घड़ी की सुईयां / योगराज प्रभाकर
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मंगलवार, 1 फ़रवरी 2022
वरिष्ठ लघुकथाकार योगराज प्रभाकर जी की लघुकथा और रचना की कल्पना भट्ट जी द्वारा समीक्षा
रविवार, 30 जनवरी 2022
लघुकथा: टाइम पास । डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी
आज के पत्रिका समाचार पत्र में मेरी एक लघुकथा। आप सभी के सादर अवलोकनार्थ।
लघुकथा वीडियो | लघुकथा: दानिशमंद | लेखिका - देवी नागरानी | स्वर - मनिन्दर कौर छाबड़ा
शुक्रवार, 28 जनवरी 2022
कीर्तिशेष मधुदीप जी पर आधारित कुछ चुनिन्दा पोस्ट्स (लघुकथा दुनिया ब्लॉग में)
लघुकथाकार परिचय: श्री मधुदीप गुप्ता और उनकी एक रचना पर मेरी प्रतिक्रिया | डॉ. चंद्रेश कुमार छ्तलानी
https://laghukathaduniya.blogspot.com/2019/06/blog-post_19.html
मधुदीप गुप्ता दादा को श्रद्धा सुमन | कल्पना भट्ट
https://laghukathaduniya.blogspot.com/2022/01/blog-post.html
लघुकथा: पत्नी मुस्करा रही है । लेखन: श्री मधुदीप गुप्ता | वाचन - रजनीश दीक्षित
https://laghukathaduniya.blogspot.com/2021/08/blog-post_16.html
अविरामवाणी । 'समकालीन लघुकथा स्वर्ण जयंती पुस्तक चर्चा' । मधुदीप जी के लघुकथा संग्रह 'मेरी चुनिंदा लघुकथाएँ' पर डॉ. उमेश महादोषी द्वारा चर्चा
https://laghukathaduniya.blogspot.com/2021/11/blog-post_81.html
लेख | लघुकथा : रचना और शिल्प | मधुदीप
https://laghukathaduniya.blogspot.com/2020/01/blog-post_19.html
पूर्ण ईबुक | 'मेरी चुनिंदा लघुकथाएं' | लेखक: मधुदीप
https://laghukathaduniya.blogspot.com/2019/12/blog-post_13.html
'मेरी चुनिंदा लघुकथाएं' का ब्रजभाषा में अनुवाद | लेखक: मधुदीप गुप्ता | अनुवादक: रजनीश दीक्षित
https://laghukathaduniya.blogspot.com/2019/12/blog-post_76.html
बुधवार, 26 जनवरी 2022
मधुदीप गुप्ता दादा को श्रद्धा सुमन | कल्पना भट्ट
बहुत दुःख का विषय है कि कुछ दिनों पूर्व लघुकथा के एक महत्वपूर्ण स्तम्भ श्री मधुदीप अपनी जीवन यात्रा समाप्त कर अनंत की ओर प्रस्थान कर गए। ईश्वर से प्रार्थना है कि उन्हें अपने श्री चरणों में स्थान दें। लघुकथाकारा कल्पना भट्ट जी ने उन्हें श्रद्धांजलिस्वरुप उनकी रचना को अपने शब्दों में व्यक्त किया है, रचना और यह अभिव्यक्ति आप सभी के समक्ष प्रस्तुत है।
उजबक की कदमताल | मधुदीप
समय के चक्र को उल्टा नहीं घुमाया जा सकता। हाँ, बनवारीलाल आज पूरी शिद्दत के साथ यही महसूस कर रहा था। समय चालीस साल आगे बढ़ गया है मगर वह अभी भी वहीं खड़ा कदमताल कर रहा है। उसने भी कई बार समय के साथ आगे बढ़ने की बात सोची मगर परम्पराओं और दायित्वों में जकड़े पाँवों ने हमेशा ही मना कर दिया तो वह बेबस होकर रह गया।
जब सब-कुछ बदल गया है तो उसके पाँव कदमताल छोड़कर आगे क्यों नहीं बढ़ जाते ? तीनों छोटे भाई अपनी-अपनी सुविधाओं के तहत शहरों में जा बसे हैं। उनके बच्चे अब सरकारी नौकरियों में अधिकारी हैं, कुछ तो विदेश तक पहुँच गए हैं मगर वह और उसका एकमात्र पुत्र आज तक गाँव के इस कच्चे घर की देहरी को नहीं लाँघ पाए। पिता का साया बचपन में ही चारों भाइयों के सिर से उठ गया तो वह उन तीनों के लिए पिता बन गया। जमीन तो थोड़ी ही थी, यह तो माँ की कर्मठता और उसकी जीतोड़ मेहनत थी कि वह सभी छोटों को हिल्ले से लगा सका।
चार बेटों की कर्मठ माँ की इहलीला कल रात समाप्त हो गई थी और आज दोपहर वह अपने सपूतों के काँधों पर सवार होकर अपनी अन्तिम यात्रा पर जा चुकी थी। उतरती रात के पहले प्रहर में चारों भाइयों का भरा-पूरा परिवार अपने कच्चे घर की बैठक में जुड़ा हुआ था।
“बड़े भाई, अब गाँव की जमीन-घर का बँटवारा हो जाये तो अच्छा है।” छोटे ने कहा तो बनवारीलाल उजबक की तरह उसकी तरफ देखने लगा।
“हाँ, अब गाँव में हमारा आना कहाँ हो पायेगा ! माँ थी तो...” मँझले ने जानबूझकर अपनी बात अधूरी छोड़ दी तो उजबक की गर्दन उधर घूम गई।
सन्नाटे में तीनों की झकझक तेज होती जा रही है। बनवारीलाल को लग रहा है कि समय का चक्र बहुत तेजी से घूम रहा है और वह वहीं खड़ा कदमताल कर रहा है। मगर यह क्या ! उसके पाँवों के तले जमीन तो है ही नहीं। **
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इस रचना पर कल्पना भट्ट जी की अभिव्यक्ति
कथा साहित्य में यूँ तो परिवार पर आधारित अनेकों रचनाएँ पढने को मिल जाती हैं वह फिर चाहे उपन्यास हो, कहानी हो या लघुकथा ही क्यों न हो। पिता पात्र पर आधारित लघुकथाओं में से मधुदीप की लघुकथा , ‘उजबक की कदमताल’ ने इसके शीर्षक से ही मुझे अपनी तरफ खींचा। जब इस लघुकथा को पढ़ना शुरू किया तो एक परिवार का चित्र आँखों के सामने उभर कर आ रहा था, एक ऐसा परिवार जो किसी गाँव में रहता है। इस परिवार का मुखिया, ‘बनवारीलाल’ है, जो अपने को अपने ही स्थान पर पिछले चालीस वर्षों से कदमताल करता हुआ देख रहा है। इस लघुकथा की यह पंक्ति देखें:- ‘ समय चालीस साल आगे बढ़ गया है मगर वह अभी भी वहीँ खड़ा कदमताल कर रहा है।’ बनवारीलाल पात्र गाँव का सीधा-सादा सामान्यज्ञान वाला एक ऐसा व्यक्ति है जिसके लिए उसका परिवार सर्वोपरि है, वह अपनी जिम्मेदारियों के आगे खुदको झोंक देता हुआ प्रतीत होत है, ऐसा नहीं कि वह आगे नहीं बढ़ना चाहता या उसने कभी प्रयास नहीं किया हो, इस बात को सिद्ध करती हुई इन पंक्तियों को देखी जा सकती है, ‘ उसने भी कई बार समय के साथ आगे बढ़ने की बात सोची मगर परम्पराओं और दायित्वों में जकड़े पाँवों ने हमेशा ही मना कर दिया, तो वह बेबस होकर रह गया।’ समय बलवान होता है यह बात सच भी है और यथार्थ भी, समय के साथ चलना ही अकलमंदी होती है, और जो समयानुसार न चल सके उसको पिछड़ा हुआ ही माना जाता है, वह अपने को इस स्थिति से उबारना चाहे तो उबार सकता है क्योंकि समय हर इंसान को उठने के लिए मौक़ा देता है परन्तु जो व्यक्ति इस मौके का फायदा न उठा सके तो वह सच में ‘उजबक’ ही सिद्ध होता है। ‘उजबक’ का साहित्यिक अर्थ ‘अनाडी’ या ‘मुर्ख’ है। ‘बनवारीलाल’ यूँ तो चार भाइयों के परिवार में सबसे बड़ा है, परन्तु बचपन में ही पिता का साया उठ जाने के उपरान्त वह अपने तीन भाइयों के लिए पिता बन जाता है, लघुकथा की इन पंक्तियों को देखा जा सकता है,’ पिता का साया बचपन में ही चारों भाइयों के सिर से उठ गया तो वह उन तीनों के लिए पिता बन गया।’ पिता की मृत्यु के उपरान्त उनकी कर्मठ माँ की छत्रछाया में और उनके दिशानिर्देश के अनुसार बनवारीलाल खुद को ढाल लेता है। इस लघुकथा में माँ को एक कर्मठ महिला के रूप में चित्रांकित किया गया है, जो जीवन में संघर्ष को ही जीवन मान लेती है और अपने संग-संग अपने बड़े बेटे को भी उसी राह पर मोड़ देती है, बनवारीलाल अपनी माँ से अधिक प्रेम करता है, अधिक इसलिए की वह उनका आज्ञाकारी बेटा बनकर ही रह जाता है और अपने तीनों भाइयों का पिता, परन्तु वह इन दायित्वों को निभाने में इतना खो जाता है कि वह भूल जाता है कि उसका अपना भी एक इकलौता पुत्र है जिसका वह पिता है, अपने माता-पिता की संतानों की जिम्मेदारियों में वह अपने ही बेटे का पिता होने का फ़र्ज़ निभाने में चुक जाता है। यहाँ ये अतिशयोक्ति प्रतीत होती है, यहाँ बनवारीलाल का अपना परिवार भी है, जैसा की वर्णित है, ‘ मगर वह और उसका एकमात्र पुत्र आज तक गाँव के इस कच्चे घर की देहरी को नहीं लाँघ पाए’ यहाँ देहरी क्यों नहीं लाँघ पाए इस बात को स्पष्ट नहीं किया गया है, एक सामान्य व्यक्ति जब खुद कोई गलती करता है तो वह यह कभी नहीं चाहेगा कि इस गलती को उसका पुत्र या अगली पीढ़ी दोहराए, वह प्रयासरत्त रहता है कि ऐसी गलतियों को न दोहराया जाए, अगर इस बात को मान भी लिया जाए कि वह एक आज्ञाकारी बेटा था, उसकी माँ ने जैसा कहा वह वैसे ही करता चला गया, इसका अर्थ यहाँ उसने अपनी पत्नी और इकलौते बेटे को भी उसी जिम्मेदारियों की भट्टी में झोंक दिया और वह भी बिना अपनी पत्नी के विरोध के...इस बात से बनवारीलाल को मुर्ख कहा जा सकता है परन्तु क्या उसकी पत्नी(जो इस लघुकथा का एक अदृश्य पात्र है) उसके लिए... भी यही बात हो... यहाँ माँ के अनुसार घर चल रहा है, इसका अर्थ है नारी-प्रधान परिवार है.... फिर बनवारी लाल की पत्नी...? यहाँ बनवारीलाल पिता किस आधार पर बन गया यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा है।
चालीस वर्षो के बाद जब वह पीछे मुड़कर देखता है तो देखता है कि : ‘जब सब-कुछ बदल गया है तो उसके पाँव कदमताल छोड़कर आगे क्यों नहीं बढ़ जाते हैं। तीनों छोटे भाई अपनी-अपनी सुविधाओं के तहत शहरों में जा बसे हैं। उनके बच्चे अब सरकारी नौकरियों में अधिकारी हैं, कुछ तो विदेश तक पहुँच गए हैं मगर...” इन पंक्तियों से प्रतीत होता है की तीनों भाई स्वार्थी निकले, और उन्होंने अपने बच्चों को भी उन्हींकी तरह बनाया। यहाँ ऐसा प्रतीत होता है कि ये लोग पलट कर अपने गाँव वाले घर में कभी नहीं आये, और न ही बच्चे ही आये... इतने लम्बे अंतराल तक एक दूसरे से न मिलें न ही संपर्क हो यह संभव तो हो सकता है, परन्तु क्या माँ और भाई भी कभी शहर नहीं आये? क्या कोई संपर्क इतने वर्षों में रहा ही नहीं? और अगर रहा तो क्या तीनों भाइयों के परिवार से भी किसीने अपनी चुप्पी नहीं तोड़ी और न ही किसी बच्चे ने अपनी दादी और पिताजी के बड़े भाई के परिवार वालों की सुध ही ली... ऐसे अनेकों सवाल इस लघुकथा से उठते हैं... ‘चार बेटों की कर्मठ माँ की इहलीला कल रात समाप्त हो गयी थी और आज दोपहर वह अपने सपूतों के कंधों पर सवार होकर अपनी अन्तिम यात्रा पर जा चुकी थी। उतरती रात के पहले पहर में चारों भाइयों का भरा-पूरा परिवार अपने कच्चे घर की बैठक में जुड़ा हुआ था।’ यहाँ फिर एक सम्भावना जताई जा रही है कि बनवारीलाल के बाकि के तीनों भाइयों का परिवार गाँव से उतनी ही दूरी पर थी कि वह सभी उतरती रात के पहले पहर में ही वहाँ आ गए थे। या तो बनवारीलाल ने पहले ही उन सब को बुलवा लिया था... तीनो भाई स्वार्थी के साथ-साथ लालची भी प्रतीत होते हैं’ ‘बड़े भाई, अब गाँव की जमीन-घर का बँटवारा हो जाए तो अच्छा है” अब इस पंक्ति को भी देखें: ‘ जमीन तो थोड़ी ही थी, यह तो माँ की कर्मठता और उसकी जीतोड़ मेहनत थी कि वह सभी छोटों को हिल्ले से लगा सका।’यहाँ इससे यह प्रतीत होता है कि ‘ज़मीन छोटी तो थी परन्तु पर्याप्त थी’ तभी तो मेहनत करने पर इतने लोगों की परवरिश और गुज़ारा हो पाया। यहाँ यह भी प्रतीत होता है कि माँ के साथ बनवारीलाल ने भी उतनी ही निष्ठां से मेहनत की कि उन दोनों के प्रयासों के चलते उसके तीनों भाइयों के परिवार भी बन गए और उनकी नौकरियां भी लग गयी। आगे देखिये: “हाँ, अब गाँव में हमारा आना कहाँ हो पायेगा। माँ थी तो....” मँझले ने जानबूझकर अपनी बात अधूरी छोड़ दी तो उजबक की गर्दन उधर घूम गई।इसका अर्थ यह होता है कि यह लोग माँ से मिलने यहाँ आते थे... फिर भी माँ और बनवारीलाल की स्थिति जस-की-तस रही! जब तीनों भाई आगे बढ़ रहे थे, बनवारीलाल उनको आगे बढ़ते हुए देखते हुए भी अपने और अपने परिवार के लिए कुछ न सोच पाया और न ही आगे बढ़ पाया, ऐसा कार्य तो सिर्फ और सिर्फ एक उजबक ही कर सकता है, यह किसी जिम्मेदार या समझदार इंसान तो कदापि नहीं करेगा। पिता की मृत्यु के बाद बड़े होने के नाते माँ की हाजरी में खुद को पिता समझ बैठना यह बनवारीलाल की प्रथम गलती थी, जिम्मेदारियों को वह बड़े भाई के नाते भी निभा सकता था। जो व्यक्ति एक बार गलती करने के बाद अपनी गलती को सुधार ले तो वह तो सामान्य है परन्तु जो गलतियों को दोहराता रहे और बार-बार नज़र अंदाज़ करके खुदका ही घर जला ले ये काम तो सिर्फ एक मुर्ख व्यक्ति ही करेगा और ऐसे व्यक्ति का अंत बिलकुल वैसा ही होता है जैसा कि इस लघुकथा के नायक’ ‘बनवारीलाल’ का हुआ, जब माँ का दाह दाह संस्कार करने के बाद जब : सन्नाटे में तीनों की झकझक तेज होती जा रही है। बनवारीलाल को लग रहा है कि समय का चक्र बहुत तेजी से घूम रहा है और वह वहीँ खड़ा कदमताल कर रहा है। मगर यह क्या! उसकें पांवों के तले जमीन तो है ही नहीं। इस अंत से ये सिद्ध होता है कि बनवारीलाल जिस तरह से शुरू से ही मूकदर्शक बना रहा आखिर तक उसने अपने आपको कहीं भी कभी भी बदलने का प्रयास नहीं किया। उसने अपने को उजबक ही सिद्ध किया है। इस लघुकथा के माध्यम से मधुदीप ने परिवार के बदलते परिवेश का चित्रण करने का सद्प्रयास किया है, हिन्दू परिवारों में जब परिवार को ही सर्वोपरि माना जाता रहा है, वहीँ समय के पहिये की तरह लोगों की सोच भी बदल गयी है, जहाँ पहले परिवार में त्याग और समर्पण की भावनाएं होती थीं आज के भौतिक युग में स्वार्थ और लालच ने हर परिवार में डेरा जमा लिया है, ऐसे में अगर समय रहते कोई न चेते और समय को न पहचान पाए और खुद को समयानुसार न बदल पाए तो दुनिया उसको बेवकूफ जान उसका गलत फायदा ही उठाएगी जैसा कि बनवारीलाल के तीनों भाइयो ने उसके साथ किया, और खुद बनवारीलाल ने भी खुद को बदलने का प्रयास नहीं किया और दुनियावालों का साथ दिया और उनके साथ-साथ स्वयं को ही उज्बग सिद्ध कर दिया। वह दूसरों को ख़ुश रखना चाहता था, पर कहते हैं न सब को ख़ुश कर पाना कभी भी संभव नहीं होता। इस लघुकथा के माध्यम से जहाँ ‘बनवारीलाल’ को एक आदर्श स्थापित करते हुए दर्शाया गया है, वहीँ इस पात्र का दूसरा पहलू यह भी है कि सब आदर्श धरे रह जाते हैं जब समय रहते न चेत सके कोई। ‘जो चमकता दिखाई देता है वह हर बार सोना नहीं होता’, इस कहावत को सिद्ध करती हुई ‘उजबक की कदमताल’ एक बेहतरीन लघुकथा है, यहाँ बनवारीलाल के पात्र के माध्यम से मधुदीप जैसे एक कुशल लघुकथाकार ने अपने कौशल का परिचय देते हुए स्वार्थी लोगों से सावधान, और समय को पहचान खुद के व्यव्हार को तय करने की हिदायत भी दी है। और साथ में यह भी सिद्ध करने का सद्प्रयास किया है कि पिता बन जाना एक बार आसान हो सकता है परन्तु पिता बनकर उनके दायित्वों को निभा पाना उतना ही मुश्किल है जितना बिना माली के किसी भी बाग़ को उर्वरित और देख-रेख रख पाना।
- कल्पना भट्ट
बुधवार, 29 दिसंबर 2021
फेसबुक समूह साहित्य संवेद व किस्सा कोताह द्वारा आयोजित लघुकथा प्रतियोगिता का परिणाम
मंगलवार, 28 दिसंबर 2021
समकालीन लघुकथा स्वर्ण जयन्ती सम्मान 2021
समकालीन लघुकथा स्वर्ण जयन्ती सम्मान 2021 का परिणाम अविराम साहित्यिकी की प्रधान सम्पादिका की अनुमति से सभी मित्रों के समक्ष रखा जा रहा है। इस योजना में 15 प्रतिभागियों को ‘स्वर्ण जयन्ती समकालीन लघुकथा प्रतियोगिता 2021’ के आधार पर नामांकित किया गया था। इन प्रतिभागियों से आमंत्रित सामग्री- लघुकथाएँ और समकालीन लघुकथा के विकास में उनके योगदान सम्बन्धी विवरण का मूल्यांकन समकालीन लघुकथा के दो वरिष्ठ विशेषज्ञों श्री भगीरथ परिहार एवं डॉ. बलराम अग्रवाल तथा अविराम साहित्यिकी के संपादक मण्डल के दो सदस्यों- डॉ. उमेश महादोषी एवं डॉ. सुरेश पाण्डेय सपन द्वारा किया गया। दोनों विशेषज्ञों को कुल 60 अंक (प्रत्येक को लघुकथाओं के लिए 22.5 अंक तथा अन्य योगदान के लिए 7.5 अंक) निर्धारित किए गये थे। तथा संपादकीय टीम को कुल 40 अंक (डॉ. उमेश महादोषी को लघुकथाओं के लिए 20 अंक तथा अन्य योगदान के लिए 10 अंक एवं डॉ. सुरेश पाण्डेय सपन को लघुकथाओं के लिए 10 अंक) निर्धारित किए गये थे। इस प्रकार कुल 100 अंको में से 75 अंक के आधार पर लघुकथाओं का और 25 अंको के आधार पर लघुकथा के विकास में योगदान (जिसमें लघुकथा संग्रहों का प्रकाशन, सम्पादकीय योगदान, लघुकथा विमर्श/समीक्षा-समालोचना यानी आलेख कार्य, प्राप्त सम्मान-पुरस्कार आदि, इण्टरनेट आदि विभिन्न माध्यमों से अन्य योगदान आदि कार्य शामिल थे) का मूल्यांकन किया गया। समग्र मूल्यांकन (लघुकथाओं एवं लघुकथा के विकास में योगदान) के समेकित अंकों (चारों मूल्यांकनकर्ताओं के कुल योग यानी 100 अंकों) के आधार पर प्राप्त अंक (कोष्ठक में उनका मेरिट अनुक्रम) इस प्रकार हैं-
1. डॉ. संध्या तिवारी- 84.3 (1)
2. सुश्री ज्योत्स्ना ‘कपिल’- 76.0 (4)
3. सुश्री सविता इन्द्र गुप्ता- 77.1 (3)
4. श्री विरेंदर ‘वीर’ मेहता- 73.9 (6)
5. डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी- 83.6 (2)
6. डॉ. कुमार सम्भव जोशी- 74.6 (5)
7. डा. उपमा शर्मा- 71.1 (9)
8. डॉ. शैल चन्द्रा- 61.0 (13)
9. श्री सदानंद कवीश्वर- 59.3 (14)
10. सुश्री अंकिता भार्गव (स्व.)- 55.3 (15)
11. सुश्री भारती कुमारी- 62.9 (12)
12. सुश्री मीनू खरे- 72.2 (7)
13. सुश्री दिव्या शर्मा- 72.2 (8)
14. डॉ. क्षमा सिसोदिया- 67.6 (10)
15. डॉ. संगीता गाँधी- 65.1 (11)
सभी प्रतिभागियों को व्यक्तिगत सूचना उनके ई मेल से दी जा रही है।
पाँचो विजेताओं के नाम इस प्रकार हैं-
डॉ. संध्या तिवारी- प्रथम (सम्मान राशि रु. 8000/- एवं 3000/- कुल 11000/-),
डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी‘ द्वितीय (कुल सम्मान राशि रु. 5000/-),
सुश्री सविता इन्द्र गुप्ता- तृतीय (कुल सम्मान राशि रु. 3000/-),
सुश्री ज्योत्स्ना ‘कपिल’- चतुर्थ (कुल सम्मान राशि रु. 2500/-) एवं
डॉ. कुमार सम्भव जोशी- पंचम (कुल सम्मान राशि रु. 2000/-)।
सभी विजेताओं को हार्दिक बधाई।
अपरिहार्य कारणों से कोई सम्मान समारोह आयोजित करना संभव नहीं है, अतः सम्मान राशि एवं प्रमाण पत्र आगामी दो सप्ताह में पंजीकृत डाक से भेज दिये जायेंगे।
लघुकथाओं के मूल्यांकन में सभी नामांकितों के मध्य अच्छी प्रतियोगिता रही। अनेक अच्छी लघुकथाएँ सामने आयीं। सभी नामांकित/प्रतिभागी मित्रों को हार्दिक शुभकामनाएँ। सहयोग के लिए सभी प्रतिभागियों एवं आदरणीय श्री भगीरथ परिहार जी, डॉ. बलराम अग्रवाल जी एवं डॉ. सुरेश पाण्डेय ‘सपन’ का हार्दिक आभार! स्वर्ण जयन्ती समकालीन लघुकथा प्रतियोगिता 2021 के सभी प्रतिभागियों और मूल्यांकन में शामिल रहे सभी आदरणीय अग्रजों/मित्रों का एक बार पुनः आभार!
संयोजक : उमेश महादोषी
Source:
https://www.facebook.com/groups/437781706843490/posts/937908666830789