5 अक्टूबर 1946 को लाहौर, पंजाब (अब पाकिस्तान में) जन्मे डॉ. सतीशराज पुष्करणा ने अपनी शिक्षा सहारनपुर और तत्पश्चात देहरादून से प्राप्त की। 1962 से साहित्य-साधना में रत डॉ. पुष्करणा लघुकथा के अतिरिक्त उपन्यास, कहानी, ग़ज़ल, कविता, हाइकु, निबंध, श्रद्धांजलि साहित्य, आलोचना, जीवनी लेखन सहित साहित्य की अन्य कई विधाओं में भी पारंगत हैं। अपने महती कार्यों के फलस्वरूप आप राष्ट्रीय स्तर की अनेक सरकारी, गैर सरकारी लब्ध-प्रतिष्ठ संस्थाओं द्वारा सम्मानित एवं पुरस्कृत हो चुके हैं और अनेक मानद उपाधियाँ भी प्राप्त कर चुके हैं। बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉ. पुष्करणा ने लघुकथा लेखक के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर कीर्ति अर्जित की है। एक समीक्षक के रूप में आपने लघुकथा के समीक्षा-मानदण्डों पर भी महत्वपूर्ण कार्य किये है। वर्ष 1988 से पटना में प्रति वर्ष अंतर्राज्यीय प्रगतिशील लघुकथा लेखक सम्मेलन का आयोजन भी आपके द्वारा किया जा रहा है।
एक कवि के रूप में डॉ. पुष्करणा अपनी संवेदनाओं की विविधता, भावबोध और यथार्थ को अपने बहुआयामी अनुभव के जरिये दर्शा पाने में भी पूर्ण सफल रहे हैं, एक कविता में वे कहते हैं,
चट्टानों को तोड़ो / शीतल पानी / तुम्हारी प्रतीक्षा में है।
और इस कविता की तरह उन्होंने भी लघुकथा की शिल्प सम्बन्धी बहुत सी भ्रान्तियों को तोड़ कर लघुकथा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया और विधा को वहां तक पहुंचाने का पूरा प्रयास किया है जहाँ लघुकथा का प्राकृतिक अस्तित्व लघुकथाकारों की प्रतीक्षा कर रहा है। आपकी लघुकथाओं में मानव की मानसिकता, दायित्वबोध, संघर्ष, अहंकार, नैतिक मूल्य, लीडरशिप, वैचारिक टकराव आदि सहज ही परिलक्षित होते हैं। आपकी कुछ लघुकथाओं के बारे में विचार करें तो, आपकी एक लघुकथा है ‘पुरुष’ जिसमें बस में बैठा हुआ एक व्यक्ति अपनी पीछे की सीट पर बैठी महिलाओं की तरफ आकर्षित होता है, और उन्हें देखने के लिए परेशान होता रहता है। रचना के अंत में जब पीछे बैठी महिलाओं में से एक कहती है कि, "अंकल! प्लीज खिड़की बन्द कर दीजिए न!" तो उसके विचारों की सुनामी एकदम शांत झील में तब्दील हो जाती है और उसके मुँह से सहज ही निकल जाता है,"अच्छा बेटा!"। यह लघुकथा एक प्रौढ़ होते हुए व्यक्ति की मानसिकता को दर्शाने में पूर्ण सफल है।
इसके अतिरिक्त उनकी एक रचना मुझे बहुत अच्छी लगती है, वह है - 'सहानुभूति', अधिकारी से डांट खाता हुआ कर्मचारी स्वयं को अपमानित महसूस करता है और अधिकारी से कहता है कि "आप मुझे इस प्रकार डाँट नहीं सकते, आपको जो कहना या पूछना हो, लिखकर कहें या पूछें। मैं जवाब दे दूंगा।" जिसका उत्तर अधिकारी कुछ इस तरह देता है कि, "मैं लिखित कार्रवाई करके तुम्हारे बीवी-बच्चों के पेट पर लात नहीं मारूँगा। गलती तुम करते हो। डाँटकर प्रताड़ित भी तुम्हें ही करूँगा। तुम्हें जो करना हो… कर लेना। समझे?" यह बात उस कर्मचारी के हृदय को बेध जाती है और अंत में वह पात्र अपनी एक बात से पाठकों को भी झकझोर देता है, वह कहता है कि, "वह सिर्फ अपना अफसर ही नहीं, बाप भी है, जिसे मुझसे भी ज्यादा मेरे बच्चों की चिन्ता है।" नैतिक मूल्यों को उभारती हुई और कार्यालयों में हावी होती राजनीति की चट्टानों को तोड़ कर शीतल जल उभारती हुई अपनी ही कविता को इस लघुकथा में डॉ. पुष्करणा जी ने जीवित किया है।
रचनाओं के इसी क्रम में डॉ. पुष्करणा ने अपनी एक रचना 'वर्ग-भेद' में विषमबाहु त्रिभुज की तीन रेखाओं आधारभुजा, मध्यम और छोटी भुजा को लेकर प्रतीकों का बहुत ही सुंदर इस्तेमाल भी किया है। इसी प्रकार आपने 'पिघलती बर्फ' लघुकथा में नारी शक्ति को दर्शाया है। सहज ही अपने भीतर शक्ति का संचयन करते हुए एक नारी दहेज-प्रथा की धज्जियाँ उड़ाते हुए अपना पक्ष दृढ़ता से रखती है। हालांकि चार-पांच रचनाओं के द्वारा डॉ. पुष्करणा के लेखन को अधिक नहीं समझ सकते, यह केवल उदाहरण मात्र हैं।
एक कवि के रूप में डॉ. पुष्करणा अपनी संवेदनाओं की विविधता, भावबोध और यथार्थ को अपने बहुआयामी अनुभव के जरिये दर्शा पाने में भी पूर्ण सफल रहे हैं, एक कविता में वे कहते हैं,
चट्टानों को तोड़ो / शीतल पानी / तुम्हारी प्रतीक्षा में है।
और इस कविता की तरह उन्होंने भी लघुकथा की शिल्प सम्बन्धी बहुत सी भ्रान्तियों को तोड़ कर लघुकथा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया और विधा को वहां तक पहुंचाने का पूरा प्रयास किया है जहाँ लघुकथा का प्राकृतिक अस्तित्व लघुकथाकारों की प्रतीक्षा कर रहा है। आपकी लघुकथाओं में मानव की मानसिकता, दायित्वबोध, संघर्ष, अहंकार, नैतिक मूल्य, लीडरशिप, वैचारिक टकराव आदि सहज ही परिलक्षित होते हैं। आपकी कुछ लघुकथाओं के बारे में विचार करें तो, आपकी एक लघुकथा है ‘पुरुष’ जिसमें बस में बैठा हुआ एक व्यक्ति अपनी पीछे की सीट पर बैठी महिलाओं की तरफ आकर्षित होता है, और उन्हें देखने के लिए परेशान होता रहता है। रचना के अंत में जब पीछे बैठी महिलाओं में से एक कहती है कि, "अंकल! प्लीज खिड़की बन्द कर दीजिए न!" तो उसके विचारों की सुनामी एकदम शांत झील में तब्दील हो जाती है और उसके मुँह से सहज ही निकल जाता है,"अच्छा बेटा!"। यह लघुकथा एक प्रौढ़ होते हुए व्यक्ति की मानसिकता को दर्शाने में पूर्ण सफल है।
इसके अतिरिक्त उनकी एक रचना मुझे बहुत अच्छी लगती है, वह है - 'सहानुभूति', अधिकारी से डांट खाता हुआ कर्मचारी स्वयं को अपमानित महसूस करता है और अधिकारी से कहता है कि "आप मुझे इस प्रकार डाँट नहीं सकते, आपको जो कहना या पूछना हो, लिखकर कहें या पूछें। मैं जवाब दे दूंगा।" जिसका उत्तर अधिकारी कुछ इस तरह देता है कि, "मैं लिखित कार्रवाई करके तुम्हारे बीवी-बच्चों के पेट पर लात नहीं मारूँगा। गलती तुम करते हो। डाँटकर प्रताड़ित भी तुम्हें ही करूँगा। तुम्हें जो करना हो… कर लेना। समझे?" यह बात उस कर्मचारी के हृदय को बेध जाती है और अंत में वह पात्र अपनी एक बात से पाठकों को भी झकझोर देता है, वह कहता है कि, "वह सिर्फ अपना अफसर ही नहीं, बाप भी है, जिसे मुझसे भी ज्यादा मेरे बच्चों की चिन्ता है।" नैतिक मूल्यों को उभारती हुई और कार्यालयों में हावी होती राजनीति की चट्टानों को तोड़ कर शीतल जल उभारती हुई अपनी ही कविता को इस लघुकथा में डॉ. पुष्करणा जी ने जीवित किया है।
रचनाओं के इसी क्रम में डॉ. पुष्करणा ने अपनी एक रचना 'वर्ग-भेद' में विषमबाहु त्रिभुज की तीन रेखाओं आधारभुजा, मध्यम और छोटी भुजा को लेकर प्रतीकों का बहुत ही सुंदर इस्तेमाल भी किया है। इसी प्रकार आपने 'पिघलती बर्फ' लघुकथा में नारी शक्ति को दर्शाया है। सहज ही अपने भीतर शक्ति का संचयन करते हुए एक नारी दहेज-प्रथा की धज्जियाँ उड़ाते हुए अपना पक्ष दृढ़ता से रखती है। हालांकि चार-पांच रचनाओं के द्वारा डॉ. पुष्करणा के लेखन को अधिक नहीं समझ सकते, यह केवल उदाहरण मात्र हैं।
- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (04-06-2019) को “प्रीत का व्याकरण” तथा “टूटते अनुबन्ध” का विमोचन" (चर्चा अंक- 3356) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
हार्दिक आभार आदरणीय सर।
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