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गुरुवार, 27 फ़रवरी 2020

अंतरराष्ट्रीय लघुकथा प्रतियोगिता अपडेट





✍️शब्दों की कोई सीमा नहीं है।
👌एक लघुकथाकार कितनी भी रचनाएं प्रेषित कर सकता है
🤗२४ फरवरी से ४ मार्च तक लगातार भाग लेने वाले प्रतिभागियों को विशेष पुरस्कार।
🙌सभी प्रतिभागियों को रचना प्रेषित करने पर पार्टीसिपेट करने का सर्टिफिकेट दिया जाएगा।
👍रचनाओं को लिंक पर जाकर ही प्रेषित करना है ताकि रचना प्रतियोगिता में शामिल हो सके।
🤝विषय: सामाजिक, सांसारिक, पर्यावरण, देशभक्ति, प्रेरणादायक, शिक्षाप्रद आदि विषयों पर लिख सकते हैं।
✍️भाग लेने के लिए लिंक पर आपका स्वागत है
http://sm-s.in/v8TidJc

सोमवार, 24 फ़रवरी 2020

अंतरराष्ट्रीय लघुकथा प्रतियोगिता


सभी लघुकथाकारों को यह सूचित करते हुए अत्यंत हर्ष है कि स्टोरीमिरर एवं लघुकथा दुनिया के संयुक्त तत्वावधान में एक अंतरराष्ट्रीय लघुकथा प्रतियोगिता का आयोजन प्रस्तावित है। विश्व के सभी देशों के हिंदी लघुकथाकार इस प्रतियोगिता में सादर आमंत्रित हैं। इस प्रतियोगिता में भाग लेने के नियम व शर्ते निम्नानुसार हैं:

नियम व शर्तें
१.      विश्व के सभी देशों के हिंदी लघुकथाकार इस प्रतियोगिता में भाग ले सकते हैं।
२.      एक लघुकथाकार कितनी भी लघुकथाएँ प्रेषित कर सकता है।
३.      लघुकथा स्वरचित हो और स्टोरीमिरर पर पहले से प्रकाशित ना हो। किसी भी दशा में यदि किसी की भी रचना कहीं से भी कॉपी की हुई पाई गई तो वह कानूनी रूप से खुद जिम्मेदार होगा/होगी।
४.      यदि यह पता चलता है कि रचना पहले से ही स्टोरीमिरर पर प्रकाशित हुई है तो आपको रिजेक्ट कर दिया जाएगा।
५.      लघुकथा के साथ लघुकथा के उद्देश्य को भी पांच-छः पंक्तियों में लिखें। यह आवश्यक है कि लघुकथा जिस उद्देश्य को लेकर कही जा रही है, वह लघुकथा को पढ़ते समय स्वतः ही स्पष्ट हो।
६.      विषय लघुकथाकार द्वारा ही निर्धारित किया जाये। हालांकि लघुकथा आज के समय की किसी विसंगति को उजागर करती हो अथवा समसामयिक सन्देश देती हो।
७.      रचना में किसी भी प्रकार की अश्लीलता नहीं होनी चाहिए।
८.      प्रतियोगिता में कोई भी भाग ले सकता है। आयु आदि का बंधन नहीं है।
९.      प्रतियोगिता में भागीदारी पूर्णतः निशुल्क है।
नोट-: कहानी या कविता केवल प्रतियोगिता के लिंक पर ही जाकर प्रेषित की जानी चाहिए।


पुरस्कार
१.  उल्लेखनीय स्थान प्राप्त करने वाली 50 लघु कथाओं का ई-बुक बनाने के साथ-साथ सभी को डीजिटल सर्टिफिकेट प्रदान किया जाएगा।
२.  लगातार १० दिनों तक भाग लेने वाले प्रतिभागी को स्टोरिमिरर की तरफ़ २५० रुपये का गिफ्टवॉउचर दिया जायेगा।
३.   प्रत्येक प्रतिभागी को रचना प्रेषित करने पर प्रशस्ति-पत्र दिया जाएगा।

प्रेषण प्रक्रिया
१.       प्रतियोगिता में अपनी रचनाओं को २४ फरवरी से लेकर ४ मार्च तक सबमिट कर सकते हैं।
२.      २५ मार्च २०२० को इस प्रतियोगिता का परिणाम https://www.storymirror.com पर प्रकाशित किया जाएगा।
३.       सबसे ज्यादा पढ़ी गयी रचनाओं को भी विशेष तौर पर उल्लेखनीय स्थान देने के लिये चुना ज़ायेगा।
४.       चूँकि यह प्रतियोगिता आपकी प्रतिभा को परखने हेतु की जा रही है अतः विषय, शिल्प, शैली आदि की नवीनता को प्राथमिकता दी जायगी।
५.     प्रतियोगिता सोहार्दपूर्ण रहे, यह प्रतिभागियों का भी दायित्व है। किसी भी प्रकार के सन्देह, स्पष्टीकरण अथवा शिकायत होने पर कहीं अन्य वार्तालाप के स्थान पर आयोजकों से निसंकोच संपर्क करें। इस हेतु प्रतियोगिता के समय एवं पश्चात् भी hindi@storymirror.com पर इमेल पर संपर्क किया जा सकता है।

रविवार, 23 फ़रवरी 2020

समीक्षा: लघुकथा संग्रह | आप बीती कुछ जग बीती | लेखक: डॉ. अशोक चतुर्वेदी | समीक्षक: डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा

लघुकथा संग्रह : 
आप बीती कुछ जग बीती
लघुकथाकार : डॉ. अशोक चतुर्वेदी
प्रकाशक : शारदा ऑफसेट प्रा.लि., रायपुर
प्रकाशन वर्ष : 2019
संस्करण : प्रथम
पृष्ठ संख्या : 80
मूल्य : 100

जीवन के विभिन्न रंगों को अपने में समेटे डॉ. अशोक चतुर्वेदी जी की छप्पन लघुकथाओं का एक अनूठा संगम है, यह पुस्तक- 'आप बीती कुछ जग बीती'। इसकी हर कथा संक्षिप्त, मनोरंजक, सार्थक एवं इंसानी स्वभाव के उज्ज्वल पक्ष की पक्षधर है, जो सुधी पाठकों के अंतर्मन को भले-बुरे का एहसास कराती हुई जीवन पथ पर आगे बढ़ने के लिए मार्ग-प्रशस्त करती है। बस ज़रूरत है, तो सिर्फ़ पठन के साथ मनन करते हुए सकारात्मक सोच के साथ उसे अपने व्यवहार में लाने की। 'आप बीती कुछ जग बीती' संग्रह की लघुकथाओं से गुजरते हुए मैंने पाया कि इसमें से अधिकतर लघुकथाएँ भावनात्मक और मानवीय संवेदनाओं से ओतप्रोत हैं। लेखक डॉ. अशोक चतुर्वेदी छत्तीसगढ़ राज्य के एक वरिष्ठ अधिकारी हैं, जिन्होंने अपने लगभग दो दशक के दीर्घ प्रशासनिक जीवन में गाँव के अंतिम छोर पर स्थित व्यक्ति से सीधा संपर्क रखा और उनके सुख-दुःख में बहुत
ही आत्मीयता से जुड़ाव रखा।
लघुकथा गद्य साहित्य में अभिव्यक्ति की वह नवीनतम और लोकप्रिय विधा है, जो आकार में छोटी है, परन्तु अपनी पूरी बात कम से कम शब्दों में कहने में पूरी तरह से सक्षम है। यह कवि बिहारीलाल के दोहों की तरह 'देखन में छोटन लगे, घाव करे गंभीर' को चरितार्थ करती है। लेखक डॉ. अशोक चतुर्वेदी जी ने अपनी बात इसी विधा में कहने का सफल प्रयास किया है। डॉ. अशोक चतुर्वेदी जी ने अपनी लघुकथाओं में जीवन के हर क्षेत्र में व्याप्त सामाजिक विद्रूपताओं के अलावा उच्च अधिकारियों द्वारा आम आदमी के शोषण, भ्रष्टाचार, जुगाड़, कथनी- करनी भेद, उच्च वर्ग की सम्पन्नता तथा निम्न वर्ग के संघर्षमय जीवन का बहुत ही सीधे, सरल तथा सजीव रूप से सुन्दर चित्रण किया है। इनके पात्र कहीं भी हवाई या काल्पनिक नहीं, बल्कि अपने आसपास के ही प्रतीत हो रहे हैं। चतुर्वेदी जी की लघुकथाएँ कमोबेश रूप से यथार्थ के बहुआयामी पक्षों को संकेत करती हैं, जिनमें व्यंग्य की व्यंजना तथा अर्थ की दूरगामी व्यंजना का समावेश इस प्रकार होता है कि वहखुले अंत की ओर संकेत करती हैं।
डॉ. अशोक चतुर्वेदी जी ने अपनी लघुकथाओं के लिए विषय का चयन अपने परिवेश से ही किया है। उनकी लघुकथाएँ जिस शिद्दत के साथ आज के यथार्थ को एक रचनात्मक संदर्भ देती हैं, वह उनके सुदीर्घ अनुभव, ज्ञान एवं संवेदना के उचित समायोजन का प्रतिफल प्रतीत होता है। शासकीय सेवा में एक वरिष्ठ पद पर कार्य करते होते हुए भी शासन-प्रशासन की अव्यवस्था एवं विद्रूपताओं को बिना किसी लाग-लपेट के कथा का आधार बनाना लेखक डॉ. अशोक चतुर्वेदी के साहस एवं सामाजिक सरोकारों के प्रति जवाबदेही और स्पष्टवादिता का परिचायक है। यथा, 'जनअदालत' में उन्होंने लिखा है- ''आज फिर शांत बस्तर की खूबसूरत वादियों में, शासन के द्वारा किए जा रहे विकास कार्यों की प्रशंसा करने वाले एक उत्साही नौजवान को मुखबीरी के नाम पर 'जन- अदालत' लगाकर नक्सलियों द्वारा मौत की सजा दी गई। पहले उसकी ऊँगलियों के नाखून निकाल दिए गए फिर ऊँगलियाँ काट दी गईं और कठोर यातना के बाद एक वीभत्स मौत।'' पुलिस अधिकारियों के द्वारा प्रभावशाली एवं साधारण आदमी के एक ही प्रकार के प्रकरण में अपनाए जाने वाले दोहरे व्यवहार, नक्सल प्रभावित क्षेत्रों मंे आयोजित जन अदालत, गौ-सेवा, अदालती कार्यवाही में देरी, उच्चाधिकारियों के कथनी-करनी में भेद और दोहरे चरित्र पर आधारित अनेक लघुकथाएँ, बहुत ही अच्छी बन पड़ी हैं।
इस संग्रह से गुजरते वक्त मुझे कहीं भी अजीब-सा नहीं लगा। सभी लघुकथाएँ सहज, सरल और जीवन्त लगीं, जिन्हें पढ़ना अपने आप में एक अलग अनुभव प्राप्त करना है। संग्रह की लघुकथाएँ पाठकों के समक्ष कई बड़े प्रश्न भी उठाती हैं। मूर्तिपूजा, जीवहत्या, ईश्वर-अल्लाह, दामिनी: एक प्रश्न, बच्चे का भविष्य, अल्पसंख्यक, आरक्षण, महिला आरक्षण, अमीर कौन गरीब कौन में उठाए गए सवाल ऐसे हैं, जहाँ आकर पाठक बहुत कुछ सोचने पर विवश हो जाता है। यहाँ लेखक ने स्वयं इनके उत्तर नहीं दिए हैं, बल्कि पाठकों के समक्ष ही प्रश्न रख दिए हैं। अब पाठकों को ही उनके उत्तर तलाशने होंगे। यथा- ''क्या हत्या और दंगे ईश्वर या अल्लाह की मर्जी से होते हैं?'' ''प्रश्न बड़ा गंभीर है। कौन है ज़्यादा महत्त्वपूर्ण? शरीर या आत्मा?'' ''पर संसद, मंत्रिमंडल एवं विधानसभाओं में यह प्रावधान कब लागू होगा ? होगा भी कभी?'' यूँ तो सीमित कलेवर वाली लघुकथा में परिवेश के चित्रण की ज्यादा संभावना नहीं रहती,परंतु चतुर्वेदी जी ने अपनी कई लघुकथाओं में बहुत ही सुंदर रूप में परिवेश का चित्रण कर दिया है।
जैसे- बढ़ता ड्राईंगरूम: घटते मानवीय रिश्ते, फ्लैट, मकान, ट्रेन की सीटी के मायने, कब्रिस्तान का सच, स्वतंत्रता क्या है ?, अपहरण, इकलौता, एक नन्ही-सी जान, आँसू, तकदीर का फ़साना। विचारों के प्रवाह, संवेदना की गहराई एवं संवादों की मार्मिकता के कारण डॉ. अशोक चतुर्वेदी की कई लघुकथाएँ बहुत ही अच्छी बन पड़ी हैं। विषयों की विविधता इस बात का सूचक है कि लेखक की नजर हर संवेदना पर टिकी है और उन्होंने हर अनुभूति को शब्दों में पिरोने का प्रयास किया है। संग्रह की लघुकथाओं में उनके मानवीय मूल्यों की झलक दिखाई देती है, जिन्हें पठनोपरांत इनकी सम्प्रेषणीयता पाठक के अंतर्मन की गहराई तक उतर जाती है। यथा- ''सात-आठ वर्षीय बड़े बेटे द्वारा अपनी मृत माँ एवं दुग्धपान करते अनुज को अविरल निहारते रहने की पीड़ा, वेदना।'' डॉ. अशोक चतुर्वेदी जी की लघुकथाएँ पारिवारिक जीवन के बदलते हुए रूपों को सामने लाती हैं, जहाँ रिश्तों में खुरदुरापन ही नहीं वीरानापन भी पसर रहा है। यथा- ''घर में साल में कभी-कभार कोई मेहमान या रिश्तेदार एक-दो दिन के लिए आते हैं।'' एक अन्य लघुकथा में उन्होंने लिखा है- ''एक भाई ने अपने सगे भाई को ही गोली मार दी, पैत्रिक सम्पत्ति हथियाने के लिए।'' चतुर्वेदी जी की अनेक लघुकथाओं में जहाँ भावनात्मक रिश्तों की ज़मीन दरक रही है, वहीं उसके उजले अध्याय भी हैं। यथा- 'मदर्स डे' शीर्षक लघुकथा की ये पंक्तियाँ, ''मेरी माँ के लिए है। मेरे पास सिर्फ़ तीस रुपए हैं। क्या इतने में देंगे ?'' एक अन्य लघुकथा 'इकलौता' में उन्होंने लिखा है- ''बेटा, हम तुझे ज़्यादा चाहते हैं, क्योंकि हम तो दो हैं और तू एक ही है।''


डॉ. अशोक चतुर्वेदी जी की लघुकथाएँ भ्रष्ट सरकारी तंत्र, राजनीतिक कुचक्र और उनमें फँसे एक आम आदमी की पीड़ा की सार्थक अभिव्यक्ति है। ''घटना को बीते कई साल बीत गए। विभाग द्वारा अभी आत्महत्या के लिए प्रेरित करने वाले कारणों एवं जिम्मेदारियों का निर्धारण किया जा रहा है।'' इसी प्रकार एक अन्य लघुकथा में उन्होंने लिखा है- ''अ-सरदार जी बड़े ही विनम्र स्वभाव के थे और भ्रष्ट भी। चाटुकारिता के गुण उनमें कूट-कूट कर भरे थे, जो आज के युग में हर मर्ज की
दवा है।'' डॉ. अशोक चतुर्वेदी जी की लघुकथाएँ वर्तमान सामाजिक एवं राजनीतिक व्यवस्था में फैले हुए दिखावटी सत्य के ऊपरी आवरण को भेदकर अंदरूनी वास्तविकताओं को चित्रित करती हुई प्रतीत हो रही हैं। उन्होंने अपनी लघुकथाओं के माध्यम से समाज में व्याप्त मूल्यहीनता, मानवाधिकारों के हनन, बाह्याडंबर, आर्थिक सामाजिक, राजनैतिक, एवं नैतिक विडम्बनाओं पर सीधे-सीधे प्रहार करते हैं। ये लघुकथाएँ जहाँ मानवीय मूल्यों के ह्रास का चित्रण करती हैं, वहीं पाठकों को नए सिरे सेसोचने पर विवश भी कर देती हैं।
डॉ. अशोक चतुर्वेदी जी की भाषा काफी लचीली है, जिसमें वे बातचीत के अंदाज में ही अपनी बात कहते चले गए हैं। सामान्य शब्दों के साथ-साथ उन्होंने कहीं-कहीं भारी भरकम शब्दों का भी प्रयोग किया है, जिनका पर्याय आम बोलचाल के शब्दों में भी उपलब्ध है। यथा- कमोडधारी समाज, विकलित, दुर्दांत, सेवा-सुश्रुशा, मुखबीरी, अ-सरदार आदि। 'आप बीती कुछ जग बीती' की एक और खास बात, जिसका उल्लेख किए बिना बात अधूरी ही रहेगी, वह है- इसकी सुन्दर चित्रकारी। सामान्यतः लघुकथा संकलनों में चित्रों का समावेश नहीं के बराबर होता है, परंतु इस पुस्तक में डॉ. अशोक चतुर्वेदी जी की कल्पना को खूबसूरत चित्रों के माध्यम से जीवन्त बना दिया है- युवा चित्रकार राजेन्द्र सिंह ठाकुर ने। यदि हम यूँ कहें कि चित्रों ने पुस्तक की खूबसूरती में चार चाँद लगा दिए हैं, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। 'आप बीती कुछ जग बीती' अशोक जी की पहली लघुकथा संग्रह है। यदि हम इस संग्रह की लघुकथाओं को लघुकथा की कसौटी पर कसें, तो संभव है कि कई लघुकथाएँ पूरी तरह से खरी नहीं उतरेंगी। इसे लेखक ने अपने आत्मकथ्य में स्वयं स्वीकार भी किया है, परंतु लेखक की प्रस्तुतीकरण एवं भाव-प्रवणता ऐसी है कि इन्हें पढ़कर हमें सहज ही आभास हो जाता है कि उनमें लेखन की अपार क्षमता है। 'आप बीती कुछ जग बीती' न तो पूरी तरह से कहानी संग्रह है, न आत्मकथ्य और न ही लघुकथा संग्रह। इसे एक नई विधा के रूप में देखा जा सकता है, जो आत्मकथ्य शैली में कहानी की रवानगी से शुरू होकर लघुकथा के कलेवर में हमारे समक्ष प्रस्तुत होती है। आशा ही नहीं, मुझे पूरा विश्वास है कि ये सहज, सरल एवं सारगर्भित लघुकथाएँ निश्चित रूप से सुधी पाठकों के मानस पटल पर अपना प्रभाव छोड़ने में कामयाब होंगी और लोगों में खंडित हो रहे मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था जगेगी।

Source:
https://shabdpravah.page/article/aap-beetee-kuchh-jag-beetee-laghukatha-sangrah-/dV230m.html

शनिवार, 22 फ़रवरी 2020

लघुकथा एक ऐसा लाइट हाउस है जो पूरे साहित्य को दिशा प्रदान करता है। | लघुकथा समाचार

पत्रिका समाचार  21 फरवरी 2020

दिल्ली से आए लघुकथाकार बलराम अग्रवाल ने कहा, हम वृद्ध आश्रम की बात करके युवा पीढ़ी को क्या बताना चाहते हैंं? क्या हमारे घर से कोई वृद्ध आश्रम गया है? जब हम अपने अनुभवों को कल्पना के आधार पर ही लिखेंगे तो वह बात गहराई से लोगों तक नहीं पहुंचेगी।


रायपुर द्य फाफाडीह स्थित होटल में राष्ट्रीय लघुकथा का आयोजन किया गया। इसमें डॉ. बलराम अग्रवाल, सुभाष नीरव, गिरीश पंकज,डॉ राजेश श्रीवास्तव, डॉ सुधीर शर्मा, डॉ. मालती बसंत, जया केतकी, साकेत सुमन चतुर्वेदी शामिल हुए। 

संस्था की अध्यक्ष संतोष श्रीवास्तव ने लघुकथा में नारी अस्मिता को लेकर अपनी बात रखते हुए कहा, आज लघुकथा मांग करती है एक ऐसी शक्ति स्वरूपा नारी की जो अपनी अस्मिता और अस्तित्व की रक्षा करती हुई शोषण की शक्तियों से मुठभेड़ करती नजर आए। दिल्ली से आए लघुकथाकार बलराम अग्रवाल ने कहा, हम वृद्ध आश्रम की बात करके युवा पीढ़ी को क्या बताना चाहते हैंं? क्या हमारे घर से कोई वृद्ध आश्रम गया है? जब हम अपने अनुभवों को कल्पना के आधार पर ही लिखेंगे तो वह बात गहराई से लोगों तक नहीं पहुंचेगी। उन्होंने कई लघुकथाओं के उदाहरण देते हुए नारी अस्मिता को लेकर लघुकथाएं लिखना मौजूदा समय की मांग बताया।विशिष्ट अतिथि गिरीश पंकज ने कहा कि लघुकथा एक ऐसा लाइट हाउस है जो पूरे साहित्य को दिशा प्रदान करता है मुख्य अतिथि सुभाष नीरव ने अपने वक्तव्य में लघुकथाओं में नारी अस्मिता को लेकर विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला। संस्था की ओर से विभिन्न विधाओं पर पांच पुरस्कार प्रदान किए गए। 

राधा अवधेश स्मृति पुरस्कार-लक्ष्मी यादव, पुष्पा विश्वनाथ स्मृति पुरस्कार -अजय श्रीवास्तव अजेय,हेमंत स्मृति लघुकथा रत्न सम्मान-कांता राय, पांखुरी लांबा सक्सेना स्मृति पुरस्कार-साधना वैद, द्वारका प्रसाद स्मृति साहित्य गरिमा पुरस्कार-अलका अग्रवाल ममता अहार द्वारा शक्ति स्वरूपा नाटक का एकल मंचन के साथ ही 75 कवियों और लघुकथाकारों की कविता व लघुकथा की प्रस्तुति।तीन सत्रों में आयोजित कार्यक्रम का संचालन क्रमश: नीता श्रीवास्तव, रूपेंद्र राज तिवारी और वर्षा रावल ने किया।

Source:
https://www.patrika.com/raipur-news/el-cuento-es-un-faro-que-da-direccin-a-toda-la-literatura-5803798/

गुरुवार, 20 फ़रवरी 2020

साक्षात्कार | लघुकथाकार डॉ. पूरन सिंह का साक्षात्कार | डॉ. पूनम तुषामड़ द्वारा


डॉ. पूरन सिंह का दलित साहित्य में ही नहीं गैर दलित साहित्य में भी में जाना-पहचाना नाम है. डॉ. पूरन सिंह जी ने लघुकथा क्षेत्र में प्रसिद्धि हासिल की है, लेकिन कहानियां भी लिखते हैं. इनकी कई किताबें अब तक प्रकाशित हो चुकी हैं. डॉ. पूरन सिंह जी का साक्षात्कार डॉ. पूनम तुषामड़ ने विश्व पुस्तक मेला 2020, प्रगति मैदान, नई दिल्ली में कदम प्रकाशन के स्टॉल पर लिया. साक्षात्कार के वीडियो की रिकार्डिंग तथा एडिटिंग मनीषा चौहान व अतुल चौहान ने की है.

Source:
https://www.youtube.com/watch?v=9ocUNpbdss8&feature=youtu.be

रविवार, 16 फ़रवरी 2020

शोधकार्य: मेरी कमज़ोर लघुकथा


लघुकथा दुनिया
iBlogger द्वारा Best Indian Hindi Blog से सम्मानित
ब्लॉगर ऑफ द ईयर 2019 का सम्मान प्राप्त
Email: laghukathaduniya@gmail.com, URL: http://laghukathaduniya.blogspot.com
Cell-Phone: 9928544749





सम्माननीय साहित्यकार,
सादर नमस्कार।

आप सभी के महती सहयोग से लघुकथा दुनिया द्वारा लघुकथा पर दो शोधकार्य सम्पन्न किये गये हैं। पहला कार्य लघुकथा के शीर्षक पर लघुकथा लेखकों के दृष्टिकोण, जिसके आधार पर एक शोध पत्र लिखा गया है और प्रकाशन के लिये भेज दिया गया है। दूसरा 'लघुकथा 2020: नए लेखकों की नज़र में', जिसका संकलन कार्य समाप्त हो चुका है और योगराज प्रभाकर जी सर के पास विश्लेषण हेतु भेजा गया है। इनमें सहयोग हेतु आप सभी का हृदय से आभारी हूँ। इसी क्रम को आगे बढाते हुए एक और शोध योजना प्रस्तावित है। आप सभी से निवेदन है कि इसे भी सफल बनावें। यह योजना कुछ इस प्रकार हैः

1. 'मेरी कमज़ोर लघुकथा' नामक यह योजना वरिष्ठ तथा नवोदित दोनों के लिए ही है।

2. इस कार्य में लघुकथा लेखकों से उनकी स्वयं की एक ऐसी रचना देने का निवेदन है जो उनके अनुसार लघुकथा के किसी न किसी (एक अथवा अधिक) पक्ष/पक्षों में कमज़ोर है और जिसे उसी (उन्हीं) कमज़ोरी (कमज़ोरियों) की वजह से प्रकाशित होने नहीं भेजा। उस रचना विशेष को किस वर्ष में लिखने का प्रयास किया गया, यह भी साथ में देवें।

3. रचना के साथ लेखक से एक वक्तव्य भी लिख कर देने का निवेदन है, जिसमें वे अपनी उस लघुकथा की कमज़ोरी/कमजोरियों को इंगित करें। इस हेतु शब्द सीमा आदि लेखक स्वयं ही निर्धारित करें।

4. वरिष्ठ लेखकों से इसमें जुड़ने का विशेष आग्रह है क्योंकि मेरे संज्ञान में अब तक इस विषय पर कार्य नहीं हुआ है, अतः वरिष्ठ लेखकों के अनुभव का लाभ प्राप्त हो तो अति उत्तम।

कार्य का आधार: 

इस प्रस्ताव का आधार यह है कि (कुछ अपवादों को छोड़कर) लगभग हर लेखक/लेखिका ने अपनी कोई न कोई रचना खुद ही रिजेक्ट की है। वे रचनाएं कैसी हैं और लेखक/लेखिका द्वारा उन्हें रिजेक्ट क्यों किया गया है, यह जानने की जिज्ञासा ही इस शोध का आधार बनी है।

कार्य का उद्देश्यः
उपरोक्त विवरण पढ़ने के बाद आप समझ ही गए होंगे कि इस कार्य का मुख्य उद्देश्य यह ज्ञात करना है कि लघुकथा लेखन के समय किस तरह की ऐसी कमियां हैं, जो रह जाएं तो रचना को प्रकाशन हेतु नहीं भेजना चाहिये। यदि यह शोध सफल होता है तो लेखकों के नए व्यवहार को भी देखा जा सकता है। यह व्यवहार अपेक्षित है कि लेखक/लेखिका अपनी कमजोर लघुकथाओं को इन लघुकथाओं और वक्तव्य के साथ तुलना कर उन्हें प्रकाशन/प्रसारण को न भेजें।

समय सीमा:
आपकी रचनाएं और वक्तव्य आपके संक्षिप्त परिचय (साहित्यिक परिचय, संपर्क विवरण (डाक का पता, चलभाष (मोबाइल) नंबर, ईमेल आईडी) व चित्र) के साथ 15 मार्च 2020 तक laghukathaduniya@gmail.com पर ईमेल करने का कष्ट करें। ईमेल में विषय "मेरी कमज़ोर लघुकथा" ही रखें। ईमेल निम्न प्रारूप में भेजिए:

नाम (हिंदी और अंग्रेजी में):
संक्षिप्त साहित्यिक परिचय:

संपर्क विवरण
डाक का पता:
चलभाष (मोबाइल) नंबर:
ईमेल आईडी:

रचना का वर्ष: 
रचना (शीर्षक सहित):
वक्तव्य (रचना की कमज़ोरियाँ):

कार्य का आउटपुट:
फिलवक्त एक ई-बुक बनाने का विचार है, जिसके ISBN हेतु अप्लाई कर दिया है।  

टैग लाइन 
इस शोधकार्य में वे सभी लेखक व लेखिकाएं सम्मिलित हैं जो अपने लेखन से समाज की कमज़ोरी इंगित करने के साथ-साथ लेखकीय समुदाय के हित में अपने लेखन की कमज़ोरी को इंगित करने का भी साहस रखते हैं।


इस योजना के अपडेट पाने एवं लघुकथा सम्बन्धी सामग्री पढ़ने हेतु लघुकथा-दुनिया ब्लॉग को फॉलो एवं सब्सक्राइब ज़रूर करें।

साभार,    

For लघुकथा दुनिया 


डॉ0 चन्द्रेश कुमार छतलानी
लघुकथा दुनिया
iBlogger द्वारा Best Indian Hindi Blog से सम्मानित
ब्लॉगर ऑफ द ईयर 2019 का सम्मान प्राप्त
URL: http://laghukathaduniya.blogspot.com   

शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2020

शोध पत्र: प्रेम सिंह बरनालवी की लघुकथाओ में व्यक्त लोकजीवन एवं साम्प्रदायिकता | डॉ हेमलता राणा

दृष्टिकोण Vol 11 No 4 (2019): Vol-11-Issue-4-July-August-2019




Abstract

प्रेम सिंह बरनालवी जी का  जन्म  29 अक्टूबर 1945 को हरियाणा प्रांत के अंबाला जिल के बरनाला नामक गांव के एक गरीब परिवार में हुआ। वह बचपन से ही अपने पारिवारिक रिश्तो से बहुत जुड़े हुए थे। साहित्य में अपने आगमन को लेकर बरनालवी  लिखते हैं कि "जब सेना में रहते हुए वे हाई लॉन्ग पोस्ट पर गए तो काफी समय होने के कारण समीप के पुस्तकालय की तमाम पुस्तक उन्होंने पढ़  डाली।" वहां के प्राकृतिक सौंदर्य तथा एकांत वातावरण ने बरनालवी जी को काव्य सृजन के लिए प्रेरित किया।  देवताओं का निवास कहे जाने वाली उस धरती पर पता नहीं कब क्यों और कैसे बरनालवी जी के भीतर से काव्य स्त्रोत फूट पड़ा।  वहीं पर उन्होंने अपनी पहली रचना 'मेरा मंदिर´ लिखी जो कि उनकी सबसे बेहतर काव्य रचना थी परंतु 30 पदों की लंबी रचना होने के कारण यह अभी तक अप्रकाशित है। इसके बाद बरनालवी जी हर समय प्रकृति का मानवीकरण कर कुछ ना कुछ लिखते ही रहे और धीरे धीरे एक प्रतिभाशाली और अनुभवी लेखक के रूप में उभर कर सामने आए।  उन्होंने मानव मन की गहराइयों में उतर कर समस्याओं के मूल शुरू की खोज की। उनके पूर्वजों ने उन्हें जो संस्कार दिए समाज ने जो अनुभव दिया और ईश्वर ने जो कौशल दिए,  वह इन सभी विशेषताओं का खुलकर इस्तेमाल कर रहे थे।  उनकी रचनाओं में विषय की मौलिकता व भावुकता स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। उनका साहित्य सृजन उनकी लोक कथाओ के माध्यम से ज्यादा उभर कर सामने आया जिसमे लोक कथा के माध्यम से  सूक्ष्म मनः स्थितियों को प्रभावी रूप से उकेरा गया है । लघुकथा के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुए डॉ. सतीश राज पुष्करणा के कहा कि "लघुकथा मानव मन की अभिव्यक्ति को कुछ शब्दो में प्रभावशाली ढंग से कहा देने की विधा है।" बरनालवी जी की लघु कथा के साथ साथ लोक चेतना प्रमुख रूप से उभर कर सामने आई है।  लोक चेतना से अभिप्राय उनकी संसार को देखने की दृष्टि है जो कि  उनके अंतर्मन में पूरी तरह छाई हुई है। बरनालवी जी ने समाज की यथास्थिति और उस पर कुरीतियों के बढ़ते प्रभाव को भलीभांति स्पष्ट किया।  .... 

Source:

https://hindijournals.org/index.php/drishtikon/article/view/1611



बुधवार, 12 फ़रवरी 2020

लघुकथा समाचार: सुक्ष्म, तीक्ष्ण व संवेदनशील विधा है लघुकथा : अवधेश प्रीत

दर्पण समाचार 


मधुदीप द्वारा संपादित ” विश्व हिंदी लघुकथाकार निर्देशिका ” का हुआ लोकार्पण

 लघुकथा पाठ से गुंजायमान हुआ मंगल तालाब पन्नालाल मुक्ताकाश मंच


सुप्रसिद्ध कथाका अवधेश प्रीत ने कहा है कि लघु कथा एक ऐसी सुक्ष्म, तीक्ष्ण, मारक और संवेदनशील विधा है जिसका प्रभाव श्रोताओं के दिल दिमाग को वर्षों उद्वेलित करता है बशर्ते लघुकथाकार ने उसे संवेदना और अनुभव के बेहतर तालमेल के साथ लिखा हो।
वे रविवार को पटना सिटी मंगल तालाब स्थित पन्नालाल मुक्ताकाश प्रेक्षागृह में ”  विश्व हिंदी लघुकथाकार निर्देशिका ”  के लोकार्पण के अवसर पर आयोजित कार्यक्रम को संबोधित कर रहे थे।
अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच और स्वरांजलि के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए लघुकथा मंच के महासचिव  डॉ ध्रुव कुमार ने कहा कि विश्व हिंदी लघुकथाकार निर्देशिका के प्रकाशन से देशभर के लघुकथाकारों से संपर्क करना अब बहुत आसान हो गया है। उन्होंने इस सराहनीय कार्य के लिए इसके संपादक मधुदीप को बधाई दी।

 इस अवसर पर प्रसिद्ध कथाकार- उपन्यासकार डॉ संतोष दीक्षित ने कहा कि वस्तुतः साहित्य समाज का सापेक्ष है और लघुकथाएं प्रभावगामी होती हैं। ” सिकुड़े तो आशिक – फैले तो जमाना ”  लघुकथा पर बहुत ही सटीक है।
इस मौके पर डेढ़ दर्जन लघुकथाकारों ने अपनी – अपनी लघुकथाओं का पाठ किया।
इन लघुकथाओं की समीक्षा करते हुए जयप्रकाश विश्वविद्यालय, छपरा की प्रोफेसर  समोलचक डॉ अनीता राकेश ने कहा कि सभी रचनाएं समाज की विसंगतियों से हर रोज जूझते लोगों की मनोदशा व उनके मानसिक संघर्ष और द्वंद्ध को दर्शाती हैं। उन्होंने विशेष तौर पर प्रभात धवन, आलोक चोपड़ा, पंकज प्रियम, दयाशंकर प्रसाद,  शंकर शरण आर्य, संजू शरण, रिचा वर्मा, डॉ  मीना कुमारी परिहार, सूरज देव सिंह और गौरीशंकर राजहंस की लघु कथाओं का उल्लेख किया।
वरिष्ठ लेखक डॉ राधाकृष्ण सिंह ने लघुकथा मंच के इस प्रयास की सराहना करते हुए कहा कि लघुकथा का रूप भले छोटा हो लेकिन उसकी पहुंच बहुत दूर तक है। लघुकथा के बारे में ” देखन में छोटन लगे – घाव करे गंभीर”  पूर्णता सत्य है।
कार्यक्रम का संचालन स्वरांजलि के संयोजक अनिल रश्मि ने किया जबकि धन्यवाद ज्ञापन ए आर हाशमी ने किया।
जिन लघुकथाकारों ने अपनी रचनाएं पढ़ी , उनमें प्रभात कुमार धवन, संजू शरण,  आलोक चोपड़ा, ए आर हाशमी, पंकज प्रियम, गौरीशंकर राजहंस, सूरज देव सिंह, शंकर शरण आर्य, दया शंकर प्रसाद, प्रो अनीता राकेश, अनिल रश्मि, डा ध्रुव कुमार, रिचा वर्मा और डॉ मीना कुमारी परिहार शामिल थीं।

Source:
http://www.darpansamachar.com/?p=23513&fbclid=IwAR0QJI-ICY0AdrhW9AnYpmFbj7BV5TCMFsjPs-KampmczAZeUbzVnZtVw5o


मंगलवार, 11 फ़रवरी 2020

लघुकथा: मेच फिक्सिंग | डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

नीदरलैंड और भारत की पत्रिका अम्स्टेल गंगा (ISSN: 2213-7351) के  जनवरी – मार्च २०२० (अंक २८, वर्ष ९) मेरी एक लघुकथा

लघुकथा 'मेच फिक्सिंग'

“सबूतों और गवाहों के बयानों से यह सिद्ध हो चुका है कि वादी द्वारा की गयी ‘मेच फिक्सिंग’ की शिकायत सत्य है, फिर भी यदि प्रतिवादी अपने पक्ष में कुछ कहना चाहता है तो न्यायालय उसे अपनी बात रखने का अधिकार देता है।” न्यायाधीश ने अंतिम पंक्ति को जोर देते हुए कहा।

“मैं कुछ दिखाना चाहता हूँ।” प्रतिवादी ने कहा

“क्या?”

उसने कुछ चित्र और एक समाचार पत्र न्यायाधीश के सम्मुख रख दिये।
पहला चित्र एक छोटे बच्चे का था, जो अपने माता-पिता के साथ हँस रहा था।

दूसरे चित्र में वो छोटा बच्चा थोड़ा बड़ा हो गया था, और एक विशेष खेल को खेल रहा था।


तीसरे चित्र में वो राष्ट्र के लिए खेल रहा था, और सबसे आगे था।

चौथे चित्र में वो देश के प्रधानमंत्री से सम्मानित हो रहा था।

पांचवे चित्र में उसी के कारण उसके खेल को राष्ट्रीय खेल घोषित किया जा रहा था।

और अंतिम चित्र में वो बहुत बीमार था, उसके आसपास कोई दवाई नहीं थी केवल कई पदक थे।

इसके बाद उसने देश के सबसे बड़े समाचार पत्र का बहुत पुराना अंक प्रस्तुत किया, जिसका मुख्य समाचार था, “दवाइयां न खरीद पाने के कारण हॉकी का जादूगर नहीं रहा।”



न्यायाधीश के हृदय में करुणा जागी लेकिन जैसे ही उसने कानून की देवी की मूर्ती की तरफ देखा, स्वयं की आँखें भी बंद कर ली।
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Source:
अम्स्टेल गंगा

सोमवार, 10 फ़रवरी 2020

लेख : हिंदी लघुकथा-समीक्षा : दशा और दिशा | डॉ. सत्यवीर मानव

समकालीन लघुकथा की शुरुआत १९७० के आसपास से मानी जाये, तब भी एक विधा के रूप में यह जीवन का अर्धशतक पूरा कर चुकी है। इस दौरान इसने अपने रूप सौन्दर्य में काफी परिवर्तन- परिमार्जन किया है। संवेदना और शिल्प के स्तर पर नये-नये प्रयोग किये गये हैं और किये जा रहे हैं। हजारों रचनाएँ लिखी गई हैं, सैकड़ों संग्रह और संकलन प्रकाशित हुये हैं, अनेक पत्र-पत्रिकाओं ने लघुकथा-विशेषांक निकाले हैं; तो लघुकथा गोष्ठियों, प्रदर्शनियों आदि के माध्यम से भी इस पर खूब चर्चा-परिचर्चाएं हुईं हैं। बावजूद इसके हिंदी के आलोचकों-समालोचकों ने गंभीरता से लघुकथा पर लिखना उचित नहीं समझा है। अब आप इसे उनकी उदासीनता कह सकते हैं अथवा उपेक्षा; परन्तु वजह यही है कि हिंदी लघुकथा की आलोचनात्मक पुस्तकों का अभाव बना हुआ है।
ऐसा नहीं है कि इस क्षेत्र में बिल्कुल ही काम नहीं हुआ हो। नामवर विद्वानों के उपेक्षापूर्ण रवैए को देखते हुए स्वयं लघुकथाकार इस कार्य के लिए आगे आए हैं। लेकिन जो भी कार्य हुआ है, वह मजबूरी का ज्यादा प्रतीत होता है, क्योंकि अधिकांश आलोचनात्मक आलेख/ लेख पत्र-पत्रिकाओं के विशेषांकों, सांझा संकलनों अथवा संग्रहों की भूमिका या समीक्षा के लिए लिखे/ लिखवाये गए हैं। आलोचना के लिए आलोचना के रूप में बहुत कम कार्य हुआ है। यही कारण है कि आज तक भी तीन दर्जन से ज्यादा पुस्तकें ऐसी नहीं हैं, जिन्हें आलोचना के लिए लिखा गया हो और इनमें से भी अधिकतर ऐसी हैं, जिनमें विभिन्न अवसरों पर लिखे या लिखवाये गए लेखों को संकलित कर प्रकाशित किया गया है।
लघुकथा समीक्षा की दशा और दिशा पर विचार करते हैं, तो सबसे पहले रामेश्वरनाथ तिवारी की लघुकथा पुस्तक 'रेल की पटरियां' (१९५४) की आचार्य जगदीश पांडेय द्वारा लिखी गई भूमिका 'लघुकथा: स्वरूप निर्माता' पर दृष्टि जाती है। आचार्य पांडेय ने पहली बार इन लघुआकारीय रचनाओं को 'लघुकथा' नाम देकर उसे परिभाषित किया है और उसके कला- रूपों की चर्चा की है; जो शुद्ध रूप से लघुकथा-समीक्षा की शास्त्रीय आधार-भूमि मानी जा सकता है।
इस आलेख में आचार्य जी ने लघुकथा के विचारणीय पक्षों को सात उपशीर्षकों में बांटकर लघुकथा विधा की शास्त्रीय समीक्षा प्रस्तुत की है-(१) शीर्षक (२) पात्र और विधान की प्राख्योन्मुखता (३) कथनोपकथन (४) ज्वार- प्रतिज्वार की त्वरा (५) स्थापत्य की गहराई (६) नियताप्ति और उपराम में व्यंग्य की स्थिति और (७) शैली।[1]
उसके बाद आठवें दशक के पूर्वार्द्ध तक समीक्षा के क्षेत्र में कोई उल्लेखनीय पहल नहीं हुई। आठवें दशक में डा० शंकर पुणतांबेकर, कृष्ण कमलेश, जगदीश कश्यप, डॉ० स्वर्ण किरण, डॉ० रामनिवास मानव आदि ने समीक्षात्मक लेख लिखे। १९७७ में प्रकाशित लघुकथा संकलन 'समांतर लघुकथाएं' में बलराम का आलेख 'हिंदी लघुकथा का विकास', १९७८ में प्रकाशित 'छोटी-बडी़ बातें' में महावीर प्रसाद जैन और जगदीश कश्यप के आलेख और १९७९ में आये 'नवतारा' के लघुकथा-विशेषांक में अनिल जनविजय, जगदीश कश्यप, बालेंदु शेखर तिवारी, भूपाल उपाध्याय, राधेलाल बिजघावने और रामनारायण बेचैन के आलेख विशेष उल्लेखनीय हैं।
नौवां दशक हिंदी लघुकथा के लिए सबसे महत्वपूर्ण रहा। इसकी शुरुआत में ही १९८१ में ‘नवतारा’ का प्रतिक्रिया अंक आया। उसमें प्रकाशित आलेखों में मोहन राजेश का ‘हवा में तने मुक्के’ विशेष महत्वपूर्ण है। १९८१ में ही कृष्ण कमलेश के संपादन में ‘लघुकथा : दशा और दिशा’ आया। १९८२ में डॉ रामनिवास मानव और दर्शन दीप का सांझा लघुकथा संग्रह ‘ताकि सनद रहे’ प्रकाशित हुआ। इसमें डॉ. मानव के छः आलेख भी संग्रहित हैं। इन आलेखों में डॉ मानव ने लघुकथा की ऐतिहासिक परंपरा, उसके स्वरूप, सीमाओं तथा विकास की संभावनाओं पर महत्वपूर्ण विचार व्यक्त किए हैं। १९८२ में ही 'लघुकथा : सृजना और मूल्यांकन' आया। इसमें विक्रम सोनी, डॉ चंद्रेश्वर कर्ण, डॉ जगदीश्वर प्रसाद और डॉ बृजकिशोर पाठक के महत्वपूर्ण आलेखों द्वारा लघुकथा के विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डाला गया है। १९८३ में डॉ सतीशराज पुष्करणा के संपादन में 'लघुकथा : बहस के चौराहे पर' डॉ स्वर्ण किरण, सतीशराज पुष्करणा, महावीर प्रसाद जैन, भगीरथ और जगदीश कश्यप के समीक्षात्मक आलेखों को लेकर आया। १९८६ मेंं 'तत्पश्चात्' ( सतीशराज पुष्करणा) और 'दिशा-४' ( सं० पुष्करणा) में निशांतर के महत्वपूर्ण आलेख प्रकाशित हुए। १९८७ में मुकेश शर्मा ने 'लघुकथा समीक्षा' लघु पुस्तिका के माध्यम से लघुकथा-समीक्षा का प्रयास किया। १९८८ में 'कथा- निकष-१' पूर्ण रूप से लघुकथा-समीक्षा को समर्पित पत्रिका निकली। इसके प्रवेशांक में ही डा० शंकर पुणतांबेकर, डॉ स्वर्ण किरण, भगीरथ, सतीशराज पुष्करणा और जगदीश कश्यप के महत्वपूर्ण आलेख हैं, जो लघुकथा की सृजन-प्रक्रिया, शिल्प-शैली और संरचना एवं मूल्यांकन पर प्रकाश डालते हैं। १९८८ में अमरनाथ चौधरी अब्ज की लघु-पुस्तिका 'लघुकथा: चिंतन और प्रक्रिया' आई, जिसमें मात्र एक आलेख ही समीक्षात्मक है। १९९० में डॉ सतीशराज पुष्करणा के संपादन में 'कथादेश' और 'लघुकथा: सर्जना एवं समीक्षा' आयीं। 'लघुकथा: सर्जना और समीक्षा' में बारह आलेखों के माध्यम से लघुकथा की परंपरा, समीक्षा की समस्याओं, विधागत शास्त्रीयता, रचना प्रक्रिया, शिल्प और शैली, समीक्षा के मानक तत्व आदि पर विचार किया गया है। इसे लघुकथा समीक्षा का पहला गंभीर प्रयास कहा जा सकता है।
१९९१ में 'लघुकथा : संरचना और शिल्प' ( सं० सुरेशचंद्र गुप्त) और मुकेश शर्मा की 'लघुकथा : रचना और समीक्षा', दो महत्वपूर्ण पुस्तकें आईं अमरनाथ चौधरी अब्ज की ‘बूंद-बूंद' १९९३ में ‘चमत्कारवाद’ की घोषणा के साथ आई। लेकिन इसके आलेख 'चमत्कारवाद' के सैद्धांतिक पक्ष को स्पष्ट नहीं कर पाये हैं। परंतु अंत के कुछ आलेख महत्वपूर्ण बन पड़े हैं। १९९४ में कमलेश भट्ट कमल की 'साक्षात्' आई, जिसमें डॉ कमल किशोर गोयनका से लघुकथा पर बातचीत प्रकाशित की गई है। १९९७ में कृष्णानंद कृष्ण की 'हिंदी लघुकथा : स्वरुप और दिशा' प्रकाशित हुई। इसमें लघुकथा के क्रियात्मक पक्ष के साथ-साथ सैद्धांतिक पक्ष पर भी महत्वपूर्ण आलेख हैं। २००२ में प्रकाशित 'हिन्दी-लघुकथा: उलझते-सुलझते प्रश्र' में डॉ रूप देवगुण ने लघुकथा विषयक कुछ प्रश्नों को उठाने का सार्थक प्रयास किया है। डॉ सतीशराज पुष्करणा, कृष्णानंद कृष्ण, नरेंद्र प्रसाद नवीन और डॉ मिथिलेश कुमारी मिश्र के संयुक्त संपादन में एक बहुत ही महत्वपूर्ण पुस्तक ‘लघुकथा का सौंदर्यशास्त्र’ २००३ में आई। इसमें १० आलेखों के माध्यम से लघुकथा के विभिन्न पक्षों पर गंभीरता से विचार किया गया है। इसे हिंदी लघुकथा की दूसरी महत्वपूर्ण संकलित समीक्षा पुस्तक कहा जा सकता है। २००३ में ही डॉक्टर सी० रा० प्रसाद का शोधप्रबंध 'हिन्दी लघुकथाओं का शैक्षिक विश्लेषण' प्रकाशित हुआ है, "जो न मात्र उपयोगी है, अपितु शोधार्थियों, शिक्षकों, विद्यार्थियों और नई पीढ़ी के लघुकथा- लेखकों एवं आलोचकों हेतु यह दिशा निर्देश भी करता है।"[2]
पाँच वर्षों के अंतराल के बाद २००८ में बलराम अग्रवाल की 'समकालीन लघुकथा और प्रेमचंद' तथा डॉ शकुंतला किरण की 'हिंदी लघुकथा' पुस्तकें आईं। 'हिंदी लघुकथा' किसी एक लेखक का पहला ऐसा शोधग्रंथ है, जो ‘लघुकथा के सही स्वरूप को जानने-समझने की जिज्ञासा रखने वालों को को संतुष्ट करने की विश्वस्नीय क्षमता रखता है।’[3] ‘यह कृति लघुकथा की विधागत अंतरकथाओं एवं आलोचना-दृष्टि के संदर्भ में रामायण- महाभारत के प्रसंगों की तरह कालातीत साबित होगी।’[4]
डॉ रामकुमार घोटड़ की दो महत्वपूर्ण पुस्तकें, २००८ में 'लघुकथा विमर्श' और २०१२ में 'भारत का लघुकथा-संसार' आईं। इनमें डॉ घोटड़ ने लघुकथा विषयक अनेक बिंदुओं को स्पष्ट करने और अनेक महत्वपूर्ण जानकारियां उपलब्ध कराने का सफल प्रयास किया है। २०१२ में ही डा० शकुंतला किरण की 'हिंदी लघुकथा' के बाद दूसरा महत्वपूर्ण शोधप्रबंध डॉ सत्यवीर मानव का 'हिंदी लघुकथा: संवेदना और शिल्प' आया है। इसमें डॉ मानव ने हिंदी लघुकथा की परिभाषा, स्वरूप, उद्भव और विकास, हिंदी लघुकथा में संवेदना, हिंदी लघुकथा के शिल्प आदि का विस्तार से विष्लेषण करने के साथ-साथ २२ मानक और विशिष्ट लघुकथाकारों के लेखन के विशेष संदर्भ में हिंदी लघुकथा में संवेदना और उसके शिल्प पर भी विचार किया है। २०१४ में अशोक भाटिया की 'समकालीन हिंदी लघुकथा' और २०१५ में मुकेश शर्मा की 'लघुकथा के आयाम', दो उल्लेखनीय पुस्तकें आईं हैं। २०१५ में ही डा० पुष्पा जमुआर का 'हिंदी लघुकथा: समीक्षात्मक अध्ययन' लघुकथा विषयक समीक्षात्मक लेखों का संग्रह आया है। २००२ में डॉ कमल किशोर गोयनका की पुस्तक 'लघुकथा का व्याकरण' आई थी,इसे २०१६ में पुनः 'लघुकथा का समय' के टाइटल से प्रकाशित किया गया है। इसमें डॉ गोयनका ने लघुकथा की प्रासंगिकता, आंदोलन, सृजन-प्रक्रिया आदि पर अपने लगभग तीन दशकों के विचारों को संकलित किया है। २०१७ में दो महत्वपूर्ण उपलब्धियां—डॉ बलराम अग्रवाल की 'हिंदी लघुकथा का मनोविज्ञान' और डॉ रूप देवगुण की 'आधुनिक हिंदी लघुकथा : आधार और विष्लेषण' का प्रकाशन रहीं। 'हिंदी लघुकथा का मनोविज्ञान'समकालीन हिंदी लघुकथा के विकास को रेखांकित करने, उसका मनोवैज्ञानिक एवं मनोविश्लेषणात्मक विवेचन प्रस्तुत करने की दृष्टि से निश्चित रूप से बहुत ही महत्वपूर्ण कृति है; तो 'आधुनिक हिंदी लघुकथा: आधार और विष्लेषण' में ६१ लघुकथाकारों के पत्र-साक्षात्कारों के आधार पर लघुकथा के परिदृश्य का विष्लेषण किया गया है। २०१८ में डॉ अशोक भाटिया की 'परिंदे पूछते हैं (लघुकथा विमर्श)' और भगीरथ परिहार की 'हिंदी लघुकथा के सिद्धांत' पुस्तकें आईं हैं। 'परिंदे पूछते हैं' में डॉ भाटिया ने लघुकथा विषयक करीब अस्सी ज़रूरी सवालों के जवाब विस्तारपूर्वक सहज- सरल भाषा में दिये हैं। लघुकथा की सैद्धांतिक और व्यावहारिक पक्ष को समझने के इसी क्रम में बलराम अग्रवाल की ‘परिंदों के दरमियां’ महत्वपूर्ण है तो 'हिंदी लघुकथा के सिद्धांत' में भगीरथ परिहार ने लघुकथा विधा के समक्ष समय-समय पर आई चुनौतियों को लक्ष्य कर पिछले चालीस वर्षों में लिखे गए उनके लेखों को संकलित किया है। २०१८ में ही एक और श्रेष्ठ कृति डॉ जितेन्द्र जीतू की ‘समकालीन लघुकथा का सौंदर्यशास्त्र और समाजशास्त्रीय सौंदर्यबोध’ प्रकाशित हुई है।
२०१९ लघुकथा-समीक्षा की दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण वर्ष रहा। इस वर्ष योगराज प्रभाकर द्वारा संपादित ‘लघुकथा : रचना-प्रक्रिया’ पुस्तक आई, जो लघुकथा की सृजन-प्रक्रिया से जुड़े योगराज प्रभाकर के विभिन्न प्रश्नों के लघुकथाकारों द्वारा दिये गये जवाबों का पुस्तक रूप है। अशोक भाटिया की ‘लघुकथा : आकार और प्रकार’, बलराम अग्रवाल की ‘लघुकथा का प्रबल-पक्ष’ एवं डॉ सत्यवीर मानव की ‘हिंदी लघुकथा : संवेदना और शिल्प’ का द्वितीय संस्करण भी आया है। रामेश्वर कांबोज हिमांशु की ‘लघुकथा का वर्तमान परिदृश्य’ तथा सुकेश साहनी की ‘लघुकथा : सृजन और रचना-कौशल’ लघुकथा के विविध पक्षों का विशिष्ट विवेचन प्रस्तुत करने का प्रयास करती हैं। इसी वर्ष लघुकथा केन्द्रित साक्षात्कारों की दो महत्वपूर्ण पुस्तकें भी आईं। इनमें एक है—कल्पना भट्ट द्वारा संपादित ‘लघुकथा संवाद’ तथा दूसरी है—डॉ॰ लता अग्रवाल द्वारा संपादित ‘अनुगूँज’। ये सभी पुस्तकें लघुकथा विधा को सांगोपांग समझने का सुअवसर प्रदान करती है ‌।
२०२० की शुरुआत भी अच्छी रही है। डॉ बलराम अग्रवाल की 'लघुकथा : चिंतन-अनुचिंतन' और डॉ सतीशराज पुस्करणा की ‘हिन्दी लघुकथा की प्रविधि’ प्रकाशित हो चुकी हैं।
उपर्युक्त पुस्तकों के अतिरिक्त ‘बीसवीं सदी की लघुकथाएँ’ ( सं० बलराम) और मधुदीप द्वारा प्रस्तुत 'पड़ाव और पड़ताल' जैसी पुस्तक-श्रृंखलाओं में भी महत्वपूर्ण समीक्षात्मक आलेख उपलब्ध हैं। डॉ रामनिवास मानव, डॉ सतीशराज पुष्करणा, डॉ रामकुमार घोटड़, सुकेश साहनी आदि के लघुकथा-साहित्य पर स्वतंत्र रूप से भी समीक्षात्मक पुस्तकें आ चुकी हैं। परंतु लघुकथा के विशाल साहित्य-भंडार को देखते हुए अभी बहुत अधिक कार्य किया जाना शेष है।

-  डॉ. सत्यवीर मानव
   मोबाइल : 9416238131

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१- हिंदी लघुकथा: स्वरूप और दिशा, कृष्णानंद कृष्ण, पृष्ठ-१२४
२- डॉ. सतीशराज पुष्करणा, हिंदी लघुकथाओं का शैक्षिक विश्लेषण के फ्लेप पर टिप्पणी.
३- डॉ. बलराम अग्रवाल, 'हिंदी लघुकथा' का अग्रलेख, पृष्ठ-२.
४- डॉ. सतीश दूबे, 'हिंदी लघुकथा' की भूमिका, पृष्ठ-२