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मंगलवार, 30 जुलाई 2024

लघुकथा चर्चा | लघुकथा में लघुता का अनुशासन और उसके रोचक/रुचिकर/प्रभावी होने में अंतर्संबंध

आदरणीय साथियों,

लघुकथाओं के सन्दर्भ में कई ऐसी रचनाएं पढ़ी हैं, जिनमें लघुकथाकारों ने लघुता (ना एक शब्द ज़्यादा ना एक शब्द कम) के अनुशासन को भी तोड़ा है, ताकि लघुकथा प्रभावित कर सके, रोचक या रुचिकर हो सके. उनमें से अधिकतर रचनाएँ लघुकथा ही कही जाती रहीं और कुछ तो काफी प्रसिद्द भी हुईं. हालाँकि, मानकों के अनुसार लघुकथा में स्पष्टता को लेकर एक शब्द भी कम या ज़्यादा नहीं होना चाहिए.

तब यह प्रश्न दिमाग में आया कि क्या रुचिकर होने और लाघव होने के बीच केवल यही अंतर्संबंध है कि यदि किसी वेन आरेख के अनुसार सोचें तो  रुचिकर होना लघु तत्व के भीतर होगा या कभी बाहर हो भी सकता है.

यह अंतर्सबंध और भी किसी तरह से हो सकता है क्या?

इस प्रश्न को सोचते-विचारते ही फेसबुक सोशल मीडिया पर यह एक प्रश्न भेजा, जिसमें काफी उत्तर आए और चर्चा भी अच्छी रही. हालाँकि चर्चाकारों के कमेन्ट के प्रत्युत्तर भी आए, लेकिन मैं यहाँ केवल पहला कमेन्ट ही ले रहा हूँ, ताकि मूल विचार ज्ञात हो सकें. 

प्रश्न:

लघुकथा को रोचक बनाने के लिए, यदि कोई अन्य तरीका न हो और कुछ शब्द अधिक डाल दें या भूमिका/पात्र परिचय लिख दें, तो क्या वह कहानी बन जाएगी?


Kamlesh Bhartiya

बिल्कुल नहीं। कसावट और कम शब्दों में नाविक के तीर‌ की तरह लिखी जानी चाहिए । यह आकाश में बिजली जैसी चमकती है और इसे जानबूझकर लम्बा नहीं किया जा सकता।


Shreya Trivedi

पता नही


Virender Veer Mehta

मेरे विचार से भूमिका पात्र परिचय या शब्दों की अधिकता रचना को विस्तार दे सकती है, लेकिन यदि लघुकथा को कहानी बनाना है तो यह देखना पड़ेगा कि क्या उसके कथ्य में इतना स्कोप है कि उसे विस्तार दिया जा सके; वरना तो एक लघुकथा को कहानी बनाने की कोशिश उस लघुकथा को भी नष्ट करने वाली बात ही होगी।


रमेश कुमार

लघुकथा अपनी पहचान आप ही बनाती है ।


Seema Singh

ऐसे अनूठे प्रश्न आपसे पूछता कौन है भाई जी? ये आपकी अपनी उपज तो शर्तिया नहीं हैं!🤣🤣


Archana Rai

मेरी लघुकथाएँ कुछ लंबी होती हैं। कथा में रोचकता और कौतुहल बनाए रखने के लिए मैं शिल्प पर काम करती हूँ। इसलिए शब्द संख्या बढ़ जाती है।

सतीश राज पुष्करणा जी की बात पर अमल करती हूँ कि

हाथी चाहे बड़ा हो या बच्चा हाथी ही कहलाता है।

उसी तरह अगर कथा लघुकथा के ढांचे में फिट बैठ रही है तो वो लघुकथा ही होगी। बड़ी या छोटी होना कोई मायने न रखता

ये मेरा अपना व्यक्तिगत मानना है । जरूरी नहीं आप भी सहमत हो आदरणीय।


Yograj Prabhakar

रोचक बनाने के स्थान पर लघुकथा को रुचिकर बनाने का प्रयास करना चाहिए भाई Chandresh Kumar Chhatlani जी.


Vimal Shukla

यदि सच में लघुकथा की बात है तो इसमें रोचकता का कोई स्थान नहीं है।दर्द की विधा में ,कैसी रोचकता।सामाजिक ध्वस्त ताना बाना , ही लघुकथाओं को जन्म देता है।बीमार समाज के लिए ये इंजेक्शन का काम करें न कि बोतल का।


Vandana Gupta

सर यदि पोहा खा रहे हैं, स्वाद और भूख के कारण ज्यादा मात्रा में खा लिया, तब भी वह नाश्ता ही कहलाएगा, भोजन नहीं। भोजन वाली बात तो दाल चावल सब्जी रोटी से ही बनेगी।


Soma Sur

कथ्य पर निर्भर करेगा। लेकिन कहानी में क्या लघुकथा की मारक क्षमता आ पायेगी!!


विनोद प्रसाद 'विप्र'

पूर्वजन्म के सवालों को ऐसे ही पटल पर डालते रहें, धन्यवाद।

वरिष्ठ साहित्यकारों के विचार पढ़कर हम नये रचनाकार लाभान्वित होंगे।


Kalpana Bhatt

कहाँ कहाँ से ऐसे सवाल लाते हो भैया? बढ़िया चर्चा हो रही है। जो आपसे ऐसे सवाल करते हैं उनकी जय हो।

सीमा ने सही कहा है यह आपकी उपज नही होगी। परंतु प्रश्न तो प्रश्न ही है।

लघुकथा के आकार को लेकर कब तक भ्रम बना रहेगा?

ऐसे ही कालदोष को लेकर भी....

हाल ही में किसी से सुना था कि अब समय आ गया है कि लघुकथा में कॉमेडी (हास्य)भी आना चाहिए। उसी व्यक्ति ने यह भी कहा कि लघुकथा गम्भीर विधा है। (whatsapp mahavidhyalaya)


Asfal Ashok

मेरे ख्याल से नहीं क्योंकि कहानी का नेचर अलग है


Neeraj Jain

कम शब्दों में बात पूरी हो सकती है तो मैं एक भी शब्द ज्यादा नहीं लिखता

लघुकथा

समय

दो घण्टे लेट आने के बाद मास्टरजी बोले

आज एक नया विषय पढाया जायेगा

"समय का महत्व"

नीरज जैन


पवन जैन

तिलमिलाहट पैदा करना लघुकथा का स्वाभाव है ,

पर उसे इतना भी न जकड़ो कि वह कसमसाने लगे।


Netram Bharti

वर्जनाएं हमेशा से रचनात्मकता में बाधक होती हैं l एक दौर था जब प्रबंधकाव्य में नायक उच्चकुलोत्पन्न, क्षत्रिय या उस जैसा ही होना चाहिए, धीरोद्दात, धीर प्रशांत गुणों से परिपूर्ण होना चाहिए ,यह नियम था, क्या आज भी यदि कोई प्रबंधकाव्य की सर्जना करता है तो उन्हीं राजकुमारों सदृश नायकों को नायक बना रहा है या वैसे नायक समाज में परिलक्षित होते हैं l मैं हमेशा कहता हूँ कि हर काल अपने पूर्वकाल से भिन्न होता है और हर काल की अपनी कुछ विशेषताएं, कुछ वर्जनाएं तो कुछ प्रवृत्तियां होती हैंl उसके अनुसार ही साहित्य और उसकी विधाओं में सर्जन होता है और होना चाहिए नहीं तो ' साहित्य समाज का दर्पण है' इस उक्ति की तर्कसंगतता बाधित होगी l फिर यह भी नहीं भूलना चाहिए कि साहित्यकार यदि अपने समय और उसकी विसंगतियों, प्रगतियों को नजरअंदाज करता है तो उसका लेखन उल्लेखनीय और प्रभावी कैसे होगा यह भी एक प्रश्न है l इसलिए विधा के अंदर रहकर यदि उसमें कथ्य अनुसार कुछ शब्दों की अधिकता हो भी जाती है तो कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए l क्योंकि हर रचना की शब्द संख्या उसके अंदर ही निहित होती है l शर्त यह है कि विधा से छेड़छाड़ नहीं की जानी चाहिए l


Santosh Supekar

अत्यधिक विस्तार, शब्दों - वाक्यों का Repetation होने पर आज का प्रबुद्ध पाठक खुद पूछने लगता है ' ये कहानी है क्या? '


Savita Mishra

दूसरे की कॉपी कर लें, सिम्पल😁


दिव्या राकेश शर्मा

विद्रोह ही लघुकथा का परिचय है इसमें पात्र परिचय भूमिका अतिरेक शब्द डालकर विद्रोह को आत्मसमर्पण बनाने की आवश्यकता ही क्यों है


कथाकार सन्दीप तोमर

लघुकथा को क्यों ही कहानी बनाना। अभी मैंने एक प्रयास किया लघुकथा को कहानी बनाने का, सफल नहीं हुआ।


Kapil Shastri

फिर वो लघुकथा रोचक भी नहीं रहेगी।


Arun Dharmawat

मैं आपकी बात से पूर्णतया सहमत हूँ कि मात्र कुछ शब्द जोड़ने से यदि लेखन, पाठकों के अंतर्मन को छू ले तो इसमें कोई बुराई नहीं है। भाई सुख़न की बारिश तो बड़ी मासूम होती है, उसे नहीं मालूम होता कि वो छप्पर पे बरस रही है या महल पर। लघुकथा कोई गणित का सवाल नहीं जिसमें दो और दो का जोड़ सिर्फ चार ही होता है। ना ही ये कोई रसायन है जिसका लैब में परीक्षण किया जाए कि कितना पदार्थ कितनी मात्रा में ही मिलाना चाहिए।

यदि लेखन में संवेदना संदेश एवं ग्राह्यता नहीं होगी तो वो शो केस में खड़े उस बेजान पुतले से अधिक नहीं होगी जिसे बेहद खूबसूरत वस्त्रों से सजाया तो जा सकता है लेकिन उसमें जीवंतता नहीं होती।

लिखने वाले को सोचना होगा कि उसका सृजन कोई प्रॉडक्ट है अथवा निश्छल निर्बाध बहने वाला प्रपात जो साहित्य मनीषियों के निर्धारित मापदंडों की परिधि में ही जकड़ कर रह जाए। असंख्य कृतियां जिन्हें पाठकों का भरपूर प्यार मिला लेकिन साहित्य के टेक्नीशियनों द्वारा उनमें अनेकों तकनीकी खामियां गिनाकर उनके द्वारा निर्धारित मापदंडों से बाहर कर दिया। एक मासूम बालक चोटिल होने पर किसी बहर में नहीं रोता इसके बावजूद उसकी माता का हृदय स्पंदित हो कर छलक पड़ता है और उसे सीने से लगाकर खुद रोने लगता है।

साहित्य उसी स्पंदन और संवेदना का परिमाण होना चाहिए। इसे शब्दों की गणना, विधि, विधान, तकनीक की परिधियों से मुक्त होना चाहिए।

मैं कहूँ तो ..... शब्दों के संकलन को साहित्य नहीं कहते 'अरुण', शिद्दत और एहसास भी जरूरी है असर होने के लिए।

इति ......

Arun Dharmawat

मेरा मानना है कि जो लेखन उसमें निहित संदेश को यदि पाठक तक पहुँचाने में सफल हो जाए वही श्रेष्ठ है। इसके लिए यदि शाब्दिक सरंचना की संख्या कम अथवा अधिक भी करनी पड़े तो उसमें कोई हर्ज़ नहीं।

जैसा कि आप जानते हैं ग़ज़ल को लिखने के लिए उसे किसी बहर में निबद्ध होना आवश्यक है परंतु ग़ालिब से लेकर फैज़ मोमिन फ़राज़ और वर्तमान के आला उस्ताद शायर भी अपनी बात को मुक़म्मल और बेहतर कहने के लिए आवश्यकता पड़ने पर मात्रा तोड़ देते हैं। इसलिए मैं आपकी ही बात का समर्थन करते हुए कहना चाहता हूँ कि किसी भी लघुकथा को प्रभावशाली बनाने के लिए यदि चंद शब्द अतिरिक्त भी लिखने पड़े तो कोई ग़लत नहीं।

धन्यवाद !

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रविवार, 28 जुलाई 2024

पुस्तक समीक्षा । बिखरती सद्भावनाओं को समेटती लघुकथाएं । शिव सिंह 'सागर'

लघुकथा की दुनिया में सुरेश सौरभ पुराना और प्रतिष्ठित नाम है। मुझे इन दिनों उनके संपादन में संपादित लघुकथा का साझा संग्रह 'मन का फेर'‌ पढ़ने का सुअवसर मिला। यकीन मानिए ये किताब अपने अनोखे अंदाज के लिए किताबों की दुनिया में एक अलग पहचान बनाएगी, ऐसा मुझे पूरा विश्वास है। लघुकथा एक ऐसी विधा है, जो अपनी लघुता और अपने अनूठे शिल्प के लिए निरंतर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रही है, चर्चित हो रही है। यूँ तो लघुकथा लिखने और संपादित करने के लिए  सामाजिक विसंगतियों के अनेक विषय हो सकते हैं, पर अंधविश्वासों, रूढ़ियों एवं कुरीतियों पर केंद्रित लघुकथाएं प्रकाशित करना वाकई साहस और जोखिम भरा का काम है, संपादक सौरभ जी इसके लिए बधाई के पात्र हैं। 

संग्रह में  योगराज प्रभाकर की पहली लघुकथा 'कन्या पक्ष' मन द्रवित कर देती है और हमारे सामाज के दोहरे और दोगले चरित्र को उघाड़ कर रख देती है। लघुकथा की यही खूबसूरती है कि वह कम समय में ही मन पर, हृदय पर  गहरा असर करे। साधारण से साधारण इंसान को भी वह बहुत कुछ सोचने-विचारने के लिए मजबूर कर दे।  डॉ. मिथिलेश दीक्षित की लघुकथा 'डुबकी ' बेटी और बहू में अंतर को दर्शाती है। जहाँ बेटी खुद अपनी माँ को सही राह दिखाने का प्रयास करती है। डॉ. मिथिलेश की लघुकथा बेहद प्रेरणादायी है। मनोरमा पंत की लघुकथा 'नाक' समाज के झूठे व दिखावटी चरित्र को दर्शाती है। चित्रगुप्त की लघुकथा 'ईनो', ढोंगी पंडित के चरित्र को प्रस्तुत करती है। इसी क्रम में विजयानंद 'विजय' की लघुकथा 'चंदा' हो, या रश्मि लहर की लघुकथा 'मुहूर्त ' हो, चाहे सतीश खनगवाल की 'कंधे पर चांद', डॉ.पूरन सिंह की 'भूत', नीना मंदिलवार की 'हीरो', कल्पना भट्ट की 'डर के आगे' भगवती प्रसाद द्विवेदी की 'आरोप' 'अंतर' 'पुण्य' अछूतोद्धार, मधु जैन की 'दहशत', डॉ. राजेन्द्र साहिल की लघुकथा 'औपचारिक अधयात्म', सुकेश साहनी की 'दादा जी'  डॉ. अंजू दुआ जैमिनी की 'आश्रम' या बलराम अग्रवाल, डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी, अखिलेश कुमार 'अरुण' विनोद शर्मा 'सागर', रमाकांत चौधरी, चित्त रंजन गोप,नेतराम भारती, सुनीता मिश्रा, प्रेम विज, मनोज चौहान, हर भगवान चावला अरविंद सोनकर, राजेन्द्र वर्मा, अखिलेश श्रीवास्तव 'चमन', सुरेश सौरभ, बजरंगी भारत, अभय कुमार, भारती, गुलज़ार हुसैन,राम मूरत 'राही', सवित्री शर्मा 'सवि', आदि सभी साठ लघुकथाकारों की लघुकथाएं विचारणीय एवं संग्रहणीय हैं, जो सामाजिक कुरीतियों, रूढ़ियों और अंधविश्वासों पर एक व्यापक विमर्श साहित्य जगत में प्रस्तुत करती हैं, व्यापक दृष्टि से पूरा का पूरा संग्रह ही आज के भौतिकवादी इंसान की आंखों से पट्टी खोल फेंकने के लिए पर्याप्त कहा जा सकता है। 


 इस संग्रह में वरिष्ठ पत्रकार अजय बोकिल की संपादकीय टिप्पणी लाजवाब है। आपका विश्लेषण किताब की सफलता में चार चाँद लगाता है। संपादक सौरभ जी ने लोकतांत्रिक मूल्यों पर अपनी सशक्त एवं विचारणीय संपादकीय प्रस्तुत की है। मेरे विचार में लघुकथाओं का सबसे सशक्त पक्ष है, उनका समाज को शिक्षित और जागरूक करने की क्षमता का होना, जो इस संग्रह में विद्यमान है‌। लघुकथा के इस संकलन का उद्देश्य समाज को शिक्षित करना है। जागरूक करना है, सदियों से व्याप्त अंधविश्वासों से उसे बाहर लाना है। इस लिहाज से यह संग्रह पढ़़ना नितांत आवश्यक हो जाता है। 

पुस्तक - मन का फेर (साझा लघुकथा संग्रह) 
संपादक - सुरेश सौरभ
प्रकाशक - श्वेतवर्णा प्रकाशन नोएडा 
पृष्ठ संख्या-144
मूल्य - 260 (पेपर बैक) 

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समीक्षक -

शिव सिंह सागर

बंदीपुर हथगाम फतेहपुर (उ. प्र.)

मो- 97211 41392

शुक्रवार, 26 जुलाई 2024

आलेख । प्रयोगात्मक लघुकथा आज के संदर्भ में । मनोरमा पंत

वर्ष 2023 में प्रसिद्ध लघुकथाकार योगराज प्रभाकर द्वारा संपादित प्रयोगात्मक लघुकथा विशेषांक ‘लघुकथा कलश’ पाठकों के सम्मुख आया। इसके तुरन्त बाद 2024 में बलराम अग्रवाल की नई ‘बेताल पच्चीसी’ प्रयोगात्मक लघुकथा संग्रह के रूप में प्रकाशित हुई। प्रयोगात्मक लघुकथाएँ ऐसे दौर में आई जब लघुकथा का एक निश्चित स्वरूप स्थापित हो चुका था और लोकप्रियता में बुलंदी छू रही थी। तो  फिर  प्रश्र  उठता है कि लघुकथा में प्रयोगों की आवश्यकता क्यों हुई? 

इसका उत्तर प्रबुद्ध लघुकथाकार प्रभाकर योगराज जी ने ‘लघुकथा कलश’ के संपादकीय में दिया ,वह भी कविता के रूप में-

"करें गर बात कविता की, हुआ बदलाव है आला,

 लहक, अक्षुण्ण रखकर, काट डाला छंद का जाला।

 ये जकड़न से मिली आजादी थी ,अनुभूति सुखदायी 

 तभी खुली हवा में आज कविता सांस ले पाई।

 न पहले सी रही कविता, न नॉवल की, रवानी,

 सभी बदले, हमारी लघुकथा पहले सी क्योंकर हैं?"

योगराज का सीधा-सीधा कहना  है कि समय के साथ-साथ जब साहित्य की  सभी विधाएं बदली तो लघुकथा क्यों न बदले? 

वे अपने प्रयोगों के समर्थन  में लिखते हैं कि कोई  भी व्यक्ति अपनी बात शायरी में ,खत में, डायरी में, खबर के रुप में, बेताल के रुप में कह सकता है।

इस बात को साबित  कर दिखाया  167 लघुकथाकारों ने "लघुकथा कलश" में विविध  शैलियों में  लिखकर, जिनमें अनुभवी और नये रचनाकार दोनों सम्मिलित रहे।

बलराम अग्रवाल की "नई  बेताल  पच्चीसी" को भी भरपूर प्रशंसा मिली।

लघुकथा का मुख्य उद्देश्य है, लोकरंजन  के साथ-साथ समय  की विसंगतियों को सामने लाना। यह कार्य बलराम जी की नयी "बेताल पच्चीसी" के बेताल ने किया, आमजन की  गम्भीर समस्याओं को व्यंग्य, कटाक्ष के द्वारा  उजागर करके इन बेताल कथाओं ने पाठकों का भरपूर मनोरंजन किया और उनके दिल में जगह बना ली। मजे की बात यह है कि कथा पच्चीसी का बेताल डरावना नहीं है, उसका व्यवहार भी आमजन जैसा है। वह मनमौजी है और कथा सुनाने/सुनने के बाद कहीं भी लटक जाता है। राजा विक्रमादित्य कभी-कभी उसे विवश कर देते हैं कि वे कथा कहेगें,और उत्तर बेताल को देने पडेगे।

इन प्रयोगात्मक लघुकथाओं के पक्ष में इन्दौर  के लघुकथाकार डाॅ.पुरुषोतम अपने लेख "लघुकथा और काल-परिपेक्ष्य में प्रायोगिकता" में लिखते हैं कि "नित नये प्रयोगों के रचनात्मक कौशल्य से ही साहित्य की विधाओं में निरन्तर विकास के सोपान दृष्टव्य हैं। कल के साहित्य में जो शब्द जिस अर्थ मेग्निफ़ाइन्ग-ग्लास होते थे,आज के साहित्य में वे ही शब्द नये अर्थ के साथ प्रयुक्त होकर भाषा में नया शिल्प, नई शैली का संवाहक बने हुए  है।"

इतनी वर्णित खूबियाँ होने के पश्चात भी नये प्रयोग अनेक साहित्यकारों को पचे नहीं और परिणामस्वरूप लघुकथा में प्रयोग ने लघुकथाकारों को दो खेमों में बाँट दिया। प्रयोगों के विरोधी खेमे का कहना है कि -"इन प्रयोगवादी लघुकथा लेखन ने तो लघुकथा के ढांचे को ही पूरी तरह ध्वस्त कर दिया, जिससे लघुकथा की आत्मा ही मर गई।"

इस खेमे का स्पष्ट कहना है कि प्रयोग नये नहीं हैं, शैलियां वही परम्परागत है बस कलेवर बदल दिया गया है। नये प्रयोगों के नाम पर पुरानी शराब नयी बोतल में परोसी जा रही है। लघुकथा के बीज तो वैदिक काल में ही    प्रस्फुटित हो चुके थे। पौराणिक काल  की राजा परीक्षित  की कहानी, शुक रंभा संवाद से लेकर तीजा, करवा चौथ, महालक्ष्मी  की कथा सब लघुकथा के ही विभिन्न रुप हैं। इनमें कोई  वाचिक रुप हैं,कोई संवाद शैली में। प्रश्नोत्तर या साक्षात्कार शैली में उदाहरण है, विष्णु पुराण  की कथा जिसमें विष्णु जी नारद के इस दर्प को खंडित करते हैं कि उनसे बड़ा विष्णु भक्त पूरे ब्रह्मांड में कोई नहीं है। पूरी कथा प्रश्नोत्तर में वर्णित है। आज इसे साक्षात्कार शैली या संवाद शैली कह सकते हैं। वाल्मीकि रामायण से लेकर महाकाव्यों मे विभिन्न आख्यान इनके अन्य उदाहरण हैं।

कुछ भी हो नये प्रयोगों ने लघुकथा के संसार में हलचल तो मचा दी है।

आज के संदर्भ में मानें या न मानें प्रयोगात्मक  लघुकथाओं  का चलन  बढ रहा है। अनकहे कथानक  वाली अभिवञ्जनात्मक लघुकथाएं  लिखी जा रही हैं। पौराणिक कथाएं आधुनिक  संदर्भ में लिखी जा रही हैं। प्रकृति का मानवीयकरण लघुकथाकारों का प्रिय विषय है। प्रयोगात्मक लघुकथाओं के विभिन्न  शैलियों में रुप वर्णित किये गये हैं जैसे विज्ञापन, साक्षात्कार , समाचारपत्र , डायरी, वर्णनात्मक, आत्मकथात्मक, आत्मालाप, पत्र, तोता मैना,बेताल, अकबर-बीरबल शैली आदि।

हकीकत तो यह है कि मनुष्य स्वभाव  ही है कि वह नवीनता चाहता है। प्रायः सभी लघुकथाकारों ने कोई न कोई  प्रयोग  किया है। प्रसिद्ध  लघुकथाकार अशोक भाटिया जी की हाल में ही प्रकाशित  "सूत्रधार " नामक लघुकथा-संग्रह की  'आत्मालाप' तथा 'माँ बेटा संवाद 'प्रयोगशील  लघुकथाएं  हैं। प्रसिद्ध  साहित्यकार प्रो.बी .एल .आच्छा ने, जो एक सफल व्यंग्यकार  होने के साथ-साथ  एक लघुकथाकार और समीक्षक भी हैं, अशोक भाटिया को भाव संवेदी यथार्थ का प्रयोगशील लघुकथाकार कहा है।

कहने का तात्पर्य यह है कि प्रयोग तो होते रहते हैं चाहे शैली में, कथानक में, भावों की प्रस्तुतिकरण  में।

वर्तमान  की बात  करे तो कटु सत्य  तो यह है कि प्रयोगात्मक लघुकथाओं को पाठक पचा नहीं पा रहा। कारण  यह है कि इन लघुकथाकाओं के विधान पढ़कर समझना ही नहीं चाहते रचनाकार। व्यंग्य  के नाम पर फूहड हास्य  लिखा जा रहा है ।

प्रसिद्ध लघुकथाकार पुरुषोत्तम  जी स्वयं स्वीकार करते हैं कि अब लघुकथा में प्रयोग लिखने की हवा सी चल पड़ी है। तथापि एक प्रकार का अकथ्य भटकाव प्रयोगशील लघुकथाओं के लेखन में दिखाई दे रहा है। इसका एक बड़ा कारण केवल और केवल फैशन के बूते प्रयोगवादी लघुकथाएँ लिखने का ‘‘हाशिएवादी लेखन’’ महज प्रयोग के नाम पर शोर मचा रहा है। 

प्रयोगवादी लघुकथाओं के पीछे योगराज प्रभाकर जैसे अनुभवी कथाकार की गम्भीर सोच एक गम्भीर चिंतन मनन रहा है जिससे अपेक्षा की जा रही है कि प्रयोगात्मक लघुकथा की कथावस्तु की अनुभूति को अभिव्यक्त करने सरल, सहज व्याकरणों सम्मत सटीक भाषा के साथ शिल्प सम्मत शैली से लघुकथा में प्रयोग को साधा जा सकता है।

यही कारण है कि माधव नागदा जैसे लघुकथाकार कहते हैं कि लेखक अपनी बात  को कहने के लिए  विभिन्न  शैलियों का प्रयोग  कर सकते हैं बशर्ते वह संप्रेषणीयता में बाधक न हो,अन्यथा यशलिप्सा में जो उलटबांसी कर रहे हैं,समय का प्रवाह उन्हें शीघ्र  ही किनारे लगा देगा ।

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मनोरमा पंत 

भोपाल मध्यप्रदेश 

कार्यकारिणी मंत्री  -लघु कथा शोध संस्थान भोपाल 

उपाध्यक्ष -अखिल भारतीय साहित्य कला मंदिर 

सदस्य  -महिला आयाम प्रज्ञा समूह ,लेखिकासंघ  भोपाल  ,

भोजपाल  समूह  ,क्षितिज  ,पाठक मंच  (हिसार हरियाणा )

प्रकाशन- लघुकथा संग्रह" जिंदगी की अदालत में "

कविता संकलन-" भाव सरिता"

सह संपादक-" उत्कर्ष "लघु कथा संग्रह  

 सांझा संकलन - 15 सांझा  संकलन 

समीक्षा -"बैताल पच्चीसी"लघुकथा-संग्रह संपादक  बलराम अग्रवाल 

ऋषि रेणु -लघुकथा-संग्रह  -अशोक धमेनिया 

भज मन -कवितासंकलन  डाक्टर  मालती बंसत 

गुलाबी गलियां - कहानी संग्रह - सुरेश सौरभ 

मन का फेर - कहानी संग्रह-सुरेश सौरभ 

कलम बोलती है -कहानी संग्रह  -सुनीता मिश्रा 

मैं कहता हूँ-कविता संकलन  -तेजेन्द्र 

बारिश  की बूंदें -लघुकथा-संग्रह  -निशा भास्कर 

स्त्री-पुरूष  -मनोविज्ञान  पर आलेख सुरेश पटवा

 पत्र-पत्रिकाओं में आलेख ,लघु कथा,पर्यावरण   तथा व्यंग  रचनाओं का प्रकाशन 

साक्षात्कार --1-वर्ल्ड पंजाबी टाइम्स के संपादक सुरजीत बहादुर  

2 -जन सरोकार मंच राजीव ओझा द्वारा

3-कथादर्पण साहित्यिक  मंच द्वारा आयोजित  कार्यक्रम  "इनसे मिलिए  "में साक्षात्कार 

 सम्मान- 

7जुलाई  24को  निर्दलीय  समाचार  पत्रद्वारा  पर्यावरण  जागरुकता शिखर सम्मान  

"कला साहित्य रत्न सम्मान "अखिल भारतीय कला साहित्य मंदिर द्वारा भाव सरिता की पांडुलिपि पर 

"लघु कथा श्री सम्मान "लघु कथा शोध संस्थान द्वारा 

"डॉ सुशीला कपूर हिंदी सेवा सम्मान" लेखिकासंघ भोपाल 

अमृता प्रीतम सम्मान-विश्व हिन्दी  रचनाकार मंच

" मातृशक्ति सम्मान "आर्य समाज द्वारा 

अमृत शक्ति सम्मान" अखिल भारतीय साहित्य परिषद द्वारा

लगभग  आठ अन्य  सम्मान

अनुवाद -करीब  2oलघुकथाओं का पंजाबी में अनुवाद  तथा प्रकाशन ।

विशेष  -लगभग  20कविताओं का  दैनिक  जागरण  में प्रकाशन

मंगलवार, 23 जुलाई 2024

पुस्तक समीक्षा | हिंदी लघुकथा स्वरूप और सार्थकता | सुरेश सौरभ

डॉ. मिथिलेश दीक्षित साहित्य जगत में एक बड़ा नाम है। शिक्षा के क्षेत्र में ही नहीं बल्कि साहित्य और समाज सेवा में भी आपका उल्लेखनीय योगदान है। हिंदी की तमाम विधाओं में आपका रचना कर्म है। विभिन्न विधाओं में आप की लगभग अस्सी पुस्तकें प्रकाशित हो चुकीं हैं। हाल ही में इनकी किताब हिंदी लघुकथा स्वरूप और सार्थकता के शीर्षक से सुभदा बुक्स साहिबाबाद से प्रकाशित हुई है, जो हिंदी लघुकथा के पाठकों, लेखकों और शोधार्थियों- विद्याथिर्यों  के लिए पठनीय और वंदनीय है। संपादकीय में डॉ.मिथिलेश दीक्षित लिखती हैं- हिंदी साहित्य की गद्यात्मक विधाओं में लघुकथा सबसे चर्चित विधा है। आज के विधागत परिपेक्ष्य में लघुकथा के स्वरूप को देखते हैं, तो लगता है इसके स्वरूप में पर्याप्त परिवर्तन हुआ है, इसका मूल प्रयोजन भी बदल गया है। अब उपदेशात्मक या कोरी काल्पनिक लघुकथाओं में विशेष पत्रों के स्थान पर सामान्य जन का प्रतिनिधित्व करने वाले सामान्य पात्रों का समयगत परिस्थितियों में चित्रण होता है.....और वे आगे लिखतीं हैं..संक्षिप्तता गहन संवेदन, प्रभाव सृष्टि और संप्रेषण क्षमता लघुकथा की विशिष्ट गुण है। "लघुकथाकार का गहन संवेदन जब लघुकथा में समाहित हो जाता है, तब शिल्प में सघनता आ जाती है, भाषा में सहजता और पात्रों में जीवन्तता आ जाती है‌।"

      डॉ.ध्रुव कुमार, अंजू श्रीवास्तव निगम, इंदिरा किसलय, डॉ.कमल चोपड़ा, कल्पना भट्ट, कनक हरलालका, डॉ.गिरीश पंकज, निहाल चंद्र शिवहरे, बी. एल. अच्छा, डॉ,भागीरथ परिहार, मुकेश तिवारी, मीनू खरे, रजनीश दीक्षित, शील कौशिक, डॉ. शैलेश गुप्ता 'वीर' ,डॉ.शोभा जैन, सत्या  सिंह, डॉ.स्मिता मिश्रा, डॉ. सुरंगमा यादव, डॉ.सुषमा सिंह, संतोष श्रीवास्तव के बहुत ही शोधपरक लेखों  को इस पुस्तक में सम्मिलित किया गया हैं।  लेखों में लघुकथा के शिल्प, संवेदना, और लघुकथा के  वर्तमान, अतीत और भविष्य पर बड़ी सहजता, सूक्ष्मता और गंभीरता से विमर्श किया गया है। पुस्तक में हिंदी लघुकथा के बारे में डॉक्टर मिथिलेश दीक्षित से डॉ.लता अग्रवाल की बातचीत भी कई महत्वपूर्ण बिंदुओं पर की गई है, जिसमें लघुकथा की प्रासंगिकता, उसकी उपयोगिता, उसका आकार-प्रकार व मर्म, उसमें व्यंग्य तथा शिल्पगत विविधता आदि।
         प्रसिद्ध साहित्यकार  गिरीश पंकज पुस्तक में अपने आलेख में लिखते हैं-" कुछ लेखक लघुकथा को लघु कहानी समझ लेते हैं जिसे अंग्रेजी में 'शॉर्ट स्टोरी' कहते हैं, जबकि वह लघु नहीं पूर्ण विस्तार वाली सुदीर्घ कहानी ही होती है। लघुकथा के नाम पर 500 या 1000 शब्दों वाली भी लघुकथाएं मैंने देखी हैं और चकित हुआ हूं ।ये किसी भी कोण  से लघुकथा के मानक में फिट नहीं हो सकती। मेरा अपना मानना है कि लघुकथा 300 शब्दों तक ही सिमट जाएं तो बेहतर है। तभी सही मायने में उसे हम संप्रेषणीय में लघुकथा कहेंगे। अगर वह 500 या उससे अधिक शब्दों तक फैल जाती है तो उसे लघु कहानी के श्रेणी में रखना उचित  होगा।"
         मिथिलेश जी ने बहुत श्रमसाध्य कार्य किया है,  लघुकथा पर कालजयी विमर्श की पहल की है उन्हें हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं।

पुस्तक- हिंदी लघुकथा स्वरूप और सार्थकता
संपादक- डॉ. मिथिलेश दीक्षित
प्रकाशक-शुभदा बुक्स साहिबाबाद उ.प्र.
मूल्य-300/
पृष्ठ-112 (पेपर बैक)

समीक्षक-सुरेश सौरभ

निर्मल नगर लखीमपुर खीरी उत्तर प्रदेश-262701
मो-7860600355

बुधवार, 17 जुलाई 2024

पुस्तक समीक्षा । मुट्ठी भर धूप । कनक हरलालका

मानवीय दायित्व निर्वाह को प्रस्तुत करती लघुकथाएं

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

अभूतपूर्व चुनौतियों से भरे युग में कुछ समस्याओं के उन्मूलन की तत्काल आवश्यकता हमारी सामूहिक चेतना में केंद्र स्तर पर है। इसी आवश्यकता को ध्यानाकार्षित करता प्रख्यात लघुकथाकारा कनक हरलालका का प्रस्तुत संग्रह ‘मुट्ठी भर धूप’ लघुकथाओं का एक ऐसा संग्रह है जो पाठकों को सुबह जागने से लेकर रात्री सोने के बीच के ऐसे कितने ही क्षेत्रों की यात्रा करा देता है, जिनसे बहुत से जनमानस जुड़े हुए हैं। इनके अतिरिक्त यह संग्रह स्वप्न में विद्यमान कल्पनाशीलता की साहित्यिक प्रतिभा की झलक भी दर्शाता है। यह कहा जा सकता है कि यह संग्रह न केवल गंभीर विषयों को संबोधित करता है, बल्कि कुछ सामान्य समस्याओं के निराकरण के लिए एक रोडमैप भी प्रदान करता है।

संग्रह की शक्तियों में से एक इसकी भाषा और कल्पना का कुशल संयोजन है। प्रथम लघुकथा ‘वैष्णव जन तो तेनेकहि ये…’ हिन्दू मंदिर के प्रसाद के उन मूल्यों को दर्शाती है जो मानवीय हैं, ‘उपज’ एक काल्पनिक उपज को दर्शाते हुए महत्वपूर्ण सन्देश भी दे रही है, ‘अनन्त लिप्सा’ मानवीय जिज्ञासा में छिपे तुष्टिकरण को दर्शा रही है, ‘लोहे के नाखून’ में 'बारह महीने के तेरह त्यौहार' सरीखे मुहावरे का प्रयोग इस रचना को उत्तम बना रहा है इस रचना का अंत भी बहुत बढ़िया है, ‘ईश्वर के दूत’ में स्त्रियाँ मृत्यु पश्चात जीवन को ही उद्धार मानते हुए यहाँ तक कि ईश्वर के दूतों को भी ठुकरा देती हैं। इस रचना का शीर्षक और अच्छा होने की संभावना है। 

लघुकथा विधा में चरित्र चित्रण न करने के कारण पात्रों के साथ पाठकों का भावनात्मक संबंध बनाने के लिए आवश्यक गहराई का अभाव होता है, लेकिन ‘शुरुआत’ और 'ब्रिलिएंट' लघुकथाएँ विधा के साथ पूरी तरह न्याय करते हुए पाठकों को पात्रों से जोड़ रही हैं। हालाँकि इन दोनों में नाम के बाद 'जी' लगाने की आवश्यकता नहीं है। 'क्रमशः' रचना का शीर्षक आकर्षित करता है और उसकी शैली और कथ्य भी उत्तम से कम नहीं हैं। 'सोने सा हाथ..सोने के साथ' दिव्यांग व्यक्तियों के लिए प्रेरणा देती हुई बेहतरीन रचना है।

यद्यपि रचनाएं मानवीय संवेदनाओं और उत्तम शिल्प से सुसज्जित हैं, तथापि गिने-चुने पहलुओं पर आलोचनात्मक मूल्यांकन की आवश्यकता है। 'वर्जित फल' रचना में पूर्णता की ओर बढ़ने में अंत में कुछ अधिक शब्द कह दिए गए हैं। ‘अक्स’ जितना अच्छा अक्स प्रारम्भ में प्रस्तुत करती है, वहीँ अंत तक पहुँच कर क्षीण गति की हो जाती है। यहाँ पाठकों को एक उद्देश्यपूर्ण दिशा दिए जाने की संभावना है।

‘गुलाबी आसमान’ अपने शीर्षक के अनुरूप ही विशिष्ट लघुकथा है। ‘समय यात्रा’ पर्यावरण सरंक्षण जैसे अति संवेदनशील मुद्दे पर उचित प्रयास है। ‘गिद्ध धर्म’ शीर्षक, शिल्प, उद्देश्य और लेखकीय कौशल का एक उत्तम उदाहरण है। ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ बढ़िया कथानक की रचना है, हालाँकि इसे और अधिक कसा जा सकता है। 'किस्सागोई' में लेखिका का पाठकों को संबोधित करते हुए कहना रचना को दिलचस्प बनाता है। 'रक्त-सम्बन्ध', 'ताला लगी जुबान' जैसी रचनाएं मानवीय बनने का एक शक्तिशाली अनुस्मारक हैं। 'स्यामी जुड़वां' सरीखी कुछ रचनाओं में शीर्षक में अप्रचलित शब्दों का प्रयोग भी है, जो शीर्षक को रचना का प्राण बनाते हैं। 'वायरस' लघुकथा विज्ञान को धता बता मानवीयता का आँचल पकड़ती है।  'रणनीति' में व्यंग्य की प्रधानता दृष्टिगोचर हो रही है। ‘भूख का मौसम’ रचना के कथ्य और शीर्षक बेहतर होने की गुंजाइश है। 'पहला पत्थर' ईमानादारी की मान्यता का ध्वस्त होना कुशलता से दर्शाती है। यह रचना संग्रह की बेहतरीन रचनाओं में से एक है। ‘मुक्ति’ लघुकथा में धर्म की आड़ में चल रहे अधर्म को बचाने की चिंता-रेखा दिखाई देती है। 'राह की चाह' स्वतंत्रता और स्वछंदता में अंतर को परिलक्षित कर रही है।

एक ग़ज़ल का शेर है, "मैं अपने आप को कभी पहचान नहीं पाया / मेरे घर में आईने थे बहोत।", 'पहचान' लघुकथा भी इसी तरह की एक रचना है। ‘अपना दर्द पराया दर्द’ लिंगभेद को कम करने की बात तो कहती है, लेकिन तीसरा बच्चा हुआ भी दिखा रही है, जनसंख्या वृद्धि जैसी समस्या पर ध्यान देना भी आवश्यक है। 'होड़ की दौड़' नई-पुरानी पीढ़ियों के विचारों में और आर्थिक अंतर पर आधारित एक अच्छी रचना है।

आदर्श लघुकथा की धुरी तो हो सकते हैं लेकिन उसके कथ्य का हिस्सा बनने से लघुकथा के भटकने का अंदेशा रहता है। इस संग्रह की अधिकतर रचनाओं में इस बात का ध्यान रख विचारोत्तेजक वर्णन हैं, जो आदर्शों को आधार बनाकर ऐसे ज्वलंत मानसिक परिदृश्य निर्मित करते हैं, जिनसे पाठक विभिन्न दुनियाओं में डूब जाता है। कुछ रचनाओं में क्षेत्रीय भाषा रचना को खूबसूरती दे रही है ।

रचनाओं में प्रेरणाओं, संघर्षों और विकास की भावनात्मक अनुगूंज को बढ़ा सकने की शक्ति निहित है। ‘देना–पावना’ सरीखी कुछ लघुकथाएं नपे-तुले शब्दों और शिल्प की सुघटता के साथ रची गई हैं हैं, जिससे पाठकों को कथा की बारीकियों को समझ पाने का पूरा अवसर मिलता है। कुछ लघुकथाएं अप्रत्याशित अंत के साथ भी हैं जो प्रश्न और कथात्मक जिज्ञासा अपने पीछे छोड़ जाती हैं। अप्रत्याशितता और संतोषजनक समाधान के बीच संतुलन बनाना एक विशिष्ट कला है, और कथानक में निहित सूक्ष्म दृष्टिकोण रचनाओं को अधिक क्षमतावान बनाता है। ये गुण इस संग्रह की लघुकथाओं में विद्यमान हैं। काफी रचनाओं में मुहावरों का प्रयोग प्रभावित करता है जैसे 'समरथ के नहींदोष गुसाईं', ‘मुक्ति मार्ग’ आदि। ‘रंगीली घास’ एक ऐसी लघुकथा है, जो कोई सशक्त हृदय और लेखनी के धनी ही कह सकते हैं, //वादों के प्लास्टिक में लपेटने पर रंग दिखता ही कहाँ है।// इस एक नए मुहावरे का उद्भव भी इस रचना को विशिष्ट बना रहा है। 

चूँकि लेखिका एक बेहतरीन कवयित्री भी हैं, अतः संग्रह की लघुकथाओं में भावनाओं और वातावरण के सामंजस्य से बुनी हुई कशीदाकारी सरीखे शिल्प में काव्यात्मक संवेदनाओं की प्रतिध्वनि भी है। ‘नव साम्राज्यवाद’, ‘सुर्ख फूलों वाली लतर’ जैसी रचनाओं में कविता स्पष्ट विद्यमान है, ‘आह्वान’ में कविता को पात्र बना कवि को शुष्कता से हरियाली की ओर बढ़ने को प्रेरित किया गया है। सुविचारित लेखन संकलन के समग्र प्रभाव को बढ़ा रहा है। इसके अतिरिक्त, यह संकलन विविध विषयों की व्यापक अवधारणा की आंतरिक पड़ताल भी करता है। जहाँ ‘'प्रश्न चिन्ह', ‘स्वयंसिद्धा’, ‘इन्कलाब’ सरीखी कुछ लघुकथाएं मानवेत्तर हैं, वहीं ‘अछूत रोजगार’, 'तबीयत', ‘गरम शॉल’, ‘शिकार’, ‘स्टार्ट... कट...’ जैसी कुछ रचनाएं यथार्थ कथ्य और पात्रों को सम्मिलित करती भी। कुछ लघुकथाएं प्रतीकात्मक और मानवीय पात्रों का मिश्रण भी हैं जैसे ‘संग–संग’।

इब्न खलदून कहते थे, "जो एक नया रास्ता खोजता है एक पथप्रदर्शक है, भले ही उसे फिर से दूसरों को ढूंढना पड़े, और जो अपने समकालीनों से बहुत आगे चलता है वह एक नेता है, भले ही सदियां बीतने के बाद उसे पहचाना जाए।" इस संग्रह की कुछ रचनाओं में पथ प्रदर्शन और भविष्य दर्शन की क्षमता है। इनमें ‘इस पार... उस पार...’, 'खाली बिस्तर', ‘उपासना’, 'अनन्त लिप्सा' जैसी रचनाएं हैं। ‘प्रतिदान’ में मृत्यु के पश्चात हिन्दू धर्म में आवश्यक स्वर्णदान को सेवा के बदले प्रतिदान कहा गया है, यह रचना संस्कृति परिष्करण पर भी बल देती है।

कुलमिलाकर, सामंजस्यपूर्ण विचारों, गूढ़ सोच, सुसंगत गति और सूक्ष्म दृष्टिकोण लिए रचनाओं का यह संग्रह कुछ आलोचनाओं के बावजूद भी लेखिका की चिन्तनशीलता, रचनात्मक क्षमता और मानवीय संवेदनाओं के प्रति उनके दायित्व निर्वाह को बखूबी प्रस्तुत करता है। विभिन्न शैलियों और दृष्टिकोणों की एक विस्तृत श्रृंखला का यह प्रयास निःसंदेह पठनीय और संग्रहनीय है।

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चंद्रेश कुमार छतलानी
9928544749
writerchandresh@gmail.com

शुक्रवार, 7 जून 2024

हिन्दी लघुकथा की उपस्थिति और सामाजिक परिदृश्य | पुस्तक समीक्षा | कथा-समय — दस्तावेजी लघुकथाएँ | समीक्षक: प्रो. मलय पानेरी

 हिन्दी लघुकथा की उपस्थिति और सामाजिक परिदृश्य


प्रो. मलय पानेरी

प्रोफेसर (हिंदी) एवं अधिष्ठाता 

मानविकी व सामाजिक विज्ञान संकाय

जनार्दन राय नागर राजस्थान विद्यापीठ, उदयपुर


साहित्य में लघुकथा एकदम नयी विधा नहीं है। इसका चलन भी अन्य विधाओं की तरह बहुत पुराना है लेकिन अभी कुछ दशकों से यह अधिक लिखी-पढ़ी जा रही है। किसी कथा का बड़ा होना महत्त्वपूर्ण नहीं है और न ही लघु होना महत्त्वपूर्ण है। दोनांे ही स्थितियों में कथा का होना जरूरी है। विधा की प्रकृति और रचनाकार की सामर्थ्य किसी रचना को दशक बताती हैं। हिन्दी में कहानी की परंपरा बहुत प्राचीन है। कहानी का कथ्य और शैली रचनाकार का निजी गुण है, इससे यह अपनी विचार पाठकों तक ले जाता है। यह उसी पर निर्भर करता है कि वह अपनी रचना को कई पन्नों में समझाना चाहता है या कुछेक परिच्छेद में ही। जैसे कम खर्चे में घर चलाना कठिन है ठीक इसी तरह कम शब्दों में समझाना मुश्किल है। इसीलिए लघुकथा में रचनात्मक-उद्देश्य चुनौतीपूर्ण होते हैं। लघुकथा लिखने-पढ़ने में ज़रूर छोटी होती है परन्तु उसके निष्कर्ष बहुत व्यापक होते हैं।

लघुकथा की स्थिति पर विचार करने से पहले मुझे एक प्रसंग का उल्लेख अप्रासंगिक नहीं लग रहा है - अक्सर हमने किसी छोटे कद के व्यक्ति के बारें में अन्य लोगों को यह कहते सुना है कि ‘अरे, उस बावन्ये से सावधान रहना, वह जितना बाहर दिख रहा है उससे दुगुना अन्दर है।‘ यह हास्य से अधिक कुछ नहीं है लेकिन लघुकथा के रचना-विधान पर एकदम फिट बैठता हैं। अर्थात् लघुकथा जिन शब्दों में रची गई है वह उसके अलावा भी बहुत कुछ कह जाती है। लघुकथा हमें अनकहे शब्दों से जोड़े रखती है। प्रश्नात्मकता में भी और सांकेतिकता में भी। रचनाकार की अनुभूतियाँ हमारे आसपास की घटनाओं से और लोक के आचरण-व्यवहार आदि से उपजती हैं परन्तु कहीं भी निरर्थक नहीं लगती हैं, उनमें एक व्यापक सत्य अन्तर्निहित रहता हैं। रचनाकार उन्हें ही उद्घाटित करता है। लघुकथा के माध्यम से रचनाकार समस्याग्रस्त समाज का ही नहीं बल्कि समस्या बन चुकी व्यक्ति-मानसिकता का भी अच्छा चित्रण करता है। लघुकथा बहुधा यथार्थ और आदर्श के अंतर पर टिकी होती है - व्यंग्य या कटाक्ष के माध्यम से। यथार्थ हमेशा समय और स्थान सापेक्ष होता है, जिसके अनुसार वह बदलता भी रहता है। बहुआयामी जीवन प्रवाह की नियमित प्रक्रिया में कई तरह की अन्तर्बाधाएँ साथ रहती ही हैं। बाधाएँ दूर करना मानवीय प्रयास है परन्तु सप्रयोजन कष्ट देना व्यक्ति के आचारण की विसंगति ही कही जाएगी। इसी विसंगति को पहचान कर रचनाकार उसके उन्मूलन की चेतना प्रदान करता है। चाहे कथा हो अथवा लघुकथा-दोनों का लक्ष्य समान है लेकिन शैली-भिन्नता के कारण लघुकथा से तीखे प्रहार की ही अपेक्षा रह जाती है। लघुकथा अपने इस गुण के लिए अधिक सराहनीय विधा बन सकी है - इसमें अतिशयोक्ति नहीं है। साथ ही यह भी कि आज लघुकथा-लेखन पर्याप्त मात्रा में हो रहा है लेकिन उसका मूल्यांकन अभी भी अपेक्षित बना हुआ है। लघुकथाओं को लघु पत्रिकाओं में तथा और भी अन्य साहित्यिक-शोध पत्रिकाओं में बहुत कम स्थान मिल रहा है। इससे इस विधा के प्रति पाठक-रूचि होने पर भी एक अभाव महसूस किया जा रहा है। इस कमी को पूरा करने के लिए अब कुछ अच्छे प्रयास हो रहे हैं - इसी शृंखला में अशोक भाटिया के संपादन में दस्तावेजी लघुकथाओं का संकलन ‘कथा-समय‘ एक उम्मीद जगाता है। अशोक भाटिया जी ने इस पुस्तक की भूमिका(ओं) में लघुकथा की प्रकृति, प्रवृति और आवश्यकता पर टिप्पणी करते हुए इसके संभावनाशील भविष्य की ओर संकेत किया है। उनका स्पष्ट मानना है कि लघुकथा जिन कम शब्दों में विषय को उघाड़ सकती है वो काम कहानी नहीं कर सकती है। लघुकथा पाठक के लिए समझ का विवेक-निर्माण करती है। परिवेश का जो यथार्थ कहानी में है वहीं लघुकथा में भी है परन्तु चुभन का अहसास यहाँ अधिक है। पत्थर से ठोकर लगते ही उठी पीड़ा की तरह लघुकथा अपना लक्ष्य-संधान कर जाती है। कोई विषय नहीं, कोई विवेचन नहीं लेकिन मस्तिष्क के विचार-तंतु खोल देती है लघुकथा। यहाँ तक कि छोटी-छोटी बातों में की गई टीका-टिप्पणी भी व्यापक विचारों को समेटे हुए होती हैं। लघुकथा की प्रवृति यही है। उसमें निष्प्रयोजनीय कुछ भी नहीं होता है। भाटिया जी का कहना - ‘‘आकार में छोटी ये कथाएँ अपने निहितार्थ और उद्देश्य में बड़ी और दूरगामी प्रभाव की रचनाएँ हैं।‘‘ बहुत उचित है। लघुकथा-लेखक की जिम्मेदारी इस दृष्टि से अधिक गंभीर एवं चुनौतीपूर्ण है। लघुकथा को लोकप्रिय भी होना है और श्रेष्ठ भी होना है - यह संतुलन ही लेखक के दायित्व को गुरूत्तर बनाता है। सामाजीकरण की प्रक्रिया कभी सरल नहीं होती है। उसे कई तरह के संकटों से गुजरना होता है। व्यवस्था की बाधाओं को लघुकथा ठीक-ठीक भाँप लेती है। यही क्षमता उसकी ताकत भी बनती है। इस पुस्तक में संकलित लघुकथाकारों ने यह लगभग प्रमाणित-सा करनें का प्रयास किया कि साहित्य की यह विधा किसी भी कोण से कमतर नहीं है। समाज-सुधार के सारे विटामिन इसमें मौजूद हैं। आवश्यकता सिर्फ इस बात की है कि कब कौनसे विटामिन का इंजेक्शन देना है। इस प्रारंभिक जाँच से ही लघुकथा अपनी पकड़ में मरीज को लेती है। भगीरथ परिहार की लघुकथाएँ उनकी वैज्ञानिक एवं मार्क्सवादी विचारों को प्रसारित करती एक समतामूलक व्यवस्था की पैरवी करती है। उनके लेखन के केन्द्र में सिर्फ इंसान है, न जाति, न धर्म, न औरत, न आदमी - केवल एक अदद मनुष्य है। वे अपनी ‘आग‘ लघुकथा में इंसानी धर्म की बात करते हैं तो ‘बैसाखियों के पैर‘ में आत्मविश्वासहीन होते जा रहे व्यक्ति के पराजय-भाव की शंका पर प्रश्न उठाते हैं लेकिन उनकी ‘अन्तहीन ऊँचाइयाँ‘ लघुकथा फिर एक आशा का संचार कर देती है। वे अपनी ‘आत्मकथ्य‘ लघुकथा में औद्यागिकीकरण को आज की आवश्यकता बताते हैं परंतु इसके साथ ही समाप्त होती गाँव-संस्कृति का उन्हें दुःख भी है। रोजगार की संभावना-तलाशते युवा वर्ग के लिए मशीनी-संस्कृति नये अवसर पैदा कर रही है। तकनीक-ज्ञान-सम्पन्न व्यक्ति इसमें खप जाएंगे - यह पहलू सुखद है लेकिन यहाँ लेखक पूँजीवाद के पंजे में फँसे अपने वर्तमान पर क्षोभ भी व्यक्त करता है। निर्माण के सुख के पीछे बहुत कुछ लुटा चुके का दंश ज्यादा पीड़ा देता है। ‘अफसर‘ लघुकथा निर्मम अफसरशाही की ही कथा है। यूनियन नेता को लुभाकर रखने और किसी भी प्रकार के आर्थिक लाभ पर कैंची चलाने की प्रवृत्ति को रेखांकित करती है। भगीरथ परिहार अपनी लघुकथाओं में व्यापक अनुभवों को संक्षेपण-कौशल से पाठक-प्रिय बना देते हैं। बलराम अग्रवाल की लघुकथाएँ हमें एक नये अनुभव से साक्षात कराती हैं। वे सामयिक स्थितियों में आधुनिकता से ग्रस्त, महानगरीय प्रभावों से युक्त जीवन-यथार्थ से हमें रू-ब-रू कराते हुए समस्या-बोध की स्थिति तक ले आते हैं। सोच और संवेदन के स्तर पर ये लघुकथाएँ हमें निरंतर कुरेदती हैं। बलराम अग्रवाल लघुकथा में सांकेतिकता को अनिवार्य मानते है। इनका यह मानना है कि ‘‘लघुकथा मुझे उतनी ही सक्षम विधा लगती है, जितनी सक्षम विधा बिरजू महाराज को नृत्य की, एम.एफ. हुसैन को चित्रांकन की और बिस्मिल्ला खां को शहनाई बजाने की लगती होगी।‘‘ अर्थात् लघुकथा उतनी ही गंभीर और गहरी विधा है जितनी कि अन्य कला-विधाएँ। विज्ञान का एक नियम है - द्रव का दाब उसकी गहराई पर निर्भर करता है। कला और साहित्य के क्षेत्र में ‘दाब‘ को हम ‘प्रभाव‘ मान लें और ‘द्रव‘ को ‘कला‘। कला की संपूर्णता भी उसकी गहराई का परिणाम होती है। बलराम जी की लघुकथाओं में हम समय के साथ संवाद करते हैं। उनकी ‘समन्दर: एक प्रेमकथा‘ एक दादी के जीवन की न केवल सुख-संयोग की कथा है, बल्कि अपनी उम्र के चौथे पड़ाव पर नॉस्टेल्जिया से स्वयं को उर्जस्वित रखने की कथा भी बन जाती है। उनकी ‘बुधुआ‘ भी इसी भाव की कहानी है पर  इसमें अभिलषित को न पा सकने का दर्द भी मौजूद है। लघुकथा की यही दशकता है कि वह बिना किसी भूमिका के अपनी बात कह जाने की क्षमता बनाये रखती है। ‘रुका हुआ पंखा‘ अति संवेदनशीलता के भाव को दर्शाने वाली लघुकथा है। एक पिता को अपनी बेटी के कमरे में बंद पंखा सशंकित करता है। उन्हें बंद पंखा किसी करूण कथा के सच को सामने लाता प्रतीत होता है। आज की युवा पीढ़ी पर यद्यपि भरोसा बढ़ा है लेकिन निराशा की स्थिति में तुरंत अपने जीवन को अवसान के अंधेरे में धकेलने की घटनाएँ बहुत आम हो गई हैं, इसलिए माता-पिता का अपने बच्चों पर विश्वास कुछ टूटता-सा भी दिखाई देता है।

साहित्य अक्सर सामाजिक चिन्ताओं से घिरा रहता है। क्योंकि मनुष्य अपने व्यक्तिगत जीवन की सफलताओं से समाज में अपनी पहचान स्थापित करना चाहता है। रचनाकार इस सत्य से परिचित है, इसीलिए उसके लेखन में समाज, घर, परिवार, परिवेश आदि अपनी पूर्णता के साथ उपस्थित रहते हैं। अशोक भाटिया जी जो इस पुस्तक के संपादक भी हैं एक अच्छे कथाकार के रूप में लब्ध प्रतिष्ठ हैं। उनकी लघुकथाएँ हमारे परिवेश और परिस्थितियों की संगति-विसंगतियों की सूक्ष्म संकेतिका जैसी हैं। ऐसा लगता है वे सप्रयोजन अपनी लेखनी को इतना कसते हैं कि एक शब्द भी कहीं ढीला पड़ता नहीं दिखता है। लघुकथा की व्याप्ति उनकी चिंता भी है - इसीलिए ‘बैताल की नई कहानी‘ का अंत विक्रम के निरूत्तर हो जाने से है। यह लघुकथा इंसानी व्यवहार पर कटाक्ष भी करती है और इंसानी धर्म को समझाती भी है। यह धर्म हम अभ्यागत के स्वागत में अपनाते थे, लेकिन आज की स्थितियाँ इसके ठीक विपरीत है। ‘तब और अब‘ लघुकथा व्यक्ति-संबंधों के निरंतर रीतते जाने की व्यथा दर्शाती है। उनकी ‘युगमार्ग‘, ‘देश‘, ‘रंग‘ लघुकथाएँ व्यक्ति की लाचारी, व्यवस्थाओं की नाकामी, समाज-भिन्न आदमी के मन की पीड़ा की कहानियाँ है परन्तु पाठक के लिए वे गहन सोच-विचार की रचनाएँ हैं। भाटिया जी की लघुकथाएँ प्रकट व्यंग्य की नहीं बल्कि छिपे व्यंग्य की कथाएँ हैं। उनमें वे व्यवस्था तंत्र को लगभग ललकारने के करीब आ कर चुप हो जाते हैं ताकि पाठक उसके मर्म और निष्कर्ष को अपने अनुसार तय कर सके। उनकी ‘लोक और तंत्र‘ लघुकथा वास्तव में लोकहीन तंत्र की कथा है। यह तंत्र भी अव्यवस्थाओं का है। लोकतंत्र में से लोक लगभग नकारा जा रहा है और उसके प्रतिरोध का कोई संगठित स्वर भी नहीं सुनाई दे रहा है। वहीं आज भी छुआछूत की मानसिकता में कहीं बदलाव नहीं दिखाई दे रहा है - ‘कपों की कहानी‘ इसी विषय को केन्द्रित करती है। कहने में सभी बातें भली हैं परन्तु करने के स्तर पर बहुत बुरी है, वहाँ हमारी जात-बिरादरी का भाव हमें ही दबा देता है। ‘भीतर का सच‘ कहानी लिंग-भेद की मानसिकता की परतें उघाड़ती हैं तो ‘लगा हुआ स्कूल‘ हमारे शिक्षा तंत्र की असलियत सामने लाती है। वहीं मनुष्य की पहचान उसकी निजी न होकर धर्माधारित हो जाती है - इसकी सटीक अभिव्यक्ति है ‘पहचान‘ लघुकथा। वास्तव में समाज और व्यवस्था का अप्रिय सच लघुकथा की रचना का मूल कारक बनता है।

सुकेश साहनी अपनी लघुकथाओं में स्वतंत्रता के बाद के वातावरण को व्यापक संदर्भों में इस रूप में प्रस्तुत करते हैं कि व्यवस्था ही अव्यवस्था में बदलकर व्यक्ति जीवन को असहनीय बना देती है। उनका यह मानना है कि लघुकथा अपने रचनात्मक उद्देश्यों को संकल्प के साथ पूरा करती है। साहित्य की अन्य विधाओं की तरह ही लघुकथा का जन्म भी लम्बी सृजन-प्रक्रिया के बाद ही संभव है। जीवन के वास्तविक पात्र ही बहुधा लघुकथा के भी नायक होते हैं। सुकेश जी इस विधा को कथ्य के हिसाब से सीमित फलक की विधा नहींे बनाते हैं, बल्कि उसे व्यापक विस्तार देते हैं। छोटे आकार की इस विधा में कितनी क्षमता भरी जा सके इसका नियोजन उनके यहाँ मौजूद है। ‘ईश्वर‘ लघुकथा परंपरागत रूप से चली आ रही ईश्वरीय आस्था की रचना है परंतु अनवरत ईश्वर खोजने की व्यर्थता भी सिद्ध करती है। ‘त्रिभुज के कोण‘ लघुकथा आर्थिक रूप से मध्यवर्ग की परेशानियों को सामने लाती है और साथ ही अभावग्रस्तता में पारिवारिक-भावना को बचा लेने में सफल हो जाती है, वहीें ‘डरे हुए लोग‘ लघुकथा हमारे शासनिक तंत्र की ज़मीनी हकीकत को बयां करती है। साधारण लोग ‘सरकारी-व्यवस्था‘ की कारगुजारियों से परिचित हैं इसीलिए उन्हें लोक-निर्माण के कार्यों में हमेशा एक संशय दिखता है, जो इस व्यवस्था का सच भी है। यह भी हम देखते आए हैं कि गरीब गरीबी की ओर एवं अमीर अमीरी की ओर ही कैसे बढ़ा चला आ रहा है। धनहीन और धनाढ्य का अंतर निरंतर बढ़ता हुआ समाज में व्यवस्थाओं के बटँवारे को असमान ही करता रहा है। समर्थ और अर्थ-सम्पन्न व्यक्ति सभी के हक के प्राकृतिक संसाधनों पर भी कब्जा करता रहा है। इसकी सटीक अभिव्यक्ति है - ‘कुआँ खोदने वाला‘ लघुकथा। इसमें लेखक ने संकेत और प्रतीक से अपना मंतव्य स्पष्ट किया है। इनकी अन्य उल्लेखनीय लघुकथाओं में ‘ठण्डी रजाई‘, ‘बिरादरी‘, ‘आधी दुनिया‘, ‘उतार‘, ‘कसौटी‘, ‘कोलाज‘ आदि हैं। इनमें रचनाकार ने उन प्रासंगिक विषयों को उठाया है, जो साधारण जन-जीवन से संबंधित हैं तथा उनसे चाहे-अनचाहे हमारा वास्ता रहता है। निस्संदेह लघुकथा जन-मानस में हरकत पैदा करने में सफल होती है।

कमल चोपड़ा की लधुकथाएँ चिकोटी काट पीड़ा पैदा करती है। रचना की यही सफलता भी है कि वह एक बारगी इंसान को रोक कर सोचने को बाध्य करें।  किसी अच्छे परिवर्तन के लिए यदि व्यक्ति लीक से हटता है तो कोई परेशानी नही है लेकिन नये की स्थापना में रोड़े अटकाने वाले भी उपस्थित होते हैं - उनकी पड़ताल करती है कमल चोपड़ा की लघुकथाएँ। पेशे से चिकित्सक कमल चोपड़ा की लेखनी समाज की पश्चगामी प्रवृत्तियों पर प्रहार करती है और इंसानी-धर्म के विरूद्ध सक्रिय शक्तियों को निस्तेज भी करती है। हमारा आसपास, समाज, परिवेश, बदलता परिदृष्य आदि ऐसे घटक है जो चिंतनशील व्यक्ति को हमेशा जगाए रखता है। इसीलिए कमल जी साम्प्रदायिकता के विरोध में ‘छोनू‘ लघुकथा लिख पाते है। ब्याजखोरी से पनप रहे भ्रष्टचार और शोषण के चक्र से मुक्ति की कामना करते उन्हें ‘है कोई‘ लघुकथा लिखनी पड़ी, वहीं सामाजिक विसंगति को केन्द्र में रखते हुए वे ‘निशानी‘ लघुकथा लिखते हैं। वास्तव में मुझे ऐसा लगता है हमारा सामाजिक परिदृष्य नयी आधुनिकता के बरअक्स ज्यादा असामाजिक हुआ है। कितनी ही रैलियाँ निकाल लें, आन्दोलन कर लें, समय-समय पर ज्ञापन देकर समाचारों में आने की औपचारिकता-पूर्ति कर लें, मानव-शृंखलाएँ बनालें फिर भी समाज में लिंग-भेद की समस्या रहेगी, बाल-मजदूरी की छिपी-प्रवृत्ति रहेगी, आर्थिक-विपन्नता के कारण कर्ज-समस्या रहेगी ही - आखिर इनसे निजात कैसे मिले! स्वार्थ-प्रवृत्ति का परित्याग यदि व्यक्ति स्वेच्छा से करेगा तो ही शायद उनसे आंशिक मुक्ति मिल सकती है। आज बाजारवाद ने भी हमारे सामने कई तरह की परेशानियाँ पैदा की हैं। सम्पन्न राष्ट्रों ने पूंजी के खेल का भयानक विस्तार किया है। इसकी अच्छी व्याख्या करती है ‘मंडी में रामदीन‘ लघुकथा। इसमें एक साधारण किसान की माली हालत का वर्णन है और उचित कीमत के लिए छटपटाते उसे अन्ततः समझौता करना पड़ता है। क्योकि जो था वह तो लुटा ही पर, खुद बच गया यही गनीमत है उसके लिए। ये लघुकथाएँ एक सीधे-सादे इंसान को बचाने की कवायद करती हैं।

माधव नागदा राजस्थान के सजग रचनाशील कथाकार हैं। हिन्दी कथा साहित्य उनके रचनात्मक अवदान से निरंतर समृद्ध होता रहा है। हिन्दी-कहानी साहित्य को अच्छी विचारवान कहानियाँ देते रहने वाले नागदा जी लघुकथा को एक प्रभावशाली विधा मानते हैं। संपूर्ण कहानियों के भी वे सिद्धहस्त लेखक हैं, इसलिए कथा-कहानी का अंतर जानते हैं। जब किसी रचनाकार के पास विषयों का खजाना भरा हो तो उसकी बेचैनी बढ़ जाती है। इसका शमन ऊर्जा के रचनात्मक उपयोग से हो पाता है। माधव जी इसी कोटि के कहानीकार हैं। वे अपनी लघुकथाओं को वक्रता से मुक्त रखते हैं। सीधे-सीधे कहने में कथा की सरलता और पाठक की रूचि बनी रहती है। इसीलिए वे लघुकथा में अभिव्यक्ति की असीम संभावनाएँ देख पाते हैं। कहानी का कहानीपन और लघुकथा की लघुता महत्त्वपूर्ण होती है। दोनों विधाएँ कहने-पढ़ने की है, अन्तर सिर्फ शैली का है। हम उनकी ‘आग‘ लघुकथा को ही लें - सामाजिक सद्भाव को कितनी आसानी से तहस-नहस किया जा सकता है - इसका सटीक उदाहरण यह है। उनकी ‘कुण सी जात बताऊँ‘ लघुकथा जाति-धर्म के विरूद्ध एक मनुष्य की खोज की कथा है। एक व्यक्ति अपने ही घर में सब तरह के काम करके सारी जातें जी लेता है तो फिर बाहर यह आडंबर क्यों? आज हम कितने भी अभिजात्य संस्कारों की बातें कर लें किंतु स्वयं के मन में जड़े जमा चुके अंध मतों से हम मुक्ति नहीं पा रहे हैं। मनुष्यता तो एक ढोंग की तरह दिखाई देती है। ‘उलझन में शताब्दियाँ‘, ‘क्या समझे‘, ‘वह चली क्यों गई‘, माँ बनाम माँ‘ आदि ऐसी रचनाएँ हैं जो व्यक्ति के दुर्भाग्य, निरुपायता, अकेलापन, भयावहता, पलायन आदि भावों को करीने से अभिव्यक्त करती हैं। माधव नागदा जी अपनी लघुकथा में सामाजिक एवं व्यक्ति-जीवन की विसंगतियों को उभारने में पूर्णतः सफल रचनाकार हैं। एक अतिरिक्त गुण की ओर संकेत करना चाहूँगा कि उनकी अधिकाँश लघुकथाएँ किसी नायक का चेहरा नहीं उभारती हैं, बल्कि वे पात्र-नाम से मुक्त रहकर सर्वनाम मंें ही विचरण करती हुई अपने निष्कर्ष पर पहुँच जाती हैं। वे अपनी लघुकथाओं में कथ्य के साथ भाषा का ऐसा सामंजस्य बिठाते हैं कि उसमें स्थानीय परिवेश जीवंत हो उठता है। माधव जी की लघुकथाएँ शीतल विधि से की गई शल्य क्रिया जैसी है। 

इसी क्रम में चन्द्रेश छतलानी की लघुकथाएँ मनुष्य और मनुष्य के बीच के अंतर को रेखांकित करती हैं। वे अपनी रचनाओं में कहीं भी कथा-विस्तार नहीं करते हैं। बहुत कम शब्दों में लघुकथा के उद्देश्यों को विस्तार देते हैं। उन्हें छद्म मनुष्य से घृणा है इसीलिए वे ‘गरीब सोच‘ कथा के माध्यम से कमाई के वैधानिक तरीके अपनाकर पनप रहे, भ्रष्टाचारियों को सामने रखते हैं। वे ‘मानव-मूल्य‘ लघुकथा में निरंतर गर्त में जा रहे जीवन-सिद्धान्तों और आदर्शो पर चिंता व्यक्त करते हैं। हमारे यहाँ मंदिर-मस्जिद मुद्दे तरह-तरह से नये रंगों में रंगे होते हैं। उनकी वास्तविक समस्याओं से किसी का संबंध नहीं होता है केवल वक्त की बर्बादी ही जैसे लक्ष्य रह गया हो। ऐसे कई मामलात हैं जो अनिर्णीत ही रह जाते हैं - धीरे-धीरे उनका मूल स्वरूप ही नष्ट होने लगता है और कोर्ट के निर्णय भी प्रभावित हो जाते हैं। ऐसी महंगी प्रक्रिया पर नश्तर चुभोती है ‘इतिहास गवाह है‘ लघुकथा। चन्द्रेश छतलानी अपनी रचनाओं में मूल समस्या के बहुत करीब रहकर अपनी प्रहार-शक्ति भाषा गढ़ते हैं। यद्यपि उनकी कथाओं में सांकेतिकता अधिक रहती है फिर भी कथा-उद्देश्य अप्रकट नहीं रह जाता है। ‘विधवा धरती‘ लघुकथा देश-प्रेम की भावना के साथ एक करूणा भी जगा देती है; ठीक इसी तरह ‘इंसान जिंदा है‘ में वे मनुष्य धर्म को सम्प्रदायवाद से ऊपर उठाते हैं तो ‘धर्म-प्रदूषण‘ में वे मनुष्य-विरोधी ताकतों को पहचानने की कोषिष करते हैं। वहीं ‘मुआवजा‘ लघुकथा सामंती अत्याचारों की अमानवीयता सामने लाती है। साधारण लोगों का जीवन हमेशा से ही प्रभु वर्ग की आततायी प्रवृत्तियों का शिकार रहा है। लेकिन अब वहाँ महिलाएँ भी इसके विरोध में खड़ी होने लगी है - यह बहुत बड़ा संदेश बन जाता है इस लघुकथा का। उनकी ‘भेद-अभाव‘ लघुकथा रोशनी और अंधेरे की उपस्थिति की द्वन्द्व-कथा है। जहाँ रचनाकार एक उम्मीद जगाता है कि जीवन में रोशनी के लिए अंधेरे पर विजय अनिवार्य होती है। 

समग्रतः हिन्दी में आज लघुकथा अच्छी स्थिति में है। सटीक और स्पष्ट कहने की इस गुणात्मक विधा में व्यंग्य, कटाक्ष, प्रतीक, संकेत आदि भी अपने महत्त्व को दर्शाते हैं। लघुकथाएँ कैसे हमारे अन्तर्मन को छू कर हमारी संवेदी योग्यताओं का मूल्यांकन भी करती हैं इसका प्रमाण हैं दीपक मशाल की रचनाएँ। वे सामाजिक विघटन को बेहतर देखते हैं। उन्हें मनुष्यता के क्षरण का बहुत क्षोभ है। समाज का दोहरा चरित्र उन्हें मानसिक क्लेश देता है इसीलिए वे अपनी रचनाओं में मूल्यों के विघटन पर खासी चिंता व्यक्त करते हैं। उनकी ‘इज्जत‘ लघुकथा व्यक्ति के दो मुँहेपन पर करारी चोट करती है। वहीं ‘बेचैनी‘ लघुकथा मानवीय संवेदना को टटोलने वाली कथा है तो ‘पानी‘ लघुकथा एक तरफ पत्रकारिता के गिरते स्तर को दर्शाती है तथा मौके का फायदा उठाने वाले लोगों की मानसिकता भी बयां करती है उनकी ‘भाषा‘ कथा अनकहे के महत्त्व को समझाती है - तो ‘औरो‘ से ‘बेहतर‘ की सांकेतिकता मनुष्य से रीत चुकी मनुष्यता की बेहतर बानगी बन गई है। ‘रेजर के ब्लेड़‘ पारिवारिक रिश्तों में खटास की अनुभूति कराती है तो ‘खबर‘ रचना फौजी जीवन की अनिष्चितता की ओर हमें ले जाती है। ‘शिकार‘ कथा लोकतंत्र और राजतंत्र के अंतर पर प्रकाश डालती है, ‘मुआवजा‘ लघुकथा सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार को बेनकाब करती है। आजकल यह भी देखने में आता है कि कैसे योग्य एवं हकदार व्यक्ति को उसके अधिकारों से वंचित किया जाए। इसी भाव पर केन्द्रित ‘फेलोशिप‘ लघुकथा बेईमानी की षड़यंत्र-सक्रियता को बेपर्दा करती है। वास्तव में लघुकथा के लिए घटना-प्रसंगों सहित विषयों की अधिकता है - इससे रचनाकार एक सभ्य समाज की निर्माण-सामग्री हमारे सामने रखता है।

समग्रतः ‘कथा-समय‘ पुस्तक हिन्दी के नये कथा-रूप की संभावनाओं से पाठकों को परिचित कराने में सफल रही है। संपादक अशोक भाटिया ने इस विधा पर विद्वान लेखकों के वक्तव्यों के साथ स्वयं का सारगर्भित अभिमत यहाँ प्रस्तुत किया है। इससे लघुकथा की आंरभिक स्थिति, प्रवृत्ति, आवश्यकता और भविष्य में इसकी ग्राहृता की वास्तविकता का पता भी चलता है। निस्संदेह इसमें संकलित लघुकथाकारों की रचनाएँ हमें हमारे समय को देखने और समझने की सामर्थ्य देती हैं। एक ही विषय के विस्तार में नहीं बल्कि खण्ड-खण्ड विषय को व्याख्यातित करना ही लघुकथा का ध्येय होना भी चाहिए। यहाँ यह उल्लेख भी आवश्यक है कि खण्ड-खण्ड का अर्थ खण्डित होना नहीं हैं। बल्कि खण्ड-खण्ड रूप में समग्र की व्याख्या करना है - इस दृष्टि से लघुकथा अपने सैद्धान्तिक गुण को बनाये रखते हुए पाठकों को आकर्षित करती रहेगी। पाठक-रूचि से ही आज लघुकथा इस सम्मानजनक सोपान तक पहुँची है - इसमें दो राय नहीं है।

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डॉ. मलय पानेरी

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