प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
पंजाबी भाषा में लघुकथा ‘मिनी कहानी’ के नाम से लिखी, पढ़ी और जानी जाती है। कुछ विद्वान ‘जन्म साखियों’ में ‘मिनी कहानी’ अर्थात् पंजाबी लघुकथा के अंश ढूँढ़ते हैं। पुरानी पीढ़ी के लेखकों में भूपिंदर सिंह, दर्शन मितवा, हमदर्दवीर नौशहरवी का नाम सम्मान से लिया जाता है। इन लेखकों ने पंजाबी में मानक लघु कथाएँ उस दौर में दी जबकि लघुकथा में काफी धुंधलका था। इस धुंधलके को सुलक्खन मीत, शरन मक्कड़, श्यामसुंदर अग्रवाल, श्यामसुंदर दीप्ति, जगदीश अरमानी, पांधी ननकानवी, हरभजनसिंह खेमकरनी, धर्मपाल साहिल आदि लेखकों ने काफी हद तक अपनी अच्छी रचनाओं द्वारा साफ किया।
कर्मसिंह, गुरमेल मडाहड़, सुरेंद्र कैले, प्रीतम बराड़ लंडे, रोशन फूलवी, जिंदर निरंजन बोहा, विक्रमजीत नूर, डॉ. अमर कोमल, मेहताबुद्दीन, सुधीरकुमार ‘सुधीर’, रोशन जागरूप दातेवास, बलवीर परवाना, डॉ. बलदेव सिंह खाहिरा आदि नये पुराने लेखक पंजाबी लघुकथा को मजबूती प्रदान करने में तन-मन से सक्रिय रहे हैं। इनके अतिरिक्त इकबाल दीप, अवतारसिंह बिलिंग, अव्वल सरहदी, सतवंत कैथ, कृशन बेताब, एस.तरसेम, मोहन शर्मा अशोक चावला, कृपाल सिंह डुल्ट, गुरचरण चौहान, गुरदीप खिंडा, राज बिंबरा, अमर गंभीर, नूर संतोखपुरी, भगवंत रसूलपुरी, भूपिंदर कमल, मनजीत सिंह प्रीत, महिंदर फारिग, राजेंद्र कौर वंत, सतपाल खुल्लर, सतींद्र कौर, सुखदेव सिंह शांत, सुखवंत मरवाहा, हरप्रीत सिंह राणा आदि अनेक लेखक अपने-अपने ढंग से पंजाबी लघुकथा की जमीन को उर्वर बनाने में संलग्न हैं।
पंजाबी लघुकथा अपने समय के साथ चलने की कोशिश करती रही है। लगभग 1970 के आसपास से पंजाबी समाज के हर क्षेत्र में बड़े पैमाने पर परिवर्तन परिलक्षित हुआ है। सामाजिक स्थितियाँ पहले से अधिक गुंझलदार और जटिल हुई हैं। शहरीकरण का गाँवों पर हमला तेज हुआ है। संयुक्त परिवारों को तोड़ने में इस शहरीकरण ने एक खास भूमिका निभाई जिससे रिश्तों की परिभाषा बदली। व्यक्ति अपने में ही सिकुड़ता चला गया। मुखौटे लगाकर जीना उसका विवशता बन गई। दिखावों और आडम्बरों का बोलबाला हो गया। शहरीकरण के साथ-साथ राजनीतिकरण ने समाज को अपने भ्रष्ट चंगुल में लेना शुरू कर दिया और आज, भ्रष्टाचार समाज में कैंसर की तरह व्याप्त है—मारक और लाइलाज़। मानवीय मूल्यों के विरोधियों को धर्म और राजनीति ने खुलकर पनाह दी। जो धरती गिद्दे और भांगड़े की धमक से गूँजा करती थी, ए.के. 47 के धमाकों से गूँजने लगी। पुलिस बर्बरता और आतंकवादियों के खौफ के बीच एक लम्बे काले दौर से गुजरना पड़ा इस धरती के लोगों को। खंड-खंड मानसिकता और टुकड़ों में बिखरे अस्तित्व को जीते लोगों की पीड़ा को यहाँ के समूचे साहित्य में देखा जा सकता है—कहानी, कविता, उपन्यास में ही नहीं, लघुकथा में भी।
इसी पुस्तक में संग्रहीत सुभाष नीरव के लेख ‘पंजाबी लघुकथा के विकास की यात्रा’ से
आमुख
आधुनिक हिन्दी लघुकथा का उन्नयन बीसवीं सदी के आठवें दशक से माना जाता है। उस समय पंजाब में हिन्दी व पंजाबी लघुकथा को लेकर महत्त्वपूर्ण एवं गम्भीर प्रयास चल रहे थे। कमलेश भारतीय ‘प्रयास’, रमेश बत्तरा ‘निर्झर’ व ‘बढ़ते कदम’, सिमर सदोष ‘दैनिक मिलाप’, ‘प्रचण्ड’, ‘साहित्य निर्झर’ के माध्यम से लघुकथा का कारवां आगे बढ़ा रहे थे।
रमेश बत्तरा के सम्पादन में ‘तारिका’ व ‘साहित्य निर्झर’ के लघुकथांक क्रमशः 1973 व 1974 में प्रकाशित हुए। वे लघुकथांक ऐतिहासिक महत्व के थे, क्योंकि इनमें लघुकथा की समग्र एवं सही तस्वीर ईमानदारी से प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया था, जबकि 1973 में प्रकाशित ‘सारिका’ के लघुकथांक ने लघुकथा की एकांगी तस्वीर ‘व्यंग्य-विनोद’ ही प्रस्तुत की थी।
रमेश बत्तरा का कोई लघुकथा संग्रह प्रकाशित नहीं है, फिर भी वे हिन्दी लघुकथा के सबसे महत्वपूर्ण हस्ताक्षरों में से हैं। उनकी लघुकथाओं के कथ्य आर्थिक-विपन्नता, साम्प्रदायिकता, भोगवादी पश्चिमोन्मुख जीवन-दृष्टि को केन्द्र में रखते हैं। वे संवेदनाओं के माध्यम से मनुष्य की अन्तरात्मा को छूने की कोशिश करते हैं। वे भाषा शिला के प्रति सचेत हैं और प्रगतिशील मूल्यों के पक्षधर हैं।
कमलेश भारतीय ‘प्रयास’ के माध्यम से लघुकथाओं को प्रकाशन अवसर प्रदान करते थे। अब वे ‘दैनिक ट्रिब्यून’ में है और ‘ट्रिब्यून’ भी बराबर लघुकथा प्रकाशित करता रहा है। भारतीय के दो लघुकथा संग्रह ‘मस्तराम जिंदाबाद’ (1984) व ‘इस बार’ (1992) प्रकाशित हुए। इनकी लघुकथाओं में आतंकवाद, लिंग की असमानता, पीड़ित के प्रति संवेदना व्यक्ति की गई है। इनकी लघुकथाओं में शोषण के चित्र हैं तो मुक्ति की कामना भी, राजनीति का दलदल है तो शोषितों के हक की बात भी। ये मानवीय रिश्तों के अमानवीकरण को लेकर विशेष चिंतित दिखते हैं, लेकिन शिल्प के प्रति उतने सजग नहीं हैं।
सुरेन्द्र मंथन का लघुकथा संग्रह ‘घायल आदमी’ भी सन् 1984 में ही प्रकाशित हुआ। इनका दूसरा संग्रह ‘भीड़ में’ सन् 2000 में पाठकों के समक्ष आया। सुरेन्द्र मंथन लघुकथा के माध्यम से मनुष्य के अंतस में झांकने की कोशिश करते हैं। इनके विषय दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक, साम्प्रदायिक, राजनीति, भूमंडलीकरण, राष्ट्रीयता व नैतिकता से लैस हैं। इनकी अभिव्यक्ति के ढंग प्रभावशाली हैं। ये रूपक, प्रतीक, सांकेतिकता और व्यंजना को महत्व देते हैं। इतना सब होने के बावजूद इनकी रचनाएँ पढ़ते समय अति सामान्य-सी लगती हैं। शायद यही इनकी विशेषता भी है।
पंजाब के लघुकथा लेखक, लेखन के स्तर पर एक-दूसरे से काफी भिन्न हैं। इनकी अभिव्यक्ति के तेवर भिन्न हैं, विषय भिन्न हैं, ट्रीटमेंट भिन्न हैं। यह विविधता ही पंजाब के लघुकथा लेखन को समृद्ध बनाती है। सिमर सदोष की कथाएं रोचक, प्रवाहमयी और प्रभावशाली हैं। ये लघुकथा में जटिलता पाने की कूबत रखते हैं। उनकी लघुकथाएं हैं पाठक को यथार्थ से रूबरू करती हैं लेकिन इनके पात्र कठोर यथार्थ के आगे विवश से दिखाई पड़ते हैं।
हिन्दी-पंजाबी में समान रूप से लिखने वाले श्यामसुन्दर अग्रवाल पंजाबी लघुकथा की पत्रिका ‘मिन्नी’ का सम्पादन करते हैं। इस पत्रिका को न सिर्फ पंजाबी की अच्छी लघुकथाओं को प्रकाशित करने का श्रेय है बल्कि विभिन्न भाषाओं से अनूदित लघुकथाओं को प्रकाशित करने का भी श्रेय है। पंजाबी में लघुकथा लेखकों की एक संगठित टीम है जो लघुकथा के लिए समर्पित है। इसलिए लघुकथा सम्मेलन होते रहते हैं जिनमें अन्य प्रदेशों के लेखक भी भाग लेते हैं।
श्यामसुन्दर अग्रवाल की कथाओं का गठन काफी कसा रहता है। ये तीव्र गति से चरम की ओर अग्रसर हो अपना मन्तव्य संप्रेषित कर देती हैं। इनकी लघुकथाओं के कथ्य इकहरे और स्पष्ट होते हैं। आर्थिक विपन्नता, पतन की ओर जाती राजनीति, भ्रष्ट चरित्र, आतंकवाद के खूनी चेहरे, व स्त्रीवादी विमर्श जैसे विषय अपनी लघुकथाओं में व्यक्त हुए हैं। अति सामान्य अनुभवों में सशक्त लघुकथाएं ढूँढ़ लाना श्यामसुन्दर अग्रवाल की विशेषता है, लेकिन कभी-कभी अतिसामान्यता लघुकथा को लचर भी बना देती है।
धर्मपाल साहिल की मुख्य चिंता समाज व परिवार में स्त्री की स्थिति को लेकर है। इनकी लघुकथाएं स्त्री के प्रति मनुवादी दृष्टिकोरण पर सटीक प्रहार करती हैं। ये स्त्री को मध्यकाल के अंधेरे से आधुनिकता के प्रकाश में लाने की कोशिश करती हैं। इनकी लघुकथाओं में पठनीयता, व्यंग्य और संप्रेषणीयता साफ झलकती है।
‘नीचे वाली चिटखनी’ के लेखक जसबीर चावला अपने पुराने किस्से-कहानियों पुनः-सृजन बड़े रोचक ढंग से करते हैं। अनेक कथ्य साम्प्रतिक के जीवन के उठाये गये हैं। उनकी अभिव्यक्ति में व्यंग्य और आक्रोश का अच्छा सम्मिश्रण है। कई बार आक्रोश अव्यक्त रहता है लेकिन व्यंग्य मुखर हो जाता है। उनके लेखन के केन्द्र में राजनीति व उसके दांवपेंच हैं।
डॉ.श्यामसुन्दर दीप्ति की लघुकथाओं के कथ्य वैचारिक होने के साथ-साथ संवेदनात्मक हैं। ये संवाद, व्यंग्य और व्यंजनापूर्ण वाक्यों से अपना मन्तव्य स्पष्ट करते हैं। इन्होंने बाल मनोविज्ञान में झांकने का सफल प्रयास किया है। ये सांझी संस्कृत के पोषक हैं और फिरकापरस्तों को खरी-खरी सुनाते हैं।
तीन दशकों के लघुकथा लेखन को रेखांकित करने का समय निश्चित ही आ चुका है। इस दृष्टि से प्रादेशिक स्तर पर लघुकथा के महत्वपूर्ण लघुकथा लेखकों का आकलन और उनकी प्रतिनिधि रचनाओं को प्रस्तुत करना ही इस पुस्तक का उद्देश्य है।
वस्तुतः लघुकथा लेखन के मूल्यांकन की आवश्यकता पिछले एक दशक से बड़ी शिद्दत से महसूस की जा रही थी। छिटपुट प्रयास हुए भी लेकिन अखबारी रिव्यू के आगे नहीं बढ़ पाये। समीक्षा की स्थिति अभी-भी संतोषजनक नहीं कही जा सकती। समीक्षाएं प्रायः प्रायोजित एवं तेरी भी जय-जय मेरी भी जय-जय की तर्ज पर लिखी जाती रही हैं।
इस मूल्यांकन में निर्मम होने से बचा गया है। निर्ममता से न तो लघुकथा का भला होता न ही लघुकथा-लेखक का। इसलिए अच्छी लघुकथाओं को रेखांकित कर कमजोर की ओर इशार भर कर दिया गया है या उन्हें नजर-अंदाज कर दिया है। प्रत्येक लेखक के लघुकथा लेखन की विशिष्टता, प्रयोगधर्मिता, व प्रवृत्ति की ओर ध्यान आकृष्ट किया गया है।
समीक्षा के संदर्भ में विभिन्न प्रश्नों के उत्तर तलाशने की कोशिश की गई है। क्या लघुकथा लेखन की साहित्य व समाज में कोई प्रासंगिकता है ? क्या सामाजिक यथार्थ को अभिन्यत्र करने में लघुकथा समर्थ रही है ? लघुकथा ने किन सामाजिक मूल्यों का पोषण किया है ? और किन पर प्रहार ? शिल्प के धरातल पर लघुकथा कहाँ खड़ी है ? अभिव्यक्ति के कौन-से उपकरण इस्तेमाल किये हैं, लेखक ने ? लघुकथा विन्यास में कौन-कौन सी तकनीक इस्तेमाल की गई है ? किन कमजोरियों से त्रस्त रहा है लघुकथा लेखन ? आदि।
इस पुस्तक में पंजाब से हिन्दी के ग्यारह प्रमुख लघुकथा लेखकों की पाँच-छः प्रतिनिधि रचनाओं को शामिल किया गया है। ये रचनाकार हैं—रमेश बत्तरा, कमलेश भारतीय, सुरेन्द्र मंथन, सिमर प्रदोष, श्यामसुन्दर अग्रवाल, धर्मपाल साहिल, जसबीर चावला, श्याम सुन्दर दीप्ति, रमेश कुमार संतोषी, सैली बलजीत व प्रेम विज। पंजाबी भाषा के भी बारह चर्चित लघुकथाकारों की तीन-चार प्रतिनिधि रचनाएं संकलित की गई हैं। ये रचनाकार है—भूपिंदर सिंह, हमदर्द वीर नौशहरवी, दर्शन मितवा, शरन मक्कड़, सुलक्खन मीत, जगदीश अरमानी, हरभजन सिंह खेमकरनी, जिंदर, निरंजन बोहा, प्रीतम बराड़, गुरमेल मडाहड़ व आर.एस. आज़ाद।
पुस्तक तैयार करने में भाई बलराम अग्रवाल का विशेष सहयोग रहा है। उनके बहुमूल्य परामर्श एवं सम्पादन-सहयोग के लिए मैं हृदय से उनका आभारी हूँ। भाई सुभाष नीरव का भी मैं आभार प्रकट करता हूँ कि उन्होंने ‘पंजाब की चर्चित लघुकथाएं’ से एक लेख व कुछ लघुकथाएं प्रकाशित करने की स्वीकृति मुझे दी। परोक्ष-अपरोक्ष सर्वश्री श्याम सुन्दर अग्रवाल व श्याम सुन्दर ‘दीप्ति’ तथा डॉ. अशोक कुमार भाटिया का भी सहयोग मुझे मिला है।
अंत में सभी संकलित लघुकथाकारों का धन्यवाद करता हूँ, जिनके सहयोग के बिना इस पुस्तक को तैयार होना नामुमकिन था।
आशा है, लघुकथा के प्रबुद्ध पाठकों के लिए यह उपयोगी साबित होगी तथा हिन्दी लघुकथा साहित्य में एक अर्से से महसूस की जाने वाली कमी को पूरा कर सकेगी।
-भगीरथ
रमेश बत्तरा
नागरिक
उसे होश आया तो वहाँ कोई नहीं था। गली सुनसान पड़ी थी, मानों वहाँ कभी कुछ हुआ ही न हो, जबकि थोड़ी ही देर पहले वह निरंजन के साथ वहाँ से गुजर रहा था तो अचानक कुछ लोगों ने आकर उन्हें घेरते हुए चाकू खोल लिये थे। वे निरंजन से कोई अपना पुराना हिसाब साफ करना चाहते थे। वह उन्हें पहचानता था। उसने उन्हें रोकने की कोशिश की। किन्तु उन्होंने एक नहीं सुनी। उन्होंने सबको एक तरफ धकेल दिया। फिर भी चाकू का अधकचरा वार उसे बाजू पर आ लगा।
उसने इधर-उधर देखा। निरंजन भी वहाँ नहीं था। वह हड़बड़ाकर उठा बेतहाशा भागने लगा।
उस गली से निकलकर वह अपनी गली में पहुँचा, तो उसे लगा कि कोई उसके पीछे आ रहा है। वह और भी तेज हो गया। परन्तु पीछ-पीछे भागे आ रहे अजनबी ने उसे पकड़ लिया, ‘‘कहाँ जा रहो हे ?’’
‘‘थाने।’’
‘‘कोई जरूरत नहीं, तुम घर जाकर आराम करो।’’
‘‘मेरा थाने पहुँचना बहुत जरूरी है।’’
‘‘मैं कहता हूँ तुम घर जाओ।’’
‘‘नहीं, मैं तो थाने ही जाऊँगा, अभी थोड़ देर पहले यहाँ उसे उस गली में उन्होंने मेरे दोस्त निरंजन की हत्या की है।’’
‘‘तुम उसकी चिंता मत करो। उनसे खुद निपट लूँगा।’’
‘‘तुम कौन हो ?’’
‘‘इतनी जल्दी भूल गए !’’
उसने थोड़ा संयत होकर अजनबी को गौर से देखा। उसे पहचानकर वह हकला गया, ‘‘अरे निरंजन...तुम....तुम्हारी तो हत्या हो गयी थी ?’’
‘‘मुझे कोई नहीं मार सकता।’’
‘‘तुम भी थाने चलो...पुलिस उन्हें पकड़ लेगी...मैं उनका घर भी जानता हूँ, उधर उस मोहल्ले में है।’’
‘‘तुम्हें कुछ नहीं मालूम...उनके बहुत से घर हैं।’’
‘‘मैं तुम्हारी गवाही दूँगा। पुलिस तुम्हारी मदद करेगी।’’
‘‘जो कुछ करना है, मैं खुद कर लूँगा।
तुम चुपचाप घर चले जाओ।’’
‘‘मैं थाने में रपट किए बिना घर नहीं जाऊँगा।’’
‘‘जाते हो कि नहीं ?’’ निरंजन ने उसके पेट में घूँसा दे मारा। उसकी आँतें बाहर आने को हो आईं ? वह रो पड़ा और आवेश में निरंजन को धकेलकर...‘‘जाऊँगा...जाऊँगा और तुम्हें भी देख लूँगा।’’ चिल्लाता हुआ थाने की ओर भागता चला गया।
थाने में पहुँचकर उसने बयान दिया, ‘‘मैं आज गली में छुरेबाजी करने वालों को पकड़वा सकता हूँ।’’
‘‘छुरेबाजी ?’’ थाने में तैनात वर्दियाँ हँस पड़ीं, ‘‘आज तो शहर में कहीं छुरेबाजी नहीं हुई, एकदम अमन-चैन है।’’
‘‘वहाँ उस गली में उन लोगों ने निरंजन पर हमला किया था...निरंजन जिंदा रह गया तो क्या हुआ....चाकू तो उसे लगे ही हैं, और अब भी वह उन लोगों की जान का दुश्मन हुआ फिरता है।’’
‘‘तुम्हें कैसे मालूम ?’’
‘‘मैंने अपनी आँखों से देखा है।’’
‘‘अपनी आँखों से देखा है ?’’
‘‘जी हाँ, देखिए मेरे बाजू पर भी लगा है एक चाकू...’’
‘‘ओह, तो यह बात है।’’
‘‘जी !’’
‘‘ए...ए...क्या नाम...क्या नंबर है तुम्हारा ?’’ कुर्सी पर बैठी चकमक वर्दी फुर्ती से उठी और चिल्लाने लगी, ‘‘थाम लो साले को...बच्चा कहीं का खूनखराबा करके आय़ा लगता है।’’
नौकरी
बॉस का मूड सुबह से ही उखड़ा हुआ था। वह बात-बात पर दाँत पीस रहा था और सिर्फ बाबू रामसहाय के अलावा, मैनेजर से लेकर चपरासी तक के साथ खासी डाँट-डपट कर चुका था। सभी बौखलाए-से बैठे थे।
देपहर के बाद बॉस ने बाबू रामसहाय को भी बुलवा भेजा। सभी के कटे-कटे कान खड़े हो गये..कि अब उसकी शामत भी आ पहुँची है।
बाबू रामसहाय बॉस के केबिन में जाकर बिना उसकी अनुमति के उसके सामने बैठ गया।
‘‘दोपहर का राम-राम, जनाब।’’
‘‘हाँ ! तो क्या समाचार हैं आज ऑफिस के ?’’
‘‘जी, मैनेजर ने सरेआम कहा कि बॉस अहमक है। गलतियाँ खुद करता है और दोष हमें देता है...नालायक !’’
‘‘हूँ....’’
‘‘अकाउंटेंट...साला मुनीम...कह रहा था—बॉस खुद खाता है तो हमें क्यों नहीं खाने देता ? ज्यादा बनेगा तो सारी पोल खोल दूँगा बच्चू की !’’
‘‘हुम्म !’’
‘‘हेड क्लर्क कह रहा था—कमीना आज बीवी से लड़कर आया है लगता है, इसीलए चिड़चिड़ा रहा है।’’
‘‘तुम्हारा क्या खयाल है ?’’
‘‘जी, दरअसल छोटी उम्र में ही इतनी तरक्की कर जाने की वजह से लोग आपसे ईर्ष्या करते हैं।’’
‘‘ये सब कामचोर हैं, मेहनत करें तो तरक्की क्यों न हो।’’
‘‘जी, एक दिन मैंने एस.डी.ओ. को ताना मारा तो जने-जने कहता फिरा कि आपकी तरक्की में आपकी पत्नी का बहुत बड़ा हाथ है।’’
‘‘उसकी यह मजाल ! बास्टर्ड ! नानी याद करवा दूँगा उसे !’’
‘‘कमीने लोग हैं बॉस, इनको मुँह लगाने में अपनी ही हेठी है...आप खुद समझदार हैं। दुनिया ने सीता माता को भी नहीं छोड़ा।’’
‘‘ठीक है, तुम जरा ध्यान रखा करो।’’
वापस पहुँचने पर बाबू रामसहाय से उसके साथियों ने पूछा, ‘‘क्यों भई, क्या रहा ?’’
‘‘कुछ नहीं।’’ बीच ब्रान्च में खड़े बाबू रामसहाय ने बॉस के कमरे की ओर मुँह उठाकर कहा, ‘‘हरामी सठिया गया है...मरेगा।’’
लड़ाई
ससुर के नाम आया तार बहू ने लेकर पढ़ लिया है। तार बतला रहा है कि उनका फौजी-बाँका बहादुरी से लड़ा और खेत रहा...देश के लिए शहीद हो गया !
‘‘सुख तो है न, बहू !’’ उसके अनपढ़ ससुर ने पूछा, ‘‘क्या लिखा है ?’’
‘‘लिखा है, इस बार हमेशा की तरह इन दिनों नहीं आ पाऊँगा।’’
‘‘और कुछ नहीं लिखा ?’’ सास भी आगे बढ़ आयी।
‘‘लिखा है, हम जीत रहे हैं। उम्मीद है, लड़ाई जल्दी खत्म हो जायेगी !’’
‘‘तेरे वास्ते क्या लिखा है ?’’ सास ने मजाक किया।
‘‘कुछ नहीं !’’ कहती हुई मानो लजाई हुई-सी अपने कमरे की तरफ भाग गयी।
बहू ने कमरे का दरवाजा आज ठीक उसी तरह बंद किया जैसा हमेशा उसका ‘फौजी’ किया करता था। वह मुड़ी तो उसकी आँखें भीगी हुई थीं। उसने एक भरपूर निगाह कमरे की हर चीज पर डाली...मानो सब-कुछ पहली बार देख रही हो।
अब कौन-कौन-सी चीज काम की नहीं रही !—सोचते हुए उसकी निगाह पलंग के सामने वाली दीवार पर टँगी बंदूक पर अटक गयी। कुछ क्षण खड़ी वह उसे ताकती रही, फिर उसने बंदूक दीवार पर से उतार ली। उसे खूब साफ करके अलमारी की तरफ बढ़ गयी। अलमारी खोलकर उसने एक छोटी-सी अटैची निकाली। अपने पहने हुए वस्त्र उतारकर अटैची में रखे और एक जोड़ा पहन लिया जिसमें फौजी ने उसे पहली बार देखा था, प्यार किया था।
सज-सँवरकर उसने पलंग पर रखी बंदूक उठायी...फिर लेट गयी और बंदूक को बगल में लिटाकर उसे चूमते-चूमते सो गयी !
सुअर
वे हो-हल्ला करते एक पुरानी हवेली में जा पहुँचे। हवेली के हाते में सभी घर के दरवाजे बंद थे, सिर्फ एक कमरे का दरवादा खुला था। सब दो-दो, तीन-तीन में बँटकर दरवाज़े तोड़ने लगे और उनमें से दो आदमी उस खुले कमरे में घुस गये।
कमरे में एक ट्रांजिस्टर हौले-हौले बज रहा था और एक आदमी खाट पर सोया हुआ था।
‘यह कौन है ?’’ एक ने दूसरे से पूछा।
‘‘मालूम नहीं’’ दूसरा बोला, ‘‘कभी दिखाई नहीं दिया मुहल्ले में।’’
‘‘कोई भी हो।’’ पहला ट्रांजिस्टर समेटता हुआ बोला, ‘‘टीप दो गला।’’
‘‘अबे, कहीं अपनी जात का न हो ?’’
‘‘पूछ लेते हैं इसी से’’ कहते-कहते उसे जगा दिया।
‘‘कौन हो तुम ?’’
वह आँखें मलता नींद में ही बोला, ‘‘तुम कौन हो ?’’
‘‘सवाल-जवाब मत करो। जल्दी बताओ वरना मारे जाओगे।’’
‘‘क्यों मारा जाऊँगा ?’’
‘‘शहर में दंगा हो गया है।’’
‘‘क्यों कैसे ?’’
‘‘मस्जिद में सुअर घुस आया।’’
‘‘तो नींद क्यों खराब करते हो भाई ! रात की पाली में कारखाने जाना है। वह करवट लेकर फिर सोता हुआ बोला, ‘‘यहाँ क्या कह रहे हो ? जाकर सुअर को मारो न !’’