आज विश्व पर्यावरण दिवस पर संगिनी पत्रिका का जून 2019 अंक (पर्यावरण विशेषांक) प्राप्त हुआ। इसमें मेरी एक लघुकथा "कटती हुई हवा" को भी स्थान प्राप्त हुआ है। वृक्षों की कटाई पर आधारित यह लघुकथा आप सभी के समक्ष पेश कर रहा हूँ।
पिछले लगभग दस दिनों से उस क्षेत्र के वृक्षों में चीख पुकार मची हुई थी। उस दिन सबसे आगे खड़े वृक्ष को हवा के साथ लहराती पत्तियों की सरसराहट सुनाई दी। उसने ध्यान से सुना, वह सरसराहट उससे कुछ दूरी पर खड़े एक दूसरे वृक्ष से आ रही थी।
सरसराहट से आवाज़ आई, "सुनो! "
फिर वह आवाज़ कुछ कांपने सी लगी, "पेड़खोर इन्सान... यहां तक पहुंच चुका है। पहले तो उसने... हम तक पहुंचने वाले पानी को रोका और अब हमें...आssह!"
और उसी समय वृक्ष पर कुल्हाड़ी के तेज प्रहार की आवाज़ आई। सबसे आगे खड़े उस वृक्ष की जड़ें तक कांप उठीं। उसके बाद सरसराहट से एक दर्दीला स्वर आया,
"उफ्फ! हम सब पेड़ों का यह परिवार… कितना खुश और हवादार था। कितने ही बिछड़ गए और अब ये मुझ पर... आह! आह!"
तेज़ गति से कुल्हाड़ियों के वार की आवाज़ ने सरसराहट की चीखों को दबा दिया। कुछ ही समय में कट कर गिरते हुए वृक्ष की चरचराहट के स्वर के साथ सरसराहट वाली आवाज़ फिर आई, इस बार यह आवाज़ बहुत कमजोर और बिखरी हुई थी, "सुनो! मैं जा रहा हूँ। मेरे बहुत सारे बीज धरती माँ पर बिखर गए हैं। उगने पर उन्हें हवा-पानी, रोशनी और गर्मी के महत्व को समझाना… मिट्टी से प्यार करना भी। प्रार्थना करना… कि अगली बार मैं किसी ऊंचे पहाड़ पर उगूं… जहां की हवा भी ये… पेड़खोर छू नहीं पाएं। उफ्फ...मेरी जड़ें भी उखड़..."
धम्म से वृक्ष के गिरने का स्वर गूँजा और फिर चारों तरफ शांति छा गयी। सबसे आगे खड़ा वृक्ष शिकायती लहज़े में सोच रहा था, "ईश्वर, तुमने हम पेड़ों को पीड़ा तो दी, पैर क्यों नहीं दिए?"
लघुकथा:
कटती हुई हवा
पिछले लगभग दस दिनों से उस क्षेत्र के वृक्षों में चीख पुकार मची हुई थी। उस दिन सबसे आगे खड़े वृक्ष को हवा के साथ लहराती पत्तियों की सरसराहट सुनाई दी। उसने ध्यान से सुना, वह सरसराहट उससे कुछ दूरी पर खड़े एक दूसरे वृक्ष से आ रही थी।
सरसराहट से आवाज़ आई, "सुनो! "
फिर वह आवाज़ कुछ कांपने सी लगी, "पेड़खोर इन्सान... यहां तक पहुंच चुका है। पहले तो उसने... हम तक पहुंचने वाले पानी को रोका और अब हमें...आssह!"
और उसी समय वृक्ष पर कुल्हाड़ी के तेज प्रहार की आवाज़ आई। सबसे आगे खड़े उस वृक्ष की जड़ें तक कांप उठीं। उसके बाद सरसराहट से एक दर्दीला स्वर आया,
"उफ्फ! हम सब पेड़ों का यह परिवार… कितना खुश और हवादार था। कितने ही बिछड़ गए और अब ये मुझ पर... आह! आह!"
तेज़ गति से कुल्हाड़ियों के वार की आवाज़ ने सरसराहट की चीखों को दबा दिया। कुछ ही समय में कट कर गिरते हुए वृक्ष की चरचराहट के स्वर के साथ सरसराहट वाली आवाज़ फिर आई, इस बार यह आवाज़ बहुत कमजोर और बिखरी हुई थी, "सुनो! मैं जा रहा हूँ। मेरे बहुत सारे बीज धरती माँ पर बिखर गए हैं। उगने पर उन्हें हवा-पानी, रोशनी और गर्मी के महत्व को समझाना… मिट्टी से प्यार करना भी। प्रार्थना करना… कि अगली बार मैं किसी ऊंचे पहाड़ पर उगूं… जहां की हवा भी ये… पेड़खोर छू नहीं पाएं। उफ्फ...मेरी जड़ें भी उखड़..."
धम्म से वृक्ष के गिरने का स्वर गूँजा और फिर चारों तरफ शांति छा गयी। सबसे आगे खड़ा वृक्ष शिकायती लहज़े में सोच रहा था, "ईश्वर, तुमने हम पेड़ों को पीड़ा तो दी, पैर क्यों नहीं दिए?"
- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
बहुत-बहुत आभार आदरणीय डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' जी सर।
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