लघुकथा : भूख | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
"उफ़..." रोटी के थाली में गिरते ही, थाली रोटी के बोझ से बेचैन हो उठी। रोज़ तो दिन में दो बार ही उसे रोटी का बोझ सहना होता था, लेकिन आज उसके मालिक नया मकान बनने की ख़ुशी में भिखारियों को भोजन करवा रहे थे, इसलिए अपनी अन्य साथियों के साथ उसे भी यह बोझ बार-बार ढोना पड़ रहा था।थाली में रोटी रख कर जैसे ही मकान-मालिक आगे बढ़ा, तो देखा कि भिखारी के साथ एक कुत्ता बैठा है, और भिखारी रोटी का एक टुकड़ा तोड़ कर उस कुत्ते की तरफ़ बढ़ा रहा है, मकान-मालिक ने लात मारकर कुत्ते को भगा दिया।
और पता नहीं क्यों भिखारी भी विचलित होकर भरी हुई थाली वहीं छोड़ कर चला गया।
यह देख थाली की बेचैनी कुछ कम हुई, उसने हँसते हुए कहा, "कुत्ता इंसानों की पंक्ति में और इंसान कुत्ते के पीछे!"
रोटी ने उसकी बात सुनी और गंभीर स्वर में उत्तर दिया, "जब पेट खाली होता है तो इंसान और जानवर एक समान होता है। भूख को रोटी बांटने वाला और सहेजने वाला नहीं जानता, रोटी मांगने वाला जानता है।"
सुनते ही थाली को वहीं खड़े मकान-मालिक के चेहरे का प्रतिबिम्ब अपने बाहरी किनारों में दिखाई देने लगा।
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