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शनिवार, 14 सितंबर 2019

हिंदी दिवस पर मेरी एक लघुकथा

गर्व-हीन भावना / डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी 


टैक्सी में बैठते ही उसके दिल की धड़कन और भी तेज़ हो गयी, वह मन ही मन सोचने लगा,

"साहब को क्या सूझी जो अंग्रेज मेहमान को लाने के लिये मुझे भेज दिया, मैं उससे बात कैसे करूं पाऊंगा? माँ-बाप ने भी जाने क्या सोचकर मुझे हिंदी स्कूल में पढाया, आज अंग्रेजी जानता होता तो पता नहीं क्या होता? इस हिंदी ने तो मेरा जीवन ही..."
अचानक वाहन-चालक ने बहुत तेज़ी से ब्रेक लगाये, उसका शरीर और विचार दोनों हिल गए, उसने आँखें तरेरते हुए चालक से पूछा, "क्यों बे? क्या हुआ?"
"सर, वन बुल वाज़ क्रॉसिंग द रोड (श्रीमान, एक बैल रास्ता पार कर रहा था।)"
चालक का उत्तर सुनते ही वह चौंका, उसने कुछ कहने के लिये मुंह खोला और फिर कुछ सोच कर अगले ही क्षण होंठ चबाते हुए उसने आँखें घुमा लीं।
उसके विचारों में अब अंग्रेजी के अध्यापक आ गये, जो अपने हाथ से ग्लोब को घुमाते हुए कहते थे, "इंग्लिश सीख लो, हिंदी में कुछ नहीं रखा। नहीं सीखी तो जिंदगी भर एक बाबू ही रह जाओगे।"
उसे यह बात आज समझ में आई, टैक्सी तब तक हवाई अड्डे पहुँच चुकी थी। विदेशी मेहमान उसका वहीँ इन्तजार कर रहा था।
गोरे चेहरे को देखकर उसकी चाल तेज़ हो गयी, अपनी कमीज़ को सही कर, लगभग दौड़ता हुआ वह विदेशी मेहमान के पास गया और हाथ आगे बढ़ाता हुआ बोला, "हेल्लो सर..."
उस विदेशी मेहमान ने भी उसका हाथ थामा और दो क्षणों पश्चात् हाथ छोड़कर दोनों हाथ जोड़े और कहा,
"नमस्कार, मैं आपके... देश की मिट्टी... से बहुत प्यार करता हूँ... और आपकी मीठी भाषा हिंदी... का विद्यार्थी हूँ..."
सुनते ही उसे मेहमान के कपड़ों पर लगे विदेशी इत्र की सुगंध जानी-पहचानी सी लगने लगी

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत-बहुत आभार डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' जी सर।


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  2. कोई भी भाषा किसी क दुश्मन नहीं,भाषा तो बस यूँ ही ... हमारी अभिव्यक्ति का साधन मात्र है ...

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