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बुधवार, 6 नवंबर 2019

वेबदुनिया पर मेरी छः लघुकथाएं






लघुकथा : बदले का हस्ताक्षर / चंद्रेश कुमार छतलानी

पिताजी का हृदयाघात से निधन होने से पूर्व उनके कहे हुए ये शब्द आज उसके जेहन में जैसे हथौड़े मार रहे थे, 'अकाउंट्स के बाबू ने मेरे जमा कराए हुए रुपयों की बिना हस्ताक्षर की जाली रसीद दे दी और झूठ बोल दिया कि रुपए जमा नहीं कराए।
मेरी जगह तुझे नौकरी मिलेगी, उसे जवाब जरूर देना...।'

अपने पिताजी को तो उसने पहले ही सच्चा साबित कर दिया था और आज जवाब देने का समय आ गया था, वही बाबू उसके सामने हाथ जोड़े अपनी पेंशन और ग्रेच्युटी के अंजाम को सोच डरा हुआ खड़ा था।

उसने दराज से फाइल निकाली और एक चेक पर हस्ताक्षर कर उसे दे दिया। चेक को देख उस बाबू की आंखें आश्चर्य से फैल गईं, वो पूरी राशि का था।

बाबू ने उसके पैर छू लिए और कहा, 'सर, आपने मुझे माफ कर दिया... आप हस्ताक्षर न करते तो मैं और मेरा परिवार भूखो मर जाता।'

'मेरे पिताजी ने मुझे किसी को गलत तरीके से मारने के संस्कार नहीं दिए, मेरा यह हस्ताक्षर ही उनका प्रत्युत्तर है।' यह कहकर वो चला गया।

और बाबू वहीं खड़ा बदला लेने का अर्थ समझने की कोशिश करने लगा। 
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Source:
https://hindi.webdunia.com/hindi-stories/short-story-laghukatha-115122400060_1.html


लघुकथा : कीमत / चंद्रेश कुमार छतलानी  

दिन उगते ही अखबार वाला हमेशा की तरह अखबार फेंककर चला गया। देखते ही लॉन में बैठे घर के मालिक ने अपने हाथ की किताब को टेबल पर रखा और अखबार उठाकर पढ़ने लगा। चाय का स्वाद अखबार के समाचारों के साथ अधिक स्वादिष्ट लग रहा था। लंबे-चौड़े अखबार ने गर्वभरी मुस्कान के साथ छोटी-सी किताब को देखा, किताब ने चुपचाप आंखें झुका लीं।

घर के मालिक ने अखबार पढ़कर वहीं रख दिया, इतने में अंदर से घर की मालकिन आई और अखबार को पढ़ने लगी, उसने किताब की तरफ देखा भी नहीं। अखबार घर वालों का ऐसा व्यवहार देखकर फूलकर कुप्पा नहीं समा रहा था। हवा से हल्की धूल किताब पर गिरती जा रही थी।

घर की मालकिन के बाद घर के बेटे और उसकी पत्नी ने भी अखबार को पढ़ा। शाम तक अखबार लगभग घर के हर प्राणी के हाथ से गुजरते हुए स्वयं को सफल और उपेक्षित किताब को असफल मान रहा था।

किताब चुपचाप थी कि घर का मालिक आया और किताब से धूल झाड़कर उसे निर्धारित स्थान पर रख ही रहा था कि किताब को पास ही में से कुछ खाने की खुशबू आई, जो उसी अखबार के एक पृष्ठ में लपेटे हुए थी और घर का सबसे छोटा बच्चा अखबार के दूसरे पृष्ठ को फेंककर कह रहा था, 'दादाजी, इससे बनी नाव तो पानी में तैरती ही नहीं, डूब जाती है।'
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Source:
https://hindi.webdunia.com/article/116021200036_1.html



लघुकथा : सिर्फ चाय / चंद्रेश कुमार छतलानी

'सवेरे गुड़िया के कारण देर हो गई, बेटा होता तो तैयार होने में इतना समय थोड़े ही लगाता। दिन में भी इसी परेशानी से काम में गड़बड़ हो गई और बॉस की बातें सुननी पड़ीं, पूरे दिन में सिर्फ तीन बार चाय पी है, खाना खाने का भी समय नहीं मिला। अब ठंड इतनी हो रही है और गर्म टोपी और दस्ताने भी भूल गया।'
सर्द सांझ में थरथराते हुए अपनी इन सोचों में गुम वो जा रहा था कि अनदेखी के कारण अचानक उसकी मोटरसाइकल एक छोटे से गड्ढे में जाकर उछल गई और वो गिर पड़ा। हालांकि न तो मोटरसाइकल और न ही उसे चोट आई, लेकिन उसके क्रोध में वृद्धि होना स्वाभाविक ही था।

घर पहुंचते ही उसने गाड़ी पटक कर रखी, आंखें गुस्से में लाल हो रही थीं, घंटी भी अपेक्षाकृत अधिक बार बजाई। दरवाजा उसकी बेटी ने खोला, देखते ही उसका चेहरा तमतमा उठा।

लेकिन अपने पिता को देखकर बेटी उछल पड़ी और उसके गले लगकर कहा, 'डैडी, आज मैंने चाय बनाना सीख ली। आप बैठो, मैं सबसे पहले आपको ही चाय पिलाऊंगी।'

और अचानक से उसके नथूने चाय की गंध से महकने लगे।
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https://hindi.webdunia.com/hindi-stories/laghu-katha-115122400058_1.html


लघुकथा : नश्वर से प्रेम / चंद्रेश कुमार छतलानी

'अंधकार अब तू जा...' उगते हुए सूर्य ने गर्व से कहा।

अंधकार खामोश और स्थिर रहा।

'मेरी रोशनी तुझे खत्म कर देगी...।'

'.........'

सूर्य की किरणें अंधेरे को चीरते हुए आगे बढ़ीं, लेकिन रास्ते में जो कोई वस्तु-व्यक्ति आया उनसे टकराकर खत्म हो गईं और उनकी छाया में दिखाई दे रहा अंधकार अपने अमरत्व पर मुस्कुरा रहा था।


लेकिन कई इंसानों की आंखें तब भी रोशनी की तलाश कर रही थीं।
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Source:
https://hindi.webdunia.com/hindi-stories/surya-or-andhera-116021200037_1.html


लघुकथा : आत्ममुग्धता / चंद्रेश कुमार छतलानी

एक सेमिनार में विद्यार्थियों के समक्ष एक विशेषज्ञ ने कांच के तीन गिलास लिए। एक गिलास में मोमबत्ती जलाई, दूसरे में थोड़ी शराब डाल कर उसमें पानी और बर्फ के दो टुकड़े डाल दिए और तीसरे में मिट्टी में लगाया हुआ एक छोटा सा पौधा रख दिया।

फिर सभी की तरफ हाथ से इशारा कर पूछा, "आप सभी बताइए, इनमें से सबसे अच्छा क्या है?"
अधिकतर ने एक स्वर में कहा, "पौधा..."
"क्यों?"
"क्योंकि प्रकृति सबसे अच्छी है" विद्यार्थियों में से किसी ने उत्तर दिया

उसने फिर पूछा, "और इनमें से सबसे बुरी चीज क्या है?"

अधिकतर ने फिर एक साथ कहा, "शराब" 
"क्यों?">
"क्योंकि नशा करती है" कुछ विद्यार्थी खड़े हो गए।


"और सबसे अधिक समर्पित?"> 
"मोमबत्ती.." इस बार स्वर अपेक्षाकृत उच्च था।

वह दो क्षण चुप रहा, फिर कहा, "सबसे अधिक समर्पित है शराब..."
सुनते ही सभा में निस्तब्धता छा गई, उसने आगे कहा, "क्योंकि यह किसी के आनंद के लिए स्वयं को पूरी तरह नष्ट करने हेतु तैयार है।"

फिर दो क्षण चुप रहकर उसने कहा "और सबसे अधिक अच्छी है मोमबत्ती, क्योंकि उसकी रौशनी हमें सभी रंग दिखाने की क्षमता रखती है। पूर्ण समर्पित इसलिए नहीं, क्योंकि इसके नष्ट होने में समाप्ति के बाद अच्छा कहलवाने की आकांक्षा छिपी है।"

सभा में विद्यार्थी अगली बात कहने से पूर्व ही समझ कर स्तब्ध हो रहे थे, और आखिर प्रोफेसर ने कह ही दिया, "इन तीनों में से सबसे बुरी चीज है यह पौधा... सभी ने इसकी प्रशंसा की... जबकि यह अधूरा है, पानी नहीं मिलेगा तो सूख जाएगा। "

"लेकिन इसमें बुरा क्या है?" एक विद्यार्थी ने प्रश्न किया

"अधूरेपन को भूलकर, केवल प्रशंसा सुनकर स्वयं को पूर्ण समझना।" प्रोफेसर ने पौधे की झूमती पत्तियों को देखकर कहा।

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Source:
https://hindi.webdunia.com/hindi-stories/short-story-116041200044_1.html




लघुकथा : विरोध का सच / डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी

'अंग्रेजी नववर्ष नहीं मनेगा... देश का धर्म नहीं बदलेगा...' जुलूस पूरे जोश में था। देखते ही मालूम हो रहा था कि उनका उद्देश्य देशप्रेम और स्वदेशी के प्रति जागरूकता फैलाना है। वहीं से एक राष्ट्रभक्त गुजर रहा था। जुलूस को देखकर वह भी उनके साथ मिलकर नारे लगाते हुए चलने लगा।

उसके साथ के दो व्यक्ति बातें कर रहे थे, 'बच्चे को इस वर्ष विद्यालय में प्रवेश दिलाना है। कौन-सा ठीक रहेगा?'

'यदि अच्छा भविष्य चाहिए तो शहर के सबसे अच्छे अंग्रेजी स्कूल में दाखिला दिलवा दो।'

उसने उन्हें तिरस्कारपूर्वक देखा और नारे लगाता हुआ आगे बढ़ गया और वहां भी दो व्यक्तियों की बातें सुनीं, 'शाम का प्रोग्राम तो पक्का है?'
'हां! मैं स्कॉच लाऊंगा, चाइनीज और कोल्ड ड्रिंक की जिम्मेदारी तेरी।'


उसे क्रोध आ गया, वह और जोर से नारे लगाता हुआ आगे बढ़ गया और वहां उसे फुसफुसाहट सुनाई दी, 'बेटी नई जींस की रट लगाए हुए है, सोच रहा हूं कि...'

'तो क्या आजकल के बच्चों को ओल्ड फैशन सलवार-कुर्ता पहनाओगे?'

वह हड़बड़ा गया। अब वह सबसे आगे पहुंच गया था, जहां खादी पहने एक हिन्दी विद्यालय के शाकाहारी प्राचार्य जुलूस की अगुवाई कर रहे थे। वह उनके साथ और अधिक जोश में नारे लगाने लगा।
तभी प्राचार्यजी का फोन बजा। वे 'अंतरराष्ट्रीय स्तर' के फोन पर बात करते हुए कह रहे थे, 'हां हुजूर, सब ठीक है, लेकिन इस बार रुपया नहीं डॉलर चाहिए, बेटे से मिलने अमेरिका जाना है।'

सुनकर वह चुप हो गया। लेकिन उसके मन में नारों की आवाज बंद नहीं हो रही थी। उसने अपनी जेब से बुखार की अंग्रेजी दवाई निकाली। उसे कुछ क्षणों तक देखा, फिर उसके चेहरे पर मजबूरी के भाव आए और उसने फिर से दवाई अपनी जेब में रख दी।

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Source:
https://hindi.webdunia.com/hindi-stories/truth-of-going-against-117123000051_1.html


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