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रविवार, 19 दिसंबर 2021

समीक्षा | लघुकथा:ऊँचाई लेखक: रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' | समीक्षक: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

आइए सबसे पहले लघुकथा पढ़ते हैं:

ऊँचाई /  रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

 

 

पिताजी के अचानक आ धमकने से पत्नी तमतमा उठी, "लगता है बूढ़े को पैसों की ज़रूरत आ पड़ी है, वर्ना यहाँ कौन आने वाला था। अपने पेट का गड्ढा भरता नहीं, घर वालों का कुआँ कहाँ से भरोगे?"

 

मैं नज़रें बचाकर दूसरी ओर देखने लगा। पिताजी नल पर हाथ-मुँह धोकर सफर की थकान दूर कर रहे थे। इस बार मेरा हाथ कुछ ज्यादा ही तंग हो गया। बड़े बेटे का जूता मुँह बा चुका है। वह स्कूल जाने के वक्त रोज़ भुनभुनाता है। पत्नी के इलाज़ के लिए पूरी दवाइयाँ नहीं खरीदी जा सकीं। बाबू जी को भी अभी आना था।

 

घर में बोझिल चुप्पी पसरी हुई थी। खाना खा चुकने पर पिताजी ने मुझे पास बैठने का इशारा किया। मैं शंकित था कि कोई आर्थिक समस्या लेकर आए होंगे। पिताजी कुर्सी पर उकड़ू बैठ गए। एकदम बेफिक्र, "सुनो" - कहकर उन्होंने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा। मैं साँस रोककर उनके मुँह की ओर देखने लगा। रोम-रोम कान बनकर अगला वाक्य सुनने के लिए चौकन्ना था।

 

 वे बोले, "खेती के काम में घड़ी भर की फ़ुर्सत नहीं मिलती है। इस बखत काम का जोर है। रात की गाड़ी से ही वापस जाऊँगा। तीन महीने से तुम्हारी कोई चिट्ठी तक नहीं मिली। जब तुम परेशान होते हो, तभी ऐसा करते हो।"

 

उन्होंने जेब से सौ-सौ के दस नोट निकालकर मेरी तरफ़ बढ़ा दिए- "रख लो। तुम्हारे काम आ जाएँगे। इस बार धान की फ़सल अच्छी हो गई है। घर में कोई दिक्कत नहीं है। तुम बहुत कमज़ोर लग रहे हो। ढंग से खाया-पिया करो। बहू का भी ध्यान रखो।"

 

मैं कुछ नहीं बोल पाया। शब्द जैसे मेरे हलक में फँसकर रह गए हों। मैं कुछ कहता इससे पूर्व ही पिताजी ने प्यार से डाँटा- "ले लो। बहुत बड़े हो गए हो क्या?"

 

"नहीं तो" - मैंने हाथ बढ़ाया। पिताजी ने नोट मेरी हथेली पर रख दिए। बरसों पहले पिताजी मुझे स्कूल भेजने के लिए इसी तरह हथेली पर इकन्नी टिका दिया करते थे, परन्तु तब मेरी नज़रें आज की तरह झुकी नहीं होती थीं।

 

 - रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

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समीक्षा

कुछ वर्षों पूर्व मैंने एक कविता लिखी थी, 'पुरुष'। उस कविता की एक पंक्ति है, “मैंने हस्तरेखा की छाया में, गीता का कर्मज्ञान पढ़ा।कविता की इस पंक्ति को लिखते समय मेरे मस्तिष्क में जिनकी छवि आ रही थी, वे मेरे पिता ही थे। अपने पिता से यों तो अधिकतर व्यक्ति प्रभावित होते ही हैं। आखिर उन्हीं का डीएनए हमारे रक्त में मौजूद है। मैंने भी अपने अंतिम समय तक कर्म करने का ज्ञान अपने पिता ही से प्राप्त किया है। वे अपने अंतिम समय तक अपने दायित्व का निर्वाह कर रहे थे और शायद दायित्वपूर्ण होने की संतुष्टि के कारण ही अंत समय में उनके होठों पर मुस्कान थी। चुंकि यह मेरा अपना अनुभव है, शायद इसीलिए, जैसे ही पिता सबंधी लघुकथाओं की चर्चा होती है, मुझे सबसे पहले रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' की लघुकथा 'ऊँचाई' ही याद आती है। इस रचना में भी पिता अपने पितृ-धर्म का पालन करते हैं, पुत्र चाहे विचलित क्यों न हो रहा हो। बुढ़ापा आने पर अपनी आर्थिक कमजोरियों के कारण कई बच्चे अपने माता-पिता का भरण-पोषण करने में समर्थ नहीं होते। लेकिन पिता एक ऐसा आदर्श भी हैं, जो उस असमर्थता को समझते हुए स्वयं को और अधिक सशक्त करने की आंतरिक शक्ति भी रखते हैं। पुत्र की आर्थिक कमजोरी को उसका भाग्य मानते हुए स्वयं कर्म को प्रवृत्त हो उस अशक्तता को कम करने का प्रयास करते हैं। "मैंने हस्तरेखा की छाया में, गीता का कर्मज्ञान पढ़ा" की तरह। यह एक ऐसा संदेश है जो न केवल पिता के प्रति सम्मान का भाव जागृत करता है बल्कि उच्च आदर्शों एवं नैतिक मूल्यों को स्थापित भी कर रहा है।

 

पिता के अतुल्य त्याग और सुसमर्पण की महती भावना को दर्शाती इस रचना से मैं लघुकथा लिखना प्रारम्भ करने से पूर्व से परिचित हूँ। रचना के प्रारम्भ में पत्नी तमतमा कहती है कि, "लगता है बूढ़े को पैसों की ज़रूरत आ पड़ी है, वर्ना यहाँ कौन आने वाला था। अपने पेट का गड्ढा भरता नहीं, घर वालों का कुआँ कहाँ से भरोगे?" यह संवाद ही इस लघुकथा के आधार को व्यक्त कर देता है। इस लघुकथा में इस संवाद के बाद किसी अतिरिक्त भूमिका की आवश्यकता है ही नहीं। पिता काफी समय के बाद अपने बेटे के घर पर आए हैं और बेटे की अर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है।

 

पिता का सम्मान हर सम्प्रदाय में आवश्यक रूप से कहा गया है, हिंदू नीति में लिखा है कि "जनकश्चोपनेता च यश्च विद्यां प्रयच्छति। अन्नदाता भयत्राता पश्चैते पितरः स्मृताः॥" अर्थात जन्मदाता, यज्ञोपवीत कराने वाला, विद्या देने वाले, भोजन प्रदान करने वाले और भय से रक्षा करने वाले व्यक्ति पिता हैं। वहीं इस्लाम में सूरतुल इस्रा : 23 के अनुसार “...माता-पिता के साथ अच्छा व्यवहार करना, उनके बुढ़ापे में उनसे कुछ भी बुरा न कहते हुए विनम्र रहना, सिर झुकाये रखना, और कहना कि ऐ रब दया कर उन दोनों पर जिस तरह उन दोनों ने मेरे बचपन में मुझे पाला है।" सिखों के दशम गुरु श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी के चार सुपुत्रों को सामूहिक रूप से संबोधित चार साहिबज़ादे किया जाता है, क्योंकि अपने पिता के लिए वे मिल कर एक ही शक्ति बने और इसाई धर्म में तो चर्च के पादरी को ही फादर जैसे महत्वपूर्ण शब्द से सम्बोधित किया जाता है।

 

इस लघुकथा में भी अंत में जब यह पंक्ति आती है कि //पिताजी ने प्यार से डाँटा- "ले लो। बहुत बड़े हो गए हो क्या?"// तब अंतर्मन में पिता के प्रति सम्मान स्वतः ही जागृत हो उठता है। क्योंकि उस समय वे अपने युवा पुत्र और उसके परिवार के लिए भी भोजन प्रदान करने वाले अन्नदाता बन जाते हैं। इसी प्रकार "रात की गाड़ी से ही वापस ... तभी ऐसा करते हो।" वाला अनुच्छेद पिता का भय से रक्षा करने वाला चरित्र उजागर कर रहा है।

 

इस रचना में पुत्र पहले तो यह सोचता है कि //बाबू जी को भी अभी आना था।// लेकिन जब पिताजी कुर्सी पर उकड़ू बैठ गए। एकदम बेफिक्र, "सुनो" - कहकर उन्होंने पुत्र का ध्यान अपनी ओर खींचा तब वह सोचता है कि "मैं साँस रोककर उनके मुँह की ओर देखने लगा।" हालांकि उसे यह उम्मीद थी कि पिता कुछ मांगेंगे, लेकिन फिर भी चुपचाप उनकी बात सुनने को आतुर होता है यहां पुत्र के चरित्र का वही आदर्श स्थापित हो रहा है जैसा कि सूरतुल इस्रा : 23 में कहा गया है उनके बुढ़ापे में उनसे कुछ भी बुरा न कहते हुए विनम्र रहना, सिर झुकाये रखना।

 

पिता-पुत्र के संबंधों के आदर्शों की व्याख्या करती यह रचना केवल आदर्शों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इस लघुकथा की ऊँचाई इससे अधिक है। बड़े बेटे का जूता, पत्नी की दवाइयाँ और स्वयं की कमज़ोरी का कारण केवल अपनी पत्नी और अपने बच्चों को ही अपना आश्रित मानना है। (माता-)पिता को ऐसे समय में भुला देने का एक अर्थ उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियों से पलायन करना भी है। //बाबू जी को भी अभी आना था।// वाला वाक्य यह दर्शाने में पूरी तरह समर्थ है। इसके अतिरिक्त अंतिम पंक्ति इस रचना के शीर्षक को सार्थक करते पुत्र को पितृ-धर्म की ऊँचाई भी समझा रही है, जो वह पहले नहीं समझ पाया तो शर्मिंदा सा हुआ।

 

लघुकथा का शीर्षक श्रेष्ठ है, भाषा सभी के समझ में आ जाए ऐसी है। कुल मिलाकर श्री काम्बोज की विवेकी, गूढ़ और प्रबुद्ध सोच का प्रतिफल यह लघुकथा एक उत्तम और सभी के लिए पठनीय साहित्यिक कृति है।

 

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी


14 टिप्‍पणियां:

  1. रचना अच्छी और समीक्षा भी बेहतर। शुभ हो।

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  2. समीक्षा के लिए बन्धुवर चंद्रेश जी।

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  3. अत्यंत सारगर्भित समीक्षा... सटीक आकलन.... कहानी की आत्मा से परिचित कराती समीक्षा....असीम बधाई एवं शुभकामनाएँ 🌹💐🌹🙏🙏

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  4. बहुत ही भावपूर्ण रचना।समीक्षा भी उतनी ही सटीक।💐

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  5. सटीक समीक्षा.अच्छी रचना.

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  6. बेहतरीन लघुकथा की सटीक सारगर्भित समीक्षा...हार्दिक बधाई।

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  7. सुंदर लघुकथा की सटीक और सारगर्भित समीक्षा
    हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ

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