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शनिवार, 4 जनवरी 2020
शुक्रवार, 3 जनवरी 2020
लघुकथा समाचार: सम्मान रचनाकार का हौसला बढ़ाता है और दायित्व भी
जब किसी रचनाकार को सम्मान दिया जाता है यह उसको और बेहतर लिखने की प्रेरणा तो देता ही है, वह रचनाकार का दायित्व भी बढ़ा देता है कि वह लगातार अच्छी रचता रहे। लघुकथा लिखना आसान नहीं है। लघुकथा लिखना उपन्यास लिखने जैसा ही कठिन रचनाकर्म है। लघुकथा आकार में भले लघु हो पर दीर्घ प्रभाव छोड़ती है। यह बात देवास के कहानीकार मनीष वैद्य ने कही। वे श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति में वरिष्ठ शिक्षक और लेखक स्व. डॉ.एस.एन. तिवारी के पुण्य स्मरण दिवस पर रचनाकारों के सम्मान समारोह में बतौर मुख्य अतिथि बोल रहे थे। कार्यक्रम में मुकेश तिवारी के लघुकथा संग्रह आम के पत्ते का लोकार्पण भी किया गया।
इन्हें किया गया सम्मानित
इसमें इंदौर के कांतिलाल ठाकरे, धार के नरेंद्र मांडलिक और एकता शर्मा,, भोपाल के कमल किशोर दुबे, इंदौर की संध्या रायचौधरी और अदिति सिंह भदौरिया, अमर कौर चड्ढा, कोटा की माधुरी शुक्ला सम्मानित किया गया। आभार डॉ पूजा मिश्रा ने माना। दूसरे सत्र में लघुकथा पाठ कियागया। लघुकथाकार डॉ योगेन्द्रनाथ शुक्ला ने कहा कि लघुकथा एक अलग-सा तेवर रखने वाली विधा है। अच्छा लिखने से पहले अच्छा पढ़ना भी बहुत ज़रूरी है। डॉ. पद्मा सिंह ने कहा कि अगर लघुकथा लिखी जा रही है तो वह लघु ही होना चाहिए। लेखन ऐसा हो जो पाठकों के दिल को छू जाए। विशेष अतिथि मीरा जैन और देवेन्द्र सिंह सिसौदिया ने लघुकथा लेखन की बारीकियों बताईं। संचालन डॉ. दीपा मनीष व्यास ने किया।
Source:
https://www.bhaskar.com/news/mp-news-honor-gives-encouragement-to-the-creator-and-also-responsibility-153552-6291565.html
‘लघुकथा कलश’ के ‘राष्ट्रीय चेतना विशेषांक’ (जनवरी-जून 2020) हेतु घोषणा | योगराज प्रभाकर
आदरणीय साथियो,
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‘लघुकथा कलश’ के ‘राष्ट्रीय चेतना विशेषांक’ (जनवरी-जून 2020) हेतु भारी संख्या में रचनाएँ प्राप्त हुईं। कतिपय कारणों से हमें 39 रचनाकारों की लगभग 100 लघुकथाएँ निरस्त करनी पड़ीं। इस अंक में कुल 152 रचनाकारों की 250 से ऊपर लघुकथाएँ शामिल की जा रही हैं, चयनित रचनाकारों की लगभग अंतिम सूची इस प्रकार है:
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(हिंदी लघुकथाकार: 139)
अंकुश्री, अंजू खरबंदा, अंजू निगम, अनघा जोगलेकर, अनिल मकरिया, अनिल शूर ‘आज़ाद’, अनीता रश्मि, अमृतलाल मदान, अयाज़ खान, अर्चना रॉय, अशोक भाटिया, अशोक लव, आभा सिंह, आर.बी भंडारकर, आलोक चोपड़ा, आशीष जौहरी, आशीष दलाल, इंदु गुप्ता, कनक हरलालका, कमल कपूर, कमल चोपड़ा, कमलेश भारतीय, कल्पना भट्ट, कविता वर्मा, किशन लाल शर्मा, कुँवर प्रेमिल, कुसुम जोशी, कुसुम पारीक, कृष्ण चन्द्र महादेविया, गोकुल सोनी, गोविन्द शर्मा, चंद्रा सायता, चंद्रेश कुमार छतलानी, चित्त रंजन गोप, जया आर्य, जानकी वाही, ज्योत्स्ना सिंह, तारिक़ असलम तसनीम, त्रिलोक सिंह ठकुरेला, दिनेशनंदन तिवारी, दिव्या शर्मा, धर्मपाल साहिल, ध्रुव कुमार, नंदलाल भारती, नयना (आरती) कानिटकर, पंकज शर्मा, पदम गोधा, पम्मी सिंह ‘तृप्ति’, पवन शर्मा, पवित्रा अग्रवाल, पुरुषोत्तम दुबे, पूजा अग्निहोत्री, पूनम सिंह, प्रताप सिंह सोढ़ी, प्रदीप कुमार शर्मा, प्रदीप शशांक, प्रेरणा गुप्ता, बलराम अग्रवाल, बालकृष्ण गुप्ता ‘गुरुजी’, भगवती प्रसाद द्विवेदी, भगवान प्रखर वैद्य, भगीरथ, मधु जैन, मधुकांत, मधुदीप, मनन कुमार सिंह, मनीष कुमार पाटीदार, मनोज सेवलकर, मनोरमा जैन पाखी, महिमा श्रीवास्तव वर्मा, महेंद्र कुमार, महेश दर्पण, माधव नागदा, मार्टिन जॉन, मिन्नी मिश्रा, मीनू खरे, मुकेश शर्मा, मुरलीधर वैष्णव, मेघा राठी, मोहम्मद आरिफ़, योगराज प्रभाकर, योगेन्द्रनाथ शुक्ल, रजनीश दीक्षित, रतन चंद रत्नेश, रतन राठौड़, रवि प्रभाकर, रशीद गौरी, राजकमल सक्सेना, राजेन्द्र वामन काटदरे, राजेश शॉ, राधेश्याम भारतीय, राम करन, राम मूरत राही, रामकुमार घोटड़, रामनिवास मानव, रामेश्वर काम्बोज हिमांशु, रूप देवगुण, रूपल उपाध्याय, लज्जाराम राघव, लाजपत राय गर्ग, वंदना गुप्ता, वसुधा गाडगिळ, विजयानंद विजय, विनोद कुमार विक्की, विभा रानी श्रीवास्तव, वीरेंद्र भारद्वाज, शराफ़त अली खान, शिखा कौशिक ‘नूतन’, शील कौशिक, शेख़ शहज़ाद उस्मानी, श्यामसुंदर दीप्ति, श्रुत कीर्ति अग्रवाल, संगीता गांधी, संगीता गोविल, संतोष सुपेकर, संध्या तिवारी, सतीशराज पुष्करणा, सत्या शर्मा कीर्ति, सविता इंद्र गुप्ता, सारिका भूषण, सिमर सदोष, सिराज फ़ारूक़ी, सीमा वर्मा, सीमा सिंह, सुकेश साहनी, सुदर्शन रत्नाकर, सुधीर द्विवेदी, सुनीता मिश्रा, सुनील गज्जानी, सुरिन्दर कौर ‘नीलम’, सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा, सुरेश बाबू मिश्रा, सुरेश सौरभ, सैली बलजीत, सोमा सुर, स्नेह गोस्वामी, हरभगवान चावला, हेमंत उपाध्याय.
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(विशिष्ट रचनाकार 4) : मधुदीप: समीक्षक रवि प्रभाकर, तारिक़ असलम तसनीम: समीक्षक सतीशराज पुष्करणा, सुरिंदर कैले: समीक्षक अशोक भाटिया, मार्टिन जॉन: समीक्षक पुरुषोत्तम दुबे.
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(विशिष्ट भाषा: पंजाबी, कुल लघुकथाकार: 13)
करमजीत नडाला, कुलविन्द्र कौशल, तृप्त भट्टी, निरंजन बोहा, परगट सिंह जंबर, प्रदीप कौड़ा, बलदेव सिंह खैहरा, रघबीर सिंह मेहमी, विवेक कोट ईसे खान, सतिपाल खुल्लर, सुरिंदर कैले (विशिष्ट रचनाकार), हरप्रीत राणा, हरभजन खेमकरनी. समीक्षक: खेमकरण सोमन.
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इसके इलावा बहुत से आलेख, लघुकथा संग्रहों की समीक्षा, विभिन्न लघुकथा आयोजनों की रिपोर्ट्स तथा ‘लघुकथा कलश’ के ‘रचना-प्रक्रिया विशेषांक’ पर प्राप्त कुछ चुनिंदा पाठकीय प्रतिक्रियाएँ भी इस अंक में शामिल की जा रही हैंi यह अंक सम्भवत: फरवरी-2020 में प्रकाशित होगा।
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विनीत
योगराज प्रभाकर
संपादक: लघुकथा कलश
गुरुवार, 2 जनवरी 2020
पुस्तक समीक्षा | असभ्य नगर एवं अन्य लघुकथाएँ | कल्पना भट्ट
पुस्तक का नाम :
असभ्य नगर एवं अन्य लघुकथाएँ
लेखक:
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
प्रकाशन:
अयन प्रकाशन १/२०, महरौली, नई दिल्ली-११० ०३०
मूल्य: २०० रुपये
हिंदी-लघुकथा सन् १८७४ में हसन मुंशी अली की लघुकथाओं से विकास करना शुरू करती है, उसके पश्चात भारतेंदु हरिश्चन्द्र, जयशंकर ‘प्रसाद’, उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’, अवधनारायण मुद्गल , सतीश दुबे से होते हुए आज सन् २०१९ में नयी पीढ़ी तक आ पहुँची है| हसन मुंशी अली से लेकर नयी पीढ़ी तक आते-आते लघुकथा के रूप-स्वरूप और भाषा-शैली में अनेक प्रकार की भिन्नता दिखाई पड़ती है, इन भिन्नताओं को लघुकथा-विकास के सोपानों के रूप में देखा जा सकता है| इसके मथ्य नवें दशक जिसे लघुकथा का स्वर्णकाल भी कहा जा सकता है| इस काल में जो कुछ लेखक अपनी विशिष्ट लघुकथाएँ लेकर सामने आये उनमें रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ का भी एक उल्लेखनीय हस्ताक्षर है| और इन्होंने अपने समकालीनों की तुलना में बहुत अधिक लघुकथाएँ तो नहीं लिखी किन्तु जो लिखी वे लघुकथाएँ उनके अब तक की एक-मात्र लघुकथा संग्रह ‘असभ्य नगर एवं अन्य लघुकथाएँ’ में संगृहीत हैं| इन लघुकथाओं को पढ़ते समय इस बात का सहज ही एहसास होता है कि इन्होंने मात्र लघुकथाएँ लिखने के लिए लघुकथाएँ नहीं लिखीं, जब कभी इन्होंने अपने समाज में घटित होती समस्याओं और विडम्बनाओं को देखा और प्रतिक्रया स्वरूप जब लघुकथा क रूप लेकर इन्हें बेचैन किया, तब इन्होंने उन लघुकथाओं को लिपिबद्ध कर दिया| ऐसी स्थिति में यह स्वाभाविक ही था कि ये लघुकथाएँ संवेदनशील होती | और संवेदना किसी भी श्रेष्ठ लघुकथा का पहला गुण हैं|
यूँ तो इस संग्रह में प्रकाशित प्रत्येक लघुकथा भिन्न-भिन्न कारणों से अपना महत्त्व रखती है किन्तु उनमें भी ‘ऊँचाई’, ‘ चक्रव्यूह’, ‘क्रौंच-वध’, ‘अश्लीलता’, ‘प्रवेश-निषेध’, ‘पिघलती हुई बर्फ’, ‘राजनीति’,’स्क्रीन-टेस्ट’, ‘कटे हुए पंख’, ‘असभ्य नगर’, ‘नवजन्मा’ इत्यादि लघुकथाओं ने न सिर्फ संवेदित किया अपितु मेरे मन-मष्तिष्क को झिंझोड़ कर भी रख दिया| इस कारण मैं इनके चिंतन-मनन को विवश हो गयी|
सर्वप्रथम मैं ‘ऊँचाई’ लघुकथा की चर्चा करना चाहूँगी| यह लघुकथा हिमांशु जी की न मात्र प्रतिनिधि लघुकथा है अपितु यह उनके विशिष्ट लघुकथाकार के रूप में पहचान भी है| मुझे विश्वास है कि कभी-न-कभी यह लघुकथा प्रत्येक लघुकथाकार की नज़र से गुज़री होगी और असंख्य पाठकों ने इसे पढ़ा भी होगा| इस लघुकथा मे नायक अपने पिता के आगमन पर यह सोचता है कि उसके पिता आर्थिक सहयोग के दृष्टिकोण से उसके पास आये हैं किन्तु भोजन करने के बाद उसके पिता जाते समय अपने पुत्र को बुला कर कहते हैं, “खेती के काम से घड़ी भर की फुर्सत नहीं मिलती है| इस बखत काम का ज़ोर है| रात की गाड़ी से ही वापस जाऊँगा| तीन महीने से तुम्हारी कोई चिट्ठी तक नहीं मिली| जब तुम परेशान होते हो, तभी ऐसा करते हो|” जो बेटा अपने पिता के आगमन से ही विचलित हो जाता है, उसके पिता ने उलट अपने बेटे के लिए चिंता जताई है| और इसी लघुकथा में नायक के पिता को ऊँचाई दी है, कि उनका बेटा शहर तो आ गया, पर उसकी सोच संकीर्ण हो गयी और वह इतना स्वार्थी हो गया कि उसने अपने पिता का स्वागत मन मार कर किया, ऐसे में भी पिता ने अपनी जेब से सौ-सौ के दस नोट निकालकर नायक की तरफ बढ़ा दिए और कहा, “रख लो! तुम्हारे काम आ जायेंगे| इस बार धान की फसल अच्छी हो गयी है| घर में कोई दिक्कत नहीं है| तुम बहुत कमजोर लग रहे हो| ढंग से खाया-पीया करो| बहु का भी ध्यान रखो|” बेटा परेशान है इसका एहसास पिता को है, वहीँ वह यह भी जानते हैं कि पैसा देने पर उनके बेटे को उसके माता-पिता की चिंता भी होगी, इसकी वजह से वह उसको चिंतामुक्त भी कर देते हैं और अपने को सहज भी कर ले इसका अवसर भी दे देते हैं| इन अन्तिम वाक्यों ने इस लघुकथा को सर्वश्रेष्ठ बना दिया है| और पिता और पुत्र के बीच के रिश्ते के अपनत्व का भी उत्कृष्ट तरीके से चित्रण करने का सद्प्रयास किया है| इस लघुकथा का कथानक न सिर्फ श्रेष्ठ है अपितु इसके शीर्षक ने भी इस लघुकथा को उत्कृष्ट बनाया है| गाँव से पलायन कर शहर में रहने से कोई अमीर नहीं हो जाता समस्याएँ यहाँ भी पीछा नहीं छोड़ती, पर इंसान किस तरह स्वार्थी हो जाता है और विवश हो जाता है कि उसको अपने माता-पिता भी बोझ लगने लगते हैं वह यह भी भूल जाते हैं कि किस तरह से उन्होंने भी परेशानियों का सामना किया होगा और वह भी निस्वार्थ भाव से| इस लघुकथा में पिता का यह कहना कि “इस बार फसल अच्छी हुई है...” से हिमांशु एक सन्देश भी देना चाहते हैं कि ‘समस्याओं से भागना कोई हल नहीं हैं अपितु उनका सामना करना ही हितकारी होता है’ और माता-पिता से बढ़कर इस दुनिया में कोई भी नहीं होता जो नि:स्वार्थ भावना रखता है| इसको पढ़ने के पश्चात् क्या ऐसा सबके साथ नही होता जो मेरे साथ हुआ है|
इसी प्रकार अन्य ऊपर उल्लेखित की गई लघुकथाओं में भी देखा जा सकता है| ‘चक्रव्यूह’ में नायक मध्यमवर्गीय परिवार से है जो अपनी जिजीविषा के लिए दिन-रात मेहनत तो करता है, पर महंगाई की मार उसकी कमर तोड़ देती है और वह खुद को चक्रव्यूह में फँसा हुआ अनुभव करता है, इस लघुकथा की अंतिम पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं ‘ एक पीली रोशनी मेरी आँखों के आगे पसर रही है;जिसमें जर्जर पिताजी मचिया पर पड़े कराह रहे हैं और अस्थि-पंजर-सा मेरा मँझला बेटा सूखी खपच्ची टाँगों से गिरता-पड़ता कहीं दूर भागा जा रहा है| और मैं धरती पर पाँव टिकाने में भी खुद को असमर्थ पा रहा हूँ|” इस लघुकथा के माध्यम से हिमांशु जी ने मध्यमवर्गीय परिवार की परेशानियों को उभारने का सद्प्रयास किया है जिसमें वह सफल भी रहे हैं|
‘क्रौंच-वध’ पौराणिक मिथक पात्रों को लेकर लिखी गयी यह लघुकथा सांकेतिक ढंग से यह सन्देश देने में पूर्णतः सफल रही है कि पुरुष प्रधान समाज की सोच को अब बदलना होगा | जिस तरह से वाल्मीकि रामायण में आदर्श स्थापित किया है वहीँ स्त्री जाति पर आरोप-प्रत्यारोप की झलक भी दिखाई पड़ती है| इस लघुकथा में हिमांशु जी पौराणिक मिथक पात्रो के माध्यम से आज को जोड़ा है कि समय बदल रहा है और स्त्री को भी पुरुष की तरह समान अधिकार मिलने चाहिए | हिंदी-लघुकथा में पौराणिक और मिथक पात्रों को लेकर ऐसी लघुकथा अभी तक कोई अन्य मेरे पढ़ने में नहीं आई है|
‘अश्लीलता’ इंसान की विकृत सोच को दर्शाती इस लघुकथा का अंत नकारत्मकता लिए है परन्तु इसके बावजूद इस लघुकथा में इंसान की दोहरी सोच और उसके मनोविज्ञान को भली-भाँति समझा जा सकता है| इस लघुकथा की प्रथम पंक्ति को देखें: ‘रामलाल कि अगुआई में नग्न मूर्ति को तोड़ने के लिए जुड़ आई भीड़ पुलिस ने किसी तरह खदेड़ दी थी....|” और इसी लघुकथा की अन्तिम पंक्तियों को भी देखें: “ वह मूर्ति के पास आ चुका था| देवमणि के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा| रामलाल मूर्ति से पूरी तरह गूँथ चुका था और उसके हाथ मूर्ति के सुडौल अँगों पर के केचुए की तरह रेंगने लगे थे|”
‘प्रवेश-निषेद’ यह लघुकथा वर्तमान की राजनीति पर करारा कटाक्ष लिए है| लघु आकार की होने के बावजूद इस लघुकथा के माध्यम से हिमांशु जी ने इस रचना में क्षिप्रता देकर उत्कृष्ट बनाने का सफलतम सद्प्रयास किया है| इसका अंतिम वाक्य देखा जा सकता है, जब राजनीति एक वैश्या की चौखट पर आती है और दलाल उससे उसका परिचय पूछता है, दरवाज़े ओट में खड़ी वह कहती है, “ यहाँ तुम्हारी जरूरत नहीं है| हमें अपना धंधा चौपट नहीं कराना| तुमसे अगर किसी को छूत की बीमारी लग गयी तो मरने से भी उसका इलाज नहीं होगा|” और वह दरवाज़ा बंद कर देती है|
‘पिघलती हुई बर्फ’ पति-पत्नी का रिश्ता अनोखा होता है, प्रकृति ने मनुष्यों को जहाँ अलग-अलग चेहरे दिए हैं वैसे ही उनके स्वाभाव में भी भिन्नता होती है, इसके बावजूद मनुष्य को एक सामाजिक प्राणी का दर्जा प्राप्त है| पति-पत्नी भी अपवाद नहीं हैं, छोटी-मोटी बहस के बावजूद एक दूसरे के समर्पण भाव सहज देखने को मिल जाते है| लेखक ने इस लघुकथा के माध्यम से इस रिश्ते की नींव को मज़बूत बनाने का सार्थक प्रयास किया है जिसमें वह पूर्णतः सफल रहे हैं|
‘राजनीति’ यह लघुकथा राजनीति की पृष्ठभूमि पर लिखी एक अच्छी लघुकथा है, इस लघुकथा के माध्यम से हिमांशु जी ने राजनीति में पनप रही कूटनीति और बढ़ते हुए अपराध को बड़े ही करीने से उजागर किया है|
‘स्क्रीन-टेस्ट’ फ़िल्मी दुनिया हमेशा आकर्षण का केंद्र रही है, नाम और शौहरत पाने की लालसा में और जल्द-से-जल्द अमीर बनाने की चाहत में युवा- वर्ग इस ओर आकर्षित हो जाती है, परन्तु इस चकाचौंध के पीछे के दलदल में फँस कर रह जाती है, जहाँ से वापिस आना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन- सा हो जाता है| इस लघुकथा के माध्यम से हिमांशु जी ने एक सकारात्मक सन्देश भी दिया है, “ सफलता पाने के लिए कोई शॉर्टकट रास्ता नहीं होता’|
‘कटे हुए पंख’ अर्ध मानवेत्तर शैली में लिखी गयी यह लघुकथा भी राजनीति और सामंतशाही से प्रेरित है, किस तरह से ऊँचे व्यक्ति पैसे और सत्ता के दम पर अपने से नीचे के लोगों को कुचल कर अपना साम्राज्य स्थापित करना चाहते हैं और वे किसीकी भी परवाह किये बिना अपने स्वार्थ को सिद्ध करते है| इस लघुकथा के अंत से इस बात की पुष्टि होती है : ‘परन्तु तोता उड़ न सका| धीरे-धीरे-से पिंजरे के पास बैठ गया था; क्योंकि उसके पंख मुक्त होने से पहले ही काट दिए गए थे|
‘असभ्य नगर’ आज के भौतिक और भूमंडलीकारण के चलते पशु-पक्षियों के जीवन को भी खतरा हो गया है| परन्तु यह भी सच है कि इस आपा-धापी में हम अपना सुख-चैन भी खो चुके हैं, एक तरफ जहाँ हम जंगलों को काटते जा रहे हैं और बड़ी-बड़ी गगनचुम्बी इमारतें बनाते जा रहे हैं, हमारे भीतर की संवेदना खत्म होती जा रही है| हिमांशु जी ने इस मानवेत्तर लघुकथा के माध्यम से एक सार्थक सन्देश देने का सद्प्रयास किया है| इस लघुकथा की अन्तिम पंक्ति में पूरी लघुकथा का सार मिल जाता है, ‘उल्लू ने कबूतर को पुचकारा- “मेरे भाई, जंगल हमेशा नगरों से अधिक सभ्य रहे हैं| तभी तो ऋषि-मुनि यहाँ आकर तपस्या करते थे|” इस लघुकथा के माध्यम से हिमांशु जी ने पर्यावरण के नष्ट होने पर अपनी चिंता जताई है और जिससे यह सिद्ध होता है, कि हिमांशु जी न सिर्फ सामाजिक परन्तु वह प्रकृति-प्रेमी भी दिखाई पड़ते हैं |
‘नवजन्मा’ लड़की बचाओ पर आधारित एक उत्कृष्ट लघुकथा है, जिलेसिंह जिसके घर में एक पुत्री-रत्न की प्राप्ति हुई है, उसके घर वाले निराश होकर उसको शिकायत करते है और लड़की होने के नुक्सान गिनवाते हैं, वो कहते हैं औरत ही औरत की दुश्मन होती है, इस लघुकथा में इसका चित्रण बहुत ही करीने से हुआ है, जिलेसिंह की दादी और बहन दोनों ही लड़की पैदा होने का शोक मनाते हैं, वहीँ दूसरी ओर जिलेसिंह पहले तो तनाव में आ जाता है परन्तु अपनी पत्नी और पुत्री का चेहरा देखकर उसका हृदय परिवर्तन हो जाता है और वह बाहर से ढोलियों को लेकर आता है और नाचने लगता है और ढोलियों को खूब तेज़ ढोल बजाने के लिए प्रेरित करता है| इस लघुकथा के माध्यम से हिमांशु जी ने लड़का और लड़की के भेद को मिटाने का सकारात्मक सन्देश दिया है|
इन लघुकथाओं के अतिरिक्त अन्य सभी लघुकथाएँ आलोचना की दृष्टि से मत-भिन्नता का शिकार हो सकती हैं, किन्तु पाठकीय दृष्टि से उनपर प्रश्नचिह्न लगाना कठिन है| यों भी आजतक कोई कृति ऐसी प्रकाश में नहीं आई है, जो एक मत से निर्दोष सिद्ध हुई हो| तो इस कृति से ही हम ऐसी आशा क्यों करें कि यह निर्दोष है| इसकी विशेषताओं में विषय की विविधता और भाषा- शैली है |
लघुकथा संग्रहों में ऐसे संग्रह नगण्य ही हैं जिनके दूसरा संस्करण भी प्रकाशित हुए हों| इस संग्रह का दूसरा संस्करण प्रकाश में आया है, जो इस बात का द्योतक है कि इस संग्रह को पाठकों ने भरपूर स्नेह दिया है|
मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि अन्य अनेक चर्चित संग्रहों की तरह से नयी पीढ़ी के लिए यह भी एक आदर्श संग्रह साबित होगा|
- कल्पना भट्ट
श्री द्वारकाधीश मंदिर
चौक बाज़ार
भोपाल ४६२००१
मो ९४२४४७३३७७
बुधवार, 1 जनवरी 2020
संगम सवेरा पत्रिका के जनवरी 2020 अंक में पढ़िए मेरी लघुकथा : 'जानवरीयत '
जानवरीयत / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
Source:
https://www.sangamsavera.in/2020/01/blog-post_5.html
इस लघुकथा का वीडियो
सोमवार, 30 दिसंबर 2019
समीक्षा: सिलवटें (लघुकथा संकलन) | समीक्षक: वन्दना पुणतांबेकर
सिलवटें (इंदौर लेखिका संघ, इंदौर की प्रस्तुति)
प्रकाशक-रंग प्रकाशन, इंदौर
मूल्य-225 रुपए
सिलवटें जब मेरे हाथ में आई तो इतनी आकर्षक लगी कि शब्दों में कहना असम्भव है।इतनी सारी लेखिकाओं का लेखन सृजन देखकर मन की भवनाएं भावविभोर हो गई।कई रंगों के विचारों का एक महकता गुलदस्ता हाथों में थामे में महक उठी।यह संकलन इंदौर लेखिका संघ की लेखिकाओं की लघुकथाओं का सांझा संकलन है। इसमें 36 लेखिकाओं ने अपनी लेखनी से कमाल दिखाया है। संकलन की लगभग सभी लघुकथाएं सारगर्भिता लिए हुए हैं। प्रत्येक लघुकथा अलग-अलग समाजिक परिवेश को दर्शाती है। समाज में व्याप्त विभिन्न विषयों पर लघुकथाओं के माध्यम से लेखिकाओं ने बखूबी स्पष्ट दृष्टिकोण दर्शाया है।
वन्दना पुणतांबेकर |
- वन्दना पुणतांबेकर
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