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गुरुवार, 7 मार्च 2019

लघुकथा: पर्दा | राजकुमार कांदु

"अरे-अरे... रुको! कहाँ जा रहे हो? जानते नहीं अब घर में नइकी बहुरिया आ गई है।"
सुशीला ने घर के अंदर के कमरे में जा रहे रामखेलावन को आगे बढ़ने से रोका।

"अरे वही बहुरिया है न गोपाल की अम्मा जो ब्याह के पहले स्टेज पर गोपाल के बगल वाली कुर्सी पर बैठी रही...? अब उसमें का बदल गया है कि हम उसको देख नहीं सकते और उ हमरे सामने नहीं आ सकती?" रामखेलावन ने कहा।


राजकुमार कांदु
मुम्बई

3 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (09-03-2019) को "जूता चलता देखकर, जनसेवक लाचार" (चर्चा अंक-3268) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    उत्तर
    1. बहुत बहुत आभार मान्यवर मेरी रचना को भी स्थान देने के लिए !

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    2. बहुत-बहुत आभार आदरणीय रूपचन्द्र शास्त्री मयंक जी।

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