दृष्टि : लघुकथा के सागर में एक डुबकी - आशीष दलाल
लघुकथा को समर्पित अर्द्धवार्षिकी ‘दृष्टि’ का समग्र लघुकथा विशेषांक सामने है। यह अंक सन १९७८ में प्रकाशित लघुकथा संकलन का पुनः प्रकाशन है । आगे कुछ भी लिखने से पहले संपादक श्री Ashok Jain जी को उनके इस प्रयास के लिए बहुत बहुत दिल से धन्यवाद।
शुरुआत ‘दृष्टि’ के मुख्यपृष्ठ से करूंगा क्योंकि इसे देखकर मन में सहसा ही एक वैचारिक आन्दोलन उठ खड़ा होता है। अपने ही विचारों और कमियों रूपी रस्सी से बंधा मानव खुद ही अपनी आंखों से चारों ओर फैली अव्यवस्था और अनीति को नहीं देखना चाहता क्योंकि जाने अनजाने में / इच्छा – अनिच्छा से वह कहीं न कहीं इसी व्यवस्था का एक अंग है।
पत्रिका में ‘सम्पादक की कलम से’ के अतिरिक्त लघुकथा को लेकर कुल आठ वैचारिक एवं शोध आलेख हैं । इन आलेखों के साथ ही विश्व साहित्य और लघुकथाएँ खण्ड के अन्तर्गत विश्वस्तरीय सात लघुकथाओं को स्थान दिया गया है। इसी क्रम में प्रादेशिक भाषाओं में लघुकथा में सात भाषाओं की एक एक लघुकथा है । इसके बाद ७१ हिन्दी लेखक/लेखिकाओं की लघुकथाएँ चार अलग अलग उपखंडों में प्रस्तुत की गई है। इसके अतिरिक्त रमेश बतरा जी से गौरीनंदन सिंहल जी की लम्बी बात भी इस अंक की विशेषता है। समालोचना, पुस्तकें प्राप्त, पत्र/पत्रिकायें प्राप्त और साहित्यिक गतिविधियाँ तो है ही।
मैं वैसे तो ‘दृष्टि’ से बहुत ज्यादा समय से नहीं जुड़ा हूँ लेकिन जब से जुड़ा हूँ तब से ही पत्रिका को लघुकथा के प्रति गंभीर तेवर धारण किए हुए पा रहा हूँ। हर अंक की तरह दृष्टि का यह अंक संग्रहणीय तो है ही लेकिन लघुकथा में विशेष रूचि रखने वाले लेखक/ लेखिकाओं के लिए एक दस्तावेज समान है।
प्रस्तुति आलेख “समग्र की समग्रता के आयाम” में डॉ. अशोक भाटिया ने बड़े ही सरल शब्दों में लघुकथा की सन १९७८ से पहले की पृष्ठभूमि पर विस्तार से लिखते हुए इस अंक की सामग्री संयोजन पर प्रकाश डाला है। अनौपचारिक के अन्तर्गत गौरीनंदन सिंहल जी ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के उपयोग और प्रतिबद्धता पर रोशनी डाली है। कुछ सीखने की नजर से महावीर प्रसाद जैन जी का आलेख “हिन्दी लघुकथा : शिल्प और रचना विधान” बेहद महत्वपूर्ण है। उन्होंने लघुकथा के शिल्प और रचना विधान पर लिखते हुए लघुकथा कहानी क्यों नहीं बन सकती इस बात को बेहद ही सरल शब्दों में समझाते हुए कहानी और लघुकथा के बीच रहे भेद को स्पष्ट किया है। इस आलेख की सबसे बड़ी खूबी यह है कि जैन साहब ने संकलन में शामिल लघुकथाओं के माध्यम से लघुकथा के विविध आयामों को समझाने की कोशिश की है जिसे पढ़कर लघुकथा लेखन की बारीकियों को जानने को उत्सुक लेखक स्वत: ही लघुकथा पढ़कर आसानी से बहुत कुछ सीख जाता है। इसके अतिरिक्त जगदीश कश्यप जी का शोध आलेख “हिन्दी लघुकथा : ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में” सम्पूर्ण लघुकथा जगत की सैर करा जाता है। इसी आलेख के बाद विश्व साहित्य और लघुकथाएँ खण्ड में सात लघुकथाएँ और फिर प्रादेशिक भाषाओं में लघुकथा के अन्तर्गत सात प्रादेशिक भाषा की लघुकथाएँ दी गई है। मोहन राजेश जी ने “लघुकथा विशेषांक : विश्लेषण और मूल्यांकन” आलेख में हिन्दी जगत की प्रतिष्ठित और लघु पत्र/पत्रिकाओं द्वारा निकाले गए लघुकथा विशेषांकों पर विस्तृत प्रकाश डाला है। इसी तरह महावीर प्रसाद जैन जी का आलेख “लघुकथा संग्रह : एक दृष्टि” इसी कड़ी का एक पठनीय और रोचक आलेख है।
पत्रिका के हिन्दी लघुकथा के पहले खण्ड में आधुनिक लघुकथाकार और उनके तेवर के अंतर्गत रमेश बतरा जी, भागीरथ जी, कृष्ण कमलेश जी, मोहन राजेश जी, जगदीश कश्यप जी, चित्रा मुदगल जी, महावीर प्रसाद जैन जी, कमलेश भारतीय जी, पृथ्वीराज अरोड़ा जी, सिमर सदोष जी की दो दो लघुकथाओं को उनके संक्षिप्त परिचय के साथ लिया गया है। लघुकथा लेखन चन्द नामों तक ही सिमटकर नहीं रह जाता है इसी से लघुकथा के दूसरे खण्ड “कुछ और” में २५ लेखक/ लेखिकाओं की एक एक चर्चित लघुकथाओं को शामिल किया गया है। लघुकथा के तीसरे खण्ड “कुछ और सुखनवर” के अंतर्गत वक्त की सच्चाई से जुड़ी २६ लघुकथाएँ ली गई है। लघुकथा के अंतिम खण्ड में “सम्भावनाएँ” के अंतर्गत १० ऐसे लघुकथाकार शामिल है जिनकी लघुकथाओं में संपादक मण्डल सांस्कृतिक विलम्बना और सामाजिक विडम्बना को उजागर होते हुए देखते है।
अंत में रमेश बतरा जी बातचीत पढ़कर लघुकथा के बारें में रहे कई सवालों के जवाब मिल जाते है।
मेरी नजर में दृष्टि का यह अंक हर लघुकथा लेखक के लिए संग्रहणीय तो है ही साथ ही हर लघुकथा पाठक के लिए भी बेहद महत्वपूर्ण है।
- आशीष दलाल
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (22-05-2019) को "आपस में सुर मिलाना" (चर्चा अंक- 3343) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत-बहुत आभार आदरणीय
हटाएं