लघुकथा: स्वाद / सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा
वो जहां भी जाता , इंसानों के किसी भी समूह में बैठता या अपने कमरे में चुप बैठकर अपने आप से बातें करता तो उसे लोग आपस में लड़ते हुए दिखाई देते। फरेब, ईर्ष्या, द्वेष, बीमारियां,षड्यंत्रों और दंगों के बीच सुविधाओं की भूख और आपसी मारामारी के बीच, कई बार तो अपने आप से ही आगे निकलने की होड़। वह खीझ उठता कि हर कोई अपनी जिंदगी को खूबसूरत देखना चाहता है पर ख़ूबसूरती है कि रेगिस्तान में मायावी पानी की तरह दूर भागती फिरती है। यहां तक कि सरकारी खर्चे पर पल रहे पार्क या पहाड़ों की हरी-भरी घाटियों की प्राकृतिक छटा को भी आदमी ने बंदूकों की बारूद से निकली दुर्गंध या फिर अपनी ही गंदगी से भर दिया है। वो खीझ की हद तक खुद को उलझन में पाता कि ये ईश्वर भी क्या चीज है जो अपनी ही बनाई हुई दुनिया को शांति से नहीं रख पा रहा । क्या वो अपनी इस उद्दंड सृष्टि को देखकर संतुष्ट रह पाता होगा? और ऐसे हालात में भी अगर वो संतुष्ट रहता है तो निश्चय ही उसे किसी अच्छे रचनाकार का दर्जा नहीं दिया जाना चाहिए। न जाने क्यों लोग उसे पालनहार कह कर उसकी महिमा का बखान करते हैं।
अपने आप में गुम हुई उसकी तंद्रा को अचानक दरवाजे पर पड़ी हल्की सी थाप ने भंग कर दिया। उसने उस थाप को अनसुना कर दिया और अपनी बनाई गुमशुदगी में फिर से खो गया। जिंदगी का बेमानीपन उसे जिंदगी का सच लगने लगा। उसके दिल की धड़कनो ने पाया कि हवा में घुली बारूद उसकी वाहिकाओं में उतरने को आतुर है। इसी बीच दरवाजे पर पड़ी पहले वाली हलकी थाप दुगुने आवेग से दरवाजे पर फिर से आ पड़ी। इस बार की थाप में किसी बच्चे का तोतलापन भी घुला था, " दलवाजा तोलो, नहीं तो हम भीद जायेंगें। हमाली मम्मा को बुखाल है, वो मल जाएगी।"
इस तुतलाहट को वह नजरअंदाज नहीं कर पाया और उसने दरवाजा खोल दिया। सामने का दृश्य उसकी तंद्रा के लिए दर्द से अधिक डरावना था। अधूरी पौशाक से ढकी उस औरत के वक्ष से लिपटा दो-तीन साल का बच्चा भी बारिश की बूंदा-बांदी में भीग चुका था। उन दोनों की दयनीय आँखें बिना कुछ कहे कह रही थीं कि वो दोनों अनचाही बरसात से भीगे ही नहीं हैं, वे दोनों बिन बुलाई भूख से बिलबिला भी रहे हैं। अगर उन दोनों को, उनकी इन दोनों मुसीबतों से तुरंत निजात न मिली तो आज रात वे दोनों एक साथ दम तोड़ देंगें।
अगले कुछ छणो में वे उसके कमरे के अंदर आ चुके थे और वह खुद, कुछ देर पहले की अपनी दुनिया से बाहर निकलने को मजबूर हो गया था। उसने उस माँ और उसके बच्चे के लिए पहले एक चारपाई, फिर एक बिछावन और फिर घर में रखे कपड़ों का इंतजाम किया।
जब माँ-बेटे का दयनीय क्रंदन समाप्त हो गया और वे दोनों कुछ सामान्य हो गए तो उसने उन दोनों के लिए गर्म चाय और खाने का इंतजाम भी कर दिया। थोड़ी देर में, उसके दिए लिहाफ में सिमटकर वे दोनों लावारिस सो भी गए।
फिर वो अकेला अपनी उसी कुर्सी पर जा कर बैठा जिस पर वह उन दोनों के आने से पहले बैठकर, जिंदगी के अनमनेपन से जूझ रहा था। उसे लगा, "जिंदगी में हर जगह वीरानी और रेगिस्तान का उजाड़ होता तो फिर इन दोनों के पास आज जिंदगी वापस कैसे आती? उसके पास अभी करने को, बहुत कुछ है, जो उसे करना चाहिए।"
उसने अपने लिए एक कप चाय बनाई और उसे पीते हुए उसे, चीनी का भरपूर स्वाद आया।
- सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा
डी - श्याम पार्क एक्सटेंशन , साहिबाबाद - ( उत्तर प्रदेश )
20 /03 /2020
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