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शुक्रवार, 24 मई 2019

समीक्षा | परिंदे पत्रिका लघुकथा विशेषांक | समीक्षक: भगवती प्रसाद द्विवेदी


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पत्रिका : परिंदे (लघुकथा केन्द्रित अंक) फरवरी-मार्च'19 अ. सम्पादक : कृष्ण मनु
सं. : डॉ.शिवदान सिंह भदौरिया
79ए, दिलशाद गार्डन, नियर पोस्ट ऑफिस,
दिल्ली- 110095,
पृष्ठ संख्या : 116
मल्य- 40/-


लघुकथा अंक की प्रयोगधर्मिता 

क्षण मात्र की कथात्मक अभिव्यक्ति की अत्यंत प्रभावी विधा लघुकथा की लोकप्रियता और पठनीयता का आलम यह है कि आये दिन पत्रिकाओं के विधा केन्द्रित विशेषांक प्रकाशित होते रहते हैं पर अधिकतर विशेषांक संख्याबल और परिमाणात्मक दृष्टि से भले ही भारी भरकम प्रतीत होते हों, किंतु उनमें कोई नयापन नजर नहीं आता। इन सबसे उलट, जब कोई विधा केन्द्रित अंक बनी-बनाई लीक से अलग हटकर प्रकाशित होती है तो उसकी चर्चा लाजिमी हो जाती है।

ऐसा ही, लघुकथा पर केन्द्रित एक अंक प्रकाशित हुआ है साहित्य, संस्कृति एवं विचार की द्वैमासिक पत्रिका परिन्दे का , जो ग्यारहवें वर्ष के प्रथमांक(फरवरी-मार्च '2019) के रुप में आया है। लब्धप्रतिष्ठ लघुकथाकार कृष्ण मनु के अतिथि सम्पादन में छपे इस अंक में एक तरफ वैसे वरिष्ठतम रचनाकार हैं जो लघुकथा लेखन के पांच दशक पूरे कर चुके हैं, वहीं दूसरी ओर वैसी प्रतिभायें हैं जो पिछले पांच वर्षों से इस विधा में सृजनशील हैं। हर लघुकथाकार की पहली लघुकथा, प्रकाशन वर्ष तथा पत्रिका के नामोल्लेख के साथ प्रकाशित की गयी है। साथ ही , वर्ष 2018 में रची एक अद्यतन लघुकथा भी।

विशेषांक में शामिल हरेक लघुकथाकार के परिचय के साथ कुछ सवाल भी पूछे गये हैं, जैसे- अबतक कितनी लघुकथाएं लिखीं, पत्र-पत्रिकाओं के नाम जिनमें उनका प्रकाशन हुआ, लघुकथा लिखना कब से शुरु किया , लघुकथा आपकी प्रिय विधा क्यों है, लघुकथा के क्षेत्र में उपलब्धियां आदि।सन् 1970 से लघुकथा लिखते आ रहे 'विश्व लघुकथा कोश' के सम्पादक बलराम ने अपने साक्षात्कार में कहा है कि #कविता की जगह ले सकती है #लघुकथा। वरिष्ठ लेखक राम अवतार बैरवा का भी मानना है कि उज्ज्वल है लघुकथा का भविष्य। मगर अतिथि सम्पादक ने तल्ख हकीकत का बयान करते हुए लिखा है-' लघुकथा की पहचान बनाये रखनी है तो लिखते समय विषय का चयन सावधानी से करने की जरूरत। है।यहाँ एक बात रेखांकित करने योग्य है कि लघुकथा के प्रति पनप रही उपेक्षा का कारण लघुकथा लेखन में विषयों की आवृति से अधिक स्तरहीनता है। लघुकथा की तकनीक जाने बिना, लघुकथा के विषय में अल्प जानकारी रखते हुए दनादन सीधी सपाट लघुकथा लिखते जाना ही लघुकथा के प्रति ऊब का कारण बनता जा रहा है। विषय पुराने हों, लेकिन प्रस्तुति में नयापन, बुनावट में निपुणता, भाषा में कसावट और कथ्य में ताजगी हो तो पाठक के ऊबने/नकारने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता।'

लघुकथाओं के चयन एवं सम्पादन में अतिथि सम्पादक की सतर्कता व पारखी दृष्टि स्पष्टतः परिलक्षित होती है। यही वजह है कि तिरसठ लघुकथाकारों की एक सौ छब्बीस लघुकथाओं के इस संचयन में ज्यादातर रचनायें अपनी छाप छोड़ने में काफी हद तक कामयाब हैं। लघुकथाकार की पहली लघुकथा भी उतनी ही प्रभावी है, जितनी आज की। यहाँ लघुकथाकारों की एक ही साथ तीन पीढ़ियां अपनी दमदार मौजूदगी का अहसास कराती हैं। आज के युगधर्म का आईना है यह संचयन। महिला लघुकथाकारों ने भी घर-आंगन की चहारदीवारी से बाहर निकलकर सामाजिक विसंगतियों , विद्रूपताओं को अपने कथ्य का विषय बनाया है। और ऐसी रचनाओं में आभा सिंह, डाॅ. आशा 'पुष्प', मंजु शर्मा, डाॅ. लता अग्रवाल, माला वर्मा, कृष्णलता यादव, डाॅ. शैल चंद्रा, इन्जी आशा शर्मा, कनक हरलालका, सविता मिश्रा 'अक्षजा', डाॅ.संध्या तिवारी आदि की लघुकथाएं प्रभावी बन पड़ी हैं।

अपने अनूठे कथ्य व शिल्प की मार्फत मानवीय संवेदना को झकझोरने वाले लघुकथाकारों में प्रमुख हैं- बलराम, कमलेश भारतीय, डाॅ.कमल चोपड़ा, कृष्ण मनु, अशोक भाटिया, सतीश राठी, अतुल मोहन प्रसाद, अंकुश्री, गोविन्द शर्मा, शराफत अली खान, कुंवर प्रेमिल, पवन शर्मा, डाॅ.रामकुमार घोटड़, संदीप तोमर आदि

अंक में खटकने वाली बात है भाषा-व्याकरण तथा प्रुफ की अशुद्धियां -ठीक सुस्वादु खीर में कंकड़ की तरह बतौर बानगी इन पंक्तियों के लेखक का जन्म वर्ष 1955 के बजाय 1995 मुद्रित है। जैसा कि सम्पादकीय में जिक्र है, इस विशेषांक के पुस्तकाकार प्रकाशन की भी योजना है। अतः पुस्तक प्रकाशन के पूर्व अशुद्धियों का शोधन-परिमार्जन अपेक्षित है।

विश्वास है, साहित्य, संस्कृति एवं विचार के स्तर पर 'परिंदे' की यह लघुकथा-केन्द्रित उड़ान सुधी पाठकों को कभी चमत्कृत करेगी, कभी अभिभूत करेगी तो कभी अंतर्मन को आईना भी दिखाएगी।

अतिथि संपादक कृष्ण मनु के साथ ही 'परिंदे' के सम्पादक डॉ. शिवदान सिंह भदौरिया तथा कार्यकारी सम्पादक ठाकुर प्रसाद चौबे भी बधाई के पात्र हैं।

समीक्षक- भगवती प्रसाद द्विवेदी
सम्पर्क : 9430600958

गुरुवार, 23 मई 2019

लघुकथा कलश के “रचना प्रक्रिया महाविशेषांक” (जुलाई-दिसम्बर 2019) हेतु चयनित रचनाकारों की सूची

श्री Yograj Prabhakar सर की फेसबुक वाल से,



आदरणीय साथियो,
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प्रस्तुत है “लघुकथा कलश” के “रचना प्रक्रिया महाविशेषांक” (जुलाई-दिसम्बर 2019) हेतु चयनित रचनाकारों की सूची:
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(हिंदी: 123): अंजलि सिफ़र, अंजू निगम, अनघा जोगलेकर, अनीता रश्मि, अनूपा हरबोला, अन्नपूर्णा बाजपेई, अमरेन्द्र सुमन, अरुण धर्मावत, अशोक भाटिया, अशोक वर्मा, आभा खरे, आभा सिंह, आर.बी.भंडारकर, आशा शर्मा, आशीष दलाल, ऊषा भदौरिया, एकदेव अधिकारी, ओमप्रकाश क्षत्रिय, कनक हरलालका, कमल कपूर, कमल चोपड़ा, कमलेश भारतीय, कल्पना भट्ट, कुँवर प्रेमिल, कुमार संभव जोशी, कुसुम पारीक, कुसुम शर्मा नीमच, कृष्णा वर्मा, कृष्णालता यादव, खेमकरण सोमन, चंद्रेश कुमार छतलानी, चित्त रंजन गोप, जगदीश राय कुलरियाँ, जसबीर चावला, ज्ञानप्रकाश पियूष, तारिक़ असलम तसनीम, धर्मपाल साहिल, ध्रुव कुमार, नयना (आरती) कानिटकर, नीना छिब्बर, नीरज शर्मा सुधांशु, नेहा शर्मा, पंकज शर्मा, पदम गोधा, पवित्रा अग्रवाल, पुरुषोत्तम दुबे, पुष्पा जमुआर, पूजा अग्निहोत्री, पूनम डोगरा, पूरन मुद्गल, प्रताप सिंह सोढी, प्रतिभा मिश्रा, प्रेरणा गुप्ता, बलराम अग्रवाल, बालकृष्ण गुप्ता ‘गुरुजी’, भगवती प्रसाद द्विवेदी, भगीरथ परिहार, भारती कुमारी, भारती वर्मा बौड़ाई, मंजीत कौर 'मीत', मंजू गुप्ता, मधु जैन, मधुदीप गुप्ता, मनन कुमार सिंह, मनु मनस्वी, महिमा भटनागर, महेंद्र कुमार, माधव नागदा, मालती बसंत, मिर्ज़ा हाफिज़ बेग, मुकेश शर्मा, मुरलीधर वैष्णव, मृणाल आशुतोष, मेघा राठी, योगराज प्रभाकर, योगेन्द्र शुक्ल, रजनीश दीक्षित, रतन राठौड़, रवि प्रभाकर, राजकमल सक्सेना, राजेन्द्र मोहन बंधु त्रिवेदी, राजेन्द्र वामन काटदरे, राधेश्याम भारतीय, रामकुमार आत्रेय, रामनिवास मानव, राममूरत राही, रामेश्वर काम्बोज, रूप देवगुण, रूपल उपाध्याय, रेणु चन्द्रा माथुर, लता अग्रवाल, लवलेश दत्त, लाजपतराय गर्ग, वन्दना गुप्ता, विभा रश्मि, विभारानी श्रीवास्तव, वीरेन्द्र भारद्वाज, वीरेन्द्र वीर मेहता, शराफ़त अली खान, शावर भक्त भवानी, शील कौशिक, शेख़ शहज़ाद उस्मानी, श्यामसुंदर अग्रवाल, श्यामसुन्दर दीप्ति, संतोष सुपेकर, संदीप आनंद, सतीश राठी, सतीशराज पुष्करणा, सत्या कीर्ति शर्मा, सविता इंद्र गुप्ता, सविता उपाध्याय, सिद्धेश्वर, सीमा जैन, सीमा भाटिया, सुकेश साहनी, सुदर्शन रत्नाकर, सुभाष नीरव, सुभाष सलूजा, सुभाषचन्द्र लखेड़ा, सूर्यकांत नागर, सोमा सुर, स्नेह गोस्वामी, हूंदराज बलवाणी,
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(पंजाबी: 04): निरंजण बोहा, सुरिंदर कैले, हरप्रीत राणा, हरभजन खेमकरणी)
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(नेपाली: 08) खेमराज पोखरेल, टीकाराम रेगमी, नारायणप्रसाद निरौला, राजन सिलवाल, राजू छेत्री अपूरो, रामकुमार पंडित छेत्री, रामहरि पौडयाल, लक्ष्मण अर्याल
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पत्रिका का आवरण पृष्ठ जून के प्रथम सप्ताह में प्रस्तुत किया जाएगा.
सादर
योगराज प्रभाकर
संपादक: लघुकथा कलश

पुस्तक: पंजाब की चर्चित लघुकथाएं | भगीरथ



प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

पंजाबी भाषा में लघुकथा ‘मिनी कहानी’ के नाम से लिखी, पढ़ी और जानी जाती है। कुछ विद्वान ‘जन्म साखियों’ में ‘मिनी कहानी’ अर्थात् पंजाबी लघुकथा के अंश ढूँढ़ते हैं। पुरानी पीढ़ी के लेखकों में भूपिंदर सिंह, दर्शन मितवा, हमदर्दवीर नौशहरवी का नाम सम्मान से लिया जाता है। इन लेखकों ने पंजाबी में मानक लघु कथाएँ उस दौर में दी जबकि लघुकथा में काफी धुंधलका था। इस धुंधलके को सुलक्खन मीत, शरन मक्कड़, श्यामसुंदर अग्रवाल, श्यामसुंदर दीप्ति, जगदीश अरमानी, पांधी ननकानवी, हरभजनसिंह खेमकरनी, धर्मपाल साहिल आदि लेखकों ने काफी हद तक अपनी अच्छी रचनाओं द्वारा साफ किया। 

कर्मसिंह, गुरमेल मडाहड़, सुरेंद्र कैले, प्रीतम बराड़ लंडे, रोशन फूलवी, जिंदर निरंजन बोहा, विक्रमजीत नूर, डॉ. अमर कोमल, मेहताबुद्दीन, सुधीरकुमार ‘सुधीर’, रोशन जागरूप दातेवास, बलवीर परवाना, डॉ. बलदेव सिंह खाहिरा आदि नये पुराने लेखक पंजाबी लघुकथा को मजबूती प्रदान करने में तन-मन से सक्रिय रहे हैं। इनके अतिरिक्त इकबाल दीप, अवतारसिंह बिलिंग, अव्वल सरहदी, सतवंत कैथ, कृशन बेताब, एस.तरसेम, मोहन शर्मा अशोक चावला, कृपाल सिंह डुल्ट, गुरचरण चौहान, गुरदीप खिंडा, राज बिंबरा, अमर गंभीर, नूर संतोखपुरी, भगवंत रसूलपुरी, भूपिंदर कमल, मनजीत सिंह प्रीत, महिंदर फारिग, राजेंद्र कौर वंत, सतपाल खुल्लर, सतींद्र कौर, सुखदेव सिंह शांत, सुखवंत मरवाहा, हरप्रीत सिंह राणा आदि अनेक लेखक अपने-अपने ढंग से पंजाबी लघुकथा की जमीन को उर्वर बनाने में संलग्न हैं।

पंजाबी लघुकथा अपने समय के साथ चलने की कोशिश करती रही है। लगभग 1970 के आसपास से पंजाबी समाज के हर क्षेत्र में बड़े पैमाने पर परिवर्तन परिलक्षित हुआ है। सामाजिक स्थितियाँ पहले से अधिक गुंझलदार और जटिल हुई हैं। शहरीकरण का गाँवों पर हमला तेज हुआ है। संयुक्त परिवारों को तोड़ने में इस शहरीकरण ने एक खास भूमिका निभाई जिससे रिश्तों की परिभाषा बदली। व्यक्ति अपने में ही सिकुड़ता चला गया। मुखौटे लगाकर जीना उसका विवशता बन गई। दिखावों और आडम्बरों का बोलबाला हो गया। शहरीकरण के साथ-साथ राजनीतिकरण ने समाज को अपने भ्रष्ट चंगुल में लेना शुरू कर दिया और आज, भ्रष्टाचार समाज में कैंसर की तरह व्याप्त है—मारक और लाइलाज़। मानवीय मूल्यों के विरोधियों को धर्म और राजनीति ने खुलकर पनाह दी। जो धरती गिद्दे और भांगड़े की धमक से गूँजा करती थी, ए.के. 47 के धमाकों से गूँजने लगी। पुलिस बर्बरता और आतंकवादियों के खौफ के बीच एक लम्बे काले दौर से गुजरना पड़ा इस धरती के लोगों को। खंड-खंड मानसिकता और टुकड़ों में बिखरे अस्तित्व को जीते लोगों की पीड़ा को यहाँ के समूचे साहित्य में देखा जा सकता है—कहानी, कविता, उपन्यास में ही नहीं, लघुकथा में भी।

इसी पुस्तक में संग्रहीत सुभाष नीरव के लेख ‘पंजाबी लघुकथा के विकास की यात्रा’ से

आमुख


आधुनिक हिन्दी लघुकथा का उन्नयन बीसवीं सदी के आठवें दशक से माना जाता है। उस समय पंजाब में हिन्दी व पंजाबी लघुकथा को लेकर महत्त्वपूर्ण एवं गम्भीर प्रयास चल रहे थे। कमलेश भारतीय ‘प्रयास’, रमेश बत्तरा ‘निर्झर’ व ‘बढ़ते कदम’, सिमर सदोष ‘दैनिक मिलाप’, ‘प्रचण्ड’, ‘साहित्य निर्झर’ के माध्यम से लघुकथा का कारवां आगे बढ़ा रहे थे।
रमेश बत्तरा के सम्पादन में ‘तारिका’ व ‘साहित्य निर्झर’ के लघुकथांक क्रमशः 1973 व 1974 में प्रकाशित हुए। वे लघुकथांक ऐतिहासिक महत्व के थे, क्योंकि इनमें लघुकथा की समग्र एवं सही तस्वीर ईमानदारी से प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया था, जबकि 1973 में प्रकाशित ‘सारिका’ के लघुकथांक ने लघुकथा की एकांगी तस्वीर ‘व्यंग्य-विनोद’ ही प्रस्तुत की थी।

रमेश बत्तरा का कोई लघुकथा संग्रह प्रकाशित नहीं है, फिर भी वे हिन्दी लघुकथा के सबसे महत्वपूर्ण हस्ताक्षरों में से हैं। उनकी लघुकथाओं के कथ्य आर्थिक-विपन्नता, साम्प्रदायिकता, भोगवादी पश्चिमोन्मुख जीवन-दृष्टि को केन्द्र में रखते हैं। वे संवेदनाओं के माध्यम से मनुष्य की अन्तरात्मा को छूने की कोशिश करते हैं। वे भाषा शिला के प्रति सचेत हैं और प्रगतिशील मूल्यों के पक्षधर हैं।

कमलेश भारतीय ‘प्रयास’ के माध्यम से लघुकथाओं को प्रकाशन अवसर प्रदान करते थे। अब वे ‘दैनिक ट्रिब्यून’ में है और ‘ट्रिब्यून’ भी बराबर लघुकथा प्रकाशित करता रहा है। भारतीय के दो लघुकथा संग्रह ‘मस्तराम जिंदाबाद’ (1984) व ‘इस बार’ (1992) प्रकाशित हुए। इनकी लघुकथाओं में आतंकवाद, लिंग की असमानता, पीड़ित के प्रति संवेदना व्यक्ति की गई है। इनकी लघुकथाओं में शोषण के चित्र हैं तो मुक्ति की कामना भी, राजनीति का दलदल है तो शोषितों के हक की बात भी। ये मानवीय रिश्तों के अमानवीकरण को लेकर विशेष चिंतित दिखते हैं, लेकिन शिल्प के प्रति उतने सजग नहीं हैं।
सुरेन्द्र मंथन का लघुकथा संग्रह ‘घायल आदमी’ भी सन् 1984 में ही प्रकाशित हुआ। इनका दूसरा संग्रह ‘भीड़ में’ सन् 2000 में पाठकों के समक्ष आया। सुरेन्द्र मंथन लघुकथा के माध्यम से मनुष्य के अंतस में झांकने की कोशिश करते हैं। इनके विषय दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक, साम्प्रदायिक, राजनीति, भूमंडलीकरण, राष्ट्रीयता व नैतिकता से लैस हैं। इनकी अभिव्यक्ति के ढंग प्रभावशाली हैं। ये रूपक, प्रतीक, सांकेतिकता और व्यंजना को महत्व देते हैं। इतना सब होने के बावजूद इनकी रचनाएँ पढ़ते समय अति सामान्य-सी लगती हैं। शायद यही इनकी विशेषता भी है।

पंजाब के लघुकथा लेखक, लेखन के स्तर पर एक-दूसरे से काफी भिन्न हैं। इनकी अभिव्यक्ति के तेवर भिन्न हैं, विषय भिन्न हैं, ट्रीटमेंट भिन्न हैं। यह विविधता ही पंजाब के लघुकथा लेखन को समृद्ध बनाती है। सिमर सदोष की कथाएं रोचक, प्रवाहमयी और प्रभावशाली हैं। ये लघुकथा में जटिलता पाने की कूबत रखते हैं। उनकी लघुकथाएं हैं पाठक को यथार्थ से रूबरू करती हैं लेकिन इनके पात्र कठोर यथार्थ के आगे विवश से दिखाई पड़ते हैं।

हिन्दी-पंजाबी में समान रूप से लिखने वाले श्यामसुन्दर अग्रवाल पंजाबी लघुकथा की पत्रिका ‘मिन्नी’ का सम्पादन करते हैं। इस पत्रिका को न सिर्फ पंजाबी की अच्छी लघुकथाओं को प्रकाशित करने का श्रेय है बल्कि विभिन्न भाषाओं से अनूदित लघुकथाओं को प्रकाशित करने का भी श्रेय है। पंजाबी में लघुकथा लेखकों की एक संगठित टीम है जो लघुकथा के लिए समर्पित है। इसलिए लघुकथा सम्मेलन होते रहते हैं जिनमें अन्य प्रदेशों के लेखक भी भाग लेते हैं।
श्यामसुन्दर अग्रवाल की कथाओं का गठन काफी कसा रहता है। ये तीव्र गति से चरम की ओर अग्रसर हो अपना मन्तव्य संप्रेषित कर देती हैं। इनकी लघुकथाओं के कथ्य इकहरे और स्पष्ट होते हैं। आर्थिक विपन्नता, पतन की ओर जाती राजनीति, भ्रष्ट चरित्र, आतंकवाद के खूनी चेहरे, व स्त्रीवादी विमर्श जैसे विषय अपनी लघुकथाओं में व्यक्त हुए हैं। अति सामान्य अनुभवों में सशक्त लघुकथाएं ढूँढ़ लाना श्यामसुन्दर अग्रवाल की विशेषता है, लेकिन कभी-कभी अतिसामान्यता लघुकथा को लचर भी बना देती है।

धर्मपाल साहिल की मुख्य चिंता समाज व परिवार में स्त्री की स्थिति को लेकर है। इनकी लघुकथाएं स्त्री के प्रति मनुवादी दृष्टिकोरण पर सटीक प्रहार करती हैं। ये स्त्री को मध्यकाल के अंधेरे से आधुनिकता के प्रकाश में लाने की कोशिश करती हैं। इनकी लघुकथाओं में पठनीयता, व्यंग्य और संप्रेषणीयता साफ झलकती है।
‘नीचे वाली चिटखनी’ के लेखक जसबीर चावला अपने पुराने किस्से-कहानियों पुनः-सृजन बड़े रोचक ढंग से करते हैं। अनेक कथ्य साम्प्रतिक के जीवन के उठाये गये हैं। उनकी अभिव्यक्ति में व्यंग्य और आक्रोश का अच्छा सम्मिश्रण है। कई बार आक्रोश अव्यक्त रहता है लेकिन व्यंग्य मुखर हो जाता है। उनके लेखन के केन्द्र में राजनीति व उसके दांवपेंच हैं।
डॉ.श्यामसुन्दर दीप्ति की लघुकथाओं के कथ्य वैचारिक होने के साथ-साथ संवेदनात्मक हैं। ये संवाद, व्यंग्य और व्यंजनापूर्ण वाक्यों से अपना मन्तव्य स्पष्ट करते हैं। इन्होंने बाल मनोविज्ञान में झांकने का सफल प्रयास किया है। ये सांझी संस्कृत के पोषक हैं और फिरकापरस्तों को खरी-खरी सुनाते हैं।

तीन दशकों के लघुकथा लेखन को रेखांकित करने का समय निश्चित ही आ चुका है। इस दृष्टि से प्रादेशिक स्तर पर लघुकथा के महत्वपूर्ण लघुकथा लेखकों का आकलन और उनकी प्रतिनिधि रचनाओं को प्रस्तुत करना ही इस पुस्तक का उद्देश्य है।
वस्तुतः लघुकथा लेखन के मूल्यांकन की आवश्यकता पिछले एक दशक से बड़ी शिद्दत से महसूस की जा रही थी। छिटपुट प्रयास हुए भी लेकिन अखबारी रिव्यू के आगे नहीं बढ़ पाये। समीक्षा की स्थिति अभी-भी संतोषजनक नहीं कही जा सकती। समीक्षाएं प्रायः प्रायोजित एवं तेरी भी जय-जय मेरी भी जय-जय की तर्ज पर लिखी जाती रही हैं।
इस मूल्यांकन में निर्मम होने से बचा गया है। निर्ममता से न तो लघुकथा का भला होता न ही लघुकथा-लेखक का। इसलिए अच्छी लघुकथाओं को रेखांकित कर कमजोर की ओर इशार भर कर दिया गया है या उन्हें नजर-अंदाज कर दिया है। प्रत्येक लेखक के लघुकथा लेखन की विशिष्टता, प्रयोगधर्मिता, व प्रवृत्ति की ओर ध्यान आकृष्ट किया गया है।

समीक्षा के संदर्भ में विभिन्न प्रश्नों के उत्तर तलाशने की कोशिश की गई है। क्या लघुकथा लेखन की साहित्य व समाज में कोई प्रासंगिकता है ? क्या सामाजिक यथार्थ को अभिन्यत्र करने में लघुकथा समर्थ रही है ? लघुकथा ने किन सामाजिक मूल्यों का पोषण किया है ? और किन पर प्रहार ? शिल्प के धरातल पर लघुकथा कहाँ खड़ी है ? अभिव्यक्ति के कौन-से उपकरण इस्तेमाल किये हैं, लेखक ने ? लघुकथा विन्यास में कौन-कौन सी तकनीक इस्तेमाल की गई है ? किन कमजोरियों से त्रस्त रहा है लघुकथा लेखन ? आदि।
इस पुस्तक में पंजाब से हिन्दी के ग्यारह प्रमुख लघुकथा लेखकों की पाँच-छः प्रतिनिधि रचनाओं को शामिल किया गया है। ये रचनाकार हैं—रमेश बत्तरा, कमलेश भारतीय, सुरेन्द्र मंथन, सिमर प्रदोष, श्यामसुन्दर अग्रवाल, धर्मपाल साहिल, जसबीर चावला, श्याम सुन्दर दीप्ति, रमेश कुमार संतोषी, सैली बलजीत व प्रेम विज। पंजाबी भाषा के भी बारह चर्चित लघुकथाकारों की तीन-चार प्रतिनिधि रचनाएं संकलित की गई हैं। ये रचनाकार है—भूपिंदर सिंह, हमदर्द वीर नौशहरवी, दर्शन मितवा, शरन मक्कड़, सुलक्खन मीत, जगदीश अरमानी, हरभजन सिंह खेमकरनी, जिंदर, निरंजन बोहा, प्रीतम बराड़, गुरमेल मडाहड़ व आर.एस. आज़ाद।

पुस्तक तैयार करने में भाई बलराम अग्रवाल का विशेष सहयोग रहा है। उनके बहुमूल्य परामर्श एवं सम्पादन-सहयोग के लिए मैं हृदय से उनका आभारी हूँ। भाई सुभाष नीरव का भी मैं आभार प्रकट करता हूँ कि उन्होंने ‘पंजाब की चर्चित लघुकथाएं’ से एक लेख व कुछ लघुकथाएं प्रकाशित करने की स्वीकृति मुझे दी। परोक्ष-अपरोक्ष सर्वश्री श्याम सुन्दर अग्रवाल व श्याम सुन्दर ‘दीप्ति’ तथा डॉ. अशोक कुमार भाटिया का भी सहयोग मुझे मिला है।
अंत में सभी संकलित लघुकथाकारों का धन्यवाद करता हूँ, जिनके सहयोग के बिना इस पुस्तक को तैयार होना नामुमकिन था। 
आशा है, लघुकथा के प्रबुद्ध पाठकों के लिए यह उपयोगी साबित होगी तथा हिन्दी लघुकथा साहित्य में एक अर्से से महसूस की जाने वाली कमी को पूरा कर सकेगी।

-भगीरथ


रमेश बत्तरा 
नागरिक

उसे होश आया तो वहाँ कोई नहीं था। गली सुनसान पड़ी थी, मानों वहाँ कभी कुछ हुआ ही न हो, जबकि थोड़ी ही देर पहले वह निरंजन के साथ वहाँ से गुजर रहा था तो अचानक कुछ लोगों ने आकर उन्हें घेरते हुए चाकू खोल लिये थे। वे निरंजन से कोई अपना पुराना हिसाब साफ करना चाहते थे। वह उन्हें पहचानता था। उसने उन्हें रोकने की कोशिश की। किन्तु उन्होंने एक नहीं सुनी। उन्होंने सबको एक तरफ धकेल दिया। फिर भी चाकू का अधकचरा वार उसे बाजू पर आ लगा।
उसने इधर-उधर देखा। निरंजन भी वहाँ नहीं था। वह हड़बड़ाकर उठा बेतहाशा भागने लगा।
उस गली से निकलकर वह अपनी गली में पहुँचा, तो उसे लगा कि कोई उसके पीछे आ रहा है। वह और भी तेज हो गया। परन्तु पीछ-पीछे भागे आ रहे अजनबी ने उसे पकड़ लिया, ‘‘कहाँ जा रहो हे ?’’
‘‘थाने।’’

‘‘कोई जरूरत नहीं, तुम घर जाकर आराम करो।’’
‘‘मेरा थाने पहुँचना बहुत जरूरी है।’’
‘‘मैं कहता हूँ तुम घर जाओ।’’
‘‘नहीं, मैं तो थाने ही जाऊँगा, अभी थोड़ देर पहले यहाँ उसे उस गली में उन्होंने मेरे दोस्त निरंजन की हत्या की है।’’
‘‘तुम उसकी चिंता मत करो। उनसे खुद निपट लूँगा।’’
‘‘तुम कौन हो ?’’
‘‘इतनी जल्दी भूल गए !’’

उसने थोड़ा संयत होकर अजनबी को गौर से देखा। उसे पहचानकर वह हकला गया, ‘‘अरे निरंजन...तुम....तुम्हारी तो हत्या हो गयी थी ?’’
‘‘मुझे कोई नहीं मार सकता।’’
‘‘तुम भी थाने चलो...पुलिस उन्हें पकड़ लेगी...मैं उनका घर भी जानता हूँ, उधर उस मोहल्ले में है।’’
‘‘तुम्हें कुछ नहीं मालूम...उनके बहुत से घर हैं।’’
‘‘मैं तुम्हारी गवाही दूँगा। पुलिस तुम्हारी मदद करेगी।’’
‘‘जो कुछ करना है, मैं खुद कर लूँगा।
तुम चुपचाप घर चले जाओ।’’

‘‘मैं थाने में रपट किए बिना घर नहीं जाऊँगा।’’
‘‘जाते हो कि नहीं ?’’ निरंजन ने उसके पेट में घूँसा दे मारा। उसकी आँतें बाहर आने को हो आईं ? वह रो पड़ा और आवेश में निरंजन को धकेलकर...‘‘जाऊँगा...जाऊँगा और तुम्हें भी देख लूँगा।’’ चिल्लाता हुआ थाने की ओर भागता चला गया।
थाने में पहुँचकर उसने बयान दिया, ‘‘मैं आज गली में छुरेबाजी करने वालों को पकड़वा सकता हूँ।’’
‘‘छुरेबाजी ?’’ थाने में तैनात वर्दियाँ हँस पड़ीं, ‘‘आज तो शहर में कहीं छुरेबाजी नहीं हुई, एकदम अमन-चैन है।’’
‘‘वहाँ उस गली में उन लोगों ने निरंजन पर हमला किया था...निरंजन जिंदा रह गया तो क्या हुआ....चाकू तो उसे लगे ही हैं, और अब भी वह उन लोगों की जान का दुश्मन हुआ फिरता है।’’
‘‘तुम्हें कैसे मालूम ?’’
‘‘मैंने अपनी आँखों से देखा है।’’

‘‘अपनी आँखों से देखा है ?’’
‘‘जी हाँ, देखिए मेरे बाजू पर भी लगा है एक चाकू...’’
‘‘ओह, तो यह बात है।’’
‘‘जी !’’
‘‘ए...ए...क्या नाम...क्या नंबर है तुम्हारा ?’’ कुर्सी पर बैठी चकमक वर्दी फुर्ती से उठी और चिल्लाने लगी, ‘‘थाम लो साले को...बच्चा कहीं का खूनखराबा करके आय़ा लगता है।’’

नौकरी


बॉस का मूड सुबह से ही उखड़ा हुआ था। वह बात-बात पर दाँत पीस रहा था और सिर्फ बाबू रामसहाय के अलावा, मैनेजर से लेकर चपरासी तक के साथ खासी डाँट-डपट कर चुका था। सभी बौखलाए-से बैठे थे।
देपहर के बाद बॉस ने बाबू रामसहाय को भी बुलवा भेजा। सभी के कटे-कटे कान खड़े हो गये..कि अब उसकी शामत भी आ पहुँची है।

बाबू रामसहाय बॉस के केबिन में जाकर बिना उसकी अनुमति के उसके सामने बैठ गया।
‘‘दोपहर का राम-राम, जनाब।’’
‘‘हाँ ! तो क्या समाचार हैं आज ऑफिस के ?’’
‘‘जी, मैनेजर ने सरेआम कहा कि बॉस अहमक है। गलतियाँ खुद करता है और दोष हमें देता है...नालायक !’’
‘‘हूँ....’’
‘‘अकाउंटेंट...साला मुनीम...कह रहा था—बॉस खुद खाता है तो हमें क्यों नहीं खाने देता ? ज्यादा बनेगा तो सारी पोल खोल दूँगा बच्चू की !’’
‘‘हुम्म !’’
‘‘हेड क्लर्क कह रहा था—कमीना आज बीवी से लड़कर आया है लगता है, इसीलए चिड़चिड़ा रहा है।’’
‘‘तुम्हारा क्या खयाल है ?’’

‘‘जी, दरअसल छोटी उम्र में ही इतनी तरक्की कर जाने की वजह से लोग आपसे ईर्ष्या करते हैं।’’
‘‘ये सब कामचोर हैं, मेहनत करें तो तरक्की क्यों न हो।’’
‘‘जी, एक दिन मैंने एस.डी.ओ. को ताना मारा तो जने-जने कहता फिरा कि आपकी तरक्की में आपकी पत्नी का बहुत बड़ा हाथ है।’’

‘‘उसकी यह मजाल ! बास्टर्ड ! नानी याद करवा दूँगा उसे !’’
‘‘कमीने लोग हैं बॉस, इनको मुँह लगाने में अपनी ही हेठी है...आप खुद समझदार हैं। दुनिया ने सीता माता को भी नहीं छोड़ा।’’
‘‘ठीक है, तुम जरा ध्यान रखा करो।’’
वापस पहुँचने पर बाबू रामसहाय से उसके साथियों ने पूछा, ‘‘क्यों भई, क्या रहा ?’’
‘‘कुछ नहीं।’’ बीच ब्रान्च में खड़े बाबू रामसहाय ने बॉस के कमरे की ओर मुँह उठाकर कहा, ‘‘हरामी सठिया गया है...मरेगा।’’

लड़ाई


ससुर के नाम आया तार बहू ने लेकर पढ़ लिया है। तार बतला रहा है कि उनका फौजी-बाँका बहादुरी से लड़ा और खेत रहा...देश के लिए शहीद हो गया !
‘‘सुख तो है न, बहू !’’ उसके अनपढ़ ससुर ने पूछा, ‘‘क्या लिखा है ?’’
‘‘लिखा है, इस बार हमेशा की तरह इन दिनों नहीं आ पाऊँगा।’’
‘‘और कुछ नहीं लिखा ?’’ सास भी आगे बढ़ आयी।
‘‘लिखा है, हम जीत रहे हैं। उम्मीद है, लड़ाई जल्दी खत्म हो जायेगी !’’
‘‘तेरे वास्ते क्या लिखा है ?’’ सास ने मजाक किया।

‘‘कुछ नहीं !’’ कहती हुई मानो लजाई हुई-सी अपने कमरे की तरफ भाग गयी।
बहू ने कमरे का दरवाजा आज ठीक उसी तरह बंद किया जैसा हमेशा उसका ‘फौजी’ किया करता था। वह मुड़ी तो उसकी आँखें भीगी हुई थीं। उसने एक भरपूर निगाह कमरे की हर चीज पर डाली...मानो सब-कुछ पहली बार देख रही हो।
अब कौन-कौन-सी चीज काम की नहीं रही !—सोचते हुए उसकी निगाह पलंग के सामने वाली दीवार पर टँगी बंदूक पर अटक गयी। कुछ क्षण खड़ी वह उसे ताकती रही, फिर उसने बंदूक दीवार पर से उतार ली। उसे खूब साफ करके अलमारी की तरफ बढ़ गयी। अलमारी खोलकर उसने एक छोटी-सी अटैची निकाली। अपने पहने हुए वस्त्र उतारकर अटैची में रखे और एक जोड़ा पहन लिया जिसमें फौजी ने उसे पहली बार देखा था, प्यार किया था।
सज-सँवरकर उसने पलंग पर रखी बंदूक उठायी...फिर लेट गयी और बंदूक को बगल में लिटाकर उसे चूमते-चूमते सो गयी !

सुअर


वे हो-हल्ला करते एक पुरानी हवेली में जा पहुँचे। हवेली के हाते में सभी घर के दरवाजे बंद थे, सिर्फ एक कमरे का दरवादा खुला था। सब दो-दो, तीन-तीन में बँटकर दरवाज़े तोड़ने लगे और उनमें से दो आदमी उस खुले कमरे में घुस गये।
कमरे में एक ट्रांजिस्टर हौले-हौले बज रहा था और एक आदमी खाट पर सोया हुआ था।
‘यह कौन है ?’’ एक ने दूसरे से पूछा।
‘‘मालूम नहीं’’ दूसरा बोला, ‘‘कभी दिखाई नहीं दिया मुहल्ले में।’’
‘‘कोई भी हो।’’ पहला ट्रांजिस्टर समेटता हुआ बोला, ‘‘टीप दो गला।’’
‘‘अबे, कहीं अपनी जात का न हो ?’’
‘‘पूछ लेते हैं इसी से’’ कहते-कहते उसे जगा दिया।

‘‘कौन हो तुम ?’’
वह आँखें मलता नींद में ही बोला, ‘‘तुम कौन हो ?’’
‘‘सवाल-जवाब मत करो। जल्दी बताओ वरना मारे जाओगे।’’
‘‘क्यों मारा जाऊँगा ?’’
‘‘शहर में दंगा हो गया है।’’
‘‘क्यों कैसे ?’’
‘‘मस्जिद में सुअर घुस आया।’’
‘‘तो नींद क्यों खराब करते हो भाई ! रात की पाली में कारखाने जाना है। वह करवट लेकर फिर सोता हुआ बोला, ‘‘यहाँ क्या कह रहे हो ? जाकर सुअर को मारो न !’’

बुधवार, 22 मई 2019

लघुकथा 1942 | लेखक: शं. ह. देशपांडे | प्रस्तावना: अनन्त अंतरकर

यह पुस्तक उस समय (1942 ई०) की है जब इसकी कीमत 1 रुपया 12 आने थी। लघुकथा का समृद्ध इतिहास बताती यह पुस्तक हालांकि मराठी भाषा में है लेकिन बहुत उपयोगी है।

ऊपर के कुछ पृष्ठ मिसिंग हैं लेकिन बाद में आप पूरा आनंद ले सकते हैं।



मंगलवार, 21 मई 2019

पुस्तक समीक्षा | ‘दृष्टि’ समग्र लघुकथा विशेषांक | आशीष दलाल



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दृष्टि : लघुकथा के सागर में एक डुबकी - आशीष दलाल

लघुकथा को समर्पित अर्द्धवार्षिकी ‘दृष्टि’ का समग्र लघुकथा विशेषांक सामने है। यह अंक सन १९७८ में प्रकाशित लघुकथा संकलन का पुनः प्रकाशन है । आगे कुछ भी लिखने से पहले संपादक श्री Ashok Jain जी को उनके इस प्रयास के लिए बहुत बहुत दिल से धन्यवाद।
शुरुआत ‘दृष्टि’ के मुख्यपृष्ठ से करूंगा क्योंकि इसे देखकर मन में सहसा ही एक वैचारिक आन्दोलन उठ खड़ा होता है। अपने ही विचारों और कमियों रूपी रस्सी से बंधा मानव खुद ही अपनी आंखों से चारों ओर फैली अव्यवस्था और अनीति को नहीं देखना चाहता क्योंकि जाने अनजाने में / इच्छा – अनिच्छा से वह कहीं न कहीं इसी व्यवस्था का एक अंग है।
पत्रिका में ‘सम्पादक की कलम से’ के अतिरिक्त लघुकथा को लेकर कुल आठ वैचारिक एवं शोध आलेख हैं । इन आलेखों के साथ ही विश्व साहित्य और लघुकथाएँ खण्ड के अन्तर्गत विश्वस्तरीय सात लघुकथाओं को स्थान दिया गया है। इसी क्रम में प्रादेशिक भाषाओं में लघुकथा में सात भाषाओं की एक एक लघुकथा है । इसके बाद ७१ हिन्दी लेखक/लेखिकाओं की लघुकथाएँ चार अलग अलग उपखंडों में प्रस्तुत की गई है। इसके अतिरिक्त रमेश बतरा जी से गौरीनंदन सिंहल जी की लम्बी बात भी इस अंक की विशेषता है। समालोचना, पुस्तकें प्राप्त, पत्र/पत्रिकायें प्राप्त और साहित्यिक गतिविधियाँ तो है ही।
मैं वैसे तो ‘दृष्टि’ से बहुत ज्यादा समय से नहीं जुड़ा हूँ लेकिन जब से जुड़ा हूँ तब से ही पत्रिका को लघुकथा के प्रति गंभीर तेवर धारण किए हुए पा रहा हूँ। हर अंक की तरह दृष्टि का यह अंक संग्रहणीय तो है ही लेकिन लघुकथा में विशेष रूचि रखने वाले लेखक/ लेखिकाओं के लिए एक दस्तावेज समान है।
प्रस्तुति आलेख “समग्र की समग्रता के आयाम” में डॉ. अशोक भाटिया ने बड़े ही सरल शब्दों में लघुकथा की सन १९७८ से पहले की पृष्ठभूमि पर विस्तार से लिखते हुए इस अंक की सामग्री संयोजन पर प्रकाश डाला है। अनौपचारिक के अन्तर्गत गौरीनंदन सिंहल जी ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के उपयोग और प्रतिबद्धता पर रोशनी डाली है। कुछ सीखने की नजर से महावीर प्रसाद जैन जी का आलेख “हिन्दी लघुकथा : शिल्प और रचना विधान” बेहद महत्वपूर्ण है। उन्होंने लघुकथा के शिल्प और रचना विधान पर लिखते हुए लघुकथा कहानी क्यों नहीं बन सकती इस बात को बेहद ही सरल शब्दों में समझाते हुए कहानी और लघुकथा के बीच रहे भेद को स्पष्ट किया है। इस आलेख की सबसे बड़ी खूबी यह है कि जैन साहब ने संकलन में शामिल लघुकथाओं के माध्यम से लघुकथा के विविध आयामों को समझाने की कोशिश की है जिसे पढ़कर लघुकथा लेखन की बारीकियों को जानने को उत्सुक लेखक स्वत: ही लघुकथा पढ़कर आसानी से बहुत कुछ सीख जाता है। इसके अतिरिक्त जगदीश कश्यप जी का शोध आलेख “हिन्दी लघुकथा : ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में” सम्पूर्ण लघुकथा जगत की सैर करा जाता है। इसी आलेख के बाद विश्व साहित्य और लघुकथाएँ खण्ड में सात लघुकथाएँ और फिर प्रादेशिक भाषाओं में लघुकथा के अन्तर्गत सात प्रादेशिक भाषा की लघुकथाएँ दी गई है। मोहन राजेश जी ने “लघुकथा विशेषांक : विश्लेषण और मूल्यांकन” आलेख में हिन्दी जगत की प्रतिष्ठित और लघु पत्र/पत्रिकाओं द्वारा निकाले गए लघुकथा विशेषांकों पर विस्तृत प्रकाश डाला है। इसी तरह महावीर प्रसाद जैन जी का आलेख “लघुकथा संग्रह : एक दृष्टि” इसी कड़ी का एक पठनीय और रोचक आलेख है।
पत्रिका के हिन्दी लघुकथा के पहले खण्ड में आधुनिक लघुकथाकार और उनके तेवर के अंतर्गत रमेश बतरा जी, भागीरथ जी, कृष्ण कमलेश जी, मोहन राजेश जी, जगदीश कश्यप जी, चित्रा मुदगल जी, महावीर प्रसाद जैन जी, कमलेश भारतीय जी, पृथ्वीराज अरोड़ा जी, सिमर सदोष जी की दो दो लघुकथाओं को उनके संक्षिप्त परिचय के साथ लिया गया है। लघुकथा लेखन चन्द नामों तक ही सिमटकर नहीं रह जाता है इसी से लघुकथा के दूसरे खण्ड “कुछ और” में २५ लेखक/ लेखिकाओं की एक एक चर्चित लघुकथाओं को शामिल किया गया है। लघुकथा के तीसरे खण्ड “कुछ और सुखनवर” के अंतर्गत वक्त की सच्चाई से जुड़ी २६ लघुकथाएँ ली गई है। लघुकथा के अंतिम खण्ड में “सम्भावनाएँ” के अंतर्गत १० ऐसे लघुकथाकार शामिल है जिनकी लघुकथाओं में संपादक मण्डल सांस्कृतिक विलम्बना और सामाजिक विडम्बना को उजागर होते हुए देखते है।
अंत में रमेश बतरा जी बातचीत पढ़कर लघुकथा के बारें में रहे कई सवालों के जवाब मिल जाते है।
मेरी नजर में दृष्टि का यह अंक हर लघुकथा लेखक के लिए संग्रहणीय तो है ही साथ ही हर लघुकथा पाठक के लिए भी बेहद महत्वपूर्ण है।
- आशीष दलाल

शनिवार, 18 मई 2019

लेख | पुरानी कथाएँ नए रूप में | रामवृक्ष बेनीपुरी

साहित्य में 'चोरी' और 'रचनाशीलता' पर आलेख फेसबुक समूह "लघुकथा साहित्य Laghukatha Sahitya" में डॉ. बलराम अग्रवाल जी की पोस्ट 


सुप्रसिद्ध साहित्यकार रामवृक्ष बेनीपुरी जी का लेख एक पुरानी पत्रिका में देखने को मिल गया था। लघुकथा में इन दिनों सीधी सेंधमारियाँ बहुत सुनाई दे रही हैं और उस सेंधमारी पर हाय-तौबा स्वाभाविक ही है; लेकिन रामवृक्ष बेनीपुरी जी बता रहे हैं कि साहित्य में कुछ नया रचने के लिए हर सेंधमारी 'चोरी' नहीं है; तथापि सेंधमारी पर अरण्य-रोदन करने वालों की भी कमी नहीं है। साहित्य में 'चोरी' और 'रचनाशीलता' को समझने के लिए इस लेख का अध्ययन आवश्यक है।





- डॉ० बलराम अग्रवाल

Source:
https://www.facebook.com/groups/LaghukathaSahitya/permalink/1288404924666984/

गुरुवार, 16 मई 2019

लघुकथा प्रतियोगिता : फेसबुक समूह साहित्य संवेद द्वारा प्रस्तावित

फेसबुक समूह साहित्य संवेद में दिव्या राकेश शर्मा की पोस्ट से 

नमस्कार साथियों,

फेसबुक समूह साहित्य संवेद  लघुकथा प्रतियोगिता का आयोजन करवा रहा है। प्रतिभागियों से नवीन व ज्वलंत विषयों पर लेखनी चलानी की अपेक्षा है और हमें विश्वास है कि हमारी यह अपेक्षा व्यर्थ नहीं जायेगी।
प्रतियोगिता के नियम इस प्रकार हैं:
1. रचना मौलिक, स्वरचित और पूर्णतः अप्रकाशित (न केवल पत्र-पत्रिका वरन व्हाट्सएप और फेसबुक पर भी प्रकाशित न हो) होनी चाहिए।
2. एक प्रतिभागी एक और केवल एक रचना ही प्रतियोगिता में भेज सकता है।
3. भाषा की शुद्धता का ध्यान रखें। रचना भेजने से पहले अशुद्धियों को ठीक कर लें। पोस्ट करने के बाद संपादित (एडिट) करना अमान्य होगा।
4 . समीक्षक दो वरिष्ठ साहित्यकार होंगे।
आप सबसे अनुरोध है कि लघुकथा विधा में अपनी कल्पना को उड़ान दें और अपनी सर्वश्रेष्ठ रचना के साथ इस प्रतिष्ठित प्रतियोगिता का हिस्सा बनें।
5. आप सबसे विनम्र निवेदन है कि अपने साथियों की रचनाओं पर अपनी बहुमूल्य समीक्षात्मक टिप्पणी भी जरूर दें। एडमिनगण इस प्रतियोगिता से दूर रहेंगे।
इस प्रतियोगिता हेतु किसी भी सुझाव का हार्दिक स्वागत है। निस्संकोच अभिव्यक्त करें।
समय सीमा: शनिवार 25/05/19 प्रातः 7 बजे से रविवार 26/05/19 सायं 10 बजे तक।
इस अवधि में प्रतियोगिता से इतर अन्य रचना पूर्णतः वर्जित होगी।आशा है कि सभी सदस्यगण इसका विशेष ध्यान रखेंगे।
(आप सब तो प्रतियोगिता में शामिल हैं ही, साथ में अपने मित्रों को भी शामिल होने के लिये प्रेरित करें।)

अतुल मल्लिक 'अनजान' जी की तरफ से इस प्रतियोगिता हेतु घोषणा

निर्णायक मंडल द्वारा चयनित प्रथम लघुकथा को मैं अपनी साहित्यिक पत्रिका #देहाती_दर्शन में प्रकाशित भी करूंगा, प्रकाशित होने के बाद दो प्रति रजिस्टर डाक से भेजूंगा भी।