लघुकथा: जानवरीयत | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
वृद्धाश्रम के दरवाज़े से बाहर निकलते ही उसे किसी कमी का अहसास हुआ, उसने दोनों हाथों से अपने चेहरे को टटोला और फिर पीछे पलट कर खोजी आँखों से वृद्धाश्रम के अंदर पड़ताल करने लगा। उसकी यह दशा देख उसकी पत्नी ने माथे पर लकीरें डालते हुए पूछा, "क्या हुआ?"
उसने बुदबुदाते हुए उत्तर दिया, "अंदर कुछ भूल गया..."
पत्नी ने उसे समझाते हुए कहा, "अब उन्हें भूल ही जाओ, उनकी देखभाल भी यहीं बेहतर होगी। हमने फीस देकर अपना फ़र्ज़ तो अदा कर ही दिया है, चलो..." कहते हुए उसकी पत्नी ने उसका हाथ पकड़ कर उसे कार की तरफ खींचा।
उसने जबरन हाथ छुड़ाया और ठन्डे लेकिन द्रुत स्वर में बोला, "अरे! मोबाइल फोन अंदर भूल गया हूँ।"
"ओह!" पत्नी के चेहरे के भाव बदल गए और उसने चिंतातुर होते हुए कहा, "जल्दी से लेकर आ जाओ, कहीं इधर-उधर हो गया तो? मैं घंटी करती हूँ, उससे जल्दी मिल जायेगा।"
वह दौड़ता हुआ अंदर चला गया। अंदर जाते ही वह चौंका, उसके पिता, जिन्हें आज ही वृद्धाश्रम में दाखिल करवाया था, बाहर बगीचे में उनके ही घर के पालतू कुत्ते के साथ खेल रहे थे। पिता ने उसे पल भर देखा और फिर कुत्ते की गर्दन को अपने हाथों से सहलाते हुए बोले, "बहुत प्यार करता है मुझे, कार के पीछे भागता हुआ आ गया... जानवर है ना!"
डबडबाई आँखों से अपने पिता को भरपूर देखने का प्रयास करते हुए उसने थरथराते हुए स्वर में उत्तर दिया, “जी पापा, जिसे जिनसे प्यार होता है... वे उनके पास भागते हुए पहुँच ही जाते हैं...”
और उसी समय उसकी पत्नी द्वारा की हुई घंटी के स्वर से मोबाइल फोन बज उठा। वो बात और थी कि आवाज़ उसकी पेंट की जेब से ही आ रही थी।
लघुकथा: इतिहास गवाह है | लेखन व वाचन: डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
“योर ऑनर, सच्चाई यह है कि महाराणा ने युद्ध जीता था... इसलिए युद्धभूमि का नाम अब महाराणा के नाम पर ही होना चाहिए”, न्यायालय के एक खचाखच भरे कक्ष में पहले वकील ने पुरजोर शब्दों में दलील दी।
“माफ़ी चाहता हूँ योर ऑनर, लेकिन मेरे विद्वान मित्र सच नहीं कह रहे। युद्ध शहंशाह ने जीता था, इतिहास गवाह है...” दूसरे वकील ने अंतिम तीन शब्दों पर ज़ोर देते हुए कहा।
पहले वकील ने मुस्कुराते हुए प्रत्युत्तर दिया, “अगर मेरे दोस्त का कहना सच है कि इतिहास गवाह है... तो योर ऑनर उन्हें यह आदेश फरमाएं, कि बुला लें इतिहास को गवाही के लिए...”
सुनते ही कोर्ट रूम में बैठे ज़्यादातर लोग हँसने लगे, यहाँ तक कि जज भी मुस्कुराने से बच नहीं सके।
पीछे बैठा एक व्यक्ति शरारत से चिल्लाया, “इतिहास हाज़िर होsss”
लेकिन जब तक कोई चिल्लाने वाले व्यक्ति की शक्ल भी देख पाता, कटघरे के नीचे से धुएँ का एक गुबार उठा और कटघरा धुएँ से भर गया।
वहीँ से एक गंभीर स्वर गूंजा, “मैं वर्तमान और भविष्य की कसम खा कर कहता हूँ कि मैं कभी झूठ नहीं बोलता, मेरे नाम से लोग झूठ बोलते हैं।”
कोर्ट रूम में बैठे सभी व्यक्ति हतप्रभ रह गए, कटघरे में धुंए के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। जज हडबडाये स्वर में बोला, “कौन है वहां?”
स्वर गूंजा, “इतिहास...”
दोनों वकीलों के हलक सूख गए। पहले वकील ने किसी तरह खुदको सम्भाल कर अपनी आँखे धुएँ में गाड़ने का असफल प्रयास करते हुए पूछा, “युद्ध... महाराणा... ने ही...” बाकी शब्द उसके कंठ में ही अटक गए।
स्वर गूंजा, “नहीं...”
यह सुनकर दूसरे वकील की जान में जैसे प्राण आ गये, वह बोला, “मतलब… शहंशाह ने जीता...”
स्वर फिर गूंजा, “नहीं...”
“तो फिर?” जज ने पूछा, हालाँकि उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह प्रश्न कर किससे रहा है।
“युद्ध जीता था - नफरत ने।” स्वर तीक्ष्ण था।
जज ने अब उत्सुकतापूर्ण स्वर में अगला प्रश्न पूछा, “लेकिन हम कैसे मान लें कि तुम इतिहास हो?”
और अगले ही क्षण धुएँ का गुबार छंट गया। कटघरा खाली था...
कहीं से वही स्वर आया, “मुझे पहचान नहीं सकते तो कटघरे में खड़ा कैसे कर सकते हो?”
कोर्ट रूम में फिर खामोशी छा गयी।
ख़ामोशी उसी स्वर ने तोड़ी,
“उस ज़मीन का नाम मोहब्बत रख देना – आपको आपके भविष्य की कसम...”
माँ भारती ने बड़ी मुश्किल से अंग्रेज किरायेदारों से अपना एक कमरे का मकान खाली करवाया था। अंग्रेजों ने घर के सारे माल-असबाब तोड़ डाले थे, गुंडागर्दी मचा कर खुद तो घर के सारे सामानों का उपभोग करते, लेकिन माँ भारती के बच्चों को सोने के लिए धरती पर चटाई भी नसीब नहीं होती। खैर, अब ऐसा प्रतीत हो रहा था कि सब ठीक हो जायेगा।
लेकिन…
पहले ही दिन उनका बड़ा बेटा भगवा वस्त्र पहन कर आया साथ में गीता, रामायण, वेद-पुराण शीर्षक की पुस्तकें तथा भगवान राम-कृष्ण की तस्वीरें लाया।
उसी दिन दूसरा बेटा पजामा-कुरता और टोपी पहन कर आया और पुस्तक कुरान, 786 का प्रतीक, मक्का-मदीना की तस्वीरें लाया।
तीसरा बेटा भी कुछ ही समय में पगड़ी बाँध कर आया और पुस्तकें गुरु ग्रन्थ साहिब, सुखमणि साहिब के साथ गुरु नानक, गुरु गोविन्द की तस्वीरें लाया।
और चौथा बेटा भी वक्त गंवाएं बिना लम्बे चोगे में आया साथ में पुस्तक बाइबल और प्रभु ईसा मसीह की तस्वीरें लाया।
चारों केवल खुदकी किताबों और तस्वीरों को घर के सबसे अच्छे स्थान पर रख कर अपने-अपने अनुसार घर बनाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने आपस में लड़ना भी शुरू कर दिया।
यह देख माँ भारती ने ममता के वशीभूत हो उस एक कमरे के मकान की चारों दीवारों में कुछ ऊंचाई पर एक-एक छेद करवा दिया। जहाँ उसके बेटों ने एक-दूसरे से पीठ कर अपने-अपने प्रार्थना स्थल टाँगे और उनमें अपने द्वारा लाई हुई तस्वीरें और किताबें रख दीं।
वो बात और है कि अब वे छेद काफी मोटे हो चुके हैं और उस घर में बदलते मौसम के अनुसार बाहर से कभी ठण्ड, कभी धूल-धुआं, कभी बारिश तो कभी गर्म हवा आनी शुरू हो चुकी है… और माँ भारती?... अब वह दरवाज़े पर टंगी नेमप्लेट में रहती है।
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अपेक्षानुसार परदादा की अलमारी से भी कुछ नहीं मिला तो अलादीन ने निराश होकर जोर से उसका दरवाज़ा बंद किया, अंदर से मिट्टी सना एक चिराग बाहर गिरा। चिराग बेच कर कुछ रुपयों की उम्मीद से वह उस पर लगी मिट्टी साफ़ करने लगा ही था कि उसमें से धुँआ निकला और देखते-ही-देखते धुँआ एक जिन्न में बदल गया।
जिन्न ने मुस्कुराते हुए कहा, "मैं इस चिराग का जिन्न हूँ, मेरे आका, जो चाहे मांग लो।"
अलादीन ने पूछा, "क्या तुम मेरी गरीबी हटा सकते हो?"
“क्यों नहीं!” जिन्न के कहते ही अगले ही क्षण रूपये-हीरे-जवाहरात आ गए, अलादीन ने ख़ुशी से पूछा, “यह लाते कहाँ से हो?”
“ये सब देश के एक बड़े उद्योगपति के हैं।”
“क्या..? टैक्स चोरी, एक रूपये की चीज़ सौ रूपये में बेच कर कमाए हुए रूपये मैं नहीं लूँगा” अलादीन ने इनकार कर दिया।
जिन्न उन्हें गायब कर रुपयों का एक बक्सा ले आया।
अलादीन को पहले ही संदेह हो चुका था, उसने पूछा, “यह कहाँ से आया?”
“एक नेता ने घर में छिपा रखा था।”
“नहीं, यह काली कमाई भी मैं नहीं लूँगा।”
जिन्न उसे हटा कर, एक संदूक भर रुपया ले आया, और बताया, “यह अनाज, सब्जी और फल बेचकर कमाया गया है, जो इसके मालिक ने किसानों से खरीदा था।”
“और किसान भूखे मर रहे हैं..., यह मैं हरगिज़ नहीं लूँगा।”
अब जिन्न बहुत सारे रूपये लाया और बताया, “ये रूपये एक साधू के हैं, जो हस्पताल और समाजसेवी संस्थायें चलाते हैं”
“ये तो सबसे बड़े चोर हैं, समाजसेवा की आड़ में नकली दवाएं और गलत धंधे चलाते हैं, ये मैं नहीं ले सकता, मुझे केवल शराफत से कमाए रूपये चाहिए”
जिन्न सोचते हुए कुछ क्षण खड़ा रहा, और अलादीन को एक पर्ची थमा कर गायब हो गया। अलादीन ने पर्ची खोली, उसमें लिखा था,
“रूपये पेड़ों पर नहीं उगते हैं।”
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चित्रः साभार गूगल
वह दौड़ते हुए पहुँचता उससे पहले ही उसके परिवार के एक सदस्य के सामने उसकी वह ही तलवार आ गयी, जिसे हाथ में लेते ही उसने पहला संकल्प तोड़ा था कि 'वह कभी किसी की भी बुराई नहीं सुनेगा'। वह पीछे से चिल्लाया, "रुक जाओ तुम्हें तो दूसरे धर्मों के लोगों को मारना है।" लेकिन तलवार के कान कहाँ होते हैं, उसने उसके परिवार के उस सदस्य की गर्दन काट दी।
वह फिर दूसरी तरफ दौड़ा, वहाँ भी उससे पहले उसी की एक बन्दूक पहुँच गयी थी, जिसे हाथ में लेकर उसने दूसरा संकल्प तोड़ा था कि 'वह कभी भी बुराई की तरफ नहीं देखेगा'। बन्दूक के सामने आकर उसने कहा, "मेरी बात मानो, देखो मैं तुम्हारा मालिक हूँ..." लेकिन बन्दूक को कुछ कहाँ दिखाई देता है, और उसने उसके परिवार के दूसरे सदस्य के ऊपर गोलियां दाग दीं।
वह फिर तीसरी दिशा में दौड़ा, लेकिन उसी का आग उगलने वाला वही हथियार पहले से पहुँच चुका था, जिसके आने पर उसने अपना तीसरा संकल्प तोड़ा था कि 'वह कभी किसी को बुरा नहीं कहेगा'। वह कुछ कहता उससे पहले ही हथियार चला और उसने उसके परिवार के तीसरे सदस्य को जला दिया।
और वह स्वयं चौथी दिशा में गिर पड़ा। उसने गिरे हुए ही देखा कि एक बूढ़ा आदमी दूर से धीरे-धीरे लाठी के सहारे चलता हुआ आ रहा था, गोल चश्मा पहने, बिना बालों का वह कृशकाय बूढ़ा उसका वही गुरु था जिसने उसे मुक्ति दिला कर ये तीनों संकल्प दिलाये थे।
उस गुरु के साथ तीन वानर थे, जिन्हें देखते ही सारे हथियार लुप्त हो गये।
और उसने देखा कि उसके गुरु उसे आशा भरी नज़रों से देख रहे हैं और उनकी लाठी में उसी का चेहरा झाँक रहा है, उसके मुंह से बरबस निकल गया 'हे राम!'।