शाखाएं फैलाने की उतनी ही आजादी है जितनी वृक्ष को 'बोन्साई' बनाने वाला देना चाहता है।

इस लघुकथा का शीर्षक इसके कथ्य का मिनिएचर है।

इस लघुकथा में एक भी शब्द कम करने की गुंजाइश नही है जो भी विन्यास रचा गया है बेहद जरूरी है।

इस लघुकथा की पंचलाइन //बेटा, आप लोग जैसा...कैसे करना चाहते...!// बीते 63 साल का निचोड़ कहने में सक्षम है।

यह कनक जी की लिखी बेहतरीन रचनाओं में अपने उम्दा शिल्प के कारण ली जा सकती है। 

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भाग-3

कुछ लघुकथाएं होती है जिनकी विवेचना आप तत्काल करके फ़ारिग नही हो सकते क्योंकि ऐसी लघुकथाएं आपको विमर्श की राह पर बनाये रखती हैं और बार-बार पढ़ने के लिए उद्वेलित करती हैं। इस संग्रह की चुनींदा लघुकथाएं इसीप्रकार की विशेषता रखती हैं।

जैसे. कठपुतलियां, बोन्साई, असूर्यम्पश्या, प्राण-प्रतिष्ठा, समय सीमा, खबर, मिट्टी, कैरियर, गूंज और भेड़िया आया।

यदि आप इस संग्रह की शुरुआती तीस लघुकथाएं पढ़ने के बाद यह कहते हुए किताब रख देंगे कि 'भाई! हर संग्रह की शुरुआती चंद रचनाएँ ही बेहतर होती हैं।' तो यक़ीन मानिए आप लघुकथा विधा की खूबसूरती का बयान करती हुई कई शानदार लघुकथाओं को पढ़ने से वंचित रह जाओगे।

'बोन्साई' लघुकथा की मैं मुकम्मल समीक्षा पिछले भाग में कर ही चुका हूं।

कठोर कांक्रीट से बने शहर के फ्लैट में अपने गांव के घर-खेत की मिट्टी तलाशते बुजुर्ग और उनके पोते की व्यथाकथा है 'बालकनी'।

समझौतों की मौली बांधती हुई उम्दा संवादात्मक लघुकथा है 'सगाई की अंगूठी'।

'चलो पार्टी करें' 'चौकीदार' 'ख्वाहिशें' अगर लेखिका के लेखन स्तर के मुकाबले कमजोर लघुकथाएं है तो 'मौसम' और 'अलग-अलग जाड़ा' अपने प्रस्तुतिकरण की वजह से औसत लघुकथाएं मालूम पड़ती हैं।

उम्रभर घर-संसार में बंधी गृहणी को अपने जीवन के सांयकाल में विदेश जाने का निमंत्रण पत्र मिलता है, उसकी इसी दुविधा को दर्शाती हुई लघुकथा 'खुला आकाश' का कथ्य मुझे 'बोन्साई' का कैरिकेचर प्रतीत हुआ।

बढ़िया शीर्षक और संदेश वाली लघुकथा है 'ऑक्सीजन' । शिक्षा से बदलाव की हवा पैदा करती हुई नई पीढ़ी अब अपने अनपढ़ मां-बाप को भी साफ हवा और साफ खाने का महत्व समझाने लगी है।

'जरूरी सामान' लघुकथा बुजुर्गों की मसरूफियत की कथा है इसका प्रस्तुतिकरण एवं कथ्य तो बढ़िया है ही साथ ही शीर्षक चयन भी बेमिसाल है। 

'बदलते सुर' बेटे द्वारा अपनी जिंदगी के संतुलन को ठीक करने के लिए माँ पर आजमाई हुई एक तरकीब की कथा है, निःसंदेह! आम पाठक को यह लघुकथा जरूर पसंद आएगी। 

'असूर्यम्पश्या' में अगर प्रतीकात्मकता द्वारा लेखिका ने सफलतापूर्वक बंदिनी/महिला का दर्द प्रस्तुत किया है तो 'रफ कॉपी' के जरिये से महिला की शादीशुदा जिंदगी का विश्लेषण भी उसी निर्ममता से किया है।

'प्राण-प्रतिष्ठा' 'निशानदेही' और 'रोशनी' मुझे कमजोर लघुकथाएं लगी जिन्हें कसा जाना चाहिए अथवा उनके अंत पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए।

'शहादत' अगर एक बच्चे की युद्ध विभीषिका पर प्रकट जिज्ञासा का मौन जवाब है तो 'सड़क और पुल' चुनावी नारों का कानफाड़ू शोर । 'अनुदान' साहब के घरेलू नौकरों और बाहर के गरीबों का फर्क समझाती हुई शानदार लघुकथा है।

"तो अम्मा, युद्ध के कारण छह-सात दिनों से हमें खाना नहीं मिल रहा है, अगर हम भी भूख और प्यास से मर जाएंगे तो क्या हम भी शहीद ही कहलाएंगे?"

'शहादत' लघुकथा में बच्चे के मुंह से निकला हुआ यह प्रश्न अगर युद्ध से नफ़रत करने पर मजबूर न कर दे तो यकीनन अब हम इंसानों को शहादत के मायने बदलने पड़ेंगे।

'रोशनी' घिसे-पीटे कथ्य एवं कथानक वाली लघुकथा है जिसके प्रस्तुतिकरण में भी कोई नयापन नही है।

 इस भाग में मैं मुकम्मल विवेचना हेतु, कनक जी की वैचारिक रूप से कमजोर लघुकथा 'प्रतिफलन' लेने की जुर्रत करूँगा। (सलंग्न चित्र में यह लघुकथा पढ़ी जा सकती है)

हमारे देश में कई विचारों के साथ एक विचार यह भी प्रसिद्ध है कि कॉन्वेंट स्कूल धीरे-धीरे बच्चों को पश्चिमी सभ्यता एवं ईसाइयत की ओर अग्रसर करते हैं और इसी विचार को समर्थित करती लघुकथा है 'प्रतिफलन'।

इसतरह के किसी भी अतार्किक विचार का समर्थन करती रचना अपने आप में ही एक कमजोर रचना होकर रह जाती है बिल्कुल वैसे ही जैसे आप सैटेलाइट और रॉकेट के इस दौर में भी पृथ्वी के चपटी होने के विचार का समर्थन करती कोई रचना लिख दो।

आज भारत के करोड़ों बच्चे कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ते हैं, उसमें से कितने प्रतिशत ईसाई बन जाते हैं या चर्च में जाने लगते हैं और मारिया से शादी कर लेते हैं ?

अगर इतिहास और फैक्ट्स की बात की जाए तो भारत के अशिक्षा उन्मूलन कार्य में सबसे बड़ा योगदान इन्हीं कान्वेंट स्कूलों का रहा है बाकी बात रही बच्चों के पश्चिमी सभ्यता उन्मुख होने की तो सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले या फिर झोपड़पट्टी में रहने वाले अशिक्षित किशोर तक पश्चिमी सभ्यता की नकल करने लगे हैं तो इसे इस तरह तो कतई नही ले सकते कि कान्वेंट की वजह से पश्चिमी सभ्यता का प्रचार प्रसार हो रहा है।

भारत में कई युवा हैं जो चर्च, दरगाह, गुरुद्वारा और मंदिर जाना पसंद करते है और हर प्रकार के धार्मिक स्थल का इतिहास जानना चाहते हैं । विविधता में एकता विचार वाले इस देश में इस तरह के एकतरफा एवं एकधर्मी विचार पर लघुकथा लिखना कतई सराहनीय नही हो सकता।

अब क्योंकि मूल विचार ही कमजोर है तो मैं शीर्षक, शिल्प, कथ्य इत्यादि लघुकथा के बाकी अंगों के बारे में नही लिखूंगा।

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भाग-4 (अंतिम)

जिन पाठकों ने इस पुस्तक समीक्षा के पिछले तीनों भाग पढ़े हैं, वे इतना तो समझ ही चुके होंगे कि यह पुस्तक अपनी छपी कीमत के मुकाबले पाठक को बेहतर साहित्य मुहैया करवा रही है।

जनसेवा से शुरू हुई आजाद भारत की राजनीति आज निजी स्वार्थ को पूरा करने के लिए किन कुटिलताओं से गुजरती है! यह समझाती हुई लघुकथा 'गहरे पानी पैठ' अपने व्यंग्यात्मक संवादों की वजह से दिलचस्प तो है ही लेकिन उतनी ही प्रखर भी है और यह साबित करती है इस लघुकथा की समापन पंक्ति 'मंत्री जी के ख्याल गहरे पानी के स्वीमिंगपूल में तैर रहे थे।'

कुछ रचनाएँ समझाई नहीं जा सकती बल्कि वह मासूम प्रेम की तरह सिर्फ महसूस की जा सकती हैं और 'गीतांजलि' लघुकथा ऐसी ही रचनाओं में शामिल है। यह लघुकथा रवींद्रनाथ टैगौर को आदरांजलि देती प्रतीत होती है।

मैंने 'प्रतिफलन' लघुकथा की जिस मुखरता से आलोचना की थी आज उसी मुखरता से 'नक्शे कदम' लघुकथा की तारीफ करना चाहूंगा। एक मशहूर खेल को कथानक में लेकर जिस तरह भारत के अनेकता में एकता वाले विचार को कथ्य में निरूपित किया है उसके लिए लेखिका को मेरी ओर से एक सलाम!

'खो गई छाँव' मेरे जैसे प्रकृति प्रेमी के लिए एक डरावनी लघुकथा है लेकिन प्रकृति का विनाश रोकने के लिए साहित्य द्वारा यह डर प्रस्तुत करते रहना भी उतना ही जरूरी भी है।

 'क्लासिक' एक कमजोर संदेश देती हुई अलग-सी लघुकथा है। प्रस्तुतिकरण की शैली इसे अपनी तरह की दूसरी लघुकथाओं से अलग कर रही है।

 'गुणवत्ता' लघुकथा में 'नक्शे कदम' की भांति एक मशहूर खेल को कथानक में लेकर राजनीति की सत्तालोलुपता का कथ्य तरीके एवं सलीके से प्रस्तुत किया गया है।

'अंदर...बाहर...' लघुकथा बनावटी जिंदगी एवं दिखावटी प्रेम का दस्तावेज है जिसके अंत में प्रस्तुत निजता भी एक स्वार्थ अथवा छलावा है।

'दोषी कौन' और 'बरसती आंखे' मुझे सन्देशहीनता की वजह से विशेष प्रभावित नहीं कर पाई।

 'मिट्टी' आज के संवेदनहीन समाज का ब्लड टेस्ट करती एक मार्मिक लघुकथा है। साधारण कथ्य की अलहदा प्रस्तुति है लघुकथा 'कैरियर' ।

'कैक्टस के फूल' आधुनिक समस्याओं का भावनात्मक निवारण प्रस्तुत करती शानदार लघुकथा है।

'नया इंकलाब' लघुकथा का निर्वहन ठीक से नहीं हुआ है। / / उस शाम गड़रियों ने भेड़ों के माँस की शानदार दावत की। / / यह पंक्ति कुछ अजीब-सी लगी। मानवेत्तर अथवा प्रतीकात्मक लघुकथाओं की भी अपनी कुछ स्वभाविकताएँ एवं अस्वभाविकताएँ होती है।

'दुर्गा अष्टमी' और 'जीवन स्त्रोत' के कथ्य, कथानक पुराने होने के बावजूद लघुकथाओं की बुनावट अच्छी है।

मेरे नजरिये से 'बड़ा कौन' एक औसत लघुकथा है क्योंकि इसका कथ्य कहता है कि रचयिता ही अपनी रचना के साथ अन्यायपूर्ण रवैया अपनाता है। वह क्षमाशील नहीं है और वह निर्दोष, मासूमों या अहंकारियों में कोई फर्क न करते हुए दावानल की भांति अंधा न्याय करता है।

स्त्री व्यथा की बानगी 'चुटकीभर सिंदूर' अगर औसत लघुकथा है तो 'खबर' उतनी ही सशक्त एवं मार्मिक प्रस्तुति है।

 'आवरण' लघुकथा बरबस ही वरिष्ठ साहित्यकार कीर्तिशेष मधुदीप गुप्ता सर की याद दिला देती है।

'अधूरा सच' का निर्वहन एकतरफा है। हर आंदोलन के दो पहलू होते हैं अगर यह ध्यान में रखकर लिखा जाता तो लघुकथा बेहतरीन में शुमार होती।

'जनानी जात' लघुकथा पढ़कर मुझे गर्व की अनुभूति होती है कि मुझे कनक जी जैसी सशक्त लेखनी का सान्निध्य प्राप्त है। आप यह लघुकथा पढ़कर समझ सकते हो कि घिसे-पिटे कथ्य के प्रस्तुतिकरण में नवीनता क्या कमाल कर जाती है!

 'गूंज' लघुकथा वाकई अपने अंदर आदिवासी लड़की के थप्पड़ की गूंज लिए हुए है। 'परिवर्तन' लघुकथा में खरगोश की पीठ पर चढ़ा कछुआ सशक्त संदेश दे रहा है। 'उड़ान' लघुकथा आपको खुले आकाश और बाबू की हवेली की छत वाली आजादी का अंतर समझा देगी।

 'आँचल' लघुकथा आधुनिक जीवन शैली एवं नए प्रचलनों पर यक्षप्रश्न खड़ा करने में सक्षम साबित हुई है। यकीन मानिए 'ठंडी हवा का झोंका' आपके मन को भिगो देगा।

 'इनसोर' लघुकथा, व्यवस्था, समाज और उनके द्वारा बनाये इन्शुरन्स तक गरीब की पहुँच का असल चिट्ठा खोलती है। मैं अगर इस लघुकथा का किरदार 'मैनेजर साहब' होता तो एकबारगी कह उठता "स्साला! यह मजदूर सवाल बहुत पूछता है!" लेकिन सच यह है कि इस लघुकथा ने इन्शुरन्स क्लेम में गरीब की भागीदारी पर सवाल तो खड़ा कर ही दिया है।

अब अगर मुझसे पूछा जाए कि इस लघुकथा संग्रह के परिप्रेक्ष्य में आप लेखिका को किस नजरिये से देखते हो? ...तो मेरा जवाब बेहद साफ और स्पष्ट होगा कि आप यदि नवीन विषयों पर पढ़ना पसंद करते हो और आप को आधुनिक युग के जमीन से जुड़े हुए किरदार पढ़ने है तो जरूर 'कनक हरलालका जी' को पढ़िए।

मैं विस्तार में जाने से बच रहा हूँ फिर भी मुझे 'इनसोर' का सवाल पूछता हुआ मजदूर और 'घुटन' का फफक-फफककर रोता हुआ ऑटोरिक्शा ड्राइवर कहीं मेरे आसपास के ही किरदार लगते हैं।

एक अच्छी पुस्तक और उसके रचनाकार का जरूर सम्मान होना चाहिए और 'कितना-कुछ अनकहा' लघुकथा संग्रह एवं इसकी लेखिका 'कनक हरलालका जी' इस सम्मान की पूरी तरह हकदार हैं।

धन्यवाद,

- अनिल मकारिया

गुरुवार, 3 फ़रवरी 2022

अनिल मकारिया जी द्वारा मेरी एक लघुकथा की समीक्षा



स्वप्न को समर्पित । डॉ.चंद्रेशकुमार छतलानी 

लेखक उसके हर रूप पर मोहित था, इसलिये प्रतिदिन उसका पीछा कर उस पर एक पुस्तक लिख रहा था। आज वह पुस्तक पूरी करने जा रहा था, उसने पहला पन्ना खोला, जिस पर लिखा था, "आज मैनें उसे कछुए के रूप में देखा, वह अपने खोल में घुस कर सो रहा था"

फिर उसने अगला पन्ना खोला, उस पर लिखा था, "आज वह सियार के रूप में था, एक के पीछे एक सभी आँखें बंद कर चिल्ला रहे थे"

और तीसरे पन्ने पर लिखा था, "आज वह ईश्वर था और उसे नींद में लग रहा था कि उसने किसी अवतार का सृजन कर दिया"

अगले पन्ने पर लिखा था, "आज वह एक भेड़ था, उसे रास्ते का ज्ञान नहीं था, उसने आँखें बंद कर रखीं थीं और उसे हांका जा रहा था"

उसके बाद के पन्ने पर लिखा था, "आज वह मीठे पेय की बोतल था, और उसके रक्त को पीने वाला वही था, जिसे वह स्वयं का सृजित अवतार समझता था, उसे भविष्य के स्वप्न में डुबो रखा था।

लेखक से आगे के पन्ने नहीं पढ़े गये, उसके प्रेम ने उसे और पन्ने पलटने से रोक लिया। उसने पहले पन्ने पर सबसे नीचे लिखा - 'अकर्मण्य', दूसरे पर लिखा - 'राजनीतिक नारेबाजी', तीसरे पर - 'चुनावी जीत', चौथे पर - 'शतरंज की मोहरें' और पांचवे पन्ने पर लिखा - 'महंगाई'।

फिर उसने किताब बंद की और उसका शीर्षक लिखा - 'मनुष्य'

-चंद्रेश कुमार छतलानी


इस लघुकथा पर समीक्षा । अनिल मकारिया

यह लघुकथा बेहद रोचक है । यूँ समझिये एक ग्रंथ को लघुकथा में समाहित कर दिया है ।

कुछ प्रतीकों को मैं खोल पाया कुछ को शायद किसी और तरीके से ज्ञानीजन खोल पाएं ।

इस लघुकथा का शीर्षक 'स्वप्न को समर्पित' इस लघुकथा की मूल संकल्पना है आप इस शीर्षक को इस लघुकथा की चाबी कह सकते हैं ।

विष्णु पुराण के मुताबिक यह दुनिया शेषनाग पर सो रहे विष्णु का स्वप्न मात्र है ।

जब विष्णु क्षीरसागर में तैरते हुए शेषनाग पर सो रहे होते हैं तब वे किसी अवत्तार रूप में मृत्युलोक (धरती) पर विचरण कर रहे होते हैं और जब धरती पर अवत्तार रूप में सो रहे होते है तब वह विष्णु रूप में जागृत अवस्था में कायनात का राजकाज देख रहे होते हैं ।

// "आज वह ईश्वर था और उसे नींद में लग रहा था कि उसने किसी अवतार का सृजन कर दिया"//

तीसरे पन्ने पर लेखक (ईश्वर) द्वारा सृजित यह पंक्तियां इस लघुकथा के शीर्षक की संकल्पना को बल देती है ।

इस लघुकथा में ईश्वर को लेखक की संज्ञा दी गई है जो अपनी ही रचना मनुष्य पर मोहित है (प्रतीक: रची गई किताब का शीर्षक 'मनुष्य')

वह अपने बनाये आज के मनुष्य की विवेचना कर रहा है ।

उसे अपना बनाया मनुष्य विभिन्न जानवरों की तरह आचरण करते तो दिख रहा है लेकिन मनुष्यत्व उसमें नदारद है।

शायद इसीलिए अपनी प्रिय रचना मनुष्य से हताश लेखक (ईश्वर) ने अपनी ही किताब के लिखे बाकी के पन्ने पलटने से खुद को रोक दिया ।

//उसने पहले पन्ने पर सबसे नीचे लिखा - 'अकर्मण्य', दूसरे पर लिखा - 'राजनीतिक  नारेबाजी', तीसरे पर - 'चुनावी जीत', चौथे पर - 'शतरंज की मोहरें' और पांचवे पन्ने पर लिखा - 'महंगाई'।//

हर पन्ने को दिए गए शीर्षक आज के मनुष्य की कहानी पन्ना-दर-पन्ना बयान करते हैं ।

'अकर्मण्यता' की वजह से 'नारेबाजी' पर ज्यादा जोर देना जिसके फलस्वरूप 'चुनावी जीत' हासिल करना और दुर्बल वर्ग अथवा सता को शतरंज के मोहरों की तरह इस्तेमाल करके 'महंगाई' का कारण बनाना ।

इस लघुकथा के प्रतीकों को मैंने अपने नजरिये से समझा है हो सकता है लेखक का नजरिया इस लघुकथा को लिखते समय अलग रहा हो ।

मुझे यह लघुकथा निजी तौर पर बेहद पसंद आई । यह लघुकथा पाठक के लिए एक 'कैलिडोस्कोप' है जिसमें कांच के टुकड़े हर बार नई आकृति गढ़ते रहते हैं ।

- अनिल मकारिया

#Anil_Makariya

Jalgaon (Maharashtra)