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मंगलवार, 7 अप्रैल 2020

लघुकथा वीडियो: स्वाद । लेखक: सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा । वाचन: डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी



लघुकथा: स्वाद / सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा वो जहां भी जाता , इंसानों के किसी भी समूह में बैठता या अपने कमरे में चुप बैठकर अपने आप से बातें करता तो उसे लोग आपस में लड़ते हुए दिखाई देते। फरेब, ईर्ष्या, द्वेष, बीमारियां,षड्यंत्रों और दंगों के बीच सुविधाओं की भूख और आपसी मारामारी के बीच, कई बार तो अपने आप से ही आगे निकलने की होड़। वह खीझ उठता कि हर कोई अपनी जिंदगी को खूबसूरत देखना चाहता है पर ख़ूबसूरती है कि रेगिस्तान में मायावी पानी की तरह दूर भागती फिरती है। यहां तक कि सरकारी खर्चे पर पल रहे पार्क या पहाड़ों की हरी-भरी घाटियों की प्राकृतिक छटा को भी आदमी ने बंदूकों की बारूद से निकली दुर्गंध या फिर अपनी ही गंदगी से भर दिया है। वो खीझ की हद तक खुद को उलझन में पाता कि ये ईश्वर भी क्या चीज है जो अपनी ही बनाई हुई दुनिया को शांति से नहीं रख पा रहा । क्या वो अपनी इस उद्दंड सृष्टि को देखकर संतुष्ट रह पाता होगा? और ऐसे हालात में भी अगर वो संतुष्ट रहता है तो निश्चय ही उसे किसी अच्छे रचनाकार का दर्जा नहीं दिया जाना चाहिए। न जाने क्यों लोग उसे पालनहार कह कर उसकी महिमा का बखान करते हैं। अपने आप में गुम हुई उसकी तंद्रा को अचानक दरवाजे पर पड़ी हल्की सी थाप ने भंग कर दिया। उसने उस थाप को अनसुना कर दिया और अपनी बनाई गुमशुदगी में फिर से खो गया। जिंदगी का बेमानीपन उसे जिंदगी का सच लगने लगा। उसके दिल की धड़कनो ने पाया कि हवा में घुली बारूद उसकी वाहिकाओं में उतरने को आतुर है। इसी बीच दरवाजे पर पड़ी पहले वाली हलकी थाप दुगुने आवेग से दरवाजे पर फिर से आ पड़ी। इस बार की थाप में किसी बच्चे का तोतलापन भी घुला था, " दलवाजा तोलो, नहीं तो हम भीद जायेंगें। हमाली मम्मा को बुखाल है, वो मल जाएगी।" इस तुतलाहट को वह नजरअंदाज नहीं कर पाया और उसने दरवाजा खोल दिया। सामने का दृश्य उसकी तंद्रा के लिए दर्द से अधिक डरावना था। अधूरी पौशाक से ढकी उस औरत के वक्ष से लिपटा दो-तीन साल का बच्चा भी बारिश की बूंदा-बांदी में भीग चुका था। उन दोनों की दयनीय आँखें बिना कुछ कहे कह रही थीं कि वो दोनों अनचाही बरसात से भीगे ही नहीं हैं, वे दोनों बिन बुलाई भूख से बिलबिला भी रहे हैं। अगर उन दोनों को, उनकी इन दोनों मुसीबतों से तुरंत निजात न मिली तो आज रात वे दोनों एक साथ दम तोड़ देंगें। अगले कुछ छणो में वे उसके कमरे के अंदर आ चुके थे और वह खुद, कुछ देर पहले की अपनी दुनिया से बाहर निकलने को मजबूर हो गया था। उसने उस माँ और उसके बच्चे के लिए पहले एक चारपाई, फिर एक बिछावन और फिर घर में रखे कपड़ों का इंतजाम किया। जब माँ-बेटे का दयनीय क्रंदन समाप्त हो गया और वे दोनों कुछ सामान्य हो गए तो उसने उन दोनों के लिए गर्म चाय और खाने का इंतजाम भी कर दिया। थोड़ी देर में, उसके दिए लिहाफ में सिमटकर वे दोनों लावारिस सो भी गए। फिर वो अकेला अपनी उसी कुर्सी पर जा कर बैठा जिस पर वह उन दोनों के आने से पहले बैठकर, जिंदगी के अनमनेपन से जूझ रहा था। उसे लगा, "जिंदगी में हर जगह वीरानी और रेगिस्तान का उजाड़ होता तो फिर इन दोनों के पास आज जिंदगी वापस कैसे आती? उसके पास अभी करने को, बहुत कुछ है, जो उसे करना चाहिए।" उसने अपने लिए एक कप चाय बनाई और उसे पीते हुए उसे, चीनी का भरपूर स्वाद आया। - सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा डी - श्याम पार्क एक्सटेंशन , साहिबाबाद - ( उत्तर प्रदेश ) 20 /03 /2020

सोमवार, 7 अक्टूबर 2019

सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा की दो लघुकथाएं : 1. कसक 2. अंगद का पांव

1)
कसक / सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा 



दिन ढले काफी देर हो चुकी थी ।

शाम, रात की बाहों में सिमटने को मजबूर थी । वो कमरे में अकेला था । सोफे का इस्तमाल बैड की तरह कर लिया था उसने आदतन अपने मोबाईल पर पुरानी फिल्मों के गाने सुनकर रात के बिखरे  अन्धेरे में उसे  मासूमियत पसरी सी लगी । वो उन गानों के सुरीलेपन के बीच अपने तल्ख हुए सुरीले अतीत में खो गया । मस्तिष्क के कोटरो में वे कोमल और संगीतमय पल फिर से जीवन्त हो उठे जो उसने , उसके साथ पूरे समर्पण भाव से गुजारे थे । वो बड़ी शीद्द्त से उसकी क्रिया पर अपनी ओर से सकारत्मक और ह्रदय में उतर जाने वाली प्रतिक्रिया देती थी । उन दिनो उसे  कभी लगता ही नहीं था कि जीवन में वो उससे कभी अलग भी हो सकता है । 

कहते हैं न कि समय कभी स्थिर रह पाता तो फिर प्रक्रती के काल चक्र को हर कोई अपनी मुट्ठियों में ही कैद  कर बैठ जाता । 

हालात कुछ एसे अनहोने बने कि उसकी लाख कोशिशों के बाद भी वो उससे अलग हुई और एसी अलग हुई कि फिर उसने कभी वापस मुड़कर उसकी नजरों का सामना नहीं किया । 

वो जल बिन मछली की तरह छटपटा कर रह गया  ।

समय के साथ भले ही उसकी छपटाहट  में कुछ कमी आ गयी  पर अलगाव के इतने सारे साल बीत जाने के बाद भी उसे बहुत बार लगता कि  बीते हुए ये साल  उसके जहन पर  परत दर परत  किसी बोझ में ही बदलते रहे हैं । 

इसलिये जब कभी वो जिन्दगी की भागमभाग  से हट कर अपने करीब आता तो खुद को फिर उसी के करीब पाता । उसके अन्दर का  हर कोश उससे मिलने या कम से कम उससे  बात करने के लिये बेताब हो जाता , जबकी वो जानता था कि इसमें से कुछ भी मुमकिन नहीं है । वो बड़ी कसक के साथ अपने आप से पूछता , " कभी - कभी समय अगर बेहद  कोमल और संगीतमय होता है तो वही समय खुद को बदल कर इतना कठोर और क्रूर कैसे  हो जाता है ! " 

उसके पास अपने ही सवाल , फिर से सवाल बन कर उससे टकरा जाते । 
आज की शाम , जो   रात की तरफ पहले ही  बढ़ चुकी थी , और पुराने गानों में उसे नहला भी चुकी थी , ने उसके ह्रदय की कसक को एक बार फिर से छू दिया । उसने मोबाईल में से संदेश वाला आपशन निकाल कर उसका नम्बर निकाला और लिखा , " ये आदमी तुम्हें जीवन की अन्तिम सांस तक वैसे ही याद करता रहेगा जैसे कभी तुम किया करती थीं । " 
उसने लिख तो दिया पर जब उसकी अंगुलियां ओ के वाले बटन की तरफ बढिं तो ठिठक गयीं । 

उसने मोबाईल का मेसेज बाक्स हटाया और कमरे में घिर आये अन्धेरे को उजाले में बदलने के लिये बिजली के  स्विच की तरफ अपने हाथ को बढ़ा दिया ।

कमरे में रोशनी ने अपनी जगह बना ली थी । कमरे में टंगे कलंडर में समुंदर के किनारे खड़ा बच्चा दूर छितिज को देखते हुए मुस्कुरा रहा था ।
उसकी ओर देख कर उसकी इच्छा हुई कि उसे भी मुस्कुराना चाहिये । 

उसने अपनी हथेलियों पर नजर दौडाई , वहां कुछ लकीरें  पहले की तरह  अब भी स्थिर थीं ।
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2)

अंगद का पांव / सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा 


उसे अपने बन रहे घर की चौखट के लिये लकड़ी चाहिये थी । वह लकड़ीयों के बाजार में आ गया । दुकानों की लम्बी कतार थी जिन पर लकड़ीयां ही लकड़ीयां सलीके से  सजी थी । उसे एक  दुकान ठीक - ठाक सी लगी जहां एक बुजुर्ग सज्जन दुकान की आरामदायी सीट पर विराजमान थे और  उनके सामने दो - तीन नौ जवान किस्म के लोग   बैठे थे । वह दुकान के अन्दर जाने से पहले तो झिझका । उसे लगा कि दुकान और उसमें रखा माल उसकी आर्थिक  पहुँच  से बाहर है पर उसे लकड़ी तो हर हाल में लेनी ही थी । नहीं तो बन रहे मकान का काम रुक जाता । फिर  उसने सोचा ये नव युवक भी ग्राहक ही  होंगे और उनको इस बुजुर्ग दूकानदार ने कितनी इज्जत से बिठा रखा है और कितनी संजीदगी से अपने माल की खूबियों से अवगत करवा  रहा है । 
वो हिम्मत बटोर कर दुकान में प्रवेश कर गया  । प्रवेश करते ही उसके कानों में बुजुर्ग दूकानदार के शब्द पड़े । वे नौजवान ग्राह्को को कह रहे थे , "  ग्राहक मेरे लिये मेरे भगवान से कम नहीं है । इसी सोच के कारण हमारी दुकान पिछ्ले पचास  साल से इस बाजार में अंगद के पांव की तरह जमी  हुई है जबकि बहुत से सूरमा आये , बैठे पर  उखड़कर जमीन पर बिखर गये । "
" सर जी , आपका माल भी आपके व्यवहार जैसा ही होगा । हमें यकीन है । " एक नव युवक बीच में बोल पड़ा ।
" कहा न  बेटा कि बहुत कमा भी लिया और खा भी लिया । अब इस ऊमर में झूठ बोलने की क्या जरुरत है , मेरे लिये दूकानदारी अब एक पूजा बन चुकी है जहां ग्राहक हमारे लिये हमारे भगवान की तरह है । " 
उसे लगा वो बिल्कुल ठीक जगह पर आ गया है। वो निश्चिंत होकर अपने घर की चौखट के लिये यहां से लकड़ी के लट्ठे ले जा सकता है । यहां उसे उसकी पसंद का माल वाजिब कीमत पर ही मिलेगा ।
इस बीच दूकानदार महोदय उससे मुखातिब हो कर बोले , " जी ! आपको क्या चाहिये ? "
" जी , दो चौख्टों के लिये लकड़ी चाहिये । " उसने भी अदब से ही अपनी जरुरत बताई ।
" हाँ - हां ! क्यों नहीं । आइये बैठिये और बताईये , हम आपको  किस तरह की लकड़ी दें ? " 
" मजबूत और टिकाऊ जिसे दीमक वगैरह न लगे । और कीमत भी वाजिब हो ।" उसमें अब तक बात करने की हिम्मत आ चुकी थी ।
" समझ गया , जरुर मिलेगी । " 
" अकबर , जा इन साहब को पक्की और लाल  शीशम का माल दिखा ।" उन्होनें नौकर को आवाज लगायी ।
अकबर उसे साथ लेकर गोदाम में अन्दर चल पड़ा । वे अकबर के साथ अन्दर गये ही थे कि अकबर उनसे बोला , " सर जी आप इन लट्ठों में अपने हिसाब का कोई लट्ठ देख लें , मैं अभी आया । " 
इतना कहकर वह गोदाम से निकल कर अपने मालिक के  पास जाकर बोला , " साब जी , शीशम की कटाई और बिकवाली तो कब की बन्द हो चुकी है , इस ग्राहक को शीशम की लकड़ी  दिखाने के लिये कौन से गोदाम में ले जाउँ ? " 
यह सुनते ही बुजुर्ग दुकानदार का दिमाग क्रोध से भन्ना गया , " अबे नाजायज टाईम की औलाद जो कुछ भी गोदाम में पड़ा है , हरेक को शीशम की  बता और जितने पैसे देने की  उसकी औकात हो उसके हिसाब से किसी लट्ठ को  इम्पोर्टेड शीशम बताकर पेल दे । जानता है न कि तुझे जो  पगार देता हूँ वो इसी काम के बदले में देता हूँ । जा अपना काम कर । " 
उनकी अपने नौकर को ये हिदायत उस नौजवान के कानों से भी जा टकराई जो थोड़ी देर पहले तक उनसे जान चुका था कि उनके लिये ग्राहक ही भगवान होता है पर ये क्या ये तो अपने ग्राहक को ही ठग रहे हैं । 
नौजवान का दिमाग चकरा गया । वह स्वयं पर नियन्त्रण खो बैठा , " बाबू जी ,  क्या आप  अपने भगवान को भी इसी तरह ठगते  हैं ? और  इसी वजह से इस बाजार में आपका पांव लंका में  अंगद के पांव की तरह टिका हुआ है ? " 
" बरखुरदार , हमेशा बाल की खाल नहीं निकाला  करते । ग्राहक को संतुष्ट करना दूकानदारी का उसूल है ।" एक बेशर्म हंसीं के साथ उन्होनें अपनी लिखी इबारत पढ़ी  और फिर अकबर को लगभग  डाटते हुए बोले , " अबे तू यहां कौन सी तकरीर सुन रहा है ? जा ग्राहक को उसकी जरुरत का  माल दिखा ।
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मंगलवार, 17 सितंबर 2019

लघुकथा: अंदाज | सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा

अंदाज

"मैं अगर तेरी जगह होती तो उसे थप्पड़ मारते देर न लगाती । "
"यार ! एकबारगी इच्छा तो मेरी भी हुई थी । "
"एक कहानी क्या छप गयी , खुद को कमलेश्वर मान बैठा है । "
"फिर तूने मारा क्यों नहीं , बद्द्त्मीजी की हद है  कि  सबके सामने इतनी बेशर्मी से उसने तेरे गालों को छू लिया। छी,कितनी  गन्दी सोच ।"
"बस रोक लिया खुद को कि भरी सभा में हंगामा न हो जाये । "
"तेरे पतिदेव भी तो थे वहां  । उनको भी तो गुस्सा ही आया होगा । "
"उस वक्त वो शायद वॉशरूम में गये थे । "
"वो वहां होते तो बात बढ़ जाती । "
"हाँ ! तब अस्मित  के जन्मदिन का सारा मजा स्वाहा हो जाता , इस घटना  की वजह से । " 
"पर यार मैंने जब उसे तेरा गाल सहलाते हुए देखा तो मुझे बुरा तो लगा ही शर्म भी  महसूस हुई । "
"अब जाने दे न यार ।  उसे ,बता तो दिया था कि ये बात गलत है और उन्होंने अपनी गलती मान भी ली  थी। " 
"पर ये क्या बात हुई , पहले गलत काम करो और बात न बने तो गलती मान लो ।'
"क्या कहूँ यार कभी - कभी फोन पर उसके साथ साहित्य से इतर बिंदास वार्तालाप भी  हो जाता था ।  हमने  अपनी - अपनी जिंदगी के कुछ अनसुलझे पन्ने आपस में शेयर भी किए थे । हो सकता है इसलिए गलतफहमी में पड़ गया हो  बेचारा  "
"अरे ये वो लोग हैं जो  मौका मिलते ही शुरू हो जाते हैं । "
"क्या कर सकते हैं यार । इसके लिए जान लेना या जान देना जरूरी है क्या ? मुझे विश्वास है अब कभी नहीं होगा ऐसा ।" 
"वो देख , सरप्राइज  आइटम ,अनुज जी आ रहे हैं । एक्सपर्ट हैं अपनी फील्ड के और ऊपर तक पहुंच में भी कमी  नहीं है । "
"वाऊ । अनुज जी और यहां । रूक जरा । "
 इससे पहले कि अकादमी  के सर्वे-सर्वा अनुज जी , किसी और से मुखातिब होते , वे तपाक से उनके सामने जा खड़ी हुई ,  
"अनुज जी ! मी , आयुषी !  नावल 'अल्पज्ञ ' की उपन्यासकार  , आपने इस उपन्यास को नोटिस में भी लिया है। स्वागत है एक पारखी का इस पार्टी में।"
अनुज जी ने मुस्कुरा कर अपना  हाथ आगे कर  दिया ।
इसके पहले कि अनुज जी कुछ कहते , उन्हीने उन हाथों को मजबूती से अपने हाथों की कटोरिओं में जकड़  लिया और तब तक जकड़े  रहीं जब तक अनुज जी ने आग्रह नहीं किया , " चलिए अब कार्क्रम की ओर चलें ।  बाकी बातें कभी घर आइये ,वहां आराम से बैठकर करेंगें । "
उन्होंने मुस्कुराकर सहमति की मुद्रा में  सिर हिलाया और उनके साथ मंच की ओर चल पड़ीं ।
तालियां , पूरे हाल मेंअपने - अपने अंदाज में  बज रहीं थीं  ।

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सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा
डी - श्याम पार्क एक्सटेंशन,  
साहिबाबाद -   ( उत्तर प्रदेश )
मो 9911127277

शुक्रवार, 1 फ़रवरी 2019

सुरेन्द्र कुमार जी अरोड़ा की दो लघुकथाएं

जेहाद 

" अमां ठोक इसे ! "
" ट्रिगर दबा और धायं की साईलेंसरी आवाज के साथ एक जवान जिंदगी लाश में बदल  गयी ! वादी  में एक हल्की सी चीख गूंजी और फिर किसी भुतहे सन्नाटे की तरह  सब कुछ शांत हो गया ।
उस चीख ने न जाने कैसा दर्द पैदा किया कि गोली चलने वाला दरिंदा बोल उठा , "अल्लाह की खिदमत में कहीं इसे गलत तो नहीं पेश कर दिया । "
" भाई मियां अब सोचो मत ! गलत या सही , कर दिया तो कर दिया । वैसे यकीन करो इसे ठोककर कोई गलती नहीं हुई है । साला काफिरों की फ़ौज के लिए लड़ता था । इसलिए काफिर ही था । इसे सजा मिलनी जरूरी थी । इसकी मौत की खबर जब पूरी घाटी में फैलेगी तो  इसका खानदान  तो क्या घाटी में रहने वाले हर बाशिंदे की  कई पुश्ते कभी ये सोचेंगी भी नहीं कि अल्लाह की फ़ौज के खिलाफ लड़ने का मतलब है अल्लाह के हुकुम की नाफ़रमानी और जब कोई शख्स अल्लाह के हुकुम की नाफ़रमानी  करता है तो  उसका सिर्फ एक ही हश्र होता है - जिबह । इस काफिर की रूह शुक्र मनाएगी  कि इसे हमारे खंजर  ने जिबह नहीं किया , राइफल से निकली गोली के एक  झटके  से ही इसके पाप धुल गए और यह खुदा की सल्तनत में फरियादी की तरह जा बैठा  । " झाड़ियों में छिपे  दूसरे दरिंदें  ने भी अपनी ए । के । 47 को संभालते हुए मुस्तैदी से कहा , " ओये ! वो देख जीता - जागता गुलाब । जवान शोरबा । हुस्न का चलता - फिरता टोकरा । इतना करारापन देखा है कहीं ?  "
 " ठोक दूँ  इसे भी । उसी काफिर की बहन लगती है ।" पहला पूरे जुनून में था ।
" पागल हो गया है क्या । ये झटके का माल नहीं है । ऐसा करते हैं पहले इसका जायका लेते हैं । फिर आगे की सोचेंगें । " दूसरे  ने अपने होठों को जबान से तर करते हुए दरिंदगी से सराबोर अपनी  रूह का एक और नमूना पेश किया  ।
" तो क्या इसका लोथड़ा कच्चा चबायेगा ? "  पहला कुछ समझ नहीं पाया ।
" अमां इतने दिन हो गए फातिमा को छोड़े हुए । तुझे  भी तो घर से बेदखल हुए  दो महीने हो गए हैं  ।  हम भी तो इंसान हैं यार । जिस्मानी  भूख हमें भी  लगती है । जवानी  हर तरह का जोर मरती है । आज ये माल दिखा है , पहले मैं इसे फातिमा बनाता हुँ फिर तू इसे कुछ भी समझ लियो । " दूसरा वहशीपन की नई मिसाल कायम करने पर उतर आया ।
" नहीं यार ! ये ठीक नहीं है । तू कहे तो मैं इसे ठोक देता हुँ , पर ये करना ठीक नहीं है ! इसने हमारा क्या बिगाड़ा है ?  " पहले का जमीर शायद  बाकी था पर दूसरे ने उसकी बात पर कोई गौर नहीं किया और आती हुई उस बाला पर भेड़िये की तरह टूट पड़ा । अभी उसने अपनी दरिंदगी को अंजाम देना शुरू ही किया था कि पलक झपकते ही जय माँ काली के उद्घोष के साथ  पांच जवानो की टुकड़ी की राइफलों से निकली गोलियों ने  दोनों दरिंदों की दरिंदगी को   लाशों में तब्दील कर दिया   ।   

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किशोरी मंच
     
" मानसी चल जल्दी से खाना खा ले , मुझे ढेरों काम हैं  ।"
" जल्दी न करो माँ ! पहले मुझे साबुन ला कर दो ।"
" साबुन का क्या करेगी  ,उसके साथ रोटी खाएगी क्या  ? "
"  गुस्सा मत करो माँ , सुबह से घर  से बाहर थी ,  हाथों  ने न जाने कितनी चीजों को छुआ  है , बहुत गंदे हो गए हैं  । हो सकता है बहुत सी खतरनाक  बीमारिओं के  कीटाणु  भी इनसे चिपक गए होंगें , अगर ऐसे ही  खाना खा लिया तो वे सारे कीटाणु  मेरे पेट में जाकर मुझे बीमार कर सकते हैं ।"
" बड़ी समझदार हो गयी है , जा मिटटी से हाथ धो ले , साबुन हो तो दूँ । इतनी महंगाई में बच्चों का पेट पालें या साबुन से उनके चेहरे चमकाएं ।"
" माँ घर में साबुन का होना उतना ही जरूरी है जितना कि रसोई में आटा । मिटटी से हाथ धोने का मतलब है कि बीमारियों के कीटाणुओं में और भी ज्यादाबढ़ोतरी और उसके साथ बिमारिओं को न्योता ।"
" तो बता क्या करूँ ,घर में साबुन नहीं है  ।"
" नहीं है तो मैं खुद जा कर ले आती हूँ ।"
" क्या सचमुच  तू दूकान पर जा कर साबुन की टिकिया लाएगी  ? आज तक तो बगल की दूकान से बिस्कुट  ले कर  आने  में भी आनाकानी करती थी कि गली के गंदे लड़के , आती - जाती  लड़कियों को तंग करते हैं ।।"
" हाँ माँ ।पता भी है आज हमारे स्कूल में एक अनोखा कार्यक्रम रखा गया था  जो अब से पहले कभी नहीं रखा गया  । इस कार्क्रम ने तो हम सब लड़किओं की सोच को ही बदल कर रख दिया ।"
" बेटा ऐसा क्या था उस कार्यक्रम में जो उसके लिए  तू इतना चहक  रही है ।"
" माँ उस कार्यक्रम का नाम था किशोरी मंच ।इसका आयोजन हमारे देश की   केंद्रीय सरकार के अंतर्गत चलने वाले सर्व शिक्षा अभियान के अधिकारिओं ने करवाया था । इसमें हमारे स्कूल की बड़ी मैडम के साथ - साथ हमारी क्लास की मैडम ने भी बड़ी अच्छी बातें बताईं । हमें ऐसी - ऐसी बातें बताईं और ट्रेनिंग दी कि मन कर रहा था   कि यह कार्यक्रम तो कभी खत्म ही न हो ।"
" स्कूल वालों ने ऐसा क्या सिखाया  कि आज तू वो काम करने की बातें कर रही है जो तू पहले मेरे कहने पर भी नहीं करती थी ।"
" माँ ! पहली बात तो यह कि एक बहुत ही  बुद्धिमान मैडम आयीं थी जिन्होंने बड़े अच्छे ढंग से यह बताया कि हम अपनी रोज मर्रा की  जिंदगी में अगर हम सफाई से रहना सीख लें तो  बहुत सी बिमारिओं से आसानी से  बच सकते हैं । इन छोटी - छोटी बिमारिओं के कारण जहाँ एक तरफ बीमार व्यक्ति के कार्य करने की ताकत में कमीं आती है वहीं दूसरी ओर घर और देश की कमाने की ताकत भी कम हो जाती है । हमारा फ़र्ज़ है की हम स्वयं को स्वस्थ रखें । हर व्यक्ति के स्वस्थ रहने से घर और देश दोनों अपने - अपने काम अपनी पूरी ताकत से करते हैं जिससे दोनों  की माली हालत में सुधार होताहै और खुशहाली आती है । इसलिए अब मैं अपनी और घर की साफ़ - सफाई का पूरा ध्यान रखूंगी ।"
" वाह ! मेरी बेटी तो एक ही दिन में इतनी बड़ी हो गयी । दूसरी बात  क्या बताई किशोरी मंच में ?'
"  माँ वह तो मैं भूल ही गयी । एक और मैडम भी आई थी । उन्होंने हम लड़किओं को बताया कि हमें किसी भी  हाल में खराब नियत वाले लड़कों से डरना नहीं है , अगर कोई खराब नियत से किसी लड़की के साथ बदसलूकी करे तो उसको सही सबक सिखाने में देर नहीं करनी है । इस काम के लिए उन्होंने वो तरीके भी बताये कि कैसे खुद की रक्षा करें और जरूरत पड़ने पर उन पर  वार से पीछे भी न हटें । अब जब भी जरूरत होगी मैं अपनी सुरक्षा बिना किसी से डरकर  खुद ही  करूंगी ।"
" चलो मेरी सिरदर्दी खत्म हुई । अब तू खुद ही  अपनी हर तरह की सफाई का भी ध्यान तो रखेगी  ही साथ ही मजबूत भी बनेगी ।"
" हाँ माँ अब हम लड़कियों को दिल्ली की  निर्भया की तरह बदमाशों से लड़ते हुए असमय काल  का ग्रास नहीं बनना है बल्कि रोहतक की आरती और पूजा की तरह बदमाशों की पिटाई करके उन्हें जेल के सीखचों के पीछे भेजना है ।"
" वाह ! आज तो मेरी बेटी का  रूप ही बदला हुआ है ।"
" इतना ही नहीं माँ , सर ने सरकार की तरफ से हमें उपहार स्वरूप यह सौ रूपये भी दिलवाये  । यह रूपये मैं कभी खर्च नहीं करूंगी । हमेशा संभालकर रखूंगी । यह मुझे हमेशा याद दिलवाते रहेंगें कि हमेशा सफाई का ध्यान रखना है और शरीर से ही नहीं दिमाग से भी  मजबूत बनना  है ।"
“  ठीक   है मेरी शेर  बच्ची अब साबुन की टिकिया तो ले आ । “
“ अभी लाई माँ ।” 
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सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा
डी - 184 , श्याम पार्क एक्स्टेनशन  साहिबाबाद  - 201005 ( ऊ । प्र । ) 
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