यह ब्लॉग खोजें

गुरुवार, 11 जुलाई 2019

लघुकथा: आपका दिन


 "मैं केक नहीं काटूँगी।" उसने यह शब्द कहे तो थे सहज अंदाज में, लेकिन सुनते ही पूरे घर में झिलमिलाती रोशनी ज्यों गतिहीन सी हो गयी। उसका अठारहवाँ जन्मदि मना रहे परिवारजनों, दोस्तों, आस-पड़ौसियों और नाते-रिश्तेदारों की आँखें अंगदी पैर की तरह ताज्जुब से उसके चेहरे पर स्थित हो गयीं थी

वह सहज स्वर में ही आगे बोली, "अब मैं बड़ी हो गयी हूँ, इसलिए सॉलिड वर्ड्स में यह कह सकती हूँ कि अब से यह केक मैं नहीं मेरी मॉम काटेगी।" कहते हुए उसके होठों पर मुस्कुराहट तैर गयी।

वहाँ खड़े अन्य सभी के चेहरों पर अलग-अलग भाव आए, लेकिन जिज्ञासावश वे सभी चुप रहे। उसकी माँ उसके पास आई और बोली, "मैं क्यों...? बेटे ये आपका बर्थडे है। केक आप ही काटो।"

उसने अपनी माँ की आँखों में झाँकते हुए उत्तर दिया, "मॉम, आपको याद है कि मेरे पैदा होने से पहले आपको बहुत दर्द हुआ होगा... लेबर पैन। उसके बाद मैं पैदा हुई।"

माँ ने हाँ में सिर हिला दिया।

वह आगे बोली, "इसका मतलब मेरा बर्थडे तो बाद में हुआ, उससे पहले आपका लेबर-डे है। एटीन की होने से पहले यह बात सबके सामने नहीं कह सकती थी। लेकिन आज... हैप्पी लेबर-डे मॉम।" आखिरी तीन शब्दों को उसने पूरे जोश से कहा।

और यह कहकर उसने अपने हाथ में थामे हुए चाँदी के चाकू से केक के ठीक ऊपर तक लटके हुए बड़े गुब्बारे को धम्म से फोड़ दिया।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (12-07-2019) को "भँवरों को मकरन्द" (चर्चा अंक- 3394) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. बहूत-बहुत आभार आदरणीय डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' जी सर।

      हटाएं